कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

नवगीत, छंद शुभगति, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर, शिव, भव, तोमर तांडव, लीला, नित, उल्लाला, चंडिका, दोहे, गणतंत्र, लघुकथा, मुक्तिका, समीक्षा

नवगीत
*
बदल गए रे
दिन घूरे के
कैक्टस
दरवाज़े पर शोभित
तुलसी चौरा
घर से बाहर
पिज्जा
गटक रहे कान्हा जू
माखन से
दूरी जग जाहिर
गौरैया
कौए न बैठते
दुर्दिन पनघट-
कंगूरे के
मत पाने
चाहे जो बोलो
मत पाकर
निज पत्ते खोलो
सरकारी
संपत्ति बेच दो
जनगण-मन में
नफरत घोलो
लड़ा-भिड़ा
खेती बिकवा दो
तार तोड़ दो
तंबूरे के
***
छंद सलिला १
*सात मात्रिक लौकिक जातीय छंद*
प्रकार २१
*१ शुभगति / सुगती छंद*
विधान पदांत गुरु
सप्त ऋषि हो
शांति-सुख बो
तप करो रे!
दुख हरो रे!
*
*आठ मात्रिक वासव जातीय छंद*
प्रकार ३४
*२ मधुभार / छवि छंद*
विधान पदांत जगण
अठ वसु! न हार
निज छवि निहार
हम कर सुधार
भू लें सँवार
*
*नौ मात्रिक आंक जातीय छंद*
प्रकार ५५
*३ गंग छंद*
विधान - पदांत यगण
जय गंग माता
जय जीव त्राता
सुधि लो हमारी
माँ क्यों बिसारी?
*
*४ निधि छंद*
विधान - पदांत लघु
मत जोड़ नौ निधि
श्रम साध्य हर सिधि
लघु ही नहीं लघु
गुरु ही नहीं गुरु
*
*दस मात्रिक दैशिक जातीय छंद*
प्रकार ८९
*५ दीप छंद*
विधान - पदांत नगल
जलाकर दस दीप
हरे तिमिर महीप
सूर्य सम वर तेज
रखे धूप सहेज
*
*ग्यारह मात्रिक रौद्र जातीय छंद*
प्रकार १४४
*६ अहीर छंद*
विधान - पदांत जगण
एकादशी अहीर
जगण अंत धर धीर
गौ पालें यदि आप
मिटे शोक दुख शाप
*
*७ शिव / अभीर छंद*
विधान- पदांत सरन
ग्यारह दीपक जला
ज्योतित सब जग बना
रखें शुद्ध भावना
फले मनोकामना
गहें रुद्र की शरण
करें भक्ति का वरण
*
*८ भव छंद*
विधान - पदांत ग या य
ग्यारस का व्रत करें
शिवाशीष नित वरें
भव बंधन न मोहे
गय पदांती सोहे
*
*बारह मात्रिक आदित्य जातीय छंद*
प्रकार - २३३
*९ तोमर छंद*
विधान - पदांत गल
बारह आदित्य श्रेष्ठ
तिमिर हरें सदा ज्येष्ठ
तोमर गुरु लघु पदांत
परहित-पथ वरें कांत
*
*१० ताण्डव छंद*
विधान - पदादि ल, पदांत ल
महादेव ताण्डव कर
अभयदान देते हर
डमरू डिमडिम डमडम
बम भोले शंकर बम
*
*११ लीला छंद*
विधान - पदांत जगण
सलिल ज्योति लिंग नाथ
पद पखार जोड़ हाथ
शक्ति पीठ कीर्ति गान
लीला का कर बखान
*
*१२ नित छंद*
विधान - पदांत रनस
कथ्य लय रस संग हों
भाव ध्वनि सत्संग हों
छंदों में रहो मगन
नये बनें करो जतन
नीति नयी नित न वरो
धैर्य सदा सलिल धरो
*
*तेरह मात्रिक भागवतजातीय छंद*
प्रकार - ३७७
*१३ उल्लाला / चंद्रमणि छंद*
विधान - ग्यारहवीं मात्रा लघु, पदांत नियम नहीं
उल्लाला तेरह कला
ग्यारहवाँ लघु ही भला
मिले चंद्र मणि लें तुरत
गुमे नहीं करिए जुगत
*
*१४ चण्डिका / धरणी छंद*
विधान - पदांत रगण
चण्डिका से दुष्ट डरें
धरणी पर छिपें विचरें
गुरु लघु गुरु रखें पदांत
यत्न मग्न रहें सुशांत
२८-१-२०२०
***
दोहे गणतंत्र के
आज बने गणतंत्र हम, जनता हुई प्रसन्न।
भेद-भाव सब दूर हो, जन-जन हो संपन्न।
*
प्रजातंत्र में प्रजा का, सेवक होता तंत्र।
जनसेवी नेता बनें, यही सफलता-मंत्र।।
*
लोकतंत्र में लोकमत, होता है अनमोल।
हानि न करिए देश की, कलम उठाएँ तोल।।
*
तंत्र न जन की पीर हर, खुद भोगे अधिकार।
तो जनतंत्र न सफल है, शासन करे विचार।।
*
ध्वजा तिरंगी देश की, आन, बान, सम्मान।
झुकने कभी न दे 'सलिल', विहँस लुटा दें जान।।
*
संविधान को जानकर, पालन करिए नित्य।
अधिकारों की नींव हैं, फ़र्ज़ मानिए सत्य।।
*
जाति-धर्म को भुलाकर, भारतीय हैं एक।
भाईचारा पालकर, चलो बनें हम नेक।।
***

२६.१.२०१८
***
हिंदी- समस्या और समाधान-
१. भारत में बोली जा रही सब भाषाओँ - बोलियों को संविधान की ८ वीं अनुसूची में सम्मिलित किया जाए ताकि इस मुद्दे पर राजनीति समाप्त हो.
२. सब भाषाओँ को नागरी लिपि में भी लिखा जाए जैसा गाँधी जी चाहते थे।
३. हिंदी को अनुसूची से निकाल दिया जाए।
४. सब हिंदी अकादमी बन्द की जाएँ ताकि नेता - अफसर हिंदी के नाम पर मौज न कर सकें।
५. भारत की जन भाषा और प्रमुख विश्ववाणी हिंदी को सरकार किसी प्रकार का संरक्षण न दे, कोई सम्मेलन न करे, कोई विश्व विद्यालय न बनाये, किसी प्रकार की मदद न करे ताकि जनगण इसके विकास में अपनी भूमिका निभा सके।
हिंदी के सब समस्याएँ राजनेताओं और अफसरों के कारण हैं। ये दोनों वर्ग हिंदी का पीछा छोड़ दें तो हिंदी जी ही जायेगी अमर हो जाएगी।
२८-१-२०१७
***
लघुकथा
लक्ष्यवेध
*
'वत्स! धनुष पर तीर चढ़ाओ और लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करो.' गुरु ने आदेश दिया.
सभी शिष्यों ने आदेश का पालन किया.
'अब बताओ तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है देश सेवा, जन कल्याण, राष्ट्र निर्माण, गरीबी उन्मूलन या सांप्रदायिक एकता?जिस पर ध्यान केंद्रित करोगे वही लक्ष्य पा सकोगे. गुरु ने प्रश्न किया. टीक से सोचकर बताओ.
'सत्ता गुरूजी!' सभी शिष्यों ने अविलम्ब उत्तर दिया.
***
२८-१-२०१७
***
मुक्तिका:
संजीव
.
घर जलाते हैं दिए ही आजकल
बहकते पग बिन पिये ही आजकल
बात दिल की दिल को कैसे हो पता?
लब सिले हैं बिन सिले ही आजकल
गुनाहों की रहगुजर चाही न थी
हुए मुजरिम जुर्म बिन ही आजकल
लाजवंती है न देखो घूरकर
घूमती है बिन वसन ही आजकल
बेबसी-मासूमियत को छीनकर
जिंदगी जी बिन जिए ही आजकल
आपदाओं को लगाओ मत गले
लो न मुश्किल बिन लिये ही आजकल
सात फेरे जिंदगी भर आँसते
कहा बिन अनुभव किये ही आजकल
...

***
नवगीत:
भाग्य कुंडली
.
भाग्य कुंडली
बाँच रहे हो
कर्म-कुंडली को ठुकराकर
.
पंडित जी शनि साढ़े साती
और अढ़ैया ही मत देखो
श्रम भाग्येश कहाँ बैठा है?
कोशिश-दृष्टि कहाँ है लेखो?
संयम का गुरु
बता रहा है
.
डरो न मंगल से अकुलाकर
बुध से बुद्धि मिली है हर को
सूर्य-चन्द्र सम चमको नभ में
शुक्र चमकता कभी न डूबे
ध्रुवतारा हों हम उत्तर के
राहू-केतु को
धता बतायें
चुप बैठे हैं क्यों संकुचाकर?
***
कृति चर्चा:
हिरण सुगंधों के: नवगीत का नवान्तरण
चर्चाकार: आचार्य संजीव
.
[कृति विवरण: हिरण सुगंधों के, नवगीत संग्रह, आचार्य भगवत दुबे, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, २००४, पृष्ठ १२१, १२०/-, अनुभव प्रकाशन ई २८ लाजपत नगर साहिबाबाद २०१००५ वार्ता ०१२० २६३०६९९ / २६३५२७७]
विश्व वांग्मय के आदिग्रंथ ‘ऋग्वेद’ में गिर, गिरा, गातु, गान आदि नामों से जिस गीति विधा को संबोधित किया गया है वह पद्य के पुरातन, मौलिक, भाव प्रवण, कलात्मक, लोकप्रिय तथा उर्वरतम छांदस सृजन पथ पर पग रखते हुए वर्तमान में ‘नवगीत’ नाम से अभिषिक्त lहै। गीत का उद्भव ऋग्वेद से सहस्त्रों वर्ष पूर्व जलप्रवाह की कलकल, पंछियों की कलरव, मेघों की गर्जन आदि सुनते आदिम मनुष्य की गुनगुनाहट से हुआ होगा। प्रस्फुटित होते सुमन-गुच्छ, कुलांचे भरते मृग वृन्द, नीलाभ नभ का विस्तार नापते खगगण और मंद-मंद प्रवाहित होते पुरवैया के झोंके मनुष्य के अंतस का साक्षात् स्वर्गिक अनंग से कराया होगा और उसके कंठ से अनजाने ही निनादित हो उठी होगी नाद-ब्रम्ह की प्रतीति से ऊर्जस्वित स्वर लहरी। आरंभ में यह इस स्वर लहरी में समाहित ‘हिरण सुगंधों के’ शब्दभेदी बाण की तरह खेत-खलिहान, पनघट-चौपाल, आँगन-दालान में कुलांचे भरते भरते रहे पर सभ्यता के विस्तार के साथ भाषिक-पिंगलीय अनुशासन में कैद होकर आज इस नवगीत संग्रह की शक्ल में हमारे हाथ में हैं।
सनातन सलिला नर्मदा के अंचल में जन्मे-बढ़े विविध विधाओं में गत ५ दशकों से सृजनरत वरिष्ठ रचनाधर्मी आचार्य भगवत दुबे रचित ‘हिरण सुगंधों के’ के नवगीत किताबी कपोल कल्पना मात्र न होकर डगर-डगर में जगर-मगर करते अपनों के सपनों, आशाओं-अपेक्षाओं, संघर्षों-पीडाओं के जीवंत दस्तावेज हैं। ये नवगीत सामान्य ग्राम्य जनों की मूल मनोवृत्ति का दर्पण मात्र नहीं हैं अपितु उसके श्रम-सीकर में अवगाहन कर, उसकी संस्कृति में रचे-बसे भावों के मूर्त रूप हैं। इन नवगीतों में ख्यात समीक्षक नामवर सिंह जी की मान्यता के विपरीत ‘निजी आत्माभिव्यक्ति मात्र’ नहीं है अपितु उससे वृहत्तर आयाम में सार्वजनिक और सार्वजनीन यथार्थपरक सामाजिक चेतना, सामूहिक संवाद तथा सर्वहित संपादन का भाव अन्तर्निहित है। इनके बारे में दुबे जी ठीक ही कहते हैं:
‘बिम्ब नये सन्दर्भ पुराने
मिथक साम्यगत लेकर
परंपरा से मुक्त
छान्दसिक इनका काव्य कलेवर
सघन सूक्ष्म अभिव्यक्ति दृष्टि
सारे परिदृश्य प्रतीत के
पुनः आंचलिक संबंधों से
हम जुड़ रहे अतीत के’
अतीत से जुड़कर वर्तमान में भविष्य को जोड़ते ये नवगीत रागात्मक, लयात्मक, संगीतात्मक, तथा चिन्तनात्मक भावभूमि से संपन्न हैं। डॉ. श्याम निर्मम के अनुसार: ‘इन नवगीतों में आज के मनुष्य की वेदना, उसका संघर्ष और जीवन की जद्दोजहद को भली-भांतिदेखा जा सकता है। भाषा का नया मुहावरा, शिल्प की सहजता और नयी बुनावट, छंद का मनोहारी संसार इन गीतों में समाया है। आम आदमी का दुःख-दर्द, घर-परिवार की समस्याएँ, समकालीन विसंगतियाँ, थके-हांरे मन का नैराश्य और स्न्वेदान्हीनाता को दर्शाते ये नवगीत नवीन भंगिमाओं के साथ लोकधर्मी, बिम्बधर्मी और संवादधर्मी बन पड़े हैं।’
महाकाव्य, गीत, दोहा, कहानी, laghukatha, gazal, आदि विविध विधाओं की अनेक कृतियों का सृजन कर राष्ट्रीय ख्याति अर्जित्कर चुके आचार्य दुबे अभंव बिम्बों, सशक्त लोक-प्रतीकों, जीवंत रूपकों, अछूती उपमाओं, सामान्य ग्राम्यजनों की आशाओं-अपेक्षाओं की रागात्मक अभिव्यक्ति पारंपरिक पृष्ठभूमि की आधारशिला पर इस तरह कर सके हैं कि मुहावरों का सटीक प्रयोग, लोकोक्तियों की अर्थवत्ता. अलंकारों का आकर्षण इन नवगीतों में उपस्थित सार्थकता, लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, बेधकता तथा रंजकता के पंचतत्वों के साथ समन्वित होकर इन्हें अर्थवत्ता दे सका है।
आम आदमी का दैनंदिन दुःख-सुख इन नवगीतों का उत्स और लक्ष्य है। दुबे जी के गृहनगर जबलपुर के समीप पतित पावनी नर्मदा पर बने बरगी बाँध के निर्माण से डूब में आयी जमीन गंवा चुके किसानों की व्यथा-कथा कहता नवगीत पारिस्थितिक विषमता व पीड़ा को शब्द देता है:
विस्थापन कर दिया बाँध ने
ढूंढें ठौर-ठिकाना
बिके ढोर-डंगर, घर-द्वारे
अब सbbब कुछ अनजाना
बाड़ी, खेत, बगीचा डूबे
काटा आम मिठौआ
उड़ने लगे उसी जंगल में
अब काले कौआ
दुबे जी ने अपनी अभिव्यक्ति के लिये आवश्यकतानुसार नव शब्द भी गढ़े हैं:
सीमा कभी न लांघी हमने
मानवीय मरजादों की
भेंट चाहती है रणचंडी
शायद अब दनुजादों की
‘साहबजादा’ शब्द की तर्ज़ पर गढ़ा गया शब्द ‘दनुजादा’ अपना अर्थ आप ही बता देता है। ऐसे नव प्रयोगों से भाषा की अभिव्यक्ति ही नहीं शब्दकोष भी समृद्ध होता है।
दुबे जी नवगीतों में कथ्य के अनुरूप शब्द-चयन करते हैं: खुरपी से निन्वारे पौधे, मोची नाई कुम्हार बरेदी / बिछड़े बढ़ई बरौआ, बखरी के बिजार आवारा / जुते रहे भूखे हरवाहे आदि में देशजता, कविता की सरिता में / रेतीला पड़ा / शब्दोपllल मार रहा, धरती ने पहिने / परिधान फिर ललाम, आयेगी क्या वन्य पथ से गीत गाती निर्झरा, ओस नहाये हैं दूर्वादल / नीहारों के मोती चुगते / किरण मराल दिवाकर आधी में परिनिष्ठित-संस्कारित शब्दावली, हलाकान कस्तूरी मृग, शीतल तासीर हमारी है, आदमखोर बकासुर की, हर मजहबी विवादों की यदि हवा ज़हरी हुई, किन्तु रिश्तों में सुरंगें हो गयीं में उर्दू लफ्जों के सटीक प्रयोग के साथ बोतलें बिकने लगीं, बैट्समैन मंत्री की हालत, जब तक फील्डर जागें, सौंपते दायित्व स्वीपर-नर्स को, आवभगत हो इंटरव्यू में, जीत रिजर्वेशन के बूते आदि में आवश्यकतानुसार अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग जिस सहजता से हुआ है, वह दुबेजी के सृजन सामर्थ्य का प्रमाण है।
गीतों के छांदस विधान की नींव पर आक्रामक युगबोधी तेवरपरक कथ्य की दीवारें, जन-आकांक्षाओं के दरार तथा जन-पीडाओं के वातायन के सहारे दुबे जी इन नवगीतों के भवन को निर्मित-अलंकृत करते हैं। इन नवगीतों में असंतोष की सुगबुगाहट तो है किन्तु विद्रोह की मशाल या हताशा का कोहरा कहीं नहीं है। प्रगतिशीलता की छद्म क्रन्तिपरक भ्रान्ति से सर्वथा मुक्त होते हुए भी ये नवगीत आम आदमी के लिये हितकरी परिवर्तन की चाह ही नहीं मांग भी पूरी दमदारी से करते हैं। शहरी विकास से क्षरित होती ग्राम्य संस्कृति की अभ्यर्थना करते ये नवगीत अपनी परिभाषा आप रचते हैं। महानगरों के वातानुकूलित कक्षों में प्रतिष्ठित तथाकथित पुरोधाओं द्वारा घोषित मानकों के विपरीत ये नवगीत छंद व् अलंकारों को नवगीत के विकास में बाधक नहीं साधक मानते हुए पौराणिक मिथकों के इंगित मात्र से कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अभिव्यक्त कर पाठक के चिंतन-मनन की आधारभूमि बनाते हैं। प्रख्यात नवगीतकार, समीक्षक श्री देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ के अनुसार: ‘अन्र्क गीतकारों ने अपनी रचनाओं में लोक जीवन और लोक संस्कृति उअताराने की कोशिश पहले भी की है तथापि मेरी जानकारी में जीतनी प्रचुर और प्रभूत मात्रा में भगवत दुबे के गीत मिलते हैं उतने प्रमाणिक गीत अन्य दर्जनों गीतकारों ने मिलकर भी नहीं लिखे होंगे।’
हिरण सुगंधों के के नवगीत पर्यावरणीय प्रदूषण और सांस्कृतिक प्रदूषण से दुर्गंधित वातावरण को नवजीवन देकर सुरभित सामाजिक मर्यादों के सृजन की प्रेरणा देने में समर्थ हैं। नयी पीढ़ी इन नवगीतों का रसास्वादन कर ग्राम-नगर के मध्य सांस्कृतिक राजदूत बनने की चेतना पाकर अतीत की विरासत को भविष्य की थाती बनाने में समर्थ हो सकती है।
२८-१-२०१५
***
नवगीत:
नाम बड़े हैं
संजीव
.
नाम बड़े हैं
दर्शन छोटे
.
दिल्ली आया उड़न खटोला
देख पड़ोसी का दिल डोला
पडी डांट मत गड़बड़ करना
वरना दंड पड़ेगा भरना
हो शरीफ तो
हो शरीफ भी
मत हो
बेपेंदी के लोटे
.
क्या देंगे?, क्या ले जायेंगे?
अपनी नैया खे जायेंगे
फूँक-फूँककर कदम उठाना
नहीं देश का मान घटाना
नाता रखना बराबरी का
सम्हल न कोई
बहला-पोटे
.
देख रही है सारी दुनिया
अद्भुत है भारत का गुनिया
बदल रहा बिगड़ी हालत को
दूर कर रहा हर शामत को
कमल खिलाये दसों दिशा में
चल न पा रहे
सिक्के खोटे
..
२५.१.२०१५

कोई टिप्पणी नहीं: