सॉनेट
उल्लू
*
एक ही उल्लू काफी था।
हर शाख पे उल्लू बैठा है।
केवल मन मंदिर बाकी था।।
भय कोरोना का पैसा है।।
सोहर बन्ना बन्नी गाने।
जुड़ने से हम कतराते हैं।
लाशें बिन काँध पड़ी रहतीं।।
हम बलिपंथी भय खाते हैं।।
हमसे नारे लगवालो तुम।
हम संसद में जा झगड़ेंगे।
कविताएँ सौ लिख लेंगे हम।।
हर दर पर नाकें रगड़ेंगे।।
उल्लू को उल्लू मत बोलो।
उल्लू वंदन कर यश ले लो।।
१-२-२०२२
•••
कार्यशाला
दोहा से कुण्डलिया
*
मन जब स्थिर है नहीं, तब क्या पूजा पाठ।
पढ़ा रही है जिन्दगी,सोलह दूनी आठ।। -सुनीता पांडेय 'सुरभि'
प्रथम चरण - ११ ११ ११ २ १२ = ११ मात्रा, १३ होनी चाहिए। 'स्थि' की मात्रा 'त्य' की तरह १ है।
'मन एकाग्र न हो अगर' या 'जब मन हो एकाग्र न तब' करने से अर्थ बदले बिना न्यून मात्रा दोष समाप्त किया जा सकता है।
दोहा
जब मन हो एकाग्र न तब, क्या पूजा क्या पाठ?
पढ़ा रही है ज़िंदगी, सोलह दूनी आठ।। -सुनीता पांडेय 'सुरभि'
रोला
सोलह दूनी आठ, पुत्र है पिता पिता का।
लगे गलत पर सत्य, लक्ष्य है जन्म चिता का।।
अपने गैर; गैर अपने, मन मत हो उन्मन।
सार्थक पूजा-पाठ, अगर एकाग्र रहे मन।। - संजीव
*
दोहा
आओ पर जाना नहीं, जाने का क्या काम।
नेह नर्मदा छोड़ कर, लें क्यों दूजा नाम।। -संतोष शुक्ला
रोला
लें क्यों दूजा नाम, एक जब पार लगाए।
गुरु-गोविंद प्रणाम, सिंधु भव पार कराए।।
मन में रख संतोष, सलिल नव गीत सुनाओ।
सरस भाव लय बिंब, गीत में भरकर गाओ।। - संजीव
***
माहिया
*
हो गई सुबह आना
उषा से सूर्य कहे
आकर फिर मत जाना
*
तुम साथ सदा देना
हाथ हाथ में ले
जीवन नौका खेना
*
मैं प्राण देह है तू
दो होकर भी एक
मैं प्रीत; नेह है तू
*
रस-भाव; अर्थ-आखर
गति-यति; रूप-अरूप
प्रकृति-पुरुष; वधु-वर
*
कारक किसका कौन?
जीव न जो संजीव
साध-साधना मौन
*
कौन कहाँ भगवान?
देह अगेह अजान
गुणमय ही गुणवान
*
सर्व व्याप्त ओंकार
वही एक आधार
मैं-तुम हम साकार
*
जीवन पूजन जान
नेह नर्मदा-स्नान
कर; तज निज-पर भान
*
मत अहंकार में डूब
गिरते झाड़-पहाड़
पर दूब खूब की खूब
१-२-२०२०
***
मुक्तक
शब्देश है, भावेश है, छ्न्देश मौन बसंत है
मिथलेश है, करुणेश है, कहिए न कौन बसंत है?
कांता है, कल्पना है, ज्योति, आभा-प्रभा भी
विनीता, मधु, मंजरी, शशि, पूर्णिमा बसंत है
*
वंदना है, प्रार्थना है, अर्चना बसंत है
साधना-आराधना है, सर्जना बसंत है
कामना है, भावना है, वायदा है, कायदा है
मत इसे जुमला कहो उपासना बसंत है
*
मन में लड्डू फूटते आया आज बसंत
गजल कह रही ले मजा लाया आज बसंत
मिली प्रेरणा शाल को बोली तजूं न साथ
सलिल साधना कर सतत छाया आज बसंत
*
मुश्किल से जीतेंगे कहता बसन्त हो
किंचित ना रीतेंगे कहता बसन्त हो
पत्थर को पिघलाकर मोम सदृश कर देंगे
हम न अभी बीतेंगे कहता बसन्त हो
*
अक्षर में, शब्दों में, बसता बसन्त हो
छंदों में, बन्दों में हँसता बसन्त हो
विरहा में नागिन सा डँसता बसन्त हो
साजन बन बाँहों में कसता बसन्त हो
*
अपना हो, सपना हो, नपना बसन्त हो
पूजा हो, माला को जपना बसन्त हो
मन-मन्दिर, गिरिजा, गुरुद्वारा बसन्त हो
जुम्बिश खा अधरों का हँसना बसन्त हो
*
साथ-साथ थाम हाथ ख्वाब में बसन्त हो
अँगना में, सड़कों पर, बाग़ में बसन्त हो
तन-मन को रँग दे बासंती रंग में विहँस
राग में, विराग में, सुहाग में बसन्त हो
*
श्वास-श्वास आस-आस झूमता बसन्त हो
मन्ज़िलों को पग तले चूमता बसन्त हो
भू-गगन हुए मगन दिग-दिगन्त देखकर
लिए प्रसन्नता अनंत घूमता बसन्त हो
१-२-२०१७
***
अभिनव प्रयोग-
उल्लाला गीत:
जीवन सुख का धाम है
संजीव 'सलिल'
*
जीवन सुख का धाम है,
ऊषा-साँझ ललाम है.
कभी छाँह शीतल रहा-
कभी धूप अविराम है...*
दर्पण निर्मल नीर सा,
वारिद, गगन, समीर सा,
प्रेमी युवा अधीर सा-
हर्ष, उदासी, पीर सा.
हरी का नाम अनाम है
जीवन सुख का धाम है...
*
बाँका राँझा-हीर सा,
बुद्ध-सुजाता-खीर सा,
हर उर-वेधी तीर सा-
बृज के चपल अहीर सा.
अनुरागी निष्काम है
जीवन सुख का धाम है...
*
वागी आलमगीर सा,
तुलसी की मंजीर सा,
संयम की प्राचीर सा-
राई, फाग, कबीर सा.
स्नेह-'सलिल' गुमनाम है
जीवन सुख का धाम है...
१-२-२०१३
***
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022
सॉनेट, दोहा, कुण्डलिया, माहिया, मुक्तक, उल्लाला गीत
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