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मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022

महादेवी, लघु नाटिका

स्मरण महीयसी महादेवी जी:   

संवाद शैली में संस्मरणात्मक लघु नाटिका  

१. राह
*
एक कमरे का दृश्य: एक तख़्त, दो कुर्सियाँ एक मेज। मेज पर कागज, कलम, कुछ पुस्तकें, कोने में कृष्ण जी की मूर्ति या चित्र, सफ़ेद वस्त्रों में आँखों पर चश्मा लगाए एक युवती और कमीज, पैंट, टाई, मोज़े पहने एक युवक बातचीत कर रहे हैं। युवक कुर्सी पर बैठा है, युवती तख़्त पर बैठी है।  
नांदीपाठ: 
उद्घोषक: दर्शकों! प्रस्तुत है एक संस्मरणात्मक लघु नाटिका 'विश्वास'। यह नाटिका जुड़ी है एक ऐसी गरिमामयी महिला के जीवन से जिसने पराधीनता के काल में, परिवार में स्त्री-शिक्षा का प्रचलन न होने के बाद भी न केवल उच्च शिक्षा ग्रहण की, अपितु देश के स्वतंत्रता सत्याग्रह में योगदान किया, स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में असाधारण कार्य किया, हिंदी साहित्य की अभूतपूर्व श्रीवृद्धि की, अपने समय के सर्व श्रेष्ठ पुरस्कारों के लिए चुनी गयी, भारत सरकार ने उस पर डाक टिकिट निकले, उस पर अनेक शोध कार्य हुए, हो रहे हैं और होते रहेंगे। नाटिका का नायक एक अल्प ज्ञात युवक है जिसने विदेश में चिकित्सा शिक्षा पाने के बाद भी भारतीयता के संस्कारों को नहीं छिड़ा और अपने मूक समर्पण से प्रेम और त्याग का एक नया उदाहरण स्थापित किया।   में सृजनात्मक काल्पनिकता की छूट ली जाना स्वाभाविक है।  
 
युवक: 'चलो।'
युवती: "कहाँ।"
युवक: 'गृहस्थी बसाने।'
युवती: "गृहस्थी आप बसाइए, मैं तो नहीं चल सकती?" 
युवक: 'तुम्हारे बिना गृहस्थी कैसे बस सकती है? तुम्हारे साथ ही तो बसाना है। मैं विदेश में कई वर्षों तक रहकर पढ़ता रहा हूँ लेकिन मैंने कभी किसी की ओर  आँख उठाकर भी नहीं देखा।'
युवती: "यह क्या कह रहे हैं? ऐसा कुछ तो मैंने  आपके बारे में सोचा भी नहीं।"
युवक: 'फिर क्या कठिनाई है? मैं जानता हूँ तुम साहित्य सेवा, महिला शिक्षा, बापू के सत्याग्रह और न जाने किन-किन आंदोलनों से जुड़ चुकी हो। विश्वास करो तुम्हारे किसी काम में कोई बाधा न आएगी। मैं खुद तुम्हारे कामों से जुड़कर सहयोग करूँगा।' 
युवती: "मुझे आप पर पूरा भरोसा है, कह सकती हूँ खुद से भी अधिक, लेकिन मैं गृहस्थी बसाने के लिए चल नहीं सकती।"
युवक: 'समझा, तुम निश्चिन्त रहो। घर के बड़े-बूढ़े कोई भी तुम्हें घर के रीति-रिवाज़ मानने के लिए बाध्य नहीं करेंगे, तुम्हें पर्दा-घूँघट नहीं करना होगा। मैं सबसे बात कर, सहमति लेकर ही आया हूँ।'
युवती: "अरे बाप रे! आपने क्या-क्या कर लिया? अच्छा होता सबसे पहले मुझसे ही पूछ लेते, तो इतना सब नहीं करना पड़ता।, यह सब व्यर्थ हो गया क्योंकि मैं तो गृहस्थी बसा नहीं सकती।"
युवक: 'ओफ्फोह! मैं भी पढ़ा-लिखा बेवकूफ हूँ, डॉक्टर होकर भी नहीं समझा, कोई शारीरिक बाधा है तो भी चिंता न करो। तुम जैसा चाहोगी इलाज करा लेंगे, जब तक तुम स्वस्थ न हो जाओ और तुम्हारा मन न हो मैं तुम्हें कोई संबंध बनाने के लिए नहीं कहूँगा।'
युवती: "इसका भी मुझे भरोसा है। इस कलियुग में ऐसा भी आदमी होता है, कौन मानेगा?"
युवक: 'कोई न जाने और न माने, मुझे किसी को मनवाना भी नहीं है, तुम्हारे अलावा।'
युवती: "लेकिन मैं तो यह सब मानकर भी गृहस्थी के लिए नहीं मान सकती।"
युवक: 'अब तुम्हीं बताओ, ऐसा क्या करूँ जो तुम मान जाओ और गृहस्थी बसा सको। तुम जो भी कहोगी मैं करने के लिए तैयार हूँ।'
युवती: "ऐसा कुछ भी नहीं है जो मैं करने के लिए कहूँ।"
युवक: 'हो सकता है तुम्हें विवाह का स्मरण न हो, तब हम नन्हें बच्चे ही तो थे। ऐसा करो हम दुबारा विवाह कर लेते हैं, जिस पद्धति से तुम कहो उससे, तब तो तुम्हें कोई आपत्ति न होगी?'
युवती: "यह भी नहीं हो सकता, जब आप विदेश में रहकर पढ़ाई कर रहे थे तभी मैंने सन्यास ले लिया था। सन्यासिनी गृहस्थ कैसे हो सकती है?"
युवक: 'लेकिन यह तो गलत हुआ, तुम मेरी विवाहिता पत्नी हो, किसी भी धर्म में पति-पत्नी दोनों की सहमति के बिना उनमें से कोई एक या दोनों को  संन्यास नहीं दिया जा सकता। चलो, अपने गुरु जी से भी पूछ लो।'
युवती: "चलने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप ठीक कह रहे हैं लेकिन मैं जानती हूँ कि आप मेरी हर इच्छा का मान रखेंगे इसी भरोसे तो गुरु जी को कह पाई कि मेरी इच्छा में आपकी सहमति है। अब आप मेरा भरोसा तो नहीं तोड़ेंगे यह भी जानती हूँ।"
युवक: 'अब क्या कहूँ? क्या करूँ? तुम तो मेरे लिए कोई रास्ता ही नहीं छोड़ रहीं।'
युवती: "रास्ता ही तो छोड़ रही हूँ। मैं सन्यासिनी हूँ, मेरे लिए गृहस्थी की बात सोचना भी कर्तव्य से च्युत होने की तरह है। किसी पुरुष से एकांत में बात करना भी वर्जित है लेकिन तुम्हें कैसे मना कर सकती हूँ? मैं नियम भंग का प्रायश्चित्य कर लूँगी।"
युवक: 'ऐसा करो हम पति-पत्नी की तरह न सही, सहयोगियों की तरह तो रह ही सकते हैं, जैसे श्री श्री रामकृष्ण देव और माँ सारदा रहे थे, जयप्रकाश नारायण जी और प्रभावती जी रह रहे हैं। ।'
युवती: "आपके तर्क भी अनंत हैं। वे महापुरुष थे, हम सामान्य जन हैं, कितने लोकापवाद होंगे? सोचा भी है?"
युवक: 'नहीं सोचा और सच कहूँ तो मुझे सिवा तुम्हारे किसी के विषय में सोचना भी नहीं है।'
युवती: "लेकिन मुझे तो सोचना है, सबके बारे में। मैं तुम्हारे भरोसे सन्यासिनी तो हो गई लेकिन अपनी सासू माँ को उनकी वंश-बेल बढ़ते देखने से भी अकारण वंचित कर दूँ तो क्या विधाता मुझे क्षमा करेगा? विधाता की छोड़ भी दूँ तो मेरा अपना मन मुझे कटघरे में खड़ा कर जीने न देगा। जो हो चुका उसे अनहुआ तो नहीं किया जा सकता। विधि के विधान पर न मेरा वश है न आपका। चलिए, हम दोनों इस सत्य को स्वीकार करें। आपको विवाह बंधन से मैंने उसी क्षण मुक्त कर दिया था, जब सन्यास लेने की बात सोची थी। आप अपने बड़ों को पूरी बात बता दें, जहाँ चाहें वहाँ विवाह करें। मैं बड़भागी हूँ जो आपके जैसे व्यक्ति से सम्बन्ध जुड़ा। अपने मन पर किसी तरह का बोझ न रखें।"
युवक: 'तुम तो चट्टान की तरह हो, हिमालय सी, मैं खुद को तुम्हारी छाया से भी कम आँक रहा हूँ। ठीक है, तुम्हारी ही बात रहे। तुम प्रायश्चित्य करो, मैंने तुमसे तुम्हारा नियम भंग कर बात की, दोषी हूँ, इसलिए मैं भी प्रायश्चित्य करूँगा। सन्यासिनी को शेष सांसारिक चिंताएँ नहीं करना चाहिए। तुम जब जहाँ जो भी करो उसमें मेरी पूरी सहमति मानना। जिस तरह तुमने सन्यास का निर्णय मेरे भरोसे लिया उसी तरह मैं भी तुम्हारे भरोसे इस अनबँधे बंधन को निभाता रहूँगा। कभी तुम्हारा या मेरा मन हो या आकस्मिक रूप से हम कहीं एक साथ पहुँचे तो तुमसे बात करने में या कभी आवश्यकता पर सहायता लेने से तुम खुद को नहीं रोकोगी, मुझे खबर करोगी तुमसे बिना पूछे यह विश्वास लेकर जा रहा हूँ। तुम यह विश्वास न तो तोड़ सकोगी, न मना कर सकोगी। तुम अशिक्षा से लड़ रही हो, मैं अपने चिकित्सकीय ज्ञान से बीमारियों से लड़ूँगा। इस जन्म में न सही अगले जन्म में तो एक ही होगी हमारी राह।' 
कुछ समय तक युवक युवती की और देखता रहा, किन्तु युवती का झुका सर ऊपर न उठता देख और अपनी बात का उत्तर न मिलता देख नमस्ते कर चल पड़ा बाहर की ओर। 
[मंच पर नांदी का प्रवेश: दर्शकों क्या आपने इन्हें पहचाना? इस नाटिका के पात्र हैं हिंदी साहित्य की अमर विभूति महीयसी महादेवी वर्मा जी और उनके बचपन में हुए बाल विवाह के पति डॉ. स्वरूप नारायण वर्मा, जो चिकित्सा शिक्षा प्राप्त करने विदेश चले गये थे।] 
***
संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 

चलभाष: ०७६९९९५५९६१८ ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com
संस्मरण :

संस्कारधानी जबलपुर की नातिन महीयसी महादेवी  
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
नेह नर्मदा धार:
महीयसी महादेवी वर्मा केवल हिन्दी साहित्य नहीं अपितु विश्व वांग्मय की ऐसी धरोहर हैं जिन्हें पढ़ने और समझने के लिये पाठक को उनके धरातल तक उठना होगा। उनका विराट व्यक्तित्व और उदात्त कृतित्व उन्हें एक दिव्य आभा से मंडित करता था तो उनकी निरभिमानता, सहजता और ममतामय दृष्टि नैकट्य की अनुभूति कराती थी। सफलता, यश और मान्यता के शिखर पर भी उनमें जैसी सरलता, सहजता, विनम्रता और सत्य के प्रति दृढ़ता थी वह अब दुर्लभ है। पूज्य बुआश्री ने जिन अपने साहित्य में जिन मूल्यों का सृजन किया उन्हें अपने जीवन में मूर्तिमंत भी किया। उनका लंबा सामाजिक-साहित्यिक कार्यकाल अविवादित और निष्कलुष रहा। उन्होंने सबको वरिष्ठों-समकालिकों-कनिष्ठों सबको सदा स्नेह-सम्मान दिया और उन सबसे शतगुण अधिक आशीष-सम्मान और श्रृद्धा पायी। उनके निकट हर अंतर्विरोध इस तरह विलीन हो जाता था जैसे पावस में पावक।
हर बड़ा-छोटा, साहित्यकार-कलाकार, समाजसेवी-राजनेता, विशिष्ट-सामान्य, भाषा -भूषा, पंथ-संप्रदाय, क्षेत्र-प्रान्त, मत-विमत का अंतर भूलकर उनके निकट आते ही उनके पारिवारिक सदस्य की तरह नेह-नर्मदा में अवगाहन कर धन्यता की प्रतीति कर पाता था। महीयसी ने महाकवि प्रसाद, दद्दा (मैथिलीशरण गुप्त), दादा (माखनलाल चतुर्वेदी), महापंडित राहुल जी, महाप्राण निराला, युगकवि पन्त, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, इलाचंद्र जोशी, अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, यशपाल, दिनकर, फणीश्वर नाथ 'रेणू', बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन', शिवमंगल सिंह 'सुमन', धर्मवीर भारती, पांडेय बेचैन शर्मा 'उग्र' आदि तीन पीढ़ियों के सरस्वती सुतों को अपने सम्मान, स्नेह और वात्सल्य से सराबोर किया। समस्त साहित्यिक-सामाजिक-राजनैतिक अंतर्विरोध उनकी उपस्थिति में स्वतः विलीन या क्षीण हो जाते थे। उन्हें बापू और जवाहर से आशीष मिला तो अटल जी और इंदिरा जी से आत्मीयता और सम्मान।
ममता की शुचि मूर्ति वे, नेह नर्मदा धार।
माँ वसुधा का रत्न थीं, श्वासों का श्रृंगार॥

अपनेपन की चाह :

महादेवी जी में चिरंतन आदर्शों को जीवंत करने की ललक के साथ नव परम्पराओं से सृजित करने की पुलक भी थी। वे समग्रता की उपासक थीं। गौरवमयी विरासत के साथ सामयिक समस्याओं के सम्यक समाधान में उनकी तत्परता स्तुत्य थी। वे अपने सृजन संसार में लीन रहते हुए भी राष्ट्रीय, सामाजिक, पारिवारिक नातों तथा अपने उत्स के प्रति सतत सचेष्ट रहती थीं। उनका परिवार रक्त संबंधों नहीं, स्नेह संबंधों से बना था। अजनबी को अपना बना लेने में उनका सानी नहीं था। वे प्रशंसा का अमृत, आलोचना का गरल, सुख की धूप, दुःख की छाँव समभाव से ग्रहण कर निर्लिप्त रहती थीं।
सनातन सलिला नर्मदा तट पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर उन्हें अतिप्रिय रहा। जब भी अवसर मिलता वे जबलपुर आतीं और यहाँ के रचनाकारों पर आशीष बरसातीं। इस निकटता का प्रत्यक्ष तात्कालिक कारण रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी', केशव प्रसाद पाठक मुंह बोले भाई नर्मदा प्रसाद खरे तथा उनकी प्राणप्रिय सखी सुभद्रा कुमारी चौहान थीं जो अपने पति ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान के साथ स्वतंत्रता सत्याग्रहों की अलख जलाये थीं। दादा भी कर्मवीर समाचार पत्र के प्रकाशन सिलसिले में बहुधा जबलपुर रहते थे।

जिन खोजा तिन पाइयाँ :

जबलपुर से लगाव का परोक्ष कारण महादेवी जी की ननिहाल थी जो किसी चित्रपटीय कथा से अधिक रोमांचक घटनाओं के प्रवाह में उनसे छूट चुकी थी। दो पीढ़ियों के मध्य का अंतराल नयी पीढ़ियों का अपरिचय बन गया। वे किसी से कुछ न कहतीं पर मन से चाहतीं रहीं कि बिछुड़े परिजनों से कभी मिल सकें। जबलपुर आगमन अथवा जबलपुर के किसी सज्जन से भेंट होने पर पूछतीं कि कोई संपर्क सूत्र मिल सके किन्तु निराशा ही हाथ लगती। अंततः, उनके अंतिम जबलपुर प्रवास में उनके धैर्य का बाँध टूट गया। उन्होंने नगर निगम भवन के समक्ष सुभद्रा जी की मूर्ति के समीप हुए कवि सम्मेलन को अध्यक्षीय आसंदी से संबोधित करते हुए जबलपुर में अपने ननिहाल होने की जानकारी दी तथा अपेक्षा की कि उस परिवार में से कोई सदस्य हों तो उनसे मिले। कुछ दिनों बाद साप्ताहिक हिंदुस्तान के होली विशेषांक में उनका एक साक्षात्कार छपा। प्रसिद्ध पत्रकार पी. डी. टंडन से चर्चा करते हुए उन्होंने पुनः परिवार की बिखरी शाखा से मिलने-जुड़ने की कामना व्यक्त की। कहते हैं 'जहाँ चाह, वहाँ राह' उनकी यह चाह किसी निज हित के कारण नहीं, स्नेह संबंध की उस टूटी कड़ी से जोड़ने की थी जिसे उनकी माताश्री प्रयास करने पर भी नहीं जोड़ सकीं थीं। शायद वे अपनी माँ की अधूरी इच्छा को पूरा करना चाह रही थीं। नियति को उनकी चाह के आगे झुकना पड़ा। रहीम ने कहा है-

'रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय।'

महादेवी जी की जिजीविषा ने टूटे धागे को जोड़ ही दिया। अपने सामान्य कार्यक्रम के निर्धारित भ्रमण से लौटने पर मैंने उनके ये दोनों वक्तव्य मैंने पढ़े, तब तक वे वापिस जा चुकी थीं । मैं आजीविका से अभियंता तथा शासकीय सेवा में होने पर भी उन दिनों रात्रिकालीन कक्षाओं में पत्रकारिता में डिप्लोमा कर रहा था। महादेवी जी द्वारा बताया विवरण परिवार से मेल खाता था। उत्सुकतावश मैंने परिवार के बुजुर्गों से चर्चा की। उन दिनों का अनुशासन... कहीं डाँट पड़ी, कहीं से अधूरी जानकारी... अधिकांश अनभिज्ञ थे। मेरे पिता जी (राजबहादुर वर्मा) अपनी पीढ़ी में सबसे छोटे थे, उनसे ज्ञात हुआ कि उनके बचपन में  उनकी एक बुआ अपनी बिटिया के साथ आती थीं, बाद में उनका आना-जाना बंद हो गया था किन्तु कारण की जानकारी पिताजी को भी नहीं थी। 
   
कुछ निराशा के बाद मैंने अपने परिवार का वंश-वृक्ष (शजरा) बनाया, इसमें महादेवी जी या उनके माता-पिता का नाम कहीं नहीं था। ऐसा लगा कि यह परिवार वह नहीं है जिसे महीयसी खोज रही हैं। अन्दर का पत्रकार कुलबुलाता रहा... खोजबीन जारी रही... एक दिन जितनी जानकारी मिली थी वह महीयसी से भेजते हुए निवेदन किया कि कुछ बड़े आपसे रिश्ता होने से स्वीकारते हैं पर नहीं जानते कि क्या नाता है? मुझे नहीं मालूम किस संबोधन से आपको पुकारूँ? आपके आव्हान पर जो जुटा सका भेज रहा हूँ।

आप ही कुछ बता सकें तो बताइये। मैं आपकी रचनायें पढ़कर बड़ा हुआ हूँ। इस बहाने ही सही आपका आशीर्वाद पाने के सौभाग्य से धन्य हो सकूँगा। उन जैसी प्रख्यात और अति व्यस्त व्यक्तित्व किसी अजनबी के पत्र पर कोई प्रतिक्रिया दे इसकी मैंने आशा ही नहीं की थी किंतु लगभग एक सप्ताह बाद एक लिफाफे में प्रातः स्मरणीया महादेवी जी का ४ पृष्ठों का पत्र मिला। पत्र में मुझ पर आशीष बरसाते हुए उन्होंने लिखा था कि किसी समय कुछ विघ्न संतोषी संबंधियों द्वारा पनपाये गए संपत्ति विवाद में एक खानदान की दो शाखाओं में ऐसी टूटन हुई कि वर्तमान पीढ़ियाँ अपरिचित हो गयीं। पत्र के अंत में उन्होंने आशीष दिया कि धन का मोह मुझे कभी न व्यापे। मैं धन्य हुआ। 

उनके पत्र से विदित हुआ कि उनके नाना स्व. खैरातीलाल जी मेरे परबाबा स्व. सुंदर लाल तहसीलदार के सगे छोटे भाई थे। पिताजी जिन चिन्जा बुआ की चर्चा करते थे उनका वास्तविक नाम हेमरानी देवी था और वे महादेवी जी की माता श्री थीं। हमारे कुल में काव्य साधन के प्रति लगाव हर पीढ़ी में रहा पर प्रतिभाएँ अवसर के अभाव में घर-आँगन तक सिमट कर रह गयीं। सुंदरलाल व खैरातीलाल दोनों भाई शिव भक्त थे। शिव भक्ति के स्तोत्र रचते-गाते। उनसे यह विरासत हेमरानी को मिली। बचपन में हेमरानी को भजन रचते-गाते देख-सुनकर महादेवी जी ने पहली कविता लिखी-

माँ के ठाकुर जी भोले हैं।
ठंडे पानी से नहलातीं।
गीला चंदन उन्हें लगातीं।
उनका भोग हमें दे जातीं।
फिर भी कभी नहीं बोले हैं।
माँ के ठाकुर जी भोले हैं...

माँ से शिव-पार्वती, नर्मदा, सीता-राम, राधा- कृष्ण के भजन-आरती, तथा पर्वों पर बुन्देली गीत सुनकर बचपन से ही महादेवी जी को काव्य तथा हिन्दी के प्रति लगाव के संस्कार मिले। माँ की अपने मायके से बिछड़ने की पीड़ा अवचेतन में पोसे हुए महादेवी जी अंततः टूटी कड़ी से जुड़ सकीं। पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों का सुफल मुझे इस रूप में मिला कि मैं उनके असीम स्नेह का भाजन बना।

जो महान उसमें पले, अपनेपन की चाह।
क्षुद्र मनस जलता रहे, मन में रखकर डाह।
बिंदु सिंधु से जा मिला:
कबीर ने लिखा है:
जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ।
जो बौरा बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ।
पूज्या बुआश्री से मिलने की उत्कंठा मुझे इलाहाबाद ले गयी। उनके आवास पर पहुँचा तो ज्ञात हुआ कि वे किसी कार्यक्रम की अध्यक्षता हेतु बाबा विश्वनाथ की नगरी वाराणसी गयी हैं । इलाहबाद में अन्य किसी से घनिष्ठता थी नहीं सो निराश लौटने को हुआ कि एक कार को द्वार पर रुकते देख ठिठक गया। पलटकर देखा एक तरुणी वृद्धा को सहारा देकर कार से उतारने का जतन कर रही है।

मैं तत्क्षण कार के निकट पहुँचा तब तक वृद्धा जमीन पर पैर रखते हुए हाथ सहारे के लिए बढ़ा रहीं थीं। पहले कभी न देखने पर भी मन ने कहा हो न हो यही बुआ श्री हैं। मैंने चरण स्पर्शकर उन्हें सहारा दिया। एक अजनबी युवा को निकट देख तरुणी संकुचाई, 'खुश रहो' कहते हुए बुआजी ने हाथ थामकर दृष्टि उठाई और पहचानने का यत्न करने लगीं कि कौन है?

तब तक घर के भीतर से एक महिला और पुरुष आ गये थे। लम्बी यात्रासे लौटी श्रांत-क्लांत महीयसी को थामे अजनबी को देखकर उनके मन की उलझन स्वाभाविक थी। मैं परिचय दूँ इसके पहले ही वे बोलीं 'चलो, अंदर चलो', मैंने कहा-'बुआजी! मैं संजीव'। नाम सुनते ही उनके चेहरे पर जिस चमक, हर्ष और उल्लास की झलक देखी वह अविस्मरणीय है। उन्होंने भुजाओं में भरते हुए मस्तक चूमा। पूछा- 'कब आया?'

सब विस्मित कि यह कौन अजनबी इतने निकट आने की धृष्टता कर बैठा और उसे हटाया भी नहीं जा रहा। बुआ जी मुस्कुराते हुए जैसे सबकी उलझन का आनंद ले रहीं हो, कुछ पल मौन रहकर बोलीं- 'ये संजीव है, मेरा भतीजा... जबलपुर से आया है।मैंने सबका अभिवादन किया।

उन्होंने सबका परिचय कराते हुए कहा 'ये मेरे बेटे की तरह रामजी, ये बहु, ये भतीजी आरती...चल घर ले चल' मैं उन्हें थामे हुए घर में अंदर ले आया। कमरे में एक तख्त पर उजली सफ़ेद चादर बिछी थी, सिरहाने की ओर भगवान श्री कृष्ण की सुन्दर श्वेत बाल रूप की मूर्ति थी। बुआ जी बैठ गयीं। मुझे अपनी बगल में बैठा लिया, ऐसा लगा किसी तपस्विनी की शीतल वात्सल्यमयी छाया में हूँ।

तभी स्नेह सिक्त वाणी सुनी- 'बेटा! थक गया होगा, कुछ खा-पीकर आराम कर ले फिर तुझसे बहुत सी बातें करना है। सामान कहाँ है?' तब तक आरती पानी ले आयी थी। मैंने पानी पिया, बताया चाय नहीं पीता, सुनकर कुछ विस्मित और प्रसन्न हुईं, मेरे मना करने पर भी दूध पिलवाकर ही मानीं। मुझे चेत हुआ कि वे स्वयं सुदूर यात्रा कर थकी लौटी हैं। उन्होंने आरती को स्नान आदि की व्यवस्था करने को कहा तो मैंने बताया कि मैं निवृत्त हो चुका हूँ। मैं धीरे से तखत के समीप बैठकर उनके पैर दबाने लगा... उन्होंने मना किया पर मैंने मना लिया कि वे थकी हैं कुछ आराम मिलेगा।

बुआ जी अपनी उत्कंठा को अधिक देर तक दबा नहीं सकीं। पूछा: कौन-कौन हैं घर-परिवार में? मैंने धीरे-धीरे सब जानकारी दी। मेरे मँझले ताऊ जी स्व. ज्वालाप्रसाद वर्मा ने स्व. द्वारकाप्रसाद मिश्र, सेठ गोविन्द दास और व्यौहार राजेंद्र सिंह के साथ स्वतंत्रता सत्याग्रह में सक्रिय भूमिका निभायी, नानाजी रायबहादुर माताप्रसाद सिन्हा 'रईस', मैनपुरी ने ऑनरेरी मजिस्ट्रेट का पद व खिताब ठुकराकर बापू के आव्हान पर विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर नेहरु जी के साथ त्रिपुरी कांग्रेस में भाग लिया और तभी इन दोनों की भेंट से मेरे पिताजी और माताजी का विवाह हुआ- यह सुनकर वे हँसी और बोलीं 'यह तो कहानी की तरह रोचक है।' उनका वह निर्मल हास्य अभी तक कानों में गूँजता है।

मेरे एक फूफा जी १९३९ में हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय महामंत्री थे तथा कैप्टेन मुंजे व डॉ. हेडगेवार के साथ राम सेना व शिव सेना नामक सशस्त्र संगठनों के माध्यम से दंगों में अपहृत हिन्दू युवतियों को मुक्त कराकर उनकी शुद्धि तथा पुनर्विवाह द्वारा सामाजिक स्वीकृति कराते थे । यह जानकर वे बोलीं- 'रास्ता कोई भी हो, भारत माता की सेवा ही असली बात है।' बुआ श्री ने १८५७ के स्वातंत्र्य समर में अपने पूर्वजों के योगदान और संघर्ष की चर्चा की। आरती ने उनसे स्नानकर भोजन करने का अनुरोध किया तो बोलीं- 'संजीव की थाली लगाकर यहीं ले आ, इसे अपने सामने ही खिलाऊँगी। बाद में नहा लूँगी।'

मैंने निवेदन किया कि वे स्नान कर लें तब साथ ही खा लेंगे तो बोलीं 'जब तक तुझे खिला न लूँ, पूजा में मन न लगेगा, चिंता रहेगी कि तूने कुछ नहीं खाया।' ऐसी दिव्य भावना । उनके स्नेहपूर्ण आदेश का सम्मान करते हुए मैं भोजन हेतु प्रस्तुत हो गया । उन्होंने अपने मुझे सामने ही बैठाया। एक रोटी तोड़-तोड़कर अपने हाथों से खिलायी। भोजन के मध्य आरती से कह-कहकर सामग्री मँगाती रहीं। मेरा मन उनके स्नेह-सागर में अवगाहन कर तृप्त हो गया। उनके हाथों से घी लगी एक-एक रोटी अमृत जैसा स्वाद दे रही थी। फुल्के, दाल, सब्जी, अचार, पापड़ जैसी सामान्यतः नित्य मिलनेवाली भोजन सामग्री में उस दिन जैसी मिठास फिर कभी नहीं मिली। पेट भर जाने पर भी आग्रह कर-कर के २ रोटी और खिलाईं, फिर मिठाई... बीच में लगातार बातें...फिर बोलीं- 'अब तुम आराम करो, हम नहाकर पूजा करेंगी।'

लगभग आधे घंटे में स्नान-ध्यान से निवृत्त होकर आयीं तो उनके तखत पर विराजते ही मैं फिर समीप बैठ गया। उनके पैर दबाते-दबाते कितनी ही बातें हुईं...काश तब आज जैसे यंत्र होते तो वह सब अंकित कर लिया जा सकता। परिवार के बाद अब वे मेरे बारे में पूछ रहीं थीं...क्या-क्या पढ़ लिया?, क्या कर रहा हूँ?, किन विधाओं में लिखता हूँ?, कौन-कौन से कवि-लेखक तथा पुस्तकें पसंद हैं?, घर में किसकी क्या रूचि है?, उनकी कौन-कौन सी कृतियाँ मैंने पढ़ीं हैं? कौन सी सबसे ज्यादा पसंद है? यामा देखी या नहीं?, कौनसा चित्र अधिक अच्छा लगा? प्रश्न ही प्रश्न... जैसे सब कुछ जान लेना चाहती हों, वह सब जो समय-चक्र ने इतने सालों तक नहीं जानने दिया।

मैं अनुभव कर सका कि उनके मन में कितना ममत्व है, अदेखे-अनजाने नातों के लिए। शायद मानव और महामानव के बीच की यही सीमा रेखा होती है कि महामानव सब पर स्नेह अमृत बरसाते हैं जबकि मानव अपनों को खोजकर स्नेहवर्षण करता है । मेरे बहुत आग्रह पर वे आराम करने को तैयार हुईं... 'तू क्या करेगा?, ऊब तो नहीं जायेगा?' आश्वस्त किया कि मैं भैया (डॉ.पाण्डेय) - भाभी से गप्प कर रहा हूँ, आप विश्राम कर लें।

कुछ देर बाद उठीं तो फिर बातचीत का सिलसिला चला। मुझसे पूछा- 'तू अपना उपनाम 'सलिल' क्यों लिखता है?' मैंने कभी गहराई से सोचा ही न था, क्या बताता? मौन देखकर बोलीं- 'सलिल माने पानी... पानी ज़िंदगी के लिए जरूरी है...पर गंगा में हो या नाले में दोनों ही सलिल होते हैं। बहता पानी निर्मला... सो तो ठीक है पर... सलिल ही क्यों?, सलिलेश क्यों नहीं?' उनका आशय था कि नाम सबसे अच्छा हो तो काम भी अच्छा करने की प्रवृत्ति होगी। वे स्वयं नाम से ही नहीं वास्तव में भी महादेवी ही थीं। कुछ वर्ष पूर्व ही मैंने दिनकर जी का एक निबंध 'नेता नहीं नागरिक चाहिए' पाठ्य पुस्तक विचार और अनुभूति में पढ़ा था । इससे प्रभावित किशोर मन में वैशिष्ट्य के स्थान पर सामान्यता की चाह उपजी थी ।

गुणग्राहकता 
बातचीत के बीच-बीच में वे आरती की प्रशंसा करतीं तो वह संकुचा जाती। मैं भी सुबह से देख रहा था कि वह कितनी ममता से बुआश्री की सेवा में जुटी थी। बुआजी डॉ. पाण्डेय व भाभी जी की भी बार-बार प्रशंसा करती रहीं। कुछ देर बाद कहा- 'तू क्या पूछना चाहता है पूछ न ? सुबह से मैं ही बोल रही हूँ। अब तू पूछ...जो मन चाहे...मैं तेरी माँ जैसी हूँ... माँ से कोई संकोच करता है? पूछ...' उन्होंने न जाने कैसे अनुमान लगाया कि मेरे मन में कुछ जिज्ञासाएँ हैं।

जब मैं स्नाकोत्तर डिप्लोमा पत्रकारिता में  कर रह था तब वरिष्ठ पत्रकार स्व. कालिकाप्रसाद दीक्षित 'कुसुमाकर' विभागाध्यक्ष थे। उनकी धारणा थी कि महादेवी जी ने निराला जी का अर्थ शोषण किया, मैं असहमति व्यक्त करता तो कहते 'तुम क्या जानो?' आज अवसर था लेकिन पूछूँ तो कैसे? उनके मन को चोट न लगे और शंका का समाधान भी हो, अंततः बुआ जी के प्रोत्साहित करने पर मैंने कहा- 'निराला जी के बारे में कुछ बताइए।?'

'वे महाप्राण थे विषपायी...बुआजी के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव आए, ऐसा लगा कि उनकी रुचि का प्रसंग है...कुछ क्षण आँखें मूँद कर जैसे उन पलों को जी रहीं हों जब निराला साथ थे। फिर बोलीं क्या कहूँ?...कितना कहूँ? ऐसा आदमी न पहले कभी हुआ... न आगे होगा... वो मानव नहीं महामानव थे...विषपायी थे, महाप्राण थे। उनके बाद मेरी राखी सूनी हो गयी... आँखों में आँसू छलक आये... उस एक ही पल में मैं समझ गया था कि कुसुमाकर जी की धारणा निराधार थी।

'निराला जी आम लोगों की तरह दुनियादारी से कोई मतलब नहीं रखते थे। प्रकाशक उनकी किताबें छापकर अमीर हो गये पर वे फकीर ही रह गये। एक बार हम लोगों ने बहुत कठिनाई से दुलारेलाल भार्गव से उन्हें रोयल्टी की राशि दिलवाई, वे मेरे पास छोड़कर जाने लगे मुश्किल से अपने साथ ले जाने को तैयार हुए, मैं खुश थी कि अब वे हमेशा रहनेवाले आर्थिक संकट से कुछ दिनों तक मुक्त रहेंगे।'

कुछ दिनों बाद आये तो बोले कुछ रुपये चाहिए। मुझे अचरज हुआ कि इतने रुपये कहाँ गए? पूछा तो बोले: 'उस दिन तुम्हारे पास से गया तो भूख से परेशान एक बुढ़िया को भीख माँगते देखा। जेब से कुछ नोट निकालकर उसके हाथ पर रखकर कहा अब भीख मत माँगना। बुढिया बोली जब तक इनसे काम चलेगा नहीं माँगूगी। निराला जी ने एक गड्डी निकल कर उसके हाथों में रखकर पूछ अब कब तक भीख नहीं माँगोगी? बुढिया बोली 'बहुत दिनों तक।' निराला जी ने सब गड्डियाँ भिखारिन की झोली में डालकर पूछा- 'अब?' 'कभी नहीं' बुढ़िया बोली। निराला जी खाली हाथ घर चले गए।

जब खाने को कुछ न बचा तथा बनिए ने उधार देने से मना कर दिया तो मेरे पास आ गए थे। ऐसे थे भैया। कुछ देर रुकीं...शायद कुछ याद कर रहीं थी...फिर बोलीं एक बार कश्मीर में मेरा सम्मान कर पश्मीना की शाल उढ़ायी गयी। मेरे लौटने की खबर पाकर भैया मिलने आये। ठण्ड के दिनों में भी उघारे बदन, मैंने सब हाल बताया तथा शाल उन्हें उढ़ा दी कि अब ठण्ड से बचे रहेंगे। कुछ दिन बाद ठण्ड से काँपते हुए आये। मैंने पूछा शाल कहाँ है? पहले तो सर झुकाये चुप बैठे रहे। दोबारा पूछने पर बताया कि रास्ते में ठण्ड से पीड़ित किसी भिखारी को काँपते देख, उसे उढ़ा दी। बोल, देखा है कोई दूसरा ऐसा अवढरदानी ?' मेरी वाणी अवाक् मौन थी और कान ऐसे दुलभ अन्य प्रसंग सुनने के लिये व्याकुल।

चर्चा...और चर्चा, प्रसंग पर प्रसंग... निराला और नेहरू, निराला और पन्त, निराला और इलाचंद्र जोशी, निराला और राजेंद्र प्रसाद, निराला और हिंदी, निराला और रामकृष्ण, निराला और आकाशवाणी, निराला और सरोज स्मृति, निराला और राम की शक्ति पूजा आदि...कभी कंठ रुद्ध हो जाता... कभी आँखें भर आतीं...कभी सर गर्व से उठ जाता... निराला और राखी की चर्चा करते हुए बताया कि निराला और इलाचंद्र जोशी में होड़ होती कि कौन पहले पहुँचकर राखी बँधवा ले और दूसरे को चिढ़ाए? एक बार निराला ने आते ही कुछ रुपये माँगे। कारण पूछने पर बोले कि रिक्शेवाले और तुमको देना है। बुआ जी ने पूछा मुझको क्यों देना है तो बोले तुम छोटी भीं हो तुमसे राखी बँधवाऊँगा तो रुपए भी दूँगा। बुआ जी बोलीं कि वे बिन रूपए लिए राखी बाँध देंगे तो निराला जी बोले 'ऐसा कैसे हो सकता है? तुम छोटी बहिन हो, बड़ा भाई राखी बँधवाए और रूपए न दे, यह कैसे हो सकता है? बुआजी हँस पड़ीं और बोलीं तो मुझसे रूपए लेकर मुझे ही दे दोगे ? ' हाँ! मेरे पास नहीं है तो बहिन से ले सकता हूँ लेकिन राखी बिना रूपए दिए नहीं बँधवा सकता। ऐसा ही किया निराला जी ने। 
स्मृतियों के महासागर में डूबती-तिरती बुआश्री का अगला पड़ाव था दद्दा और जिया... चिरगांव की राखी। दद्दा का संसद में कवितामय बजट भाषण... हिंदी संबंधी आंदोलन... फिर प्रसाद और कामायनी की चर्चा। फिर दिनकर... फिर नंददुलारे वाजपेई... हजारीप्रसाद द्विवेदी... नवीन... सुमन... जवाहरलाल नेहरु... इंदिरा जी, द्वारकाप्रसाद मिश्र... पत्रकार पी. डी. टंडन अनेक नाम... अनेक प्रसंग... अनंत कोष स्मृतियों का।

मैंने प्रसंग परिवर्तन के लिए कहा- 'कुछ अपने बारे में बताइए। 'क्या बताऊँ? अपने बारे में क्या कहूँ? मैं तो अधूरी रह गयी हूँ उसके बिना...'
मैं अवाक् था। किसकी कथा सुनने को मिलेगी? ...कौन है वह महाभाग?

'वह तो थी ही विद्रोहिणी... बचपन से ही... निर्भीक, निस्संकोच, वात्सल्यमयी, सेवाभावी, रूढ़िभंजक... फिर प्रारंभ हुआ सुभद्रा पुराण... स्कूल में भेंट... दोनों का कविता लिखना, चूड़ी बदलना... लक्ष्मणप्रसाद जी से भेंट... दोनों का विवाह... पर्दा प्रथा को तोड़ना... दुधमुँहे बच्चों को छोड़कर सत्याग्रह में भाग लेना-जेल यात्रा... फिर सुभद्रा जी के विधायक बनने में सेठ गोविंददास द्वारा बाधा... सरदार पटेल द्वारा समर्थन... गाँधी जी के अस्थि विसर्जन में सुभद्रा जी द्वारा झुग्गीवासियों को लेकर जाना...अंत में मोटर दुर्घटना में निधन... की चर्चा कर रो पड़ीं...खुद को सम्हाला...आँसू पोंछे...पानी पिया...प्रकृतिस्थ हुईं...
'थक गया न ? जा आराम कर।'

'नहीं बुआजी! बहुत अच्छा लग रहा है...ऐसा अवसर फिर न जाने कब मिले?...

तो क्या सुनना है अब?...इतनी कथा तो पंडित दक्षिणा लेकर भी नहीं कहता'...

'बुआ जी आपके कृष्ण जी!'...;

' मेरे नहीं... कृष्ण तो सबके हैं जो उन्हें जिस भाव से भज ले...उन्हें वही स्वीकार। तू न जानता होगा...एक बार पं. द्वारकाप्रसाद और मोरारजी देसाई में प्रतिद्वंदिता हो गयी कि बड़ा कृष्ण-भक्त कौन है? पूरा प्रसंग सुनाया फिर बोलीं- भगवन! ऐसा भ्रम कभी न दे।'

अब भी मुझे आगे सुनने के लिए उत्सुक पाया तो बोलीं तू अभी तक नहीं थका?...पी. डी. टन्डन का नाम सुना है? एक बार साक्षात्कार लेने आया तो बोला आज बहुत खतरनाक सवाल पूछने आया हूँ। मैनें कहा- 'पूछो' तो बोला अपनी शादी के बारे में बताइये। मैनें कहा- 'बाप रे, यह तो आज तक किसी ने नहीं पूछा। क्या करेगा जानकर?'

'बुआ जी बताइए न, मैं भी जानना चाहता हूँ।' -मेरे मुँह से निकला।

'तू भी कम शैतान नहीं है...चल सुन...फिर अपने बचपन...बाल विवाह...गाँधी जी व् बौद्ध धर्म के प्रभाव, दीक्षा के अनुभव, मोह भंग, प्रभावतीजी से मित्रता, जे. पी. के संस्मरण... अपने बाल विवाह के पति से भेंट... गृहस्थ जीवन के लिए आमंत्रण, बापू को दिया वचन गार्हस्थ से विराग आदि प्रसंग उन्होंने पूरी निस्संगता से सुनाये।

उनके निकट लगभग ६ घंटे किसी चलचित्र की भांति कब कटे पता ही न चला...मुझे घड़ी देखते पाया तो बोलीं- 'तू जायेगा ही? रुक नहीं सकता? तेरे साथ एक पूरा युग फिर से जी लिया मैंने।'

सबेरे वे अपनी नाराजगी जता चुकी थीं कि इतने कम समय में क्यों जा रहा हूँ?, रुकता क्यों नहीं? पर इस समय शांत थीं...उनका वह वात्सल्य...वह स्पर्श...वह स्नेह...अब तक रोमांचित कर देता है...बाद में ३-४ बार और बुआ जी का शुभाशीष पाया।
कभी ईश्वर मिले और वर माँगने को कहे तो मैं बुआ जी के साथ के वही पल फिर से जीना चाहूँगा।

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