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बुधवार, 16 फ़रवरी 2022

पुरोवाक, शफ़क-गुलाली, सुनीता सिंह, जोगिनी गंध, शशि पुरवार

पुरोवाक :

'शफ़क-गुलाली' ग़ज़लाकाश में मुस्कुराती लाली
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारत की गंगो-जमनी तहज़ीब की बानगी देखनी हो तो ग़ज़ल पढ़नी चाहिए। गीत और दोहे की तरह ग़ज़ल ने भी वक़्त, हालत, मुल्क, जुबान और कौमों की हदों को पार कर दिलों को अपना दीवाना बनाया है। किसी बच्चे की पैदाइश की तरह ग़ज़ल के तशरीफ़ लाने की कोई तारीख तो नहीं बताई जा सकती पर यह जरूर कहा जा सकता है कि जैसे-जैसे इंसान ने इंसानियत की तरफ कदम रखने की शुरुआत की, वैसे-वैसे उसने अपने दिल की बात, कम से कम लफ़्ज़ों में बयां करने का हुनर सीखा। अपने अहसासात दो मिसरों (पंक्तियों) में कहने के बाद उसने हमकाफ़िया (सम तुकांत) और हमरदीफ़ (सम पदांत) मिसरों की ईजाद की। शुरुआत में फ़क़त दो मिसरे ही कहे गए होंगे। दोहा, सोरठा, रोला, श्लोक वगैरह की मानिंद शे'र कहे गए। दो मिसरों में बात पूरी न होने पर चार मिसरों का इस्तेमाल किया गया। फ़क़ीर और शायर चार मिसरों का मुक्तक या रुबाई लिखकर गुनगुनाते-गाते और शाबाशी पाते। इनमें पहले, दूसरे और चौथे मिसरे हमकाफ़िया-हमरदीफ़ होते थे जबकि तीसरे मिसरे में यह बंदिश नहीं थी, बशर्ते वज़न (पदभार) चारों मिसरोंका एक सा होता था। शुरुआत में हजाज छंद में मुक्तक कहे गए, बाद में रुबाई के २४ औज़ान तय किये गए। बतौर नमूना -

आसमान पर शफ़क गुलाली।
तेरे रुखसारों पर लाली।।
जी करता है जी भर पी लूँ-
ढाल-ढाल प्याली पर प्याली।।

भारत में सदियों पहले से अपभृंश और अब हिंदी में कुछ छंद (दोहा, सोरठा, रोला, चौपाई वगैरह) दो पंक्तियों के हैं जबकि बहुत से छंदों (दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, चौपाई, माहिया, हाइकु वगैरह) का उपयोग कर मुक्तक कहे जाते रहे हैं। मुक्तक का विस्तार अर्थात तीसरी-चौथी पंक्तियों की तरह पंक्तियाँ जोड़कर भारतीय लोक काव्यों को गायक और कवि चिरकाल से लिखते-गाते रहे हैं। कालांतर में फारस और भारत के बीच लोगों का आना-जाना होने पर ग़ज़ल कहने की यह काव्य विधा फारस में गई। कहावत है कि इतिहास खुद को दुहराता है। ग़ज़ल के सिलसिले में यह पूरी तरह सत्य सिद्ध हुई। भारत में जन्मी, पली-पुसी विधा फारसी संस्कार लेकर एवं आक्रांताओं के साथ फिर भारत में आई तो उसके नाक-नक्श ही नहीं, चाल-ढाल भी बदली हुई थी, बदलाव इस हद तक की जन्मदात्री धरती पर भी ग़ज़ल को आयातित काव्य विधा मान लिया गया। भारत में यह काव्य विधा किसी नाम विशेष से नहीं पुकारी गयी थी किन्तु इसके संस्कारों में लोकधर्मिता, शुचिता तथा पाकीजगी थी। फारस में इसे ग़ज़ल संज्ञा तथा '​तश्बीब' (​बादशाहों के मनोरंजन हेतु ​संक्षिप्त प्रेम गीत) एवं 'कसीदा' (रूप/रूपसी ​या बादशाहों की ​की प्रशंसा) विशेषण देकर ​'गजाला चश्म​'​ (मृगनयनी) महबूबा-माशूका से बातचीत के पिजरे में कैद कर, इसे पंख फड़फड़ाने के लिए मजबूर कर दिया। ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ औरतों (प्रेमिकाओं) से बातें करना है।१

हिंदी ग़ज़ल

मायके लौटी बेटी के सर पर कुछ दिनों सासरे की तारीफ का भूत सवार रहने की तरह, ग़ज़ल ने भी मादरे-वतन में आने के बाद कुछ वक़्त हुस्नो-इश्क़ की इबादत में गुजारे लेकिन जल्दी ही इस पर मुल्क की माटी का रंग चढ़ गया और ग़ज़ल ने बगावती तेवर के साथ आम आदमी के दर्दो-ख्वाब के साथ नाता जोड़ना शुरू कर दिया। जनाब सरवरी ग़ज़ल का अर्थ 'जवानी का हाल बयां करना' बताते हैं२ और इश्क़ को ग़ज़ल की रूह कहते हैं।३ जनाब कादरी ग़ज़ल का मानी 'इश्क़ और जवानी का जिक्र' मानते हैं।४ हद तो तब हुई हुई जब लिखा गया 'गरज हर वह चीज जो माशूक के शायनशान न हो, वह ग़ज़ल में नापसंदीद: है।'५ बकौल डॉ. सैयद ज़ाफ़र ग़ज़ल शुरू से ही दिलवरों की बात कहती आई है।६ जनाब आल अहमद सरूर कहते हैं - 'ग़ज़ल वैसे तो महबूब से बातें करने का नाम है मगर इसमें हदीसे-हुस्न से ज्यादा इश्क की हिक़ायत है।'७-८ डॉ. रामदास 'नादार' के लफ़्ज़ों में 'उर्दू शायरी फ़ारसी शायरी का अनुकरण है और फारसी शायरी अरबी शायरी का।८ डॉ. मसऊद खां के मुअतबिक 'इसका अपना दाइर-ए-अलम (कार्यक्षेत्र) है।९ हिंदुस्तानी ग़ज़ल और हिंदी ग़ज़ल को फारसी ग़ज़ल के नक्शे-कदम पर चलने की भरपूर कोशिश उर्दू परस्तों ने की, लेकिन आखिर में हारकर चुप हो गए। इसका कारण आर्थिक है। बशीर बद्र हकीकत को यूं बयां करते हैं - 'आज ग़ज़ल का मसला क्या है? उर्दू ग़ज़ल पढ़नेवाले लाख-सवा लाख हैं तो उसी उर्दू ग़ज़ल को देवनागरी लिपि में, ग़ज़ल गायकी में, ज़िंदगी की गुफ्तगू में हिंदुस्तान-पाकिस्तान क्या दुनिया के मुख्तलिफ हिस्सों में करोड़ों करोड़ों हैं। ....इस बोली जानेवाली जदीद लफ़्जीयात का बड़ा हिस्सा ग़ज़ल की जबान बनता जा रहा है।'१०

नामकरण

बहरहाल वजह कोई भी हो ग़ज़ल ने अपनी माटी की खुशबू को जल्द ही पहचान लिया और वह खुद को बदलने से न रोक सकी और बदलाव के हिमायतियों ने उसे सिर-आँखों लिया। सागर मीरजापुरी ने ग़ज़लपुर और नवगज़लपुर में इस बदलाव का स्वागत एवं 'गीतिका' नामकरण कर लिखा -'ग़ज़ल, गीत की एक विधा है जो उर्दू-फ़ारसी से हिंदी में आई है।'११ चंद्र सेन 'विराट' और पद्मभूषण नीरज जी ने मुक्तक का विस्तार इसे 'मुक्तिका' कहा। हिंदी ग़ज़ल को 'तेवरी' [तेवर (व्यवस्था विरोध के स्वर) की प्रधानता के कारण], सजल, पूर्णिका, अनुगीत आदि नाम देने के प्रयास लिए जाने के बाद भी यह 'हिंदी ग़ज़ल थी, है और रहेगी।' ॐ नीरव के शब्दों में 'गीतिका एक ऐसे ग़ज़ल है जिसमें हिंदी भाषा की प्रधानता हो, हिंदी व्याकरण की अनिवार्यता हो और पारम्परिक मापनियों के साथ हिंदी छंदों का समादर हो।२९

हिंदी ग़ज़ल-उर्दू गजल

हिंदी एक समर्थ और स्वतंत्र भाषा है जिसका अपना शब्द भंडार, व्याकरण, छंद शास्त्र और लिपि है। उर्दू मूलत: सीमाप्रांत की भारतीय भाषाओँ-बोलिओं का संकर रूप है जो फ़ारसी या देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। उर्दू का अपना शब्द-भंडार नहीं है। उर्दू शब्दकोष का हर शब्द किसी अन्य भाषा-बोली से आयातित है। फारसी के व्याकरण और छंद शास्त्र का उपयोग उर्दू करती है। वास्तव में उर्दू भी हिंदी की एक शैली (भाषा रूप) मात्र है जिसमें फ़ारसी शब्दों का प्रयोग अधिक किया जाता है। हिंदी वर्णमाला की पंचम ध्वनियों का प्रयोग हिंदी ग़ज़ल बेहिचक करती है, जो फ़ारसी-ुर्दी ग़ज़ल के लिए संभव नहीं है। बांगला ग़ज़ल, तमिल ग़ज़ल, अंग्रेजी ग़ज़ल, रुसी ग़ज़ल अगर भाषिक आधार पर फ़ारसी-उर्दू ग़ज़ल से भिन्न है और वहां फ़ारसी लयखंडों या छंदों को अपनाने की बाध्यता नहीं है तो हिंदी ग़ज़ल पर ऐसे बंधन कैसे थोपे जा सकते हैं? हिंदी ग़ज़ल को विरासत में वैदिक-पौराणिक-लौकिक मिथक, बिम्ब, प्रतीक, मुहावरे, कहावतें आदि मिली हैं जिनका प्रयोग कर वह फ़ारसी-उर्दू ग़ज़ल से भिन्न हो जाती है। हिंदी ग़ज़ल का मिजाज और कहन परंपरागत ग़ज़ल से बिलकुल अलहदा और मौलिक है। बतौर नमूना -

राजनीति घना कोहरा नैतिकता का सूर्य छिपा है।
टके सेर ईमान सभी का स्वार्थ हाथों हाय! बिका है।।

रूप देखकर नज़र झुका लें कितनी वह तहज़ीब भली थी।
रूप मर गया बेहूदों ने आँख फाड़कर उसे तका है।।

गुमा मशीनों के मेले में आम आदमी खोजें कैसे?
लीवर एक्सल गियर हथौड़ा ब्रैक कहीं वह महज चका है।

आओ! हम सब इस समाज की छाती पर कुछ नश्तर मारें।
सड़े गले रंग-ढंग जीने के, हर हिस्सा एक घाव पका है।।

फ़ना हो गए वे दिन यारों जबकि हम सब फरमाते हैं।
अब तो लब खोलो तो यही कहा जाता है ख़ाक बका है।।

ईंट रेत सीमेंट जोड़कर करी इमारत 'सलिल' मुकम्मिल।
चाह रहे घर नेह-प्रेममय, बना महज बेजान मकाँ है।।

यहाँ यह भी स्पष्ट होना जरूरी है कि हिंदी-फ़ारसी ग़ज़ल की भिन्नता शब्दों के कारण कतई नहीं है। दुनिया की हर भाषा अन्य भाषाओँ से शब्दों को ग्रहण करती और अन्य भाषाओँ को शब्द देती है। हर भाषा शब्दों को अपनी प्रकृति और संस्कार के अनुसार ढलती बदलती है। हिंदी 'हॉस्पिटल' को 'अस्पताल' कर लेती है तो फ़ारसी 'ब्राह्मण' को 'बिरहमन'। संस्कृत का 'मातृ', फ़ारसी में मादर और अंग्रेजी में 'मदर' हो जाता है। डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल' के अनुसार 'हिंदी और उर्दू में बहुत ज़्यादा फर्क नहीं है सिर्फ लिपि का फर्क है। फ़ारसी में लिखा जाए तो उर्दू और वही बात देवनागरी में लिखी जाए तो हिंदी हो जाती है।२७

हिंदी ग़ज़ल पर प्रथम शोधकार्य (१९८५) करनेवाले डॉ. रोहिताश्व अस्थाना खुसरो और कबीर की ग़ज़लों में भी हिंदी ग़ज़ल के मूल तत्व देखे हैं।१२ रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' हिंदी ग़ज़ल में गंभीरता और जीवन दर्शन तथा सतही उथलेपन की सामान गुंजाइश देखते हैं।१३ ज़हीर कुरैशी के अनुसार 'हिंदी प्रकृति की ग़ज़ल आम आदमी की जनवादी अभिव्यक्ति है'।१४ शिवॐ अंबर कहते हैं 'समसामयिक हिंदी ग़ज़ल भाषा के भोजपत्र पर लिखी हुई विप्लव की अग्नि ऋचा है।'१५ शमशेर बहादुर सिंह के अनुसार 'ग़ज़ल एक लिरिक विधा है।' १६ डॉ. उर्मिलेश हिंदी ग़ज़ल को इस तरह परिभाषित करते हैं 'जो उर्दू ग़ज़ल की शैल्पिक काया में हिंदी की आत्मा को प्रतिष्ठित करती है।'१७ बकौल डॉ. कुंवर बेचैन 'ग़ज़ल जागरण के बाद का उल्लास है, पाँखुरी के मंच पर खुशबू का मौन स्पर्श है।'१८ डॉ. रोहिताश्व अस्थाना के शब्दों में 'अनुभूति की तीव्रता एवं संगीतात्मकता हिंदी ग़ज़ल के प्राण हैं।१९

शिल्प

स्पष्ट है कि हिंदी ग़ज़ल का शिल्प फ़ारसी ग़ज़ल की तरह होते हुए भी इसकी अपनी अलग पहचान और विशेषता है। बकौल नरेश नदीम 'ग़ज़ल एक से अधिक अशआर का संग्रह मात्र है जिसमें हर शेर दूसरों से स्वतंत्र हो सकता है।२०

विषय

डॉ. रामप्रसाद शरण 'महर्षि' के अनुसार 'कोई भी विषय क्यों न हो, अब उसे ग़ज़ल का विषय बनाया जा सकता है।'२१ डॉ. सादिका असलम नवाब 'सहर' के मत में - 'आधुनिक ग़ज़ल राजनीति और समाज से जुडी हुई समस्याओं को अभिव्यक्त करती है।२२ डॉ. महेंद्र अग्रवाल के शब्दों में 'नई ग़ज़ल का मूल प्रतिपाद्य समकालीन मकनव जीवन के समग्र है। वह ठोस यथार्थ पर खड़ी है।२३

शैली (ग़ज़लियत, तगज़्ज़ुल)

डॉ. मिर्ज़ा हसन नासिर की मान्यता है कि ग़ज़ल की भाषा शैली प्राय: प्रतीकात्मक एवं संकेतात्मक होती है।२४ हिंदी गजल भी ‘तगज्जुल’ को स्वीकार और शेर कहते हुए अभीष्ट सांकेतिकता की अधिकतम रक्षा करना चाहती है। ज़हर कुरैशी के अनुसार 'हिंदी गजल के पास अपनी विराट शब्द-संपदा है, मिथक, मुहावरे, बिंब, प्रतीक, रदीफ और काफिए हैं। शिल्प और विषय का उत्तरोत्तर विकास भी इसमें दिखता है। इस प्रक्रिया और विकास की पृष्ठभूमि में समकालीन जीवन की जटिल परिस्थितियां भी महत्त्वपूर्ण हैं। राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और तकनीकी परिवर्तन भी इसकी पृष्ठभूमि में हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि हिंदी गजल का उद्भव अकस्मात नहीं हुआ। यह गतिशील संघर्ष प्रक्रिया का परिणाम है।'२५ रामदेव लाल 'विभोर' लिखते हैं 'तगज़्ज़ल सामान्य सी बात में अर्थ सौष्ठव उत्पन्न कर उसे असामान्य व् आनंददायी बना देता है। संस्कृत-हिंदी काव्य में इसे ही शब्द शक्ति का चमत्कार कहा गया है।'२६ 'कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाजे-बयां और' यह अंदाजे-बयां ही गज़लकार के शैली कहलाती है।

तत्व

मुग़ल काल में प्रशासकों का आश्रय मिला इसलिए फ़ारसी मिश्रित हिंदी (उर्दू) को देशी हिंदी (खड़ी बोली) पर वरीयता मिली। सुशिक्षित जनों ने प्रशासन में हिस्सेदारी पाने के लिए सत्ताधीशों की भाषा को अपनाया। इसलिए ग़ज़ल के फ़ारसी मानक, लय खंड और चंद पहले प्रचलित हो गए। हिंदी ग़ज़ल की स्वतंत्र पहचान बनने पर फ़ारसी पारिभाषिक शब्दों के हिंदी पर्याय विक्सित किए गए। तदनुसार पद या पंक्ति (मिसरा), पद युग्म या द्विपदी (शे'र), पहला पद (मिसरा ऊला), दूसरी पंक्ति (मिसरा सानी), प्रथम समतुकांती द्विपदी (मत्ला), अंतिम द्विपदी (मक़्ता), तुकांत (काफ़िया), पदांत (रदीफ़), भार (वज़्न), लयखण्ड या गण (रुक्न), छंद (बह्र) हिंदी ग़ज़ल के तत्व हैं।

छंद

अन्य गीति रचनाओं की तरह हिंदी ग़ज़ल भी लयखण्ड (रुक्न, बहुवचन अरकान) तथा छंद (बह्र) का प्रयोग कर रची (कही) जाती है। गण के आधार पर छंद के दो प्रकार एक गणीय छंद (मुफर्रद बह्र) तथा मिश्रित गणीय छंद (मुरक्कब बह्र) हैं। हिंदी ग़ज़ल के दो और प्रकार एक छंदीय ग़ज़ल और बहुछंदीय ग़ज़ल भी हैं जो उर्दू ग़ज़ल में नहीं हैं। डॉ. ब्रह्मजीत गौतम के अनुसार 'उर्दू ग़ज़ल की लगभग सभी बहरें हिंदी के मात्रिक या वर्णिक छंदों से निकली हैं।' २८ मैंने, रसूल अहमद 'सागर बक़ाई' डॉ. गौतम, साज जबलपुरी ने हिंदी छंदों पर आधारित ग़ज़लें लिखने का श्रीगणेश लगभग ४ दशक पूर्व किया था। 'बह्र नहीं तो ग़ज़ल नहीं' लिखकर महावीर प्रसाद 'मूकेश' ग़ज़ल में छंद की अपरिहार्यता बताते हैं।३० उत्तम (मुरस्सा) ग़ज़ल की विशेषता बताते हुए रामप्रसाद शर्मा 'महर्षि' लिखते हैं 'एक ओर नाद सौंदर्य हो तो दूसरी ओर भाषा और भाव का सौंदर्य। ३१

अलंकार व रस

अलंकार (सनअत) हिंदी ग़ज़ल के लालित्य और चारुत्व में वृद्धि कर ग़ज़ल में आकर्षण उत्पन्न कर, गज़लकार की कहन को पठनीय, श्रवणीय और मननीय बनाते हैं। हिंदी ग़ज़ल में अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, अतिशयोक्ति, अन्योक्ति, वक्रोक्ति, रूपक, संदेह, भ्रांतिमान, व्यतिरेक, स्मरण, दीपक, दृष्टांत, व्याजस्तुति पुरुक्तिवदाभास, अन्योक्ति आदि के प्रयोग मैंने हुए अन्य ग़ज़लकारों ने किए है। हिंदी ग़ज़ल में रस सलिला का प्रवाह अबाध होता रहा है।

'शफ़क़-गुलाली' : हिंदी ग़ज़ल का गुलदस्ता

हिंदी ग़ज़ल का ताज़ा-तरीन गुलदस्ता लेकर तसरीफ लाई हैं शाने-अवध लखनऊ से सुनीता सिंह। इन ग़ज़लों में मौलिकता, सुरुचि संपन्नता और ताज़गी सहज ही देखी जा सकती है। ये गज़लें सूरत-हाल का आईना हैं। इश्को-माशूक की खाम ख़याली से परहेज़ इन ग़ज़लों की खासियत है। इन ग़ज़लों में हिंदी के कई छंदों का सफल सार्थक प्रयोग किया गया है।

शायरा के हौसले की दाद दी जाना चाहिए जब वह आसमानी रब से भी सवाल करती है। गीतिका छंद में कही गई ग़ज़ल का यह शेर देखिए -

आसमां में बैठकर करता वहाँ क्या रब बता?
साँस बेकल डूबती तो भी सदाएँ चाहिए?

कोरोना की मार ने इंसानी रिश्तों-नातों और अहसासों को किस हद तक नुक्सान पहुँचाया, उपमान छंद में कहा गया एक शेर सूरते-हालात बयां करता है -

हम की बात नहीं है, यकीन हारा था।
बहुत करीब थे लेकिन, फिसल गये नाते।।

रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातें अमूमन बड़ी बनकर नज़दीकियों को दूरियों में बदल देती हैं। अरुण छंद में यह अनुभूति बखूबी अभिव्यक्त की गयी है -

बात ही बात में बात बढ़ती गयी।
बात भूली न तल्खी मगर जा रही।।

अरुण छंद में इससे अलग मिजाज की ग़ज़ल का मजा लें -

गुनगुनाता हुआ आसमां देखिए।
खास है ये नज़ारा ज़रा देखिए।।
आ रही कहकशां से सुहानी सदा।
रौशनी का जहां चाँद का देखिए।।

'जैसी करनी वैसी भरनी' की लोकोक्ति को चित्रपटीय गीत में 'कर्म किये जा फल की चिंता मत कर रे इंसान / जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान् / ये है गीता का ज्ञान' कहकर अभिव्यक्त किया गया है। मुक्तामणि छंद में इसी बात को सुनीता जी ने बेहद खूबसूरती से एक ग़ज़ल में पिरोया है -

बरबादियाँ कहीं पर तो सुकून है कहीं पर।
कर्मों से तय हमेशा अंजाम ज़िंदगी का।।
कहने लगा जमाना मुश्किल बहुत है जीना।
बनता रहे तमाशा सरे-आम ज़िंदगी का।।

'दीवार से सिर फोड़ना' मुहावरे का प्रयोग इस शे'र की खासियत है-

वक़्त का साज है, वक़्त का राज है।
सर न दीवार पर फोड़ना चाहिए।।

मुहावरों को लेकर कहे गए कुछ अशआर मजा लीजिए। ऐसे अशआर लिखना आसान नहीं होता। शायरा दाद की हक़दार है।

हम तो सरसों उगाने चले हाथ पर।
एक फूटी भी कौड़ी नहीं हाथ पर।।

हाथ आगे किसी के पसारे नहीं।
बनती गयी बात ही बात पर।।

योजनाएँ खटाई में पड़ गयीं।
ख़ाक में जाते मिल छानते ख़ाक पर।।

होश तो उड़ गये पर जताया नहीं।
खार खाता जहां मेरे ज़ज़्बात पर।।

कोई अपनी खबर खोज लेता नहीं।
बेतकल्लुफ हुए अपने हालात पर।।

हम तो खिचड़ी हैं अपनी पकाते अलग।
ज़िंदगी थाम लेते हैं हर मात पर।।

'क्यों कवायद सदा जूझने की रहे?', 'चाहना और पाना अलग बात है', 'ख्वाब टूटे हैं पर मलाल नहीं', 'गुल हमेश खिला नहीं करते', 'ज़िंदगी भी हमें सिखाती है', 'निराश जब दिल हो हर तरफ से, सहारा मिलता इबादतों में', 'कोशिश न बेहतरी के लिए रुकनी चाहिए', 'रहा किसी से गिला न शिकवा, फ़क़ीर जैसी हुई है फितरत' जैसे मिसरे गागर में सागर की तरह, कम लफ्जों में गहरी बात कहते हैं। इनसे गज़लसरा की भाषाई पकड़ पता चलती है।

दुष्यंत कुमार ने हालत से बेजार हो कर कहा था -'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो', सुनीता का शायर मन समय की विसंगतियों को देखते हुए लिखता है -

'अब इन हवाओं बदलना हो जरूरी है गया'

शायरी-आज़म मेरे तकी मेरे की मशहूर ग़ज़ल है 'पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है', सुनीता जी भी इस ग़ज़ल के असर को अपने रंग में ढालकर कहती हैं-

गुमसुम-गुमसुम मद्धम-मद्धम लय गीतों की लगती है।
जाने कैसा सावन बरसे, भीगी खुश्की रहती है।।
आँगन-आँगन बस्ती-बस्ती, पत्ते-पत्ते बूटों में।
बूँद बरसती सावन की जो नज़्म रूहानी कहती है।।

वक़्त और हालात की दुश्वारियों का तकाज़ा है कि एक साथ रहा जाए। सुनीता जी जानती हैं की मुश्किलों को हसालों से ही जीता जा सकता है। वे अपने तमाम पाठकों तक यह पैगाम ग़ज़ल के जरिए पहुँचाती हैं-

दुआ में हाथ उठें, दौर मुश्किलों का है।
सभी के साथ चलें, दौर मुश्किलों का है।।

बता रही दुश्वारी न जीत पाओगे
दिखे जो छाँव छले, दौर मुश्किलों का है।।

चलो दिखा दें कलेजा की हम भी रखते हैं।
ये हौसले न ढलें, दौर मुश्किलों का है।।

जम्हूरियत के इस दौर में आम आदमी अपने नेताओं से परेशां है, किस पर भरोसा करे किस पर नहीं, यही समझ नहीं आता। जिस सिक्के को आजमाया वही खोटा निकला। एवं को हर नुमाइंदे से नाउम्मीदी ही हुई। सुनीता अपनी बात इस तरह कहती हैं -

वो रहनुमा मेरा जिस पर जां निसार थी।
संग उसके ही गम गयी, मेरी बहार थी।।

वो जिस पे नाज़ था मुझे, मेरा नसीब था।
जो अनसुनी थी रह गयी, मेरी पुकार थी।।

हालात कितने भी ख़राब हों, मायूसी से कोई हल नहीं निकलता। कामयाबी मिले न मिले, कोशिश बदस्तूर जारी रहनी चाहिए। बकौल शायरे-वक़्त फ़िराक़ गोरखपुरी 'ये माना ज़िंदगी है चार दिन की / बहुत होते हैं यारों चार दिन भी / खुदा को पा गया वाइज मगर है / जरूरत आदमी को आदमी की'। साहिर लुधियानवी लिखते हैं - 'मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया / हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया / मनाना फज़ूल था / बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया'। सुनीता फ़िराक के शहर की रहनेवाली हैं। वे हालत और वक़्त को अपने नज़रिए से देखती-परखती हैं और फिर कहती हैं -

हँसी-खुशी गुजारिए ये चार दिन की ज़िंदगी।
न रोइए-रुलाइए, ये चार दिन की ज़िंदगी।।

यहाँ-वहाँ कहाँ-कहाँ सुकून ढूँढता जिया।
जरा ठहर भी जाइए ये चार दिन की ज़िंदगी।।

न कामयाब हो सके, न ख्वाब जी सके कभी।
अजी न ग़म मनाइए, ये चार दिन की ज़िंदगी।।

धुआँ-धुआँ भरा जो दिल, सुलग रहा सिगार सा।
गुबार सब निकालिए, ये चार दिन की ज़िंदगी।।

अगर न गुल खिले चमन, उदास क्यों हुई फ़िज़ा।
बहार फिर बुलाइए, ये चार दिन की ज़िंदगी।।

हिंदी ग़ज़ल की खासियत और खसूसियत यही है कि वह सांसारिक और आध्यात्मिक पहलुओं को सिक्के के दो पहलुओं, धूप-छाँव, हार-जीत या फूल-शूल की तरह एक साथ कहती है। सुनीता इससे पूरी तरह वाक़िफ़ हैं।

आँख खोली तो देखा सहर हो गयी।
शबनमी सी सुहानी पहर हो गयी।।

दिल हमारा-तुम्हारा खुदा पा गया।
ये मुहब्बत रूहानी अगर हो गयी।।

जो दिया, जैसा दिया, उसने दिया, शिकवा न कर। यह फलसफा हर खासो-आम के काम आता है। सुनीता कहती हैं-

सफर ये ज़िन्दगी का भला या बुरा।
तौल करनी नहीँ, बस गुजर हो गयी।।

चौरासी हिंदी ग़ज़लों का यह गुलदस्ता अलग-अलग रूप-रंग-खुशबू के गुलों से बाबस्ता है। हर तितली और भँवरे का यहाँ स्वागत है। सपनों और सच्चाईयों दोनों की खबर रखती हैं ये ग़ज़लें। इनमें ज़िन्दगी के अलहदा-अलहदा पहलू इस तरह नुमाया हुए हैं कि वाह वाह कहने का मन होता है।

खवाबों का इक मकान बनता है आदमी।
चुन-चुन के ईंट उसमें लगता है आदमी।।

ढूँढे सुई भी रेत से, सीने को ज़िंदगी।
दिल चाक अपना सबसे छिपाता है आदमी।।

जाती है रात दे के सुहानी सी भोर को।
फिर तीरगी में हार क्यों जाता है आदमी।।

इन ग़ज़लों में वतनपरस्ती का पैगाम भी है और खुदाई वज़ूद का इमकान भी -

जब-जब वतन की आन पे हो आँच आ रही।
होना ही जां को देश पर कुर्बान चाहिए।।

घर जलता देख दूसरे का हँसना छोड़िए।
करना किसी को भी न परेशान चाहिए।।

थामा है रब ने जब भी जहाँ ठोकरें लगीं।
अब और क्या वज़ूद का फरमान चाहिए।।

चचा ग़ालिब फरमाते हैं - 'दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना', सुनीता का नजरिया अलग है -

आग जलने लगी हवा पाकर।
दर्द मिटने लगा दवा पाकर।।

एकटक देखती रहीं आँखें।
आप आये नहीं पता पाकर।।

लिख रही है कलम ग़ज़ल कोई।
उनकी भेजी हुई सदा पाकर।।

रेत सी रौशनी फिसलती है।
इक झरोखा कहीं जरा पाकर।।

मानविकीकरण का एक उदाहरण देखें -

वो सूरज हमारी तरह लग रहा है।
सुबह रोज उठता मगर फिर ढला है।।

निराशा और आशा का चोली-दामन का सा साथ है। किसी एक से ज़िंदगी मुकम्मल नहीं होती है। सुनीता ने ग़ज़लों में जगह-जगह दोनों रंग पिरोये हैं। बतौर नमूना देखिए-

मुट्ठी में कैद रेत फिसलती चली गयी।
सहरा मेरी उम्मीद पे हँसती गयी।।

बरसात जो थी संग लिए रंग आ रही।
बिन बरसे मेरे घर से निकलती चली गयी।।

लहरा रहे हैं फूल जो सरसों के खेत में।
मन मोहने की उनकी कला भी तो कम नहीं।।

वो दूर शफक पर है सुनहरी सी लालिमा।
उससे मिली उम्मीद ये, दिल का भरम नहीं।।

'शफ़क़-गुलाली' की ग़ज़लों की जुबान आम आदमी की बोलचाल की है। आजकल भाषाई शुद्धता के नाम पर कुछ अलफ़ाज़ को उपयोग न करने का जो जाहिलाना माहौल बनाया जा रहा है, उसकी ख़िलाफ़त इसी तरह की जुबान के जरिये से की जानी चाहिए। सुनीता जी मुबारकबाद की हकदार हैं, वे सरकारी मुलाजिम होते हुए भी अपनी रूह की आवाज़ सुनती हैं और उसे गीतों, दोहों, ग़ज़लों की शक्ल में अवाम तक पहुँचा देती हैं। 'तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा' की भावना से किया गया यह रचना कर्म वाकई काबिले तारीफ है। मुझे पूरी उम्मीद है कि इस दीवान को तारीफ मिलेगी और सुनीता दिन-ब-दिन ज्याद: से ज्याद: शिद्दत से यह कलमी सफर जारी रखकर बुलंदियों छुएँगी।

संदर्भ -
१. शमीमे बलाग़त, सफा ४६, २. जदीद उर्दू शायरी, सफा ४८, ३. जदीद उर्दू शायरी, सफा २६०, ४. तारीखी तनक़ीद, सफा १०१, ५. शेरुअल हिन्द, भाग २, सफा २८९, ६. तनक़ीद और अंदाज़े नज़र, सफा १४४, ७. तनक़ीद क्या है?, सफा १३३, ८. उर्दू काव्यशास्त्र में काव्य का स्वरूप, सफा ९२, ९. फन और तनक़ीद : ग़ज़ल का फन सफा २२१, १०. अमीर खुसरो-ता-ग़ज़ल २०००, ११. गीतिकायनम, पृष्ठ १५, १२-१९. हिंदी ग़ज़ल स्वरूप और विकास, डॉ. अस्थाना, २०. उर्दू कविता और छंद शास्त्र, २१. ग़ज़ल सृजन, पृष्ठ १८, २२. साठोत्तरी हिंदी ग़ज़ल - शिल्प और चेतना पृष्ठ २६४, २३. ग़ज़ल सृजन, पृष्ठ १९, २४. ग़ज़ल ज्ञान, ११, २५. जनसत्ता २६-८-२०१८, २६. ग़ज़ल ज्ञान पृष्ठ ११३, २७. ग़ज़ल : रदीफ़-काफ़िया और व्याकरण, २८. एक बह्र पर एक ग़ज़ल, ११-१२, २९. गीतिकालोक पृष्ठ १२, ३०. ग़ज़ल छंद चेतना पृष्ठ ३१. ग़ज़ल सृजन, पृष्ठ १३।
२३-१०-२०२१
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'जोगिनी गंध' - त्रिपदिक हाइकु प्रवहित निर्बंध
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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भाषा सतत प्रवाहित सलिला की तरह निरंतर परिवर्तनशील होती है। लोकोक्ति है 'बहता पानी निर्मला', जिस नदी में जल स्रोतों से निरंतर ताजा जल नहीं आता और सागर में जल राशि विसर्जित नहीं होती वह नदी सूखकर समाप्त हो जाती है। भाषा और साहित्य भी सतत प्रवाहित नदियों की तरह हैं। जिस भाषा में समयानुकूल नए शब्द नहीं जुड़ते और निरुपयोगी हुए शब्द बाहर नहीं किये जाते, वह मृतप्राय हो जाती है। जिस साहित्य में अन्य भाषाओँ के साहित्य से ग्रहण करने योग्य साहित्य रचने की सामर्थ्य नहीं रहती, वह क्रमश: समाप्त हो।मानव सभ्यता भाषाओँ और साहित्य के सृजन और विनाश की कहानी है। जिस काल में श्रेष्ठ साहित्य रचा गया वह स्वर्णयुग कहलाया जबकि जिस काल में साहित्य का ह्रास हुआ वह पतन काल हुआ। सनातन मूल्यों के संधान और अनुकरण हेतु सजग रहे भारत ने समय-समय पर विविध भाषाओँ का उत्थान और पतन ही नहीं देखा अपितु सुकाल में स्वयं विश्व को ज्ञान प्रदान और दुष्काल में ज्ञान को ग्रहण किया है। भारत में संस्कृत पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, पैशाची, गोंडी, भीली, कोरकू, कौरवी, जैसी अगणित भाषाएँ विकसित हुईं। अधिकाँश काल के गाल में समां गयीं। वर्तमान में लगभग ५०० भाषाएँ-बोलियाँ व्यवहार में हैं। हिंदी भारत में जन्मी हुई नवीनतम भाषा है।

जन्म के साथ ही हिंदी को संस्कृत और अपभृंश की विरासत प्राप्त हुई। हिंदी की समकालिक उर्दू फ़ारसी-अरबी और सीमान्त प्रदेश की भाषाओँ के शब्दों का सम्मिश्रण मात्र होकर रह गयी किन्तु हिंदी ने २० से अधिक भाषाओँ और ५० से अधिक बोलिओं से शब्द संपदा, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, तत्सम-तद्भव शब्द आदि ग्रहणकर खुद को समृद्ध किया। यह क्रिया केवल भारत तक सीमित नहीं रही अपितु पूरे विश्व से आदान-प्रदान हुआ। फलत: हिंदी आज विश्ववाणी बनने की रह पर दिन-ब-दिन आगे बढ़। हिंदी ने केवल शब्द ही ग्रहण नहीं किये अपितु सृजन विधाएँ भी ग्रहण कीं। गद्य में किस्सागोई, निबंध, रिपोर्ताज, यात्रावृत्त आदि तथा पद्य में विविध छंद ग्रहण करने में हिंदी को किंचित भी परहेज नहीं हुआ। फ़ारसी से रुबाई, नज़्म, ग़ज़ल आदि, अंग्रेजी से कप्लेट, सोनेट आदि तथा जापानी से हाइकु, ताँका, बाँका आदि को हिंदी ने केवल ग्रहण ही नहीं किया अपितु उनका भारतीयकरण कर अपने व्याकरण और भाषिक प्रवृत्ति अनुसार नया रूप भी दे दिया। फलत:, मूल भाषा की तुलना में हिंदी में उन छंदों के दो रूप मूल की तरह तथा भारतीय रूप विकसित होने लगे हैं। यह प्रवृत्ति हाइकु लेखन में सहज ही देखी जा सकती है। हिंदी में 'हाइकु चंद ध्वनियों का उपयोग कर एक छवि निखारना है' की पारम्परिक धारणा से हटकर मुक्तक, गीत, ग़ज़ल, समीक्षा, भूमिका और खंड काव्य का भी माध्यम बने हैं। यहाँ यह उल्लेख अप्रासंगिक न होगा कि संस्कृत से गायत्री, कुकुप आदि तथा पंजाबी से माहिया जैसे त्रिपदिक छंद हाइकु के पहले से ही हिंदी में रचे जाते रहे हैं।

हाइकु (Haiku 俳句 high-koo) ऐसी लघु कवितायेँ हैं जो एक अनुभूति या छवि को व्यक्त करने के लिए संवेदी भाषा प्रयोग करती हैं। हाइकु बहुधा प्रकृति के तत्व, सौंदर्य के पल या मार्मिक अनुभव से प्रेरित होते हैं। मूलतः जापानी कवियों द्वारा विकसित हाइकु काव्यविधा अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओँ द्वारा ग्रहण की गयी। पाश्चात्य काव्य से भिन्न हाइकु में सामान्यतः तुकसाम्य, छंद बद्धता या काफ़िया नहीं होता। हाइकु को असमाप्त काव्य चूँकि हर हाइकु में पाठक / श्रोता के मनोभावों के अनुसार पूर्ण किये जाने की अपेक्षा होती है। हाइकु का उद्भव 'रेंगा नहीं हाइकाइ (haikai no renga) सहयोगी काव्य समूह' जिसमें शताधिक छंद होते हैं से हुआ है। 'रेंगा' समूह का प्रारंभिक छंद 'होक्कु' मौसम तथा अंतिम शब्द का संकेत करता है। हाइकु अपने काव्य-शिल्प से परंपरा के नैरन्तर्य बनाये रखता है। समकालिक हाइकुकार कम शब्दों से लघु काव्य रचनाएँ करते हैं. ३-५-३ सिलेबल (ध्वनिखंड या उच्चार) के लघु हाइकु भी रचे जाते हैं।

हाइकु का वैशिष्ट्य

१. ध्वन्यात्मक संरचना: पारम्परिक जापानी हाइकु १७ ध्वनियों का समुच्चय है जो ५-७-५ ध्वनियों की ३ पंक्तियों में विभक्त होते हैं। अंग्रेजी के कवि इन्हें सिलेबल (लघुतम उच्चरित ध्वनि, उच्चार) कहते हैं। समय के साथ विकसित हाइकु काव्य के अधिकांश हाइकुकार अब इस संरचना का अनुसरण नहीं करते। जापानी या अंग्रेजी के आधुनिक हाइकु न्यूनतम एक से लेकर सत्रह से अधिक ध्वनियों तक के होते हैं। अंग्रेजी सिलेबल लम्बाई में बहुत परिवर्तनशील होते हैं जबकि जापानी सिलेबल एकरूपेण लघु होते हैं। हाइकु लेखन में सिलेबल निर्धारण के लिये जापानी अवधारणा "हाइकु एक श्वास में अभिव्यक्त कर सके" उपयुक्त है। अंग्रेजी में सामान्यतः इसका आशय १० से १४ सिलेबल लंबी पद्य रचना से है। अमेरिकन उपन्यासकार जैक कैरोक का एक हाइकू देखें -

Snow in my shoe मेरे जूते में बर्फ
Abandoned परित्यक्त
Sparrow's nest गौरैया-नीड़

२. वैचारिक सन्निकटता: हाइकु में दो विचार सन्निकट हों: जापानी शब्द 'किरु' / 'किरेजी' (हिन्दी में विभाजक शब्द) का आशय है कि हाइकु में दो सन्निकट विचार हों जो व्याकरण की दृष्टि से स्वतंत्र तथा कल्पना प्रवणता की दृष्टि से भिन्न हों। सामान्यतः जापानी हाइकु 'किरेजी' (विभाजक शब्द) द्वारा विभक्त दो सन्निकट विचारों को समाहित कर एक सीधी पंक्ति में रचे जाते हैं। किरेजी एक ध्वनि पदावली (वाक्यांश) के अंत में आती है। अंग्रेजी में किरेजी की अभिव्यक्ति डैश '-' से की जाती है. बाशो के निम्न हाइकु में दो भिन्न विचारों की संलिप्तता देखें:

how cool / the feeling of a wall / against the feet — siesta

कितनी शीतल / दीवार की अनुभूति / पैर के सामने

आम तौर पर अंग्रेजी हाइकु ३ पंक्तियों में रचे जाते हैं। २ सन्निकट विचार (जिनके लिये २ पंक्तियाँ ही आवश्यक हैं) पंक्ति-भंग, विराम चिन्ह अथवा रिक्त स्थान द्वारा विभक्त किये जाते हैं। अमेरिकन कवि ली गर्गा का एक हाइकु देखें-

fresh scent- ताज़ा सुगंध
the lebrador's muzzle लेब्राडोर की थूथन
deepar into snow गहरे बर्फ में

"किरेजि" जापानी कविता में शब्द-संयम की आवश्यकता से उत्पन्न रूढ़ि-शब्द है जो अपने आप में किसी विशिष्ट अर्थ का द्योतक न होते हुए भी पद-पूर्ति में सहायक होकर कविता के सम्पूर्णार्थ में महत्त्वपूर्ण योगदान करता है। सोगि (१४२०-१५०२) के समय में १८ किरेजि निश्चित हो चुके थे। समय के साथ इनकी संख्या बढ़ती रही। महत्वपूर्ण किरेजि है- या, केरि, का ना, और जो। "या" कर्ता का अथवा अहा, अरे, अच्छा आदि का बोध कराता है।

यथा-
आरा उमि या / सादो नि योकोतोओ / आमा नो गावा [ "या" किरेजि]
अशांत सागर / सादो तक फैली है / नभ गंगा

३. विषय चयन और मार्मिकता: पारम्परिक हाइकु मनुष्य के परिवेश, पर्यावरण और प्रकृति पर केंद्रित होता है। हाइकु को ध्यान की एक विधि के रूप में देखें जो स्वानुभूतिमूलक व्यक्तिनिष्ठ विश्लेषण या निर्णय आरोपित किये बिना वास्तविक वस्तुपरक छवि को सम्प्रेषित करती है। जापानी कवि क्षणभंगुर प्राकृतिक छवियाँ यथा मेंढक का तालाब में कूदना, पत्ती पर जल वृष्टि होना, हवा से फूल का झुकना आदि को ग्रहण व सम्प्रेषित करने के लिये हाइकु का उपयोग करते हैं। कई कवि 'गिंकगो वाक' (नयी प्रेरणा की तलाश में टहलना) करते हैं। भारतीय हाइकु प्रकृति से परे हटकर शहरी वातावरण, भावनाओं, अनुभूतियों, संबंधों, उद्वेगों, आक्रोश, विरोध, आकांक्षा, हास्य आदि को हाइकु की विषयवस्तु बना रहे हैं।

४. मौसमी संदर्भ:

जापान में 'किगो' (मौसमी बदलाव, ऋतु परिवर्तन आदि) हाइकु का अनिवार्य तत्व है। मौसमी संदर्भ स्पष्ट या प्रत्यक्ष (सावन, फागुन आदि) अथवा सांकेतिक या परोक्ष (ऋतु विशेष में खिलने वाले फूल, मिलनेवाले फल, मनाये जाने वाले पर्व आदि) हो सकते हैं. फुकुडा चियो नी रचित हाइकु देखें:
morning glory! भोर की दमक
the well bucket-entangled, कूप - बाल्टी गठबंधन
I ask for water मैंने पानी माँगा

५. विषयांतर: हाइकु में दो सन्निकट विचारों की अनिवार्यता को देखते हुए चयनित विषय का परिदृश्य के २ भाग होते हैं। जैसे लकड़ी के लट्ठे पर रेंगती दीमक पर केंद्रित होते समय उस छवि को पूरे जंगल या दीमकों के निवास के साथ जोड़ें। सन्निकटता तथा संलिप्तता हाइकु को सपाट वर्णन के स्थान पर गहराई तथा लाक्षणिकता प्रदान करती हैं. रिचर्ड राइट का यह हाइकु देखें:

A broken signboard banging टूटा साइनबोर्ड तड़का
In the April wind. अप्रैल की हवाओं में
Whitecaps on the bay. खाड़ी में झागदार लहरें

इस पृष्ठभूमि में हिंदी की उदीयमान रचनाकार शशि पुरवार के हाइकु संकलन ''जोगिनी गंध'' को पढ़ने से पूर्व यह जान लें कि शशि जी जापानी ''उच्चार'' को हिंदी में ''वर्ण'' में बदल लेनेवाली पद्धति से हाइकु रचती हैं। शशि जी सुशिक्षित, संभ्रांत, शालीन व्यक्तित्व की धनी होने के साथ-साथ शब्द संपदा और अभिव्यक्ति सामर्थ्य की धनी हैं। वे जीवन और सृष्टि को खुली आँखों से देखते हुए चैतन्य मस्तिष्क से दृश्य का विवेचन कर हिंदी के त्रिपदिक वर्णिक छंद हाइकु की रचना ५-७-५ वर्ण संख्या को आधार बनाकर करती हैं। स्वलिखित भूमिका में शशि जी ने हाइकु की उद्भव और रचना प्रक्रिया पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए कुछ हाइकुकारों के हाइकुओं का उल्लेख किया है। संभवत: अनावश्यक विस्तार भय से उन्होंने लगभग ३ दशक पूर्व से हिंदी में मेरे द्वारा रचित हाइकु मुक्तकों, ग़ज़लों, गीतों, समीक्षाओं आदि का उल्लेख नहीं किया तथापि स्वलिखित हाइकु गीत, हाइकु चोका गीत प्रस्तुत कर इस परंपरा को आगे बढ़ाया है।

'जोगिनी गंध' में शशि जी के हाइकु जोगनी गंध (प्रेम, मन, पीर, यादें/दीवानापन), प्रकृति (शीत, ग्रीष्म व फूल पत्ती-लताएं, पलाश, हरसिंगार, चंपा, सावन, रात-झील में चंदा, पहाड़, धूप सोनल, ठूँठ, जल, गंगा, पंछी, हाइगा), जीवन के रंग (जीवन यात्रा, तीखी हवाएँ, बंसती रंग, दही हांडी, गाँव, नंन्हे कदम-अल्डहपन, लिख्खे तूफान, कलम संगिनी) तथा विविधा (हिंद की रोली, अनेकता में एकता, ताज, दीपावली, राखी, नूतन वर्ष, हाइकु गीत, हाइकु चोका गीत, नेह की पाती, देव नहीं मैं, गौधुली बेला में, यह जीवन, रिश्तों में खास, तांका, सदोका, डाॅ. भगवती शरण अग्रवाल के मराठी में, मेरे द्वारा अनुवादित कुछ हाइकु) शीर्षकों-उपशीर्षकों में वर्गीकृत हैं। शशि जी ने प्रेम को अपने हाइकू में अभिनव दृष्टि से अंकित किया है - सूखें हैं फूल / किताबों में मिलती / प्रेम की धूल।

प्रेम की सुकोमल प्रतीति की अनुभूति और अभिव्यक्ति करने में शशि जी के नारी मन ने अनेक मनोरम शब्द-चित्र उकेरे हैं। एक झलक देखें -

छेड़ो न तार / रचती सरगम / हिय-झंकार।
तन्हा पलों में / चुपके से छेडती / यादें तुम्हारी।

शशि जी हाइकु रचना में केवल प्रकृति दृश्यों को नहीं उकेरतीं। वे कल्पना, आशा-आकांक्षा, सुख-दुःख आदि मानवीय अनुभूतियों को हाइकु का विषय बना पाती हैं-

सुख की धारा / रेत के पन्नों पर / पवन लिखे।
दुःख की धारा / अंकित पन्नों पर / जल में डूबी।
बनूँ कभी मैं / बहती जल धारा / प्यास बुझाऊँ।

हाइकु के शैल्पिक पक्ष की चर्चा करें तो शशि जी ने हिंदी छंदों की पदान्तता को हाइकू से जोड़ा है। कही पहली-दूसरी पंक्ति में तुक साम्य है, कहीं पहली तीसरी पंक्ति में, कहीं दूसरी-तीसरी पंक्ति में, कहीं तीनों पंक्तियों में किन्तु कहीं -कहीं तुकांत मुक्त हाइकु भी हैं-

प्यासा है मन / साहित्य की अगन / ज्ञान पिपासा।
दिल दीवाना / छलकाते नयन / प्रेम पैमाना।
अँधेरी रात / मन की उतरन / अकेलापन।
अनुगमन / कसैला हुआ मन / आत्मचिंतन।
तेरे आने की / हवा ने दी दस्तक / धडके दिल।

शशि जी के ये हाइकु प्रकृति और पर्यावरण से अभिन्न हैं। स्वाभाविक है कि इनमें प्रकृति के सौंदर्य का चित्रण हो।

स्नेह-बंधन / फूलों से महकते / हर सिंगार।
हरसिंगार / महकता जीवन / मन प्रसन्न।
पत्रों पे बैठे / बारिश के मनके / जड़ा है हीरा।
ले अंगडाई / बीजों से निकलते / नव पत्रक।
काली घटाएँ / सूरज को छुपाए / आँख मिचोली।

प्रकृति के विविध रूपों का हाइकुकरण करते समय बिम्बों, प्रतीकों और मानवीकरण करते समय कृत्रिमता अथवा पुनरावृत्ति का खतरा होता है। शशि के हाइकु इस दोष से मुक्त ही नहीं विविधता और मौलिकता से संपन्न भी हैं।

सिंधु गरजे / विध्वंश के निशान / अस्तित्व मिटा।
नभ ने भेजी / वसुंधरा को पाती / बूँदों ने बाँची।
राग-बैरागी / सुर गाए मल्हार / छिड़ी झंकार ।
धरा-अम्बर / तारों की चूनर का / सौम्य शृंगार।

हाइकू के माध्यम से नवाशा और नवाचार को स्पर्श करने का सफल प्रयास करती हैं शशि-

हौसले साथ / जब बढे़ कदम / छू लो आसमां ।
हरे भरे से / रचे नया संसार / धरा का स्नेह।
संग खेलते / ऊँचे होते पादप / छू ले आंसमा।

शशि का शब्द भंडार समृद्ध है। तत्सम-तद्भव शव्दों के साथ वे आवश्यक अंग्रेजी या अरबी शब्दों का सटीक प्रयोग करती हैं -

रूई सा फाहा / नजरो में समाया / उतरी मिस्ट।
जमता खून / हुई कठिन साँसे / फर्ज-इन्तिहाँ।
हिम-से जमे / हृदय के ज़ज़्बात / किससे कहूँ?

करूँ रास का काव्य से गहरा नाता है। कविता का उत्स मिथुनरत क्रौंच युगल के नर का बहेलिया द्वारा वध करने पर क्रौंची के चीत्कार को सुनकर आदिकवि वाल्मीकि के मुख से नि:सृत श्लोक से हुआ है। शशि के हाइकु करुण रस से भी संपृक्त हैं।

उड़ता पंछी / पिंजरे में जकड़ा / है परकटा।
दरख्तों को / जड़ से उखडती / तूफानी हवा।

शशि परंपरा का अनुकरण ही करतीं, आवश्यकता होने पर उसे तोड़ती भी हैं। उन्होंने ६-७-५ वर्ण लेकर भी हाइकु लिखा है -

शूलों-सी चुभन / दर्द भरा जीवन / मौन रुदन।

हाइकु के लघु कलेवर में मनोभावों को शब्दित कर पाना आसान नहीं होता। शशि ने इस चुनौती को स्वीकार कर मनोभाव केंद्रित हाइकु रचे हैं -

अवचेतन / लोलुपता की प्यास / ठूँठ बदन।
सूखी पत्तियाँ / बेजार होता तन / अंतिम क्षण।

वर्तमान समय का संकट सबसे बड़ा पर्यावरण का असंतुलन है। शशि का हाइकुकार इस संकट से जूझने के लिए सन्नद्ध है-

कम्पित धरा / विषैली पोलिथिन / मानवी भूल।
जगजननी / धरती की पुकार / वृक्षारोपण।
पर्वत पुत्री / धरती पे जा बसी / सलोना गाँव।
मानुष काटे / धरा का हर अंग / मिटते गाँव।
केदारनाथ / बेबस जगन्नाथ / वन हैं कटे।

सामाजिक टकराव और पारिवारिक बिखराव भी चिंता का अंग हैं -

बेहाल प्रजा / खुशहाल है नेता / खूब घोटाले।
चिंता का नाग / फन जब फैलाये / नष्ट जीवन।
पति-पत्नी में / वार्तालाप सीमित / अटूट रिश्ता।

जोगिनी गंध में नागर और ग्रामीण, वैयक्तिक और सामूहिक, सांसारिक और आध्यात्मिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक अर्थात परस्पर विरोध और भिन्न पहलुओं को समेटा गया है। गागर में सागर की तरह शशि का हाइकुकार त्रिपदियों और सत्रह वर्णों में अकथनीय भी कह सका है।
२७-११-२०२१
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एक गीत गायें हम : देश नव बनायें हम
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बच्चे मनुष्य का भविष्य और देश के निर्माता हैं। शिशु और बाल साहित्य बाल मन को संस्कारित कर आजीवन बच्चे के साथ रहकर कालजयी हो जाता है। यह बाल-मन की मिट्टी में सदाचार के बीज को सद्भाव से सींचकर, सहिष्णुता के बेल में सहयोग के पुष्प और सहकार के फल खिलाता है। भाषा संस्कार की वाहक है। बाल गीतों की भाषा सहज, सरल, स्पष्ट, संक्षिप्त, सरस तथा सारगर्भित होना आवश्यक है। मुहावरेदार भाषा में लिखे गए लयबद्ध गीत बालक को खेल-खेल में कंठस्थ हो जाते हैं। ऐसे गीतों को दोहराकर बच्चे सही उच्चारण करने, नए-नए शब्द सीखने, सही भाषा बोलने प्रस्तुत करने के साथ पारस्परिक सद्भाव स्थापित कर सद्भाव और सहिष्णुता के साथ जीना सीखते हैं। सुसंस्कारित बच्चे कठिन से कठिन परिस्थिति में भी गलत राह पर नहीं जाते। दीन-हीन ही नहीं, समृद्ध और संपन्न परिवारों के बच्चे भी गलत राह पर जाने लगें तो स्पष्ट है कि उन्हें बाल्यकाल में अच्छे संस्कार अर्थात अच्छे गीत नहीं मिले।

माँ की लोरियों में मिली ममता में पला-पूसा बच्चा चलना सीखते ही बाह्य जगत के संपर्क में आने लगता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बच्चा पाँच वर्ष की आयु तक इतना सीख लेता है जितना वह शेष पूरी उम्र में नहीं सीखता। स्पष्ट है कि शिशु गीतों और बाल्य गीतों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण और बच्चे के पूरे जीवन को प्रभावित करने वाली होती है। वर्तमान द्रुत वैज्ञानिक प्रगति और आर्थिक मारामारी के संक्रांति काल में मनुष्य का प्रकृति के साथ संबंध छिन्न-भिन्न हो रहा है। शहरों में मनुष्य एकाकी और आत्मकेंद्रित होता जा रहा है। सबके साथ घुलने-मिलने की प्रवृत्ति समाप्त होती जा रही है। शिशु गीत, बाल गीत आदि बच्चों में सामुदायिक दायित्व और पारस्परिक समझ का विकास करते हैं।

हिंदी और निमाड़ी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार सुरेश कुशवाहा 'तन्मय' की ये रचनाएँ बालकों को गुदगुदाने, रिझाने, हँसाने, मन बहलाने, नई जानकारियाँ देने और एक साथ हिलमिलकर रहने का संस्कार उत्पन्न करने में समर्थ हैं। ये गीत बाल मन में उचित-अनुचित, सदासद, भले-बुरे का भेद सनझाने की प्रवृत्ति विकसित करने में समर्थ हैं। तन्मय जी परम्परा के नाम पर अंधानुकरण और आधुनिकता के नाम पर जड़ों से दूर होने की दुष्प्रवृत्ति से दूर रहते हुए, बाल-मनोभावों को हुलसित-पुलकित करते हुए सही दिशा में बढ़ाने के प्रति सजग हैं। इन गीतों में सहज खिलंदड़ापन, निश्छल जिज्ञासा, भोले प्रश्न, सम्यक समाधान, सतरंगे सपने और अनगिन अरमान यत्र-तत्र गुँथे हुए हैं।

हिंदी बाल साहित्य दो मिथ्या धारणाओं का शिकार है। पहली यह कि इसकी विशेष उपादेयता नहीं है तथा दूसरे यह कि इसे लिखना बहुत आसान है। वस्तुत:, बाल साहित्य लिखना फिल्मों में फ्लैश बैक लिखने की तरह है। वयस्क-प्रौढ़ मस्तिष्क को बचपन में ले जाकर गत को वर्तमान में जीने और आगत से आँखें मिलाने की तरह है। मजे की बात यह है कि दो भिन्न काल खण्डों को तीसरे काल खंड में जीकर बाल साहित्य की सर्जना की जाती है। तन्मय जी रस्सी पर चलते हुए नट की तरह कथ्य, भाव, रस के मध्य दुष्कर संतुलन सहजतापूर्वक स्थापित करते हुए सोद्देश्यता, सहजता और सरलता की त्रिवेणी में अवगाहन करा देते हैं। बाल साहित्य के समक्ष 'बचकाना साहित्य' न होने की कड़ी चुनौती होती है।

तैत्तिरीयोपनिषद में 'रसो वै स:' कहकर जिस काव्यानंद को इंगित किया गया है वह तन्मय जी के इन बालगीतों में सहज प्राप्य है। तन्मय जी की बाल कविताएँ पढ़ना कथ्य, भाषा, भाव, रस, छंद. अलंकार, बिम्ब, प्रतीक आदि की लहरियों से लबालब नर्मदा में स्नान करने की तरह सुखद है।

'लें आशीषें' शीर्षक गीत में बच्चों को संस्कारित कर बड़ों का सम्मान करने का मनोभाव विकसित किया गया है-

रोज सवेरे बिस्तर से उठते ही
प्रभु का ध्यान करें
सभी बड़ों के छूकर चरण
ह्रदय से उन्हें प्रणाम करें।

माँ-बच्चे का नाता संसार में सर्वाधिक निकट संबंध है। कई शब्द चित्र माँ की विविध छवियाँ उकेरते हैं-

मीठी वाणी से मन मोहे
मिश्री प्रेम दुलारी माँ
*
खेले संग, तब जान-बूझकर
खा जाती है गच्ची माँ
*
हैं अनंत खुशियों की खान
मेरी मम्मी बहुत महान
*
नहीं भूलते हैं हम अब भी
जो भी पाठ पढ़ाती मम्मी
*
मम्मी के हाथों में रहता
स्वाद है बड़ा कमाल
*
'मम्मी जी ने डाँट पिलाई', 'मुनिया रानी', 'मेरी नानी', 'दादा जी के साथ-साथ में', 'अखबार और दादाजी' आदि रचनाएँ पारिवारिक संबंधों के जीवंत चित्र उपस्थित करती हैं।
'स्कूल की तैयारी है', 'हमको भी स्कूल जाना है', 'मैं भी लेखक बन जाऊँगी', 'आलस से लड़', अक्षर ज्ञान बढ़ाएं', 'चलो चलें स्कूल', 'मिलकर करें पढ़ाई', 'स्कूल चलें', 'पढ़ें पढ़ाएँ' आदि गीतों में बाल मन को शिक्षानुराग से संस्कारित किया गया है।

हमको भी स्कूल है जाना पापा जी
अक्षर ज्ञान हमें भी पाना पापाजी

धंत ततड़ ततड़ ततड़
धंत ततड़ तड़
ले किताब जल्दी से
और पाठ पढ़

बाल मन खेल-कूद में असीम आनंद पाता है। 'नाचें कूदें जी बहलायें', 'आओ! अगली सदी चलें', 'तबइक तुम भइ तबइक तुम', 'बाल आनंद', 'चलें गाँव पिकनिक मनाने', 'चलें मनाने को पिकनिक', 'उड़नखटोला', 'अगर मुझे उड़ना आता तो', 'बोल जमूरे!, हाँ उस्ताद', 'भालू जी का सूट', आदि में खिलंदड़पन का उल्लास-उत्साह अभिव्यक्त हुआ है।

बच्चो! बोलो छिपन छिपैया
छिपन छिपैया, छिपन छिपैया
प्रगट हुए तब बंदर भैया
खी खी करके हाथ हिलाया
फिर थोड़ा मन में शरमाया
पूछा, तेरी कहाँ बंदरिया?
छिपन छिपैया, छिपन छिपैया
घूँघट ओढ़ बंदरिया आई
देख सभी को वह मुस्काई
यह बंदर क्या तेरा सैंया?
छिपन छिपैया, छिपन छिपैया

'बाल मन की बातें', 'गाँव के बच्चे', हो जाऊं मैं शीघ्र बड़ा', 'होंगे उजले भावी दिन', 'नियम सड़क के', 'लहर-लहर लहराती नदिया', 'करें ज्ञान-विज्ञान की बातें', 'अच्छे दिन आनेवाले हैं', 'पुस्तक मेला', 'बरखा ऋतु आई 'बादल काले काले हैं', 'बादल आये', 'जब से नभ छाए बादल', 'मौसमी फल','गर्मी के मौसम में', 'धूप तेज है गर्म हवाएँ', 'गर्मी का मौसम आया', 'सर्दी आई', 'शुरू हुआ अप्रैल' 'दस दोहे मेला दर्शन', 'पेड़ों में भी प्राण हैं', 'सपने की सीख', 'कष्ट हरो मजदूर के', 'शिक्षक दिवस गुरु वंदन', 'उठो भोर में जल्दी' जैसे गीतों में पढ़ते-बढ़ते बालकों में परिवेश, पर्यावरण, मौसम, ऋतुचक्र आदि के प्रति सजगता उत्पन्न करने का सफल प्रयास हुआ है।
बीती वर्षा, सर्दी आई
निकले कंबल, शाल, रजाई
थर-थर लगी कांपने ठंडी
इस बारिश में खूब नहाई

सिकुड़ी सिमटी ठंड जा रही
मौसम गर्मी का आया
आइसक्रीम के दौर, बर्फ के गोले
श्री खंड याद आया

जब से नभ में छाये बादल
तन-मन को हर्षाये बादल
रिमझिम रिमझिम पानी बरसे
सब के मन को भाये बादल

'दादा जी कहते हैं मेरे', 'शुरू हुआ अप्रैल', 'गोलू को पानी की सीख', जीवन जीना बहुत चाव से', 'सहयोग भावना', 'एक गीत 'गायें हम', 'आसमान के हैं ये तारे', 'अपनी हिंदी', 'हरी कैरियाँ पीले आम', 'सुनो कहानी आम की', 'सुबह की धूप मखमली', 'सुबह की धुप गुनगुनी', 'सुबह सवेरे', 'यह कैसी बरसात?', 'मच्छरदानी में', 'बाल सुलभ संसार चाहिए', 'बोझ पढ़ाई का', 'अच्छे दिन आनेवाले हैं', 'कुर्सी दौड़', ' अधिकार न छीनो', 'मेरा सपना', 'मक्खी और मिठाई', 'कोरोना को मार भगाए', 'वंदे मातरम', 'नव वर्ष अभिनंदन', 'वरदायी चक्की और मेरी चाह', 'तथा लोरी कौन सुनाएगा अब' आदि गीतों में अपेक्षाकृत अधिक विकसित मस्तिष्क और चेतना संपन्न बालको के लिए ऐसा कथ्य रख गया है जो उनमें अधिकारों और कर्तव्यों की समझ, राष्ट्रीयता की भावना आदि करे।

देश प्रेम के गाएँ मंगल गान
वंदे मातरम
तन-मन से हम करें राष्ट्र सम्मान
वंदे मातरम

तन्मय जी के बाल गीतों का वैशिष्ट्य तोतले बोल, किलकारी, कल्पना की उड़ान, नन्हें प्रयास, धूप-छाँव, चिंता-मजा, गीत-संगीत सम्यक अनुपात में यथास्थान उपस्थित होना है। वे किसी विचार को लेकर को लेकर सप्रयास गीत नहीं लिखते अपितु गीत को तारी होने देते हैं। इसलिए इन बाल गीतों में कहीं भी छंद या कथ्य थोपा हुआ नहीं है, स्वाभाविक रूप अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित हुआ है. फलत: गीत सहज ग्राह्य, सुमधुर और उपयोगी बन गए हैं।

" जब तुम बच्चों के लिए हो तो उस विशेष अवसर विशेष शैली मत अपनाओ। अपनी पूरी क्षमता से लिखो वस्तु को सजीव होकर आने दो।" अनातोले फ़्रांस के इस विचार को तन्मय जी ने अनजाने ही अपना लिया है।

पॉल हेजार्ड ने है "बच्चे उन पुस्तकों को पसंद नहीं करते जिनमें उन्हें बराबर का दर्जा नहीं दिया जाता और उन्हें 'प्यारे नन्हें साथियों आदि शब्दों से संबोधित किया जाता है अथवा जो उनकी प्रकृति अनुरूप नहीं होतीं जिनके चित्र आँखों को और जिनकी सजीवता उनके ह्रदय को आकृष्ट नहीं कर पातीं अथवा उन्हें केवल वही चीजें सिखाती हैं जिन्हें वे स्कूल में सीखते हैं और जो उन्हें नींद की गोद में सुला सकती हैं किन्तु सपनों की दुनिया में नहीं ले जा सकतीं।' तन्मय जी ने अपने बाल गीतों में विशेष ध्यान रखा है कि बालगीत रोचक, उत्सुकताकरक और। ये बाल गीत बच्चों और बड़ों दोनों को पसं आएँगे और तन्मय जी के अगले बाल गीत संग्रह के प्रति उत्सुक बनायेंगे।
२४-१०-२०२०
***
''कागज़ के अरमान'' - जमीन पर पैर जमकर आसमान में उड़ान
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
मानव सभ्यता और कविता का साथ चोली-दामन का सा है। चेतना के विकास के साथ मनुष्य ने अन्य जीवों की तुलना में प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण-पर्यवेक्षण कर, देखे हुए को स्मृति में संचित कर, एक-दूसरे को अवगत कराने और समान परिस्थितियों में उपयुक्त कदम उठाने में सजगता, तत्परता और एकजुटता का बेहतर प्रदर्शन किया। फलत:, उसका न केवल अनुभव संचित ज्ञान भंडार बढ़ता गया, वह परिस्थितियों से तालमेल बैठने, उन्हें जीतने और अपने से अधिक शक्तिशाली पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं पर भी विजय पाने और अपने लिए आवश्यक संसाधन जुटाने में सफल हो सका। उसने प्रकृति की शक्तियों को उपास्य देव मानकर उनकी कृपा से प्रकृति के उपादानों का प्रयोग किया। प्रकृति में व्याप्त विविध ध्वनियों से उसने परिस्थितियों का अनुमान करना सीखा। वायु प्रवाह की सनसन, जल प्रवाह की कलकल, पंछियों का कलरव, मेघों का गर्जन, विद्युतपात की तड़ितध्वनि आदि से उसे सिहरन, आनंद, प्रसन्नता, आशंका, भय आदि की प्रतीति हुई। इसी तरन सिंह-गर्जन सुनकर पेड़ पर चढ़ना, सर्प की फुंफकार सुनकर दूर भागना, खाद्य योग्य पशुओं को पकड़ना-मारना आदि क्रियाएँ करते हुए उसे अन्य मानव समूहों के अवगत करने के लिए इन ध्वनियों को उच्चरित करने, अंकित करने की आवश्यकता अनुभव हुई। इस तरह भाषा और लिपि का जन्म हुआ।

कोयल की कूक और कौए की काँव-काँव का अंतर समझकर मनुष्य ने ध्वनि के आरोह-अवरोह, ध्वनि खण्डों के दुहराव और मिश्रण से नयी ध्वनियाँ बनाकर-लिखकर वर्णमाला का विकास किया, कागज़, स्याही और कलम का प्रयोगकर लिखना आरंभ किया। इनमें से हर चरण के विकास में सदियाँ लगीं। भाषा और लिपि के विकास में नारी की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। प्रकृति प्रदत्त प्रजनन शक्ति और संतान को जन्मते ही शांत करने के लिए नारी ने गुनगुनाना आरम्भ कर प्रणयनुभूतियों और लाड़ की अभिव्यक्ति के लिए रूप में प्रथम कविता को जन्म दिया। आदि मानव ने ध्वनि का मूल नारी को मानकर नाद, संगीत, कला और शिल्प की अधिष्ठात्री आदि शक्ति पुरुष नहीं नारी को मान जिसे कालान्तर में 'सरस्वती (थाइलैण्ड में सुरसवदी बर्मा में सूरस्सती, थुरथदी व तिपिटक मेदा, जापान में बेंज़ाइतेन, चीन में बियानचाइत्यान, ग्रीक सभ्यता में मिनर्वा, रोमन सभ्यता में एथेना) कहा गया। बोलने, लिखने, पढ़ने और समझने ने मनुष्य को सृष्टि का स्वामी बन दिया। अनुभव करना और अभिव्यक्त करना इन दो क्रियाओं में निपुणता ने मनुष्य को अद्वितीय बना दिया।

भाषा मनुष्य की अनुभूति को अभिव्यक्त करने के साथ मनन, चिंतन और अभिकल्पन का माध्यम भी बनी। गद्य चिंतन और तर्क तथा पद्य मनन और भावना के सहारे उन्नत हुए। हर देश, काल, परिस्थिति में कविता मानव-मन की अभिव्यक्ति का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम रही। इस पृष्ठभूमि में डॉ. अग्निभ मुखर्जी 'नीरव' की कविताओं को पढ़ना एक आनंददायी अनुभव है। सनातन सामाजिक मूल्यों को जीवनाधार मानते हुए सनातन सलिला नर्मदा के तट पर भारत के मध्यम श्रेणी के संस्कारधानी विशेषण से अलंकृत शहर जबलपुर में संस्कारशील बंगाली परिवार में जन्म व शालेय शिक्षाके पश्चात साम्यवाद के ग्रह, विश्व की महाशक्ति रूस में उच्च अध्ययन और अब जर्मनी में प्रवास ने अग्निभ को विविध मानव सभ्यताओं, जीवन शैलियों और अनुभवों की वह पूंजी दी, जो सामान्य रचनाकर्मी को नहीं मिलती है। इन अनुभवों ने नीरव को समय से पूर्व परिपक्व बनाकर कविताओं में विचार तत्व को प्रमुखता दी है तो दूसरी और शिल्प और संवेदना के निकष पर सामान्य से हटकर अपनी राह आप बनाने की चुनौती भी प्रस्तुत की है। मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता है कि अग्निभ की सृजन क्षमता न तो कुंठित हुई, न नियंत्रणहीन अपितु वह अपने मूल से सतत जुड़ी रहकर नूतन आयामों में विकसित हुई है।

अग्निभ के प्रथम काव्य संग्रह 'नीरव का संगीत' की रचनाओं को संपादित-प्रकाशित करने और पुरोवाक लिखने का अवसर मुझे वर्ष २००८ में प्राप्त हुआ। ग्यारह वर्षों के अंतराल के पश्चात् यह दूसरा संग्रह 'कागज़ के अरमान' पढ़ते हुए इस युवा प्रतिभा के विकास की प्रतीति हुई है। गुरुवर श्री मुकुल शर्मा जी को समर्पण से इंगित होता है की अग्निभ गुरु को ब्रह्मा-विष्णु-महेश से उच्चतर परब्रह्म मानने की वैदिक, 'बलिहारी गुरु आपकी जिन गोविंद दियो बताय' की कबीरी और 'बिन गुरु ज्ञान कहाँ से पाऊँ?' की समकालिक विरासत भूले नहीं हैं। संकलन का पहला गीत ही उनके कवि के पुष्ट होने की पुष्टि करता है। 'सीना' के दो अर्थों सिलना तथा छाती में यमक अलंकार का सुन्दर प्रयोग कर अग्निभ की सामर्थ्य का संकेत करता है।

जिस दिन मैंने उजड़े उपवन में
अमृत रस पीना चाहा,
उस दिन मैंने जीना चाहा!
काँटों से ही उन घावों को
जिस दिन मैंने सीना चाहा
उस दिन मैंने जीना चाहा!
जिस दिन मैंने उत्तोलित सागर
सम करना सीना चाहा
उस दिन मैंने जीना चाहा!

पुनरावृत्ति अलंकार का इतना सटीक प्रयोग काम ही देखने मिलता है -

एक न हो हालात सभी के
एक हौसला पाया है,
एक एक कर एक गँवाता,
एक ने उसे बढ़ाया है।

कहा जाता है कि एक बार चली गोली दुबारा नहीं चलती पर अग्निभ इस प्रयोग को चाहते और दुहराते हैं बोतल में -

महफ़िल में बोतलों की
बोतल से बोतलों ने
बोतल में बंद कितने
बोतल के राज़ खोले।
पर सभी बोतलों का
सच एक सा ही पाया-
शीशे से तन ढका है,
अंदर है रूह जलती,
सबकी अलग महक हो
पर एक सा नशा है।
बोतल से बोतलें भी
टूटी कहीं है कितनी।
बोतल से चूर बोतल
पर क्या कभी जुड़ी है?
दिलदार खुद को कहती
गुज़री कई यहाँ से,
बोतल से टूटने को
आज़ाद थी जो बोतल।
हर बार टूटने पर
एक हँसी भी थी टूटी।
किसके नसीब पर थी
अब समझ आ रहा है।
बोतल में बोतलों की
तकदीर लिख गयी है।
बोतल का दर्द पी लो,
चाहे उसे सम्हालो।
पर और अब न यूँ तुम
भर ज़हर ही सकोगे।
हद से गुज़र गए तो
जितना भी और डालो
वो छलक ही उठेगा,
रोको, मगर बहेगा।
उस दिन जो बोतलों से
कुछ अश्क भी थे छलके
वे अश्क क्यों थे छलके
अब समझ आ रहा है।

नर्मदा को 'सौंदर्य की नदी' कहा जाता है। उसके नाम ('नर्मदा' का अर्थ 'नर्मंम ददाति इति नर्मदा' अर्थात जो आनंद दे वह नर्मदा है), से ही आनंदानुभूति होती है। गंगा-स्नान से मिलनेवाला पुण्य नर्मदा के दर्शन मात्र से मिल जाता है। अग्निभ सात समुन्दर पार भी नर्मदा के अलौकिक सौंदर्य को विस्मृत न कर सके, यह स्वाभाविक है -

सुन ले जीवन एक बार ज़रा तू नीरव का संगीत।
महाघोष सुनाती बह चलती
नर्मदा तीर पर आज मिला,
चिर तर्ष, हर्ष ले नाच रही
जो पाषाणों में प्राण खिला ।
पाषाण ये मुखरित लगते हैं,
सोये हों फिर भी जगते हैं,
सरिता अधरों में भरती उनके आज नवल यह गीत ।
सुन ले जीवन एक बार ज़रा तू नीरव का संगीत ।।

अग्निभ के काव्य संसार में गीत और कविता अनुभूति की कोख से जन्मे सहोदर हैं।वे गीत, नवगीत और कविता सम्मिश्रण हैं। अग्निभ की गीति रचनाओं में छान्दसिकता है किन्तु छंद-विधान का कठोरता से पालन नहीं है। वे अपनी शैली और शिल्प को शब्दित लिए यथावश्यक छूट लेते हुए स्वाभाविकता को छन्दानुशासन पर वरीयता देते है। अन्त्यानुप्रास उन्हें सहज साध्य है।

लंबे विदेश प्रवास के बाद भी भाषिक लालित्य और चारुत्व अग्निभ की रचनाओं में भरपूर है। हिंदी, बांग्ला, अंग्रेजी, रूसी और जर्मनी जानने के बाद भी शाब्दिक अपमिश्रण से बचे रहना और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के नाम पर व्याकरणिक अनाचार न करने की प्रवृत्ति ने इन रचनाओं को पठनीय बनाया है। भारत में हिंगलिश बोलकर खुद को प्रगत समझनेवाले दिशाहीन रचनाकारों को अभिनव से निज भाषा पर गर्व करना सीखना चाहिए।

अग्निभ ने अपने प्रिय कवि रवींद्र नाथ ठाकुर की कविताओं का अनुवाद भी किया है। संकलन में गुरुदेव रचित विश्व विख्यात प्रार्थना अग्निभ कृत देखिये-

निर्भय मन जहाँ, जहाँ रहे उच्च भाल,
ज्ञान जहाँ मुक्त रहे, न ही विशाल
वसुधा के आँगन का टुकड़ों में खण्डन
हो आपस के अन्तर, भेदों से अगणन ।
जहाँ वाक्य हृदय के गर्भ से उच्चल
उठते, जहाँ बहे सरिता सम कल कल
देशों में, दिशाओं में पुण्य कर्मधार
करता संतुष्ट उन्हें सैकड़ों प्रकार।
कुरीति, आडम्बरों के मरू का वह पाश
जहाँ विचारों का न कर सका विनाश-
या हुआ पुरुषार्थ ही खण्डों में विभाजित,
जहाँ तुम आनंद, कर्म, चिंता में नित,
हे प्रभु! करो स्वयं निर्दय आघात,
भारत जग उठे, देखे स्वर्गिक वह प्रात ।

''कागज़ के अरमान'' की कविताएँ अग्निभ के युवा मन में उठती-मचलती भावनाओं का सागर हैं जिनमें तट को चूमती साथ लहरों के साथ क्रोध से सर पटकती अगाध जल राशि भी है, इनमें सुन्दर सीपिकाएँ, जयघोष करने में सक्षम शङख, छोटी-छोटी मछलियाँ और दानवाकार व्हेल भी हैं। वैषयिक और शैल्पिक विविधता इन सहज ग्राह्य कविताओं को पठनीय बनाती है। अग्निभ के संकलन से आगामी संकलनों की उत्तमता के प्रति आशान्वित हुआ जा सकता है।
२५-११-२०२१
***
गीत सलिला में प्रवाहित 'सपनों की कश्ती'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
कट्टरतावादी भावधारा से दूर रहते हुए साहित्य एवं कला की अपनी गहरी समझ से यथार्थवाद की प्रामाणिक व्याख्या उपस्थापित करनेवाले दार्शनिक-साहित्यिक हंगेरियन आलोचक जॉर्ज लुकाच के अनुसार - 'गीत-काव्य में केवल महान क्षण रहता है। यह वह क्षण होता है जिसमें प्रकृति और आत्मा की सार्थक एकता या उनका सार्थक लगाव जो आत्मा का सर्वस्वीकृत अकेलापन हुआ करता है, शाश्वत बन जाते हैं। .... गीतमय क्षण में आत्मा की शुद्धतम आभ्यंतरिकता अनिवार्यत: काल से पृथक कर दी जाती है, वस्तुओं की अस्पष्ट विविधता से ऊपर उठा दी जाती है और इस तरह पदार्थ से परिवर्तित कर दी जाती है ताकि चमकते हुए एक प्रतीक में बँध सके। आत्मा और प्रतीक के बीच स्थापित इस संबंध को केवल गीतमय क्षणों में ही निर्मित किया जा सकता है।'

भाई मनोहर चौबे 'आकाश' के गीत संग्रह को पढ़ते हुए जॉर्ज लुकाच के उक्त कथन की अपेक्षा रविरंजन का कथन अधिक सटीक प्रतीत हुआ - 'कविता से एक हद तक भिन्न गीत की एक अलग रचनात्मक शर्त एवं समझ होती है।'

हिंदी साहित्य में गीत की रचना देश-काल-परिस्थिति अनुरूप होती रही है। भारतीय आदिवासी समाज और ग्रामीण समाज ने गीत के सहारे दुर्दिनों में आत्मबल और जुझारुपन पाया है तो सुदिनों में आत्मानंद और संतोष की निधि संचित की है। गीत लोकमानस के सुख-दुःख के पलों में धूप-छाँव की तरह अभिन्न साथी रहा है। व्युत्पत्ति के आधार पर 'गै + क्त' के योग से निर्मित 'गीत' सामान्यत: वह काव्य रचना है जिसे गाया जा सके, गाया गया हो। 'गीर्भि: वरुण सीमहि' - ऋग्वेद। आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं 'गीतं शाब्दितगानयो:' . अमरकोश के अनुसार 'गीतं गाननिमे समे'। 'गेय' होना अर्थात 'गाया जा सकना' गीत होने की अनिवार्यता है तो क्या हर तुकबंदी 'गीत' है? ऐसा नहीं है। कहमुकरियाँ, माहिये, तसलीस, दोहा, रोला, सॉनेट, रुबाई आदि में गेयता होने पर भी वे गीत नहीं हैं।

गीत की दूसरी अनिवार्यता उनका छांदस अर्थात छन्दाधारित होना है। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या हर छंद को गीत कहा जा सकता है?, कदापि नहीं। सर्वमान्य है कि गीत में छंद का प्रयोग किया जाता है, एक छंद का भी और एकाधिक छंदों का भी। कब कहाँ कौन से और कितने छंदों का प्रयोग किया जाए यह गीतकार की छांदस समझ और रचना सामर्थ्य तथा गीत के कथ्य की आवश्यकता पर निर्भर करता है। श्रृंगार गीत में आल्हा छंद का प्रयोग नहीं किया जा सकता।

गीत की तीसरी जरूरत उसका शिल्प है। शिल्पगत रूढ़ता के मद्देनज़र गीत में एक मुखड़ा और कुछ अंतरे होने चाहिए। मुखड़े में पंक्ति संख्या या पंक्तियों में शब्द संख्या का कोई प्रतिबंध नहीं होता। अंतरों की संख्या, अंतरों में पंक्तियों की संख्या या पंक्तियों में शब्दों या वर्णों की संख्या आवश्यकतानुरूप रखी जा सकती हैं। सामान्यत: हर अंतरे का अंत मुखड़े की प्रथम या अंतिम पंक्ति के समान भार की पंक्ति से होता है और उसके बाद अंतरे की समभारिक पंक्ति या पूरा अन्तरा पढ़ा जाता है। वस्तुत: गीतात्मक आंतरिकता की रूपात्मक अभिव्यक्ति ही गीत है। सभी अंतरों में समभारिक समान पंक्ति संख्या साहित्यिक गीतों का अनिवार्य अंग रही है किंतु लोकगीतों और चित्रपटीय गीतों में गीतकार इसका उल्लंघन भी करते रहे हैं।

मनोहर चौबे 'आकाश गीत के पारंपरिक विधानों का पालन करनेवाले गीतकार हैं। शिवशंकर मिश्र भले ही 'गेयता' को गीत की शर्त न मानें या ठाकुर प्रसाद सिंह कहें 'गीत, कुल मिलाकर गेयता का प्रभाव मन पर छोड़ता है, लेकिन यह गेयता भी बाहरी न होकर भीतरी तत्व है।' आकाश और मैं भी देवेंद्र कुमार से सहमत हैं -'अनुशासन से अलग गीत की संभावना हो ही नहीं सकती।' गीत में मुखड़ा-अंतरों का शैल्पिक अनुशासन, छांदस अभिव्यक्ति और लयात्मकता का कथ्यानुशासन स्वैच्छिक नहीं अपरिहार्य है। कार्ल मार्क्स के अनुसार कविता 'मनुष्यता की मातृभाषा है' तो मेरे मत में 'गीत मानवात्मा की प्रकृतिजन्य अभिव्यक्ति है।' जर्मन दार्शनिक थियोडोर अडोर्नो की दृष्टि में 'गीत मनुष्य सभ्यता की धूप घड़ी है।' मुझे गीत के संबंध में सर्वाधिक सटीक अभिव्यक्ति बुआश्री महीयसी महादेवी जी की प्रतीत होती है - 'साधारणत: गीत व्यक्तिगत सीमा में तीव्र सुख-दुखात्मक अनुभूतियों का वह शब्द-रूप है जो अपनी ध्वन्यात्मकता में गेय हो सके। अनुभूति को तीव्र रखने के लिए तथा उसे दूसरे तक पहुँचाने के लिए कुछ संयम आवश्यक है।' इन गीतों के प्रकाश में गीतकार आकाश भी मुझे महीयसी के अनुगामी प्रतीत होते हैं।

आनुभूतिक आवेगों-संवेगों की लहरों-प्रतिलहरों के आघात-प्रतिघात, आरोह-अवरोह निरंतर सुनें तो उनमें गति-यति की प्रतीति, लय का आभास और गीत का अहसास होता है। गीतकार का तन कहीं भी रहे किन्तु मन जब-जब प्रकृति के अंचल का स्पर्श पाता है तब उसका अंतरमन गीत गा उठता है-

तुमने तो देखा नहीं था
छा रहे नील नभ पर
जब अँधेरी शाम के
दीप जलने लग गए थे
दिवस के विश्राम के
तुमने तो देखा नहीं था
मैं वहीं था, मैं वहीं था

हर अनुभूति की अभिव्यक्ति गीत नहीं हो सकती किन्तु जिन अनुभूतियों से प्राण संप्राणित होता है, उनकी अभिव्यक्ति स्वत: गीत में ढल जाती है। गीतकार आकाश के अनुसार -

अर्थ भावनाओं के जिनके शब्दों में ढल जाते हैं।
अंतरतम के वे संवेदन, मीत! गीत बन जाते हैं ......
इस मन से उस मन तक जाते
इंद्रधनुष से सेतु नए
इस सुंदर धरती पर रहते
जीवन के सब रूपों के
कविजन चित्र बनाते इससे सूरज-चाँद-सितारों के
सुधिजन को संभावनाओं के सब आकाश दिखाते हैं

अपने साहित्यिक उपनाम को उसके शब्दकोशीय अर्थ में प्रयोग कवि आकाश की रचना सामर्थ्य का परिचायक है। गीत में छंदहीनता के लिए कोई स्थान नहीं है। वस्तुत: गीत क्या जिंदगी में भी छंदहीनता की कोई जगह नहीं है।

जीवन छंदहीन कविता बन डूब रहा है
साथी से जाने क्यों इतना ऊब रहा है?

छंदहीन गीत प्रभातीविहीन भोर की तरह बदरंग और नीरस हो जाता है। भोर बिना प्रभाती और प्रभाती बिना भोर दोनों खोई-खोई सी प्रतीत होती हैं। गीत और प्रीत का संबंध अन्योन्याश्रित है। प्रीत हो तो गीत फुट पड़े या गीत फूट पड़े तो प्रीत का वातावरण बन जाए दोनों स्थितियां अपनी-अपनी जगह सत्य हैं। सामने होते हुए भी ओझल रहना और ओझल रहते हुए भी संभावना का पाश बन जाना उसी के लिए संभव है जो गीत को ओढ़ता-बिछाता रहा हो। दुष्यंत कहते हैं- 'मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ / वह ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ।' आकाश गीत को ओढते-बिछाते ही नहीं श्वास हुए आस की तरह, जीते हैं -

सामने हूँ किन्तु इसके बाद भी
आँख से ओझल रहा आभास हूँ।
मैं कहीं छूटी हुई, भूली हुई
प्यार की संभावना का पाश हूँ

अंग्रेजी कहावत है 'फर्स्ट इम्प्रेशन इस द लास्ट इम्प्रेशन', यह प्रथम प्रभाव साहित्यकारों विशेषकर गीतकारों के मानस पट पर अमिट छाप छोड़ जाया करता है। यह छाप मनोहर हो तब तो कहना ही क्या -

प्रथम मिलन का वह मधु स्मित
वह स्नेहिल परिचय अपना
नहीं मान सकता मैं सपना
मैं उसको सच
मान चुका हूँ
और उसे पहचान चुका हूँ

गीतकार का प्रेमी मन चाहता तो बहुत कुछ है पर सत्य यह है की एक किरण मात्र शेष है जबकि आपदाएँ अशेष हैं-

आकाश चाहता था, चंदा सूरज का देश
पर सच ने कहा कि लो, बस एक किरण है शेष....
.... हैं अगिन आपदाएँ, जन्मों तक अभी अशेष

ये अगिन आपदाएँ जिन दर्दों की भेंट देते देते नहीं थकतीं, वे दर्द, उनसे उपजी पीड़ा और पीड़ा से उपजी मधुरता गीतों में विरह श्रृंगार की करुणा घोल देती है।

आज गूँथने बैठा हूँ जब, गठरी खोल देखता हूँ सब
बने हुए निर्माल्य रखे हैं, गंधहीन मुरझाए हैं

वैसे तो हर जीवन होता अपनी अपनी एक कहानी
डुबा गया पर मेरा जीवन, मेरी ही आँखों का पानी
टीस रहा है आज ह्रदय फिर कोई तरस खा रहा मुझ पर
किन्तु नहीं स्नेह दे सकी मुझे किसी की दृष्टि अजानी

गीत सलिला में सतत अवगाहन करते आकाश को मनोहरता इस तरह मुग्ध करती है कि हतप्रभ होकर अपनी बात कहकर भी नहीं कह पाता -

जगमग रूप तुम्हारा, मेरे मन का सुंदर ताजमहल है
प्यार भरी आँखें काशी हैं, नेह तुम्हारा गंगाजल है

युग से बाट जोहते मेरे
मन ने जबसे तुमको पाया
अचिर अतृप्त तृषा ने मेरी
अनुपम मधुर सुधारस पाया
विस्मित नयन तुम्हारी सूरत,
हतप्रभ होकर रहे देखते
चाहा मन ने बहुत मगर वह,
अपनी बात नहीं कह पाया

ह्रदय आज तक भी यह मेरा, नहीं कर सका कभी पहल है
जगमग रूप तुम्हारा, मेरे मन का सुंदर ताजमहल है

गीत और गीतकार के अंतरसंबंध को अभियक्त करना जितना दुष्कर है, आकाश उसे उतनी ही सहजता से शब्द दे पाते हैं। बकौल ग़ालिब 'कहते हैं कि ग़ालिब जा अंदाज़े बयां और', आकाश का अंदाज़े बयां 'और' नहीं 'ख़ास' है, और यह खासियत उसका 'आम' होना है। सरलता, सरसता और सहजता की त्रिवेणी प्रवाहित होती है इस गीत शतक में। आजकल जिस तरह लघु गीतों की पंक्तियाँ हर यति पर विभक्त कर संकलन प्रकाशित करने का चलन है, उसके अनुसार यह एक गीत संग्रह ही पाँच संग्रहों की सामग्री समेटे है। यह संकलन संख्या ही नहीं, गुणवत्ता की दृष्टि से भी वजनदार है।

एक साथ रहते हुए भी दूर रहने की त्रासदी जनित पीड़ा किसी भी संवेदनशील ह्रदय को तोड़ सकती है पर आकाश इस विषमता में भी चिरंतनता का प्रबल स्रोत पा लेते हैं-

तुम मेरे अवचेतन में हो
तुम मेरे अंतर्मन में हो
किन्तु योजना की दूरी है
कई युगों के अंतर पर हो
तुम प्रतीक हो असामर्थ्य के
दुर्भाग्यों के, परवशता के
इस मेरी नश्वर काया की
दो पल की क्षणभंगुरता के
पर फिर भी आधार रहे हो
औ' जीवंत प्रमाण रहे हो
मेरी प्रबल चिरंतनता को
जिससे स्रोत मिला वह तुम हो

'इस अनुरागी मन का सोना जग में माटी मोल कहाया', 'निश-दिन नए विरागी स्वर / बहा रहा मन का निर्झर, बरसात नहीं है लेकिन / हैं फूट रहे आँखों के / जंगल में कितने झरने', 'कब तक और कल्पनाओं के प्रेमगीत मैं रचता जाऊँ', 'जब तक अभी रात बाकी है / तब तक मुझको जगना है', 'जब कोइ अनजान मिला है / एक नया संधान मिला है', 'मन करता है / दूर-दूर तक इन फैले अँधियारों में / सुख का सूरज बनकर आज उभर आऊँ' आदि अभवयक्तियाँ आकाश की कलम की सामर्थ्य की साक्षी हैं।

युगीन विसंगतियाँ भी आकाश की दृष्टि से ओझल नहीं रह सकी हैं। वे नवगीतीय तेवर में विडंबनाओं पर शब्दाघात करते समय व्यंजना का प्रयोग करते हैं -

हो रही गूंगों की अब आलोचना
जान कर भी सत्य कह सकते नहीं

वस्तुत: 'सपनों की कश्ती' गीतों की बगिया है जिसमें विविध सुरभियों के सुमन मन को सुवासित कर रहे हैं। इस गीत सलिला में बारंबार अवगाहन करने का मन होना ही गीतकार की सफलता है। आकाश का यह प्रथम गीत संकलन (प्रथम कृति भी) प्रकाशित होने के पूर्व ही संस्कारधानी में चिरकाल से प्रवाहित हो आ रही गीत परंपरा में उनका नाम प्रतिष्ठित हो चुका है। विश्वास है कि यह संकलन लंबे समय से बाट जोह रहे उनके प्रशंसकों को आश्वस्ति देने के साथ-साथ अगले संग्रह की प्रतीक्षा हेतु उकसाएगा।
६-७-२०२१
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लवाही : नवगीत की नई फसल की उगाही
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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नवगीत मानवीय अनुभूतियों की जमीन से जुड़ी शब्दावली में काव्यात्मक अभिव्यक्ति है। अनुभूति किसी युग विशेष में सीमित नहीं होती। यह अनादि और अनंत है। मानवेतर जीव इसकी अभिव्यक्ति व्यवस्थित और सर्व ज्ञात विधि से नहीं कर पाते। मानव ने ध्वनि के साथ रस और लय का सम्मिश्रण कर नाद को निनाद में परिवर्तित कर कलकल और कलरव को शब्द में ढाल दिया। लोकगीतों और शिशुगीतों में पशु-पक्षियों की बोलिओं का समावेश साक्षी है कि गीत की रचना यात्रा में प्रकृति और परिवेश की महती भूमिका रही है। इन बोलिओं में ध्वनि का उतार-चढ़ाव और ध्वनि खंड की आवृत्ति करना सीखने के साथ ही मानव ने सार्थक शब्दों का प्रयोग कर अपनी अनुभूतियों को ही नहीं, भावनाओं को भी लयबद्ध कर वाचिक गीतों को जन्म दिया। आज भी ग्रामीण अंचलों में खेती की तकवारी करते अपरिचित स्त्री-पुरुष संध्या समय में बम्बुलिया लोकगीत गाते हैं। विस्मय यह की छंद शास्त्र से अनभिज्ञ और कभी कभी अनपढ़ भी एक पंक्ति सुनकर उसी लय पर तत्क्षण रची पंक्ति गाते हुए सुर में सुर मिलाते हैं। मेरे पिताश्री जेल अधीक्षक रहे। हमारा आवास जेल परिसर में ही होता था। जेल की ऊँची दीवारों में कैद बंदी सावन-फागुन, राखी-दीवाली पर स्वजनों की याद में सुबह-शाम इसी तरह गीत गाते और उनमें पंक्तियाँ जोड़ते जाते थे।

'लवाही' के नवगीतों को पूर्वाग्रही दृष्टि के शिकार तथाकथित समीक्षक नवगीत के पूर्व रचित तथाकथित मानकों से भिन्न पाकर नाक-भौं सिकोड़ें यह स्वाभाविक है किन्तु लवाहीकार को इसकी चिंता किये बिना नवगीतों की संरचना में संलग्न रहना चाहिए। कोई पूर्ववर्ती कलमकार अपनी मान्यताओं के पिंजरे में भावी रचनाधर्मियों को कैद कैसे कर सकता है? हर नया रचनाकार अपनी शैली, अपना भावबोध, अपने प्रतीक, अपने बिम्ब, अपना शब्द विन्यास लेकर गीत रचता है। नवगीत की परिभाषा रचने के जितने प्रयास किये जाते हैं, नवगीत उन्हें बेमानी सिद्ध करते हुए हर बार किसी नई कलम को माध्यम बना कर नव भावमुद्रा के साथ प्रगट होकर सबको चौंका देता है। गीतों की समीक्षा केवल पिंगलीय मानकों के निकष पर करना उचित नहीं है। इनमें भावनाओं की, कामनाओं की, आकांक्षाओं की, अरमानों की, पीड़ा की, एकाकीपन की असंख्य भावधाराएँ समाहित होती हैं। इनमें अदम्य जिजीविषा छिपी होती है, इनमें अगणित सपने बुने जाते हैं, इनमें शब्द-शब्द में भाव, रस, लय का प्रवाह होता है।

नवगीत का उद्भव १९५० के आस पास माननेवाले जब सूर. तुलसी और मीरां की रचनाओं को इसका प्रेरणास्रोत बताते हैं तो उनकी समझ पर हँसा ही जा सकता है क्योंकि वे ही दूसरी श्वास में छायावाद की समस्त रचनाओं को काल बाह्य बताने में संकोच नहीं करते। भक्तिकाल में नवगीत का उत्स खोजने-बतानेवाले आधुनिक गीत के साथ अस्पृश्य की तरह बर्ताव करते हैं। तब कहना पड़ता है "गीत और नवगीत / नहीं हैं भारत-पाकिस्तान।" विकिपीडिया के अनुसार 'गीत और नवगीत में काल (समय) का अन्तर है। आस्वादन के स्तर पर दोनों को विभाजित किया जा सकता है। जैसे आज हम कोई छायावादी गीत रचें तो उसे आज का नहीं मानना चाहिए। उस गीत को छायावादी गीत ही कहा जायेगा। इसी प्रकार निराला के बहुत सारे गीत, नवगीत हैं, जबकि वे नवगीत की स्थापना के पहले के हैं। दूसरा अन्तर दोनों में रूपाकार का है। नवगीत तक आते-आते कई वर्जनायें टूट गईं। नवगीत में कथ्य के स्तर पर रूपाकार बदला जा सकता है। रूपाकार बदलने में लय महत्वपूर्ण 'फण्डा' है। जबकि गीत का छन्द प्रमुख रूपाकार है। तीसरा अन्तर कथ्य और उसकी भाषा का है। नवगीत के कथ्य में समय सापेक्षता है। वह अपने समय की हर चुनौती को स्वीकार करता है। गीत की आत्मा व्यक्ति केन्द्रित है, जबकि नवगीत की आत्मा समग्रता में है। भाषा के स्तर पर नवगीत छायावादी शब्दों से परहेज करता दिखाई देता है। समय के जटिल यथार्थ आदि की वजह से वह छन्द को गढ़ने में लय और गेयता को ज्यादा महत्व देता है।'

देवकीनन्दन 'शांत' अपने नवगीत संग्रह 'नवता' में यही प्रश्न उठाते हैं कि गीत से नवगीत तक आते-आते जब कई वर्जनायें टूटीं तो नवगीत के उद्भव से ७० वर्ष बाद आ रहे नवगीतकार कुछ वर्जनाएँ तोड़ रहे हैं तो आपत्ति क्यों? 'लवाही' के नवगीत पढ़कर भी यही प्रतीत होगा कि ये नवगीत निर्धारित मानकों के अनुरूप नहीं हैं। मेरा प्रश्न यही है कि हर नयी रचना को पुराने मानकों के अनुरूप क्यों होना चाहिए? नवता को गढ़ने का अधिकार नये को क्यों नहीं मिलना चाहिए? मानक के नाम पर पुराने अपनी दृष्टि क्यों थोपते रहें? वे, उन्हें अमान्य करनेवाली कलमों को अमान्य किस अधिकार से करते रहें? भारतीय पिंगल शास्त्रीय परंपरा कृति का आरंभ ईश वंदना से करना श्रेयस्कर मानती है। लवाहीकार सुनीता सिंह इसका अंधानुकरण नहीं करतीं, वे ईश को प्रेम और प्रकाश का पर्याय मानकर प्रेम और सूर्य पर केंद्रित रचनाओं को आरम्भ में रखती हैं, परंपरा को नवता का बाना पहनाती हैं। 'दीनानाथ' और 'दीनबंधु' एक ही तो हैं, उन्हें दैन्य भाव नहीं, सखा भाव अधिक रुचता है इसलिए सुनीता सूर्य को बंधु कहती हैं-

कमी नहीं
अब रही नमी की
सूरज प्यारे दिखो निकलकर
अब तो प्रगटो, धूप तिहारी
सब सीलन में सना बंधुवर!

सर्दी में सूर्य 'संक्रान्ति' अर्थात अर्थात परिवर्तन का वाहक होता है। इसी भावभूमि पर मेरे गीत-नवगीत संग्रह "काल है संक्रांति का" में ९ नवगीतों में सूर्य को केंद्र में रखा गया था। सुनीता सिंह सूर्य को लोक से जोड़ते हुए गुड़. लैया, तिल के लड्डू, दही-चूड़ा, मूँगफली, लक्ठा, आलू, बथुआ-चना-सरसों के साग, चाय-सूप-कॉफी, ज्वार-बाजरे-मक्के की रोटी, स्वेटर-जैकेट-शाल से जोड़ते हुए मुफ़लिस की झोपड़ी तक पहुँचाने में देर नहीं लगातीं। 'प्रीत की नक्काशियाँ' शीर्षक गीत में 'मन-भवन की देहरी पर प्रीत की नक्काशियाँ' जैसी प्रांजल अभिव्यक्ति गीतकार में छिपी संभावनाओं का संकेत करती है। इस गीत में अलंकारों की मनहर छटा अवलोकनीय है-

रूह करती, रूह से मिल
चाहतों की बारिशें
शुष्क सहसा हो धरा फिर
बूंदों की गुजारिशें (यमक अलंकार )

घने कारे घिरे बदरा घेर लें दुश्वारियाँ (अनुप्रास अलंकार )

सूरज प्यारे दिखो निकलकर (उपमा अलंकार)

मन-भवन की देहरी पर (रूपक अलंकार)

मकर संक्रांति शीर्षक गीत में कवयित्री विविध प्रदेशों में भिन्न-भिन्न नामों का उल्लेख करते हुए बिना कहे राष्ट्रीय एकता का भाव उपजाने में समर्थ है।
सुरभित मति है जन मानस की
क्या अगड़ी, क्या पिछड़ी?
तिल गुड़ लैया की सौंधी सी
देख रही है तिकड़ी

नवधनाढय वर्ग में अत्याधुनिकता के आडंबरों पर आक्षेप करते हुए सुनीता 'मुखौटा कल्चर' नवगीत में जिस शब्दावली का प्रयोग करती हैं वह सटीक ही नहीं सार्थक भी है-

गुलमोहर से अधिक मनोहर
दौर मुखौटा कल्चर का।
टाइल से भी ज्यादा चिकनी
स्टाइल की दीवारें
गूढ़ अर्थ हैं छुपे हुए से
स्माइल में बारी-बारी
नाम बड़ा हो गया है अब
बेख़ौफ़ उड़ते वल्चर का

स्पष्ट है कि भाषा में शुद्धता के पक्षधरता समीक्षकों को उँगली उठाने का अवसर मिलेगा किन्तु सुनीता साहस के साथ चुन-चुनकर वही शब्द प्रयोग करती हैं जो उनके चाहे भाव और कथ्य के साथ न्याय कर सके। वे शब्दों को शब्द कोशीय अर्थ से हटकर भिन्नार्थ में प्रयोग करने की सामर्थ्य रखती हैं, यह असाधारण है-

बदला लगता आर्किटेक्चर
इस आधुनिक 'स्कल्पचर' का।
गुलमोहर से अधिक मनोहर
दौर मुखौटा कल्चर का।
पेय पुराना देसी छोड़ा,
दिल आया अंग्रेजी पर।
अब प्रगतिशील की पहचान
रहे नशे की रंगरेजी पर।।

सुनीता जी के गीतों में मुहावरों का प्रयोग अनूठे तरीके से हुआ है। मुहावरे अपने सही अर्थ में, स्वाभाविकता के साथ आये हैं. ठूँसे नहीं गये हैं। 'स्वाद अदरकी' शीर्षक नवगीत में किताबी विद्वता और लालफीताशाही पर व्यंग्य तथा व्यञजनात्मकता देखते ही बनती है-

दहर अनोखी, स्वाद अदरकी
तो अब जाने बंदर ही

जोड़-तोड़कर डिग्री लेकर
बने पोथियों के विद्वान्
बगुलों में वो हंसा बनकर
चौपाल की बनते शान
ज्ञान समुन्दर भरा हुआ है
जैसे उनके अंदर ही

बनते दफ्तर राजनीति में
धुरी खुशामद्कारी की
साँसें भी हों गिरवी जैसे
रख दी चंद उधारी की
संझा देते शलजम भी तो
होता एक चुकंदर ही

'सड़क' आपाधापी से संत्रस्त जीवन की सशक्त प्रतीक है। नगरीकरण की मारी जनता की आधी ज़िंदगी सड़क पर ही बीतती है। मैंने अपने नवगीत संग्रह 'सड़क पर' में ९ नवगीत सड़क के विविध पहलुओं पर लिखे हैं. यह प्रतीक सुनीता जी को भी प्रिय है। 'भीड़ है भारी सड़क पर' नवगीत के शीर्षक में ही श्लेष अलंकार का प्रयोग हुआ है। यह नवगीत सड़कों पर हो रहे घटनाक्रम को जीवंत करता है-

भीड़ पर भारी सड़क है
या सड़क पर भारी भीड़?
जिधर भी जाओ जाम मिलेगा
भीड़-भाड़ का नाम मिलेगा
पौं-पौं-पौं-पौं पम-पम भारी
फटफटिया का झाम मिलेगा
चींटी चाल कतार चले
कुछ पल बने वहीं पर नीड़

इन नवगीतों का विषय वैविध्य व्यापक है। इनमें पर्यावरण, वृद्धावस्था, स्त्री विमर्श, सांस्कृतिक अधकचरापन, कृषि, ऋतु चक्र परिवर्तन, युवा-दिशाहीनता, प्रशासन में राजनैतिक हस्तक्षेप, मूल्यह्रास, आदि विविध पहलू गीतकार की चिंता के विषय हैं। काबिले-तारीफ़ है कि सुनीता अपनी चिंतन दृष्टि पर अपनी जीवन शैली, प्रशासनिक दायित्व या पद को हावी नहीं होने देतीं। यह प्रवृत्ति उनके रचनाकार के कद को बढ़ाता है। उनका शब्द भण्डार व्यापक है। हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू उनके लिए सहज हैं। तत्सम-तद्भव शब्दों, मुहावरों, लोकोक्तियों आदि का प्रयोग वे बखूबी कर लेती हैं। उन्हें भाषा की शुद्धता नहीं संस्कार की चिंता रहती है। छंद वैविध्य उनके इन गीतों में सहजता से प्राप्त है। वे कथ्य को लय पर वरीयता देती हैं।

सबसे अधुक महत्वपूर्ण बात यह है कि वे बनी बनाई लीक का अंधानुकरण न कर अपनी डगर बनाकर उस पर बढ़ना जानती हैं। वे बिना कहे इन रचनाओं के माध्यम से जता देती हैं कि वैचारिक प्रतिबद्धता का लट्ठ भाँज रहे मठाधीश यह समझ लें कि गीत (नवगीत भी) लोक की उपज है, विश्वविद्यालय, सचिवालय या दलीय विचारधाराओं के शिविरों की नहीं। "लवाही" की गीति रचनाओं में अंतर्निहित और अंतर्व्याप्त 'लय' और 'रस' से अभिषेकित पंक्तियाँ इस विश्वास की पुष्टि करती हैं कि गीतों में नवता के नाम पर राजनैतिक वैचारिक प्रतिबद्धताओं को परोस कर जनमत जुटाने का दिवास्वप्न खंडित होता रहेगा। अभिव्यक्ति विश्वम के नवगीत महोत्सव २०१९ में जिस तरह साम्यवादी समूह के गीतकारों ने एकत्र होकर भारतीय सनातन मूल्यपरक गीत की पक्षधरता की बात करते वरिष्ठ गीतकार पर अशोभनीय वाक्प्रहार किये, उसे देखते हुए उसी नगरी में 'लवाही' की रचना होना यह सिद्ध करती है कि विचार-चेतना को तोड़ा नहीं जा सकता।

विशिष्टता यह भी कि जन सामान्य की शब्दावली, भावनाओं और अनुभूतियों को गीतायित करने का महत्वपूर्ण कार्य पुरुष नहीं महिला, वह भी दैनंदिन जीवन की आवश्यकताओं हेतु जूझती महिला द्वारा ही नहीं, उच्च प्रशासनिक दायित्व का निष्ठापूर्वक निर्वहन कर रही आत्मनिर्भर तरुणी द्वारा भी किया जा रहा है। यह कहना इसलिए आवश्यक है कि गीतोद्यान में अंकुरित हो रही नई कलमें यह जान सकें कि गीत रचना हेतु आवश्यक भावप्रवणता किसी सर्वहारा वर्ग की बपौती नहीं है। बहुमूल्य खाद्य ग्रहणकर पचने के लिए हाजमोला और चूर्ण फाँक रहे श्रेष्ठि जन गीत में भुखमरी को ठूँसने का जो छद्म रच रहे हैं वह केवल पाखंड है। देश की अद्वितीय प्रगति की अनदेखी कर पिछड़ेपन के नवगीत लिखना समय और समाज दोनों के साथ अन्याय है।

पंकज परिमल परिमल के शब्दों में गीत "सायासता और अनायासता का एक आनुपातिक मिश्रण होता है। सायासता कविता में बिलकुल न होगी,यह मानना मुश्किल है। पर अमर्यादित सायासता कविता की सहजता को नष्ट करती है। देशज शब्द तद्भव शब्दों का साथ गहते हैं तो कभी -कभी क्रियापदों के ग्राम्य आचरण को खड़ी बोली की कविता में रोक पाना मुश्किल हो जाता है।" सुनीता सिंह के ये नवगीत जो स्वाभाविक रूप से गीत भी हैं, सहजता को सहज ही साध पाते हैं। 'बूढ़ी आँखें' शीर्षक नवगीत में सुनीता उस अनुभव को विषय बनती हैं जिससे वे अभी वर्षों पीछे हैं किन्तु उनकी सहृदयता परानुभूति को स्वानुभूति बनाकर कह पाती है-

झुर्रियों में हैं कथानक
धूप-छाँव के, अनुभव के
लोच है मानो युगों की
बिना बुलाये जो धमके
उर्मियों के तप्त मंजर
सावनों के भी समंदर
सैलाब को थामे हुए
भवों को हैं ताने हुए
वंशबेल का सुख अनुपम
बाकी सब नाचीज है।

इन ७२ गीतों में सुनीता सिंह ने समय और समाज दोनों को पडतालने की ईमानदार कोशिश की है। उनमें लंबा सफर करने की काबलियत है। आगामी कृतियों में शिल्पगत बारीकियाँ और खूबियाँ और अधिक उभरें यह स्वाभाविक विकास क्रम है। मुझे युवा नवगीतकार की सृजन यात्रा में सहयात्री बनते हुए प्रसन्नता है। यह विश्वास है कि ये रचनाएँ पढ़ी और सराही जाएँगी तथा इनकी रचनाकार बहुविध समादृत होगी।
४-४-२०२०
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नर्मदांचली गीत सलिला गई मथी : 'प्रेम की भागीरथी'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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गीत का उद्भव
मानव ने अपने उद्भव काल से ही अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए ध्वनि को अपनाया। पशुओं-पक्षियों की बोलिओं को सुनकर उनका अनुकरणकर मनुष्य ने ध्वनि और लय को मिलाना ही नहीं सीखा अपितु इस माध्यम से अपनी अनुभूतियों को सुदूर मानव समूहों तक पहुँचाने का माध्यम भी बनाया। शेर की दहाड़, सर्प की फुफकार, नदी और झरने की कलकल, पंछियों का कलरव आदि ध्वनियों के साथ मनुष्य की विविध अनुभूतियाँ जुड़ती गईं। क्रमश: ध्वनियों को जोड़ने और पुनरावृत्ति करने (दोहराने) से प्राप्त लयात्मक आनंद ने गुनगुनाने, गाने और सुनाने के युग को जन्म दिया। ध्वनियों के साथ अर्थ संयुक्त होने पर सार्थक गीत ने जन्म लिया। शिकार युग में पशुओं की उपस्थिति की सूचना अपने साथियों और अन्य मानव समूहों तक पहुँचाकर उन्हें सतर्क करने, पशुपालन काल में भय को भगाने तथा कृषि युग में पंनछी उड़ने और अकेलापन मिटाने के लिए निरर्थक और सार्थक ध्वनियों को मानव ने अपनाया। बढ़ते सार्थक शब्द भंडार ने खेतिहरों और मजदूरों के आदिम लोकगीतों को जन्म दिया जो परिष्कृत होकर 'बम्बुलिया, सरगोड़ासनी' आदि के रूप में आज भी ग्राम्यांचलों में गाए जाते हैं। ऋतु परिवर्तन ने कजरी, राई आदि और पर्व-त्योहारों ने दीवारी, जस, भगतें आदि लोकगीतों को लोक कंठ में बसा दिया। जन्म, विवाह, मरण आदि से सोहर,जच्चा गीत, बन्ना-बन्नी, विदाई गीत आदि का प्रचलन हुआ। धार्मिक क्रियाओं ने आरती, भजन, प्रार्थना आदि का विकास किया।

हिंदी गीत

प्राकृत और अपभृंश की पीठिका पर विकसित खड़ी बोली (आधुनिक हिंदी) ने लोक में व्याप्त वाचिक परंपरा के साथ-साथ प्राकृत, अपभृंश और संस्कृत के छंदों का प्रयोग कर गीत परंपरा को आगे बढ़ाया। वीरगाथा काल में पराक्रमी नायकों के अतिरेकी शौर्य-वर्णन से भरे गाथा काव्यों, रासो आदि में गीत का रूप 'आल्हा' आदि में सीमित था। भक्ति काल में गीत को विषय और कथ्य की दृष्टि से वैविध्यपूर्ण समृद्धता प्राप्त हुई। भक्त कवियों ने प्रार्थना, वंदना, भजन, स्तुति, जस, आरती, पद आदि की रचना की। ज्ञानाश्रयी और प्रेमाश्रयी भावधाराओं ने, निर्गुण-और सगुण पंथों ने, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य आदि उपासना पद्धतियों ने, बौद्ध, जैन, सिक्ख आदि पंथों ने अपने इष्ट और गुरुओं की प्रशंसा में गीत का बहुआयामी विकास किया। रीतिकाल में श्रृंगारपरक साहित्य को प्रधानता मिली और इस काल का गीत साहित्य भी लावण्यमयी नायिकाओं के नख-शिख वर्णन को अपना साध्य मान बैठा। लोकगीतों की धुनों और छंदों का विद्वानों ने अनुशीलन कर उनकी ध्वन्यात्मक आवृत्तियों और उच्चारों की गणना कर मात्रिक-वार्णिक छंदों में वर्गीकृत कर पिंगल (छंद शास्त्र) का विकास किया। गीत पहले या छंद? यह प्रश्न मुर्गी पहले या अंडा की तरह निरर्थक है। यह निर्विवाद है कि लयात्मक ध्वनियों की आवृत्ति पहले लोक में की गई। ध्वनियों के लघु-गुरु उच्चारों को 'मात्रा' और विशिष्ट मात्रा समूह को पिंगल में 'गण' कहा गया। 'मात्रा' और 'गण' की गणना ने छंद वर्गीकरण को जन्म दिया।

आधुनिक साहित्यिक गीत का विकास

आधुनिक काल में लोकभाषाओँ में व्याप्त गीतों के साथ-साथ शिक्षित साहित्यिक गीतकारों ने सामयिक परिस्थितियों, विडंबनाओं और विसंगतियों को भी गीत का कथ्य बनाना आरंभ किया। भाषा और शिक्षा का विकास होने पर अब रचनाकार पूर्व ध्वनियों का स्वानुकरण न कर किताबों में उन ध्वनियों के सूत्र देखकर रचने का प्रयास करता है। इस कारण 'आशुकवि' समाप्तप्राय हैं। अब गीत का रचनाकर्म 'स्वाभाविक' कम और 'गणितीय' या 'यांत्रिक' अधिक होने लगा है। इस कारण आनुभूतिक सघनता का ह्रास हो रहा है। आनुभूतिक सघनता कम होने से गीत में 'सरसता' कम और 'तार्किकता' अधिक होने लगी। 'भावना' को कम 'अनुभूति' को अधिक महत्व मिला। भावनात्मक उड़ान वायवी होने लगी तो 'दिल' की जगह 'दिमाग' ने ली और गीत के प्रति जनरुचि घटी। साहित्यिक मठाधीशी और अमरत्व की चाह ने गीत को 'आम' से काटकर 'ख़ास' से जोड़ने का कर गीत का अहित किया और तथाकथित प्रगतिवादियों ने गीत के मरने की घोषणा कर, गीतकारों को आत्मावलोकन, आत्मालोचन और आत्मोन्नयन के पथ पर चलने की प्रेरणा देकर गीत को पुनर्जीवन दे दिया। लक्ष्य पाठकों / श्रोताओं को चिह्नित कर गीत को लोक गीत, बाल गीत, ग्राम्य गीत आदि विशेषण मिले तो कथ्य देखते हुए पर्व गीत, ऋतु गीत (सावन गीत, चैती गीत आदि), मौसमी गीत, सांध्य गीत आदि नाम दिए गए। उद्देश्य की भिन्नता ने गीत को आह्वान गीत, प्रयाण गीत, जागरण गीत, क्रांति गीत शीर्षकों से अलंकृत किया। रीति-रिवाजों ने गीत को सोहर गीत, बन्ना गीत, विवाह गीत, ज्योनार गीत, विदाई गीत आदि के रूप में सजाया-सँवारा। आकारिक भिन्नता को लेकर लंबा गीत, लघु गीत आदि नाम दिए गए। गीत में कथ्य और शिल्प में नवता के आग्रह ने 'गीत' को नवगीत' के विशेषण से अलंकृत कर दिया।

संस्कारधानी में आधुनिक गीतधारा

सनातन सलिला नर्मदा के तट पर बसी संस्कारधानी जबलपुर से जुड़े गीतकारों की परंपरा में ठाकुर जगमोहन सिंह, माखनलाल चतुर्वेदी, ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान, रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी', महीयसी महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान, केशवप्रसाद पाठक, ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी, भवानीप्रसाद तिवारी, नर्मदाप्रसाद खरे, गोविंदप्रसाद तिवारी, माणिकलाल चौरसिया 'मुसाफिर', रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', पन्नालाल श्रीवास्तव 'नूर', डॉ. चंद्रप्रकाश वर्मा, जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण', श्रीबाल पाण्डे, इंद्रबहादुर खरे, रामकृष्ण श्रीवास्तव, सुमन कुमार नेमा 'राजीव', राजकुमार 'सुमित्र', राजेंद्र 'ऋषि', ब्रजेश माधव, मनोरमा तिवारी, श्याम श्रीवास्तव, कृष्णकुमार चौरसिया 'पथिक', धर्मदत्त शुक्ल व्यथित, आचार्य भागवत दुबे, जय प्रकाश श्रीवास्तव, सुरेश कुशवाहा 'तन्मय', गोपालकृष्ण चौरसिया मधुर', अंबर प्रियदर्शी, साधना उपाध्याय, डॉ. अनामिका तिवारी, उदयभानु तिवारी 'मधुकर', आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', मनोहर चौबे आकाश, अभय तिवारी, सोहन परोहा, आशुतोष 'असर', बसंत शर्मा, मिथलेश बड़गैया, अविनाश ब्यौहार, विनीता श्रीवास्तव, रानू राठौड़ 'रूही', छाया सक्सेना आदि उल्लेखनीय हैं।

गीत नर्मदा निनादित

नर्मदांचल में 'गीत' को 'गीत' मानकर ही रचा गया है। 'नवगीत' आंदोलन को इस अंचल ने नहीं अपनाया। शहडोल से लेकर खंडवा-खरगोन तक गीत में नर्मदा का कलकल निनाद ही निरंतर गुंजित होता रहा है। कटनी में राम सेंगर जी के मार्गदर्शन में आनंद तिवारी, राजा अवस्थी, रामकिशोर दाहिया तथा सतना में भोलानाथ ने नवगीत को पल्लवित करने का प्रयास किया पर वह सीमित दायरे में ही रहा। जबलपुर में विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान के तत्वावधान में गीत-नवगीत के विवाद को दरकिनार कर समन्वय का प्रयास अपेक्षाकृत अधिक सफल रहा। संजीव वर्मा 'सलिल', जयप्रकाश श्रीवास्तव, सुरेश 'तन्मय', बसंत शर्मा, अविनाश ब्यौहार, विजय बागरी, मिथलेश बड़गैया, अखिलेश खरे, विनीता श्रीवास्तव, छाया सक्सेना, राजकुमार महोबिया, हरिसहाय पांडे आदि ने गीत को गीतात्मकता के साथ स्वीकार करते हुए गीत में ही नवगीतीय तत्वों को अपनी शैली की तरह समाहित कर लिया। अविनाथ ब्योहार लघु गीतों की अपनी भिन्न शैली विकसित करने हेतु प्रयासरत हैं। संजीव वर्मा 'सलिल' ने नवगीतीय रचनाओं में बुंदेली शब्दावली, बुंदेली लोकगीतों (फाग, आल्हा, कजरी, राई आदि) का सम्मिश्रण करने के अनेक अभिनव प्रयोग किये जिनमें आगे कार्य करने की पर्याप्त सम्भावना है।

मिथलेश के लिए गीत साहित्य की विधा मात्र नहीं अपितु मनोभावों के प्रगटीकरण का माध्यम भी है। उन्हें गीतों के सान्निध्य में रक्त संचार बढ़ता सा लगता है जो ह्रदय गति तीव्र कर देता है-

मन के कोरे पृष्ठों पर गीतों की प्यास लिखें
शब्द-शब्द रस छंद भाव सुरभित अनुप्रास लिखें
जिन गीतों को पढ़कर दिल की धड़कन रोज बढ़ी
जिन गीतों को पढ़कर मन में मूरत एक गढ़ी
उन गीतों में गुँथे हुए पावन अनुप्रास लिखें

'प्रेम की भगीरथी'

प्रेम की भगीरथी' अभियान जबलपुर की उपाध्यक्ष, कोकिलकंठी गीतकार, नवाचारी शिक्षिका मिथलेश बड़गैया का प्रथम गीत-नवगीत संग्रह है। मिथलेश को अन्य रसों की तुलना में श्रृंगार रस अधिक प्रिय है। इस संक्रमण काल में जब विघटनकारी और विनाशकारी शक्तियाँ सामाजिक और पारिवारिक ताने-बाने को तोड़ रही हैं, जब स्त्री विमर्श के नाम पर बदन दिखाऊ कपड़ों और एकाधिक अथवा विवाहपूर्व दैहिक संबंधों को तथाकथित प्रगतिशीलता का पर्याय समझकर गीत रचा जा रहा है, तब गीतों में पत्नी द्वारा पति को प्रेमी की तरह और पति द्वारा पत्नी को प्रेमिका की तरह चाहने की पावन भावना नव पीढ़ी को संयमित-संस्कारित करने में महती भूमिका का निर्वहन कर सकती है। इन गीतों में श्रृंगार के दोनों रूप मिलन और विरह का मर्यादित, शालीन और रुचिकर शब्दांकन कर सकना कवयित्री की सामर्थ्य का परिचायक है।

राधा ने मन के दर्पण पर राधेश्याम लिखा
फिर आँखों के काजल से उस पर घनश्याम लिखा
*
ओ मेरे परदेसी प्रियतम! तुम कब आओगे?
प्रेम सुधा बरसाकर तुम कब धीर बँधाओगे?
सूख गयी मेरे अन्तस् की रसवंती सरिता
फूलोंवाली क्यारी सूखी, रोती है कविता
उमड़-घुमड़ आकर कब मेरी प्यास बुझाओगे?
*
आते ही मधुमासी मौसम, सुरभित वसुंधरा नभ दिगंत
वासंती सुषमा की छवियाँ, अद्भुत आकर्षक कलावंत
कलियों को मधुकर चूम रहे, षोडशी धरा मुस्काती है
मधुप्रीत धरा छलकाती है
*
शब्द गुणों के फूल खिले हैं, अर्थों की क्यारी-क्यारी
संधि-समासों से अभिसिंचित कथ्य भाव की फुलवारी
शब्द आज माधुर्य बिखेरें काव्य धरा के सिंचन में
गीत सुंदरी धीरे-धीरे उतरी मन के आँगन में
*

प्रेम की भागीरथी में ऐसी अनेक प्रांजल अभिव्यक्तियाँ पाठक के मन को स्पर्श कर प्रफुल्लित करने में समर्थ हैं। समयाभाव और अर्थाभाव के कारण मुरझाए और तनावग्रस्त चेहरों से त्रस्त इस समय के अधरों पर ऐसे गीत, ग्रीष्म की लू के बीच शीतल मलयजी बयार के झोंके की तरह रसानंद की जयकार गुँजाते हुए पाठक / श्रोता के चेहरे पर सुख की प्रतीति अंकित करने में समर्थ हैं। इन गीतों को पढ़कर शालेय छात्र अपना शब्द भंडार और शब्द प्रयोग सामर्थ्य में अभिवृद्धि कर समृद्ध हो सकते हैं।

विरह श्रृंगार के गीतों में अन्तर्निहित करुणा और पीड़ा का शब्द चित्रण किसी भी गीतकार की कसौटी है। मिथलेश के गीत इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। इनमें 'मैं तो राम विरह की मारी / मेरी मुँदरी हो गई कंगना' जैसी नाटकीयता या अतिशयोक्ति न होकर स्वाभाविकता तथा यथार्थपरकता अधिक है-

चार दिनों का साथ हमारा राहें बदल गईं
चार दिनों में दिल की सारी हसरत निकल गई
साथ निभाने में मैं-तुम, दोनों नाकाम लिखें
विरह वेदना की पाती कब तक अविराम लिखें

देश के सीमा की रक्षा कर रहे सैनिक की अपनी पत्नी के नाम पाती में प्यार और त्याग के गंगो-जमुनी रंग इस तरह मिले हैं कि वाह और आह एक साथ ही निकाले बिना रहा नहीं जाता-

सुधियों के जंगल में खोकर, कभी न अश्रु बहाना तुम
नित मेरा प्रतिरूप देखकर, अपना मन बहलाना तुम

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर की कार्यशालाओं में निरंतर छंदों का अध्ययन, गीतों का सृजन व पाठनकर मिथलेश ने कथ्य की अभिव्यक्ति, शब्द के सम्यक प्रयोग और 'लय' को साधने का प्रयास किया है। सतत सीखने की प्रवृत्ति ने उनके लेखन को दिशा, गति और धार दी है। स्वास्थ्य प्रणीत बाधाओं के बाद भी वे निरंतर कुछ नया सीखने के लिए तत्पर रही हैं। वे सम-सामायिक वर्तमान को गतागत के मध्य सेतु स्थापना के लिए प्रयोग करती हैं। उनके गीतों में परंपरा के प्रति आग्रह तो है किंतु वह परिवर्तन की राह में बाधक नहीं, अपितु साधक होते हुए भी परिवर्तन को बेलगाम और दिशाहीन होने से बचाने के लिए सहायक है।

देवार्चन की सनातन परंपरा का निर्वहन विघ्नेश्वर गणेश, बुद्धिदात्री सरस्वती, भारत माता तथा मध्य प्रदेश की माटी की वंदना कर किया गया है। लोकगीत शैली में देवी गीत मन भाता है। स्पष्ट है कि गीतकार किसी एक इष्ट और वैचारिक प्रतिबद्धता की संकीर्ण विचारधारा में कैद न रहकर सर्व धर्म समभाव के औदार्य पथ का पथिक है।

राष्ट्र के प्रति प्रेम, समर्पण और बलिदान की भावनाओं से पूरित प्रेरणा गीत, आह्वान गीत आदि इस संग्रह को बहुरंगी बनाते हैं। ऐसे गीतों में समसामयिक परिस्थजियों का चित्रण स्वाभाविक, सहज और संतुलित है।

मर्यादाएँ ध्वस्त हो रहीं, फिर धरती पर आओ राम!
मूल्यों का उत्थान करो फिर धर्मध्वजा फहराओ राम!

इस गीत में नारी के सम्मान , समाज में बढ़ती वासना वृत्ति, अहंकारी सत्ता, वृद्धों को आश्रम पहुँचाती पीढ़ी आदि पर चिंता व्यक्त करती कवयित्री शबरी की निष्काम भक्ति और मूल्यों के नवोत्थान हेतु प्रार्थना कर रचना को समाजोपयोगी बना देती है।

नवपीढ़ी का आह्वान करते हुए आघात सहने, सूर्य से अनुशासन का पाठ पढ़ने तथा दीपक की तरह जलने की सीख समाहित है-

हर पत्थर की अपनी किस्मत, हर प्रयत्न का अपना लेखा
शिल्पकार की छेनी ने तो सबको परखा, सबको देखा
मंदिर की मूरत बनने को, चोट हजारों सहना होगा।
*
कैसा भी हो गहन अँधेरा, रथ सूरज का रोक न पाता
दुश्मन हो मजबूत भले ही, दृढ़ता सम्मुख झुक जाता
कोरोना पर मानवता की होनेवाली जीत बड़ी है

इन गीतों में तत्सम (संस्कृत से ज्यों के त्यों लिए गए शब्द - स्वप्न, अमिय, नर्मदा, ध्वस्त, निष्प्राण, निष्काम, दर्प, कुंदन, उन्नत, श्रम सीकर, झंकृत, माधुर्य, दर्शन, दर्पण, निर्मल, शर्वाणी, उत्कर्ष, तव, दुर्बुद्धि, जिह्वा, चर्या, आदि), तद्भव (संस्कृत शब्दों से उत्पन्न शब्द - बिसरा, माटी, परस, सूखी, मूरत, मृत्यु, अगन, सनीचर, सपना, सावन, मूरत, आदि), देशज या ग्राम्य (खों, सेंदुर, कबहुँ, देवन, भक्तन, बिलानी आदि) ही नहीं हिन्दीतर विदेशी भाषाओँ फ़ारसी (कागज, खुशहाल, दस्तावेज, बुनियाद, मौत, रोशन आदि), अरबी (कदम, किस्मत, खंजर, तूफान, नजर, फ़ौज आदि), अंग्रेजी (मैडम, मम्मी, मोबाइल, पापा, विडिओ, टीचर, डिजिटल आदि) के शब्दों का भी प्रयोग यथास्थान किया गया है। विदेशी शब्दों का प्रयोग करते समय कहीं-कहीं हिंदी की आवश्यकतानुसार रूपांतरण भी किया गया है। यथा - अरबी - (कर्ज से कर्जा, मुआफ से माफ़, ), फ़ारसी (दरख्वास्त से दरखास्त)। हिन्दीतर भारतीय भाषा-बोलिओं के शब्दों की अनुपस्थिति खलती है। न जाने क्यों हिंदी साहित्यकार विदेशी शब्दों और काव्य-विधाओं (हाइकु, सॉनेटम आदि) को तो आत्मसात कर लेते हैं पर हिन्दीतर भारतीय भाषा-बोलिओं के शब्दों व काव्य-विधाओं से दूर रहे आते हैं? संभवत: इसका कारण शिक्षा प्रणाली व पाठ्यक्रम है।

गीतों में आनुप्रासिक माधुर्य वृद्धि के लिए मिथलेश ने पारंपरिक शब्द युग्मों (चरण-शरण, रिद्धि-सिद्धि, पुरुष-प्रकृति, सांझ-सवेरे, लड्डू-पेड़ा, रस-छंद, मैं-तुम, आरोहों-अवरोहों, प्रीति-रीति, बुद्धि-बल, राम-नाम, जन-धन, मात-पिता, छल-छंदों, उमड़-घुमड़, तन-मन, यति-गति,चाँद-सितारे, चकवा-चकवी, रूखी-सुखी, श्रम-सीकर, यति-गति, माया-जाल, छल-छंदों, निश-दिन, पल-छिन, हरी-भरी, मेल-जोल आदि) का प्रयोग करने के साथ-साथ कुछ नए शब्द-युग्म (फागुन-मधुमास, हास-विहास, प्रणय-पीर, संधि-समासों, नीरस-नीरव, भाव-व्यंजना, सरल-सरस आदि) भी गढ़े हैं। इन शब्द युग्मों के अनेक प्रकार हैं। इनमें मानवीय रिश्ते-नाते, रीति-रिवाज, प्रकृति के घटनाक्रम, मौसम, पशु-पक्षी, काव्य शास्त्र के तत्व, प्रभु नाम आदि का प्रयोग होता है। कभी प्रथमार्ध अर्थमय है, कभी उत्तरार्ध और कभी दोनों। शब्द युग्म आनुप्रासिकता में वृद्धि करने के साथ-साथ भावार्थ से अनकहा भी कह जाते हैं और अभिव्यक्ति को अधिक प्रभावी बनाते हैं।

शब्दावृत्ति (नित-नित, बलि-बलि, शब्द-शब्द, डगमग-डगमग, गली-गली, रो-रो, कण-कण, गीला-गीला, नजर-नजर, दफ्तर-दफ्तर, देख-देख, धीरे-धीरे, क्यारी-क्यारी, रुनझुन-रुनझुन, श्वास-श्वास, राम-राम, मरी-मरी, खरी-खरी, डरी-डरी, भरी-भरी आदि) का प्रयोग किसी बात पर बल देने के साथ-साथ आलंकारिकता और गेयता की वृद्धि हेतु किया जाता है। जब काव्य पंक्ति में किसी शब्द की पुनः उक्ति (दोबारा कथन) समान अर्थ में हो तो वहाँ पुनरुक्ति अलंकार होता है। जैसे 'भाई-भाई को लड़वाकर / उनका अन्न पचे', 'कदम-कदम पर अँधियारे के / अजगर डेरा डाले', 'विरह अग्नि में तिल-तिल जलती / सीता की मृदु काया है' आदि।

अनुप्रास अलंकार मिथिलेश को विशेष प्रिय है। उन्होंने अनुप्रास अलंकार के सभी प्रकारों छेकानुप्रास, वृत्यानुप्रास, अन्त्यानुप्रास, श्रुत्यानुप्रास तथा लाटानुप्रास का प्रयोग सहजता के साथ किया है। एक-एक उदाहरण देखें-

छेकानुप्रास - क, म, स तथा अ की आवृत्ति
मन के मधुरिम गीत निहारें, ह्रदय-कंत का साँझ-सकारे।
आकुल कितनी अभिलाषाएँ, आज खड़ी हैं बाँह पसारे।।

वृत्यानुप्रास - न की आवृत्ति
नियति नटी नूतन श्रृंगारित

अन्त्यानुप्रास -
कुंदन बनने हेतु कनक को अंगारों पर तपना होगा
शिखर कलश बनने से पहले बुनियादों में खपना होगा

श्रुत्यानुप्रास - एक वर्ग के वर्णों की आवृत्ति
नित्य नदी की तरह जिंदगी / तूफानों से टकराती

लाटानुप्रास - शब्द / शब्द समूह की आवृत्ति
अग्नि परीक्षा देकर सीता / सीता मैया कहलाती है

गीत पंक्तियों में मुहावरों का सार्थक प्रयोग गीत के लालित्य और चारुत्व की वृद्धि करता है। मिथलेश ने मुहावरों का प्रयोग कुशलतापूर्वक किया है -

होंगे पीले हाथ / किस तरह / चिंता हुई सनीचर
रूखी-सूखी / खाकर मुनिया / कंधों तक हो आई
पति-पत्नी के बीच बनी जो, खाई कभी न पट पाई
एक बार धुलते ही उतरी / सारे रिश्तों की रंगत
विपदाएँ ही आज मनुज के / सर पर चादर तान रही हैं

सामाजिक विसंगतियाँ मिथलेश के गीतों के केंद्र में हैं। नवगीतीय शिल्प की सभी रचनाओं में विडंबनाओं, अन्यायो तथा कुरीतियों के प्रति उनका आक्रोश छलकता है-

तन से तो उजले दिखते हैं
लेकिन मन के काले।
कदम-कदम पर अँधियारे के
अजगर डेरा डाले।।
*
लच्छेदार भाषणों से अब
जनता ऊब गई।
जुमलेबाजी सच्चाई की
इज्जत लूट गई।.
पाँच वर्ष झूठे किस्सों की
लंबी फसल पकी।
मौलिक अधिकारों को मन की
बातों की थपकी।
रहत सामग्री की गाड़ी
असमय छूट गई।
*
बहती नदी
योजनाओं की
जाने कहाँ बिलानी?
कहाँ दबी है
कर्जा माफी की
दरखास्त पुरानी?
तीन पीढ़ियों
का उधार है
दुखीराम के सर पर
*
पकी फसल कट जाने पर भी
कृषक नहीं मुसकाता है
साहूकारों की नजरों को
देख-देख डर जाता है
उसकी किस्मत घाम लिखे या
हाड़ कँपाता शीत लिखे
*
चारों ओर बिछी है चौसर
छल-स्वारथ के पाँसे
अपनों से ही मिली यातना
कदम-कदम पर झाँसे
लाश भरोसे की भारी है
काँधा कौन लगाए?
*
कब तक भेदभाव की खाई
खोदेगी धृतराष्ट्र व्यवस्था?
नहीं सुरक्षित आज द्रौपदी
गली-गली में हैं दु:शासन।
मासूमों को मिली यातना
हिला नहीं है दिल्ली-आसन
कब तक कुंभकरण की नींदें
सोएगी धृतराष्ट्र व्यवस्था?

मिथलेश देख पाती हैं कि 'राजनीति जननीति नहीं है / कूटनीति है, घोटाला है।' उन्हें विदित है कि 'दीवारों में चुना गया है / बूँद-बूँद श्रम-सीकर।' वे कल से आज तक का अवलोकन कर कहती हैं - 'देवों को हमने मरने की / निष्ठुर सजा सुना दी।'

नवगीत के तथाकथित मठाधीशी गीतधारा से नर्मदांचल के नवगीतकारों की गीतधारा में भिन्नता कथ्य को लेकर है। नर्मदांचली नवगीतकार कथ्य में सकारात्मकता को महत्व देता है, पारंपरिक नवगीतकार नहीं केवल नकारात्मकता का चित्रण करता है। वह सामाजिक विसंगतियों, पारिवारिक त्रासदियों और व्यक्तिगत कडुवाहट के पिंजरे में नवगीत को कैद रखता है। विश्ववाणी हिंदी संस्थान से जुड़े सभी गीतकार साहित्य में सबका हित समाहित मानते हुए समाज और व्यक्ति में सकारात्मकता की स्थापना को आवश्यक मानते हैं। मिथलेश के गीतों-नवगीतों में राष्ट्रीयता, मानवता, सामाजिक-पारिवारिक मूल्यों के प्रति सजगता बरती गई है। वे विसंगति का संकेत संगति की महत्ता बताने के लिए करती हैं। वे पूछती हैं 'विरह वेदना की पाती कब तक अविराम लिखें?' यह प्रश्न व्यक्तिगत नहीं समष्टिगत है।

द्वापर की घटनाओं को वर्तमान प्रसंगों से जोड़ते हुए वे विवशतावश अन्यायकर्ताओं की जयकार बोलनेवालों की आँखों में भी आँसू पाती हैं- 'दुर्योधन-दु:शासन की है / जग में जय जयकार / और द्रौपदी के हिस्से में / लाज और प्रतिकार / राजसभा की झुकी हुई हैं / आँखें भरी-भरी।' मिथलेश के लिए गीत मनोरंजन का माध्यम नहीं, सृजन की साधना है - 'साधना के पंथ में, हर गीत है हमराह मेरा।' उनकी गीत साधना का लक्ष्य 'वेदों की वाणी उच्चारें, अंतर्मन को संत करें' है, आगे वे कहती हैं-

'अगर लेखनी थमी है तो, उसका कर्ज चुकाएँ हम
व्यथा-कथा उद्घाटित करने, कवि का धर्म निभाएँ हम'

क्या कवि का धर्म केवल व्यथा-कथा का उद्घाटन है? मिथलेश ऐसा नहीं मानतीं। उनके अनुसार -

अपने हाथों / अपनी किस्मत / गढ़ना सीख / रही हूँ मैं।
धीरे-धीरे / बिना सहारे / चलना सीख। रही हूँ मैं।'

क्या इसका आशय यह है कि कविकर्म का उद्देश्य केवल अपना विकास करना है? इस प्रश्न का उत्तर है -

'जिंदगी से अब मुखर संवाद होना चाहिए
प्रेम का पर्यावरण आबाद होना चाहिए'

बात को अधिक स्पष्ट करती हैं निम्न पंक्तियाँ -

सूर्य नहीं तो दीपक बनकर / जग में उजियारा भरना है'

यह होगा कैसे? इस प्रश्न का उत्तर मिथलेश स्वयं ही अन्यत्र देती हैं-

मन का पंछी माँग रहा है / पिंजरे से आजादी'

प्रतिबंधों के पक्षधरों से मिथलेश का सवाल है -

'पंछी नदिया और हवा को / सीमाएँ कब टोका करतीं?
दुनिया भर की रस्में-कसमें / पथिकों को क्यों रोका करतीं?'

गीतकार के लिए प्रश्न ही उत्तर पाने माध्यम हैं -

'कब तक भेदभाव की खाई / खोदेगी धृतराष्ट्र व्यवस्था?'

तथा 'कर्तव्यों की सही राह अब / कौन इन्हें दिखलाए?'

गीत रचना का उद्देश्य 'करें पराजित अवसादों को / जीवन गीत सुनाएँ हम' है। यहीं मिथलेश की विचार सरणि तथाकथित नवगीतीय नकारात्मकता को नकार कर सकारात्मकता का वरण कर परिवर्तन हेतु आह्वान करती है -

'दौर अब भी है / अनय की आँधियों का
साथ मिलकर / न्याय का डंका बजाओ ....
....कुंडली अपनी / लिखो पुरुषार्थ श्रम से....
....हौसलों की थामकर / पतवार कर में
आज हर तूफ़ान से आँखें मिलाओ'

यह तेवर विसंगतिवादी नवगीतकारों में खोजे से भी नहीं मिलता। इस तेवर के बिना नवगीत आंदोलन ही लक्ष्यविहीन हो जाता है। गीत-आंदोलन को उद्देश्यपरकता से जोड़ते हुए मिथलेश ने राष्ट्रीय भावधारापरक गीतों को भी संग्रह में प्रतिष्ठित किया है। देश के प्रति त्याग-बलिदान और समर्पण करनेवाली विभूतियों और शहीदों गीतों की रचना कर मिथलेश ने नई पीढ़ी के लिए प्रकाश स्तंभ खड़े किए हैं। उनका लक्ष्य बिलकुल स्पष्ट है -

धाराएँ विपरीत समय की / फिर भी धरा संग बहना है
अपना देश बचाना हमको / अपने ही घर में रहना है

वे जानती हैं कि सारस्वत अनुष्ठाओं से शिक्षित-दीक्षित भावी पीढ़ी, राजनैतिक कलुष को धोकर राष्ट्रीयता को मानवता का पर्याय बनते हुए वैश्विकता का भला कर सकेगी। इसीलिए पूरे आत्मविश्वास के साथ मिथलेश का गीतकार घोषणा करता है - 'भारत के उन्नत ललाट पर विजय तिलक लगने वाला है।'

मुझे विश्वास है कि नर्मदा के कलकल निनाद की तरह लयात्मकता और निष्कलुषता से सपन्न इन गीतों-नवगीतों को पाठक न केवल पढ़ेंगे अपितु उनके कथ्य को ग्रहणकर बेहतर भारत और मानव समाज बनाने की दिशा में सक्रिय होंगे। मैं मिथलेश के उज्जवल भविष्य के प्रति आश्वस्त हूँ।
२०-८-२०२१
***

संस्मरण शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है, सम् + स्मरण। सम्यक् स्मरण अर्थात् किसी घटना, किसी व्यक्ति अथवा वस्तु का स्मृति के आधार पर कलात्मक वर्णन करना संस्मरण कहलाता है। इसमें स्वयं की अपेक्षा उस वस्तु की घटना का अधिक महत्व होता है जिसके विषय में संस्मरण लिखा जा रहा हो। संस्मरण का कथ्य सत्याधारित आधारित होता है, कल्पना का प्रयोग लगभग नहीं किया जाता।१ लेखक स्मृति पटल पर अंकित किसी विशेष व्यक्ति के जीवन की कुछ ऐसी घटनाओं का रोचक विवरण प्रस्तुत करता है जो उसने स्वयं अनुभव की हों। यह विवरण सर्वथा प्रामाणिक होता है। संस्मरण लेखक जब अपने विषय में लिखता है तो उसकी रचना आत्मकथा के निकट होती है और जब दूसरे के विषय मे लिखता है तो जीवनी के। संस्मरण लेखक अतीत की अनेक स्मृतियों में से कुछ रमणीय अनुभूतियों को अपनी कल्पना भावना या व्यक्तित्व की विशेषताओं से अनुरंजित कर (युक्त कर) प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त करता है। उसके वर्णन में उसकी अपनी अनुभूतियों और सम्वेदनाओं का समावेश रहता है। संस्मरण के लेखक के लिए यह नितांत आवश्यक है कि लेखक ने उस व्यक्ति या वस्तु से साक्षात्कार किया हो जिसका वह संस्मरण लिख रहा है। संस्मरण में बीती हुई बातें और विवरणात्मकता अधिक रहती है। इसमें लेखक ‘रेखाचित्रकार‘ की भांति तत्व निर्लिप्त नहीं, कथ्य के साथ संलिप्त रहता है।

स्मृति के आधार पर किसी विषय पर अथवा किसी व्यक्ति पर लिखित आलेख संस्मरण है। यात्रा (जीवन यात्रा) साहित्य इसके अन्तर्गत आता है। संस्मरण साहित्यिक निबन्ध की एक प्रवृत्ति है जिसे 'संस्मरणात्मक निबंध' कहा जा सकता है। व्यापक रूप से संस्मरण आत्मचरित के अन्तर्गत लिया जा सकता है। संस्मरण और आत्मचरित के दृष्टिकोण में मौलिक अन्तर है। आत्मचरित के लेखक का मुख्य उद्देश्य अपनी जीवनकथा का वर्णन करना होता है। इसमें कथा का प्रमुख पात्र स्वयं लेखक होता है। संस्मरण लेखक का दृष्टिकोण भिन्न रहता है। संस्मरण में लेखक जो कुछ स्वयं देखता है और स्वयं अनुभव करता है उसी का चित्रण करता है। लेखक की स्वयं की अनुभूतियाँ तथा संवेदनायें संस्मरण में अन्तर्निहित रहती हैं। इस दृष्टि से संस्मरण का लेखक निबन्धकार के अधिक निकट है। वह अपने चारों ओर के जीवन का वर्णन करता है। इतिहासकार के समान वह केवल यथातथ्य विवरण प्रस्तुत नहीं करता है। पाश्चात्य साहित्य में साहित्यकारों के अतिरिक्त अनेक राजनेताओं तथा सेनानायकों ने भी अपने संस्मरण लिखे हैं, जिनका साहित्यिक महत्त्व है।

जिस प्रकार उपन्यास समग्र जीवन का चित्र खींचता है जबकि कहानी जीवन के एक छोटे से अंग का उसी प्रकार जीवनी नायक के समस्त जीवन को, उसके छोरों को बाँधती चलती है और संस्मरण उसके जीवन की एक झाँकी को चित्रित करता है। संस्मरण में चरित्र का एक भाग अपनी पूर्ण उज्जवलता और सौंदर्य के साथ प्रगट होता है। इसीलिए संस्मरण लेखक को अपनी कृति अधिक संवेदनात्मक और मनोरजक बनानी होती है। संस्मरणों में सत्य का आग्रह तो रहता ही है परन्तु उसकी शैली अधिक चुटीली और सरल-सहज होनी चाहिए। नायक के चरित्र की जो झाँकी प्रस्तुत की जाए वह नायक के व्यक्तित्व से मेल खाती होनी चाहिए।१

हिंदी में संस्मरण साहित्य अपेक्षाकृत कम लिखा गया है तथापि महत्त्वपूर्ण लिखा गया है। प्रस्तुत कृति एक विदुषी अर्थशास्त्री ने स्वयं अपने बारे में लिखी है। डॉ. जयश्री जोशी मराठी सुसंस्कृत परिवार से हैं। उन्होंने अर्थशास्त्र में उच्च शिक्षा प्राप्त कर शोधोपाधि अर्ज़ित ने के पश्चात् दीर्घ अवधि तक प्राध्यापक के रूप में अगिन छात्रों को अर्थ शास्त्र हृदयंगम कराया है। वे सामान्य छात्रों या प्राध्यापकों की तरह पाठ्यक्रम तक सीमित नहीं रही। छात्रा के नाते अर्थशास्त्र के व्यापक व्यावहारिक महत्व का अध्ययन तथा प्राध्यापक के नाते देश की आर्थिक नीतियों का विश्लेषण कर अपना अभिमत व्यक्त करना उन्हें औरों से अलग करता है। बजट प्रस्तावों का विश्लेषण करते समय वे किसी राजनैतिक विचारधारा, नेता या दल के प्रति प्रतिबद्धता या पूर्वाग्रह से मुक्त रहकर तटस्थता से उसका विश्लेषण करती रही हैं। उनकी प्रतिबद्धता सामाजिक कल्याण, जनहित और राष्ट्रोन्नति के प्रति रही है। वे आर्थिक नीतियों और बजट के सकारात्मक पहलुओं पर प्रकाश डालकर नकारात्मक पहलुओं अदेखी कर जनसामान्य के मन में आशा-दीप जलाती रही हैं।

वैयक्तिक जीवन में भी जयश्री जी स्वावलंबी, स्वाभिमानी (घमंडी नहीं) और स्पष्टवादी (कटु नहीं) हैं। उन्हें ठकुरसुहाती में विश्वास नहीं है। वे सादगी पसंद हैं किन्तु उनकी सादगी वीतरागीतापरक नहीं है, वे जीवन को पूरे अनुराग के साथ जीते हुए भी सादगी के साथ सहजता को भी जीती हैं। किसी बात को तथ्यों के साथ वे इस तरह प्रस्तुत करती रही हैं कि उनसे असहमत होने की संभावना नगण्य हो जाती है। संस्कारों के प्रति पूरी निष्ठा रखते हुए भी अंधविश्वासी और दकियानूसी से दूर अधुनातन चिंतन को साकार करती हैं। मेरी जीवन संगिनी डॉ. साधना वर्मा को उनके साथ कार्य करने का अवसर मिला है। श्री जयंत जोशी और मैं दोनों सिविल अभियंता हैं, वे निजी क्षेत्र में अपना खुद का कार्य करते रहे हैं, मैं सरकारी विभाग में कार्यरत रहा हूँ। जो बात हम दोनों को जोड़ती है, वह है सांस्कृतिक-साहित्यिक रूचि और कार्य की गुणवत्ता से समझौता न करना। जोशी दंपत्ति हमारे पारिवारिक स्वजन जैसे हो गए।

मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि संपन्नता और समृद्धि के बावजूद अहमन्यता और दंभ से जितने दूर जोशी दंपत्ति हैं, वैसे कम ही लोग मिलते हैं। आयु के हिसाब से मैं उनसे पर्याप्त छोटा हूँ, ज्ञान और अनुभव भी कम है तथापि जब भी हमारी भेंट हुई, उन्होंने मुझे यह प्रतीति नहीं होने दी। इन संस्मरणों में जीवन के प्रति ठोस सकारात्मक और व्यावहारिकता के दर्शन पृष्ठ-पृष्ठ पर होते हैं। श्रीमती जोशी एक शिक्षक के रूप में अपने छात्रों के हिट-साधन के प्रति कितनी सजग रही हैं इसका प्रत्यक्ष उदाहरण वह प्रसंग हैं जब उन्होंने शासकीय महाकौशल महाविद्यालय जबलपुर के स्थापना काल के छात्र रहे मेरे पूज्य पितृश्री से अपने नेत्रहीन छात्रों के लिए ब्रेल लिपि की पुस्तकें प्राप्त कर महाविद्यालय पुस्तकालय में उपलब्ध कराईं। मैं अन्य महाविद्यालयों में भी पुस्तक दान करना चाहता हूँ किंतु अब वैसी रूचि के प्राध्यापक नहीं हैं।

इन संस्मरणों की भाषा सरल, प्रवाहमयी और सहज बोधगम्य है। विद्वता प्रदर्शन हेतु शुद्धता के नाम पर क्लिष्टता से श्रीमती जोशी दूर रही हैं। इनमें सुसंकृत मराठी परिवार के सहज झलक परिव्याप्त है। बड़ों के प्रति सम्मान रखते हुए अपनी बात स्पष्टता व विनम्रता से कहने का संस्कार, छोटों के प्रति लाड और स्नेह के साथ-साथ अनुशासन और मर्यादा का पालन, शासकीय कर्तव्य निर्वहन के साथ-साथ पारिवारिक परंपराओं का निर्वहन विशेषकर नवविवाहित महिलाओं के लिए तलवार की धार पर चलने से कम नहीं होता। मुझे यह अनुभव अपनी श्रीमती जी के साथ हुआ। श्रीमती जोशी ने ऐसे कुछ प्रसंग उठाये हैं पर यहाँ भी वे अपने अधिकारीयों और बुजुर्गों दोनों की आलोचना न कर संकेत मात्र से बात कह। उनका यह संयम वाणी, लेखन हुए आचरण तीनों में है। इस दृष्टि से यह संस्मरण पारिवारिक जीवन में संतुलन स्थापित न कर पाने के कारण बिखर रहे नव दंपतियों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।

इन संस्मरणों में जयश्री जी ने साहित्यिक मानकों के पिजरे में कैद होकर लेखन पर विचार-पंछी को मनाकाश में स्वच्छंद उड़ने दिया है। इसलिए ये पठनीय, रोचक और अन्यों से भिन्न बन पड़े हैं। संयोगवश अभी-अभी मुझे कनल (से.नि.) डॉ. गिरिजेश नारायण सक्सेना की कृति 'सत्य तथा कथ्य' समीक्षार्थ प्राप्त हुई है। सक्सेना जी ने इसे कहानी संग्रह कहा है किन्तु वस्तुत: यह भी संस्मरणात्मक कृति है। हिंदी के अधुनातन साहित्य में कथेतर साहित्य सृजन की प्रवृत्ति दिन-ब-दिन बढ़ रही है। कथेतर गद्य साहित्य पारंपरिक मानकों के ढांचे का अतिक्रमण कर अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य को वरीयता देता है। सक्सेना जी ने कहानी से इतर कहने की है, जयश्री जे ने पारंपरिक संस्मरण से परे उसकी सीमा का विस्तार करते हुए आपके चिन्तन-मनन, आत्मावलोकन और आत्म चिन्तन को समेटते हुए अपने परिवेश को याद किया है। इन संस्मरणों की कहन देशज और आभिजात्य के बीच दैनंदिन बोलचाल की होते हुए भी सरल, प्रवाहयुक्त है।

जबलपुर में संस्मरण लेखन की परंपरा बहुत लंबी नहीं है। समसामयिक संस्मरणात्मक कृतियों में साहित्यकारों के संस्मरण - डॉ. आत्मानंद मिश्र १९८४, वार्ता प्रसंग - हरिकृष्ण त्रिपाठी १९९१, चरित चर्चा - हरिकृष्ण त्रिपाठी २००४ डॉ.सुधियों में राजहंस - जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण' २००६, आदि महत्वपूर्ण हैं। इनके अतिरिक्त यात्रावृत्तात्मक संस्मरणों में अमृतलाल वेगड़ लिखित सौंदर्य की नदी नर्मदा १९९२, तीरे-तीरे नर्मदा २०११, नर्मदा तुम कितनी सुंदर हो २०१५, अमृतस्य नर्मदा तथा नर्मदा की धारा से - शिवकुमार तिवारी तथा गोविन्द प्रसाद मिश्र २००७ अपमी मिसाल।

स्वजनों तथा परिवेश को केंद्र में रखकर लिखी गयी पांडेय बेचन शर्मा' उग्र' की अपनी खबर १९६०, कृष्णा सोबती कृत हम हशमत १९७७, मेरा जीवन शिवपूजन सहाय १९८५, केसरी कुमार लिखित स्मृतियों में अब भी १९८५, रामनारायण शुक्ल रचित स्वांत: सुखाय १९९६, सुशीला अवस्थी सृजित सुधि की गठरी २००५, कांति अय्यर रचित बाल्य अश्मि २००७ है।
मुझे यह कहने में किंचित संकोच नहीं है कि डॉ. जयश्री जोशी जी ने इस कृति का सृजन करते समय किसी कृति या कृतिकार की शैली, सामग्री, भाषा या कहन को आदर्श मानकर उसका अनुकरण नहीं किया, अपितु आप बनाई है। मुझे इस कृति से समय- समय पर जुड़ने का अवसर मिलता रहा है। लेखिका का औदार्य है उन्होंने विमर्श में दिए गए सुझावों सहृदयता से न केवल विचार किया, उन्हें स्वीकार भी किया। वे मेरी आदरणीया भाभी हैं। उन्हें व भाई जयंत को नमन करते हुए उनकी गृह वाटिका में लगे कलमी आम के स्वाद का स्मरण करते हुए सादर नमन। मुझे विश्वास है कि ज्येष्ठ और युवा दोनों पाठक वर्ग में यह कृति सराही जाएगी और वे डॉ. जयश्री जोशी जी की अगली कृति प्रतीक्षा करेंगे।
संदर्भ -
१. आलोचना शास्त्र, मोहन बल्लभ पंत।
१५-९-२०२०
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: हिंदी ग़ज़ल की विकास यात्रा और चंद्र कलश :
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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अक्षर, अनादि, अनंत और असीम शब्द ब्रम्ह में अद्भुत सामर्थ्य होती है। रचनाकार शब्द ब्रम्ह के प्रागट्य का माध्यम मात्र होता है।इसीलिए सनातन प्राच्य परंपरा में प्रतिलिपि के अधिकार (कोपी राइट) की अवधारणा ही नहीं है। श्रुति-स्मृति, वेदादि के रचयिता ​मंत्र दृष्टा हैं, ​मंत्र सृष्टा नहीं। दृष्टा उतना ही देख और देखे को बता सकेगा ​जितना बताने की सामर्थ्य या क्षमता ब्रम्ह से प्राप्त होगी। तदनुसार रचनाकार ब्रह्म का उपकरण मात्र है।

रचना कर्म अपने आपमें जटिल मानसिक प्रक्रिया है।कभी दृश्य, ​कभी अदृश्य, कभी भाव​, कभी कथ्य​ रचनाकार को प्रेरित करते हैं कि वह '​स्वानुभूति' को '​सर्वानुभूति' ​बनाने हेतु ​रचना करे। रचना कभी दिल​ ​से होती है​,​ कभी दिमाग से​ और कभी-कभी अजाने भी​। रचना की विधा का चयन कभी रचनाकार अपने मन से करता है​,​ कभी किसी की माँग पर​ और कभी कभी कथ्य इतनी प्रबलता से प्रगट होता है कि विधा चयन भी अनायास ही हो जाता है​। शिल्प व विषय का चुनाव भी परिस्थिति पर निर्भर होता है। किसी चलचित्र के लिए परिस्थिति के अनुरूप संवाद या पद्य रचना ही होगी, लघुकथा, हाइकु या अन्य विधा सामान्यतः उपयुक्त नहीं होगी।

​ग़ज़ल : एक विशिष्ट काव्य विधा

संस्कृत काव्य में द्विपदिक श्लोकों की रचना आदि काल से की जाती रही है। ​संस्कृत की श्लोक रचना में समान तथा असमान पदांत-तुकांत दोनों का प्रयोग किया गया। भारत से ईरान होते हुए पाश्चात्य देशों तक शब्दों, भाषा और काव्य की यात्रा असंदिग्ध है। १० वीं सदी में ईरान के फारस प्रान्त में सम पदांती श्लोकों की लय को आधार बनाकर कुछ छंदों के लय खण्डों का फ़ारसीकरण नेत्रांध कवि रौदकी ने किया। इन लय खण्डों के समतुकांती दुहराव से काव्य रचना सरल हो गयी। इन लयखण्डों को रुक्न (बहुवचन अरकान) तथा उनके संयोजन से बने छंदों को बह्र कहा गया। फारस में सामंती काल में '​तश्बीब' (​बादशाहों के मनोरंजन हेतु ​संक्षिप्त प्रेम गीत) या 'कसीदे' (रूप/रूपसी ​या बादशाहों की ​की प्रशंसा) से ​ग़ज़ल का विकास हुआ। ​'गजाला चश्म​'​ (मृगनयनी, महबूबा, माशूका) से वार्तालाप ​के रूप में ​ग़ज़ल लोकप्रिय होती गई​। फारसी में दक़ीक़ी, वाहिदी, कमाल, बेदिल, फ़ैज़ी, शेख सादी, खुसरो, हाफ़िज़, शिराजी आदि ने ग़ज़ल साहित्य को समृद्ध किया। मुहम्मद गोरी ने सन ११९९ में दिल्ली जीत कर कुतुबुद्दीन ऐबक शासन सौंपा। तब फारसी तथा सीमान्त प्रदेशों की भारतीय भाषाओँ पंजाबी, सिरायकी, राजस्थानी, हरयाणवीबृज, बैंसवाड़ी आदि के शब्दों को मिलाकर सैनिक शिविरों में देहलवी या हिंदवी बोली का विकास हुआ। मुग़ल शासन काल तक यह विकसित होकर रेख़्ता कहलाई। रेख़्ता और हिंदवी से खड़ी हिंदी का विकास हुआ। खुसरो जैसे अनेक क​वि फ़ारसी और हिंदवी दोनों में काव्य रचना करते थे। कबीर जैसे अशिक्षित लोककवि भी फारसी के शब्दों से परिचित और काव्य रचना में उनका प्रयोग करते थे। हिंदी ग़ज़ल का उद्भव काल यही है।​ खुसरो और कबीर जैसे कवियों ने हिंदी ग़ज़ल को आध्यात्मिकता (इश्के हकीकी) की जमीन दी। ​अमीर खुसरो ने गजल को आम आदमी और आम ज़िंदगी से बावस्ता किया।

जब यार देखा नैन भर दिल की गई चिंता उतर
ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाए कर ।
जब आँख से ओझल भया, तड़पन लगा मेरा जिया
हक्का इलाही क्या किया, आँसू चले भर लाय कर । -खुसरो (१२५३-१३२५)

​हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या?
रहे आज़ाद या जग में, हमन दुनिया से यारी क्या?
जो बिछड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते
हमारा यार है हममें, हमन को इंतजारी क्या? - कबीर ​(१३९८-१५१८)

स्वातंत्र्य संघर्ष कला में हिंदी ग़ज़ल ने क्रांति की पक्षधरता की-

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है -रामप्रसाद बिस्मिल

मुग़ल सत्ता के स्थाई हो जाने पर बाजार और लोक जीवन में ​ रेख़्ता ने जो रूप ग्रहण किया थाउसे उर्दू (फारसी शब्द अर्थ बाजार) कहा गया। स्पष्ट है कि उर्दू रोजमर्रा की बाजारू बोली थी। इसीलिये ग़ालिब जैसे रचनाकार अपनी फारसी रचनाओं को श्रेष्ठ और उर्दू रचनाओं को कमतर मानते थे। मुगल शासन दक्षिण तक फैलने के बाद हैदराबाद में उर्दू का विकास हुआ।​ दिल्ली, लखनऊ तथा हैदराबाद में उर्दू की भिन्न-भिन्न शैलियाँ विकसित हुईं। उर्दू ग़ज़ल के जनक वली दखनी (१६६७-१७०७)​ औरंगाबाद में जन्मे तथा अहमदाबाद में जीवन लीला पूरी की। उर्दू में ​सांसारिक प्रेम (इश्क मिजाजी), ​नाज़ुक खयाली​ ही​ गजल का लक्षण ​हो गया।​​

सजन तुम सुख सेती खोलो नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता।
कि ज्यों गुल से निकसता है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता।। -वली दखनी

हिंदी ग़ज़ल - उर्दू ग़ज़ल

​गजल का अपना छांदस अनुशासन है। प्रथम द्विपदी में समान पदांत-तुकांत, तत्पश्चात एक-एक पंक्ति छोड़कर पदांत-तुकांत, सभी पंक्तियों में समान पदभार, कथ्य की दृष्टि से स्वतंत्र द्विपदियाँ और १२ लयखंडों के समायोजन से बनी द्विपदियाँ गजल की विशेषता है। गजल के पदों का भार (वज्न) उर्दू में तख्ती के नियमों के अनुसार किया जाता है जो कहीं-कहीं हिन्दी की मात्रा गणना से साम्यता रखता है कहीं-कहीं भिन्नता। गजल को हिन्दी का कवि हिन्दी की काव्य परंपरा और पिंगल-व्याकरण के अनुरूप लिखता है तो उसे उर्दू के दाना खारिज कर देते हैं। गजल को ग़ालिब ने 'तंग गली' और आफताब हुसैन अली ने 'कोल्हू का बैल' इसीलिए कहा कि वे इस विधा को बचकाना लेखन समझते थे जिसे सरल होने के कारण सब समझ लेते हैं। विडम्बना यह कि ग़ालिब ने अपनी जिन रचनाओं को सर्वोत्तम मानकर फारसी में लिखा वे आज बहुत कम तथा जिन्हें कमजोर मानकर उर्दू में लिखा वे आज बहुत अधिक चर्चित हैं। हिन्दी में ग़ज़ल को उर्दू से भिन्न भाव भूमि तथा व्याकरण-पिंगल के नियम मिले। यह अपवाद स्वरूप हो सकता है कि कोई ग़ज़ल हिन्दी और उर्दू दोनों के मानदंडों पर खरी हो किन्तु सामान्यतः ऐसा संभव नहीं। हिन्दी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल में अधिकांश शब्द-भण्डार सामान्य होने के बावजूद पदभार-गणना के नियम भिन्न हैं। समान पदांत-तुकांत के नियम दोनों में मान्य हैं। उर्दू ग़ज़ल १२ बहरों के आधार पर कही जाती है जबकि हिन्दी गजल हिन्दी-छंदों के आधार पर रची जाती हैं। दोहा गजल में दोहा तथा ग़ज़ल, हाइकु ग़ज़ल में हाइकु और ग़ज़ल, माहिया ग़ज़ल में माहिया और ग़ज़ल दोनों के नियमों का पालन होना अनिवार्य है। एक बात और अंगरेजी, जापानी, चीनी यहाँ तक कि बांगला, मराठी, या तेलुगु ग़ज़ल पर फ़ारसी-उर्दू के नियम लागू नहीं किए जाते किन्तु हिंदी ग़ज़ल के साथ जबरदस्ती की जाती है। इसका कारण केवल यह है कि उर्दू गज़लकार हिंदी जानता है जबकि अन्य भाषाएँ नहीं जानता। अंग्रेजी की ग़ज़लों में पद के अंत में उच्चारण मात्र मिलते हैं हिज्जे (स्पेलिंग) नहीं मिलते। अंगरेजी ग़ज़ल में pension और attention की तुक पर कोई आपत्ति नहीं होती. डॉ. अनिल जैन के अंग्रेजी ग़ज़ल सन्ग्रह 'ऑफ़ एंड ओन' की रचनाओं में पदांत तो समान है पर लयखंड समान नहीं हैं हैं।

हिंदी वर्णमाला के पंचम वर्ण तथा संयुक्त अक्षर उर्दू में नहीं हैं। प्राण, वाङ्ग्मय, सनाढ्य जैसे शब्द उर्दू में नहीं लिखे जा सकते। 'ब्राम्हण' को 'बिरहमन' लिखना होता है। उर्दू में 'हे' और 'हम्ज़ा' की दो ध्वनियाँ हैं। पदांत के शब्द में किसी एक ध्वनि का ही प्रयोग हो सकता है। हिंदी में दोनों के लिए केवल एक ध्वनि 'ह' है। इसलिए जो ग़ज़ल हिंदी में सही है वह उर्दू के नज़रिये से गलत और जो उर्दू में सही है वह हिंदी की दृष्टि से गलत होगी। दोनों भाषाओँ में मात्रा गणना के नियम भी अलग-अलग हैं। अत: हिंदी ग़ज़ल को उर्दू ग़ज़ल से भिन्न मानना चाहिए। उर्दू में 'इस्लाह' की परंपरा ने बचकाना रचनाओं को सीमित कर दिया तथा उस्ताद द्वारा संशोधित करने पर ही प्रकाशित करने के अनुशासन ने सृजन को सही दिशा दी जबकि हिन्दी में कमजोर रचनाओं की बाढ़ आ गयी।

ग़ज़ल का शिल्प और नाम वैविध्य

समान पदांत-तुकांत की हर रचना को गजल नहीं कहा जा सकता। गजल वही रचना है जो गजल के अनुरूप हो। हिन्दी में सम पदांत-तुकांत की रचनाओं को मुक्तक कहा जाता है। ग़ज़ल में हर द्विपदी अन्य द्विपदियों से स्वतंत्र (मुक्त) होती है इसलिए डॉ. मीरज़ापुरी इन्हें प्रच्छन्न हिन्दी गजल कहते हैं। कुछ मुखपोथीय समूह हिंदी ग़ज़ल को गीतिका कह रहे हैं जबकि गीतिका एक मात्रिक छंद है।विडम्बनाओं को उद्घाटित कर परिवर्तन और विद्रोह की भाव भूमि पर रची गयी गजलों को 'तेवरी' नाम दिया गया है। मुक्तक का विस्तार होने के कारण हिंदी ग़ज़ल को मुक्तिका कहा ही जा रहा है। चानन गोरखपुरी के अनुसार 'ग़ज़ल का दायरा अत्यधिक विस्तृत है। इसके अतिरिक्त अलग-अलग शेर अलग-अलग भावभूमि पर हो सकते हैं। जां निसार अख्तर के अनुसार-

हमसे पूछो ग़ज़ल क्या है, ग़ज़ल का फन क्या?
चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए।

डॉ. श्यामानन्द सरस्वती 'रोशन' के लफ़्ज़ों में -

जो ग़ज़ल के तक़ाज़ों पे उतरे खरी
आज हिंदी में ऐसी ग़ज़ल चाहिए

हिंदी ग़ज़ल के सम्बन्ध में मेरा मत है-

ब्रम्ह से ब्रम्हांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल
आत्म की परमात्म से फ़रियाद है हिंदी ग़ज़ल
मत गज़ाला चश्म कहन यह कसीदा भी नहीं
जनक जननी छंद-गण औलाद है हिंदी ग़ज़ल
जड़ जमी गहरी न खारिज समय कर सकता इसे
सिया-सत सी सियासत, मर्याद है हिंदी ग़ज़ल
भर-पद गणना, पदान्तक, अलंकारी योजना
दो पदी मणि माल, वैदिक पाद है हिंदी ग़ज़ल
सत्य-शिव-सुंदर मिले जब, सत-चित-आनंद हो
आत्मिक अनुभूति शाश्वत, नाद है हिंदी ग़ज़ल

हिंदी ग़ज़ल प्रवाह में दुष्यंत कुमार, शमशेर बहादुर सिंह नीरज आदि के रूप में एक ओर लोकभाषा भावधारा है तो डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, चंद्रसेन विराट, डॉ. अनंत राम मिश्र 'अनंत', शिव ॐ अंबर, डॉ. यायावर आदि के रूप में संस्कारी भाषा परक दूसरी भावधारा स्पष्टत: देखी जा सकती है। ईद दो किनारों के बीच मुझ समेत अनेक रचनाकर हैं जो दोनों भाषा रूपों का प्रयोग करते रहे हैं। सुनीता सिंह की ग़ज़लें इसी मध्य मार्ग पर पहलकदमी करती हैं।

सुनीता सिंह की ग़ज़लें

हिंदी और अंगरेजी में साहित्य सृजन की निरंतरता बनाये रखकर विविध विधाओं में हाथ आजमानेवाली युवा कलमों में से एक सुनीता सिंह गोरखपुर और लखनऊ के भाषिक संस्कार से जुडी हों यह स्वाभाविक है। शैक्षणिक पृष्ठभूमि ने उन्हें अंगरेजी भाषा और साहित्य से जुड़ने में सहायता की है।सुनीता जी उच्च प्रशासनिक पद पर विराजमान हैं। सामान्यत: इस पृष्ठभूमि में अंग्रेजी परस्त मानसिकता का बोलबाला देखा जाता है किन्तु सुनीता जी हिंदी-उर्दू से लगाव रखती हैं और इसे बेझिझक प्रगट करती हैं। हिंदी, उर्दू और अंगरेजी तीनों भाषाएँ उनकी हमजोली हैं। एक और बात जो उन्हें आम अफसरों की भीड़ से जुड़ा करते है वह है उनकी लगातार सीखने की इच्छा। चंद्र कलश सुनीता जी की ग़ज़लनुमा रचनाओं का संग्रह है। ग़ज़लनुमा इसलिए कह रहा हूँ कि उन्होंने अपनी बात कहने के लिए आज़ादी ली है। वे कथ्य को सर्वाधिक महत्व देती हैं। कोई बात कहने के लिए जिस शब्द को उपयुक्त समझती हैं, बिना हिचक प्रयोग करते हैं, भले ही इससे छंद या बह्र का पालन कुछ कम हो। चंद्र कलश की कुछ ग़ज़लों में फ़ारसी अलफ़ाज़ की बहुतायत है तो अन्य कुछ ग़ज़लों में शुद्ध हिंदी का प्रयोग भी हुआ है। मुझे शुद्ध हिंदीपरक ग़ज़लें उर्दू परक ग़ज़लों से अधिक प्रभावी लगीं। सुनीता जी का वैशिष्ट्य यह है की अंगरेजी शब्द लगभग नहीं के बराबर हैं। शिल्प पर कथ्य को प्रमुखता देती हुई ये गज़लें अपने विषय वैविध्य से जीवन के विविध रंगों को समेटती चलती हैं। साहित्य में सरकार और प्रशासनिक विसंगतियों का शब्दांकन बहुत सामान्य है किन्तु सुनीता जी ऐसे विषयों से सर्वथा दूर रहकर साहित्य सृजन करती हैं।

'थोथा चना बाजे घना' की कहावत को सामाजिक जीवन में चरितार्थ होते देख सुनीता कहती हैं-

उसको वाइज़ कहें या कि रहबर कहें।
खुद गुना जो न हमको सिखाता रहा॥

'कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और' शायरी में अंदाज़े-बयां ही शायर की पहचान स्थापित करता है। यह जानते हुए सुनीता अपनी बात अपने ही अंदाज़ में इस तरह कहती हैं कि साधारण में असाधारणत्व का दीदार हो-

खाली रहा दिल का मकां वो जब तलक आए न थे।
आबाद उनसे जब हुआ वो खालीपन खोता गया॥

राधा हो या मीरा प्रिय को ह्रदय में बसाकर अभिन्न हे इन्हीं अमर भी हो जाती है। यह थाती सुनीता की शायरी में बदस्तूर मौज़ूद है-

दिल में धड़कन की तरह तुझको बसा रखते हैं।
तेरी तस्वीर क्या देखेंगे जमानेवाले।।
मैं तेरे गम को ही सौगात बना जी लूँगी।
मेरी आँखों को हँसी ख्वाब दिखानेवाले।।

आधुनिक जीवन की जटिलता हम सबके सामने चुनौतियाँ उपस्थित करती है। शायर चुनौतियों से घबराता नहीं उन्हें चुनौती देता है-

हमने जो खुद को थामा, उसका दिखा असर है।
कब हौसलों से सजता, उजड़ा किला नहीं है।।

सचाई की बड़ाई करने के बाद भी आचरण में न अपनाना आदमी की फितरत क्यों है? यह सवाल चिरकाल से पूछा जाता रहा है। बकौल शायर- 'दिल की बात बता देता है, असली नकली चेहरा।' अपनी शक्ल को जैसे का तैसा न रखकर सजावट करने की प्रवृत्ति से सुनीता महिला होने के बाद भी सहमत नहीं हैं-

चेहरे पर चेहरा क्यों लोग रखते हैं लगाकर।
जो दिया रब ने बनावट से छुपा जाते ही क्यों हैं।।

'समय होत बलवान' का सच बयां करती सुनीता कहती हैं कि मिन्नतों से कोई फर्क नहीं पड़ता। जब जो होना है, समय वही करता है।

मिन्नतें लाख हों चाहे करेगा वक्त अपनी ही।
जिसे चाहे बना तूफ़ान का देता निवाला है।।

मुश्किल समय में अपने को अपने आप तक सीमित कर लेना सही रास्ता नहीं है। सुनीता कहती हैं-

तन्हाइयों में ग़म को दुलारा न कीजिए।
रुसवाइयों को अपनी सँवारा न कीजिए।।

अनिश्चितता की स्थिति में मनुष्य के लिए तिनके का सहारा भी बहुत होता है। सीता जी को अशोक वन में रावण के सामने दते रहने के लिए यह तिनका ही सहारा बनता है। 'तृण धर ओट कहत वैदेही, सुमिर अवधपति परम सनेही।' सुनीता उस स्थिति में ईश्वर से दुआ माँगने के लिए हाथ उठाना उचित समझती हैं जब यह न ज्ञात हो कि उजाला कब मिलेगा-

जब नजर कोई नहीं आये कहीं।
तब दुआ में हाथ उठता है वहीं।।
राह में कोई कहाँ ये जानता?
कब मिलेगी धूप कब छाया नहीं?

दुनिया में विरोधाभास सर्वत्र व्याप्त है। एक और मुश्किल में सहारा देनेवाले नहीं मिलते, दूसरी और किसी को संकट से निकलने के लिए हाथ बढ़ाएँ तो वह भरोसा नहीं करता अपितु हानि पहुँचाता है। साधु और बिच्छू की कहानी हम सब जानते ही हैं। ऐसी स्थिति केन मिस्से कब क्या शिकायत की जाए-

किसे अब कौन समझाये, किधर जाकर जिया जाये?
हर तरफ रीत है ऐसी, शिकायत क्या किया जाये?

मनुष्य की प्रवृत्ति तनिक संकट होते ही सहारा लेने की होती है। तब उसकी पूर्ण क्षमता का विकास नहीं हो पाता किन्तु कोई सहारा न होने पर मनुष्य पूर्ण शक्ति के साथ संघर्ष कर अपनी राह खोज लेता है। रहीम कहते हैं-

रहिमन विपदा सो भली, जो थोड़े दिन होय।
हित-अनहित या जगत में जान पड़त सब कोय।।

सुनीता इस स्थिति को हितकारी की पहचान ही नहीं, अपनी क्षमता के विकास का भी अवसर मानती हैं-

कुछ अजब सा मेल पीड़ा और राहत का रहा।
बन्द आँखों से जहाँ सारा मुझे दिखला दिया।।
राह मिल जाती है पाने के सिवा चारा नहीं जब।
पंख खुल जाते हैं उड़ने के सिवा चारा नहीं जब।।
ख्वाबों को पूरा करने की, राह सदा मिल जाती है।
हम पहले अपनाते खुद को, तब दुनिया अपनाती है।।

कुदरत उजड़ने के बाद अपने आप बस भी जाती है। बहार को आना ही होता है-

अब्र का भीना सौंधापन, बाद-ए-सबां की तरुणाई।।
सिम्त शफ़क़ से रौशन हैं, ली है गुलों ने अंगड़ाई।।

सामान्यत: हम सब सुख, केवल सुख चाहते हैं जबकि सृष्टि में सुख बिना दुःख के नहीं मिलता चूंकि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। शायरा तीखा-मीठा दोनों रस पीना चाहती है-

देख क्षितिज पर खिलती आशा, मैं भी थोड़ा जी जाऊँ।
तीखा-म़ीठा सब जीवन-रस, धीर-धीरे पी जाऊँ।।

कवयित्री जानती है कि दुनिया में कोई किसी का साथ कठिनाई में नहीं देता। 'मरते दम आँख को देखा है की फिर जाती है' का सत्य उससे अनजाना नहीं है। अँधेरे में परछाईं भी साथ छोड़ देती है, यह जानकर भी कवयित्री निराश नहीं होती। उसका दृष्टिकोण यह है कि ऐसी विषम परिस्थिति में औरों से सहारा पाने की की कामना करने के स्थान पर अपना सहारा आप ही बन जाना चाहिए।

भीगे सूने नयनों में, श्रद्धा के दीप जला लेना।
दर्द बढ़े तो अपने मन को, अपना मीत बना लेना।।
समझौतों की वेदी पर, जीवन की भेंट न चढ़ जाये।
बगिया अपनी स्वयं सजा, सतरंगी पुष्प खिला लेना।।
संकल्पों से भार हटाकर खाली अपना मन कर लो।
सरल सहज उन्मुक्त लहर सा अपना यह जीवन कर लो॥

हिंदी ग़ज़ल की विकास यात्रा में चंद्र्कलश न तो मील का पत्थर है, न प्रकाश स्तम्भ किन्तु यह हिंदी गजलोद्यान में चकमनेवाला जुगनू अवश्य है जो ग़ज़ल-पुष्पों के सुरभि के चाहकों को राह दिखा सकता है और जगमगा कर आनंदित कर सकता है। चंद्रकलश की ग़ज़लें सुनीता की यात्रा का समापन नहीं आरम्भ हैं। उनमें प्रतिभा है, सतत अभ्यास करने की ललक है, और मौलिक सोचने-कहने का माद्दा है। वे किसी की नकल नहीं करतीं अपितु अपनी राह आप खोजती हैं। राह खोजने पर ठोकरें लग्न, कंटक चुभना और लोगों का हंसना स्वाभाविक है लेकिन जो इनकी परवाह नहीं करता वही मंज़िल पर पहुँचता है। सुनीता को स्नेहाशीष उनकी कलम का जोर लगातार बढ़ता रहे, वे हिंदी ग़ज़ल के मिज़ाज़ और संस्कारों को समझते हुए अपना मुकाम ही न बनायें अपितु औरों को मुकाम बनाने में मददगार भी हों। वे जिस पद पर हैं वहां से हिंदी के लिए बहुत कुछ कर सकती हैं, करेंगी यह विश्वास है। उनका अधिकारी उनके कवि पर कभी हावी न हो पाए। वे दोनों में समन्वय स्थापित कर हिंदी ग़ज़ल के आसमान में चमककर आसमान को अधिक प्रकाशित करें।
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'हौसलों ने दिए पंख गीतिका संग्रह आकुल
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विश्ववाणी हिंदी का साहित्य सृजन विशेषकर छांदस साहित्य इस समय संक्रमण काल से गुजर रहा है। किसी समय कहा गया था -

सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केसवदास
अब के कवि खद्योत सम जहँ-तहँ करात प्रकास

जिन्हें 'उडुगन' अर्थात जुगनू कहा गया उन्हें आदर्श मान कर आज का कवि अपनी सृजन यात्रा आरम्भ करता है। वे जुगनू जो रच साहित्य रच गए हैं उसकी थाह पाना आज के महारथियों के लिए भी मुमकिन है। कबीर, रहीम, रसखान, वृन्द, भूषण, घनानंद, देव, जायसी, प्रसाद, निराला, दद्दा, महीयसी, पंत, नेपाली, बच्चन, भारती, सुमन आदि-आदि यदि 'जुगनू' हैं तो आज के कवियों को क्या कहा जाए?

स्वातन्त्र्योत्तर काल में किताबी पढ़ाई को शिक्षा और भौतिक सुविधाओं को विकास मानने की जिस मरीचिका का विस्तार हुआ उसने 'सादा जीवन उच्च विचार' की जीवन शैली को कहीं का नहीं छोड़ा। साहित्यकार भी समाज का ही अंग होता है। कुँए में ही भाँग घुली हो तो होश में कौन मिलेगा? राजनैतिक समीकरणों को साधकर सत्ता पाने को ही लक्ष्य मान लेने का दुष्परिणाम जटिल भाषा समस्या के रूप में आज तक सामने है। हिंदी को राजभाषा बनाने के बाद भी एक भी दिन हिंदी में राज ने काम नहीं किया। भारत विश्व का एकमात्र देश है जहाँ की न्यायपालिका राजभाषा को 'अस्पृश्य' मानती है। पूर्व स्वामियों की भाषा बोलकर खुद को श्रेष्ठ समझने की मानसिकता ने ऐसी कॉंवेंटी पीढ़ियाँ खड़ी कर दीं जिन्हें हिंदी बोलने में 'शर्म' ही नहीं आती, हिंदी बोलनेवालों से 'घिन' की प्रतीति भी होती है।

हर पारम्परिक विरासत को दकियानूसी कहकर ठुकराने और नकारने की मानसिकता ने समाज को वृद्धाश्रमों के दरवाजे पर खड़ा कर दिया है तो साहित्य को 'अहं'-पोषण का माध्यम मात्र बना दिया है। पंडों-झंडों और डंडों की दलबंदी राजनीति ही नहीं, साहित्य में भी दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रही है। एक समूह छंद-मुक्ति की दुहाई देते हुए छंद-हीनता तक जा पहुँचा और गीत के मरने की घोषणा करने के बाद भी जनगण द्वारा ठुकरा दिया गया। साम्यवादी दुष्प्रभाव के कारण व्यंग्य लेख, लघुकथा और नवगीत को विसंगति, वैषम्य, टकराव, बिखराव, शोषण और अरण्यरोदन का पर्याय कहकर परिभाषित किया गया। जिस साहित्य को 'सर्व जन हिताय और सर्व जन सुखाय' का लक्ष्य लेकर 'सत-शिव-सुंदर' और 'सत-चित-आनन्द' हेतु रचा जाना था, उसे 'स्यापा' और 'रुदाली' बनाने का दुष्प्रयास किया जाने लगा।

उत्सवधर्मी भारतीय जन मानस के प्राण 'रस' में बसते हैं। 'नीरसता' को साध्य मानते साहित्य शिक्षा के प्रसार तथा नवपूँजीपतियों की यशैषणा ने साहित्य में रचनाकारों की बारह ला दी। लंबे समय तक अपनी दुरूहता और पिंगल ग्रंथों की अलभ्यता के कारण छंद प्रदूषण, लूट-खसोटी और छीना-झपटी से बचा रहा। मुद्रण के साधन सहज होते ही असंख्य रचनाकारों ने प्रतिदिन हजारों पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाओं से जन-मन को आक्रांत कर दिया। अब पैसा-पैसा जोड़कर के किताब खरीदना और उसे बार-बार पढ़ना और पढ़वाना, घर में 'पुस्तक' को सजाना, विवाह में दहेज़ के सामान के साथ 'किताब' देना बंद हो गया और स्थिति यह है कि पुस्तक विमोचन के पश्चात् महामहिम जन उन्हें मंच या अपने कक्ष में ही फेंक जाते हैं। इससे पुस्तकों में प्रकाशित सामग्री के स्तर और उपयोगिता का अनुमान सहज ही किया जा सकता है। इस पृष्ठभूमि में हिंदी गीति साहित्य में छंद विधाओं के विकास और मान्यता को देखना चाहिए।

हिंदी पिंगल की सर्वमान्य कृति जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' रचित 'छंद प्रभाकर' वर्ष १८९४ में प्रकाशित हुई थी। इसमें शास्त्रार्थ परंपरानुसार पांडित्य प्रदर्शन के साथ लगभग ७१५ छंदों का सोदाहरण प्रकाशन हुआ। तत्पश्चात लगभग हर दशक में एक-दो पुस्तकें प्रकाशित होती रहीं। अधिकांश छंदाचार्यों ने कुछ छंदों पर कार्य कर तथा कुछ ने भानु जी द्वारा दिए छंदों के उदाहरण बदलकर संतोष कर लिया। छंद की वाचिक परंपरा गाँवों में शहरों के अतिक्रमण ने समाप्त कर दी। छन्दाधारित चित्रपटीय गीतों के स्थान पर पाश्चात्य मिश्रित धुनों ने नव पीढ़ी तो छंदों से दूर कर दिया। हिंदी के प्राध्यापकों का छंद से कोई वास्ता ही नहीं रहा। स्थापित छंदों पर अपनी मान्यताएँ थोपने, महाकवियों के सृजन को दोषपूर्ण बताने और पूर्व छंदों के अंश की २-३ आवृत्ति (जनक) बताने, चित्र अलंकार की एक आकृति (पिरामिड) को नया छंद बताने का कौतुक आत्म तुष्टि के लिए किया जाने लगा। संस्कृत छंदों और शब्दों के फारसी में जाने पर उनका फ़ारसी रूपांतरण 'बह्र' नाम से किया गया। भारतीय शब्दों के स्थान पर फ़ारसी शब्द प्रयोग किये गए। कालांतर में विदेशी आक्रान्ताओं के साथ फ़ारसी के शब्द और काव्य सीमावर्ती भारतीय भाषाओँ के साथ घुल-मिलकर उर्दू नाम ग्रहणकर भारतीय छंदों पर श्रेष्ठता जताने लगे। फ़ारसी ग़ज़ल के चुलबुलेपन और सरल रचना प्रक्रिया ने रचनाकारों को आकृष्ट किया। ग़ज़ल को फ़ारसीपण से मुक्त कर भारतीय परिवेश से जोड़ने की कोशिश ने हिंदी ग़ज़ल की राह अलग बना दी। जीवन हुए जमीन से जुड़कर हिंदी ग़ज़ल को उर्दू ग़ज़ल ने स्वीकार नहीं किया। इस कशमकश ने हिंदी ग़ज़ल की स्वतंत्र पहचान बनाने हुए उर्दू उस्तादों द्वारा खारिज किये जाने से बचाने के लिए गीतिका, मुक्तिका, अनुगीत, अणु गीत आदि नाम दिला दिए। गीत का लघु रूप गीतिका और मुक्तक का विस्तार मुक्तिका।गीतिका नाम से हिंदी पिंगल में वर्णिक और मात्रिक दो छंद भी हैं। हिंदी ग़ज़ल के रचनाकार दो हिस्सों में बँट गए कुछ ग़ज़ल को ग़ज़ल कहते हुए उर्दू खेमे में हैं। यह स्थिति आदर्श नहीं है पर इसका समाधान समय ही देगा।

रचनाकारों का धर्म रचना करना है। पिंगल शास्त्री छंद के विकास और नामांतरण को सुलझाते रहेंगे। इस सोच को लेकर वीर भूमि राजस्थान की परमाणु नगरी कोटा के ख्यात रचनाकार डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' सतत सृजन रत हैं। गीतिका को लेकर श्री ॐ नीरव और श्री विशम्भर शुक्ल सृजन रत हैं।

नीरव जी के अनुसार 'गीतिका एक ऐसी ग़ज़ल है जिसमें हिंदी भाषा की प्रधानता हो, हिंदी व्याकरण की अनिवार्यता हो और पारम्परिक मापनियों के साथ छंदों का समादर हो। १ नीरव जी के अनुसार मात्रा भार, तुकांत विधान, मापनी, आधार छंद आदि गीतिका के तत्व हैं।

शुक्ल जी के अनुसार "गीतिका ग़ज़ल ,जैसी है, ग़ज़ल नहीं है.... हर ग़ज़ल गीतिका गीतिका है पर हर गीतिका ग़ज़ल नहीं है।' २ वे गीतिका के दो रूप छंद-मापनी युक्त तथा छंद-मापनीमुक्त मानते हैं।

आकुल जी गीतिका को 'छोटा गीत' मानते हुए पद्यात्मकता तथा न्यूनतम पद-युग्म दो लक्षण बताते हैं। ३ आकुल जी के अनुसार गीतिका के पहले दो युग्म मुक्तक का निर्माण करते हैं और मुक्तक को अन्य युग्मों के साथ बनाई गयी रचना गीतिका है।

सामान्यत: पश्चातवर्ती का परिचय पूर्वव्रती के संदर्भ से दिया जाता है। अमुक फलाने का पोता है। पूर्ववर्ती के नाम से पश्चात्वर्ती का परिचय नहीं दिया जा सकता। रचना पहले मुक्तक ही रचा जाता है। मुक्तक की अंतिम दो पंक्तियों के पंक्तियाँ जोड़ते जाने पर बनी रचना को मुक्तिका कहने का तो आधार है, गीतिका कहने का नहीं है। गीत के अंग मुखड़ा और अंतरा हैं। अंतरे के अंत में मुखड़े समान पंक्ति रखकर मुखड़े आवृत्ति की जाती है।
ऐसा गीतिका में नहीं होता। अस्तु, नामकरण समय के हवाले कर रचनामृत का पान करना श्रेयस्कर है।

आकुल जी ने ३४ मापनियों पर आधारित सौ तथा मापनी मुक्त सौ कुल दो सौ रचनाओं को इस संग्रह में स्थान दिया है। कृति का वैशिष्ट्य 'छंद आधारित प्रख्यात रचनाएँ' आलेख है जिसमें कुछ प्रसिद्ध चित्रपटीय गीतों का उल्लेख है। इससे नव रचनाकारों को उस मापनी के छंद को लयबद्ध कर गेयतायुक्त करने में सहजता हो सकती है। उल्लेखनीय है कि एक ही मापनी पर आधारित गीति रचनाओं की लय में भिन्नता सहज दृष्टव्य है। इसका कारण यति संख्या, यति स्थान, कभी-कभी आलाप, शब्द-युति, तथा कल विभाजन है। इन रचनाओं को गुनगुनाने होता है कि आकुल जी ने इन्हें 'लिखा' नहीं, तन्मय होकर 'रचा' है। इसीलिए इनकी मात्रा गणना किताबी नहीं वाचिक परंपरा का पालन करती है। पहली रचना ही इस तथ्य को स्पष्ट कर देती है।

छंद- अनंगशेखर
मापनी- 12122 12122 12122 12122
पदांत- है बारिशों की
समांत- आयें
चमक रही है गगन में’ बिजली, घिरी घटायें हैं' बारिशों की.
लुभा रही है, चमन में’ ठंडी, चली हवायें हैं’ बारिशों की

गुरु उच्चार को s द्वारा इंगित करना दर्शाता है कि आकुल जी रचना कर्म की शुद्धता के प्रति कितने सजग हैं। आकुल जी जमीन से जुड़े साहित्यकार हैं। वे किताबी भाषिक शुद्धता के पक्षधर नहीं हैं। लोकोक्ति है 'ताले चोरों नहीं शरीफों के लिए होते हैं।' इसी बात को आकुल जी अपने अंदाज़ में कहते हैं -

चौकसी, ताले​ हैं फिर भी ​चोरियाँ
चोर को ताले नहीं प्रहरी नहीं

अंग्रेजी की कहावत 'ऑल इस फेयर इन लव एन्ड वार' का उपयोग करते हुए आकुल कहते हैं-

युद्ध में अरु प्रेम में जायज है' सब,
है जुनूं तो है झुका संसार भी.

भाषिक समन्वय -

आकुल जी भाषिक समन्वय के समर्थक हैं। उनके दादुर और पखेरू अदावतों समुंदरों और दुआओं से परहेज नहीं करते। - पृष्ठ २०

जीवन सुख-दुःख, जीत-हार और धूप-छाँव का संगम है। आकुल जी इस जीवन दर्शन को जानते और जीत में मिलती रही है हार भी तथा संग फूलों के मिलेंगे ख़ार भी जैसी पंक्तियों से व्यक्त करते हैं।

दौरे दुनिया एक दूसरे को अधिक से अधिक चोट पहुँचाने का है। आकुल इस रहे-रस्म के कायल नहीं हैं-

लेखनी से तू कभी ना, दर्द दे,
जो न कर पाये भलाई, ग़म न कर

नीतिपरकता -

हिंदी साहित्य में नीति के दोहे कहने का चलन है। संस्कृत में सुभाषित और अंगरेजी में कोट्स की परंपरा है। आकुल जी नीति की बात भी इस तरह कहते हैं की वह उपदेश न लगे-

तू उड़ान बाज सी भरना सदा.
हौसला फौलाद सा रखना सदा.
बात हो तलवार क तो ढाल से,
वार हो तो घात से बचना सदा.
जोश म बरसात सा आवेश हो,
शांतनिर्झर सा नहीं बहना सदा.

कर सको तो क्रोध पर काबू करो,
मौन को आदत बनाना चाहिए

लोकगायन, नृत्य, झूले,
उS स घर घर में मनाना.
है यही संस्कृति हमारी,
गीत स्वागत में सुनाना

जीवन दर्शन

ज़िंदगी के फ़लसफ़ों को काव्य पंक्तियों में ढालने आकुल जी का सानी नहीं है -

जितना भरा है उतना मिलेगा, कोई भरेगा नहीं ज़िंदगी में,
ज्यादा न आशा करना कभी भी, ये ज़िंदगी में छलती रहेगी.

मुहावरों का सटीक प्रयोग

कहावतों, लोकोक्तियों और मुहावरों से भाषा में जान पड़ जाती है। आकुल जी यह भली-भांति जानते हैं। 'कहावत मन चंगा तो कठौती में गंगा' का गीतिकाकरण देखिए।
न जा सक जो हरद्वार गंगा,
भर क चंगा मन हो कठौती

जैसे ही’ चार होत' आख लग' िमलाने,
किलयाँ कई दवानी भँवरे लग' रझाने

साँच को भी आँच ना हो
सS य क भी जाँच ना हो

सार नहीं श्रृंगार बिन

जीवन में श्रृंगार रास का अपना महत्व है। यह सत्य 'गोपाल कृष्ण' से बेहतर कौन जान सकता है। उन्हें इसीलिये लीला बिहारी कहा जाता है की वे रास में प्रवीण हैं और रस रंग के पर्याय हैं-

मान रख आना पड़ा मुझको ते’री मनुहार पर.
है समर्पित गीतिका मेरी तेरे श्रृंगार पर 
शोभते मणिबंध, कंकण, उर कनक हारावली,
कंचुक का भेदलिमहति वर्णिका अभिसार पर.
(प यौवन को लिखूँ, गजगािमनी हो नायिका,
पंिiका कैसे िलखूँ म ^ककणी यलगार पर.
रेशमी पM लव X यिथत ह , हाथ म थामे $ए
कण4फूल से सजी अलकाव ली ह dार पर.
अंगराग से $ई सुरिभत ते’री मह फल ि<ये,
धj य म जो िलख सका इक गीितका गुलनार पर.

<ेम का संदेश प$ँचाय िeितज ​​तक लो चलो,
पा सको तो जीत लो मन उड़ सकोगे D यार सँग.
कM पना के लोक क , प रकM पना है <ेम ही,
िलख सको िलख आना’ इक पैगाम तुम भी D यार सँग.

रंगों की रंगीनियाँ 

उत्सवधर्मी भारतीय मानस प्रकृति में बिखरे रंगों को भावनाओं, कामनाओं और मानवीय प्रवृत्तियों से जोड़ता है। लाल-पीला होना, रतनारी आँखें, मन हरियाना, पीला पड़ना आदि में रंग ही परिस्थिति बता देते हैं। इस मनोविज्ञान से आकुल जी अपरिचित नहीं हैं-
रंग हो सूखा गुलाबी लाल पीला केसरी,
ह सभी बस रंग काला पोतने का डर न हो.

शब्दवृत्ति

शब्द सौंदर्य से भाव और लय दोनों का चारुत्व बढ़ता है। रचना में गीतिमयता की वृद्धि उसे श्रवणीयता संपन्न करते है। शब्दावृत्ति से भाषिक सौंदर्य उत्पन्न करने का उदाहरण देखिए-
चलना सँभल-सँभल के, यह Bजदगी समर है.
फूल का मत समझना, काँट भरा सफर है.

है वो सुखी यहाँ पर, चलता रहे समय सँग,
रखता कदम-कदम को, जो फूँक-फूँक कर है.

शब्द युग्म -

शब्द युग्म से आशय दो या अधिक शब्दों का प्रयोग है जो एक साथ प्रयोग किये जाते हैं। ये कई प्रकार के होते हैं। कभी दोनों शब्द समानार्थी होते हैं, कभी भिन्नार्थी, कभी पूरक, कभी विपरीत, कभी निरर्थक भी -

कर गुजर भूल जा गिले-शिकवे 
एक दिन तो बरफ पिघलती है

yंथ कहते िपता <जापित है.
माँ-िपता के िबना नह' गित है.

छw-छाया रहे सदा इनक ,
सृिO क दी अमूM य सL पित है.

धम4 एवं सSय क हो जीत यह,
सu यता-सं% कृित हमारी हो सदा.

बुिIमS ता, शौय4 अ7 धन-धाj य हो,
िमwता उससे भी’ भारी हो सदा

कर्म योग 

गीता का कर्म योग सिद्धांत 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन' आकुल जी को प्रिय -है

कर िमलेगा Qम सदा, <ितफल तुझे,
तीथ4 जाके पाप तू, धोना नह'
*
धरे हाथ पर हाथ बैठे रहोगे.
अगर दो कदम भी न आगे बढ़ोगे.
िमलेगी नह' मंिजल जान लो तुम,
हमेशा सफर म अकेले चलोगे.

सामाजिक सद्भाव

वर्तमान में समाज में घटता सद्भाव, एक दूसरे के प्रति द्वेष भाव आकुल जी को चिंतित करता है-

गरीब भी रह दुखी,
अमीर के <भाव से
नह' सुखी अमीर भी
दुखी रह तनाव से

वे परिस्थिति को सुधरने की राह भी ेदीखते हैं

न सीख ल न सीख द
खुशी व खूब चाव से
अमोल Bजदगी िमली
रह िजय िनभाव से

इस भौतिकताप्रधान समय में भोगवासना में फंसकर मनुष्य भक्ति भाव भूल रहा है। आकुल जी जानते हैं कि भक्ति ही सही राह है-

आओ सभी दरबार म आओ,
माँ को चुन रया तो चढ़ानी है.
िनत ड|िडयाँ गरबा कर सारे,
माँ को रझाएँ मातरानी है.
समृिI सुख वरदाियनी देवी,
दुगा4 जया गौरी भवानी है
हे शारदे पथ*k ट होऊँ ना,
तुझसे सदा स}बुिI पानी है.

कर्तव्य भाव

हम सब अधिकारों के प्रति सचेष्ट हैं कइँती कर्तव्य की अनदेखे करते रहते हैं. बहुत सी समस्याओं का कारण यही है। आकुल जी इस स्थिति पर चिंतित हैं और राह भी सुझाते हैं -

जंगली सा,
6 य बना है.
नाग रक हो,
सोचना है.
िसI करनी
कM पना है.
% वग4 को य द
खोजना है.
अितWमण को,
रोकना है.

राष्ट्रीयता

कोई भी देश अपने नागरिकों में राष्ट्रीयता के बिना सशक्त नहीं हो सकता। आकुल जी यह जानते हैं, इसलिए लिखते हैं-

गूँज गी अब चार दशा, झूम गे’ अब धरती गगन,
समवेत % वर म राk गा(न) गाय गे’ जब सब मान से
हमको रहेगा गव4 जीवन भर शहीद का करम,
उनसे ही’ तो ह जी रहे हम आज इतमीनान से.
ह कम दल म दू रयाँ, अब हौसले कम ह नह', ,
अब देश ही सवŽE च हो, D यारा हो’ अपनी जान से.
हो खS म अब आतंक, *k ट आचारण, दुk कम4 सब,
ह बढ़ रहे खतरे समझ ना पा रहे 6 य T यान से

नारी विमर्श

आजकल नारी अपराधों का शिकार हो रही हैआकुल जी इस परिस्थिति से चिंतित हैं-

नारी िबना दो कदम भी बढ़ोगे नह'.
सफलता क सी ढ़ याँ भी चढ़ोगे नह'.
अब नह' ह ना रयाँ िनब4ल ये’ जान ले,
इितहास कभी कोई, गढ़ सकोगे नह'.
अपसं% कृित, असu यता, बढ़ेगी रात दन,
नारी के आदश4 को जो मढ़ोगे नह'.
जान पाओगे नह', जो शिi नारी’ क ,
युग के इितहास को जो पढ़ोगे नह'.

कसी मोरचे पर नारी को, कभी न कम आँके मानव,
अब तो दुिनया को मुी म , करने को तS पर नारी.
कोई भी हो कम4 eेw म , % वयंिसI करती है वह,
छोटा हो या बड़ा गँवाती, नह' कह' अवसर नारी.

कहाँ नह' वच4% व नारी’ का, अब यह भी जग जाना है.
अंत रe म गई, चाँद पर, अब परचम फहराना है.
राजनीित हो, या तकनीक , सेना हो या िव…ालय,
आज िच कS सा, j याय X यव% थ ा म भी उसको माना ह्.ै
घर के उS तरदाियS व म , कभी नह' वह पीछे थी,
कत4X य , अिधकार म भी, अिyम हो, यह ठाना है.

भाषा समस्या

राजनीति ने भारत में भाषा को भी समस्या बना दिया है। राजभाषा हिंदी के प्रति यत्र-तत्र विरोध और द्वेष भाव से चिंतित आकुल जी कहते हैं-

Bहदी आभूषण है इसको, अब शोिभत कर
Bहदी वण4माल से कृितयाँ, अब पोिषत कर .
हम कृताथ4 ह जाएँ य द, िसर पर हाथ हो
मधुर राk वाणी से सब को, संबोिधत कर .
बस मन-वचन-कम4 से इसको, अपनाय सभी,
अिभX यिi क है % वतंwता, न ितरोिहत कर .

जमीन से जुड़ाव

आकुल जी की सृजन भूमि राजस्थान है। वे जमीन से जुड़े रचनाकार हैं। देशज भषा भी उन्हें उतने ेहे प्रिय है जितनी आधुनिक हिंदी

जात-पाँत, रीत-भाँत, मन नैकूँ हो न शांत,
सूखे ह जो पेट आँत, सपन न आत ह .
भीख ले के हो <सj न, पशु के समe अj न
फ कवे स„ नायँ नैकूँ, होनो जानो कछू भी.

नगरीकरण

तथाकथित विकास की अंधे ेमें गाँवों से शहरों की ओर पलायन का दुष्चक्र आकुल जी को चिंता करता है -

चौपाल , पनघट सूने, ह कुँए बावड़ी सूनी ह ,
वृe काट खुश है मानव उसक भी पाली आएगी.
ना ही फूट गे टेसू, कचनार, हारBसगार यहाँ,
छायेगा न बसंत व होली भी न गुलाली आएगी.
‘आकुल’ बढ़ कर रोक कटते पेड़ को द संरeण,
लहराय गे वृe देखना देव दवाली आएगी.

वैकल्पिक ऊर्जा

मनुष्य ने प्राकृतिक उपादानों को इतनी तेजी और निर्दयता से नष्ट किया है की भविष्य में इनका आभाव झेलना पड़ेगा। इससे बचने के लिए वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत अपनाना ही कमात्र उपाय है-

अतुिलत ऊजा4 ले <ाची से, जब सूयŽदय होता है.
जन जीवन का ऊजा4 से ही, तब अu युदय होता है.
इस ऊजा4 से चाँद िसतारे, <कृित धरा भी है रोशन,
अंितम X यिi बने ऊज4% वी, वह अंS योदय होता है.
युग युग से धरती घूमे, बाँट रही घर घर ऊजा4,
जब लेते सापेिeक ऊजा4, तब भा) योदय होता है.
ऊजा4 का <ाकृितक zोत यह, राk ोj नित का मूल बने,
इस ऊजा4 से सव4तोभZ, वह सवŽदय होता है.
<कृित ने दये इस ऊजा4 से, शोक अशोक % वभाव कई,
कभी कभी तो सूय4 % वयं भी, तो y%तोदय होता है.

प्रशासनिक विसंगति

स्वतंत्रता के समय जनगण की शासन-प्रशासन से जो अपेक्षा थी, वह पूरी नहीं हुई। विदेशी अंग्रेज गए तो दषी अंग्रेज सत्तासीन हो गए। नेताओं ने बभी देश को लौटने में कोइ कसर नहीं छोड़ी

इक थैली के च‰े-ब‰े, साठ-गाँठ मािहर नेता,
साम-दाम अ7 दंड-भेद म , आफत के परकाले ह .
मूक देखते j यायालय भी, दंडिवधान,<शासन भी,
को िविध िनकले राह तीसरी, कूटनीित म ढाले ह .
चोर चोर मौसेरे भाई, करते घोटाले ढेर ,
साथ रख कल-पुज–-कुंदे, महँगी कार वाले ह .
कहते ह चाण6 य-िवदुर भी, छल-बल िबना न राज चले,
इसीिलए शतरंज म आधे, होते खाने काले ह

'हौसलों ने दिए पंख' शीर्षक यह काव्य कृति सम-सामयिक परिस्थियों का दस्तावेज है। आकुल जी सजग चिंतक और कुशल कवि हैं। वे कल्पना विलास में विश्वास नहीं करते। चतुर्दिक घाट रही घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में वे साहित्य सृजन को यज्ञ संपन्न करते हैं। पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों से दूर रहकर विषय वस्तु और कथ्य पर तार्किक चिंतन कर, समाधान सुझाते हुए विसंगतियों को इंगित काव्य को पठनीयता ही नहीं मननीयता से भी युक्त करता है। आज आवश्यकता इस बात के है की शिल्प के किसी एक पहलू पर सारा विमर्श केंद्रित कर किये जा रहे विवादों को भूलकर साहित्य की कसौटी उद्देश्यपरकता हो। आकुल जी इस निकष पर सौ टके खरे साहित्यकार है और उनका साहित्य समय का दस्तावेज है।
संदर्भ : १. गीतिकालोक -ॐ नीरव, २. दृगों में इक समंदर है -विशंभर शुक्ल, ३. चलो प्रेम का दूर क्षितिज तक पहुँचाएँ संदेश -आकुल
***
हास्य साहित्य परंपरा और 'चमचावली' हास्य-व्यंग्य की दीपावली
*
मार्क ट्वेन ने कहा है कि हँसना एक गुणकारी औषधि है मगर इस औषधि को देनेवाला डॉक्टर बहुत मुश्किल से मिलता है। आजकल हर मंच पर हास्य-व्यंग पढ़ने का फैशन होने के बाद भी हास्य-व्यंग्य की सरस काव्य रचनाओं का अभाव है। सामान्यत: चुटकुलेबाजी और फूहड़ टिप्पणियाँ ही हास्य-व्यंग्य के नाम पर सुनाई जाती हैं। यह विसंगति तब है जबकि हिंदी और हिंदी भाषी अंचल की लोक भाषाओँ-बोलिओं में शिष्ट हास्य कविता लेखन-पठन की उदात्त परंपरा रही है। हास्य-व्यंग्य का मूल स्रोत हमारी पुरातन संस्कृति, सभ्यता और जीवन दर्शन में देखा जा सकता है। भारतीय संस्कृति में मृत्यु, भय और दु:ख का विशेष महत्व नहीं है। ब्रह्म सत् चित् के साथ ही आनंद का स्वरूप है जिसके अंश सकल सृष्टि का कण-कण है। ब्रह्म आनंद के रूप में सभी प्राणियों में निवास करता है। उस आनंद की अनुभूति जीवन का परम लक्ष्य माना जाता है। इसी से ब्रह्मानंद शब्द की रचना हुयी है। वह रस, माधुर्य, लास्य का स्वरूप है। इसीलिये ब्रह्म जब माया के संपर्क से मूर्तरूप लेता है तो उसकी लीलाओं में आनंद को ही प्रमुखता दी गयी है। हमारे कृष्ण रास रचाते हैं, छल करते हैं, लीलायें दीखाते हैं। वे वृंदावन की कुंज गलियों में आनंद की रसधार बहा देते हैं। मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम भी होली में रंग, गुलाल उड़ाते हैं और सावन में झूला झूलते हैं। उनकी मर्यादा में भी भक्त आनंद का अनुभव करते हैं। यह आनंदानुभूति निराकार है, इसका चित्र नहीं बनाया जा सकता, इसका चित्र गुप्त है। 'गूँगे के गुण' की तरह आनंद भी प्रसन्नता को जन्म देता है, यह प्रसन्नता अधरों या नेत्रों से व्यक्त होती है। हास्य को आनंद की प्रतीति करानेवाला 'ब्रम्हानंद सहोदर' कहा जा सकता है।

सनातन भारतीय संस्कृति में मृत्यु और दु:ख को अधिक महत्त्व नहीं दिया गया। मृत्यु परिवर्तन की वाहक मात्र है। देह के साथ आत्मा नहीं मरती, वह एक चोला बदलकर दूसra पहन लेती है। कुछ पंथ शरीर का समय पूरा होने पर खुशी मनाते हैं। नाच-गाने, उमंग और उत्साह से पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार किया जाता है कि जीवात्मा अपने स्वामी ब्रह्म से मिलने जा रही है। मिलन की इस पावन बेला में दु:ख, दर्द और शोक क्यों? अंत समय का शोक मोह, अज्ञान और लोक-परंपरा का निर्वहन मात्र है। कुछ पन्थों में शव को दफनाते हैं ताकि वह कुछ जीवों का भोज्य बन जाए, कुछ अन्य पंथ शव को पक्षियों के भोग हेतु छोड़ देते हैं। सनातन धर्म रोगजनित मृत्यु के कारण शव में उपस्थित रोगाणु अन्यों के लिए घातक होने की सम्भावना के कारण शव-दाह करते हैं जबकि इसी से बनी भभूत से बोले बाबा का शृंगार किया जाता है जो 'सत-शिव-सुंदर' के पर्याय और परम आनंद के प्रतीक हैं। वे नृत्य, गायन, व्याकरण, भाषा आदि के केंद्र हैं जिनसे प्राणी के मन में आनंद का सागर हिलोरें लेने लगता है। हम अवतारों की जयंतियाँ उत्साह और श्रध्दा सहित मानते किन्तु निधन तिथियों को भूलकर भी याद नहीं करते। हम मूलत: आनंद को ईश्वर का पर्याय मानते हैं। इसलिए आनंददायी हास्य-व्यंग्य की परंपरा वेद-पूर्व से तत्कालीन भाषाओं के साहित्य में है। लौकिक और वैदिक संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश आदि के साहित्य में हास्य-व्यंग्य की छटा देखते ही बनती है। उदाहरण: - "मम पुत्रस्य अन्नवस्त्रादि-व्ययं समग्रं सर्वकारः एव निर्वहति।" इति उक्तवती रुक्मिणी-देवी। = "कथं सम्भवति तत्?" कीदृशः उद्योगः तस्य ??" इति पृष्टवती मालादेवी। -"एकपैसात्मक-व्ययः अपि नास्ति तस्य। यतः आजीवनकारागारवासेन दण्डितः अस्ति सः।" (लौकिक संस्कृत) पुत्र के अन्न-वस्त्रादि की व्यवस्था हतु उसे आजीवन कारावास के उपाय में छिपे व्यंग्य को सहज ही अनुभव किया जा सकता है।

अपभ्रंश साहित्य में संवत १२४१ विक्रम में सोमप्रभ सूरि रचित 'कुमार पाल प्रतिबोध' से एक दोहा देखिए: 'बेस बिसिट्ठइ बारियइ, जइबि मनोहर गत्त। / गंगाजल पक्वालियवि, सुणिहि कि होइ पवित्त।। अर्थात ''वेश-धारियों से बचें, चाहे मनहर गात। / गंग-स्नान से हो नहीं,पावन कुतिया जात।।'सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है' अथवा 'मुल्ला जी दुबले क्यों? - शहर के अंदेशे से' जैसी लोकोक्तियों का सार अपभ्रंश के दोहाकार सोमप्रभ सूरी के निम्न दोहे में हो सकता है जहाँ दोहाकार की चिंता यह है कि दशानन के दस मुँह थे तो उसकी माता उन सबको दूध कैसे पिलाती होगी? 'रावण जायउ जहि दिअहि, दहमुहु एकु सरीरु। / चिंताविय तइयहि जणणि, कवहुं पियावहुं खीरु।। अर्थात् एक बदन दस वदनमय, रावन जन्मा तात। / दूध पिलाऊँ किस तरह, सोचे चिंतित मात।।

संत कबीर हास्य-व्यंग्य परंपरा के श्रेष्ठ वाहक रहे। वे ब्रम्ह के साथ जो रिश्ता जोड़ते हैं उसकी कल्पना भी आसान नहीं है: 'हम बहनोई, राम मोर सारा। हमहिं बाप, हरिपुत्र हमारा।।' लोक भी हास्य-व्यंग्य का आनंद लेने में पीछे नहीं रहता- 'फागुन में बाबा देवर लागे' गाकर ससुअर को छेदती नव्वादु को देखकर कौन सोच सकेगा कि वह शेष समय लज्जा का निर्वहन सहजता और आनंद के साथ करती है। उत्सवधर्मी भारतीय मनीषा आराध्य के साथ भी हंसी-ठिठोली करने से बाज नहीं आती। भगवान जगन्नाथ के दर्शनकर एक भक्त कवि के मन में प्रश्न है कि भगवान काठ क्यों हो गये? 'कठुआ जाना' लोक बोली का एक मुहावरा है। भक्त अपनी कल्पना की उड़ान से संस्कृत में जो छंद रचता है उसका हिन्दी रूपान्तर कुछ इस तरह किया जा सकता है -'भगवान की एक पत्नी आदतन वाचाल हैं (सरस्वती) दूसरी पत्नी (लक्ष्मी) स्वभाव से चंचल हैं। वह एक जगह टिक कर रहना नहीं चाहतीं। उनका एक बेटा मन को मथनेवाला कामदेव है जो अपने पिता पर भी शासन करता है । उनका वाहन गरूड़ है। विश्राम करने के लिये उन्हें समुद्र में जगह मिली है। सोने के लिये शेषनाग की शैय्या है। भगवान विष्णु को अपने घर का यह हाल देख कर काठ मार गया है। एक अन्य भक्त कवि आशुतोष शंकर का दर्शन कर सोचता है कि इस भोले भण्डारी, जटाधारी, बाघम्बर वस्त्र पहनने वाले के पास खेती-बारी नहीं है। रोजी का कोई साधन नहीं है तो इनका गुजारा कैसे होते है। भक्त संस्कृत में छंद कहता है: 'उनके पास पाँच मुँह हैं। उनके एक बेटे (कार्तिकेय) के छह मुँह हैं। दूसरे बेटे गजानन का मुँह और पेट थी का है। यह दिगबंर कैसे गुजारा करता अगर अन्नपूर्णा पत्नी के रूप में उसके घर नहीं आतीं। तीसरा भक्त कवि कहता है कि भगवान शंकर बर्फीले कैलाश पर्वत पर रहते हैं। भगवान विष्णु का निवास समुद्र में है। इसकी वजह क्या है? निश्चित ही दोनों भगवान मच्छरों से डरते हैं इसलिये उन्होंने ने अपना ऐसा निवास स्थान चुना है। मृच्छकटिक नाटक के रचयिता राजा शूद्रक हैं ब्राह्मणों की खास पहचान 'यज्ञोपवीत 'की उपयोगिता के बारे में ऐसा व्यंग्य करते हैं जिसे सुनकर हँसी नहीं रुकती। वे कहते हैं: य'ज्ञोपवीत कसम खाने के काम आता है। अगर चोरी करना हो तो उसके सहारे दीवार लांघी जा सकती है।'

हास्य का जलवा यह कि संस्कृत वांग्मय में हास्य को सभी आचार्यों ने रस स्वीकार किया है। भरत मुनि कृत नाट्यशास्त्र के अनुसार- 'विपरीतालंकारैर्विकृताचाराभिधानवेसैश्च/विकृतैरर्थविशेषैहंसतीति रस:स्मृतो हास्य:।।'भावप्रकाश में लिखा है- 'प्रीतिर्विशेष: चित्तस्य विकासो हास उच्यते।'साहित्यदर्पणकार का कथन है- 'वर्णदि वैकृताच्चेतो विकारो हास्य इष्यते विकृताकार वाग्वेश चेष्टादे: कुहकाद् भवेत्।।दशरूपककार की उक्ति है- 'विकृताकृतिवाग्वेरात्मनस्यपरस्य वा / हास: स्यात् परिपोषोऽस्य हास्य स्त्रिप्रकृति: स्मृत:।। सार यह है कि हास एक प्रीतिपरक भाव है और चित्तविकास का एक रूप है। उसका उद्रेक विकृत आकार, विकृत वेष, विकृत आचार, विकृत अभिधान, विकृत अलंकार, विकृत अर्थविशेष, विकृत वाणी, विकृत चेष्टा आदि द्वारा होता है। इन विकृतियों से युक्त हास्यपात्रता कवि, अभिनेता, वक्ता द्वारा कथनी या करनी से किया जाना हास्य है। विकृति का तात्पर्य है प्रत्याशित से विपरीत अथवा विलक्षण कोई ऐसा वैचित्र्य, कोई ऐसा बेतुकापन, जो हमें प्रीतिकर जान पड़े, क्लेशकर न जान पड़े। इन लक्षणों में पाश्चात्य समीक्षकों के प्राय: सभी लक्षण समाविष्ट हो जाते हैं, जहाँ तक उनका संबंध हास्य विषयों से है। ऐसा हास जब विकसित होकर हमें कवि-कौशल द्वारा साधारणीकृत रूप में, अथवा आचार्य पं. रामचंद्र शुक्ल की शब्दावली के अनुसार, मुक्त दशा में प्राप्त होता है, वह हास्यरस कहलाता है। हास के भाव का उद्रेक देश-काल-पात्र-सापेक्ष रहता है। घर पर कोई खुली देह बैठा हो तो दर्शक को हँसी न आएगी परंतु उत्सव में भी वह इसी तरह पहुँच जाए तो उसका आचरण प्रत्याशित से विपरीत या विकृत माना जाने के कारण हँसी जगा देगा। इसी तरह युवा व्यक्ति श्रृंगार करे तो फबने की बात है किंतु जर्जर वृद्ध का श्रृंगारर हास का कारण होगा; कुर्सी से गिरनेवाले पहलवान पर हम हँसेंगे परंतु छत से गिरनेवाले बच्चे के प्रति हमारी सहानुभूति उमड़ेगी। हास का आधार प्रीति है न कि द्वेष। किसी की प्रकृति, प्रवृत्ति, स्वभाव, आचार आदि की विकृति पर कटाक्ष भी करना हो तो वह कटुक्ति के रूप में नहीं, प्रियोक्ति के रूप में हो। उसकी तह में जलन अथवा नीचा दिखाने की भावना न होकर विशुद्ध संशुद्धि की भावना होगी। संशुद्धि की भावनावाली यह प्रियोक्ति भी उपदेश की शब्दावली में नहीं किंतु रंजनता की शब्दावली में होगी।

वर्तमान काल में हरिमोहन झा ने अपनी हास्य व्यंग्य कृति 'खट्टर काका' में देवी-देवताओं और अवतारों के साथ खूब जमकर ठिठोली की है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, अकबर इलाहाबादी , बाबू बालमुकुंद गुप्त आदि ने अन्योक्तिपूर्ण व्यंग्य लेखन का नया मानक बनाया। उर्दू शायरों ने तो ब्रिटिश शासनकाल में अंग्रेजियत पर ऐसे तीखे प्रहार किये कि अंग्रेज उसे समझ भी नहीं पाते थे और हिन्दुस्तानी उसका जायका लेते थे। अकबर साहब फरमाते हैं - 'बाल में देखा मिसों के साथ उनको कूदते। /डार्विन साहब की थ्योरी का खुलासा हो गया।' जनाब अकबर इलाहाबादी ब्रिटिश अदालत में मुंसिफ थे लेकिन वे अपने व्यंग के तीरों से ऐसा गहरा घाव करते थे कि पढ़नेवाला एक बार उसे पढ़कर हजारों बार उस पर सोचने को मजबूर हो जाता था। लार्ड मैकाले की शिक्षा पध्दति का पोस्टमार्टम जिस बेबाकी से अकबर साहब ने किया उसकी गहराई तक आज के व्यंगकार सोच भी नहीं सकते हैं -'तोप खिसकी प्रोफेसर पहुंचे। बसूला हटा तो रंदा है।' प्लासी की लड़ाई में सिराज्जुदौला को शिकस्त देकर तमाम देसी रियासतों को जंग में मात देकर अंग्रेजों ने तोप पीछे हटा ली और अंग्रेजी पढ़ानेवाले प्रोफेसरों को आगे कर दिया। तोप के बसूले ने समाज को छील दिया और प्रोफेसर के रंदे ने उसे अंग्रेजों के मनमाफिक कर दिया। तोप और प्रोफसर का यह तालमेल ब्रिटिश शिक्षा-पध्दति पर बेजोड़ और बेरहम हमला है।

पं0 मदनमोहन मालवीय और सर सैयद अहमद खाँ जिन दिनों हिन्दू यूनिवर्सिटी और मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना के लिये प्रयास कर रहे थे उन्हीं दिनों मालवीय जी के मित्र अकबर इलाहाबादी ने अंग्रेजपरस्त सैयद अहमद खाँ को लक्ष्य कर एक शेर कहा- 'शैख ने गो लाख दाढ़ी बढ़ाई सन की सी। मगर वह बात कहाँ मालवी मदन की सी। ' यहाँ 'सन' की शब्द पर गौर कीजिये। दोनों शब्दों को मिला देने पर जो अर्थ निकलता है वह शायर के हुनर की मिसाल है। हास्य के प्रमुख कारक: (अ) अप्रत्याशित शब्दाडंबर: शब्द की अप्रत्याशित व्युत्पत्ति के सहारे 'को घट ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर' -बिहारी, 'न साहेब ते सूधे बतलाएँ, गिरी थारी अइसी झन्नायें, कबौं छउकन जइसी खउख्यायें, पटाका अइसी दगि-दगि जाएँ'-रमई काका, 'मन गाड़ी गाड़ी रहै. प्रीति क्लियर बिनु लैन, जब लगि तिरछे होत नहिं, सिंगल दोऊ नैन' -सुकवि, (आ) विलक्षण तर्कोक्ति: 'पाँव में चक्की बाँध के हिरना कुदा होय', (इ) वाग्वैदग्ध्य (विट्): अर्थ के फेर-बदल के सहारे "भिक्षुक गो कितको गिरिजे? सुत माँगन को बलि द्वारे गयो री / सागर शैल सुतान के बीच यों आपस में परिहास भयो री, (ई) प्रत्युतर में नहले की जगह दहला लगाने की कला: 'गावत बाँदर बैठ्यो निकुंज में ताल समेत, तैं आँखिन पेखे / गाँव में जाए कै मैं हू बछानि को बैलहिं बेद पढ़ावत देखे- काव्य कानन; (उ) व्यंग्य (सैटायर): रामचरितमानस के शिव-बरात प्रसंग में विष्णु की उक्ति 'कि बर अनुहारि बरात न भाई, हँसी करइइहु पर पुर जाई', कृष्णायन में उद्धव की उक्ति 'की भवन जरैहैं मधुपुरी, श्याम बजैहैं बेनु?' भवानीप्रसाद मिश्र जी का गीतफरोश आदि, (ऊ)कटाक्ष (आइरानी):'करि फुलेल को आचमन, मीठो कहत सराहिं / रे गंधी मति-अंध तू, अतर दिखावत काहि' - बिहारी; 'मुफ्त का चंदन घस मेरे नंदन' - लोकोक्ति; 'मुनसी कसाई की कलम तलवार है' - भड़ोवा संग्रह, (ए) रचना विरूपीकरण (पैरोडी): 'नेता ऐसा चाहिए जैसा रूप सुभाय / चंदा सारा गहि रहै देय रसीद उड़ाय' - चोंच, 'बीती विभावरी जाग री / छप्पर पर बैठे काँव-काँव करते हैं कितने काग री'-बेढब), (ऐ) वक्त्तृत्व विरूपीकरण: अभिनेताओं, नेताओं या कवियों की कहन-शैली की नकल आदि हैं। प्रभाव की दृष्टि से हास्य को (क) परिहास: संतुष्टि प्रधान, व्यंग्य रहित, गुदगुदाता हुआ, तथा (ख) उपहास: संशुद्धि प्रधान, व्यंग्य सहित तिलमिलाता हुआ में वर्गीकृत किया जा सकता है।

भारत के ह्रद्प्रदेश नर्मदांचल के सिवनी जिले निवासी युवा शिक्षक और उत्साही रचनाकार रामकुमार चतुर्वेदी हास्य कविता-लेखन और पठन को गंभीरता से लेकर निरंतर आगे बढ़ रहे हैं। राम कुमार चतुर्वेदी जीवट और संघर्ष की मशाल और मिसाल दोनों हैं। ३४ वर्ष की युवावस्था में सड़क दुर्घटना में रीढ़ की हड्डी, कमर की हड्डी, पसली, कोलर बोन, हाथ-पैर आदि को गंभीर क्षति, दो वर्ष तक पीड़ादायक शल्य क्रिया और सतत के बाद भी वे न केवल उठ खड़े हुए अपितु पूर्वापेक्षा अधिक आत्मविश्वास से शैक्षणिक-साहित्यिक उपलब्धियाँ प्राप्त कीं। महाकवि शैली के अनुसार ‘अवर स्वीटैस्ट सोंग्स आर दोज विच टैल ऑफ़ सैडेस्ट थोट’, कवि शैलेंद्र के शब्दों में ‘हैं सबसे मधुर वे गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं’ को राम कुमार ने चरितार्थ कर दिखाया है और दुनिया को हँसाने के लिए कलम थाम ली है। चमचावली के दोहे लक्षणा और व्यंजन के माध्यम से देश और समाज में व्याप्त विसंगतियों पर चोट करते हैं-

पढ़कर ये चमचावली, जाने चम्मच ज्ञान।
सफल काज चम्मच करे, कहते संत सुजान।

साधु-संतों की कथनी-करनी और भोग-विलास चमचों की दम पर फलते-फूलते हैं किंतु एक लोकोक्ति के अनुसार ‘बुरे काम का बुरा नतीजा’ मिल ही जाता है-

बाबा बेबी छेड़कर, पहुँच गये हैं जेल।
कैसे तीरंदाज को, मिल जाती है बेल।।

चम्मच अपने मालिक को सौ गुनाहों के बाद भी मुक्त कराकर ही दम लेता है। चमचे की स्वामिभक्ति के सामने श्वान भी हार मान लेता है। एक अभिनेता द्वारा कृष्ण-मृग का शिकार करने के बाद भी उसे दंडित न किये जाने की प्रतिक्रियास्वरूप कवि एक दोहा कहता है-

अपने मालिक के लिए, चम्मच करे उपाय।
हिरन मारकर भी उन्हें, मिल जाता है न्याय।।

संन्यास लिए संत ईश-भक्ति के अलावा शेष संसार को माया और निस्सार समझते हैं। तुलसीदास जी को अकबर द्वारा मनसबदारी दिए जाने पर उन्होंने 'पटा लिखो रघुबीर को, जे साहन के साह / तुलसी अब का होइंगे, नर के मनसबदार' कहते हुए प्रस्ताव अमान्य कर दिया था। किन्तु आगामी चुनाव को देखते हुए शासन द्वारा राज्य मंत्री का पद-प्रस्ताव होते ही तथाकथित संतों ने लपक लिया। इस प्रसंग पर रामकुमार कहते हैं: राजनीति चमचों की चारागाह है-

मंत्री का दर्जा मिला, चहके साधु-संत।
डूबे भोग विलास में, चम्मच बने महंत।।

चमचे सब का हिसाब-किताब माँगते हैं किंतु अपनी बारी आते ही गोलमाल करने से नहीं चूकते-

अपनी पूँजी का कभी, देते नहीं हिसाब।
दूजे के हर टके का, माँगें चीख जवाब।।

राम कुमार की भाषा सरल, सहज, प्रसंगानुकूल चुटीली और विनोदपूर्ण है। हास्य-व्यंग्य की चासनी में घोलकर कुनैन खिला देना उनके लिए सहज-साध्य है। वे सामयिक प्रसंगों को लेकर सरस व्यंग्य प्रहार करते हैं साथ ही हास्य की फुहार से भिगाते चलते हैं। प्रसाद गुण संपन्न भाषा, यथावसर सम्यक शब्द-प्रयोग, मुहावरेदार भाषा तथा सहजग्राह्यता उनका वैशिष्ट्य है। 'चमचावली' सामाजिक परिप्रेक्ष्य में दिनानुदिन घटित हो रही घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में कवि के स्वस्थ्य छंटन तथा देश-समाज हित की लोकोपकारी भावना से उत्पन्न हास्य-व्यब्ग्य काव्य है। इस सार्थक, सर्वोपयोगी, पथ-प्रदर्शक कृति का न केवल साहित्यिक जगत अपितु जन सामान्य में भी स्वागत होगा यम मुझे विश्वास है। रामकुमार ने एक मनुष्य, भारत के एक नगरीं और हिंदी के हास्य कवि के रूप में इस कृति की रचना कर अपनी शवासन को सार्थक किया है। उनका उर्वर चिंतन भविष्य में भी ऐसी कृतियों का परायण कराए यही कामना है।
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