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रविवार, 13 फ़रवरी 2022

सॉनेट, मुक्तिका, षट्पदी, नवगीत, हास्य, छंद सिद्धि

सॉनेट
दयानन्द
शारद माँ के तप: पूत हे!
करी दया आनंद  लुटाया।
वेद-ज्ञान-पर्याय दूत हे!
मिटा असत्य, सत्य बतलाया।।

अंध-भक्ति का खंडन-मंडन। 
पार्थिव-पूजन को ठुकराया। 
सत्य-शक्ति का ले अवलंबन।। 
आडंबर को धूल मिलाया।। 

राजशक्ति से निर्भय जूझे। 
लोकशक्ति को जगा उठाया। 
अनगिन प्रश्न निरंतर बूझे।।
प्राणदीप अनवरत जलाया।।

प्रतिष्ठित की आर्य भाषा। 
भाग्य भारत का तराशा।।  
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सॉनेट
चुनाव
लबरों झूठों के दिन आए।
छोटे कद, वादे हैं ऊँचे।
बातें कड़वी, जहर उलीचे।।
प्रभु ये दिन फिर मत दिखलाए।।


फूटी आँख न सुहा रहे हैं।
कीचड़ औरों पर उछालते।
स्वार्थ हेतु करते बगावतें।।
निज औकातें बता रहे हैं।।


केर-बेर का संग हो रहा।
सुधरो, जन धैर्य खो रहा।
भाग्य देश का हाय सो रहा।।


नाग-साँप हैं, किसको चुन लें?
सोच-सोच अपना सिर धुन लें।
जन जागे, नव सपने बुन ले।।
१३-२-२०२२
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भोपाल १२-२-२०१७. स्वराज भवन भोपाल में अखिल भारतीय गीतिका काव्योत्सव् एवं सम्मान समारोह के प्रथम सत्र में संक्षिप्त वक्तव्य के साथ तुरंत रची मुक्तिका तथा मुक्तक का पाठ किया-
गीतिका उतारती है भारती की आरती
नर्मदा है नेह की जो विश्व को है तारती
वास है 'कैलाश' पे 'उमेंश' को नमन करें
'दीपक' दें बाल 'कांति' शांति-दीप धारती
'शुक्ल विश्वम्भर' 'अरुण' के तरुण शब्द
'दृगों में समंदर' है गीतिका पुकारती
'गीतिका मनोरम है' शोभा 'मुख पुस्तक' की
घनश्याम अभिराम हो अखंड भारती
गीतिका है मापनी से युक्त-मुक्त दोनों ही
छवि है बसंत की अनंत जो सँवारती
*
मुक्तक
अपनी जड़ों से टूटकर, मत अधर में लटकें कभी
गोद माँ की छोड़कर, परिवेश में भटकें नहीं
रच कल्पना में अल्पना, रस-भाव-लय का संतुलन
जो हित सहित है सर्व के, साहित्य है केवल वही
*
मुख पुस्तक पर पढ़ रहे, मन के अंतर्भाव
रच-पढ़-बढ़ते जो सतत, रखकर मन में चाव
वे कण-कण को जोड़ते, सन्नाटे को तोड़
क्षर हो अक्षर का करे, पूजन 'सलिल' सुभाव
***
टीप- श्री कैलाश चंद्र पंत मंत्री राष्ट्र भाषा प्रचार समिति विशेष अतिथि, डॉ. उमेश सिंह अध्यक्ष साहित्य अकादमी म. प्र. मुख्य अतिथि, डॉ. देवेन्द्र दीपक निदेशक निराला सर्जन पीठ अध्यक्ष , डॉ. कांति शुक्ल प्रदेश अध्यक्ष मुक्तिका लोक, डॉ. विश्वम्भर शुक्ल संयोजक मुक्तक लोक, अरुण अर्णव खरे संयोजक, घनश्याम मैथिल 'अमृत', अखंड भारती संचालक, बसंत शर्मा अतिथि कवि, दृगों में समंदर तथा गीतिका मनोरम है विमोचित कृतियाँ.
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गीतिका है मनोरम सभी के लिये
दृग में है रस समुंदर सभी के लिए
सत्य, शिव और सुंदर सृजन नित करें
नव सृजन मंत्र है यह सभी के लिए
छंद की गंधवाही मलय हिन्दवी
भाव-रस-लय सुवासित सभी के लिए
बिम्ब-प्रतिबिम्ब हों हम सुनयने सदा
साध्य है, साधना है, सभी के लिए
भाव ना भावना, काम ना कामना
तालियाँ अनगिनत गीतिका के लिए
गीत गा गीतिका मुक्तिका से कहे
तेवरी, नव गजल 'सलिल' सब के लिए
***
भोपाल २१२-२-२०१७. स्वराज भवन भोपाल में अखिल भारतीय गीतिका काव्योत्सव् एवं सम्मान समारोह के द्वितीय सत्र की अध्यक्षता की. लगभग ३५ कवियों द्वारा काव्य पाठ में निर्धारित से अधिक समय लेने का मोह न छोड़ने और सभागार रिक्त करने की बाध्यता के कारण अध्यक्षीय वक्तव्य न देकर तुरंत रची मुक्तिका का पाठ किया. क्या कविगण निर्धारित से अधिक समय लेने की लत छोड़ेंगे???
अध्यक्षीय उद्बोधन में कार्यक्रम के लक्ष्य, प्रयासों तथा उपलब्धियों का विवेचन होने के साथ भावी दिशा-निर्देश भी होता है. सहभागियों की प्रस्तुतियों में पाई गयी खूबियों-खामियों के संकेतन उन्हें आगे बढ़ने में सहायक होता है. यह आयोजन जिस विधा पर था प्रस्तुतियाँ उस तक सीमित नहीं थीं, हर कवि के लिए ३ मिनिट का समय निर्धारित था. आरंभ में ही छंद प्रस्तुति के नाम पर विधांतर और समय भंग किया गया और यह रोग अंत तक बढ़ता गया. मात्र ३-४ सहभागी ऐसे थें जिन्होंने समय सीमा का पालन किया उन्हें साधुवाद.
आयोजकों से अनुरोध है कि अध्यक्ष की आसंदी का सम्मान करते हुए उसे पर्याप्त समय उपलब्ध कराया जाना चाहिए तथा अनुशासन का पालन अवश्य किया जाए. अलंकरण तथा स्मृति चिन्ह देते समय स्थानीय पदाधिकारी सम्मिलित होने का लोभ न छोड़ सकें तो भी अध्यक्ष, मुख्य अतिथि तथा सम्मानित जन को केंद्र में रखने का ध्यान अवश्य रखें. छायांकन के समय आसंदी पर तथा पीछे खड़े होकर समायोजन किया जाए किन्तु धक्कामुक्की न हो. यह आलोचना नहीं सुझाव मात्र है जिसका उद्देश्य कार्यक्रमों की और अतिथियों की गरिमा-वृद्धि ही है.
प्रथम सत्र में मंच से हिंदी के वर्तमान और भविष्य पर सार्थक सारगर्भित चर्चा की गयी जिसमें अंतरजाल पर हिंदी भाषा और साहित्य तथा मुद्रित साहित्य की भूमिका और उपादेयता पर व्यापक विमर्श हुआ. डॉ. विश्वंभर शुक्ल की गीतिका कृति 'दृगों में समन्दर है' तथा सामूहिक गीतिका संग्रह 'गीतिका है मनोरम सभी के लिए' का विमोचन संपन्न हुआ. श्री राम कुमार चतुर्वेदी ने अपने दो काव्य संग्रहों 'हिंदी वर्णमाला' तथा 'भारत के सपूत' की प्रतियां अतिथियों को भेंट कीं.
कार्यक्रम के आयोजकों तथा उनके समस्त सहयोगियों को बहुत-बहुत साधुवाद उत्तम व्यवस्था के लिए. सहभागियों को देश के विविध अंचलों से आने, और कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए ह्रदय से धन्यवाद. संभव हो सही सहभागी अपने प्रस्तुत रचनाएँ संयोजक को भेज दें तो उनका भविष्य में उपयोग करना संभव हो सकेगा. अस्तु

***

द्विपदी
आशा की कंदील झूलती मिली समय की शाख पर
जलकर भी देती उजियारा खुश हो खुद को राख कर
***
हाइकु नवगीत :
संजीव
.
टूटा विश्वास
शेष रह गया है
विष का वास
.
कलरव है
कलकल से दूर
टूटा सन्तूर
जीवन हुआ
किलकिल-पर्याय
मात्र संत्रास
.
जनता मौन
संसद दिशाहीन
नियंता कौन?
प्रशासन ने
कस लिया शिकंजा
थाम ली रास
.
अनुशासन
एकमात्र है राह
लोक सत्ता की.


जनांदोलन
शांत रह कीजिए
बढ़े उजास
.
***
षटपदियाँ:
आभा की देहरी हुआ, जब से देहरादून
चमक अर्थ पर यूं रहा, जैसे नभ में मून
जैसे नभ में मून, दून आनंद दे रहा
कितने ही यू-टर्न, मसूरी घुमा ले रहा
सलिल धार से दूरी रख, वर्ना हो व्याधा
देख हिमालय शिखर, अनूठी जिसकी आभा.
.
हुए अवस्था प्राप्त जो, मिला अवस्थी नाम
राम नाम निश-दिन जपें, नहीं काम से काम
नहीं काम से काम, हुए बेकाम देखकर
शास्त्राइन ने बेलन थामा, लक्ष्य बेधकर
भागे जान बचाकर, घर से भंग बिन पिए
बेदर बेघर-द्वार आज देवेश भी हुए
१३-२-२०१५
***
छंद सलिला:
सिद्धि छंद
*
दो पदी, चार चरणीय, ४४ वर्णों, ६९ मात्राओं के मात्रिक सिद्धि छंद में प्रथम चरण इन्द्रवज्रा (तगण तगण जगण २ गुरु) तथा द्वितीय, तृतीय व् चतुर्थ चरण उपेन्द्रवज्रा (जगण तगण जगण २ गुरु) छंद के होते हैं.
उदाहरण:
१. आना, न जाना मन में समाना, बना बहाना नज़रें मिलाना
सुना तराना नज़दीक आना, बना बहाना नयना चुराना
२. ऊषा लजाये खुद को भुलाये, उठा करों में रवि चूम भागा
हुए गुलाबी कह गाल ?, करे ठिठोली रतनार मेघा


३. आकाशचारी उड़ता अकेला, भरे उड़ानें नभ में हमेशा
न पिंजरे में रहना सुहाता, हरा चना भी उसको न भाता
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, बाला, मधुभार, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
***
हास्य सलिला:
लाल गुलाब
*
लालू घर में घुसे जब लेकर लाल गुलाब
लाली जी का हो गया पल में मूड ख़राब
'झाड़ू बर्तन किये बिन नाहक लाये फूल
सोचा, पाकर फूल मैं जाऊंगी सच भूल
लेकिन मुझको याद है ए लाली के बाप!
फूल शूल के हाथ में देख हुआ संताप
चलो रसोई सम्हालो, मैं जाऊं बाज़ार
चलकर पहले पोंछ दो मैली मेरी चार.'


१३-२-२०१४
***

नवगीत:

कम लिखता हूँ...

*

क्या?, कैसा है??

कम लिखता हूँ,

बहुत समझना...

*

पोखर सूखे,

पानी प्यासा.

देती पुलिस

चोर को झाँसा.

खेतों संग

रोती अमराई.

अन्न सड़ रहा,

फिके उदासा.

किस्मत केवल

है गरीब की

भूखा मरना...

*

चूहा खोजे,

मिला न दाना.

चमड़ी ही है

तन पर बाना.

कहता भूख,

नहीं बीमारी,

जिला प्रशासन

बना बहाना.

न्यायालय से

छल करता है

नेता अपना...

*

शेष न जंगल,

यही मंगल.

पर्वत खोदे-

हमने तिल-तिल.

नदियों में

लहरें ना पानी.

न्योता मरुथल

हाथ रहे मल.

जो जैसा है

जब लिखता हूँ

बहुत समझना...



***

मुक्तिका

साथ बुजुर्गों का...

*

साथ बुजुर्गों का बरगद की छाया जैसा.

जब हटता तब अनुभव होता था वह कैसा?

मिले विकलता, हो मायूस मौन सहता मन.

मिले सफलता, नशा मूंड़ पर चढ़ता मै सा..

कम हो तो दुःख, अधिक मिले होता विनाश है.

अमृत और गरल दोनों बन जाता पैसा..

हटे शीश से छाँव, धूप-पानी सिर झेले.

फिर जाने बिजली, अंधड़, तूफां हो ऐसा..

जो बोया है वह काटोगे 'सलिल' न भूलो.

नियति-नियम है अटल, मिले जैसा को तैसा..

***

मुक्तिका:

जमीं बिस्तर है

*

जमीं बिस्तर है, दुल्हन ज़िंदगी है.

न कुछ भी शेष धर तो बंदगी है..

नहीं कुदरत करे अपना-पराया.

दिमागे-आदमी की गंदगी है..

बिना कोशिश जो मंजिल चाहता है

इरादों-हौसलों की मंदगी है..

जबरिया बात मनवाना किसी से

नहीं इंसानियत, दरिन्दगी है..

बात कहने से पहले तौल ले गर

'सलिल' कविताई असली छंदगी है..

१३-२-२०११

***

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