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बुधवार, 2 फ़रवरी 2022

लेख: नवगीत बदलते प्रतिमान

 लेख:
नवगीत बदलते प्रतिमान 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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गीत - नवगीत अभिन्न और अविच्छेद्य 

नवगीत हिन्दी गीति काव्य की एक अपेक्षाकृत नवीन विधा है। इसका उद्भव संस्कृत के अनुष्टुप छंद से कहा जा सकता हैं जिनमें मात्रा भार या वर्ण गणना के स्थान पर गेयता को प्राथमिकता देते हुए भिन्न-भिन्न लंबाई की पंक्तियाँ रची जाती हैं। हिंदी में नवगीत का मूल विद्यापति, सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई, रहीम, रसखान, केशव, जायसी आदि की युगीन नवतायुक्त रचनाओं और ईसुरी, जगनिक, भिखारी आदि द्वारा रचित लोक-संवेदना संपन्न भारतीय रचना परंपरा से है। नवगीत ने अति नीरस और अतिबौद्धिकता की शिकार प्रगतिवादी कविता से उत्पन्न बोझिलता के कारण साहित्य से दूर हुए पाठक को फिर साहित्य के प्रति आकृष्ट किया है। वायवीय रूमानियत के शिकार हो रहे गीत की धमनियों में नवगीत के संसर्ग से नव प्राणवायु का उसी प्रकार संचार हुआ है जैसे किसी पिता में अपने पुत्र को भुजाओं में भरकर होता है। नवगीत हिंदी गीत का लघ्वाकारी रूप है। हर नवगीत मूलतः:गीत ही होता है। पारंपरिक गीत को विशिष्ट शिल्प तथा कहन के आधार पर नवगीत का विशेषण दिया जाता है। रूढ़ अर्थ में नवगीत की औपचारिक शुरुआत नयी कविता के समान्तर मान्य है। यौगिक शब्द "नवगीत" में नव (नई कविता) और गीत (गीत विधा) समाविष्ट है।

'नवगीत' शब्द के दो भाग 'नव' तथा 'गीत' हैं। 'नव' से आशय ऐसे तत्व से है जो इसके पहले प्रकाश में नहीं आया। गीत के  विविध अंग विषय, कथ्य, कहन, भाव, भाषा, छंद, बिंब, प्रतीक तथा अलंकार आदि हैं।  गीत जिस प्रसंग को पारंपरिक छंदों, प्रतीकों और बिंबों के माध्यम से रूपायित करता है, नवगीत उसे ही आधुनिक युगबोध और शिल्प के माध्यम से संप्रेषित करता है। गीत के रसास्वादन के लिए सुरुचि संपन्नता के साथ, परिष्कृत सोच और साहित्यिक भाषा की समझ आवश्यक है। नवगीत आम जन की बोलचाल और दैनंदिन शब्दावली के कारण सहज बोधगम्य है। नवगीत और गीत में किसी प्रकार का अंतर्विरोध नहीं है, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। गीत अपनी गहरी जड़ों के कारण गगनचुंबी ऊँचाईयों को स्पर्श करता है तो नवगीत अपनी लोकव्यापकता के कारण दिग-दिगंत तक व्यापता है। एक सिक्के के दो पहलुओं की तरह इन्हें एक-दूसरे से सर्वथा पृथक नहीं किया जा सकता। सनातन मानव मूल्यों को सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में आत्मसात कर अभिव्यक्त करती छंदबद्ध गीति रचनाओं को गीत कहा जाता है। समकालीन सामाजिक मनोवृत्तियों एवं परिवर्तनों को लयात्मकता के साथ व्यक्त करती गीति रचनाएँ नवगीत कहलाती हैं। गीत-तथा नवगीत के मध्य संसद के दो पक्षों अथवा दो देशों की तरह स्पष्ट और अनुल्लंघनीय सीमा रेखा नहीं खींची जा सकती। अनेक गीति रचनाएँ दोनों ओर गिनी जा सकती हैं तो किसी गीति रचना के कुछ अंतरे या पंक्तियाँ एक वर्ग में तथा शेष अन्य वर्ग में वर्गीकृत किये जा सकते हैं।  

कोई गीति रचना जीवन के किसी अंश का यथावत चित्रण करे तो उस प्रसंग का चर्म-चक्षुओं से साक्षी रहे मनुष्य को उसमें रुचि न होगी तथा उससे जुड़े व्यक्ति का मन आहत होने की संभावना होगी किंतु उसी घटना को कल्पना का पुट देकर संकेतों द्वारा कहा जाए तो श्रोता-पाठक को आनंद प्राप्त होगा तथा  किसी संबद्ध व्यक्ति को आघात नहीं पहुँचेगा। नवगीत इसी अभिव्यक्ति को सामयिक और तात्कालिक शब्दावली और प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त कर सकल प्रसंग को सहज ग्राह्य बना देगा। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि गीत सरल या नवगीत सांस्कृतिक नहीं हो सकता। वास्तव में कथ्य और लक्ष्य को ध्यान में रखकर रचनाकार भाषा के शब्द, बिंब, प्रतीक, आदि चुनता है। किसी रचना में आत्मसात किया गया सत्य न हो तो वह वर्णन मात्र होकर रह जाएगी। उल्लास, उच्छ्वास, आशा, आकांक्षा, अपेक्षा, हास, व्यंग्य, दर्द, पीड़ा, उपहास, उपेक्षा, अभाव आदि न हों अथवा कोई एक ही हो तो न तो जीवन, न गीत-नवगीत अथवा साहित्य में कोई आकर्षण शेष रहेगा। 

कोई  रचना तभी लोकप्रिय और कालजयी होती है जब वह निराश मन में आशा का संचार कर सके, उदासीन चित्त को उल्लसित कर सके, विवशता अनुभव कर रहे जान को मुक्ति का पथ तलाशने की प्रेरणा दे सके, निष्क्रिय को सक्रियता का संदेश दे सके। गीत हो या नवगीत यदि वह मूसलाधार वर्ष की तरह बरस कर चला जाए तो उसमें डूबने के भय के साथ उसके निरर्थक होना भी सुनिश्चित होता है किंतु वह जल क्रमश: रुक-रुक कर बरसे तो शांत नदी में बहे अथवा भूमि में उतर जाए, नवजीवन दे पाता है। इसी तरह अतिरेकी रचनाओं के स्थान पर संयत अभिव्यक्ति संपन्न रचनाएँ अधिक प्रभाव छोती हैं। गीत मन का मीत है तो नवगीत मस्तिष्क का संगीत।साहित्य 'स्वान्तः सुखाय' भले ही रचा जाए, उसके मूल्यांकन का आधार 'सर्व जन हिताय' ही होता है। गीत और नवगीत दोनों का साध्य या लक्ष्य सामान्य श्रोता या पाठक का हित ही है। यह हित देश-काल और व्यक्ति अनुसार मन-रंजन, प्रेरणा, उत्साह, सहभागिता, उत्साह, जोश आदि हो सकता है। कभी-कभी तो एक ही रचना विविध श्रोताओं-पाठकों पर विविध प्रभाव छोड़ती है। जैसे किसी रचना में नेताओं पर व्यंग्य हो तो सामान्य जन को रस मिलेगा तो नेता को झेंप अनुभव होगी, किसी को लज्जा लग सकती है तो किसी में रचनाकार या नेताओं के प्रति आक्रोश भी उत्पन्न हो सकता है। यह प्रतिक्रिया ही इस तथ्य का प्रमाण है कि साहित्य प्रभावहीन नहीं हुआ है। उसका प्रभाव ऊपरी तौर पर न होकर परोक्ष होता है जैसे किसी औषधि का प्रभाव तत्काल न दिखकर क्रमश: होता है। 

गीत: कविता का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि-

डॉ. शंभुनाथ सिंह के शब्दों में- 'समयातीत होकर भी गीत समय-शून्य नहीं होता .... गीत आत्यंतिक निजत्व-व्यापी अतल अनुभूतियों से उद्भूत भावातिरेक का ध्वन्यात्मक शब्द संगीत है। ....गीत में अन्तर्वेग के अंत:स्फोट को एक सीमा तक संगीत शहद के संयम में आबद्ध रहना होता है। प्रो. उदयभानु हंस के अनुसार गीत संवेदनशील ह्रदय की पारदर्शी अभिव्यक्ति है। गीत कविता का सर्वश्रष्ठ प्रतिनिधि है।  डॉ. देवेंद्र शर्मा 'इंद्र' के मतानुसार गीत कविता-कानन का सबसे सुंदर, मोहक और सुगंधपूर्ण पुष्प है, पहले भी था और आगे भी रहेगा। कैलाश गौतम की राय में गीत भारतीय कविता का आदिम एवं शाश्वत रूप माना गया है। गीत की देह को छंद और उसके प्राण को रस कहा जाता है। डॉ. भारतेंदु मिश्र कहते हैं कि गीत में वह शक्ति है जो अपने पाठ व शिल्प की शक्ति से अपने पाठकों व श्रोताओं की चेतना में अमित लेख की तरह अंकित हो जाता है। डॉ. श्रीराम परिहार की दृष्टि में  हिंदी कविता में गीत फूल में सुगंध की तरह है।  कविता ह्रदय की रस-दशा का शाब्दिक विधान है।  अत: कविता का सम्बन्ध सीधा-सीधा ह्रदय से है। सत्यनारायण मानते हैं कि  कविता मनुष्यता की मातृभाषा है, स्थिति जो भी हो, जैसी हो, कविता मानव विरोधी कभी नहीं होती। महेश अनघ कहते हैं- गीत कविता की कविता है।  जीवन के लिए अपेक्षित ज्ञान को उसकी समस्त बोझिलता समापत करके, संश्लिष्ट रूप में गीत ही व्यक्त कर पाता है।२  

नवगीत: नवता, गेयता और सहजता  

डॉ. देवेंद्र शर्मा 'इंद्र'  की दृष्टि में गीत का आज के तकाजों और सरोकारों से जुड़ा होना ही नवगीत होना है।३  स्व. कुमार रवींद्र के मतानुसार नवगीत में नवता और गेयता दो तत्व हैं जो नवगीत को नवगीत बनाते हैं।३ अनुभूति और बिम्बात्मक कहन की सहजता ही मेरी दृष्टि में नवगीत की पहचान है।२  माहेश्वर तिवारी कहते हैं कि नवगीत का कवि  बोध और समग्रता में संसार को विस्तार देता है।३
गुलाब सिंह मानते हैं कि आज के गीतों में अपने समय और जीवन में व्याप्त विसंगतियों से टकराने और संघर्ष करने की प्रेरणा व्याप्त है।३  डॉ. जगदीश व्योम  के शब्दों में  नवगीत में कथ्य की ताजगी के साथ-साथ लय और प्रवाह की उपस्थिति अनिवार्य है।३  डॉ. राजेंद्र गौतम की अनुभूति है कि हिंदी गीत काल के एक बिंदु पर आकर नवीन प्रवृत्तियों का अर्जन करता है। उस बिंदु के परवर्ती प्रसार को नवगीत संज्ञा मिली है। उस नवगीत ने स्वयं को गीत होने को कभी अस्वीकार नहीं किया है।२  

यदि हम इन रचनाधर्मियों के विचारों में 'गीत' को 'नवगीत' और 'नवगीत' को 'गीत' कर दें तो क्या वे गलत हो जायेंगे? नहीं, तब भी उनकी अर्थवत्ता बनी रहेगी। कारण मात्र यह कि गीत और नवगीत अभिन्न और अविच्छेद्य हैं। क्या गीत अपने उद्भव से आज तक एक सा रहा है? नहीं, वह देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप खुद को बदलता-ढालता और जन मानस को संदेश देता रहा है। गीत का कथ्य, छंद, कहन, लय, शब्दावली, बिंब, प्रतीक आदि निरंतर परिवर्तित होते रहे हैं। यह परिवर्तन ग्रामीण किशोर का शहर आकर पढ़ने-बढ़ने-बदलने और शहरी प्रौढ़ में बदलने की तरह है। गाँव का 'बबुआ' और शहर का 'बाबू' जितने समान और भिन्न होते हैं उतनी ही समानता और भिन्नता गीत-नवगीत में है। गीत से छंद, लय और उत्सवधर्मिता छीनकर उसे प्रगतिवादी कविता में ढालने की नियति सर्वज्ञात है। यदि नवगीत के नाम पर कुछ रचनाकार यही करने का दुस्साहस कर रहे हैं तो उनके कृतित्व की गति कुछ भिन्न नहीं होना है।आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बहुत पहले इस संकट को भांपते हुए चेताया है- ''आजकल जो लोग कविता को छन्दहीन समझते हैं, वे कविता का बिस्मिल्लाह ही गलत समझते हैं। जिस कविता में छंद नहीं है, उसके कवि से कहो कि कोई और धंधा ढूँढ ले।''२  

नवगीत का उद्भव काल (१९५०-१९७०)

बीसवीं सदी का पाँचवा दशक नवार्जित राजनैतिक स्वाधीनता पाकर अपने-अपने सपनों को साकार करने की अकुलाहट का काल रहा है।संघर्ष-काल में भी विविध राजनैतिक विचारों से जुड़े लोग एक साथ नहीं लड़ सके, और अंग्रेज बंदर -बाँट कर देश खंडित सके तो संघर्ष समापन पर लाभार्जन की होड़ में विविध विचारों के होने का प्रश्न ही नहीं था। जन सामान्य द्वारा ठुकराया गया साम्यवाद प्रगतिवाद का चोला ओढ़कर सुविधाभोगी सत्ता दल के साथ शैक्षणिक संस्थाओं में सहभागिता कर अपने वैचारिक पक्ष को सबल करने की जुगत में साहित्य और समालोचना के क्षेत्र में घुस पड़ा और पारम्परिक सृजन-धारा को काल बाह्य घोषित करते हुए अराजकता के कारकों विडम्बना, विसंगति, टकराव, बिखराव, शोषण आदि को प्रगतिशीलता के नाम पर ठूँसते हुए नेतृत्व कामना की पूर्ति करने के प्रति सचेष्ट हुए। शब्दों और बिम्बों को प्रयासपूर्वक नवार्थ देते हुए जिज्ञासुओं को विचार का दास बनाने का दुष्प्रयास किया गया किन्तु शीघ्र ही यह प्रयास अति बौद्धिकताजनित ऊब और काव्यजनित तरलता च्युत विलाप में बदल गई। आपका कितना भी प्रिय जान या वास्तु छिन जाए आप उसके लिए अपना और अपने भविष्य का बलिदान नहीं कर सकते। 'जीवन चलने का नाम, चलते रही सुबहो-साम' कहें या 'द शो मस्ट गो ओन' बात एक ही है। प्रगतिवादी कविता भावशून्यता की कब्र खडे हुए गीत के मरण की घोषणा कर भी उसे मरता न देख सकी और खुद ही कब्र में जा लेटी। गीत आरम्भ में अचकचाते हुए भी शीघ्र ही सम सामायिक स्थितियों से आँखें मिलाते हुए  परिवर्तन की राह पर चल पड़ा। डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर' के अनुसार 'गीत के इस नवोन्मेष को भिन्न-भिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न नामों से अभिहित किया- डॉ. रामदरश मिश्र तथा सियारामशरण, प्रसाद आदि ने गीत के इस अभिनव रूप को 'आज का गीत', बालस्वरूप 'राही' तथा 'शलभ' श्री रामसिंह ने गीतों के इस नवोत्थान को 'नया गीत', गंगाप्रसाद विमल तथा ओंकार ठाकुर ने 'नया आधुनिक गीत' तथा राजेंद्र प्रसाद सिंह (१९५८), डॉ. इन्द्रनाथ मदान, डॉ. विजयेंद्र स्नातक, डॉ. शंभुनाथ सिंह, आचार्य विष्णुकांत शास्त्री, वीरेंद्र मिश्र आदि ने 'नवगीत' कहा। बच्चन (हालावाद), अंचल (मांसलतावाद) आदि कवियों ने छायावादी पारलौकिक रहस्यात्मकता और प्रतीकात्मकता के स्थान पर लौकिक मांसल प्रेमाभिव्यक्ति का साहस जुटाया। छायावादोत्तर गीत का अर्थ-काम प्रेरित अकुंठ स्वर नवगीत की पृष्ठभूमि बना।४  

डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह (१२ जुलाई१९३० बेरई, मुजफ्फरपुर – ८ नवम्बर२००७, गीतांगिनी (1958, नवगीत का नाम-लक्षण निरूपक प्रथम संकलन का सम्पादन और प्रकाशन, कविता संग्रह: भूमिका, मादिनी, दिग्वधु, डायरी के जन्मदिन, संजीवन कहाँ, उजली कसौटी, शब्द यात्रा, प्रस्थान बिंदु, उपन्यास:  अमावस और जुगुनू, नवगीत संग्रह: आओ खुली बयार, रात आँख मूँद कर जगी, भरी सड़क पर, जनगीत: गज़र आधी रात का, लाल नील धारा) ने 'गीतांगिनी' में 'गीत रचना और  नवगीत' शीर्षक भूमिका (५ फरवरी १९५८) में लिखा- ’नयी कविता के कृतित्व से युक्त या वियुक्त भी ऐसे ध्यातव्य कवियों का अभाव नहीं है, जो मानव जीवन के ऊँचे और गहरे, किंतु सहज-नवीन अनुभव की अनेकता, रमणीयता, मार्मिकता, विच्छित्ति और मांगलिकता को अपने गीतों में सहेज-सँवारकर नयी ’टेकनीक’ से, हार्दिक परिवेश की नयी विशेषताओं का प्रकाशन कर रहे हैं। प्रगति और विकास की दृष्टि से उन रचनाओं का बहुत मूल्य है, जिनमें नई कविता के प्रगीत का पूरक बनकर ‘नवगीत’ का निकाय जन्म ले रहा है। नयी कविता के सात मौलिक तत्व हैं- ऐतिहासिकता, सामाजिकता, व्यक्तित्व, समाहार, समग्रता, शोभा और विराम। तो पूरक के रूप में 'नवगीत' के पाँच विकासशील तत्व हैं- जीवनदर्शन, आत्मनिष्ठा, व्यक्तित्वबोध, प्रीति-तत्व और परिसंचय।" 

आओ खुली बयार के एक नवगीत से राजेंद्र प्रसाद जी की नवगीतीय भंगिमा कहती है कि आज जिस भाषिक टटकेपन के नाम पर नवगीत को हिंदी के सामान्य ही नहीं, प्रबुद्ध वर्ग के लिए भी अपाच्य बनाया जा रहा है, वह ७-५ तत्वों में प्रमुख नहीं था। 
  
लहरों में आग रुपहली,
ओSS पुरवाई!
एक मौन की धुन से
हार गई शहनाई। 

जामुनी अंधेरे की,
गजरीली बाहों में,
एक नदी कैद है निगाहों में। 
रूठ नहीं पाती-
इन साँसों पर झुकी हुई परछाई। 

चाँद बिना आसमान
डूब गया धारा में,
लहक भी न उठती
तो हाय! क्यों न बुझती
अब इन ठंडे शोलों की अंगड़ाई। (आओ खुली बयार)

इस क्रम में ठाकुर प्रसाद सिंह (जन्म २६ अक्टूबर १९२४ वाराणसी- निधन अक्तूबर १९९४कृतियाँ:मेहंदी और महावर', `देवकी', `रक्तपथ','एक चावल नेह रींधा' तथा `सुबह रक्तपलाश की') की मुहावरे दार भाषा नवगीतों की लोकप्रियता का वाहक बनी-  'सोन हँसी हँसते हैं लोग, हँस-हँसकर डसते हैं लोग। गीत संग्रह 'वंशी और मादल' (१९५९) के एक नवगीत 'पाँच जोड़ बाँसुरी' में देशज शब्दों की सार्थक उपस्थिति दृष्टव्य है। 

पाँच जोड़ बाँसुरी
बासन्ती रात के विह्वल पल आख़िरी
पर्वत के पार से बजाते तुम बाँसुरी
पाँच जोड़ बाँसुरी

वंशी स्वर उमड़-घुमड़ रो रहा
मन उठ चलने को हो रहा
धीरज की गाँठ खुली लो लेकिन
आधे अँचरा पर पिय सो रहा
मन मेरा तोड़ रहा पाँसुरी
पाँच जोड़ बाँसुरी


यतीन्द्र नाथ राही (३१.१२.१९२६, रेत पर प्यासे हिरन, चुप्पियाँ फिर गुनगुनायीं) छद्म क्रंदन वादियों की अनदेखी कर 'गीत तो गाता रहूँगा' का घोष करते हुए नवगीत में श्रृंगार और उत्स्वधर्मिता की स्थापना करते हैं- 
मौसम महका 
पांखी चहके 
शब्द अधर पर मचले...
... आँगन भर पूरी रांगोली 
रोज बुहारी गलियाँ 
वंदनवारे 
कीर्ति ध्वजाएँ 
उछल रही रँगरलियाँ।   

उमाकान्त मालवीय (जन्म २ अगस्त १९३१ को मुंबई में हुआ उनका निधन ११नवम्बर १९८२ को इलाहाबाद, कृतियाँ: मेहंदी और महावर' १९६३, `देवकी', `रक्तपथ','एक चावल नेह रींधा' तथा `सुबह रक्तपलाश की' का नवगीत 'एक चाय की चुस्की' ने जिस भाषिक विरासत का सृजन किया वन नवगीत को विशिष्ट गीत की ले जाता दिखा। 
एक चाय की चुस्की 
एक कहकहा 
अपना तो इतना सामान ही रहा । 

चुभन और दंशन 
पैने यथार्थ के 
पग-पग पर घेर रहे 
प्रेत स्वार्थ के । 
भीतर ही भीतर 
मैं बहुत ही दहा
किंतु कभी भूले से कुछ नहीं कहा । 

एक अदद गंध 
एक टेक गीत की 
बतरस भीगी संध्या 
बातचीत की । 
इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा 
छू ली है सभी, एक-एक इन्तहा ।

एक क़सम जीने की 
ढेर उलझनें 
दोनों ग़र नहीं रहे 
बात क्या बने । 
देखता रहा सब कुछ सामने ढहा 
मगर कभी किसी का चरण नहीं गहा।


नवगीत के उद्भव के पूर्व भी वे ७-५ तत्व कविता (गीत) में थे जिन्हें ठाकुर प्रसाद जी ने इंगित किया है। अंतर यह हुआ कि ऐतिहासिकता राजवंश नहीं  जन सामान्य की दृष्टि से, सीमित सामाजिकता आभिजात्य वर्ग की नहीं सकल समाज की, व्यक्तित्व महान पुरुषों का  नहीं आम जन का, समाहार वायवीय नहीं जमीनी, समग्रता आदर्शों की नहीं यथार्थ की, शोभा मानसिक नहीं कायिक और विराम अंतिम नहीं अनंतिम। पूरक के रूप में 'नवगीत' के पाँच विकासशील तत्व कविता में थे किन्तु यहाँ भी अंतर सहज दृष्टव्य है- नवगीत का जीवनदर्शन पूर्व में आध्यात्मिक दर्शन था, आत्मनिष्ठा के स्थान पर धर्म या पंथ निष्ठा थी, व्यक्तित्वबोध के अभाव में व्यक्ति बोध हावी था, प्रीति-तत्व श्रृंगार तक सीमित था जीवन से जुड़ा नहीं था और परिसंचय आत्मतुष्टि परक था सर्वकल्याण परक नहीं। 

विकास काल: (१९७१-२०००) 

नवगीत ने सहज जीवन की स्वीकृति, समकालिक संक्रमण तथा आधुनिक भावबोधपरक कथ्य इसी पृष्ठभूमि से ग्रहण कर शिल्प छायावादी परंपरा से लिया। प्रगतिवादी कविता के पराभव के साथ-साथ उसकी विचारधारा ने खुद को हाशिये पर जाने से बचाने के लिए सामयिक विडम्बना, बिखराव और टकराव को नवगीतों में स्थापित करने का दुष्प्रयास किया। इस दौर में नवगीत ने वैश्विक संवेदना, उदारीकरण, उपभोक्तावाद, बाजारवाद और विज्ञापन से नष्ट होते आँचलिक बोध के प्रति लगाव को महसूसा। वैज्ञाननक प्रगति जनित सुविधाभोगी नवधनाढ्य वर्ग और राजनैतिक अय्याशी करते नेता वर्ग द्वारा जनाधिकारों को पददलित होते देख नवगीत मौन कैसे रहता? वह जन सामान्य का हथियार बनकर शब्दों से तलवार का काम लेने लगा। पीड़ा और संघर्ष इस दौर में नवगीतीय चेतना के पर्याय होने लगे। 

गर और समाज में खंडित होते रिश्तों को लेकर चिंतित अवध बिहारी श्रीवास्तव (जन्म १ अगस्त, १९३५, वाराणसी, कृतियाँ: हल्दी के थापे, मंडी चले कबीर, बस्ती के भीतर) ने नवगीत में सामाजिक चिंता को उकेरते हुए भाषिक बदलाव को दिशा दी -
बाबू से काका के झगड़े
भइया से चाचा की अनबन
बँट गये एक ही झटके में
बाबादादीपूजाआँगन
घर का बँटवारागाँव बँटा
कुछ इधर हुये कुछ उधर हुए
पीढ़ी दर पीढ़ी कथा यही
अपना अषाढ़ अपना सावन।                                                                               
नईम (१ जनवरी १९३५ - ९ अप्रैल २००९, कृतियाँ: पथराई आँखें, बातों ही बातों में, लिख सकूँ तोने बड़ी शिद्दत से नईम ने सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार कर लिजलिजी भावुकता से परे जीवन के कठोर यथार्थ को अपने नवगीतों में उभारा है। नईम के सानेट, गीत, गजल और नवगीतों में उनका मस्तमौला स्वभाव उनके भीतर का शिक्षक, उनकी दार्शनिकता और साफगोई दिखाई देती है-
महाकाल के इस प्रवाह में
यत्नहीन बहते जाना ही -
सचमुच क्या अपना होना है?

वय के बंजर हिस्से में,
देख रहा हूं अपने को मैं -
पीछे जाकर
दो कौड़ी के, माटी के उस -
घड़े सरीखा ठोक, बजाकर
देख रहा हूं

जीवन के इस सार्थवाह में,
लगातार चलते जाना ही
क्या सचमुच अपना होना है?
                                                                                                                                                                                  रमेश रंजक (२ सितंबर १९३८ नदरोई, अलीगढ़ नवगीत संग्रह किरण के पाँव, गीत विहग उतरा, हरापन नहीं टूटेगा, मिट्टी बोलती है, इतिहास दुबारा लिखो) ने बहुत कोमलता के साथ ग्रामीण जीवन की दर्दीली पीड़ा को शब्दों में उकेरा -
मुनिया उल्टा तवा डालकर 
भरे गले से बोली 
अबकी बरस न ब्याज पड़ेगी 
नहीं जलेगी होली 
नहीं भुकभुके माँ की चाकी 
खाएगी हिचकोले 
उफ़ अधपकी फसल   ( हरापन नहीं टूटेगा, पृष्ठ २२, १९६९-१९७३)                                                                                                                                                                                   
नवगीत में आहिस्ता-आहिस्ता तिरस्कृत प्रगतिवादी कविता के बढ़ते अरण्यरोदन को साध्य मान लिया। वातानुकूलित भवन में बैठी कलमें लू के थपेड़े और हाजमोला खोज रही तोड़े भुखमरी के छद्म विलाप को नवगीत बताने में जुट गयीं । मधुकर अष्ठाना  (२७-१०-१९३९, नवगीत संग्रह और कितनी देर, वक़्त आदमखोर, मुट्ठी भर अस्थियां, बचे नहीं मानस के हंस, दर्द जोगिया ठहर गया, कुछ तो कीजिए, हाशिये समय के, खाली हाथ कबीर, पहने हुए धूप के चेहरे)  सामान्यत: साम्यवादी चिन्तन को नवगीत में पोषित करते रहे किन्तु अनजाने ही नवगीत के सौंदर्य का भी बखान कर बैठे- 
प्रणय का 
बजने लगा सरगम 
कामना का 
ज्वार सागर में 
ह्रदय की उन्मुक्त साधों में 
रंगधनुषी 
स्वप्न फिर जन्मे 
आंजुरी भर 
तृप्ति में डूबे 
छँट गए बादल अभावों के 

शांति सुमन (१५ सितंबर, १९४४ कासिमपुर, सहरसा कृतियाँ, ओ प्रतीक्षित, परछाईं टूटती, पसीने के रिश्ते, मौसम हुआ कबीर, तप रहे कचनार, भीतर भीतर आग, पंख पंख आसमान, एक सूर्य रोटी पर, धूप रंगे दिन, नागकेसर हवा, लय हरापन की, लाल टहनी पर अड़हुल) के नवगीतों में अपने विरुद्ध जीने का विवशता-बोध और रचनाहीन स्थितियों के टकराव का द्वन्द्वात्मक संघर्ष तल्ख भाषा को कामगार की फौलादी छेनी की तरह प्रयोग करता  है ।
टूटा ही है घर वह
पर कितना अपना है
हाथों रोक लिया करते
छानों से चूते पानी
कभी नहीं सर्दी गर्मी से
हुई हमें हैरानी
दो जोड़ी आँखों मे
एक हरा सपना है

राम सेंगर (२.१.१९४५, नवगीत संग्रह शेष रहने के लिए, जिरह फिर कभी होगी, एक गइल अपनी भी, ऊँट चल रहा है, रेत की व्यथा कथा) नवगीत दशक २ तथा डॉ. शंभुनाथ सिंह द्वारा सम्पादित नवगीत अर्ध शती के सहयोगी कवि रहे हैं।  कथ्य तथा छंद के साथ निरंतर नए प्रयोग करते रहे सेंगर जी नवगीतकार नहीं नवगीत के महाविद्यालय हैं। कटनी में राजा अवस्थी, रामकिशोर दाहिया, आनंद तिवारी तथा  विजय बागरी जैसी कलमों को नवगीत से जोड़कर सेंगर जी ने अभिनंदनीय कार्य किया है। उनका लिखा हर नवगीत एक भिन्न पृष्ठभूमि  को सामने लेकर सर्वथा नयी बात कहता है- 
मिट्टी की सौंधी खुशबू सी 
कितनी रंग-बिरंगी छवियाँ 
भीतर गमक रहीं। 
झंकृति सी व्यापे रग-रग में 
खिल-खिल उठें अभावों के दिन। 
खुशफहमी के सर्द झकोरे 
लहकेँ-थिरकें तक-तक धिन -धिन।  
पेट-पाँव के द्वन्द न हों तो 
अंचल-अंचल घूमें-सिहरें

तबियत रमक रही।

सांस्कृतिक पुनर्जागरण 
डॉ. महेंद्र भटनागर के नवगीत श्रेष्ठ-ज्येष्ठ देवेंद्र शर्मा 'इंद्र' के संपादन में  प्रकाशित हुए।  इन नवगीतों में प्रणय की उन्मुक्त-अकुंठ अभिव्यक्ति है- 
जिंदगी में 
प्यार से सुंदर 
कहीं कुछ भी नहीं।
जन्म यदि वरदान है 
तो इसलिए ही, इसलिए
मोह से मोहक सुगन्धित 
प्राण हैं  
तो इसलिए 


नवगीत को नवता से समृद्ध करने वाले हस्ताक्षरों में अग्रगण्य हैं कुमार रवींद्र (१०-६-१९४० लखनऊ नवगीत संग्रह आहात है वन, चेहरों के अंतरीप, पंख बिखरे रेट पर, सुनो तथागत, और हमने संधियां कीं, रखो खुला यह द्वार, अप्प दीपो भव)   उनके अनुसार शाब्दिकता तथा संप्रेषणीयता के बीच तारतम्यता के न टूटने देने के प्रति आग्रही होना नवगीतकारों का दायित्व है। वे नवगीतों को विसंगति, अभाव और दर्द का दस्तावेज नहीं मानते। 'अप्प दीपो भव' में अभिनव प्रयोग करते हुए रवींद्र जी ने संभवत: नवगीत के इतिहास में पहली बार बुद्ध के जीवन में महत्वपूर्ण रहे पात्रों के माध्यम से बहुत कुछ ऐसा कहलवाया जो पहले कभी नहीं कहा गया और जो कठमुल्ले नवगीत-मठाधीशों को नहीं पचेगा। 
बैठी है सुंदरी 
झरोखे में 
नंद उसे देख रहे आतुर हो 
आँख हुई सागर सी 
भूल गयी पलकें भी हैं  झँपना 
हिमशिखर तेर रहे 
साँस हुई रात का कोइ सपना 
लगा उन्हें सुंदरी 
फागुनी हवाओं का ज्यों अंत:पुर हो 
सुंदरी नहीं वह तो 
कविता की पंक्ति है अनूठी सी 
दूर से लुभाती है 
जैसे हो कोइ जादू की बूटी सी 
और बोल तो उसके 
लगते हैं 
सूने में बंशी का सुर हो  

नर्मदांचल के वरिष्ठ नवगीतकार गिरिमोहन गुरु (नवगीत संग्रह मुझे नर्मदा कहो, गुरु के नवगीत) आशावादिता को नवगीत का लक्षण मानते हुए लिखते हैं- 
किरण खिलौने हाथ 
कंठ में नव प्रकाश के गीत 
मरघट के ठूंठों में फूटे 
नए-नए कोंपल 
ध्वंस भूमि की छाती पर 
फिर अंकुराये पीपल 
जीवन की साँसों से होने लगी 
मृत्यु भयभीत 

आचार्य भगवत दुबे (१८-८-१९४३, नवगीत संग्रह हिरन सुगंधों के, हम जंगल के अमलतास) लोक में अभावों के बावजूद मस्ती और हर्ष को नवगीतों का विषय बनाते हैं- 
हम जंगल के अमलतास 
परवरिश बिना बढ़ते 
पर गमलों की नागफनी 
की आँखों में गड़ते 
लोक धुनों की मस्ती में 
हम झूमे-हरषाये 
हमें नागरिक बनने के 
सौभाग्य न मिल पाए
पाश्चात्य संस्कृति के 
हम पर रंग नहीं चढ़ते  


विनोद निगम (१०-८-१९४४ बाराबंकी, जारी हैं लेकिन यात्राएँ ) हुलास और उत्सवधर्मिता को मुखरित करनेवाले नवगीतकार हैं। वे विसंगतियों को उद्घाटित करते हुए भी जीवन को आशावादिता का पर्याय बनाए रखने में सफल हुए हैं- 
घाटियों में ऋतु  सुखाने लगी है 
मेघ धोए वस्त्र अनगिन रंग के 
आ गए दिन, धूप के सतसंग के
पर्वतों पर छंद फिर बिखरा दिए हैं 
लौटकर जाती घटाओं ने। 
पेड़ फिर पढ़ने लगे हैं धूप के अखबार
फुर्सत से दिशाओं में 
निकल फूलों के नशीले बार से 
लड़खड़ाती है हवा। 
पाँव दो पड़ते नहीं हैं ढंग से।   

ब्रजेश श्रीवास्तव (५-७-१९४७, बांसों के झुरमुट से) विसंगतियों की चर्चा करते हुई भी आशावादिता से भरे-पूरे नवगीतों के लिए चर्चित रहे हैं- 
आधी हिंदी, आधी इंग्लिश में- 
बतियाते हम 
वेलेंटाइन डे को खुश हो-
आज मनाते हम 
ऋतू बसंत के मदिरगां की चर्चाएं तो हों 
जिससे निश्छल प्रेम प्राणियों 
में भी बना रहे। 

निर्मल शुक्ल (३-२-१९४८, पूरबगाँव लखनऊ, नवगीत संग्रह अब तक रही कुँवारी धूप, अब है सुर्ख कनेर, एक और अरण्य काल, नील वनों के पार, नहीं कुछ भी असंभव, सच कहूँ तो) नवगीत को समय की बखिया उधेड़ने  या बाल की खाल निकलने की भूमिका से जुदा करते हुए परिवर्तन का दूत बनाकर सत्य कहलवाते हैं- 
ऐसे में तो जी करता है
सारी काया उल्ट-पुलट दें 
दुत्कारें, इस अंधे युग को 
मंत्र फूंक सब पत्थर कर दें 
किन्तु वेदना संघर्षों की 
सर चढ़ जाती है
सच कह दूँ तो 
यहाँ सभ्यता 
चीख दबाती है।

सच से साक्षात का यह आव्हान बेमानी नहीं है।  डॉ. रामसनेही लाल शर्मा यायावर (नवगीत संग्रह: मन पलाशवन और दहकती संध्या,  गलियारे गंध के, झील अनबुझी प्यास की) ने नवगीत को रुदन और विलाप के चक्रव्यूह का बचने का बीड़ा उठाते हुए गलियारे गंध के में प्रणयपरक नवगीतों का गुलदस्ता पेश किया। नवगीत को सांस्कृतिक भिन्नता से आरंभ कर क्रंदन तक ले जाने के प्रयासों की निस्सारता को यायावर जी ने उद्घाटित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और लिखा- 

जागेंगे कुछ 
जागरण गीत 
सोयेंगे हिंसा, घृणा, द्वेष 
हो अभय हँसेंगे मंगल घाट 
स्वस्तिक को 
भय का नहीं लेश 
देखेगा सम्वत नया कि 
जन-मन 
फिर से सबल-समर्थ हुआ।
अशोक गीते (३.११.१९५०, रीत चले अनुबंध, शब्दों पर पहरे हैं, धूप है मुँडेर की) नवगीत की सांस्कारिक विरासत को समृद्ध करने वाले नवगीतकार हैं। वे पतझर की पीर नहीं उगते हुए पत्तों का हुलास नवगीतों में पिरोते हैं
दिन ये आये 
फिर फागुन के 
वृक्ष पहने 
नए वसन 
काजल आँजे
आज सपन 
झोंके आये 
गंध मादन के 

जय प्रकाश श्रीवास्तव (९.५.१९५१, परिंदे संवेदना के, शब्द वर्तमान) प्रकृति और नवाशा को नवगीत का  अपरिहार्य अंग मानते हैं-
पत्तियाँ सूखकर 
गिरने लगी हैं 
पेड़ पहनेंगे नए परिधान 
दिन जरा बढ़ने लगे हैं 
रात उँगली पर 
हट रही ठिठुरन 
तनिक हवा भी तपकर 
दिखाती अल्हड़पना 
घूमती सब ओर 
लिख रही हर होंठ पर मुस्कान 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल(२०-८-१९५२, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि) ने नवगीत को गीत की विशिष्ट भंगिमा मानते हैं। राजनैतिक -प्रशासनिक गठजोड़, धार्मिक आडंबर आदि पर शब्दाघात करने के साथ आर्थिक गरीब की मानसिक-सामाजिक सम्पन्नता को इंगित करते हुए उनके नवगीत संस्कृति भाषा और छंद वैविध्य से समृद्ध हैं। 'चूहा झाँक रहा हंडी में / लेकिन पाई सिर्फ हताशा' में विपन्नता, 'सागर उथला, पर्वत गहरा' में उलटबांसी, 'मेंहदी उपवास रखे तीजा का मौन में' परंपरा, 'मिली दिहाड़ी चल बाजार में' श्रमिक वर्ग की विवशता समेटते नवगीत शब्द-युग्म और मुहावरेदार भाषा की परंपरा को समृद्ध करते हैं। नवगीत को स्यापा गीत बनाने में जुटे संकीर्ण दृष्टियों द्वारा अनदेखी लिए जाने के बाद भी वे नवगीतों में श्रम  की प्रतिष्ठा के प्रति सजग हैं- 
बहुत झुकाया अब तक तूने 
अब तो अपना भाल उठा
समय-श्रमिक मत थकना-झुकना 
बाधा के सम्मुख मत झुकना 
जब तक मंजिल कदम न चूमे 
माँ के सौं तब तक मत रुकना 
अनदेखी कर दे छालों की 
तसला और कुदाल उठा    

पूर्णिमा बर्मन (चोंच में आकाश) ने नवगीत को संस्कार के साथ प्रगति से जोड़कर नव आशा, नव सपनों का ताना-बाना बुना तो नवगीत को क्रन्दन गीत  बनाने में जुटे कठमुल्लों का नकारना स्वाभाविक था- 
ठीक सामने धूप खड़ी हो   
हरियल पत्तों बेल चढ़ी हो 
दरवाज़ा तो बंद हो लेकिन 
परदे पर एक 
डोर बंधी हो 
तो फिर वह ही है मेरा घर 

यश मालवीय (१८ जुलाई १९६२, कानपुर नवगीत संग्रह कहो सदाशिव, उड़ान से पहले, एक चिड़िया अलगनी पर एक मन में, बुद्ध मुस्कराएएक आग आदिमकुछ बोलो चिड़ियारोशनी देती बीड़ियाँनींद कागज की तरह) ने धार्मिक पाखंडों की विद्रूपता को कबीरी अंदाज़ में लताड़ते हुए नवगीत की बदलती हुई भाषा की रवानगी को बखूबी प्रस्तुत किया है-

अपना चिमटा गाड़े बैठे हैं।
बस्ती मगर उजाड़े बैठे हैं।
कैसे ये साधु-बैरागी हैं
भीतर-भीतर पानी-आगी हैं
पोथी-पत्रा फाड़े बैठे हैं। 
आपस में ही लड़ते-मरते हैं
भवसागर के पार उतरते हैं
कुश्ती संग अखाड़े बैठे हैं।
इसे उसे बिन बात चिढ़ाते हैं
जीवन भर बस गणित भिड़ाते हैं
गिनती और पहाड़े बैठे हैं।


राजा अवस्थी (०१४.६.१९६५, जिस जगह यह नाव है) 'चलन में पूरी तरह से / वही सिक्के आ गए / खोट में सब रंग जिनके / अंग-अंग में छा गए' में युगीन विसंगति को इंगित करने के साथ 'बासंती की अगवानी में / गीतों के मेले / कहाँ तक चलें अकेले' में उत्सव धर्मी लोकवृत्ति की जयकार करते हैं।

आनंद तिवारी (१.५.१९६७, धरती तपती है, दिन बड़े कसाले के) नवगीत में विरह श्रृंगार के साथ आशावादी  घोलते हुए लिखते हैं- 
तुम्हारे नेह का चन्दन
लगा अपने लिलारे पर
पूरी उम्र काट दी हमने
तेरे दुआरे पर।
*
अपनी आत्मचेतना का
विस्तार जरा कर लूँ
तेरे ह्रदय कुञ्ज के
स्पंदन बन जाऊँगा।  

अभिव्यक्ति विश्वम परिवार से जुड़े नवगीतकारों ने नवगीत के नाम पर पिछले दरवाजे से शोषण, उत्पीड़न, दीनता, अभाव, व विंसगतियों के अतिरेकी वर्णन को ही नवगीत बनाने के तथाकथित यथार्थवादी दृष्टिकोण को रचनात्मकता के आधार पर है। एक ओर ओमप्रकाश तिवारी (खिड़कियाँ खोलो),  जगदीश पंकज (१०.१२.१९५२, सुनो मुझे भी), पंकज मिश्र अटल (२५.६.१९६७ बोलना सख्त मना है), सुरेशचंद्र सर्वहारा (२२.२.१९६१ ढलती हुई धूप), सीमा अग्रवाल (८.१०.१९६२, खुशबू सीली गलियों की, शिवानंद सहयोगी ()

दूसरी ओर कल्पना रामानी (हौसलों के पंख), मालिनी गौतम (२०.२.१९७२, चिल्लर सरीखे दिन), रोहित रूसिया (नदी की धार सी संवेदनाएँ)   

 डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र का ‘गीत और नवगीत में अंतर’ शीर्षक पर व्याख्यान हुआ। आपका कहना था कि नवगीत का प्रादुर्भाव हुआ ही इसलिये था कि एक ओर हिन्दी कविता लगातार दुरुह होती जा रही थी, और दूसरी ओर हिन्दी साहित्य में शब्द-प्रवाह को तिरोहित किया जाना बहुत कठिन था। अतः नवगीत नव-लय-ताल-छंद और कथ्य के साथ सामने आया। लखनऊ १५-११-२०१४ 
नवें दशक के प्रारंभ से ही गीत ने अपनी साहित्यिक अस्मिता को बड़े ही प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। अपनी अलग पहचान बड़े सशक्त रूप से प्रस्तुत कर इस छद्म का पर्दाफाश भी किया है कि गीत के माध्यम से आधुनिक भावबोध की प्रस्तुति संभव ही नहीं है। इस समय नवगीत अपने अधुनातन स्वरूप में कविता की मुख्य धारा के रूप में स्थापित हो चुका है, इसमें कोई संदेह नहीं है। 


वास्तविकता तो यह है कि कुछ अर्थों में छंदानुशासन के कारण नवगीत कविता के रूप में अधिक सक्षम सिद्ध हुआ है। वैचारिकता और भावात्मकता का जैसा संयुत रूप आज के नवगीत में प्रस्तुत हुआ है, वैसा छंदहीन कविता में अधिकांशतः नहीं दीखता। मेरी राय में, आज की कविता के दो रूप माने जा सकते हैं - छान्दसिक कविता और छ्न्देतर कविता। दोनों ही रूप अपनी-अपनी अस्मिता में महत्त्वपूर्ण हैं एवं एक-दुसरे के समानांतर हैं न कि एक-दूसरे के विरोधी, क्योंकि कविता होना दोनों का ही समान धर्म, लक्षण एवं गुण है। 


आज से लगभग ढाई दशक पूर्व वाराणसी में आयोजित 'नवगीत अर्द्धशती ' समारोह में इन पंक्तियों के लेखक की उपस्थिति में जिन लक्षणों तथा आयामों को खोजा गया था, वे सभी समकालीन नवगीत में पूरी तरह विद्यमान हैं। वे लक्षण तथा आयाम हैं - 
(१) छांदसिकता और लयात्मकता 
(२) संवेदनधर्मिता 
(३) सम्प्रेषणीयता तथा ऋजुता 
(४) बिम्बधर्मिता 
(५) अनलंकृति अथवा सादगी 
(६) लोकसंपृक्ति 
( ७) भारतीय सांस्कृतिक चेतना और जातीय बोध 
( ८) यथार्थ प्रसंगों की अभिव्यक्ति और आम आदमी के सरोकारों से जुड़ाव 
(९) जीवन के केंद्र में मानव की प्रतिष्ठा और मानवीय भाव-स्थितियों की जीवनी-शक्ति के रूप में स्वीकृति (१०) भारतीय रंग का आधुनिकता बोध और परंपरा से जुड़ी नवता।


तीन पीढ़ियों की इस महायात्रा में जिन गीतकवियों ने अपने प्रदेय से कविता के इस छान्दसिक स्वरूप को बदलते 'युग संबंध' के तहत नई गीत-प्रणालियों से समृद्ध किया है और उसे समकालीन कविता की मुख्य विधा के रूप में स्थापित करने में महती योगदान दिया है, उनमें प्रमुख हैं - सर्वश्री शंभुनाथ सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, उमाकांत मालवीय, रवीन्द्र 'भ्रमर', वीरेन्द्र मिश्र, देवेन्द्र कुमार, रमेश रंजक, भगवान स्वरूप 'सरस', शिवबहादुर सिंह भदौरिया, देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र', श्रीकृष्ण तिवारी, श्रीकृष्ण शर्मा, नईम, ओम प्रभाकर, रामचन्द्र चंद्रभूषण, किशोर काबरा, मुकुट सक्सेना, अवधबिहारी श्रीवास्तव, अमरनाथ श्रीवास्तव, विद्यानंदन राजीव, सत्यनारायण, नचिकेता, शांति सुमन, उमाशंकर तिवारी, माहेश्वर तिवारी, गुलाब सिंह, राम सेंगर, कुमार रवीन्द्र, कुँअर बेचैन, विष्णु विराट, नीलम श्रीवास्तव, राजेन्द्र गौतम, श्याम निर्मम, बुद्धिनाथ मिश्र, अश्वघोष, राधेश्याम शुक्ल, महेश अनघ, योगेन्द्र दत्त शर्मा, विनोद निगम, दिनेश सिंह, इसाक अश्क, विजय किशोर मानव, उद्भ्रांत, शतदल, ब्रजनाथ श्रीवास्तव, विनोद श्रीवास्तव, हरीश निगम, ज़हीर कुरेशी, भारतेंदु मिश्र, धनंजय सिंह, कुमार शिव, श्याम नारायण मिश्र, यश मालवीय, शीलेन्द्र कुमार सिंह, राधेश्याम बन्धु, मयंक श्रीवास्तव, वसु मालवीय आदि-आदि।

इनमें से कुछ को छोड़कर, जो या तो काल-कवलित हो गये या किन्हीं कारणों से कविता की अन्य विधाओं की ओर मुड़ गये, सभी आज भी नवगीत के नये-नये आयामों को खोजने एवं प्राप्त करने में महती भूमिका निभा रहे हैं। इनके अतिरिक्त शताधिक ऐसे गीतकार हैं, जो नवगीत के मुहावरे से परिचित रहे हैं और कहीं-न-कहीं अपने गीतों में नये गीत की भंगिमाओं को आंशिक रूप से प्रस्तुत करते रहे हैं। आज नये गीतकारों की एक पूरी पीढ़ी इन भंगिमाओं को अपनाकर गीत के क्षितिजों का विस्तार करने को उपस्थित हैं। अस्तु, हिदी नवगीत आज की ही नहीं, भविष्य की भी मुख्य काव्यधारा रहेगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। 

समग्रतः हिदी नवगीत समकालीन कविता का वह रूप है, जिसने कबीर और निराला की परंपरा में नये क्षितिज, नये आयाम जोड़े हैं; उनका निरंतर खोजी भी है। 'शब्द' के चमत्कारिक 'अर्थ' की उसने पुनर्स्थापना की है और कविता में 'अचरज' के भाव को पुनः प्राप्त किया है। निश्चित ही नवगीत ने कविता के रागोत्तेजक स्वरूप को नई भंगिमाएँ, नई दिशाएँ दी हैं, नये प्रतिमान दिए हैं।

०१ -  हिन्दी साहित्य का अद्यतन इतिहास, डा० मोहन अवस्थी, पृ० ३०२ 
०२ - शब्दपदी, संपादक निर्मल शुक्ल   
०३ - नवगीत २०१३, संपादक डॉ, जगदीश व्योम, पूर्णिमा बर्मन
४. नवगीत नए संदर्भ, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर'  

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