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शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2022

सॉनेट, गीत, कुंडलिया , सवैया, यमक, नवगीत, चिरैया,

मुक्तिका
खोली किताब।
निकले गुलाब।।

सुधियाँ अनेक
लाए जनाब।।

ऊँची उड़ान 
भरते उकाब।।

है फटी जेब
फिर भी नवाब।।

छेड़ें न लोग
ओढ़ो नकाब।।

दाने न चार
देते जुलाब।।

थामो लगाम
पैरों रकाब।।
***
४-२-२०२२
मुक्तिका
मुस्कुराने लगे।
गीत गाने लगे।।

भूल पाए नहीं
याद आने लगे।।

था भरोसा मगर
गुल खिलाने लगे।।

बात मन की करी
दिल दुखाने लगे।।

जो नहीं थे खरे
आजमाने लगे।।

तोड़ दिल, दर्द दे
आप जाने लगे।।

कह रहे, बिन कहे
हम लुभाने लगे।।
४-४-२०२२
•••
सॉनेट
ऋतुराज
ऋतुराज का स्वागत करो!
पवन पिक हिलमिल रहे हैं
आम्र तरुवर खिल रहे हैं।।
पुलक पल पल सुख वरो।।

सुमन चहके, सुमन महके।
भ्रमर कर रसपान उन्मत।
फलवती हो मिलन चाहत।।
रहीं कलिकाएँ दहक।।

बाग में गुंजार रसमय।
काममय संसार मधुमय।
बिन पिए भी चढ़ी है मय।।

भोगियों को है नहीं भय।
रोगियों का रोग हो क्षय।
योगियों होना न निर्भय।।
४-२-२०२२
•••
मुक्तक
अपनी धरा; अपना गगन, अपना सलिल, अपना पवन।
अपनी उषा-संध्या-दिशा, अपना सुमन, अपना चमन।।
पुष्पा रहा; मुस्का रहा, पल-पल वतन महका रहा-
तकदीर निज दमका रहा, अपना युवक, अपना जतन।।
***
मुक्तिका
मन
*
सूर्यमुखी बन
झूम-झूम मन
पर्वत सा जड़
हो न व्यर्थ तन
बिजुरी-बादल
सँग हो सावन
सिहर-बिखर लख
पायल-करधन
गा कबीर हो
हर दिन फागुन
है जीवनधन
ही जीवनधन
सुख पा देकर
जोड़ न कंचन
श्वास-श्वास कर
मधुमय मधुवन
४-२-२०२०
***
सवैयों में यमक अलंकार
मध्यकाल के २ कवियों के सवैये प्रस्तुत हैं। दोनों में यमक अलंकार का बहुत सुंदर प्रयोग है।
अब क्यों करिकेँ घर जैयतु है, अरु काही सुनैयतु बीती भई।
कवि मण्डन मोहन ठीक ठगी, सु तो ऐसी लिलार लिखी ती दई।
सखि और भई सो भली ही भई, पर एक जो बात बितीती नई।
रति हूँ ते गई; मति हूँ ते गई; पतिहू ते गई; पति हूँ ते गई। -मण्डन


यह नायिका पति को छोड़कर उपनायक से मिलने जाती है। वह भी धोखा दे जाता है संकेत स्थल पर नही मिलता। नायिका पश्चाताप करती है। अंतिम पंक्ति में पतिहू (पति या स्वामी )तथा पति हूँ (प्रतिष्ठा या लज्जा) में यमक का चमत्कार है ।


जल ढारि सनीचर गंग बधू विनबै कर जोरि सु पीपर सों।
तरुदेव गोसाँई बड़े तुम होयः मांगति दीन ह्वै पी परसों।
आवन के दिन तीस कहे गति औधि की ठीक तपी परसों
भूलि गये हरि दूरि विदेस किधौं अटके कहूँ पी पर सों। -गङ्ग


नायिका प्रोषितपतिका अर्थात जिसका पति परदेश में हो, है। एक महीने में आने की कह कर गया अवधि २ दिन पहले बीत गई, आया नहीं। शनिवार को पीपल पर जल चढ़ाती है। चमत्कार अंतिम शब्दों में है-
1 पीपर सों-अर्थात पीपल के बृक्ष से विनम्रता पूर्वक निवेदन करती है
2-पी परसों-विनम्रता पूर्वक माँगती हूँ कि ऐसा करिये की प्रियतम का स्पर्श करूँ
3-तपी परसों-पति के आने की अवधि परसों ही समाप्त हो गयी
4-पी पर सों -कहीं शायद मेरा प्रियतम किसी अन्य (नारी से) न अटक गया हो उससे प्रेम न कर बैठा हो
***
मुक्तक
कल्पना के बिना खेल होता नहीं
शब्द का शब्द से मेल होता यहीं
गिर 'सलिल' पर हुईं बिजलियाँ लुप्त खुद
कलप ना, कलपना व्यर्थ होता कहीं?
*
आ भा कहते, आ भा सुनते, आभा चेहरे की बदल गयी
आभा आई-छाई मुख पर, आभा चेहरे की नवल हुई
आते-आते, भाते-भाते, कल बेकल हो फिर चपल हुई
कलकल किलकिल हो विकल हुई, अविचल होकर हँस मचल गयी
***
नवगीत
चिरैया!
आ, चहचहा
*
द्वार सूना
टेरता है।
राह तोता
हेरता है।
बाज कपटी
ताक नभ से-
डाल फंदा
घेरता है।
सँभलकर चल
लगा पाए,
ना जमाना
कहकहा।
चिरैया!
आ, चहचहा
*
चिरैया
माँ की निशानी
चिरैया
माँ की कहानी
कह रही
बदले समय में
चिरैया
कर निगहबानी
मनो रमा है
मन हमेशा
याद सिरहाने
तहा
चिरैया!
आ चहचहा
*
तौल री पर
हारना मत।
हौसलों को
मारना मत।
मत ठिठकना,
मत बहकना-
ख्वाब अपने
गाड़ना मत।
ज्योत्सना
सँग महमहा
चिरैया!
आ, चहचहा
*
२१-८-२०१९
मुक्तिका
*
नाजनीं को नमन मुस्कुरा दीजिए
मशविरा है बिजलियाँ गिरा दीजिए
*
चिलमनों के न पीछे से अब वार हो
आँख से आँख बरबस मिला दीजिए
*
कल्पना ही सही क्या बुरा है अगर
प्रेरणा बन के आगे बढ़ा दीजिए
*
कांता के हुए कांत अब तो 'सलिल'
बैठ पलकों पे उनको बिठा दीजिए
*
जो खलिश दिल में बाकी रहे उम्र भर
ले के बाँहों में उसको सजा दीजिए
***

कुंडलिया
जिस पर बिजली गिर गयी, वह तो बैठा शांत
गिरा रहे जो वे हुए अपने आप शांत
अपने आप अशांत बढ़ा बैठे ब्लड प्रेशर
करें कल्पना हुए लाल कश्मीरी केसर
'सलिल' हुआ है मुग्ध अनूठा रूप देखकर
वह भुगते बिजली गिरनी है अब जिस जिस पर
४-२-२०१७
***
गीत:
संग समय के...
*
संग समय के चलती रहती सतत घड़ी.
रहे अखंडित कालचक्र की मौन कड़ी.....
*
छोटी-छोटी खुशियाँ मिलकर जी पायें.
पीर-दर्द सह आँसू हँसकर पी पायें..
सभी युगों में लगी दृगों से रही झड़ी.....
*
अंकुर, पल्लव, कली, फूल, फल, बीज बना.
सीख न पाया झुकना तरुवर रहा तना।
तूफां ने आ शीश झुकाया व्यथा बड़ी.....
*
दूब डूब जाती पानी में- मुस्काती.
जड़ें जमा माटी में, रक्षे हरियाती..
बरगद बब्बा बोले रखना जड़ें गडी.....
*
वृक्ष मौलश्री किसको हेरे एकाकी.
ध्यान लगा खो गया, नगर अब भी बाकी..
'ओ! सो मत', ओशो कहते: 'तज सोच सड़ी'.....
*
शैशव यौवन संग बुढ़ापा टहल रहा.
मचल रही अभिलाषा देखे, बहल रहा..
रुक, झुक, चुक मत, आगे बढ़ ले 'सलिल' छड़ी.....
४-२-२०१३
***

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