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मंगलवार, 15 फ़रवरी 2022

नवगीत, द्विपदी, छंद नित, लंगड़ी,

एक रचना
कृष्ण कौन हैं?
*
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
समय साक्षी; स्वयं मौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
*
कृष्ण पीर हैं,
दर्द-व्यथा की अकथ कथा हैं।
कष्ट-समुद ही गया मथा हैं।
जननि-जनक से दूर हुए थे,
विवश पूतना, दुष्ट बकासुर,
तृणावर्त, यमलार्जुन, कालिय,
दंभी इंद्र, कंस से निर्भय
निपट अकेले जूझ रहे थे,
नग्न-स्नान कुप्रथा-रूढ़ि से,
अंधभक्ति-श्रद्धा विमूढ़ से,
लडे-भिड़े, खुद गाय चराई,
वेणु बजाई, रास रचाई।
छूम छनन छन, ता-ता-थैया,
बलिहारी हों बाबा-मैया,
उभर सके जननायक बनकर,
मिटा विपद ठांड़े थे तनकर,
बंधु-सखा, निज भूमि छोड़ क्या
आँखें रहते सूर हुए थे?
या फिर लोभस्वार्थ के कारण
तजी भूमि; मजबूर हुए थे?
नहीं 'लोकहित' साध्य उन्हें था,
सत्-शिव ही आराध्य उन्हें था,
इसीलिए तो वे सुंदर थे,
मनभावन मोहक मनहर थे।
थे कान्हा गोपाल मुरारी
थे घनश्याम; जगत बलिहारी
पौ फटती लालिमा भौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
समय साक्षी; स्वयं मौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
*
कृष्ण दीन हैं,
आम आदमी पर न हीन हैं।
निश-दिन जनहित हेतु लीन हैं।
प्राणाधिक प्रिय गोकुल छोड़ा,
बन रणछोड़ विमुख; मुख मोड़ा,
जरासंध कह हँसा 'भगोड़ा',
समुद तीर पर बसा द्वारिका
प्रश्न अनेकों बूझ रहे थे।
कालयवन से जा टकराए,
आक्रांता मय दनु चकराए,
नहीं अनीति सहन कर पाए,
कर्म-पंथ पर कदम बढ़ाए।
द्रुपदसुता की लाज न जाए,
मान रुक्मिणी का रह पाए,
पार्थ-सुभद्रा शक्ति-संतुलन,
धर्म वरें, कर अरि-भय-भंजन,
चक्र सुदर्शन लिए हाथ में
शीश काटते क्रूर हुए थे?
या फिर अहं-द्वेष-जड़ता वर
अहंकार से चूर हुए थे?
नहीं 'देशहित' साध्य उन्हें था,
सुख तजना आराध्य उन्हें था,
इसीलिए वे नटनागर थे,
सत्य कहूँ तो भट नागर थे।
चक्र सुदर्शन के धारक थे,
शिशुपालों को ग्रह मारक थे,
धर्म-पथिक के लिए पौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
समय साक्षी; स्वयं मौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
*
कृष्ण छली हैं,
जो जग सोचे कभी न करते।
जो न रीति है; वह पथ वरते।
बढ़ें अकेले; तनिक न डरते,
साथ अनेकों पग चल पड़ते।
माधव को कंकर में शंकर,
विवश पाण्डवों में प्रलयंकर,
दिखे; प्रश्न-हल सूझ रहे थे।
कर्म करो फल की चिंता बिन,
लड़ो मिटा अन्यायी गिन-गिन,
होने दो ताण्डव ता तिक धिन,
भीष्म-द्रोण के गए बीत दिन।
नवयुग; नवनिर्माण राह नव,
मिटे पुरानी; मिले छाँह नव,
सबके हित की पले चाह नव,
हो न सुदामा सी विपन्नता,
और न केवल कुछ में धनता।
क्या हरि सच से दूर हुए थे?
सुख समृद्धि यशयुक्त द्वारिका
पाकर खुद मगरूर हुए थे?
नहीं 'प्रजा हित' साध्य उन्हें था,
मिटना भी आराध्य उन्हें था,
इसीलिए वे उन्नायक थे,
जगतारक शुभ के गायक थे।
थे जसुदासुत-देवकीनंदन
मनुज माथ पर शोभित चंदन
जीवनसत्व सुस्वादु नौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
समय साक्षी; स्वयं मौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
१५-२-२०२१
***
नित छंद
*
दो पदी, चार चरणीय, १२ मात्राओं के मात्रिक नित छंद में चरणान्त में रगण, सगण या नगण होते हैं.
उदाहरण:
१. नित जहाँ होगा नमन, सत वहाँ होगा रसन
राशियाँ ले गंग जल, कर रहीं हँस आचमन
२. जां लुटाते देश पर, जो वही होते अमर
तिरंगा जब लहरता, गीत गाता आसमां
३. नित गगन में रातभर, खेलते तारे नखत
निशा सँग शशि नाचता, देखकर नभ विहँसता
*
१. लक्षण संकेत: नित = छंद का नाम, रसन = चरणान्त में रगण, सगण या नगण, राशियाँ = १२ मात्रायें
१५-२-२०१४
***
द्विपदि सलिला:
संजीव 'सलिल'
*
जब तक था दूर कोई इसे जानता न था.
तुमको छुआ तो लोहे से सोना हुआ 'सलिल'.
*
वीरानगी का क्या रहा आलम न पूछिए.
दिल ले लिया तुमने तभी आबाद यह हुआ..
*
जाता है कहाँ रास्ता? कैसे बताऊँ मैं??
मुझ से कई गए न तनिक रास्ता हिला..
*
बस में नहीं दिल के, कि बस के फिर निकल सके.
परबस न जो हुए तो तुम्हीं आ निकाल दो..
*
जो दिल जला है उसके दिल से दिल मिला 'सलिल'
कुछ आग अपने दिल में लगा- जग उजार दे.. ..
***
***
बाल गीत:
लंगडी खेलें.....
संजीव 'सलिल'
*
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
***
गीत :
आशियाना ...
संजीव 'सलिल'
*
धरा की शैया सुखद है,
नील नभ का आशियाना ...
संग लेकिन मनुज तेरे
कभी भी कुछ भी न जाना ...
*
जोड़ता तू फिर रहा है,
मोह-मद में घिर रहा है।
पुत्र है परब्रम्ह का पर
वासना में तिर रहा है।
पंक में पंकज सदृश रह-
सीख पगले मुस्कुराना ...
*
उग रहा है सूर्य नित प्रति,
चाँद संध्या खिल रहा है।
पालता है जो किसी को,
वह किसी से पल रहा है।
मिले उतना ही लिखा है-
जहाँ जिसका आब-दाना ...
*
लाये क्या?, ले जायेंगे क्या??,
कौन जाता संग किसके?
संग सब आनंद में हों,
दर्द-विपदा देख खिसकें।
भावना भरमा रहीं मन,
कामना कर क्यों ठगाना?...
*
रहे जिसमें ढाई आखर,
खुशनुमा है वही बाखर।
सुन खन-खन सतत जो-
कौन है उससे बड़ा खर?
छोड़ पद-मद की सियासत
ओढ़ भगवा-पीत बाना ...
*
कब भरी है बोल गागर?,
रीतता क्या कभी सागर??
पाई जैसी त्याग वैसी
'सलिल' निर्मल श्वास चादर।
हंस उड़ चल बस वही तू
जहाँ है अंतिम ठिकाना ...
१५-२-२०१३
***

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