कविता:
घर :
मनुष्य
रौंदता मिट्टी
काटता शाखाएँ
उठता दीवारें
डालता छप्पर
लगता दरवाजे
कहता घर
बिना यह देखे कि
मिट्टी रौंदने से
कितने जीव
हुए निर्जीव
शाखा कटने से
कितने परिंदे
हुए बेघर
पुरातत्व की खुदाई
बताती है
घर बनाकर
उसमें कैद
और फिर
दुनिया से आज़ाद
हो जाता है मनुष्य
छोड़कर घर
खुदाई में निकले
घर के अवशेष
देखकर बिना लिए
कोई सीख
मनुष्य फिर-फिर
बनता है घर
यह जानकर भी कि
उसे होना ही होगा बेघर
*
घर :
मनुष्य
रौंदता मिट्टी
काटता शाखाएँ
उठता दीवारें
डालता छप्पर
लगता दरवाजे
कहता घर
बिना यह देखे कि
मिट्टी रौंदने से
कितने जीव
हुए निर्जीव
शाखा कटने से
कितने परिंदे
हुए बेघर
पुरातत्व की खुदाई
बताती है
घर बनाकर
उसमें कैद
और फिर
दुनिया से आज़ाद
हो जाता है मनुष्य
छोड़कर घर
खुदाई में निकले
घर के अवशेष
देखकर बिना लिए
कोई सीख
मनुष्य फिर-फिर
बनता है घर
यह जानकर भी कि
उसे होना ही होगा बेघर
*
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