दोहा सलिला:
सामयिक दोहे:
संजीव
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हम जब घर से निकलते, पथ में मिलते श्वान
भौंके तो होता नहीं, किंचित भी अपमान
जो सूरज पर थूकता, कहलाता नादान
सूर्य पूज्य, वह पतित हो, भले बने अनजान
कोई दे मत लीजिए, अगर आप सामान
देनेवाला ही बने, निज वचनों की खान
निकट निंदकों को रखें, कहें कबीर पुकार
दुर्वचनों
से भी 'सलिल', होगा कुछ उपकार
जिसकी जैसी भावना, वैसा देखे रूप
भिक्षुक कहने से नहीं, भिक्षुक होता भूप
स्नेह आपका 'सलिल' की, थाती है अनमोल
देते हैं उत्साह नव, स्नेह समन्वित बोल
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