रोचक कथा:
मात्रा का कमाल
एस. एन. शर्मा 'कमल'
*
राजा भोज के दरबार में कवि-रत्नों में कालिदास ,दंडी, शतंजय,माघ, आदि थे । इन सब में कभी तीखी नोंक-झोंक हो जाती थी । ऐसी ही एक नोंक-झोक कवि कालिदास और शतंजय के बीच हुई जो शातन्जय को इतनी नागवार गुज़री की वे दरबार ही छोड़ गए । कई दिन बाद उन्हें तंगी में मुद्रा की आवश्यकता हुई । राजा भोज के दरबार का नियम था की जो कविता लिख कर लाता उसे पांच मुद्राएँ पुरस्कार में मिलतीं । अस्तु शातन्जय ने एक श्लोक ( कविता ) लिख कर अपने शिष्य के हाथ भेज दिया जो इस प्रकार था -
अपशब्द शतं माघे, कविर्दंडी शत त्रयम कालिदासो न गन्यन्ते , कविरेको शतन्जयः ( माघ की कविता में एक सौ अशुद्धियाँ होती हैं ,कवि दण्डी की कविता में तीन सौ और कालिदास की कविता में तो इतनी अशुद्धियाँ होती हैं की उनकी गिनती नहीं की जा सकती , एकमात्र कवि तो शतन्जय है ) संयोग से दरबार के द्वार पर कालिदास की नजर उस शिष्य पर पड़ गयी जिसे वे जानते थे । पास आकर वे शतन्जय जी का हालचाल पूछने लगे । बात खुली कि वह शतन्जय की कविता लेकर पुरस्कार हेतु आये हैं । उत्सुकता वश वे शिष्य से कागज़ ले कर कविता पढ़ने लगे । पढ़ कर बोले - बड़ी सुन्दर कविता है पर गुरू जी एक मात्रा लगाना भूल गए इसे शुद्ध कर लो । शिष्य ने कहा आप ही कर दीजिये ॥ बस कालिदास ने अपशब्द के स्थान पर आपशब्द, अ में बड़ी मात्रा लगा कर बना दिया । अब अर्थ बदल गए - आपशब्द ( जल के पर्यायवाची ) माघ पंडित सौ और दण्डी कवि तीन सौ जानते हैं पर कालिदास इतने जानते हैं कि गणना नहीं जबकि कवि शतंजय केवल एक ) जब कविता शिष्य ने दरबार में राजा भोज को दी तो पढ़ कर राजा भोज कालिदास की ओर देख मुस्कुराए उन्हें पता था की कालिदास के कारण ही शतन्जय रुष्ट हो कर गए हैं सो उन्हें साजिश समझते देर ना लगी ।
उन्होंने पांच मुद्राएँ देकर विदा करते हुए कविता वाला वह कागज़ भी लौटाते हुए कहा की गुरू जी को मेरा प्रणाम कहना और सन्देश देना कि उनके बिना दरबार सूना है अस्तु वे पधार कर हमें अनुग्रहीत करें ।
अब वह कागज़ पढ़ कर शतन्जय पर जो बीती आप कल्पना कर सकते है ॥ मात्रा के सम्बन्ध में इतनी कथा ही पर्याप्त है ।
अपशब्द शतं माघे, कविर्दंडी शत त्रयम कालिदासो न गन्यन्ते , कविरेको शतन्जयः ( माघ की कविता में एक सौ अशुद्धियाँ होती हैं ,कवि दण्डी की कविता में तीन सौ और कालिदास की कविता में तो इतनी अशुद्धियाँ होती हैं की उनकी गिनती नहीं की जा सकती , एकमात्र कवि तो शतन्जय है ) संयोग से दरबार के द्वार पर कालिदास की नजर उस शिष्य पर पड़ गयी जिसे वे जानते थे । पास आकर वे शतन्जय जी का हालचाल पूछने लगे । बात खुली कि वह शतन्जय की कविता लेकर पुरस्कार हेतु आये हैं । उत्सुकता वश वे शिष्य से कागज़ ले कर कविता पढ़ने लगे । पढ़ कर बोले - बड़ी सुन्दर कविता है पर गुरू जी एक मात्रा लगाना भूल गए इसे शुद्ध कर लो । शिष्य ने कहा आप ही कर दीजिये ॥ बस कालिदास ने अपशब्द के स्थान पर आपशब्द, अ में बड़ी मात्रा लगा कर बना दिया । अब अर्थ बदल गए - आपशब्द ( जल के पर्यायवाची ) माघ पंडित सौ और दण्डी कवि तीन सौ जानते हैं पर कालिदास इतने जानते हैं कि गणना नहीं जबकि कवि शतंजय केवल एक ) जब कविता शिष्य ने दरबार में राजा भोज को दी तो पढ़ कर राजा भोज कालिदास की ओर देख मुस्कुराए उन्हें पता था की कालिदास के कारण ही शतन्जय रुष्ट हो कर गए हैं सो उन्हें साजिश समझते देर ना लगी ।
उन्होंने पांच मुद्राएँ देकर विदा करते हुए कविता वाला वह कागज़ भी लौटाते हुए कहा की गुरू जी को मेरा प्रणाम कहना और सन्देश देना कि उनके बिना दरबार सूना है अस्तु वे पधार कर हमें अनुग्रहीत करें ।
अब वह कागज़ पढ़ कर शतन्जय पर जो बीती आप कल्पना कर सकते है ॥ मात्रा के सम्बन्ध में इतनी कथा ही पर्याप्त है ।
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