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शनिवार, 1 फ़रवरी 2020

हस्तिनापुर की बिथा कथा

हस्तिनापुर की बिथा कथा अध्याय ८ 
युद्ध कौ सोलओ दिन
द्रोण सिधारे स्वर्ग, कर्ण कौरव कौ सेनापति हो गओ
ईसें दुर्योधन के ऊ मित्र कौ मान औरइ बड़ गओ (६१)
कर्ण घुसो पाण्डव सैना में और सैंकरन खौं मारो
कर डारो भूकंप सौ उतै, हाहाकार मचा डारो (६२)
लासन पै लासें बिछ गईं, रकत के छूटे फव्वारे
रुंड मुंड भू पै लोटत, लोहू के बहे नदी नारे (६३)
तब कौरव सैना पै अर्जुन टूट परे आफत बन कें
मार हजारन जोधा डारे अर्जुन और भीम मिल कें (६४)
भीम लड़े अश्वत्थामा सें,बाए हरा युद्ध में दये
लड़े युधिष्ठिर दुर्योधन सें, ऊखौं कर बेहोस दये (६५)
तब कृतवर्मा उनें उठाकें लै गए युद्धभूमि सें दूर
दिन भर चली लड़ाई, संजा होतइं सेनाएँ भइँ दूर (६६)
सत्ररएँ दिन कौ युद्ध
बान दूसरे दिना कर्ण के औरइ जादा भीषन भए
लड़न युधिष्ठिर लगे कर्ण सें, और भौत घायल हो गए (६७)
देख भीम खौं ताव आ गओ , लगे कर्ण से युद्ध करन
मूर्छित करो कर्ण खौं , फिर जाकें औरन सें लगे लड़न (६८)
तबइँ दुसासन दिखा परो , तौ बाए भीम नें ललकारो
अपनी भारी गदा फेंक दुस्सासन के ऊपर डारो (६९)
दुसासन खौं वध
धक्का लगौ गदा कौ , गिरो दुसासन रथ सें दूरी पै
तुरत उचक कें भीम चड़ गसे दुसासन की छाती पै (७०)
दबा पाँव सें गरौ चीर तरवार सें दये छाती खौं
देखत रए कर्ण दुर्योधन , पूरौ करे भीम प्रन खौं (७१)
कर्ण पुत्र वृषसेन क्रोध सें भरो भीम पै झपट परो
चतुराई सें बानें घायल अर्जुन खौं , भीम खौं करो (७२)
तब अर्जुन नें चार बान सें हाँत , मूड़ काटे ऊके
देख पुत्र कौ अंत कँप गए अंग अंग कर्ण जू के (७३)
अर्जुन और कर्ण कौ युद्ध
ज्वालामुखी क्रोध कौ फूटो टूट परे वे अर्जुन पै
बानन की बरसात देर तक भई एक दूसरे पै (७४)
अग्निबान अर्जुन कौ नष्ट कर्ण ने वरुणास्त्र सें करो
ऐन्द्रास्त्र सें अर्जुन नष्ट कर्ण कौ भार्गवास्त्र करो (७५)
वीर कर्ण नें एक बान सें धनुष काट अर्जुन कौ दओ
अर्जुन नें दूसरौ उठा लओ , कर्ण उयै भी काट दओ (७६)
ऐसौ ग्यारा बार भओ तौ गुस्सा फूटो अर्जुन कौ
बानन की बौछारन सें रथ ढाँक दओ ऊ दुस्मन कौ (७७)
तब चलाओ नागास्त्र कर्ण साँप के भयंकर मौ बारौ
चलो अस्त्र आगी उगलत , बिजली जैसी लकीर वारौ (७८)
ऊ कौ कौनउ काट नईं , एकदम अचूक होत वौ अस्त्र 
आउत गरे पाई अर्जुन के देख लओ कृष्ण जू ने बौ अस्त्र (७९)
तुरत कृष्ण ने दबा जोर सें रथ खौं नैचें नवा दओ 
मूड़ बच गओ अर्जुन कौ , अस्त्र के मुकुट भर गिरा दओ (८०)

युद्ध होत रओ , चका कर्ण के रथ कौ धरती में धँस गओ
बाए उठाने कर्ण उतरकें रथ सें धरती पै आ गओ (८१)
धनुष बान छोड़ कें उठाउन चका लगो दोउ हाँतन सें
तब अर्जुन सें कहे कृष्ण तुम अबइँ इयै मारे झट सें (८२)
अर्जुन बोले बार निहत्थे पै करवौ नइँ युद्ध नियम ,
बोले कृष्ण " निहत्थो अभिमन्यु मारो कौन सौ नियम (८३)
कौन नियम सें भरी सभा में चीर हरन कृष्णा कौ भओ
कृष्णा रोउत रई ती , तब जौ धूर्त ठठाकें हँसत रओ (८४)
छल सें पाँसे खेलत कपटी सकुनी मानो कौन नियम ?
सुनो , नियम जो नईं मानत , ऊके लानें कायको नियम ? (८५)
तब अर्जुन नें एक भयंकर बान कर्ण पै चला दओ
सरसरात बौ बान कर्ण कौ मूड़ काट कें गिरा दओ (८६)
भओ कर्ण कौ वध तौ दुर्योधन भीतर व्याकुल हो गओ
जो अर्जुन खौं मार सकत तो , खुद अर्जुन सें मारो गओ (८७)
दुर्योधन की मानो टूटी कमर , न टूटो हठ ऊकौ
लड़ौं साँस आखिरी तक मैं , धरम न छोड़ौं छत्रिय कौ (८८)
अठारएँ दिन कौ युद्ध
कर्ण मरे पै दुर्योधन नें सैनापति सल्य खौं करो
और सगे भानेजन की सैना पै हमला सल्य करो (८९)
युद्ध कौ अठारह दिना हतो , नृप सल्य पराक्रम दरसाए
उतै युधिष्ठिर उनके ऊपर बान वेग सें बरसाए (९०)
युधिष्ठिर के हाँतन सल्य कौ वध
लड़े देर तक सल्य युधिष्ठिर , हीर नईं मानो कोऊ
देख युधिष्ठिर कौ विक्रम अचरज में पर गए सब कोऊ (९१)
जो अब लौं सांत उदार रओ , बौ दरसाओ सूरमाई
उनकौ भीषन रूप देखकें कौरव सेना घबड़ाई (९२)
गुल्ली एक , नोंक पै हीरा जड़ी जोर सें घाल दई
घुसी सल्य की छाती में , निकार लै बाके प्रान गई (९३)
सौ में सें अट्ठानवे मर चुकेते अब लौं कौरव भैया
मार भीम ने दओ सुदरसन नाव कौ कौरव भइया (९४)
अब दुर्योधन पूत अकेलौ धृतराष्ट्र कौ बचो रै गओ
और बचो रओ दासी पुत्र युयुत्सु , पाण्डव सँग जो रओ (९५)
तब ऊ सैना के सेनापति मामा सकुनि बनाए गये
उनसें दो दो हाँत करन तब सम्मुख आ सहदेव गये (९६)
सकुनि कौ अंत
सहदेव पै सकुनि नें भाला एक फेंक जोर सें दओ
माथे पै सहदेव के लगो , ऊनें रकत निकार दओ (९७)
तब सहदेव क्रोध सें भर कें 'क्षुर' नाव कौ बान मारे
बना निसान गरे खौं मूड़ सकुनि कौ तुरत काट डारे (९८)
मारौ गओ सकुनि तौ कौरव सैना में भगदड़ मच गई
तितर बितर भइ पूरी सैना , युद्धभूमि खाली हो गई (९९)
चार जनें बाकी बच रए अब दुर्योधन और कृतवर्मा
कुलगुरु कृपाचार्य और द्रोण कौ पुत्र अश्वत्थामा (१००)
दुर्योधन ने मैदान छोड़ो 
अपनी भारी हानि देख दुर्योधन को दुःख भौत भओ
तपन लगो सरीर ऊकौ, जाकें तलाब जल में दुक गओ (१०१) 
जान गए जा बात पाण्डव तुरत पौंच वे गए उतै 
दुर्योधन खौं टेर कहे "तुम काये आकें ढुके इतै" (१०२) 
दुर्योधन बाहर निकरे , बोले नइँ ढुके इतै आ हम 
तन मन भौत हमाए तप रए , ठंडौ करवे आये हम (१०३)
 हमें नईं कायर जानो , अब एक एक से लड़हैं हम 
आओ एक एक करकें , तुम सबकको लड़कें मारें हम (१०४)
भीम - दर्योधन कौ गदा युद्ध 
भीम तुरंत गदा लै झपटे , गदा उठा लओ दुर्योधन 
बलदाऊ के दोउ गदाधर चेला तुरतइँ लगे लड़न (१०५)
लड़त लड़त भइ भौत देर पै मानी नईं कोऊ नें हार  
दोऊ गदाधर बराबरी के , करत रए आपस में बार (१०६)
तब अर्जुन सें बोले कृष्ण "बताओ  भीम खौं वौ मारै 
अपनी गदा कमर के नैचें , ऊकी जाँघ टोर डारै" (१०७)
अर्जुन अपनी बाईं जाँघ पै ताल ठोक संकेत करे 
सोइ भीम ऊकी बाईं जाँघ पै गदा को बार करे (१०८)
दुर्योधन की हार 
टूट जाँघ गइ दुर्योधन की , तुरत गिर परो धरती पै  
ठाँडौ रै नइँ सको , रै गओ उतइँ बैठकेँ धरती पै (१०९)
ओइ दसा में दुर्योधन खौं छोड़ पाण्डव चले गये  
तड़फावे खौं नइँ मारो , वे अपनौ मौ फेर कें गये (११०)
दुर्योधन के धरती पै गिरतइँ हो गओ संग्राम ख़तम 
तौऊ ऊकौ बैरभाव नइँ गओ , भई नइँ जरन खतम (१११)
अश्वत्थामा और बदले की आग 
युद्ध ख़तम हो गओ , क्रोध अश्वत्थामा कौ नईं भओ 
जितै डरेते दुर्योधन वौ उनसें कहवे उतै गओ       (११२)
बोलो "हे राजा! बदलौ अवश्य मैं पाण्डव सें लैहौं 
आप आग्या देओ तौ उनकौ विनास मैं कर दैहौं (११३)
दुर्योधन नें बाके ऊपर जल छिड़को प्रसन्न होकें 
बोले " तुम अब हौ सैनापति , उनखौं नष्ट करो जाकें (११४)
कृपाचार्य , कृतवर्मा खौं अश्वत्थामा नें संग लओ 
और पाण्डव के डेरन में वौ अधराते चलो गओ (११५)
दोउ जनें बाहर ठाँड़े रए जीसें कोऊ भगन न पाय  
भगन लगे तौ कृतवर्मा , कृप के हाँतन सें मारो जाय  (११६)
अश्वत्थामा पैलें धृष्टद्युम्न के तंबू में घुस गओ 
बाको गरो धनुष डोरी सें कस सोउत में मार दिओ (११७)
युद्ध ख़तम जानकेँ सब जनें सो रएते निरभयता सें 
अश्वत्थामा नें उन सब खौं  मार दओ निरदयता सें (११८)
कृपाचार्य तब उनके डेरा भेंट आग की चड़ा दये 
फिर तीनउँ जन मिलकें रातइ में दुर्योधन पास गये (११९)
दुर्योधन कौ अंत 
अश्वत्थामा बोलो " राजा सुनकेँ खुस हो जाओ तुम 
पूरी पूरी पाण्डव सैना कौ विनास कर आये हम      (१२०)
सुनकेँ सांति पाओ दुर्योधन , जरत करेजौ भओ ठंडौ 
और आखिरी सांस छोड़ दइ , तन ऊकौ हो गओ ठंडौ (१२१)
कुल दस जन बचे रै गये 
अश्वत्थामा की दुष्टइ सें बचे सात जन रै गएते 
श्रीकृष्ण , पाँचउ पाण्डव , सात्यिकी समेत जिअत रएते (१२२)
वे तौ हते दूसरे डेरा में अपनी सैना सें दूर 
अश्वत्थामा नें समझी हमने बदलौ लै लओ भरपूर (१२३)
जिनकें संगै कृष्ण हौंय उनकौ कैसें हो नास सकत 
ऐसौ कोऊ नईं धरती पै जो ऐसन खौं मार सकत (१२४)
कौरव दल के तीन आदमी , पाण्डव दल के सात बचे 
कैऊ अक्षौहिणी नष्ट भईं , अब केवल दस जनें बचे (१२५)
सुनकेँ अत्याचार और कायरपन अश्वत्थामा कौ 
ऊके ऐसे नीच करम सें तड़फो हियो युधिष्ठिर कौ (१२६)
***

संस्कृत में नईं पढ़ो, हिंदी में नईं पढ़ो तो लो
बुंदेली में पढ़ लो महाभारत
- मोहन शशि
*
"साँच खों आँच का" पे जा बात सोई मन सें निकारें नईं निकरे के ए कलजुग में "साँची खों फाँसी" की दसा देखत करेजा धक् सें रै जात। बे दिन सोई लद गए जब 'बातहिं हाथी पाइए, बातहिं हाथी पांव' को डंका पिटत रओ। तुम लगे रओ 'कर्म खों धर्म मानकें', लगात रओ समंदर में गहरे-गहरे गोता, खोज-खोजकें लात रओ एक सें बढ़ कें एक मोेती, पै जा जान लो और मान लो कि आपके मोती रहे आएं आपखों अनमोल, ए तिकड़मबाजी के बजार में नईं लगने उनको कोई मोल। तमगा और इनाम उनके नाम जौन की अच्छी-खासी हे पहचान, भलई कछू लिखो होय के कोई गरीब साहित्यकार पे 'पेट की आगी बुझाबे' के एहसान खों लाद 'गाँव तोरो, नांव मोरो कर लओ होय। 'कऊँ ईगी बरे, काऊ को चूल्हा सदे, जाए भाड़ में, जे धुन के धुनी, आदमी कछू अलगई किसम के होत, हमीर सो हठ ठानो तो फिर नई मानी, काऊ की नई मानी। ऐंसई में से एक हैं अपने भैया डॉ. मुरारीलाल जी खरे। जा जान लो के बुंदेली पे मनसा वाचा कर्मणा से समर्पित, प्रान दए पड़े।

भैया!'हात कंगन खों आरसी का' खुदई देख लो। २०१३ में बुंदेली रामायण, २०१५ में 'शरशैया पर भीष्म पितामह' और बुंदेली में और भौत सों काम करके बी नें थके, नें रुके और धर पटको बुंदेली में संछिप्त महाभारत काव्य 'हस्तिनापुर की बिथा-कथा।'
डॉ.एम.एल.खरे नें ९ अध्याय में रचो है 'हस्तिनापुर की बिथा कथा।' पैले अध्याय में हस्तिनापुर के राजबंस को परिचय कुरुबंसी महाराज सांतनु से शुरू करके महाभारत के युद्ध के बाद तक के वर्णन में साहित्य के खरे हस्ताक्छर डॉ. खरे ने एक-एक पद में ऐसे ऐसे शब्द चित्र उकेरे हैं के पढ़बे के साथई साथ एक-एक दृष्य आंखन में उतरत जात और लगत कि सिनेमा घर में बैठे महाभारत आय देख रअ। कवि जी नें कही हे-
"गरब करतते अपने बल को जो, वे रण में मर-खप गए
वेद व्यास आँखन देखी जा , बिथा कथा लिखकें धर गए"

सांतनु-गंगा मिलन, देवव्रत (भीष्म) जन्म, सत्यवती-सान्तनु ब्याव, चित्रांगद-विचित्रवीर्य जन्म, कासीराज की कन्याओं अंबा, अंबिका, अंबालिका को हरण, अंबिका और अंबालिका के छेत्रज पुत्र धृतराष्ट्र और पाण्डु जनमें, धृतराष्ट्र-गांधारी और पाण्डु-कुंती को ब्याव, कर्ण के जन्म की कथा, माद्री-पाण्डु ब्याव, सौ और पाँच को जनम, पाण्डु मरण और फिर दुर्योधन-शकुनि के षड़यंत्र पे षड़यंत्र -
"भई मिसकौट सकुनि मामा, दुर्योधन, कर्ण, दुसासन में
जिअत जरा दए जाएँ पांडव, ठैरा लाख के भवन में"

कुंती के साथ पांडवों के मरबे को शोक मना दुर्योधन को युवराज के रूप में का भओ के फिर तो नईं धरे ओने धरती पे पाँव। उते पांडवों को बनों में भटकवे से लेके द्रौपदी स्वयंवर और राज के बटबारे को बरनन खरे जी ने ऐसो करो कि पढ़तई बनत। बटबारे में धृतराष्ट्र नें कौरवों खों सजो-सजाओ हस्तिनापुर तो 'एक पांत दो भांत' पांडवों खों ऊबड़-खाबड़ जंगल भरो खांडवप्रस्थ देवे के बरनन में कविवर डॉ. खरे जा बताबे में नई चूके कि धृतराष्ट्र ने पांडवों। पे दिखावटी प्रेंम दरसाओ -
"और युधिष्ठिर लें बोले दै रए तुमें हम आधो राज
चले खांडवप्रस्थ जाव तुम, करो उते अच्छे सें राज"

पांडवों पे कृष्ण कृपा, विश्वकर्मा द्वारा इंद्रप्रस्थ नगरी को अद्भुत निर्माण फिर राजसूय यग्य और दरवाजा से दुर्योधन को टकरावे पे -
"जो सब देखीती पांचाली, अपने छज्जे पे आकें
'अंधे को बेटा अंधा' जो कहकें हँसी ठिलठिलाकें"

जा जान लो के महायुद्ध के बीजा इतई पर गए। चौथो अध्याय 'छल को खेल और पांडव बनबास' अब जा दान लो कि कहतई नई बनत। ऐसो सजीव बरनन के का कहिए। ऐमे द्रौपदी चीरहरन पढ़त गुस्सा आत तो कई जग्घा तरैंया लो भर आत। उते त्रेता में सीता मैया संगे और इते द्वापर में द्रौपती संगे जो सब नें होतो तो सायत कलजुग में बहुओं-बिटिओं के साथ और अत्याचार के रोज-रोज, नए-नए कलंक नें लगते, हर एक निर्भया निर्भय रहकें अपनी जिंदगी की नैया खेती। पे विधि के विधान की बलिहारी, बेटा से बेटी भली होबे पे बी अत्याचार की सिकार हो रई हे नारी।
पांचवें अध्याय में पांडवों के अग्यातवास में कीचक वध वरनन पढ़तई बनत। फिर का खूब घालो उत्तरा अभिमन्यु रो ब्याव। अग्सातवास खतम होवे पे सोच-विचार --
"नई मानें दुर्सोधन तो हम करें युद्ध की तैयारी
काम सांति सें निकर जाए तो काए होय मारामारी"

दुर्योधन तो दुर्योधन, स्वार्थी, हठी, घमंडी। ओने तो दो टूक और साफ - साफ कही, ओहे कवि खरे जी ने अपने बुंदेली बोलन में कछू ई भाँत ढालो -
"उत्तर मिलो पांच गांव की बात भूल पांडव जाएं
बिना युद्ध हम भूमि सुई की नोंक बराबर ना दै पाएं"

आनंदकंद सच्चिदानंद भगवान श्रीकृष्णचंद्र ने बहुतई कोसस करी के युद्ध टल जावे पे दुर्योधन टस से मस नें भओ और तब पाण्डव शिविर में लौट कें किशन जू नें कही -
"कृष्ण गए उपलंब्य ओर बोले दुर्योधन हे अड़ियल
करवाओ सेनाएं कूच सब जतन सांति के भए असफल"

कवि ने युद्ध की तैयारियों को जो बरनन करो वो तो पढ़बे जोग हेई, से सातवे अध्याय में पितामह की अगुआई में महायुद्ध (भाग १) ओर आठवें अध्याय में आखिरी आठ दिन महायुद्ध (भाग २) रो बखान पढ़त उके तो महाराद धृतराष्ट्र खों संजय जी सुनात रए जेहे आदिकवि वेदव्यास नें बखानो ओर प्रथम पूज्य भगवान गनेस जू ने लिखो , पे इते बुंदेली में ओ महायुद्ध पे जब डॉ. एम. एल. खरे ने बुंदेली में कलम चलाई तो कहे बिना परे ने रहाई के ओ महायुद्ध की तिल - तिल की घटना पढ़त - पढ़त आंखन के दोरन सें दिल में समाई । महायुद्ध को बड़ो सटीक हरनन करो हे कवि डॉ. खरे नें । कछू ऐंसो के पढ़तई बनत।
महायुद्ध के बाद नौवें अध्याय में अश्वत्थामा की घनघोर दुष्टता, सजा और श्राप को बरनन सोई नोंनो भओ। फिर पांडवों को हस्तिनापुर आवो, युधिष्ठिर को अनमनोयन, पितामह भीष्म से ग्यान, अश्वमेध, धृतराष्ट्र को गांधारी, कुंती, संजय ओर विदुर संग बनगमन को बरनन करत कविजी नें का खूब कही -
"जी पै कृपा कृष्ण की होय, बाको अहित कभऊँ नईं होत
दुख के दिन कट जात ओर अंत में जै सच्चे की होत"

समर्थ हस्ताक्षर कविवर डॉ. मुरारीलाल खरे ने बुंदेली में 'हस्तिनापुर की बिथा कथा' बड़ी लगन, निष्ठा और अध्ययन मनन चिंतन के साथ बड़ी मेंहनत सें लिखी। बुंदेली बोली - बानी के प्रेमिन के साथ हुंदेलखंड पे जे उनको जो एक बड़ो और सराहनीय उपकार है । ए किताब खें उठाके जो पढ़वो सुरू करहे वो ५ + १०३४ पद जब पूरे पढ़ लेहे तबई दम लेहे। डूबके पढ़हे तो ओहे ऐसो लगहे जेंसे बो पढ़बे के साथ - साथ ओ घटनाक्रम सें साक्षात्कार कर रहो।

कवि नें 'अपनी बात' में खुदई कही कि उन्हें 'गागर में सागर' भरबे के लानें कई प्रसंग छोड़नें पड़े तो हमें सोई बिस्तार सें बचबे कई प्रसंगन सें मोह त्यागनें पड़ो। बुंदेलों खों बुंदेली में संछेप में महाभारत सहज में उपलब्ध कराबे के लानें डॉ. एम. एल. खरे जी खों बहोतई बहोत बधाइयां तथा उनके स्वस्थ सुखी समृद्ध यशस्वी मंगल भविष्य के लानें मंगलमय सें अनगिनत मंगल कामनाएं। एक शाश्वत, सार्थक ओर अमूल्य रचना के प्रकासन में सहयोग करने ओर बुंदेली में भूमिका लिखाबे के लानें प्यारे भैया आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' खों साधुवाद।
वन्दे।
मोहन शशि
कवि, पत्रकार, सूत्रधार मिलन
चलभाष ९४२४६ ५८९१९

पुरोवाक

'हस्तिनापुर की बिथा कथा' बुंदेली काव्य माल का रत्न

 आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

संस्कृत से विकसित होनेवाली लोकभाषाओं में हिंदी का विशिष्ट स्थान है। हिंदी के दो प्रमुख भेद पूर्वी हिंदी और पश्चिमी हिंदी हैं। बुंदेली को भाषा वैज्ञानिकों ने पश्चिमी हिंदी में स्थान दिया है। विख्यात भाषाविद डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने अपनी पुस्तक 'ग्रामीण हिंदी' में बुंदेली पर बृज व बघेली पर अवधि का प्रभाव इंगित किया है। भाषायी भूगोल की दृष्टि से बुंदेली भाषी क्षेत्र को पाँच क्षेत्रों में वर्गीकृत किया जा सकता है। 

१. उत्तरी क्षेत्र (मुरैना, भिंड, ग्वालियर, आगरा मैनपुरी, दक्षिणी इटावा आदि) - यहाँ बुंदेली में बृज भाषा का मिश्रण सहज दृष्टव्य है। मुरैना, ग्वालियर व् दक्षिणी आगरा में बुंदेली का 'भदावरी' रूप प्रचलित है। मुरैना जिले की श्योपुर तहसील में राजस्थानी मिश्रित है। 

२. पूर्वी क्षेत्र - जालौन, हमीरपुर, पूर्वी छतरपुर, पन्ना, व् उत्तरी-पूर्वी जबलपुर इस क्षेत्र के अंतर्गत हैं। उत्तर-पश्चिमी हमीरपुर, दक्षिणी जालौन में बुंदेली का 'लौधांती' तथा पूर्वी जालौन में केन नदी के तटवर्ती भाग में 'कुंडरी', उत्तरी जालौन में यमुना नदी के किनारे 'तिरहारी', दक्षिण व दक्षिण-पश्चिम भाग में 'बनाफरी' तथा पूर्वी सीमावर्ती जालौन में (यमुना का दक्षिणी तट) 'निभट्टा' बोली जाती है। मध्य हमीरपुर तथा पश्चिमी जलावन में बुंदेली शुद्ध रूप में लोक व्यवहृत है। उत्तरी पन्ना में बुंदेली छतरपुर जिले की बुंदेली से तथा पश्चिमी पन्ना की बुंदली दमोह की बुंदेली से प्रभावित होने पर भी शुद्ध है किन्तु पूर्वी-दक्षिणी पन्ना में बुंदेली में बघेली मिश्रित बनाफरी है जो दक्षिणी हमीरपुर तक प्रचलित है। उत्तरी-पूर्वी जबलपुर की बुंदेली भी बघेली मिश्रित है। सिहोरा और पतन तहसील में बुंदेली-बघेली मिश्रित रूप लोक मान्य है। 

३. मध्य क्षेत्र - दतिया, छतरपुर, झाँसी, टीकमगढ़, विदिशा, सागर, दमोह ,जबलपुर, रायसेन, होशंगाबाद (हरदा व  सिवनी मालवा के अतिरिक्त) और नरसिंहपुर में भी शुद्ध बुंदेली बोली जाती है। कटनी-सिहोरा के आसपास के अंचल में बुंदेली-बघेली, गोंड़ी-हिंदी मिश्रित पचेली (पछेली) बोली जाती है।  

४. पश्चिमी क्षेत्र - मुरैना, श्योपुर, शिवपुरी, गुना जिलों के पश्चिमी भाग में बुंदेली और राजस्थानी तथा पश्चिमी सीहोर में बुंदेली हुए मालवी का मिश्रित रूप प्रयोग किया जाता है। होशंगाबाद में सिवनी मालवा में बुंदेली-मालवी मिश्रित तथा मध्य-उत्तर हरदा में बुंदेली-मालवी-निमाड़ी मिश्रित 'भवानी की बोली' का प्रयोग किया जाता है।  

५. दक्षिणी क्षेत्र - छिंदवाड़ा के उत्तरी (अमरवाड़ा तहसील) तथा पूर्वी (चौरई) में बुंदेली लगभग शुद्ध रूप में प्राप्य है। मध्य और दक्षिण छिंदवाड़ा व् दक्षिणी सिवनी में बुंदेली - मराठी का मिश्रित रूप दृष्टव्य है। छिंदवाड़ा-सिवनी के शेष भाग में बुंदेली का वर्चस्व है। 

'हस्तिनापुर की बिथा कथा' के रचनाकार डॉ. मुरारीलाल खरे का बचपन झाँसी, ललितपुर व् मऊरानीपुर-गरौठा में व्यतीत हुआ। यह क्षेत्र शुद्ध बुंदेली का क्षेत्र है। भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार दतिया, झाँसी, टीकमगढ़, मध्य -पश्चिम छतरपुर, विदिशा, सागर, दमोह, जबलपुर, नरसिंहपुर आदि शुद्ध बुंदेली के क्षेत्र हैं। जन जीवन में किसी भी अंचल में कोई भी भाषा पूरी तरह शुद्ध रूप से व्यवहार में नहीं लाई जाती। चिर काल से  हर घर में बहुएँ अपने मायके की भाषा (जिसमें उसके माता-पिता की भाषाओँ का मिश्रण होता है) लेकर आती हैं और उनकी संतति उनके मायके-ससुराल की भाषाओँ में पलती है। व्यापारी और नौकरीपेशा वर्ग भी भाषिक सम्मिश्रण में सहायक होता है। डॉ. खरे ने सेवाकाल का लम्बा समय भोपाल में बिताया किन्तु उनमें बुंदेली का संस्कार इतना प्रबल है कि वे बुंदेली रामायण (२०१३), शर शैया पर भीष्म (२०१५) तथा हस्तिनापुर की बिथा कथा (२०२०) में शुद्ध बुंदेली का प्रयोग कर सके हैं। यही नहीं "अपनी बात" में बुंदेली की विशेषताओं और वैविध्य पर भी उन्होंने प्रकाश डाला है। 

बुंदेली से कम परिचित पाठकों के लिए आधुनिक हिंदी में बुंदेली के सामान्य विशेषताओं का संकेतन उपयुक्त होगा - 

१. क्रिया के भविष्यकालिक रूप में 'गा, गे, गी'  के स्थान पर 'ए' या 'है' का प्रयोग - आ गया होगा = आ गओ हुइए, लिखेगा = लिखहै आदि। 
२. संज्ञावाचक बहुवचन में 'न' व 'ऐं' प्रत्यय जोड़ना - लड़कों = लड़कन, बेटियों = बिटियन, बहिनें = बैनें, गायें = गौएँ आदि। 
३. हकार लोप - रहता = रैत, रही = रई, किन्होंने = किन्नैं, करना = कन्ने, बहुत ही = भौतई, कहो = कओ, पहुँची = पौंची आदि।   
४. कठोर वर्ण का मृदु वर्ण में परिवर्तन - मोड़ = मोर, प्राण = प्रान, मर्म = मरम, शिक्षा = सिच्छा आदि।
५. अर्धाक्षर को पूर्ण करना - कर्ज = करजा, शर्म = सरम, नर्म = नरम आदि। 
६. अनुस्वर का बाहुल्य - आपने = आपनें,  उसने - ऊनें, कोई = कौनऊँ आदि।
७. कर्मकारक परसर्ग में 'कों' और 'खों' का प्रयोग - आप को = आप खौं, बहु को = बऊ कों आदि। 
८. करण कारक में 'से' के स्थान पर 'सें' - भाई से = भइया सें, सभी से = सबइ सें आदि। 
९. दो शब्दों का संयुक्त रूप - वैसे ही = वैसेई, कहती रही = कैतरई, हद ही कर दी = हद्दई कर दई आदि। 
१०. अकारान्त संज्ञा / विशेषणों का उच्चारण ओकारान्त - विवाह हुआ = ब्याओ गओ, प्यारा = प्यारो आदि। 
११. तृतीय पुरुष एकवचन सवनाम 'वह' के लिए 'बो', 'बौ', उऐ आदि का प्रयोग। 
१२. भूतकालीन ' था,थे, थी' के स्थान पर 'हतौ, हते, हती' का प्रयोग। 
ललितपुर की बुंदेली 
१. 'ई' प्रत्यय की बहुतायत - नहीं कही जाती - नईं कईं जात, जैसे की तैसी - जईं की तईं आदि। 
२. तृतीय पुरुष बहुवचन 'उन्होंने' का स्थानापन्न 'उननें' का प्रयोग आदरास्पद एकवचन में भी, उसने - उने, उसको - ऊखो या उनखौं। 

बुंदेली में काव्य परंपरा 

विक्रम संवत दसवीं के पूर्व से ही आंचलिक बोलिओं और भाषाओँ का विकास धार्मिक प्रवचनों, वार्ताओं, काव्य नाटक आदि के रूप में हो रहा था। कालिंजर के परमाल नरेश के भाट जगनिक कृत आल्हा (सं. १२३०), विष्णुदास कृत महाभारत, स्वर्गारोहण और रामकथा, माणिक कवी रचित बेताल पच्चीसी, थेघनाथ कृत गीत पद्यानुवाद, छीहल अग्रवाल रचित प्रद्युम्न चरित (वि. १४११), हरिचंद पुराण (वि. १४५३), डूंगर बावनी (वि. १५३८) आदि वीरगाथा काल की प्रमुख कृतियाँ है। भक्ति काल में बलभद्र मिश्र (वि. १६००) रचित शिखनख, भगवत भाष्य, बलभद्री व्याकरण, हनुमन्नाटक टीका, गोवर्धन सतसई, हरिराम व्यास (वि. १५६७) रचित रागमाला, रस के पद, सिद्धांत के पद, चौरासी, वाणी, रसपंचाध्यायी, कृपाराम (वि. १५७०) कृत हित तरंगिणी, केशवदास (सं. १६१२) रचित रामचंद्रिका, कविप्रिया, रसिकप्रिया, विज्ञानं गीता, वीरसिंह जू देव चरित, जहाँगीर जस चंद्रिका, रतन बावनी, नखशिख, रामलंकृत मंजरी, सुवंशराय कायस्थ (वि. १६८०) रचित कायस्थ सागर उल्लेखनीय हैं। रीति काल में अक्षर अनन्य (सं. १७१०) की २८ कृतियाँ, बख्शी हंसराज कृत सनेह सागर, विरह विलास, मेहराज चरित, मंडन (संवत १७१६) रचित रस रत्नावली, रस विलास, जनक पचीसी, जानकी जू को ब्याह, नैन पचासा, 
पद्माकर (सं. १८१०) कृत हिम्मत बहादुर विरुदावली, जगत विनोद, पद्माभरण, आलिजाह प्रकाश, प्रबोध पचासा, गंगा लहरी, ईसुरी (चैत्र शुक्ल १० सं. १८९८  - अगहन बड़ी ७ सं. १९६६) कृत फागें, गंगाधर व्यास (सं १८९९) रचित नीति मंजरी, विश्वनाथ पताका, व्यंग्य पचासा, गो माहात्म्य, भरथरी, ख्यालीराम रचित फागें अविस्मरणीय हैं। 
आधुनिक काल में बुंदेलखंड के लाला भगवान दीन, मैथिलीशरण गुप्त जैसे अनेक कलमकारों ने हिंदी को समृद्ध किया। ठेठ बुंदेली का ठाठ जीवित रखने वालों में हनुमत्पताका, छविरत्नम, गंगा गुण मंजरी, ऋतु राजीव, कवि कल्पद्रुम, रसिक विनोद, जुगल सहस्त्रनाम के कवि कालीकवि (सं १९१०), हनुमान पच्चीसी व् रानी झाँसी का रायसो के रचयिता चतुरेश नीखरा, लक्ष्मीबाई रासोकार मदन मोहन द्विवेदी 'मदनेश' (सं १९२४)-, मधुकर शाह, भालूराम व्यालूराम, चित्रांगदा, गोकुलदास, सोहराब रुस्तम, हमला सत्ता के कवि मुंशी अजमेरी (सं १९३९), दीन का ढाबा, व्यंग्य विनोद, वीर वधु, वीर बाला, गोरी बीबी, दीन के आँसू, सुर सुधा निधि के कवि नाथूराम माहौर (सं १९४१), सरसी, भेंट, साधना, लौलइयाँ, ओरछा दर्शन, गीता दर्शन, लोक गायनी, बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य, उदय और विकास, मानवती का बलिदान के रचयिता रामचरण हयारण 'मित्र' (सं १९४७), बुंदेलखंडी फाग साहित्य, शिशु, सप्तपदी, मंगल प्रभात, ब्रह्मानंद तरंगिनि, तुलसी, भक्तमाला के रचनाकार श्याम सुंदर 'बादल' (संवत १९६४), हंसी का फव्वारा, चटनी के चुटीले कवि चतुर्भुज शर्मा 'चतुरेश' (सं १९६६), चरवाहा, आदमी के सींग, एटमिक एल्बम, कागभुसुंडि गरुड़ से बोले के कवि जीवनलाल वर्मा विद्रोही (२९-४-१९१५), अथाई की बातें, क्षत्रिय वंशावली, आधुनिक कीर्तन के कृतिकार भगवान सिंह गौड़ (संवत १९७२), दीपशिखा, बुंदेली शब्द संपदा, बुंदेली शब्द मणि माला, बुंदेली आने अटके, कोमल कमल, बुंदेली भाषा का व्याकरण, श्रुति लेख केशव काव्य कामिनी, बुंदेली भाषा साहित्य और संस्कृति, चतुरंगिणी के कृतिकार कन्हैया लाल 'कलश' (सं १९७६), जीवन के कर्म, आग पानी, विजयादशमी, सांझ सकारे के कवि भैयालाल व्यास (५-८-१९२०), सुधन्वा, वसुंधरा, वासुकि, वभृवाहन, देवयानी नारायणी, अनास्था, अँधा अँधेरा के महाकवि वासुदेव प्रसाद खरे (सं १९७९), नई दिशा, नए कदम, अमृत बरस गया, अपरिणीता के रचनाकार फूलचंद मधुर (६-१०-१९२२), सिसकता कण, भोर के साथ, मति के बोल, एक नदी कंठी सी, नीला बिरछा, टूटे हुए लोगों के नगर में, जिंदगी चंदन बोटी है, धुन की रुई पै पौआ, षड्यंत्रों के हाथ होते हैं कई हजार के कवि माधव शुक्ल मनोज, पहला चरण, धड़कनों के आसपास, आदमी होने का दुःख, नागफनी के कांटे, खूब भरो है मेला के कवि बटुक चतुर्वेदी (४-५-१९३३)  बुंदेली श्रृंगार के रचयिता ओमप्रकाश सक्सेना 'प्रकाश' (२३-२-१९३३), पानी पानीदार है, सर्वनाम अव्यय और करक चिन्ह, दतिया जिले में पांडुलिपियों का सर्वेक्षण लिखकर ख्याति प्राप्त सीताकिशोर खरे (३-१२-१९३५), २५ ग्रंथों के रचनाकार गंगा प्रसाद बरसैयाँ के साथ गणनीय हैं बुंदेली रामायण (२०१३), शर शैया पर भीष्म (२०१५) तथा हस्तिनापुर की बिथा कथा (२०२०) के कृतिकार डॉ. मुरारीलाल खरे (१९३२)।  
      
'हस्तिनापुर की बिथा कथा' की कथा मौलिक न होते हुए भी मौलिक है। चिर परिचित कथा की पुनर्प्रस्तुति करते समय सबसे बड़ा खतरा यह है कि पाठक को घटनाक्रम व अंत पूर्वज्ञात होने से रोचकता व उत्सुकता के भाव में पठनीयता न रहे। डॉ. खरे की सफलता यह है कि वे सर्व श्रुत कथा के प्रस्तुतीकरण में औत्सुक्य बनाये रख सके हैं। उन्होंने पारम्परिक कथा ज्यों की त्यों कहने का लोभ संवरण कर, चयनित घटना क्रम की प्रस्तुति नयी घटना की तरह की है। इससे अनावश्यक विस्तार घटने के साथ, गौड़ कथाएँ  ध्यान नहीं भटका सकी हैं। 

विश्लेषण 

घटना के पूर्व या पश्चात् में महाकवि ने पात्रों के क्रिया कलाप पर अपना अभिमत भी इंगित किया है। द्रोणाचार्य -प्रसंग में वे लिखते हैं-

द्रोण चाउतते उनकौ बेटा अर्जुन सें बड़कें जानें 
सो अर्जुन खौं पौंचाउतते पानी ल्याबे के लाने 

कुछ  ग्रंथों में धृष्टद्युम्न द्वारा द्रोणाचार्य वध खड्ग के वार से वर्णित है किंतु डॉ. खरे ने तलवार के वार बताया है। 

दिशा दर्शन 

यत्र - तत्र नीतिगत संकेत इस तरह निबद्ध हैं कि कथा प्रवाह में बाधक हुए बिना पाठकों और वर्तमान देशनायकों का मार्गदर्शन कर सकें -
घर में आग लगाई, घर में बरत दिया की भड़की लौ 
सत्यानास देस का भओ तो , नई बंस कौ भओ भलो 

सत्ता के लिए जनमत को भ्रमित करनेवाले राजनेता इससे सबक ले सकते हैं कि देशहित पर स्वहित या दलहित को वरीयता देने का परिणाम अशुभ ही नहीं आत्मघाती भी होगा। 

अपने सुख हेतु अनीति करने का परिणाम सुखद नहीं होता।  अप्राकृतिक त्याग से व्यक्ति को भले ही कीर्ति मिले, अन्यों को दुष्परिणाम ही भोगना होता है - 

महात्याग से नाव भीष्म कौ जग में बहुत बड़ो हो गओ
पर कुल की परंपरा टूटी , बीज अनीति कौ पर गओ

आगें जाके अंकुर फूटे, बड़ अनीति विष बेल बनी
जीसें कुल में तनातनी भइ , भइयन बीच लड़ाई ठनी

गुणों के स्थान पर जन्म को वरीयता देना भी महाभारत का एक कारण था। वर्तमान में जन्मना जातिगत आरक्षण तथा ब्राह्मणों द्वारा श्रेष्ठता का दंभ प्रकारांतर से सामाजिक द्वेष के लिए जिम्मेदार हैं।

बिदुर भले में खून छत्रिय कौ रत्तीभर हटी नईं
दासी पुत्र भये सें मानो गओ गद्दी के योग्य नईं

नारी की अवहेलना समाज के पतन का कारण बनती है। यह सत्य खरे जी ने अम्बा-अम्बिका-अंबालिका प्रसंग में उठाया है-

जा अनीति जेठी अम्बा खौं बिलकुल नइँ स्वीकार भई
.
लेकिन ई के लानें मनसा बहुअन की पूँछी नइँ गइ
आज्ञा नहीं टार पाईं वे , एक अनीति और हो गइ

द्रौपदी के प्रसंग में भी पाँच पतियों की भार्या बनाते समय उसकी मर्जी न पूछी जाना, द्यूत क्रीड़ा में बिना सहमति के उसे दाँव पर लगाना भी महाकवि को न्यायोचित प्रतीत नहीं होता। वे अपना अभिमत पाठक के मन-मंथन हेतु बेहिचक प्रस्तुत करते हियँ किंतु इस तरह कि वह न तो शुष्क उपदेश हो, न कथा विकास में बाधक बने।

इस कृति में डॉ. खरे ने रसों और अलंकारों का प्रभावी प्रयोग किया है किन्तु प्राय: केवल एक प्रकार का समांती दोपदिक छंद किया गया है जिसका वर्ण  या मात्रा भार कथ्य  आवश्यक -प्रवाह अनुसार घटता-बढ़ता है। डॉ. खरे ने छंद प्रयोग में वाचिक परंपरा का अनुसरण किया है। पारंपरिक मानकों अनुसार इस कृति को 'महाकाव्य' कहने में भले ही संकीर्णतावादी संकोच करें किंतु इस प्रबंध काव्य के प्रणयन हेतु डॉ. खरे के 'महाकवित्व' पर प्रश्न नहीं लगाया जा सकता। सारत: देश-काल-परिस्थितियों की आवश्यकतानुसार उपयुक्त 'हस्तिनापुर की बिथा कथा' बुंदेली काव्य माल का रत्न का प्रणयन करने हेतु महाकवि मुरारीलाल खरे निस्संदेह साधुवाद के पात्र हैं।                                       
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४ ईमेल salil.sanjiv@gmail.com 

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