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शनिवार, 8 फ़रवरी 2020

उपन्यास समीक्षा : दूसरा कैनवास

उपन्यास समीक्षा : दूसरा कैनवास
जीवन में भूमिकाएँ बदलने से बदलता है कैनवास
सुरेंद्र सिंह पवार
[दूसरा केनवास, उपन्यास, प्रथम संस्करण २०१०, पृष्ठ ९६, सजिल्द, बहुरंगी जैकेट सहित, मूल्य-२००रु।, पाथेय प्रकाशन, जबलपुर]
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‘दूसरा केनवास’ कवियित्री एवं कथा लेखिका डॉ राजलक्ष्मी शिवहरे का तीसरा उपन्यास है। वैसे साहित्य व कला के क्षेत्र में किसी सिध्दांत या अवधारणा की समाज के सन्दर्भ में स्थिति, वैचारिक परिदृश्य को केनवास कहते हैं. परन्तु, उपन्यास-लेखिका ने केनवास का शाब्दिक अर्थ वह सफेद कपडा या पटल लिया है जिस पर उनकी नायिका (सौम्या) चित्र बनाती है, रंग भरती है। हाँ! यह अवश्य है कि उस नायिका के जीवन की परिस्थितियाँ बदलने से भूमिकाएँ बदलती दिखाई गयीं हैं और बदला है, केनवास। तलाक (सम्बन्ध-विच्छेद) के बाद निराश-हताश सौम्या ने परिस्थितियों के अनुसार जब साहस भरा कदम उठाया तभी वह एक सफल जीवन जी सकी। एक तरह से जीवन के अलग-अलग सोपानों से गुजरती आज की स्त्री के अथक संघर्ष और अदम्य साहस की कहानी है यह उपन्यास-गाथा।

यह एक सामाजिक उपन्यास है, जिसमें समाज की चिर-लांछिता, चिर-वंचिता, चिर-वंदनी नारी को नई दीप्त के साथ हमारे सामने प्रस्तुत किया है। इसमें आदर्शोंन्मुखी यथार्थवाद नहीं है, बल्कि स्थान, समय और स्थितियों के अनुरूप जो वातावरण निर्मित हुआ या होता जा रहा है, उसकी खुली चर्चा है। सौम्या और मोहन उपन्यास के केंद्र में हैं परन्तु अन्य पात्र यथा; अमित, डाली, नीलिमा, पीयूष, सौरभ, आंटी और अंकल की भूमिकाएँ भी अप्रासंगिक नहीं हैं। उपन्यास में फ्लेश बैक का प्रभावी-प्रयोग है, बिलकुल बड़े या छोटे परदे पर चलती मसाला फिल्मों या सास-बहू सीरियल्स की तरह। आज के दौर की घटनाओं तथा उसमें जीते-जागते लोगों की पसंद/ नापसंद का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है। सौम्या और अमित का तलाक, डाली से अमित और सौम्या का मोहन से विवाह, कम उम्र के पीयूष की नीलिमा से शादी, अंकल और आंटी के रहस्यमयी सम्बन्ध, अमित की मृत्यु के बाद डाली का अपने विधुर बॉस से पुनर्विवाह, अपाहिज मोहन के प्रति सौम्या का समर्पण सभी कुछ तो है इस उपन्यास में। डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे जागरूक उपन्यासकार हैं। वे न केवल हृदयधर्मी हैं, न बुध्दिविलासी। उन्हें समाज की समस्याओं को हल करने की चिंता है। अपने उपन्यास में उन्होंने परम्परागत मूल्यों को कुछ सीमा तक अस्वीकार किया है, परन्तु जो नये मूल्य उपस्थित किये हैं वे भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। अत: आश्वस्ति है कि ध्वंस से निर्माण की सम्भावनाओं को बल मिलता है---जैसा डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ने प्रस्तावना में लिखा है। कुल मिलाकर इस ९६ पृष्ठीय उपन्यासिका में जीवन दर्शन के सम्बन्ध में निर्व्दंद भाव से तर्क-वितर्क हैं,सौन्दर्य और कला की अपेक्षा उपयोगितावाद के तराजू पर तुलते मानव-मूल्य है।

कहानी के अन्दर गुँथी हुई कहानियों से इस लघु-उपन्यास का ताना-बाना रचा गया है, ठीक किस्सागोई की शैली में, जहाँ कहानियाँ कभी ख़त्म नहीं होतीं। हर पात्र की अपनी कहानी है, हर कहानी के अपने ट्विस्ट और टर्न हैं, परन्तु वे सभी नायिका सौम्या के इर्द-गिर्द घूमती है। उपन्यास की भाषा घरेलू है, लम्बे और ऊब भरे संभाषणों का नितान्त अभाव है। पात्र नपे-तुले शब्दों में
अपनी बात कहते हैं—सटीक और प्रभावशाली, जैसे
“और मौसी ने जब मोहन को खाना खिलाया पूरे बारह बज चुके थे. इतना बढ़िया खाना और इतने प्यार से खिलाती हो तभी तुम्हारी बिटिया बार-बार यहाँ चली आती है''।

‘नहीं’, बस इस बार गहरी नजर से उन्होंने मोहन को देखा था’, जब ससुराल में पूरी सुरक्षा नहीं मिलती तभी उसे मायका याद आता है’।”

कुछ नीति/सूत्र वाक्य इतने सुन्दर हैं कि उनमें मन डूब जाता है, यथा-

”कैसा चक्रव्यूह है जीवन, जिसमें व्यक्ति अभिमन्यु जैसा प्रवेश तो कर जाता है पर उससे निकल नहीं पाता।”

“हम कैसे कह दें कि बिटिया मायके में चार दिन ही भली होती है।”

“समय स्वयं एक वैद्य है पर कुछ घाव ऐसे होते हैं जो धीरे-धीरे भर भले जाएँ पर याद आयें तो टीसते अवश्य है।”

“प्रेम में वासना नहीं होती, केवल समर्पण होता है, प्रिय के प्रति।”

“प्रशंसा में क्या होता है कि हर कोई खुश हो जाता है।”

"हँसनेवालों का साथ सभी देते है परन्तु रोना तो अकेले ही पड़ता है।”

उपन्यास-लेखिका एक गृहणी हैं। अपने उपन्यास के कलेवर में उन्होंने अपनी घर-गृहस्थी को विस्तार देने की पुरजोर कोशिश की है। जैसे, ‘अमित को करेले पसंद नहीं, माताजी को घुइंया, पर बनेंगे दोनों’, ‘सब चाँवल एक से नहीं होते, कोई लुचई होता है तो चिन्नौर और कोई बासमती’, ‘माँ जी के सिर में तेल लगाना’, ‘वेणी में गजरा गूंथना’ इत्यादि, इत्यादि। बावजूद इसके, उनकी नायिका क्लब/पार्टियों में जाती है, ऑफिस संचालित करती है, अपनी समस्याओं से उभरकर आगे पढाई करती है, दोबारा केनवास पर ब्रश चलाती है, रंग भरती है। वास्तविक जीवन की सजीवता और विशदता इस उपन्यास की विशेषता है। नायिका के तौर पर सौम्या का चरित्र उत्तम है। मोहन भी ठीक-ठाक है परन्तु पूर्वान्ह में अमित की भूमिका प्रतिनायक की सी दिखाई गई है। मध्यान्तर के बाद अमित का पुन:प्रवेश होता है, उसे अपने कृत्यों पर पछतावा होता है और अंत में सद्गति को प्राप्त होता है। कथानक के क्लाइमेक्स(चरमोत्कर्ष) पर सौम्या अपने बेटे सौरभ के समक्ष रहस्योद्घाटन करती है और उसे बीमार अमित की तीमारदारी के लिए भेजती है। अमित की मृत्यु के बाद सौरभ ही उसका अंतिम-संस्कार करता है। ऐसे सुखान्त का सृजन सिर्फ और सिर्फ श्रीमती शिवहरे जैसी समर्थ और संवेदनशील कथाकारा के लिए ही संभव है।

उपन्यास में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मानव बम से हत्या और कश्मीर में आतंकवादियों से मुठभेड़ जैसे समाचारों को प्राथमिकता मिली है, जो इस रचनाकाल की प्राथमिक सूचना है। एक बात और, नायिका के चरित्र में अतिरिक्त सहिष्णुता दिखने के चक्कर में उसे कुछ सोशल वर्क करते दिखाया गया है, रामदयाल दम्पत्ति जैसे असहाय लोगों की मदद परन्तु वहाँ वह (सौम्या) अपराधिक प्रकरण में फँसती दिखाई देती है। यह घटनाक्रम “हार की जीत”(सुदर्शन की ख्यात कहानी) के बाबा भारती की सीख का सहज स्मरण करा देता है कि इस घटना का उल्लेख किसी से न करना वर्ना लोग जरूरत मंदों की मदद करना बंद कर देंगे।

प्रिन्टिंग और प्रूफ की गलतियों को अनदेखा किया जाए तो पाथेय प्रकाशन की यह सजिल्द सुंदर आवरण युक्त प्रस्तुति स्वागतेय है। भाषा-विन्यास, संयोजना, पात्रों का चयन, घटनाओं का क्रम, कथानक की कसावट ने इस उपन्यास को स्तरीय और संग्रहणीय बना दिया है। उनके ही पूर्व-प्रकाशित दो उपन्यास क्रमशः “धूनी” और “अधूरा मन” की तरह, या यूँ कहें, इस उपन्यास से उनकी ख्याति तीन गुना हो गई है।
२०१ शास्त्रीनगर, गढ़ा, जबलपुर- ३९३००१०४२९६ / ७०००३८८३३२
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