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बुधवार, 26 फ़रवरी 2020

समीक्षा - काव्य कालिंदी - मोहन शशि

कृति चर्चा :
''काव्य कालिंदी'' : एक पठनीय कृति 
मोहन शशि 
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साहित्य के स्वनामधन्य हस्ताक्षर स्मृतिशेष भवानी प्रसाद मिश्र जी ने कहा है - "कुछ लिख के सो / कुछ पढ़ के सो / जिस जगह जागा सवेरे / उस जगह से बढ़ के सो"। 'काव्य कालिंदी  की स्वनामधन्य रचनाकार डॉ. संतोष शुक्ला के रचना संसार में झाँकने पर ऐसा आभास होता है कि वे मिश्र जी की पंक्तियों को सूजन धर्म में बड़ी गंभीरता के साथ सार्थकता प्रदान करने साधनारत हैं। बृज भूमि में जन्म पाने का सौभाग्य सँजोये, कालिंदी तीर से चंबल का परिभ्रमण कर, पतित पावनी मातेश्वरी नर्मदा के पवन तट की यात्रा में हिमालयी विसंगतियों में भी धैर्य के साथ सृजन और लगातार सृजन का संकल्प साधुवाद का अधिकारी है। 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने इस कृति की भूमिका में डॉ. संतोष शुक्ला के व्यक्तित्व और कृतित्व पर घरे डूबकर जो शब्द-चित्र उकेरे हैं, उनके पश्चात् कुछ कहने को शेष नहीं तथापि  'अभिमात्यार्थ' स्नेहानुरोध की रक्षा के लिए पढ़ने पर संतोष जी और दोहा का अभिन्न नाता सामने आया-
दोहे ऐसे सर चढ़े, अन्य न भाती बात।  
साथ निभाते हर समय, दिन हो चाहे रात।। 
दोहा दे संतोष, गुरु वंदन, गोविन्द वंदन, भारत-भारती, कालिंदी तीर, पितर, उसकी आये याद जब, शुभ प्रभात, बसंत, नीति के दोहे, नारी, आँखें, दोहा, मुहावरे, उत्सव, महाबलीपुरम  आदि शीर्षक से दोहों ने मेरे मन -प्राण को बहुत प्रभावित किया। संतोष जी के दोहों में सहजता, सरलता, 'देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर"की ऐसी बांकी प्रस्तुति है कि "इस सादगी पर कौन न मर जाए ऐ खुदा!' समझने की कहीं कोई आवश्यकता नहीं, पढ़ते ही सरे अर्थ पंखुरी-पंखुरी सामने आ जाते हैं। बानगी देखें- 
दुनिया धोखेबाज है, सद्गुण जाते हार। 
दाँव लगाकर छल-कपट, लेते बाजी मार।। 

चलती चक्की अब नहीं, हुआ मशीनी काज। 
महिलाओं की मौज है, पति पर करतीं राज।।

बाल नाक के थे कभी, अब करते हैं घात। 
कैसे अब उनसे निभे, बने न बिगड़ी बात।।

चंचल मन भगा फायर, बस में रखकर योग। 
योग-भोग विनियोग ही, उन्नति का संयोग।।

कवयित्री जी आठवें दशक के करीब हैं किन्तु देखें यह उड़ान- 
वृद्ध न मन होता कभी, नित नव भरे उड़ान। 
जी भर पूर्ण प्रयास कर, मंज़िल पाना ठान।।

व्यक्ति समाज, सड़क, संसद, और टी.व्ही. चैनल्स पर जो दंगल हो रहे हैं, उन्हें ध्यान में रखकर सुनें -
कौन किसी की सुन रहा, सभी रहे हैं बोल। 
दुःख केवल इतना हमें, बोल रहे बिन तोल।।

निम्न दोहा सुनकर हर पाठक को लगेगा कि उसके मन की बात है- 
जग में अपना कौन है, सच्ची किसकी प्रीत। 
अपने धोखा दे रहे, बहुत निराली रीत।।

'काव्य कालिंदी'  में दोहों की दमक भले ही अधिक है तथापि कुण्डलिया, सवैया, मुक्तिका, मुक्तक आदि भी अपनी आभा बिखेर रहे हैं। यही नहीं अंत में परिशिष्ट में लघु कथा, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत आदि विधाओं का समावेश कर संतोष जी ने बहुआयामी सृजन सामर्थ्य का परिचय दिया है। एक मुक्तक का आनंद लें- 
दौड़ भाग के जीवन में, सुख-चैन सभी की चाहत है। 
मिल जाए थोड़ा सा भी तो, मिलती मन को राहत है।।
अजब आदमी है दुनिया का और अजब उसकी दुनिया-
अपने दुःख से दुखी नहीं , औरों के सुख से आहत है।।

नवगीतकार बसंत शर्मा के अनुसार "संतोष शुक्ल जी की जिजीविषा असाधारण, सीखने की ललक अनुकरणीय और सृजन सामर्थ्य अपराजेय है।" 
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संपर्क : ९४२४६५८९१९ 



    
    

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