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शनिवार, 12 मई 2012

गीत: छोड़ दें थोड़ा... संजीव 'सलिल'

गीत:
छोड़ दें थोड़ा...
संजीव 'सलिल'
*


*
जोड़ा बहुत,
छोड़ दें थोड़ा...
*
चार कमाना, एक बाँटना.
जो बेहतर हो वही छांटना-
मंझधारों-भँवरों से बचना-
छूट न जाए घाट-बाट ना.
यही सिखाया परंपरा ने
जुत तांगें में
बनकर घोड़ा...
*
जब-जब अंतर्मुखी हुए हो.
तब एकाकी दुखी हुए हो.
मायावी दुनिया का यह सच-
आध्यात्मिक कर त्याग सुखी हो.
पाठ पढ़ाया पराsपरा ने.
कुंभकार ने
रच-घट फोड़ा...
*
मेघाच्छादित आसमान सच.
सूर्य छिपा पर भासमान सच.
छतरीवाला प्रगट, न दिखता.
रजनी कहती है विहान सच.
फूल धूल में भी खिल हँसता-
खाता शूल
समय से कोड़ा...
***

सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

तितलियाँ संजीव 'सलिल'

तितलियाँ
संजीव 'सलिल'


तितलियाँ जां निसार कर देंगीं.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम.
फूल बन महको तो खुद आयेंगी ये..
*
तितलियों को देख भँवरे ने कहा.
भटकतीं दर-दर, न क्यों एक घर रहीं?

कहा तितली ने मिले सब दिल जले.
कौन है ऐसा जिसे पा दिल खिले?.
*
पिता के आँगन में खेलीं तितलियाँ.
गयीं तो बगिया उजड़ सूनी हुई..
*
बागवां के गले लगकर तितलियाँ.
बिदा होते हँसीं, चुप हो, रो पड़ीं..
*
तितलियाँ ही बाग़ की रौनक बनी.
भ्रमर तो बेदाम के गुलाम हैं..
*
'आदाब' भँवरे ने कहा, तितली हँसी.
'आ दाब' बोली और फुर से उड़ गयी..
*
तितलियों के फेर में घर टूटते देखे.
कहाँ कितने और कब यह काल ही लेखे..
*
गिराई जब तितलियों ने बिजलियाँ.
दिला जला, भँवरा 'सलिल' काला हुआ..
*
तितलियों ने शूल से बचते हुए.
फूल को चाहा हमेशा मौन रह..
*
तितली ने रस चूसकर, दिया पुष्प को छोड़.
'सलिल' पलट देखा नहीं, आये-गए कब मोड़?.
*
तितली रस-गाहक 'सलिल', भ्रमर रूप का दास.
जग चाहे तितली मिले, भ्रमर न आये पास..
*
ब्यूटीपार्लर जा सजें, 'सलिल' तितलियाँ रोज.
फिर भँवरों को दोष दें, क्यों? इस पर हो खोज..
*
तितली से तितली मिले, भुज भर हो निर्द्वंद.
नहीं भ्रमर, फिर क्यों मनुज, नित करता है द्वन्द??
*

                                                         तितली से बगिया हुई, प्राणवान-जीवंत.
तितली यह सच जानती, नहीं मोह में तंत..
भ्रमर लोभ कर रो रहा, धोखा पाया कंत.
फूल कहे, सच को समझ, अब तो बन जा संत..
*

जग-बगिया में साथ ही, रहें फूल औ' शूल.
नेह नर्मदा संग ही, जैसे रहते कूल..
'सलिल' न भँवरा बन, न दे मतभेदों को तूल.
हर दिल बस, हर दिल बसा दिल में, झगड़े भूल..
*

नहीं लड़तीं, नहीं जलतीं, हमेशा मेल से रहतीं.
तितलियों को न देखा आदमी की छाँह भी गहतीं..
हँसों-खेलो, न झगड़ो ज़िंदगी यह चंद पल की है-
करो रस पान हो गुण गान, भँवरे-तितलियाँ कहतीं..
*

तितलियाँ ही न हों तो फूल का रस कौन पायेगा?
भ्रमर किस पर लुटा दिल, नित्य किसके गीत गायेगा?
न कलियाँ खिल सकेंगीं, गर न होंगे चाहनेवाले-
'सलिल' तितली न होगी, बाग़ में फिर कौन जायेगा?.

******************
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

शनिवार, 7 जनवरी 2012

भोजपुरी के संग: दोहे के रंग --संजीव 'सलिल'

भोजपुरी के संग: दोहे के रंग


संजीव 'सलिल'

भइल किनारे जिन्दगी, अब के से का आस?
ढलते सूरज बर 'सलिल', कोउ न आवत पास..
*
अबला जीवन पड़ गइल, केतना फीका आज.
लाज-सरम के बेंच के, मटक रहल बिन काज..
*
पुड़िया मीठी ज़हर की, जाल भीतरै जाल.
मरद नचावत अउरतें, झूमैं दै-दै ताल..
*
कवि-पाठक के बीच में, कविता बड़का सेतु.
लिखे-पढ़े आनंद बा, सब्भई जोड़े-हेतु..
*
रउआ लिखले सत्य बा, कहले दूनो बात.
मारब आ रोवन न दे, अजब-गजब हालात..
*
पथ ताकत पथरा गइल, आँख- न दरसन दीन.
मत पाकर मतलब सधत, नेता भयल विलीन..
*
हाथ करेजा पे धइल, खोजे आपन दोष.
जे नर ओकरा सदा ही, मिलल 'सलिल' संतोष..
*
मढ़ि के रउआ कपारे, आपन झूठ-फरेब.
लुच्चा बाबा बन गयल, 'सलिल' न छूटल एब..
*
कवि कहsतानी जवन ऊ, साँच कहाँ तक जाँच?
सार-सार के गह 'सलिल', झूठ-लबार न बाँच..
***************************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

सोमवार, 24 अक्टूबर 2011

यम द्वितीय चित्रगुप्त पूजन पर विशेष भेंट: भजन: प्रभु हैं तेरे पास में... -- संजीव 'सलिल'

यम द्वितीय चित्रगुप्त पूजन पर विशेष भेंट:
भजन:
प्रभु हैं तेरे पास में...
-- संजीव 'सलिल'
*
कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में...
*
तन तो धोता रोज न करता, मन को क्यों तू साफ रे!
जो तेरा अपराधी है, उसको करदे हँस माफ़ रे..
प्रभु को देख दोस्त-दुश्मन में, तम में और प्रकाश में.
कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में...
*
चित्र-गुप्त प्रभु सदा चित्त में, गुप्त झलक नित देख ले.
आँख मूंदकर कर्मों की गति, मन-दर्पण में लेख ले..
आया तो जाने से पहले, प्रभु को सुमिर प्रवास में.
कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में...
*
मंदिर-मस्जिद, काशी-काबा मिथ्या माया-जाल है.
वह घट-घट कण-कणवासी है, बीज फूल-फल डाल है..
हर्ष-दर्द उसका प्रसाद, कडुवाहट-मधुर मिठास में.
कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में...
*
भजन:
प्रभु हैं तेरे पास में...                                                                           
संजीव 'सलिल'
*
जग असार सार हरि सुमिरन ,
डूब भजन में ओ नादां मन...
*
निराकार काया में स्थित, हो कायस्थ कहाते हैं.
रख नाना आकार दिखाते, झलक तुरत छिप जाते हैं..
प्रभु दर्शन बिन मन हो उन्मन,
प्रभु दर्शन कर परम शांत मन.
जग असार सार हरि सुमिरन ,
डूब भजन में ओ नादां मन...
*
कोई न अपना सभी पराये, कोई न गैर सभी अपने हैं.
धूप-छाँव, जागरण-निद्रा, दिवस-निशा प्रभु के नपने हैं..
पंचतत्व प्रभु माटी-कंचन,
कर मद-मोह-गर्व का भंजन.
जग असार सार हरि सुमिरन ,
डूब भजन में ओ नादां मन...
*
नभ पर्वत भू सलिल लहर प्रभु, पवन अग्नि रवि शशि तारे हैं.
कोई न प्रभु का, हर जन प्रभु का, जो आये द्वारे तारे हैं.. 
नेह नर्मदा में कर मज्जन,
प्रभु-अर्पण करदे निज जीवन.
जग असार सार हरि सुमिरन ,
डूब भजन में ओ नादां मन...
*

Acharya Sanjiv Salil

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शनिवार, 13 अगस्त 2011

स्वतंत्रता दिवस पर विशेष गीत: सारा का सारा हिंदी है -----संजीव 'सलिल'

स्वतंत्रता दिवस पर विशेष गीत:

सारा का सारा हिंदी है

संजीव 'सलिल'
*

जो कुछ भी इस देश में है, सारा का सारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....*
मणिपुरी, कथकली, भरतनाट्यम, कुचपुडी, गरबा अपना है.
लेजिम, भंगड़ा, राई, डांडिया हर नूपुर का सपना है.
गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा, चनाब, सोन, चम्बल,
ब्रम्हपुत्र, झेलम, रावी अठखेली करती हैं प्रति पल.
लहर-लहर जयगान गुंजाये, हिंद में है और हिंदी है.                                  
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....
*
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा सबमें प्रभु एक समान.
प्यार लुटाओ जितना, उतना पाओ औरों से सम्मान.
स्नेह-सलिल में नित्य नहाकर, निर्माणों के दीप जलाकर.
बाधा, संकट, संघर्षों को गले लगाओ नित मुस्काकर.
पवन, वन्हि, जल, थल, नभ पावन, कण-कण तीरथ, हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....
*
जै-जैवन्ती, भीमपलासी, मालकौंस, ठुमरी, गांधार.
गजल, गीत, कविता, छंदों से छलक रहा है प्यार अपार.
अरावली, सतपुडा, हिमालय, मैकल, विन्ध्य, उत्तुंग शिखर.
ठहरे-ठहरे गाँव हमारे, आपाधापी लिए शहर.
कुटी, महल, अँगना, चौबारा, हर घर-द्वारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....*
सरसों, मका, बाजरा, चाँवल, गेहूँ, अरहर, मूँग, चना.
झुका किसी का मस्तक नीचे, 'सलिल' किसी का शीश तना.                   
कीर्तन, प्रेयर, सबद, प्रार्थना, बाईबिल, गीता, ग्रंथ, कुरान.
गौतम, गाँधी, नानक, अकबर, महावीर, शिव, राम महान.
रास कृष्ण का, तांडव शिव का, लास्य-हास्य सब हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....
*
ट्राम्बे, भाखरा, भेल, भिलाई, हरिकोटा, पोकरण रतन.
आर्यभट्ट, एपल, रोहिणी के पीछे अगणित छिपे जतन.
शिवा, प्रताप, सुभाष, भगत, रैदास कबीरा, मीरा, सूर.
तुलसी. चिश्ती, नामदेव, रामानुज लाये खुदाई नूर.
रमण, रवींद्र, विनोबा, नेहरु, जयप्रकाश भी हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....

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Acharya Sanjiv Salil

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शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

विशेष रचना: पर्व नव सद्भाव के संजीव 'सलिल'

विशेष रचना:                                                                                
पर्व नव सद्भाव के
संजीव 'सलिल'
*
हैं आ गये राखी कजलियाँ, पर्व नव सद्भाव के.
सन्देश देते हैं न पकड़ें, पंथ हम अलगाव के..

भाई-बहिन सा नेह-निर्मल, पालकर आगे बढ़ें.
सत-शिव करें मांगल्य सुंदर, लक्ष्य सीढ़ी पर चढ़ें..

शुभ सनातन थाती पुरातन, हमें इस पर गर्व है.
हैं जानते वह व्याप्त सबमें, प्रिय उसे जग सर्व है..

शुभ वृष्टि जल की, मेघ, बिजली, रीझ नाचे मोर-मन.
कब बंधु आये? सोच प्रमुदित, हो रही बहिना मगन..

धारे वसन हरितिमा के भू, लग रही है षोडशी.
सलिला नवोढ़ा नारियों सी, कथा है नव मोद की..

शालीनता तट में रहें सब, भंग ना मर्याद हो.
स्वातंत्र्य उच्छ्रंखल न हो यह,  मर्म सबको याद हो..

बंधन रहे कुछ तभी तो हम, गति-दिशा गह पायेंगे.
निर्बंध होकर गति-दिशा बिन, शून्य में खो जायेंगे..

बंधन अप्रिय लगता हमेशा, अशुभ हो हरदम नहीं.
रक्षा करे बंधन 'सलिल' तो, त्याज्य होगा क्यों कहीं?

यह दृष्टि भारत पा सका तब, जगद्गुरु कहला सका.
रिपुओं का दिल संयम-नियम से, विजय कर दहला सका..

इतिहास से ले सबक बंधन, में बंधें हम एक हों.
संकल्पकर इतिहास रच दें, कोशिशें शुभ नेक हों..

****************************************************
टिप्पणी: हरिगीतिका मुक्त मात्रिक छंद,  दो पद, चार चरण,१६-१२ पर यति. सूत्र: हरिगीतिका हरिगीतिका हरि, गीतिका हरिगीतिका.
हरिगीतिका है छंद मात्रिक, पद-चरण दो-चार हैं.
सोलह और बारह कला पर, रुक-बढ़ें यह सार है.

Acharya Sanjiv Salil

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सोमवार, 1 अगस्त 2011

रचना-प्रति रचना: - डॉ. दीप्ति गुप्ता, कमल, संजीव 'सलिल', डा० महेश चंद्र गुप्त ’ख़लिश’


रचना-प्रति रचना:

रचना : डॉ. दीप्ति गुप्ता,  कमल, संजीव 'सलिल', डॉ. एम्. सी. गुप्ता 'खलिश'
2011/8/1 deepti gupta <drdeepti25@yahoo.co.in> 
               मैं गैर लगूं  तो
          मैं गैर लगूं  तो अपने अंदर झाँक लेना
          समझ ना आए तो मुझसे जान लेना
                    सताए ज़माने     की   गरम     हवा     तो
                    मेरे प्यार   के  शजर के  नीचे   बैठ रहना
                    कोई भूली   दासतां    जब   याद आए,  तो
                    आँखें      मूँद      मुझसे        बात      करना
                    जब     घेरे    अवसाद          निराशा   तो
                    मुझे     याद    कर   कोई   गीत गुनगुनाना
                    यूँ     ही    आँख     कभी    भर    आए     तो
                    मेरा    खिल - खिल   हंसना   याद   करना
                    जब    उदास     दोपहर   दिल  पे   छाये  तो
                    मेरी नटखट बातें सोच कर, दिल बहलाना 
                    कभी    सुरमई     शाम     बेचैन      करे   तो
                                        ख्यालों में साथ मेरे,दूर तक सैर को जाना
                    जीवन    में     उष्मा    राख    होती    लगे  तो
                    मेरी   निष्ठा   को ध्यान में ला,  ऊर्जित होना
                    जब    मैं      रह- रह     कर    याद    आऊँ तो
                    मेरी    उसी   तस्वीर    से   मौन  बातें करना
                           बस एक बात हमेशा याद रखना
                    दूर हो  कर भी,  हर पल तुम्हारे पास हूँ मैं
                    इस रिश्ते  का सुरूर और  तुम्हारा  गुरूर हूँ  मैं
           
                                                                                                                       दीप्ति                    

प्रति रचना: १
प्रिय दीप्ति ,
  यह क्या लिख डाला ? कितना ममत्व और अपनत्व भर दिया तुमने इन पंक्तियों में !
 मन इन्हीं को बार बार पढता, डूबता,  उतराता रह गया  और प्रतिक्रिया में अनायास ही
ये छन्द उछल आये -
                                 कभी गैर लगोगी क्यों ?
हर घड़ी हर पल पास तुम
अवसाद-औषधि ख़ास तुम
विश्वास तुम अहसास तुम
पतझार में मधुमास तुम
                             अमृत हो गरल भरोगी क्यों
                               कभी गैर लगोगी  क्यों
सदा खिलखिला हँसती रहना 
तुम तो सबकी प्यारी बहना
शब्द तुम्हारे जादू  हैं  ना ,
अंदाज़ तुम्हारा क्या कहना
                          कभी उदासी दोगी क्यों
                          कभी गैर लगोगी  क्यों
ऐसा कुछ जो मन भरमाये
अंतस में संताप जगाये
बरबस जो आंसू भर लाये
सोखे सलिल कमल मुरझाये
                         ऐसा कभी करोगी क्यों
                         कभी गैर लगोगी  क्यों 
  व्यत्युत्पन्न मति से अभी इतना ही ,  शेष फिर  !
सस्नेह,
कमल दादा

*
प्रति रचना: २
गीत
तुमको क्यों...
संजीव 'सलिल'
*
तुमको क्यों अपना मानूँ?
तुम सदा रहोगी गैर...
*
अपनेपन के नपने बेढब
उससे ज्यादा अपने बेढब.
मौका पाकर कौन धकेले?
कौन टाँग खींचे जाने कब??
किस पल में किस जनम का
जाने कौन भंजा ले बैर?
तुमको क्यों अपना मानूँ?
तुम सदा रहोगी गैर...
*
हर अपना सपना होता है,
बगिया में काँटे बोता है.
छुरा भोंकता प्रथम पीठ में -
भोज तेरहीं खा रोता है.
तुमसे यह सब हो न सकेगा
इसीलिये है खैर.
तुमको क्यों अपना मानूँ?
तुम सदा रहोगी गैर...
*
इतने पर ही ख़त्म न होता
अपनेपन का नाता.
लड़के लड़ के हक लेते
ठग लेता जामाता.
दूर बुढ़ापे में कर कहते
जा मरुथल में तैर.
तुमको क्यों अपना मानूँ?
तुम सदा रहोगी गैर...
*
सुख-संतोष गैरियत में है,
तनिक सोचकर लेखो.
अनचाहे मत टाँग अड़ाओ,
झाँक न पर्दा देखो.
दूरी में नैकट्य 'सलिल'
पल पाता है निर्वैर.
तुमको क्यों अपना मानूँ?
तुम सदा रहोगी गैर...
*
अजनबियों-अनजानों को दे-
पाता रहा सहारा.
उपकृत किया, पलटकर लेकिन
देखा नहीं दुबारा.
जिसको पैरों-खड़ा किया
उससे घायल हैं पैर.
तुमको क्यों अपना मानूँ?
तुम सदा रहोगी गैर...
*

Acharya Sanjiv Salil

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प्रति रचना: ३
तुमसे मेरा नाता ही क्या रहती हो तुम ग़ैर१ अगस्त २०११



तुमसे मेरा नाता ही क्या रहती हो तुम ग़ैर
अब तो ऐसा लगता है कि दूर रहें तो ख़ैर

मैंने जब जब भी दी है तुमको कोई आवाज़
तुमने मुझको थाने तक की करवाई है सैर

प्रेम सहित मैंने तो अपना हाथ बढ़ाया था
लगता है जैसे था तुमको जनम-जनम का बैर

घोर बली हो मन में जो भी धारण तुम कर लो
हटा न पाए कोई जैसे अंगद का हो पैर

अब तो तनहा ही बीतेगा जीवन ख़लिश सकल
पार नहीं कर पाए मिल कर भव सागर हम तैर.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१ अगस्त २०११

==================

डा० महेश चंद्र गुप्त ’ख़लिश’



शनिवार, 2 जुलाई 2011

-: मुक्तिका :- सूरज - संजीव 'सलिल'

-: मुक्तिका :-                                                                                   
सूरज - १
संजीव 'सलिल'
*
उषा को नित्य पछियाता है सूरज.
न आती हाथ गरमाता है सूरज..

धरा समझा रही- 'मन शांत करले'
सखी संध्या से बतियाता है सूरज..

पवन उपहास करता, दिखा ठेंगा.
न चिढ़ता, मौन बढ़ जाता है सूरज..

अरूपा का लुभाता रूप- छलना.
सखी संध्या पे मर जाता है सूरज..

भटककर सच समझ आता है आखिर.
निशा को चाह घर लाता है सूरज..

नहीं है 'सूर', नाता नहीं 'रज' से
कभी क्या मन भी बहलाता है सूरज?.

करे निष्काम निश-दिन काम अपना.
'सलिल' तब मान-यश पाता है सूरज..

*
सूरज - २ 

चमकता है या चमकाता है सूरज?
बहुत पूछा न बतलाता है सूरज..

तिमिर छिप रो रहा दीपक के नीचे.
कहे- 'तन्नक नहीं भाता है सूरज'..

सप्त अश्वों की वल्गाएँ सम्हाले
कभी क्या क्लांत हो जाता है सूरज?

समय-कुसमय सभी को भोगना है.
गहन में श्याम पड़ जाता है सूरज..

न थक-चुक, रुक रहा, ना हार माने, 
डूब फिर-फिर निकल आता है सूरज..

लुटाता तेज ले चंदा चमकता.
नया जीवन 'सलिल' पाता है सूरज..

'सलिल'-भुजपाश में विश्राम पाता.
बिम्ब-प्रतिबिम्ब मुस्काता है सूरज..
*
सूरज - ३

शांत शिशु सा नजर आता है सूरज.
सुबह सचमुच बहुत भाता है सूरज..

भरे किलकारियाँ बचपन में जी भर.
मचलता, मान भी जाता है सूरज..

किशोरों सा लजाता-झेंपता है.
गुनगुना गीत शरमाता है सूरज..

युवा सपने न कह, खुद से छिपाता.
कुलाचें भरता, मस्ताता है सूरज..

प्रौढ़ बोझा उठाये गृहस्थी का.
देख मँहगाई डर जाता है सूरज..

चांदनी जवां बेटी के लिये वर
खोजता है, बुढ़ा जाता है सूरज..

न पलभर चैन पाता ज़िंदगी में.
'सलिल' गुमसुम ही मर जाता है सूरज..
*
Acharya Sanjiv Salil

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शनिवार, 11 जून 2011

घनाक्षरी: ---संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी:
संजीव 'सलिल'
*
बाबा रामदेव जी हैं, विश्व की धरोहर, बाबा रामदेव जी के, साथ खड़े होइए.
हाथ मलें शीश झुका, शीश पीटें बाद में ना, कोई अनहोनी देख, बाद में न रोइए..
सरकार को जगायें, सरदार को उठायें, सड़कों पर आइये, राजनीति धोइए.
समय पुकारता है, सोयें खोयें रोयें मत, तुमुल निनाद कर, क्रांति-बीज बोइए..
*
कौन किसी का यहाँ है?, कौन किसी का सगा है?, सेंकते सभी को देखा, रोटी निज स्वार्थ की.
लोकतंत्र में न लोक, मत सुना जा रहा है, खून चूसता है तंत्र, अदेखी लोकार्थ की.
घूस लेता नेता रोज, रिश्वतों का बोलबाला, अन्ना-बाबा कर रहे हैं, बात सर्वार्थ की.
घरों से निकल आयें, गीत क्रांति के सुनायें, बीन शांति की बजायें, नीति परमार्थ की.
*
अपना-पराया भूल, सह ले चुभन-शूल, माथे पर लगा धूल, इस प्यारे देश की.
माँ की कसम तुझे, पीछे मुड़  देख मत, लानत मिलेगी यदि, जां की फ़िक्र लेश की..
प्रतिनिधि को पकड़, नत मत हो- अकड़, बात मनवा झगड़, तजे नीति द्वेष की.
'सलिल' विदेश में जो, धन इस देश का है, देश वापिस लाइये, है शपथ अशेष की..
*
(मनहरण, घनाक्षरी, कवित्त छंद : ४-४-४-७)
  

रविवार, 24 अप्रैल 2011

मुक्तिका: आँख का पानी संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
आँख का पानी
संजीव 'सलिल'
*
खो गया खोजो कहाँ-कब आँख का पानी?
बो गया निर्माण की फसलें ये वरदानी..

काटकर जंगल, पहाड़ों को मिटाते लोग.
नासमझ है मनुज या है दनुज अभिमानी?

मिटी कल-कल, हुई किल-किल, घटा जब से नीर.
सुन न जन की पीर, करता तंत्र मनमानी..

लिये चुल्लू में तनिक जल, जल रहा जग आज.
'यही जल जीवन' नहीं यह बात अनजानी..

'सत्य-शिव-सुन्दर' न पानी बिन सकोगे साध.
जल-रहित यह सृष्टि होगी 'सलिल' शमशानी..
*******

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

नव संवत्सर में... -- संजीव 'सलिल'

नव संवत्सर में...

संजीव 'सलिल'
*
मीत सत्य नारायण से पहचान करें नव संवत्सर में.
खिलें कमल से सलिल-धार में, आन करेंनव संवत्सर में..
काली तेरे घर में, लक्ष्मी मेरे घर में जन्मे क्योंकर?
सरस्वती जी विमल बुद्धि वरदान करें नव संवत्सर में..
*
शक्ति-पर्व पर आत्मशक्ति  खुद की पहचानें . 
नहीं किसी से कम हैं हम यह भी अनुमानें. 
मेहनत लगन परिश्रम की हम करें साधना- 
'सलिल' सकल जग की सेवा करना है- ठानें..
*
एक त्रिपदी : जनक छंद
*
हरी दूब सा मन हुआ
जब भी संकट ने छुआ
'सलिल' रहा मन अनछुआ..

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

हास्य रचना: साहिब जी मोरे... संजीव 'सलिल'

हास्य कविता:

साहिब जी मोरे...

संजीव 'सलिल'
*
साहिब जी मोरे मैं नहीं रिश्वत खायो.....

झूठो सारो जग मैं साँचो, जबरन गयो फँसायो.
लिखना-पढ़ना व्यर्थ, न मनभर नोट अगर मिल पायो..
खन-खन दै तब मिली नौकरी, खन-खन लै मुसक्यायो.
पुरुस पुरातन बधू लच्छमी, चंचल बाहि टिकायो..
पैसा लै कारज निब्टायो, तन्नक माल पचायो.
जिनके हाथ न लगी रकम, बे जल कम्प्लेंट लिखायो..
इन्क्वायरी करबे वारन खों अंगूरी पिलबायो.
आडीटर-लेखा अफसर खों, कोठे भी भिजवायो..
दाखिल दफ्तर भई सिकायत, फिर काहे खुल्वायो?
सूटकेस भर नागादौअल लै द्वार तिहारे आयो..
बाप न भैया भला रुपैया, गुपचुप तुम्हें थमायो.
थाम हँसे अफसर प्यारे, तब चैन 'सलिल'खों आयो..
लेन-देन सभ्यता हमारी, शिष्टाचार निभायो.
कसम तिहारी नेम-धरम से भ्रष्टाचार मिटायो..
अपनी समझ पड़ोसन छबि, निज नैनं मध्य बसायो.
हल्ला कर नाहक ही बाने तिरिया चरित दिखायो..
अबला भाई सबला सो प्रभु जी रास रचा नई पायो.
साँच कहत हो माल परयो 'सलिल' बाँटकर खायो..
साहब जी दूना डकार गये पर बेदाग़ बचायो.....

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(महाकवि सूरदास जी से क्षमाप्रार्थना सहित)

शनिवार, 15 जनवरी 2011

नवगीत: सड़क पर संजीव 'सलिल'

नवगीत:

सड़क पर

संजीव 'सलिल'
*
आँज रही है उतर सड़क पर
नयन में कजरा साँझ...
*
नीलगगन के राजमार्ग पर
बगुले दौड़े तेज.
तारे फैलाते प्रकाश तब
चाँद सजाता सेज.
भोज चाँदनी के संग करता
बना मेघ को मेज.
सौतन ऊषा रूठ गुलाबी
पी रजनी संग पेज.
निठुर न रीझा-
चौथ-तीज के सारे व्रत भये बाँझ...
*
निष्ठा हुई न हरजाई, है
खबर सनसनीखेज.
संग दीनता के सहबाला
दर्द दिया है भेज.
विधना बाबुल चुप, क्या बोलें?
किस्मत रही सहेज.
पिया पिया ने प्रीत चषक
तन-मन रंग दे रंगरेज.
आस सारिका गीत गये
शुक झूम बजाये झाँझ...
*
साँस पतंगों को थामे
आसें हंगामाखेज.
प्यास-त्रास की रास
हुलासों को परिहास- दहेज़.
सत को शिव-सुंदर से जाने
क्यों है आज गुरेज?
मस्ती, मौज, मजा सब चाहें
श्रम से है परहेज.
बिना काँच लुगदी के मंझा
कौन रहा है माँझ?...
*

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

चौपाई सलिला: १. क्रिसमस है आनंद मनायें संजीव 'सलिल'

चौपाई सलिला: १.                                                               
क्रिसमस है आनंद मनायें

संजीव 'सलिल'
*
खुशियों का त्यौहार है, खुशी मनायें आप.
आत्म दीप प्रज्वलित कर, सकें जगत में व्याप..
*
क्रिसमस है आनंद मनायें, हिल-मिल केक स्नेह से खायें.
लेकिन उनको नहीं भुलाएँ, जो भूखे-प्यासे रह जायें.

कुछ उनको भी दे सुख पायें, मानवता की जय-जय गायें.
मन मंदिर में दीप जलायें, अंधकार को दूर भगायें.


जो प्राचीन उसे अपनायें, कुछ नवीन भी गले लगायें.
उगे प्रभाकर शीश झुकायें, सत-शिव-सुंदर जगत बनायें.

चौपाई कुछ रचें-सुनायें, रस-निधि पा रस-धार बहायें.
चार पाये संतुलित बनायें, सोलह कला-छटा बिखरायें.


जगण-तगण चरणान्त न आयें, सत-शिव-सुंदर भाव समायें.
नेह नर्मदा नित्य नहायें, सत-चित -आनंद पायें-लुटायें..

हो रस-लीन समाधि रचायें, नये-नये नित छंद बनायें.
अलंकार सौंदर्य बढ़ायें, कवियों में रस-खान कहायें..

बिम्ब-प्रतीक अकथ कह जायें, मौलिक कथ्य तथ्य बतलायें.
समुचित शब्द सार समझायें, सत-चित-आनंद दर्श दिखायें..
*
चौपाई के संग में, दोहा सोहे खूब.
जो लिख-पढ़कर समझले, सके भावमें डूब..
*************

चौपाई हिन्दी काव्य के सर्वकालिक सर्वाधिक लोकप्रिय छंदों में से एक है. आप जानते हैं कि चौपायों के चार पैर होते हैं जो आकार-प्रकार में पूरी तरह समान होते हैं. इसी तरह चौपाई के चार चरण एक समान सोलह कलाओं (मात्राओं) से
युक्त होते हैं. चौपाई के अंत में जगण (लघु-गुरु-लघु) तथा तगण (गुरु-गुरु-लघु) वर्जित कहे गये हैं. चारों चरणों के उच्चारण में एक समान समय लगने के कारण
इन्हें विविध रागों तथा लयों में गाया जा सकता है. गोस्वामी तुलसीदास जी कृत
रामचरित मानस में चौपाई का सर्वाधिक प्रयोग किया गया है. चौपाई के साथ
दोहे की संगति सोने में सुहागा का कार्य करती है. चौपाई के साथ सोरठा,
छप्पय, घनाक्षरी, मुक्तक आदि का भी प्रयोग किया जा सकता है. लम्बी काव्य
रचनाओं में छंद वैविध्य से सरसता में वृद्धि होती है.
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

मुक्तिका: सच्चा नेह ---संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                                                                                                                                      
सच्चा नेह
संजीव 'सलिल'
*
तुमने मुझसे सच्चा नेह लगाया था.
पीट ढिंढोरा जग को व्यर्थ बताया था..

मेरे शक-विश्वास न तुमको ज्ञात तनिक.
सत-शिव-सुंदर नहीं पिघलने पाया था..

पूजा क्यों केवल निज हित का हेतु बनी?
तुझको भरमाता तेरा ही साया था..

चाँद दिखा आकर्षित तुझको किया तभी
गीत चाँदनी का तूने रच-गाया था..

माँगा हिन्दी का, पाया अंग्रेजी का
फूल तभी तो पैरों तले दबाया था..

प्रीत अमिय संदेह ज़हर है सच मानो.
इसे हृदय में उसको कंठ बसाया था..

जूठा-मैला किया तुम्हींने, निर्मल था
व्यथा-कथा को नहीं 'सलिल' ने गाया था..

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बुधवार, 10 नवंबर 2010

दीपावली का रंग : हरिगीतिका के सँग : --संजीव 'सलिल'

दीपावली का रंग : हरिगीतिका के संग

हरिगीतिका छंद:

संजीव 'सलिल'
*

हरिगीतिका छंद में १६-१२ पर यति, पदांत में लघु-गुरु तथा रगण का विधान वर्णित है.हरिगीतिका  हरिगीतिका  हरि, गीतिका हरिगीतिका या 
मुतफाइलुन मुतफाइलुन मुत, फाइलुन मुतफाइलुन में भी १६-१२ की यति है.

बिन दीप तम से त्राण जगका, हो नहीं पाता कभी.
बिन गीत मन से त्रास गमका, खो नहीं पाता कभी..
बिन सीप मोती कहाँ मिलता, खोजकर हम हारते-
बिन स्वेद-सीकर कृषक फसलें, बो नहीं पाता कभी..
*
हर दीपकी, हर ज्योतिकी, उजियारकी पहचान हूँ.
हर प्रीतका, हर गीतका, मनमीत का अरमान हूँ..
मैं भोरका उन्वान हूँ, मैं सांझ का प्रतिदान हूँ.
मैं अधर की मुस्कान हूँ, मैं हृदय का मेहमान हूँ..
*

बुधवार, 3 नवंबर 2010

स्नेह-दीप ------- संजीव 'सलिल'

स्नेह-दीप

संजीव 'सलिल'
*
स्नेह-दीप, स्नेह शिखा, स्नेह है उजाला.
स्नेह आस, स्नेह प्यास, साधना-शिवाला.

स्नेह राष्ट्र, स्नेह विश्व, सृष्टि नव समाज.
स्नेह कल था, स्नेह कल है, स्नेह ही है आज.

स्नेह अजर, स्नेह अमर, स्नेह है अनश्वर.
स्नेह धरा, स्नेह गगन, स्नेह मनुज-ईश्वर..

स्नेह राग शुभ विराग, योग-भोग-कर्म.
स्नेह कलम,-अक्षर है. स्नेह सृजन-धर्म..

स्नेह बिंदु, स्नेह सिन्धु, स्नेह आदि-अंत.
स्नेह शून्य, दिग-दिगंत, स्नेह आदि-अंत..

स्नेह सफल, स्नेह विफल, स्नेह ही पुरुषार्थ.
स्नेह चाह, स्नेह राह, स्वार्थ या परमार्थ..

स्नेह पाएं, स्नेह बाँट, स्नेह-गीत गायें.
स्नेह-दीप जला 'सलिल', दिवाली मनायें..

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स्नेह = प्रेम, स्नेह = दीपक का घी/तेल.

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

मुक्तिका: संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                                          

संजीव 'सलिल'
*
सारा जग पाये उपहार ये दीपोंका.
हर घर को भाये सिंगार ये दीपोंका..

रजनीचर से विहँस प्रभाकर गले मिले-
तारागण करते सत्कार ये दीपोंका..

जीते जी तम को न फैलने देते हैं
हम सब पर कितना उपकार ये दीपोंका..

निज माटी से जुड़ी हुई जो झोपड़ियाँ.
उनके जीवन को आधार है दीपों का..

रखकर दिल में आग, अधर पर हास रखें.
'सलिल' सीख जीवन-व्यवहार ये दीपोंका..
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मुक्तिका: किसलिए?... -----संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                               
किसलिए?...
संजीव 'सलिल'
*
हर दिवाली पर दिए तुम बालते हो किसलिए?
तिमिर हर दीपक-तले तुम पालते हो किसलिए?

चाह सूरत की रही सीरत न चाही थी कभी.
अब पियाले पर पियाले ढालते हो किसलिए?

बुलाते हो लक्ष्मी को लक्ष्मीपति के बिना
और वह भी रात में?, टकसालते हो किसलिए?

क़र्ज़ की पीते थे मय, ऋण ले के घी खाते  रहे.
छिप तकादेदार को अब टालते हो किसलिए?

शूल बनकर फूल-कलियों को 'सलिल' घायल किया.
दोष माली पर कहो- क्यों डालते हो किसलिए?
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गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010

नवगीत : मन की महक --- संजीव 'सलिल'

नव गीत

मन की महक

संजीव 'सलिल'
*
मन की महक
बसी घर-अँगना
बनकर बंदनवार...
*
नेह नर्मदा नहा,
छाछ पी, जमुना रास रचाये.
गंगा 'बम भोले' कह चम्बल
को हँस गले लगाये..
कहे : 'राम जू की जय'
कृष्णा-कावेरी सरयू से-
साबरमती सिन्धु सतलज संग
ब्रम्हपुत्र इठलाये..

लहर-लहर
जन-गण मन गाये,
'सलिल' करे मनुहार.
मन की महक
बसी घर-अँगना
बनकर बंदनवार...
*
विन्ध्य-सतपुड़ा-मेकल की,
हरियाली दे खुशहाली.
काराकोरम-कंचनजंघा ,
नन्दादेवी आली..
अरावली खासी-जयंतिया,
नीलगिरी, गिरि झूमें-
चूमें नील-गगन को, लूमें
पनघट में मतवाली.

पछुआ-पुरवैया
गलबहियाँ दे
मनायें त्यौहार.
मन की महक
बसी घर-अँगना
बनकर बंदनवार...
*
चूँ-चूँ चहक-चहक गौरैया
कहे हो गयी भोर.
सुमिरो उसको जिसने थामी
सब की जीवन-डोर.
होली ईद दिवाली क्रिसमस
गले मिलें सुख-चैन
मिला नैन से नैन,
बसें दिल के दिल में चितचोर.

बाज रहे
करताल-मंजीरा
ठुमक रहे करतार.
मन की महक
बसी घर-अँगना
बनकर बंदनवार...
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