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मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

अतीत का आइना:


RARE PHOTOGRAPHS: 

भारत स्वतंत्र हुआ: १५-८-१९४७

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*
स्टालिन, लेनिन, ट्राटस्की 


*
अपूर्ण हावडा पुल १९३५ 

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*
निर्माणाधीन हावड़ा पुल १९४२


*
*
नेताजी सुभाष चंद्र  बोस : गिरफ्तारी 


*
बा - बापू 

*
गाँधी जी, नेता जी, पटेल १९३२

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*
सुभाष चन्द्र बोस अपनी पत्नी के साथ 

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*
नेहरू जी, डॉ राजेंद्र प्रसाद जी, भूला भाई देसाई 


*
कविन्द्र रविन्द्रनाथ ठाकुर 

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*
शरतचंद्र - सुरेन्द्र नाथ 

*
रामकृष्ण परम हंस देव - विवेकानंद 
*
माँ शारदा 

*



 

बुधवार, 14 नवंबर 2012

मुक्तिका: तनहा-तनहा संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
तनहा-तनहा
संजीव 'सलिल'
*
हम अभिमानी तनहा-तनहा।
वे बेमानी तनहा-तनहा।।

कम शिक्षित पर समझदार है
अकल सयानी तनहा-तनहा।।

दाना होकर भी करती मति
नित नादानी तनहा-तनहा।।

जीते जी ही करी मौत की
हँस अगवानी तनहा-तनहा।।

ईमां पर बेईमानी की-
नव निगरानी तनहा-तनहा।।

खीर-प्रथा बघराकर नववधु 
चुप मुस्कानी तनहा-तनहा।।

उषा लुभानी सांझ सुहानी,
निशा न भानी तनहा-तनहा।।

सुरा-सुन्दरी का याचक जग
भांग-भवानी तनहा-तनहा।।

'सलिल' संजोये प्यास-आस पर
श्वास भुलानी तनहा-तनहा।।

***

रविवार, 24 अप्रैल 2011

मुक्तिका: हर इक आबाद घर में ------ संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
*
हर इक आबाद घर में एक वीराना भी होता था.
मिलें खुशियाँ या गम आबाद मयखाना भी होता था..

न थे  तनहा कभी हम-तुम, नहीं थी गैर यह दुनिया. 
जो अपने थे उन्हीं में कोई बेगाना भी होता था.

किया था कौल सच बोलेंगे पर मालूम था हमको
चुपाना हो अगर बच्चा तो बहलाना भी होता था..

वरा सत-शिव का पथ, सुन्दर बनाने यह धरा शिव ने. 
जो अमृत दे उसको ज़हर पाना भी होता था..

फ़ना वो दिन हुए जब तबस्सुम में कँवल खिलते थे.
'सलिल' होते रहे सदके औ' नजराना भी होता था..

शमा यादों की बिन पूछे भी अक्सर पूछती है यह
कहाँ है शख्स वो जो 'सलिल' परवाना भी होता था..

रहे जो जान के दुश्मन, किया जीना सदा मुश्किल.
अचम्भा है उन्हीं से 'सलिल' याराना भी होता था..

**************

रविवार, 27 मार्च 2011

मुक्तिका: वो चुप भी रहे संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

वो चुप भी रहे

संजीव 'सलिल'
*
वो चुप भी रहे कुछ कह भी गये
हम सुन न सके पर दह भी गये..

मूल्यों को तोडा सुविधा-हित.
यह भी सच है खो-गह भी गये..

हमने देकर भी मात न दी-
ना दे कर वे दे शह भी गये..

खटिया तो खड़ी कर दी प्यारे!.
चादर क्यूं मेरी कर तह भी गये..

ऊपर से कहते गलत न हो.
भीतर से देते शह भी गये..

समझे के ना समझे लेकिन.
कहते वो 'सलिल' अह अह भी गये..

*****************

सोमवार, 21 मार्च 2011

मुक्तिका: गलत मुहरा -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                                                                          

गलत मुहरा

संजीव 'सलिल'
*
सही चहरा.
गलत मुहरा..

सिन्धु उथला,
गगन गहरा..

साधुओं पर
लगा पहरा..

राजनय का
चरित दुहरा..

नर्मदा जल
हहर-घहरा..

हौसलों की
ध्वजा फहरा..

चमन सूखा
हरा सहरा..

ढला सूरज
चढ़ा कुहरा..

पुलिसवाला
मूक-बहरा..

बहे पत्थर
'सलिल' ठहरा ..

****************

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

एक मुक्तिका: संजीव सलिल'

अभिनव प्रयोग:

यमकमयी  मुक्तिका:

संजीव सलिल'
*
नहीं समस्या कोई हल की.
कोशिश लेकिन रही न हलकी..

विकसित हुई सोच जब कल की.
तब हरि प्रगटें बनकर कलकी..

सुना रही है सारे बृज को
छल की कथा गगरिया छलकी..

बिन पानी सब सून हो रहा
बंद हुई जब नलकी नल की..

फल की ओर निशाना साधा. 
किसे लगेगा फ़िक्र न फल की?

नभ लाया चादर मखमल की.
चंदा बिछा रहा  मलमल की.. 

खल की बात न बट्टा सुनता.  
जब से संगत पायी खल की..

श्रम पर निष्ठां रही सलिल की.
दुनिया सोचे लकी-अनलकी..

 कर-तल की ध्वनि जग सुनता है.
'सलिल' अनसुनी ध्वनि पग-तल की..

                 *************

दो यमकदार तेवरियाँ : ------- रमेश राज

दो यमकदार तेवरियाँ : ------- रमेश राज

दो यमकदार तेवरियाँ                                                                          

रमेश राज, संपादक तेवरीपक्ष, अलीगढ
*  
 १.
तन-चीर का उफ़ ये हरण, कपड़े बचे बस नाम को.
हमला हुआ अब लाज पै, अबला जपै बस राम को..

हर रोग अब तौ हीन सा, अति दीन सा, तौहीन सा.
हर मन तरसता आजकल, सुख से भरे पैगाम को.. 

क्या नाम इसका धरम ही?, जो धर मही जन गोद्ता.
इस मुल्क के पागल कहें सत्कर्म कत्ले-आम को..

उद्योग धंधे बंद हैं, मन बन, दहैं शोला सदृश.
हर और हहाका रही, अब जन तलाशें काम को..

अब आचरण बदले सभी, खुश आदतें बद ले सभी.
बीएस घाव ही मिलने सघन आगाज से अंजाम को..

२.

पलटी न बाजी गर यहाँ, दें मात बाजीगर यहाँ.
कल पीर में डूबे हुए होंगे सभी मंज़र यहाँ..

तुम छीन बैठे कौरवों, हम मंगाते हैं कौर वो
फिर वंश होगा आपका, कल को लहू से तर यहाँ..

दुर्भावना की कीच को, हम पै न फेंको, कीचको!.
कुंजर सरीखे भीम ही, अब भी मही पर वर यहाँ.. 


दुर्योधनों के बीच भीषम, आज भी सम मौन है. 
पर द्रौपदी के साथ हैं, बनकर हमीं गिरिधर यहाँ..  

अब पाएंगे हम जी तभी, जब साथ होगी जीत भी
हम चक्रव्यूहों में घिरे, दिन-रात ही अक्सर यहाँ.. 

************************************

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

मुक्तिका: जिसे मैं भाया ----- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

संजीव 'सलिल'
*
जिसे मैं भाया, मुझे वो भायेगी.
श्वास के संग आस नगमे गायेगी..

जिंदगी औ' बंदगी की फिक्र क्या.
गयी भी तो लौट कर फिर आयेगी..

कौन मुझको जानता संसार में.
लेखनी पहचान बन रह जायेगी..

प्रीत की, मनमीत की बातें अजब.
याद कर गालों पे लाली छायेगी..

कौन है जो 'सलिल' बिन रह ना सके?
सिर्फ यह परछाईं ना रह पायेगी..
************

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

मुक्तिका: कहने को संसार कहे ----- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका: 

हम कैसे इस बात को मानें कहने को संसार कहे

संजीव 'सलिल'
*
सार नहीं कुछ परंपरा में, रीति-नीति निस्सार कहे.
हम कैसे इस बात को मानें, कहने को संसार कहे..

रिश्वत ले मुस्काकर नेता, उसको शिष्टाचार कहे.
जैसे वैश्या काम-क्रिया को, साँसों का सिंगार कहे..

नफरत के शोले धधकाकर, आग बर्फ में लगा रहा.
छुरा पीठ में भोंक पड़ोसी, गद्दारी को प्यार कहे..

लूट लिया दिल जिसने उसपर, हमने सब कुछ वार दिया.
अब तो फर्क नहीं पड़ता, युग इसे जीत या हार कहे..

चेला-चेली पाल रहा भगवा, अगवाकर श्रृद्धा को-
रास रचा भोली भक्तन सँग, पाखंडी उद्धार कहे..

जिनसे पद शोभित होता है, ऐसे लोग नहीं मिलते.
पद पा शोभा बढ़ती जिसकी, 'सलिल' उसे बटमार कहे..

लेना-देना लाभ कमाना, शासन का उद्देश्य हुआ.
फिर क्यों 'सलिल' प्रशासन कहते?, क्यों न महज व्यापार कहे?

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मुक्तिका: तोड़ दिया दर्पण ------- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

तोड़ दिया दर्पण

संजीव 'सलिल'
*

शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है
मुझको तो ये मुल्क चाट का ठेला लगता है.

खबर चटपटी अख़बारों में रोज छप रही है.
सत्य खोजना सचमुच बहुत झमेला लगता है..

नेता-अफसर-न्यायमूर्ति पर्याय रिश्वतों के.
संसद का हर सत्र यहाँ अलबेला लगता है..

रीति-नीति सरकारों की बिन रीढ़, पिलपिली है.
गटपट का दौना जैसे पँचमेला लगता है..

साया-माया साथ न दे पर साथ निभाते हैं.
भीड़ बहुत, मुश्किल में देश अकेला लगता है..

ज्वर क्रिकेट का चढ़ा सभी को, लाइलाज है मर्ज़.
घूँटी में किरकिट ही खाया-खेला लगता है..

'सलिल'शक्ल बदसूरत देखी, तोड़ दिया दर्पण. 
शंकर भी कंकर माटी का डेला लगता है.

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मुक्तिका: अनसुलझे मसले हैं हम.. संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                                                                                             

अनसुलझे मसले हैं हम..

संजीव 'सलिल'

*

सम्हल-सम्हल फिसले हैं हम.

फिसल-फिसल सम्हले हैं हम..

खिले, सूख, मुरझाये भी-

नहीं निठुर गमले हैं हम..

सब मनमाना पीट रहे.

पिट-बजते तबले हैं हम..

अख़बारों में रोज छपे

घोटाले-घपले हैं हम..

'सलिल' सुलझ कर उलझ रहे.

अनसुलझे मसले हैं हम..

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बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

मुक्तिका खुद से ही संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

खुद से ही

संजीव 'सलिल'
*
खुद से ही हारे हैं हम.
क्यों केवल नारे हैं हम..

जंग लगी है, धार नहीं
व्यर्थ मौन धारे हैं हम..

श्रम हमको प्यारा न हुआ.
पर श्रम को प्यारे हैं हम..

ऐक्य नहीं हम वर पाये.
भेद बहुत सारे हैं हम..

अधरों की स्मित न हुए.
विपुल अश्रु खारे हैं हम..

मार न सकता कोई हमें.
निज मन के मारे हैं हम..

बाँहों में नभ को भर लें.
बादल बंजारे हैं हम..

चिबुक सजे नन्हे तिल हैं.
नयना रतनारे हैं हम..

धवल हंस सा जनगण-मन.
पर नेता करे हैं हम..

कंकर-कंकर जोड़ रहे.
शंकर सम, गारे हैं हम..

पाषाणों को मोम करें.
स्नेह-'सलिल'-धारे हैं हम..

*************************

मुक्तिका: हाथ में हाथ रहे... संजीव वर्मा 'सलिल'

मुक्तिका:                                                                                       
हाथ में हाथ रहे...
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
*
हाथ में हाथ रहे, दिल में दूरियाँ आईं.
दूर होकर ना हुए दूर- हिचकियाँ आईं..

चाह जिसकी न थी, उस घर से चूड़ियाँ आईं..
धूप इठलाई तनिक, तब ही बदलियाँ आईं..

गिर के बर्बाद ही होने को बिजलियाँ आईं.
बाद तूफ़ान के फूलों पे तितलियाँ आईं..

जीते जी जिद ने हमें एक तो होने न दिया.
खाप में तेरे-मेरे घर से पूड़ियाँ आईं..

धूप ने मेरा पता जाने किस तरह पाया?
बदलियाँ जबके हमेशा ही दरमियाँ आईं..

कह रही दुनिया बड़ा, पर मैं रहा बच्चा ही.
सबसे पहले मुझे ही दो, जो बरफियाँ आईं..

दिल मिला जिससे, बिना उसके कुछ नहीं भाता.
बिना खुसरो के न फिर लौट मुरकियाँ आईं..

नेह की नर्मदा बहती है गुसल तो कर लो.
फिर न कहना कि नहीं लौट लहरियाँ आईं..

******************************
******

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

मुक्तिका: जमीं बिस्तर है --- संजीव वर्मा 'सलिल'

मुक्तिका:

जमीं बिस्तर है

संजीव वर्मा 'सलिल'
*
जमीं बिस्तर है, दुल्हन ज़िंदगी है.
न कुछ भी शेष धर तो बंदगी है..

नहीं कुदरत करे अपना-पराया.
दिमागे-आदमी की गंदगी है..

बिना कोशिश जो मंजिल चाहता है
इरादों-हौसलों की मंदगी है..

जबरिया बात मनवाना किसी से
नहीं इंसानियत, दरिन्दगी है..

बात कहने से पहले तौल ले गर
'सलिल' कविताई असली छंदगी है..

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शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

मुक्तिका: आँखों जैसी गहरी झील - संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

संजीव 'सलिल'
*
आँखों जैसी गहरी झील.
सकी नहीं लहरों को लील..

पर्यावरण प्रदूषण की
ठुके नहीं छाती में कील..

समय-डाकिया महलों को
कुर्की-नोटिस कर तामील..

मिष्ठानों का लोभ तजो.
खाओ बताशे के संग खील..

जनहित-चुहिया भोज्य बनी.
भोग लगायें नेता-चील..

लोकतंत्र की उड़ी पतंग.
थोड़े ठुमके, थोड़ी ढील..

पोशाकों की फ़िक्र न कर.
हो न इरादा गर तब्दील..

छोटा मान न कदमों को
नाप गये हैं अनगिन मील..

सूरज जाये महलों में.
'सलिल' कुटी में हो कंदील..

********************

मुक्तिका ; पटवारी जी ---- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
पटवारी जी                                                                                             
संजीव 'सलिल'
*
यहीं कहीं था, कहाँ खो गया पटवारी जी?
जगते-जगते भाग्य सो गया पटवारी जी..

गैल-कुआँ घीसूका, कब्जा ठाकुर का है.
फसल बैर की, लोभ बो गया पटवारी जी..

मुखिया की मोंड़ी के भारी पाँव हुए तो.
बोझा किसका?, कौन ढो गया पटवारी जी..

कलम तुम्हारी जादू करती मान गये हम.
हरा चरोखर, खेत हो गया पटवारी जी..

नक्शा-खसरा-नकल न पायी पैर घिस गये.
कुल-कलंक सब टका धो गया पटवारी जी..

मुट्ठी गरम करो लेकिन फिर दाल गला दो.
स्वार्थ सधा, ईमान तो गया पटवारी जी..

कोशिश के धागे में आशाओं का मोती.
'सलिल' सिफारिश-हाथ पो गया पटवारी जी..

********************************************

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

ग़ज़ल के दोष: राणा प्रताप सिंह

ग़ज़ल के दोष:

राणा प्रताप सिंह
*
आइये कुछ बात करते हैं ग़ज़ल के दोषों के बारे में| मुझे जो भी ज्ञान अपने
गुरुवों आदरणीय श्री योगराज प्रभाकर, गुरुदेव पंकज सुबीर जी (उनके ब्लॉग
सुबीर संवाद सेवा से) और डाक्टर कुंवर बेचैन की पुस्तक (ग़ज़ल का व्याकरण)
से प्राप्त हुआ है उसे आपके समक्ष रखना अपना फ़र्ज़ समझता हूँ| आशा है आप सभी
लाभान्वित होंगे|

सबसे पहले बात करते हैं काफिये के दोष की| अक्सर हम देखते हैं कि लोग काफियों के दोष में अक्सर फंस जाते हैं| यह बात पूरी तरह से स्पष्ट है कि
जो काफिया हमने ग़ज़ल के मतले में ले लिया उसे पूरी ग़ज़ल में निभाना हमारा
फ़र्ज़ बन जाता है| नीचे के कुछ उदहारण बात को और भी स्पष्ट कर सकेंगे|

१. मात्राओं का काफिया-

-जैसे अगर हमने जीता और सीखा काफिये ग़ज़ल के मतले में ले लिए हैं तो हमें ऐसे काफिये लेने होंगे जिसमे
की मात्रा आये जैसे गाया, निभाया, सताया आदि|


उदाहरण देखिये
तूने ये फूल जो ज़ुल्फ़ों में लगा रखा है 
इक दिया है जो अँधेरों में जला रखा है 
(यहाँ पर रखा है तो रदीफ़ हो गया और लगा और जला में की मात्रा सामान है इसलिए नीचे के शेर में भी की मात्रा का ही काफिया चलेगा)

इम्तेहाँ और मेरी ज़ब्त का तुम क्या लोगे 
मैं ने धड़कन को भी सीने में छुपा रखा है

दिल था एक शोला मगर बीत गये दिन वो क़तील, 
अब क़ुरेदो ना इसे राख़ में क्या रखा है 


-जैसे अगर हमने जीती और सीखी काफिये ग़ज़ल के मतले में ले लिए हैं तो हमें ऐसे काफिये लेने होंगे जिसमे की मात्रा आये जैसे गयी , निभायी, सताई
आदि|

यहीं नियम अन्य मात्राओं के लिए भी लागू होता है|

२. अक्षरों का काफिया

-जैसे हमने मतले में जीता और पीता काफिये ले लिए अगर आप गौर से देखें तो यहाँ भी आ की मात्रा ही है परन्तु ईता दोनों काफिये में सामान है इसलिए हमें बाकी के शेरों में भी ऐसे ही काफिये लेने होंगे जिसमे अंत में ईता आये जैसे रीता| अगर मतले में जीता के साथ खाता लिया होता तो बाकी के काफियों में ता होता जैसे की रोता|

उदाहरण देखिये (कतील शिफाई)


अपने होंठों पर सजाना चाहता हूँ 
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ 
(यहाँ पर चाहता हूँ  तो रदीफ़ हो गया और सजाना और गुनगुनाना में आना  समान है इसलिए नीचे के शेर में भी आना वाले ही काफिये चलेंगे)

कोई आँसू तेरे दामन पर गिराकर 
बूँद को मोती बनाना चाहता हूँ 

थक गया मैं करते-करते याद तुझको 
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ

छा रहा है सारी बस्ती में अँधेरा 
रोशनी हो, घर जलाना चाहता हूँ 

आख़री हिचकी तेरे ज़ानों पे आये 
मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ



३. अनुनासिकता

-हिंदी के कई शब्दों में बिंदी होती है, तो वही कानून यहाँ भी लागू होता है की अगर मतले के दोनों काफियों में बिंदी
है तो बाकी के हर शेरों के काफियों में भी बिंदी होगी| नहीं, कहीं के साथ यहीं और वहीँ जैसे ही काफिये चलेंगे सही नहीं|

उदाहरण देखिये


रची है रतजगो की चाँदनी जिन की जबीनों में
"क़तील" एक उम्र गुज़री है हमारी उन हसीनों में
वो जिन के आँचलों से ज़िन्दगी तख़लीक होती है
धड़कता है हमारा दिल अभी तक उन हसीनों में
ज़माना पारसाई की हदों से हम को ले आया
मगर हम आज तक रुस्वा हैं अपने हमनशीनों में
तलाश उनको हमारी तो नहीं पूछ ज़रा उनसे
वो क़ातिल जो लिये फिरते हैं ख़ंज़र आस्तीनों में
 आभार- ओबीओ 
*********************

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

सम-सामयिक हिन्दी पद्य के सर्वाधिक प्रचलित काव्य रूपों में से एक 'मुक्तिका'

सम-सामयिक हिन्दी पद्य के सर्वाधिक प्रचलित काव्य रूपों में से एक 'मुक्तिका'



मुक्तिका वह पद्य रचना है जिसका-

१. हर अंश अन्य अंशों से मुक्त या अपने आपमें स्वतंत्र होता है.

२. प्रथम, द्वितीय तथा उसके बाद हर सम या दूसरा पद पदांत तथा तुकांत युक्त होता है. इसका साम्य कुछ-कुछ उर्दू ग़ज़ल के काफिया-रदीफ़ से होने पर भी यह इस मायने में भिन्न है कि इसमें काफिया मिलाने के नियमों का पालन न किया जाकर हिन्दी व्याकरण के नियमों का ध्यान रखा जाता है.

२. हर पद का पदभार हिंदी मात्रा गणना के अनुसार समान होता है. यह मात्रिक छन्द में निबद्ध पद्य रचना है. इसमें लघु को गुरु या गुरु को लघु पढ़ने की छूट नहीं होती.

३. मुक्तिका का कोई एक या कुछ निश्चित छंद नहीं हैं. इसे जिस छंद में रचा जाता है उसके शैल्पिक नियमों का पालन किया जाता है.

४.हाइकु मुक्तिका में हाइकु के सामान्यतः प्रचलित ५-७-५ मात्राओं के शिल्प का पालन किया जाता है, दोहा मुक्तिका में दोहा (१३-११), सोरठा मुक्तिका में सोरठा (११-१३), रोला मुक्तिका में रोला छंदों के नियमों का पालन किया जाता है.

५. मुक्तिका का प्रधान लक्षण यह है कि उसकी हर द्विपदी अलग-भाव-भूमि या विषय से सम्बद्ध होती है अर्थात अपने आपमें मुक्त होती है. एक द्विपदी का अन्य द्विपदीयों से सामान्यतः कोई सम्बन्ध नहीं होता.

६. किसी विषय विशेष पर केन्द्रित मुक्तिका की द्विपदियाँ केन्द्रीय विषय के आस-पास होने पर भी आपस में असम्बद्ध होती हैं.

७. मुक्तिका को अनुगीत, तेवरी, गीतिका, हिन्दी ग़ज़ल आदि भी कहा गया है.

गीतिका हिन्दी का एक छंद विशेष है अतः, गीत के निकट होने पर भी इसे गीतिका कहना उचित नहीं है.

तेवरी शोषण और विद्रूपताओं के विरोध में विद्रोह और परिवर्तन की भाव -भूमि पर रची जाती है. ग़ज़ल का शिल्प होने पर भी तेवरी के अपनी स्वतंत्र पहचान है.

हिन्दी ग़ज़ल के विविध रूपों में से एक मुक्तिका है. मुक्तिका उर्दू गजल की किसी बहर पर भी आधारित हो सकती है किन्तु यह उर्दू ग़ज़ल की तरह चंद लय-खंडों (बहरों) तक सीमित नहीं है.

इसमें मात्रा या शब्द गिराने अथवा लघु को गुरु या गुरु को लघु पढने की छूट नहीं होती.

उदाहरण :

१. बासंती दोहा मुक्तिका


आचार्य संजीव वर्मा ’सलिल’
*

स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित हैं कचनार.

किंशुक कुसुम विहँस रहे या दहके अंगार..
*
पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.

पवन खो रहा होश है, लख वनश्री श्रृंगार..
*
महुआ महका देखकर, बहका-चहका प्यार.

मधुशाला में बिन पिये सर पर नशा सवार..
*
नहीं निशाना चूकती, पञ्च शरों की मार.

पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..
*
नैन मिले लड़ झुक उठे, करने को इंकार.

देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..
*
मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.

ऋतु बसंत में मन करे, मिल में गले, खुमार..
*
ढोलक टिमकी मँजीरा, करें ठुमक इसरार.

तकरारों को भूलकर, नाचो-गाओ यार..
*
घर आँगन तन धो लिया, सचमुच रूप निखार.

अपने मन का मैल भी, हँसकर 'सलिल' बुहार..
*
बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.

सूरत-सीरत रख 'सलिल', निर्मल-विमल सँवार..

*******
२. निमाड़ी दोहा मुक्तिका:

धरs माया पs हात तू, होवे बड़ा पार.
हात थाम कदि साथ दे, सरग लगे संसार..
*
सोन्ना को अंबर लगs, काली माटी म्हांर.
नेह नरमदा हिय मंs, रेवा की जयकार..
*
वउ -बेटी गणगौर छे, संझा-भोर तिवार.
हर मइमां भगवान छे, दिल को खुलो किवार..
*
'सलिल' अगाड़ी दुखों मंs, मन मं धीरज धार.
और पिछाड़ी सुखों मंs, मनख रहां मन मार..
*
सिंगा की सरकार छे, ममता को दरबार.
'सलिल' नित्य उच्चार ले, जय-जय-जय ओंकार..
*
लीम-बबुल को छावलो, सिंगा को दरबार.
शरत चाँदनी कपासी, खेतों को सिंगार..
*
मतवाला किरसाण ने, मेहनत मन्त्र उचार.
सरग बनाया धरा को, किस्मत घणी सँवार..
*
नाग जिरोती रंगोली, 'सलिल' निमाड़ी प्यार.
घट्टी ऑटो पीसती, गीत गूंजा भमसार..
*
रयणो खाणों नाचणो, हँसणो वार-तिवार.
गीत निमाड़ी गावणो, चूड़ी री झंकार..
*
कथा-कवाड़ा वाsर्ता, भरसा रस की धार.
हिंदी-निम्माड़ी 'सलिल', बहिनें करें जगार..

******************************

३.  (अभिनव प्रयोग)

दोहा मुक्तिका

'सलिल'
*
तुमको मालूम ही नहीं शोलों की तासीर।
तुम क्या जानो ख्वाब की कैसे हो ताबीर?

बहरे मिलकर सुन रहे गूँगों की तक़रीर।
बिलख रही जम्हूरियत, सिसक रही है पीर।

दहशतगर्दों की हुई है जबसे तक्सीर
वतनपरस्ती हो गयी खतरनाक तक्सीर।

फेंक द्रौपदी खुद रही फाड़-फाड़ निज चीर।
भीष्म द्रोण कूर कृष्ण संग, घूरें पांडव वीर।

हिम्मत मत हारें- करें, सब मिलकर तदबीर।
प्यार-मुहब्बत ही रहे मजहब की तफसीर।

सपनों को साकार कर, धरकर मन में धीर।
हर बाधा-संकट बने, पानी की प्राचीर।

हिंद और हिंदी करे दुनिया को तन्वीर।
बेहतर से बेहतर बने इन्सां की तस्वीर।

हाय! सियासत रह गयी, सिर्फ स्वार्थ-तज़्वीर।
खिदमत भूली, कर रही बातों की तब्ज़ीर।

तरस रहा मन 'सलिल' दे वक़्त एक तब्शीर।
शब्दों के आगे झुके, जालिम की शमशीर।

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तासीर = असर/ प्रभाव, ताबीर = कहना, तक़रीर = बात/भाषण, जम्हूरियत = लोकतंत्र, दहशतगर्दों = आतंकवादियों, तकसीर = बहुतायत, वतनपरस्ती = देशभक्ति, तकसीर = दोष/अपराध, तदबीर = उपाय, तफसीर = व्याख्या, तनवीर = प्रकाशित, तस्वीर = चित्र/छवि, ताज्वीर = कपट, खिदमत = सेवा, कौम = समाज, तब्जीर = अपव्यय, तब्शीर = शुभ-सन्देश, ज़ालिम = अत्याचारी, शमशीर = तलवार..

४. गीतिका

आदमी ही भला मेरा गर करेंगे.
बदी करने से तारे भी डरेंगे.

बिना मतलब मदद कर दे किसी की
दुआ के फूल तुझ पर तब झरेंगे.

कलम थामे, न जो कहते हकीकत
समय से पहले ही बेबस मरेंगे।

नरमदा नेह की जो नहाते हैं
बिना तारे किसी के खुद तरेंगे।

न रुकते जो 'सलिल' सम सतत बहते
सुनिश्चित मानिये वे जय वरेंगे।
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५. मुक्तिका

तितलियाँ
*

यादों की बारात तितलियाँ.
कुदरत की सौगात तितलियाँ..

बिरले जिनके कद्रदान हैं.
दर्द भरे नग्मात तितलियाँ..

नाच रहीं हैं ये बिटियों सी
शोख-जवां ज़ज्बात तितलियाँ..

बद से बदतर होते जाते.
जो, हैं वे हालात तितलियाँ..

कली-कली का रस लेती पर
करें न धोखा-घात तितलियाँ..

हिल-मिल रहतीं नहीं जानतीं
क्या हैं शाह औ' मात तितलियाँ..

'सलिल' भरोसा कर ले इन पर
हुईं न आदम-जात तितलियाँ..
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७. जनक छंदी मुक्तिका:
सत-शिव-सुन्दर सृजन कर
*

सत-शिव-सुन्दर सृजन कर,
नयन मूँद कर भजन कर-
आज न कल, मन जनम भर.
               
                   कौन यहाँ अक्षर-अजर?
                   कौन कभी होता अमर?
                   कोई नहीं, तो क्यों समर?

किन्तु परन्तु अगर-मगर,
लेकिन यदि- संकल्प कर
भुला चला चल डगर पर.

                   तुझ पर किसका क्या असर?
                   तेरी किस पर क्यों नज़र?
                   अलग-अलग जब रहगुज़र.

किसकी नहीं यहाँ गुजर?
कौन न कर पाता बसर?
वह! लेता सबकी खबर.

                    अपनी-अपनी है डगर.
                    एक न दूजे सा बशर.
                    छोड़ न कोशिश में कसर.

बात न करना तू लचर.
पाना है मंजिल अगर.
आस न तजना उम्र भर.

                     प्रति पल बन-मिटती लहर.
                     ज्यों का त्यों रहता गव्हर.
                     देख कि किसका क्या असर?

कहे सुने बिन हो सहर.
तनिक न टलता है प्रहर.
फ़िक्र न कर खुद हो कहर.

                       शब्दाक्षर का रच शहर.
                       बहे भाव की नित नहर.
                       ग़ज़ल न कहना बिन बहर.

'सलिल' समय की सुन बजर.
साथ अमन के है ग़दर.
तनिक न हो विचलित शजर.

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शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

मुक्तिका: कौन चला वनवास रे जोगी? -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                                                                                            
कौन चला वनवास रे जोगी?

संजीव 'सलिल'
*

*

कौन चला वनवास रे जोगी?
अपना ही विश्वास रे जोगी.
*
बूँद-बूँद जल बचा नहीं तो
मिट न सकेगी प्यास रे जोगी.
*
भू -मंगल तज, मंगल-भू की
खोज हुई उपहास रे जोगी.
*
फिक्र करे हैं सदियों की, क्या
पल का है आभास रे जोगी?
*
गीता वह कहता हो जिसकी
श्वास-श्वास में रास रे जोगी.
*
अंतर से अंतर मिटने का
मंतर है चिर हास रे जोगी.
*
माली बाग़ तितलियाँ भँवरे
माया है मधुमास रे जोगी.
*
जो आया है वह जायेगा
तू क्यों हुआ उदास रे जोगी.
*
जग नाकारा समझे तो क्या
भज जो खासमखास रे जोगी.
*
राग-तेल, बैराग-हाथ ले
रब का 'सलिल' खवास रे जोगी.
*
नेह नर्मदा नहा 'सलिल' सँग
तब ही मिले उजास रे जोगी.
*

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

ग़ज़ल: एक परिचय : संजीव 'सलिल'

ग़ज़ल: एक परिचय                                                                                                                                      
संजीव 'सलिल'
*
ग़ज़ल - उर्दू का एक सर्वाधिक लोकप्रिय काव्य-रूप है जो मूलतः अरबी से आया है. ग़ज़ल स्त्रीलिंग शब्द है जिसकी व्याख्या है 'सुखन अज़ जनान गुफ्तन' अर्थात औरतों की बातें या ज़िक्र करना'. अरबी में ग़ज़ल की उत्पत्ति लघु प्रेमगीत 'तशीब' या 'कसीदे' से तथा फारसी में गज़ाला-चश्म (मृगनयनी) अर्थात महबूब / महबूबा से वार्तालाप से मान्य है. इसलिए 'नाज़ुक खयाली' (हृदय की कोमल भावनाएँ) ग़ज़ल का वैशिष्ट्य मानी गयीं. सूफियों ने महबूब ईश्वर को मानकर आध्यात्मिक दार्शनिक ग़ज़लें कहीं. कालांतर में क्रांति और सामाजिक वैषम्य भी ग़ज़लों का विषय बन गये. ग़ालिब ने इसे 'तंग गली' और  'कोल्हू का बैल' कहकर नापसंदगी ज़ाहिर की लेकिन उनकी ग़ज़लों ने ही उन्हें अमर कर दिया. उनकी श्रेष्ठ(?) रचनाएँ क्लिष्टता के कारण दीवानों (संकलनों) में ही रह गयीं.
ग़ज़ल के २ प्रकार मुसलसल ग़ज़ल (जिसके सभी शे'र एक-दूसरेसे संबद्ध हों) तथा गैर मुसलसल ग़ज़ल  (जिसका हर शेर अपने आपमें स्वतंत्र और अलग विषय पर हो) हैं.
मिसरा = कविता की एक पंक्ति, एक काव्य-पद.
मुरस्सा ग़ज़ल = मानकों के अनुरूप पूरी तरह से अलंकृत ग़ज़ल को मुरस्सा ग़ज़ल कहते हैं. 
मिसरा ऊला / मिसरा अव्वल = शे'र की पहली पंक्ति.
मिसरा सानी =  शेर की दूसरी /अंतिम पंक्ति.
शे'र = शाब्दिक अर्थ जानना, जानी हुई बात, उर्दू कविता की प्राथमिक इकाई, दो मिसरों का युग्म, द्विपदी. बहुवचन अश'आर (उर्दू), शेरों (हिंदी). शे'र की दोनों पंक्तियों का हमवज्न / समान पदभार का होना ज़रूरी है. सुविधा के लिये कह सकते हैं कि दोनों की मात्राएँ (मात्रिक छंद में) अथवा अक्षर (वर्णिक छंद में) समान हों. सार यह कि कि दोनों पंक्तियों के उच्चारण में लगनेवाला समय समान हो. शे'र को फर्द या बैत भी कहते हैं.
शायर = जाननेवाला, कवि.
बहर = छंद. आहंग (अवरोह) के लिहाज़ से शब्दों की आवाज़ों के आधार पर तय किये गये पैमाने 'बहर' कहे जाते हैं.
बैत = एकमात्र शे'र.
बैतबाजी = किसी विषय विशेष पर केन्द्रित शे'रों की अन्त्याक्षरी.
रदीफ़ / तुकांत = शेरों के दूसरे मिसरे में अंत में प्रयुक्त अपरिवर्तित शब्द या शब्द समूह, बहुवचन रदाइफ़ / पदांतों. ग़ज़ल में रदीफ़ होना वांछित तो है जरूरी नहीं अर्थात ग़ज़ल बेरदीफ भी हो सकती है. देखिये उदाहरण २.
काफिया / पदांत = शे'रों के दूसरे मिसरे में रदीफ़ से पहले प्रयुक्त एक जैसी आवाज़ के अंतिम शब्द / अक्षर / मात्रा. बहुवचन कवाफी / काफिये. ग़ज़ल में काफिये का होना अनिवार्य है, बिना काफिये की ग़ज़ल हो ही नहीं सकती.
वज्न = वजन / पदभार. अरबी-फ़ारसी बहर के आधार पर उर्दू काव्य में लय विशेष की प्रमुखता के साथ निश्चित मात्राओं के वर्ण समूह को वज्न कहते हैं. काव्य पंक्ति के अक्षरों को रुक्न (गण) की मात्राओं से मिलाकर बराबर करने को वज्न ठीक करना कहा जाता है. ग़ज़ल के सभी अश'आर हमवज्नी (एक छंद में) होना अनिवार्य है.
तक्तीअ / तकतीअ = छंद-विन्यास / शाब्दिक अर्थ टुकड़े करना. हिंदी में गण तथा उर्दू में रुक्न के आधार पर किया जाता है.
रुक्न (गण) = पूर्व निश्चित मात्रा-समूह. जैसे-  फ़अल, फ़ाइल, फ़ईलुन, फ़ऊल आदि, हिंदी के जगण, मगन, तगण की तरह. बहुवचन अर्कान/अरकान.
उर्दू के छंद प्रायः मात्रिक हैं, उनमें एक गुरु (दीर्घ) के स्थान पर दो लघु आना जायज़ है. संस्कृत की तरह उर्दू में भी गुरु को लघु पढ़ा जा सकता है किन्तु इसे सामान्यतः नहीं अपवाद स्वरूप ज़रूरी तथा उपयुक्त होने पर ही काम में लाना चाहिए ताकि अर्थ का अनर्थ न हो.  देखिये उदाहरण ३.
उदाहरण:
१.
दिल से तो हर मुआमला करके चले थे साफ़ हम.
कहने में उनके सामने बात बदल-बदल गई..
आखिरे-शब् के हमसफर 'फैज़' न जाने क्या हुए.
रह गई किस जगह सबा, सुब्ह किधर निकल गई..   
यहाँ 'गई' रदीफ़ है जबकि उसके थी पहले 'बदल' और 'निकल' कवाफी हैं.
गजल का पहला शे'र शायर अपनी मर्जी से रदीफ़-काफिया लेकर कहता है, बाद के शे'रों में यही बंधन हो जाता है. रदीफ़ को जैसा का तैसा उपयोग करना होता है जबकि काफिया के अंत को छोड़कर कुछ नियमों का पालन करते हुए प्रारंभ बदल सकता है. जैसे उक्त शेरों में 'बद' और 'निक'. जब काफिया न मिल सके तो इसे 'काफिया तंग होना' कहते हैं. काफिये-रदीफ़ के इस बंधन को 'ज़मीन' कहा जाता है. कभी-कभी कोई विचार केवल इसलिए छोड़ना होता है कि उसे समान ज़मीन में कहना सम्भव नहीं होता. अच्छा शायर उस विचार को किसी अन्य काफिये-रदीफ़ के साथ अन्य शे'र में कहता है. जो शायर वज्न या काफिये-रदीफ़ का ध्यान रखे बिना ठूससमठास करते हैं कमजोर शायर कहे जाते हैं.
२. बेरदीफ ग़ज़ल- हसन नईम की ग़ज़ल के इन शे'रों में सिर्फ काफिये (बड़े, लड़े, पड़े) हैं, रदीफ़ नहीं है.
यकसां थे सब निगाह में, छोटे हों या बड़े.
दिल ने कहा तो एक ज़माने हम लड़े..
ज़िन्दां की एक रात में इतना जलाल था
कितने ही आफताब बलंदी से गिर पड़े..
३.
गुलिस्तां में जाकर हरेक गुल को देखा.
न तेरी सी रंगत, न तेरी सी बू है..
 बहर के अनुसार
गुलिस्तां में जाकर हर इक गुल को देखा.
न तेरी सि रंगत, न तेरी सि बू है..
मतला = ग़ज़ल का पहला शेर, मुखड़ा, आरम्भिका. इसके दोनों मिसरों में रदीफ़-काफिया या काफिया होता है. कभी-कभी एक से अधिक मतले हो सकते हैं जिन्हें क्रमशः मतला सानी, मतला सोम, मतला चहारम आदि कहते हैं. उस्ताद ज़ौक की एक ग़ज़ल में मय रदीफ़ १० मतले हैं.
हुस्ने-मतला = मतला या मतला-ऐ-सानी के बाद का शे'र हुस्ने-मतला कहते हैं.
दो गज़ला = किसी ग़ज़ल में मतला के शे'र १७ हों तथा उसके और फिर अन्य शे'र हों तो उसे दो गज़ला कहते हैं. इसी प्रकार 'सिह गज़ला, चहार-गज़ला भी होते हैं.
शाहबैत = ग़ज़ल के सबसे अच्छे शे'र को शाह्बैत या फर्द कहते हैं.
मकता / मक्ता = ग़ज़ल का अंतिम शे'र जिसमें 'शायर का 'तखल्लुस' (उपनाम) होना जरूरी है, अंतिका. मकटाविहीन ग़ज़ल को 'बेमकता ग़ज़ल' कहते हैं. देखिये उदाहरण १.
४. पहले कभी-कभी शायर मतले और मकते दोनों में तखल्लुस का प्रयोग करते थे.
जो इस शोर से 'मेरे' रोता रहेगा
तो हमसाया काहे को सोता रहेगा.  -मतला
बस ऐ 'मीर' मिज़गां से पोंछ आँसुओं को
तू कब तक ये मोती पिरोता रहेगा.  - मकता
ग़ज़ल में आम तौर पर विषम संख्या में ५ से ११ तक शेर होते हैं लेकिन फिराक गोरखपुरी ने १०० शे'रों तक की ग़ज़ल कही है. ग़ज़ल में जुफ्त (सम) संख्या में शे'र होने को एक काव्य-दोष कहा गया है. अब तो २०००, ३००० शेरों की गज़लें (?) भी कही जा रहीं हैं. आरम्भ में ग़ज़लों में एक मिसरा अरबी तथा दूसरा फारसी का होता था. ऐसी कुछ गज़लें अमीर खुसरो की भी हैं.
रेख्ती = ग़ज़ल का एक रूप जिसमें ख्यालात व ज़ज्बात औरतों की तरफ से, उन्हीं की रंगीन बेगमाती जुबान में हो.
दीवान = ग़ज़ल संग्रह.
ज़मीन = ग़ज़ल का बाह्य कलेवर अर्थात छंद, काफिया, रदीफ़.
तरह = मिसरे-तरह = वह मिसरा जिसके छंद, काफिये और रदीफ़ की ज़मीन पर मुशायरे के सभी शायर ग़ज़ल कहते हैं. तरह के आधार पर हुए मुशायरे को तरही मुशायरा कहते हैं.
गिरिह / गिरह = किसरे-तरह को मिसरा-ए-सानी बनाकर अपनी ओर से पहला मिसरा लगाना. यह शायर की कुशलता मानी जाती है.
तखल्लुस = उपनाम. कभी असली नाम का एक भाग, कभी बिलकुल अलग, प्रायः एक कभी-कभी एक से अधिक भी.
तारीख़ = किसी घटना पर लिखा गया ऐसा मिसरा जिसके अक्षरों के प्रतीक अंकों को (हर अक्षर का मान एक संख्या विशेष है) जोड़ने पर उस घटना की तिथि या साल निकल आये. इसके लिये शायर का जानकार और कुशल होना बहुत जरूरी है.
५. चकबस्त की मृत्यु पर उनके एक शायर मित्र ने शे'र कहा-
उनके मिसरे ही से तारीख़ है हमराहे-'अज़ा'
'मौत क्या है इन्हीं अजज़ा का परीशां होना.
अज़ा = ७८, दूसरा मिसरा = १२६६ योग = १३४४ हिज़री कैलेण्डर में चकबस्त का मृत्यु-वर्ष.
हज़ल = ग़ज़ल के वज़न पर मगर ठीक उल्टा. ग़ज़ल में भाव की प्रधानता और शालीनता प्रमुख हज़ल में भाव की न्यूनता और अश्लीलता की हद तक अशालीनता.
हजो = ग़ज़ल में कसीदाकारी (प्रशंसा) के स्थान पर निंदा या मजाक हो तो उसे 'हजो' कहते हैं.
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