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शुक्रवार, 15 मई 2009

ग़ज़ल: मनु बेतखल्लुस, दिल्ली


हस्रतों की उनके आगे यूँ नुमाईश हो गई

लब न हिल पाये निगाहों से गुजारिश हो गई

उम्र भर चाहा किए तुझको खुदा से भी सिवा

यूँ नहीं दिल में मेरे तेरी रिहाइश हो गई

अब कहीं जाना बुतों की आशनाई कहर है

जब किसी अहले-वफ़ा की आजमाइश हो गई

घर टपकता है मेरा, सो लौट जाएगा अबर

हम भरम पाले हुए थे और बारिश हो गई

जब तलक वो गौर फरमाते मेरी तहरीर पर

तब तलक मेरे रकीबों की सिफारिश हो गई

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मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

ग़ज़ल सलिला: मनु बतखल्लुस

जुनूने-गिरिया का ऐसा असर भी, मुझ पे होता है

कि जब तकिया नहीं मिलता, तो दिल कागज़ पे रोता है

अबस आवारगी का लुत्फ़ भी, क्या खूब है यारों,

मगर जो ढूँढते हैं, वो सुकूं बस घर पे होता है

तू बुत है, या खुदा है, क्या बला है, कुछ इशारा दे,

हमेशा क्यूँ मेरा सिजदा, तेरी चौखट पे होता है

अजब अंदाज़ हैं कुदरत, तेरी नेमत-नवाजी के

कोई पानी में बह जाता, कोई बंजर पे रोता है

दखल इतना भी, तेरा न मेरा उसकी खुदाई में

कि दिल कुछ चाहता है, और कुछ इस दिल पे होता है
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