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सोमवार, 2 नवंबर 2020

लकार

 *लकार*

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संस्कृत में लट् , लिट् , लुट् , लृट् , लेट् , लोट् , लङ् , लिङ् , लुङ् , लृङ् – ये दस लकार होते हैं। वास्तव में ये दस प्रत्यय हैं जो धातुओं में जोड़े जाते हैं। इन दसों प्रत्ययों के प्रारम्भ में 'ल' है इसलिए इन्हें 'लकार' कहते हैं (ठीक वैसे ही जैसे ॐकार, अकार, इकार, उकार इत्यादि)। इन दस लकारों में से आरम्भ के छः लकारों के अन्त में 'ट्' है- लट् लिट् लुट् आदि इसलिए ये टित् लकार कहे जाते हैं और अन्त के चार लकार ङित् कहे जाते हैं क्योंकि उनके अन्त में 'ङ्' है। व्याकरणशास्त्र में जब धातुओं से पिबति, खादति आदि रूप सिद्ध किये जाते हैं तब इन टित् और ङित् शब्दों का बहुत बार प्रयोग किया जाता है। इन लकारों का प्रयोग विभिन्न कालों की क्रिया बताने के लिए किया जाता है। जैसे – जब वर्तमान काल की क्रिया बतानी हो तो धातु से लट् लकार जोड़ देंगे, परोक्ष भूतकाल की क्रिया बतानी हो तो लिट् लकार जोड़ेंगे। (१) लट् लकार वर्तमान काल) जैसे :- श्यामः खेलति । ( श्याम खेलता है।) (२) लिट् लकार अनद्यतन परोक्ष भूतकाल) जो अपने साथ न घटित होकर किसी इतिहास का विषय हो । जैसे :-- रामः रावणं ममार । ( राम ने रावण को मारा ।) (३) लुट् लकार अनद्यतन भविष्यत् काल) जो आज का दिन छोड़ कर आगे होने वाला हो । जैसे :-- सः परश्वः विद्यालयं गन्ता । ( वह परसों विद्यालय जायेगा ।) (४) लृट् लकार सामान्य भविष्य काल) जो आने वाले किसी भी समय में होने वाला हो । जैसे :--- रामः इदं कार्यं करिष्यति । (राम यह कार्य करेगा।) (५) लेट् लकार यह लकार केवल वेद में प्रयोग होता है, ईश्वर के लिए, क्योंकि वह किसी काल में बंधा नहीं है।) (६) लोट् लकार ये लकार आज्ञा, अनुमति लेना, प्रशंसा करना, प्रार्थना आदि में प्रयोग होता है ।) जैसे :- भवान् गच्छतु । (आप जाइए ) ; सः क्रीडतु । (वह खेले) ; त्वं खाद । (तुम खाओ ) ; किमहं वदानि । (क्या मैं बोलूँ ?) (७) लङ् लकार अनद्यतन भूत काल ) आज का दिन छोड़ कर किसी अन्य दिन जो हुआ हो । जैसे :- भवान् तस्मिन् दिने भोजनमपचत् । (आपने उस दिन भोजन पकाया था।) (८) लिङ् लकार = इसमें दो प्रकार के लकार होते हैं :-- (क) आशीर्लिङ् किसी को आशीर्वाद देना हो) जैसे :- भवान् जीव्यात् (आप जीओ ) ; त्वं सुखी भूयात् । (तुम सुखी रहो।) (ख) विधिलिङ् किसी को विधि बतानी हो ।) जैसे :- भवान् पठेत् । (आपको पढ़ना चाहिए।) ; अहं गच्छेयम् । (मुझे जाना चाहिए।) (९) लुङ् लकार सामान्य भूत काल) जो कभी भी बीत चुका हो । जैसे :- अहं भोजनम् अभक्षत् । (मैंने खाना खाया।) (१०) लृङ् लकार ऐसा भूत काल जिसका प्रभाव वर्तमान तक हो) जब किसी क्रिया की असिद्धि हो गई हो । जैसे :- यदि त्वम् अपठिष्यत् तर्हि विद्वान् भवितुम् अर्हिष्यत् । (यदि तू पढ़ता तो विद्वान् बनता।) इस बात को स्मरण रखने के लिए कि धातु से कब किस लकार को जोड़ेंगे, निम्नलिखित श्लोक स्मरण कर लीजिए- लट् वर्तमाने लेट् वेदे भूते लुङ् लङ् लिटस्तथा । विध्याशिषोर्लिङ् लोटौ च लुट् लृट् लृङ् च भविष्यति ॥ (अर्थात् लट् लकार वर्तमान काल में, लेट् लकार केवल वेद में, भूतकाल में लुङ् लङ् और लिट्, विधि और आशीर्वाद में लिङ् और लोट् लकार तथा भविष्यत् काल में लुट् लृट् और लृङ् लकारों का प्रयोग किया जाता है।) *लकारों के नाम याद रखने की विधि-* ल् में प्रत्याहार के क्रम से ( अ इ उ ऋ ए ओ ) जोड़ दें और क्रमानुसार ( ट् ) जोड़ते जाऐं । फिर बाद में ( ङ् ) जोड़ते जाऐं जब तक कि दश लकार पूरे न हो जाएँ । जैसे लट् लिट् लुट् लृट् लेट् लोट् लङ् लिङ् लुङ् लृङ् ॥ इनमें लेट् लकार केवल वेद में प्रयुक्त होता है । लोक के लिए नौ लकार शेष रहे । अब इन नौ लकारों में लङ् के दो भेद होते हैं :-- आशीर्लिङ् और विधिलिङ् । इस प्रकार लोक में दश के दश लकार हो गए ।

सोमवार, 5 सितंबर 2016

ganesh vandana

प्रातस्मरण स्तोत्र (दोहानुवाद सहित) -संजीव 'सलिल'

II ॐ  श्री गणधिपतये नमः II


== प्रातस्मरण स्तोत्र (दोहानुवाद सहित) ==



हिंदी काव्यानुवाद: संजीव 'सलिल'
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प्रात:स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुं सिंदूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मं
उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्डमाखण्डलादि सुरनायक वृन्दवन्द्यं
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प्रात सुमिर गणनाथ नित, दीनस्वामि नत माथ.
शोभित गात सिंदूर से, रखिये सिर पर हाथ..
विघ्न-निवारण हेतु हों, देव दयालु प्रचण्ड.
सुर-सुरेश वन्दित प्रभो!, दें पापी को दण्ड..



प्रातर्नमामि चतुराननवन्द्यमान मिच्छानुकूलमखिलं च वरं ददानं.
तं तुन्दिलंद्विरसनाधिप यज्ञसूत्रं पुत्रं विलासचतुरं शिवयो:शिवाय.
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ब्रम्ह चतुर्मुखप्रात ही, करें वन्दना नित्य.
मनचाहा वर दास को, देवें देव अनित्य..
उदर विशाल- जनेऊ है, सर्प महाविकराल.
क्रीड़ाप्रिय शिव-शिवासुत, नमन करूँ हर काल..



प्रातर्भजाम्यभयदं खलु भक्त शोक दावानलं गणविभुंवर कुंजरास्यम.
अज्ञानकाननविनाशनहव्यवाह मुत्साहवर्धनमहं सुतमीश्वरस्यं..
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जला शोक-दावाग्नि मम, अभय प्रदायक दैव.
गणनायक गजवदन प्रभु!, रहिए सदय सदैव..

जड़-जंगल अज्ञान का, करें अग्नि बन नष्ट.
शंकर-सुत वंदन नमन, दें उत्साह विशिष्ट..

श्लोकत्रयमिदं पुण्यं, सदा साम्राज्यदायकं.
प्रातरुत्थाय सततं यः, पठेत प्रयाते पुमान..

नित्य प्रात उठकर पढ़े, त्रय पवित्र श्लोक.
सुख-समृद्धि पायें 'सलिल', वसुधा हो सुरलोक..

बुधवार, 11 नवंबर 2015

mahalakshayamashtak stotra

II श्री महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र II मूल पाठ-तद्रिन, हिंदी काव्यानुवाद-संजीव 'सलिल' II ॐ II











II श्री महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र II नमस्तेस्तु महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते I शंख चक्र गदा हस्ते महालक्ष्मी नमोsस्तुते II१II सुरपूजित श्रीपीठ विराजित, नमन महामाया शत-शत. शंख चक्र कर-गदा सुशोभित, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. नमस्ते गरुड़ारूढ़े कोलासुर भयंकरी I सर्व पापहरे देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II२II कोलाsसुरमर्दिनी भवानी, गरुड़ासीना नम्र नमन. सरे पाप-ताप की हर्ता, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्ट भयंकरी I सर्व दु:ख हरे देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II३II सर्वज्ञा वरदायिनी मैया, अरि-दुष्टों को भयकारी. सब दुःखहरनेवाली, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. सिद्धि-बुद्धिप्रदे देवी भुक्ति-मुक्ति प्रदायनी I मन्त्रमूर्ते सदा देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II४II भुक्ति-मुक्तिदात्री माँ कमला, सिद्धि-बुद्धिदात्री मैया. सदा मन्त्र में मूर्तित हो माँ, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. आद्यांतर हिते देवी आदिशक्ति महेश्वरी I योगजे योगसंभूते महालक्ष्मी नमोsस्तुते II५II हे महेश्वरी! आदिशक्ति हे!, अंतर्मन में बसो सदा. योग्जनित संभूत योग से, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. स्थूल-सूक्ष्म महारौद्रे महाशक्ति महोsदरे I महापापहरे देवी महालक्ष्मी नमोsस्तुते II६II महाशक्ति हे! महोदरा हे!, महारुद्रा सूक्ष्म-स्थूल. महापापहारी श्री देवी, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. पद्मासनस्थिते देवी परब्रम्ह स्वरूपिणी I परमेशीजगन्मातर्महालक्ष्मी नमोsस्तुते II७II कमलासन पर सदा सुशोभित, परमब्रम्ह का रूप शुभे. जगज्जननि परमेशी माता, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. श्वेताम्बरधरे देवी नानालंकारभूषिते I जगत्स्थिते जगन्मातर्महालक्ष्मी नमोsस्तुते II८II दिव्य विविध आभूषणभूषित, श्वेतवसनधारे मैया. जग में स्थित हे जगमाता!, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. महा लक्ष्यमष्टकस्तोत्रं य: पठेद्भक्तिमान्नर: I सर्वसिद्धिमवाप्नोति राज्यंप्राप्नोति सर्वदा II९II जो नर पढ़ते भक्ति-भाव से, महालक्ष्मी का स्तोत्र. पाते सुख धन राज्य सिद्धियाँ, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. एककालं पठेन्नित्यं महापाप विनाशनं I द्विकालं य: पठेन्नित्यं धन-धान्यसमन्वित: II१०II एक समय जो पाठ करें नित, उनके मिटते पाप सकल. पढ़ें दो समय मिले धान्य-धन, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. त्रिकालं य: पठेन्नित्यं महाशत्रु विनाशनं I महालक्ष्मीर्भवैन्नित्यं प्रसन्नावरदाशुभा II११II तीन समय नित अष्टक पढ़िये, महाशत्रुओं का हो नाश. हो प्रसन्न वर देती मैया, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. II तद्रिन्कृत: श्री महालक्ष्यमष्टकस्तोत्रं संपूर्णं II तद्रिंरचित, सलिल-अनुवादित, महालक्ष्मी अष्टक पूर्ण. नित पढ़ श्री समृद्धि यश सुख लें, नमन महालक्ष्मी शत-शत.. ******************************************* आरती क्यों और कैसे? संजीव 'सलिल' * ईश्वर के आव्हान तथा पूजन के पश्चात् भगवान की आरती, नैवेद्य (भोग) समर्पण तथा अंत में विसर्जन किया जाता है। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। आरती करने ही नहीं, इसमें सम्मिलित होंने से भी पुण्य मिलता है। देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। आरती का गायन स्पष्ट, शुद्ध तथा उच्च स्वर से किया जाता है। इस मध्य शंख, मृदंग, ढोल, नगाड़े , घड़ियाल, मंजीरे, मटका आदि मंगल वाद्य बजाकर जयकारा लगाया जाना चाहिए। आरती हेतु शुभ पात्र में विषम संख्या (1, 3, 5 या 7) में रुई या कपास से बनी बत्तियां रखकर गाय के दूध से निर्मित शुद्ध घी भरें। दीप-बाती जलाएं। एक थाली या तश्तरी में अक्षत (चांवल) के दाने रखकर उस पर आरती रखें। आरती का जल, चन्दन, रोली, हल्दी तथा पुष्प से पूजन करें। आरती को तीन या पाँच बार घड़ी के काँटों की दिशा में गोलाकार तथा अर्ध गोलाकार घुमाएँ। आरती गायन पूर्ण होने तक यह क्रम जरी रहे। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। आरती पूर्ण होने पर थाली में अक्षत पर कपूर रखकर जलाएं तथा कपूर से आरती करते हुए मन्त्र पढ़ें: कर्पूर गौरं करुणावतारं, संसारसारं भुजगेन्द्रहारं। सदावसन्तं हृदयारवंदे, भवं भवानी सहितं नमामि।। पांच बत्तियों से आरती को पंच प्रदीप या पंचारती कहते हैं। यह शरीर के पंच-प्राणों या पञ्च तत्वों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव पंच-प्राणों (पूर्ण चेतना) से ईश्वर को पुकारने का हो। दीप-ज्योति जीवात्मा की प्रतीक है। आरती करते समय ज्योति का बुझना अशुभ, अमंगलसूचक होता है। आरती पूर्ण होने पर घड़ी के काँटों की दिशा में अपने स्थान पट तीन परिक्रमा करते हुए मन्त्र पढ़ें: यानि कानि च पापानि, जन्मान्तर कृतानि च। तानि-तानि प्रदक्ष्यंती, प्रदक्षिणां पदे-पदे।। अब आरती पर से तीन बार जल घुमाकर पृथ्वी पर छोड़ें। आरती प्रभु की प्रतिमा के समीप लेजाकर दाहिने हाथ से प्रभु को आरती दें। अंत में स्वयं आरती लें तथा सभी उपस्थितों को आरती दें। आरती देने-लेने के लिए दीप-ज्योति के निकट कुछ क्षण हथेली रखकर सिर तथा चेहरे पर फिराएं तथा दंडवत प्रणाम करें। सामान्यतः आरती लेते समय थाली में कुछ धन रखा जाता है जिसे पुरोहित या पुजारी ग्रहण करता है। भाव यह हो कि दीप की ऊर्जा हमारी अंतरात्मा को जागृत करे तथा ज्योति के प्रकाश से हमारा चेहरा दमकता रहे। सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं। कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं। यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंतिहै कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है। जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं। दीपमालिका कल हर दीपक अमल-विमल यश-कीर्ति धवल दे...... शक्ति-शारदा-लक्ष्मी मैया, 'सलिल' सौख्य-संतोष नवल दें...

शनिवार, 12 नवंबर 2011

श्रीमद्भगवत गीता का भी श्लोकशः पद्यानुवाद

श्रीमद्भगवत गीता विश्व का अप्रतिम ग्रंथ है !
धार्मिक भावना के साथ साथ दिशा दर्शन हेतु सदैव पठनीय है !
जीवन दर्शन का मैनेजमेंट सिखाती है ! पर संस्कृत में है !
हममें से कितने ही हैं जो गीता पढ़ना समझना तो चाहते हैं पर संस्कृत नहीं जानते !
मेरे ८४ वर्षीय पूज्य पिता प्रो सी बी श्रीवास्तव विदग्ध जी संस्कृत व हिन्दी के विद्वान तो हैं ही , बहुत ही अच्छे कवि भी हैं , उन्होने महाकवि कालिदास कृत मेघदूत तथा रघुवंश के श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद किये , वे अनुवाद बहुत सराहे गये हैं . हाल ही उन्होने श्रीमद्भगवत गीता का भी श्लोकशः पद्यानुवाद पूर्ण किया . जिसे वे भगवान की कृपा ही मानते हैं .
उनका यह महान कार्य http://vikasprakashan.blogspot.com/ पर सुलभ है . रसास्वादन करें . व अपने अभिमत से सूचित करें . कृति को पुस्तकाकार प्रकाशित करवाना चाहता हूं जिससे इस पद्यानुवाद का हिन्दी जानने वाले किन्तु संस्कृत न समझने वाले पाठक अधिकतम सदुपयोग कर सकें . नई पीढ़ी तक गीता उसी काव्यगत व भावगत आनन्द के साथ पहुंच सके .
प्रसन्नता होगी यदि इस लिंक का विस्तार आपके वेब पन्ने पर भी करेंगे . यदि कोई प्रकाशक जो कृति को छापना चाहें , इसे देखें तो संपर्क करें ..०९४२५८०६२५२, विवेक रंजन श्रीवास्तव