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गुरुवार, 20 नवंबर 2025

ओ मेरी तुम, समीक्षा, सुरेन्द्र साहू,

कृति चर्चा- 
ओ मेरी तुम
- डॉ. सुरेन्द्र साहू 'निर्विकार'

[कृति विवरण - ओ मेरी तुम, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण विक्रम संवत २०७८ (ईस्वी २०२१), पेपरबैक बहुरंगी आवरण, पृष्ठ ११२, मूल्य ३००/-, समन्वय प्रकाशन, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष : ९४२५१८३२४४ ]

            साहित्य विशेषकर काव्य में अंतर्निहित श्रेष्ठ भाव, विचार एवं कल्पना रूपी आत्मा की संप्रेषणीयता पाठक को ज्ञात-आज्ञात रस और लय से भिगोकर बाँधती है। वे शाब्दिक अभिव्यक्तियाँ रस, छंद व अलंकार के आभूषण धारण कर लें तो सोने में सुहागा हो जाता है। रचनाकार की भावभूमि की उदात्तता उसके द्वारा किए गए शब्द-चयन और भाषा शैली से काफी हद तक जानी-समझी जा सकती है। यह रचनाकार की मन: स्थिति का भी संकेत करती है। एक ओर जहाँ किशोरावस्था एवं युवावस्था में लिखी गई प्रेम और सौन्दर्य संबंधी कविताओं की भाव-भूमि, प्रेम के सतत अभिलाषी मन की वासंती, फागुनी एवं सावनी अविकल चाह, कल्पना लोक का इंद्रधनुषी सप्तवर्णी वैभव, प्रतीकों, उपमानों एवं बिंबों का चित्रण, एक अलग ही वायवीय, एंद्रियतारहित भव्य-दिव्य-नव्य लोक की रचना करती अभिव्यक्त होती है जिनमें बौद्धिकता एवं दैहिक अनुभव से रहित इंद्रियातीत प्रेम के नैसर्गिक प्रवाह को भाव्यभिव्यक्ति में सहज ही अनुभव किया जा सकता है। वहीं दूसरी ओर प्रौढ़ अवस्था में सृजित होनेवाली रचनाओं में प्रेम का आलंबन व उद्दीपन बौद्धिक एवं अनुभवज्ञ होने के कारण इनमें प्रयुक्त होनेवाले प्रतीक, बिंब एवं उपमान यथार्थ जगत से ग्रहीत होकर तदनुरूप शब्दावली एवं भाषा का आकार लेकर अभिव्यक्त होती-ढलती है। इन दोनों प्रकार की रचनाओं को सामान्यत: एक सजग-सुधि पाठक पढ़कर सहज ही समझ सकता है। 

            आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी का गीत-नवगीत संग्रह 'ओ मेरी तुम' भी इसका अपवाद नहीं है। उन्होंने अपने पुरोवाक् में स्वयं ही लिखा है- ''ओ मेरी तुम के गीत-नवगीत गत सुधियों में विचरण करते समय मन की अनुभूतियों का शब्दांकन हैं।'' उनके मन में विचरण करनेवाली प्रियतम और कोई नहीं उनके जीवन को पूर्णता प्रदान करनेवाली जीवन संगिनी एवं सहचरी 'धर्मपत्नी' ही हैं जी कवि के मन को आह्लादित करती, अविस्मरणीय अनुभूतियों के साथ रची-बसी हैं। इसी भावातिरेक से जन्म होता है 'ओ मेरी तुम' के गीतों-नवगीतों का। अनुभूत प्रेम और सौंदर्य के भाव बोध को नए तरीके से कहने का आग्रह एवं चाह अमिधा, व्यंजनतथ्य लक्षणा के चमत्कार का आश्रय लेती शब्दावली, वृहद शब्द-भंडार उनके गहन अध्ययन एवं बौद्धिकता को संवेदनाओं में आरोपित करती, अनुभूत प्रेम को पाठकों के मन में पुनर्जाग्रत करती ये गीति रचनाएँ उनके अभिव्ययक्ति कौशल का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। अपने गीतों में छंदबद्धता एवं लयता लाने के लिए उन्हें अन्य भाषाओं के शब्दों को मुक्त हस्त प्रयोग करने में कोई आपत्ति नहीं है। 

            सलिल जी अपने नवगीतों में दैनंदिन जीवन में उपयोग आनेवाली वस्तुओं का सहज प्रयोग करने में सिद्धहस्त हैं जो उनकी उपलब्धि कही जा सकती है। चूँकि इन रचनाओं का मूल स्वर उनकी धर्मपत्नी के आसपास चहुँ ओर पल्लवित होता है, इसलिए इनमें विषय विविधता के स्थान पर धर्मपत्नी साधना जी के विभिन्न रूपों यथा ग्रहिणी प्रेयसी, प्रियतम, अभिसारिका आदि की आकर्षक छवियों का वर्णन ही विविधता है जो  दैनिक जीवन से ग्रहीत प्रतीकों, उपमानों तथा बिंबों से सजकर तदनुरूप शब्दों व भाषा में आकार लेती अभिव्यक्त हुई है। यह कवि की काव्य-कर्म-कुशलता को दर्शाती है। 

            अपने व्यक्तिगत जीवनानुभवों से व्युत्पन्न इन प्रणय रचनाओं की नायिका काल्पनिक न होकर उनकी धर्मपत्नी 'साधना जी' हैं जो सहचरी बनकर उनके जीवन में आईं या वे लेकर आए। 'सरहद' शीर्षक रचना में इसका विस्तार से यथार्थपरक वर्णन है। वे सद्गुणों और संस्कारों का दहेज सहेजकर, अपनेपन की पतवारों से ग्रहस्थी की नैयय खेतीं, मतभेदों व अंतरों की खाई पाटतीं-पर्वत लाँघतीं प्रशस्त होती हैं। एक-दूसरे में खोकर, धैर्य से बाधाओं को पारकर, जीवन को मिलन और समर्पण से मधुर बनाती, सपनों को पूरा करतीं, कवि के जीवन को सार्थक करतीं हैं-

 ''भव सागर की बाधाओं को
मिल-जुलकर था हमने झेला
धैर्य धरकर, धरा नापने 
नभ को छूने बढ़ीं कदम बन 
तुम स्वीकार सकीं मुझको जब 
अँगना खेले मूर्त खिलौने।''

            कवि अपने भाव-सुमन इस स्नेह-सिक्त शब्दावली में अभिव्यक्त कर अपने को धन्य अनुभव करता है। वे कवि के जीवन में 'अकथ प्यार' लेकर कवि के मधुर स्वपनों को सकार करती, मूर्त रूप देती हैं- 

''तुम लाए अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार.... 
.... सहवासों की ध्रुपद चाल 
गाएँ ठुमरी-मल्हार''  

            ऐसे प्रसंगों में सलिल जी सर्वथा नूतन व मौलिक बिंबों के साथ पाठक के मन में भी खनक उत्पन्न कर उसे रसानन्द में निमग्न कर सके हैं। 

           प्रेयसी का मनोवांछित संसर्ग से आनंदित कवि अपने भाग्य को सराहते हुए बरबस ही कह उठता है- 


''भाग्य निज पल-पल सराहूँ 
जीत तुमसे मीत हारूँ 
अंक में सर धर तुम्हारे 
एकटक तुमको निहारूँ।।'' 

            प्रेम पाने का हर्ष अपने साथ उसे खो देने की आशंका भी लाता है। कवि अपने अंतर्मन की आकुलता की अभिव्यक्ति करने में नहीं हिचकता- 

''प्रणय का प्रण तोड़ मत देना 
चाहता मन आपका होना'' 

            'सुवासिनी, सुहासिनी, उपासिनी, नित लुभावनी सद्यस्नाता प्रेसऊ का रूप कवि को ''सावन सा भावन' प्रतीत होता है। रूपसी की अनिंद्य रूप-राशि पर रीझकर कवि कह उठता है ''मिलन की नव भोर का स्वागत करो रे!''। ''मन-प्राणों के सेतु-बंध का महाकुंभ है'' में कवि नवाशाओं की वल्लरियों पर सुरभित स्नेह-सुमन खिलाता है। 

            प्रियतमा कवि-मन पर पूर्णाधिकार कर ले, यह स्वाभाविक ही है। प्रियतमा पर पूरी तरह विश्वास करता कवि कह उठता है- 

''तुम पर 
खुद से अधिक भरोसा 
मुझे रहा है'' 

            इस गीत-वगीत संग्रह के शीर्षक गीत 'ओ मेरी तुम' में कवि का भ्रमर-मन अपने बाहुपाश में बँधी प्रियतम को मृगनयनी, पिकबयनी आदि विशेषणों  से संबोधित करते हुए प्रणय राग छेड़ मकरंद का रसपान करता है- 

''बुझी पिपासा तनिक 
देह भई कुसुमित टहनी '' 

            इस गीत की आगामी पंक्तियों में पारिवारिक नातों के प्रतीकों का चित्रण विस्मयकारी है। यहाँ कवि गीत के मूल भावों से भटकता-बिखरता प्रतीत होता है। 'ओ मेरी तुम' के अधिकांश गीतों में कवि ने जीवन-संगिनी के मनोहारी रूप-सौंदर्य की सटीक उपमानों, प्रतीकों तथा बिंबों से सुसज्जित  छवि प्रस्तुत की है। 'तुम रूठीं' शीर्षक से दो गीत संकलन में हैं, दोनों की पृष्ठभूमि और भावभूमि पृथक है। ''तुम रूठीं तो /  मन-मंदिर में  / घंटी नहीं बजी / रहीं वंदना / भजन प्रार्थना / सारी बिना सुनी'' कहकर कवि अपने जीवन में प्रेयसी के महत्व को रेखांकित करता है। इसी शीर्षक से दूसरे गीत के चार अंतरों में कवि ने 'कलश' चित्र अलंकार का अनूठा प्रयोग किया है।  

            कवि प्रेयसी के प्रेम में इस कदर डूब है कि उसे वह हर बार मिलने पर निपट नवेली ही प्रतीत होती है।  प्रेयसी जीवन-बगिया में मोगरा की तरह प्रवेश कर उसे महका देती है। प्रियतम की आह्लादकारी स्मृतियाँ 'याद पुरानी' तथा 'खिला मोगरा' शीर्षक गीतों में कवि-mन को महकातीं, श्वास-श्वास में शहनाई जैसी गूँजती लगती हैं। कवि का मरुस्थली मन प्रेयसी को देखते ही हरा-भरा हो जाता है (तुमको देखा)। ''हो अभिन्न तुम'' मानते हुए भी कवि 'तुम बिन' शीर्षक गीत में नायिका बिन जीवन को सूना पाता है- ''तुम बिन जीवन/  सूना लगता / बिन तुम्हारे / सूर्य उगता / पर नहीं होता सवेरा । चहचहाते / पखेरू पर/ डालता कोई न डेरा'' कहकर कवि बीते पलों की सुधियों में खोकर विरह-व्यथा जानी सूनेपन की अभिव्यक्ति करता है। 

            जीवन संगिनी की मोहक मुस्कान पर कवि आसक्त है। जहाँ 'तुम मुस्काईं १' गीत में कवि प्रेयसी के मुस्कुराने पर ऊषा के गाल गुलाबी होते हुए अनुभव करता है, वहीं 'तुम मुस्काईं २' शीर्षक गीत में 'सजन बावरा / फिसल हुआ बवाल' कहकर प्रेमाकुल मन की अधीरता प्रगट करता है। 'हरसिंगार मुस्काए' शीर्षक नवगीत में कवि ने हरसिंगार के विविध समानार्थी शब्दों (विविध क्षेत्रों में प्रचलितनामों) का सहारा लेकर, नारी-देह के विविध अंगों की कांति के उपमान गढ़े हैं। ऐसा अभिनव प्रयोग अन्यत्र देखने में नहीं आया। 

            इसी तरह ''फागुन की / फगुनौटी के रंग / अधिक चटख हैं / तुम्हें देखकर'' में प्रकृति भी नायिका को देख, उससे स्पर्धा कर और अधिकहरित, हर्षित, मुखरित व उल्लसित होने लगती है। 'आ गईं तुम' शीर्षक गीत में नायिका अपने साथ ही ऊषा की शत किरणें लेकर आती है तो परिंदे आगत के स्वागत में स्वयमेव ही चहकने लगते हैं।  

            ''तुम सोईं तो / मुंदे नयन कोटर में / सपने लगे विहँसने'' में नायिका अपने अंदर भाव, छंद, रस और बिंब समेटे, महुआ जैसी पुष्पित होती- गमकती अपने सपने सजाकर 'मकान' को 'घर' बनाती है। यह सुंदर भावपूर्ण अच्छी रचना है जो मनोहर है, कवि शब्दों के विभिन्न प्रकार के संयोजन-नियोजन से भाषा में शब्दों में चमत्कार पैदा करने में निष्णात है। 'नील परी' में प्रयुक्त शब्दों में नैन-बैन, बाँह-चाह, रात-बात आदि का बहुवर्ती प्रयोग बहु अर्थीय प्रयोग चमत्कारी और मनोहारी है। कवि ''जब से / तू  सपनों में आई / बनकर नील परी / तब से सपने / रहे न अपने / कैसी विपत परी'' कहकर भाव प्रकट करता है परंतु वास्तव में नील परी का सपने में जाकर आना तो उसके लिए सुखद घड़ी है या होना चाहिए। इन गीतों-नवगीतों में प्रयुक्त किए गए प्रतीक उपमान और बिंब परंपरागत न होकर यथार्थ जगत से लिए गए हैं। इनमें  पारिवारिक रिश्तों से लेकर रसोई की सामग्रियों, तीज-त्योहार, प्रकृति और राजनीतिक शब्दावली जैसे सांसद, जुमला, आदि का सटीक-सारगर्भित प्रयोग कथ्य के अनुरूप भाव संप्रेषित करता है।

            कवि सौंदर्य के प्रतीकों, उपमानों तथा बिंबों को प्रेयसी और प्रकृति के अन्योन्याश्रित स्वरूप में रचता है, कहीं प्रकृति उपमा बन जाती है तो कहीं उपमान। यही हाल नायिका का भी है। प्रकृति कवि के मन में रची-बसी है। इन गीतों में में 'ऊषा' विभिन्न कुसूमों, वल्लरियों, फलों, पक्षियों, वृक्षों आदि के नामों का प्रचुर प्रयोग किया गया है। कवि को 'हरसिंगार', मोगरा, महुआ तथा 'टेसू' के फूल तथा गौरैया पक्षी विशेष प्रिय हैं। जिनका सटीक-सार्थक प्रयोग कवि ने इन गीतों में प्रचुरता से किया है। प्राकृतिक सौंदर्य और नायिका के रूप को विभिन्न स्तरों पर  अलंकृत करती यह रचनाएँ पाठकों को सुखद अनुभूति देने में सफल हैं। वर्तमान समय में समाज के हर क्षेत्र में बिना गहन अध्ययन-चिंतन एवं मनन-मंथन के विचारों और भावों को अनर्गल रूप में बोलने कहने या लिखने का चलन बढ़ रहा है। साहित्य का क्षेत्र भी इस प्रवृत्ति से अछूता नहीं है। आज चारों ओर साहित्यकारों-कवियों के समूह गिरोह बन गए हैं जो आपस में ही एक दूसरे को श्रेष्ठ घोषित कर प्रतिष्ठित हो रहे हैं, साथ ही नए के नाम पर असंगत, असंबद्ध, प्रतीकों एवं उपमानों के मनमाने प्रयोग कर, स्वयं के कार्यों को आरोपित करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है जो चिंतनीय हैं क्योंकि लिखे हुए शब्दों का असर दूरगामी होता है। सलिल जी इस कुप्रवृत्ति से बचे हुए हैं।  

            इस संग्रह की अधिकांश रचनाएँ दैनिक-सांसारिक अनुभूति के आस-पास केंद्रित हैं परंतु कहीं-कहीं इनमें द्वैत से अद्वैत की यात्रा का आध्यात्मिक फुट भी सांकेतिक रूप में विद्यमान है। इनमें मिलन की सुखद झलकियां हैं तो विरह की तीस भी ध्वनित हुई है। स्नेह-सिधयोन से आप्लावित कवि-मन नायिका के प्रति अपने प्रेम को निरंतर प्रकट करता, सौंदर्य के मादक समुद्र में गोते लगाता दिखता है। प्रस्तुत संग्रह के गीत-नवगीत दोहा, सोरठा आदि छंदों में लिखी गई हैं। कवि इन सभी विधाओं में निष्णात है। कवि का भाषा की शुद्धता के प्रति कोई आग्रह नहीं है। गीतों में रचनाओं में तुक, मात्रा-भार, गति-यति, लय,  खनक और चमत्कार के प्रयोजन को साकार करने के लिए अन्य भाषाओं अरबी, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी तथा क्षेत्रीय आंचलिक बोलियों बुंदेलखंडी, भोजपुरी आदि का प्रयोग कवि बेहिचक करता है। इसे हिंदी का समावेशी उदारवादी स्वरूप माना जाए या भाषाई अपमिश्रण? इसका निश्चय तो विद्वत साहित्यकार ही कर सकते हैं। 

           संग्रह की कुछ रचनाएँ अधि प्रभावश्यकी है जबकि कुछ अन्य कम सशक्त एवं प्रभावशाली प्रतीत हों, यह स्वाभाविक भी है और पाठक की अपनी पसंद पर भी निर्भर है। ऐहिकजीवन की अनुभूतियों से उपजी के रचनाएँ सुधियों में गुदगुदाती,  यादों में गुनगुनाती, प्रेम के द्वार की कुंडी खटकाती, चाँदनी में नहलाती, मन्मथ के मादक स्पर्श से सहलाती, कंगन खनखनाती, नूपुर छमछमाती, गौरैया सी चहचहाती,  महुआ सी मदमाती, सपनों में थपथपाती, हरसिंगार सी मुस्काती प्रेयसी को शब्दों के भुज-हार पहनाती, कोमल भाव जगाती, तोता-मैना का किस्सा सुनाती, शब्दों और भावों में भटकती उलझाती-सुलझाती यह रचनाएँ अपनी नई अभिव्यक्ति शैली तथा चमत्कारिक कौंध के कारण पाठकों को सहज ही आकर्षित करती, पठनीय-स्मरणीय बनाती हैं। 'बाँह में है और कोई, चाह में है और कोई' तथा  'लिव-इन' के वर्तमान दौर में जीवन संगिनी की मधुर सुधियों में वर्षों बाद विचरते, बौद्धिक भूमि पर अवस्थित संवेदनाओं से ओत-प्रोत, संपृक्त शब्दों का स्वरूप लेती, अनायास और सायास रूप से नि:सृत-सृजित ये गीत-नवगीत पाठकों को उनकी अपने प्रेमानुभूतियों को पुनरजागृत कर,  रास रचाते रहने को प्रेरित करते हैं।  निश्चय ही यह प्रेमपरक रचनाएँ  पाठकों को सहज स्वीकार्य होंगी। 
०००   
संपर्क- आर १९ शिवनगर, दमोह नाका, संकारधानी गैस अजेंसी के सामने, जबलपुर, चलभाष: ७३८९०८८५५५, ९४२५३८४३८४ 
        



   

शनिवार, 20 नवंबर 2021

समीक्षा,ओ मेरी तुम, संतोष शुक्ला

कृति चर्चा
सुधियों का शब्दांकन - "ओ मेरी तुम"
चर्चाकार - डॉ. श्रीमती संतोष शुक्ला, ग्वालियर 
[कृति विवरण - ओ मेरी तुम, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०२१, आकार २२ से.मी. x  १४.५ से. मी., आवरण पेपरबैक, पृष्ठ ११२, मूल्य ३००/-, समन्वय प्रकाशन, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४]
*
आचार्य संजीव वर्मा ' सलिल ' जी का नाम नवीन छंदों की रचना तथा उन पर गहनता से किये गए शोधकार्य के लिए प्रबुद्ध जगत में बहुतगौरव से लिया जाता है। आप झिलमिलाते ध्रुव तारे के समान तारामंडल में अपनी अलग पहचान बनाए हुए है। लोगों को सही दिशा निर्देश देना ही सलिल जी का एकमात्र लक्ष्य है। रस, अलंकार और छंद का गहन ज्ञान उनकी कृतियों में स्पष्ट दिखाई देता है। 'काल है संक्रांति का' 'तथा 'सड़क पर' के पश्चात् ओ मेरी तुम' आपका तीसरा गीत-नवगीत संग्रह है।  सलिल जी का पहला दोनों नवगीत संग्रह पुरस्कृत हुए हैं। 'ओ मेरी तुम' में गीतकार ने छोटे छोटे शब्दों में बड़ी कुशलता से गूढ़ गंभीर तथ्यों को बड़ी सुन्दरता से व्यक्त किया है।

'ओ मेरी तुम' में ५३ गीत-नवगीत तथा ५२ दोहे संग्रहित हैं। गीतकार ने वैवाहिक जीवन की मधुर स्मृतियों में विचरण करते हुए तत्कालीन अनुभूतियों का जीवंत शब्दान्कन इस तरह इन गीतों में किया है कि उसे चित्रान्कन कहना अतिशयोक्ति न होगा। आचार्य सलिल जी ने अपनी धर्म पत्नी साधना जी को उनकी सेवानिवृत्ति पर यह अमूल्य कृति 'ओ मेरी तुम ' को समर्पित कर उन्हें अनुपम उपहार दिया है। यहाँ यह इन्गित करना अनिवार्य सा है कि 'ओ मेरी तुम' गीतकार के वैयक्तिक एकान्त पलों की सुखद अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है जिसको व्यक्त कर पाना सलिल जी ऐसे शब्दों के बाजीगर के ही बस की बात है। यह कृति उन यादों का पुष्पस्तवक है जिसमें विभिन्न फूलों की सुगन्ध मन को आजीवन महकाती रहती है। यह स्वाभाविक तथ्य है कि जिस बीती हुई बात की हम याद करते हैं तो हम उसी समय में पहुँच जाते हैं, उन्ही पलों की सुखद अनुभूति में खो जाते हैं।

गीतकार सलिल जी ने जब वर्षो बाद वैवाहिक जीवन की स्मृतियों को संजीवनी प्रदान की तो उन सुखद पलों को अनुभूतियों में तैरते उतराते रहे। आप भी अनुभव कीजिए -

तुम स्वीकार सकीं मुझको
जब, सरहद पार गया मैं लेने
मैं बहुतों के साथ गया था
तुम आईं थीं निपट अकेली
किन्तु अकेली कभी नहीं थीं
संग आईं थीं यादें अनगिन

विवाह में 'कन्या दान', 'सिन्दूर दान' ऐसी परंपराओं को बड़ी ही शिष्ट और शालीन भाषा में गीतकार ने प्रस्तुत किया है-

माँग इतनी माँग भर दूँ।
आपको वरदान कर दूँ।
मिले कन्या दान मुझको
जिन्दगी को दान कर दूँ

इस कृति में गीतकार ने विवाह के बाद के प्रारंभिक दिनों का (जब बड़े बूढ़े तथा बच्चे सब नई-नई बहू के आस-पास रहना चाहते हैं और पति महोदय झुँझलाते रहते हैं पर पत्नी से मिल नहीं पाते) का जीवंत चित्रण किया है। विवाह के बाद पहले कुछ दिनों तक पत्नी, पति के सामने आने और आँखों से आँखें मिलने पर शर्मा जाती है उसका चित्रण देखिए। नायिका कलेवा देने आती है-

'चूड़ियाँ खनकीं
नजर मिलकर झुकी
कलेवा दे थमा
उठ नजरें मिलीं
बिन कहें कह शुक्रिया
ले ली बिदा'
मंजिलों को नापने

परिवार विस्तार के क्रम में बच्चों की देखरेख में व्यस्त होने के कारण तथा परिजनों की भीड़-भाड़ के कारण सजनी का सामीप्य पाने में सफल नहीं हो पाने पर बावरे सजन की व्यथा-कथा कहता यह पारिवारिक शब्द चित्र देखें- 

'लल्ली-लल्ला करते हल्ला
देवर बना हुआ दुमछल्ला
ननद सहेली बनी न छोड़े
भौजाई का पल भर पल्ला।'

नवोढ़ा पत्नी के मायके चले जाने पर पति का तो हाल बेहाल होना ही है। उस परिस्थिति का सटीक चित्रण प्रस्तुत किया है गीतकार ने-

'गंजी में दूध फटना
जल जाना उबल कर
फैल जाना'

यह जानते हुए भी कि उनकी वो यहाँ नहीं है फिर भी-

'आहट होने पर
निगाहें उठना खीझना
बेबात किसी पर गुस्सा आना
देर से घर वापस आना
पुरानी किसी बात की याद कर मुस्कुराना' आदि।

छोटी-छोटी लेकिन महत्वपूर्ण बातों को यथातथ्य शब्दों में बाँधना, गजब का कौशल है गीतकार सलिल जी के पास।

कमाल की बात तो यह है कि गीतकार संजीव वर्मा 'सलिल' जी ने एक सिविल अभियंता रहते हुए भी, अपने अभियंयंत्रिकी पेशे में ईट सीमेन्ट,पत्थर ,लोहा कंकरीट आदि चीजों के मेल से  आकाशछूती इमारतों के निर्माण, बड़ी बड़ी सड़कों, पुलों-बाँधों के निर्माण में ईमानदारी से अपना दायित्व निभाते हुए भी, अपने कोमल हृदय को साहित्य सागर में  डुबकी लगाने का न केवल अवसर दिया अपितु अपने आल्हादित पलों को शब्दित कर श्रोताओं-पाठकों को आह्लादित भी किया। ।

गीतकार सलिल की आस्था रही है कि सुगढ़ नारी जब ईट गारे से बनी इमारत में अपने दायित्व को ईमानदारी से निभाती है तो मकान घर का रूप ले लेता है जिसमें दोनों मिलकर सुनहरे भविष्य के सपने सजाते हैं और अथक परिश्रम से पूरा भी करते हैं। गीतकार ने 'काल है संक्रांति का' तथा 'सड़क पर' दोनों नवगीत संग्रहों में देश और समाज में नारी की विभिन्न छवियों को प्रस्तुत किया है लेकिन 'ओ मेरी तुम' में अपनी जीवन संगिनी के साथ भिन्न-भिन्न अवसरों पर बिताए अत्यंत वैयक्तिक पलों को बहुत शालीन, संक्षिप्त एवं सामान्य शब्दों में अभिव्यक्त कर पाठकों तक पहुँचाने का काम कर, साहसिक कदम उठाया है।

जिस सामाजिक परिपेक्ष्य में हमारी पीढ़ी पली-बढ़ी और पारिवारिक दायित्व को निभाने में सक्षम हुई उस समय बड़ों व छोटे भाई-बहनों के सामने भी पति-पत्नी एक दूसरे का नाम भी नहीं लेते थे, न ही एक दूसरे के निकट ही आते थे।

ए जी!, ओ जी!, जरा सुनो!, सुनिए आदि संबोधनों से काम चलाते थे। दाम्पत्य जीवन के स्नेहिल पलों की सार्वजनिक अभिव्यक्ति की परंपरा सामान्यत: देखने को नहीं मिलती। संभवतः नवगीतात्मक शैली में  श्रृंगार परक सरस् रचनाओं की प्रस्तुति का यह प्रयास अपनी मिसाल आप है। अतिरेकी तथा मिथ्या विडम्बना और विसंगति से बोझिल होकर डूब रही  रही नवगीत की नौका को सलिल के श्रृंगार परक नवगीत पतवार बनकर उबारते हैं। इन गीतों में श्रृंगार के दोनों पक्ष मिलन तथा विरह यत्र-तत्र उपस्थित हैं। देखते हैं कुछ अंश -

चिबुक निशानी लिये नेह की इठलाया है
बिखरी लट,फैला काजल भी इतराया है
कंगना खनका प्रणय राग गा मुस्काया है
ओ मृगनयनी !ओ पिक बयनी!! ओ मेरी तुम।

गीतकार सलिल जी की 'ओ मेरी तुम ' में श्रृंगार गीतों के वर्णन में प्रकृति का विशेष उल्लेख किया है। कहीं-कहीं तो भ्रम हो जाता है कि प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन है या नायिका का सौंदर्य वर्णन -

उगते सूरज जैसे बिंदी
सजा भाल सोहे
शीतल -निर्मल सलिल धार सी 
सतत प्रवाहित हो सुहासिनी

आ गयीं तुम संग लेकर 
सुनहरी ऊषा किरण शत

तुम मुसकाईं तो 
ऊषा के हुए गुलाबी गाल

संयोग और वियोग की मिश्रित पृष्ठभूमि पर सृजित इस संग्रह में सभी श्रृंगार गीतों में प्रकृति उद्दीपन रूप में दृष्टिगत हुई है। जैसे-

चाँदनी, छिटके तारे
पुरवैया के झोंके
महका मोंगरा
मन महुआ
नीड़ लौटे परिंदे
हिरनिया की तरह कुलाचें भरना 
मरुथल का हरा होना
उषा की अरुणाई
कोकिल स्वर
पनघट
कमल दल

भाव, अनुभाव, संचारीभाव से पुष्ट स्थायीभाव रति को पराकाष्ठा तक पहुँचाने में सफल दिखता है ।

गीतकार ने अपनी नायिका को सद्यस्नाता कहा है जिसका अर्थ अभी अभी नहाई नायिका। ऐसी नायिका के सौंदर्य से आकर्षित हुए नायक अनंग बाण का शिकार बन उन अत्यन्त व्यक्तिगत क्षणों की सुखद अनुभूति की स्मृति में डूबते-उतराने लगते हैं। मिलनातुर मन की यह स्थिति "ओ मेरी तुम " नवगीत संग्रह में पूर्ण शालीनता और उज्जवलता के साथ  दिखती है। प्रणयकुल मन की विविध भावस्थितियों का सटीक चित्रण होने पर भी सतहीपन और अश्लीलता किंचित भी नहीं है। 

सलिल जी की गीत सृजन साधना के विविध पहलू हैं। इन गीतों नवगीतों में जहाँ एक ओर संक्षिप्तता है, बेधकता है, स्पष्टता है, सहजता-सरलता है, वहीं दूसरी ओर मृदुल हास-परिहास है, नोक-झोंक है, रूठना-मनाना है। संग्रह के गीतो -नवगीतों की भाषा में देशज शब्द जैसे मटकी, फुनिया, सुड़की, करिया, हिरा गए आदि के प्रयोग से उत्पन्न किया गया टटकापन भी उनकी विशेषता है। मुहावरों का प्रयोग में बुन्देलखण्ड, बरेली तथा अन्य भाषाओं / बोलिओं के शब्दों का भी प्रयोग किया है देखिए -

राह काट गई करिया बिल्ली
चंदा तारे हिरा गए

इन गीत-नवगीतों में अलंकारिक सौंदर्य के प्रति गीतकार की विशेष अभिरुचि दृष्टिगत होती है। यमक, पुनरुक्तिप्रकाश, पदमैत्री आदि अलंकारों की मनोहारी छटा अवश्य देखने को मिलती है'बरगद बब्बा', 'सूरज ससुरा', खन-खनक, टप-टप, झूल-झूल, तुड़ी-मुड़ी, तन-मन-धन, शारद-रमा- उमा आदि। 

दैनंदिन जीवन के सहज-स्वाभाविक शब्द-चित्र उपस्थित करते इन गीतों में 'विरोधाभासी तथा पूरक शब्द भी स्वाभिवकता के साथ प्रयुक्त हुए हैं - मिलन-विरह, धरा-गगन, सुख-दुख,
चूल्हा-चौका, नख-शिख, द्वैत-अद्वैत आदि।

अनेकों गीत-नवगीतों में गीतकार ने अपने उपनाम 'सलिल ' का प्रयोग शब्दकोशीय अर्थ में पूरी सहजता के साथ किया है। माँ नर्मदा से उनका विशेष लगाव है जो उनके गीत-नवगीतों में स्पष्ट दृष्टिगत होता है।

विविध देश-काल-परिस्थितियों में  रचे गए गीतों में कहीं-कहीं पुनरावृति दोष स्वाभाविक है किन्तु न हो तो बेहतर है। 

'सच का सूत / न समय  / कात पाया लेकिन,  सच की चादर / सलिल कबीरा तहता है' यहाँ 'सच' की दो बार आवृति कथ्य की दृष्टि से पुनरावृत्ति दोष है ।

अतिशयोक्ति अलंकार का सौंदर्य देखिए -

चने चबाते थे लोहे के
किन्तु न अब वो दाँत रहे
कहे बुढ़ापा किस से  क्या क्या
कर गुजरा तरुणाई में।

गीतकार संजीव 'सलिल' तो शब्दों के जादूगर हैं वो कुछ भी लिख सकते है।' गागर में सागर' नहीं उन्होंने 'सीपी में समुन्दर' भरा है। छोटे-छोटे शब्दों में गहन बातें लिख डाली हैं। सलिल जी  ने संयोग और वियोग दोनों ही पलों की सफल अभिव्यक्ति की है लेकिन संयोग की अपेक्षाकृत वियोग के गीत अधिक मारक बन पड़े हैं- 'बिन तुम्हारे' गीत में गीतकार ने विरह का बड़ा ही हृदयस्पर्शी वर्णन किया है क्योंकि वो आप बीते अनुभव हैं न।

'बिन तुम्हारे सूर्य उगता
पर नहीं होता सवेरा ...
...अनमने मन 
चाय की ले चाह
जग कर नहीं जगना...
... साँझ बोझल पाँव 
तन का श्रांत 
मन का क्लांत होना ...
...बिन तुम्हारे 
निशा का लगता 
अँधेरा क्यों घनेरा...

संकेतों में बिन कहे; अनकहनी कहने की कला इन गीतों - नवगीतों का वैशिष्ट्य है- बाँह में ले बाँह / पूरी चाह कर ले / दाह मेरी, थाम लूँ न फिसल जाए / हाथ से यह मन चला पल, द्वार पर आ गया बौरा / चीन्ह तो लो तनिक गौरा, प्रणय का प्रण तोड़ मत देना, बाँहों में बँध निढाल हो विदेह, द्वैत भूल अद्वैत हो जा, लूट-लुटा क्या पाया, ले - दे मत रख उधार,  खन - खन कंगन कुछ कह जाए, तुमने सपने सत्य बनाए, श्वासों में आसों को जीना /  तुमसे सीखा, पलक उठाने में भारी श्रम / किया न जाए रूपगर्विता,  श्वास और प्रश्वास / कहें चुप / अनहोनी होनी होते लख , चूड़ियाँ खनकी / नजर मिलकर झुकी / नैन नशीले दो से चार हुए, स्वर्ग उतरता तब धरती पर / जब मैं-तुम होते हैं हमदम आदि। 

नायिका के जूड़ा बनाने का चित्रण देखिए -

'बिखरे गेसू / कर एकत्र / गोल जूडा धर / सर पर आँचल लिया ढाँक

भारतीय परंपरा आत्मिक मिलान के पक्षधर है -

देना -पाना बेहिसाब है
आत्म-प्राण -मन बेनकाब है
तन का द्वैत; अद्वैत हो गया

हो अभिन्न तुम
निकट रहो या दूर

स्नेह संबंधों की विविध मनोहारी छवियाँ पाठक को कल्पना लोक में ले जाती हैं।  जब न बाँह में हृदय धड़कता / कंगन चुभे न अगर खनकता, रूठो तो लगतीं लुभावनी, ध्यान किया तो रीता मन-घट भरा हो गया / तुमको देखा तो मरुथल मन हरा हो गया,  तुम मुस्काईं सजन बावरा/  फिसला हुआ बवाल, बाँह में दे बाँह / आ गलहार बन जा / बनाकर भुजहार मुझ में तू सिमट जा, मैं खुद को ही खोकर हँसता / ख्वाब तुम्हारे में जा बसता, तुमनें जब दर्पण में देखा / निज नयनों में मुझको देखा, दूर दूर रह पास पास थे, तुम क्या जानो / कितना सुख है / दर्दों की पहुनाई में, मन का इकतारा / तुम ही तुम कहता है,  तन के प्रति मन का आकर्षण / मन में तन के लिये विकर्षण, कितना उचित कौन बतलाए ?, बाहुबंध में बँधी हुई श्लथ अलसाई  देह पर / शत-शत इन्द्र धनुष अंकित / दामिनियाँ डोलीं, खुद को नहीं समझ पाया पर लगता / तुझे जानता हूँ, कनखी- चितवन मुस्कानों से कब-कब क्या संदेश दिए ?। 

पारिवारिक संबधों में घुली मिठास आजकल के यांत्रिक हुए नगरीय जीवन में दुर्लभ हो गयी है। इन गीतों  में अनेक मीठी खट्टी छवियाँ हैं जो  स्मृति लोक में और कनिष्ठों को कल्पना लोक में ले जाते हैं-  तुम भरमाईं / सास स्नेह लख / ससुर पिता सम ढाल, याद तुम्हारी नेह नर्मदा / आकर देती है प्रसन्नता, कुण्डी बैरन ननदी सी खटके / पुरवैया सासू सी बहके बहके, सूरज ससुरा दे आसीसें, बचना जेठानी / भैंस मरखनी, रिश्तों हैं अनमोल / नन्दी तितली ताने मारे / छेड़ें भँवरे देवर / भौजी के अधरों पर सोहें / मुस्कानों के जेवर / ससुर गगन ने विहँस बहू की / की है मुँह दिखलाई आदि। 

मान और मनुहार के बिना प्रणय लीला अधूरी होती है- बेरंगी हो रही जिंदगी / रंग भरो तुम, कंगनों की खनक सुनने / आस प्यासी है लौट घर आओ,  तुम रूठी तो मन मंदिर में बजी नहीं घंटी, कविताओं की गति-यति-लय भी अनजाने बिगड़ी, ओ मब मंदिर की रहवासी / खनक-झनक सुनने के आदी / कान तुम्हारे बिन व्याकुल हैं / जीवन का हर रंग तुम्हीं हो, तुम जब से सपनों में आईं / तब से सपने रहे न अपने, बहुत हुआ अनबोला अब तो / लो पुकार ओ जी!, 

सलिल जी के गीतों में सम्यक और मौलिक बिम्ब-प्रतीक देखते ही बनते हैं - 

याद आ रही याद पुरानी
ग्यान-कर्म इन्द्रिय दस घोड़े
जीवन रथ पर दौड़े जुत रथ
मिल लगाम थामे हाथों में
मन्मथ भजते अंतर्मन मथ

गीतकार ने नायिका के सौंदर्य का ही वर्णन नहीं,  उनके गुणों का वर्णन भी किया है

रिश्ते---
जब जब रिश्तों की बखिया उधड़ी
तब- तब सुई नेह की लेकर रिश्ते तुरप दिए। 

प्रकृति का अवलंब लेकर नायिका के मनोभावों का चित्रण अपनी मिसाल आप है - ताप धरा का बढ़ा चैत में / या तुम रूठी? / स्वप्न अकेला नहीं / नहीं है आस अकेली / रुदन रोष उल्लास, / हास,परिहास लाड़ सब  / संग तुम्हारे हुई / जिंदगी ही अठखेली। 

जीवन में धूप-छाँह, ऊँच -नीच होना स्वाभाविक है। गीतकार विपरीत परिस्थितियों में नायिका को संबल के  देखता-सराहता है।  माँ-पापा, बेटी-बेटा, मैं तकें सहारा / आपद-विपद, कष्ट-पीड़ा का / गुप-चुप करतीं फलाहार सी। 

नायिका निकट न हो तो - क्यों न फुनिया कर सुनें आवाज तेरी / भीड़ में घिर हो गया है मन अकेला / धैर्य -गुल्लक में न बाकी एक धेला, 

जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, आकर्षण  परिवर्तित होता जाता है - अनसुनी रही अब तक पुकार / मन -प्राण रहे जिसको गुहार / वह बाहर हो तब तो आए / मन बसिया भरमा पछताए / मन की ले पाया कौन थाह?, मन मीरा सा / तन राधा सा / किसने किसको कब साधा सा?,  मिट गया द्वैत अंतर न रहा आदि  परिपक्व प्रेम का शब्दांकन है। 

गीतकार की वैयक्तिक रुचियाँ, पारिवारिक संस्कार, विचार, स्वभाव आदि सब उन्मुक्त रूप से परिलक्षित होते हैं। संकीर्ण दृष्टि समीक्षक कह सकते हैं कि 'ओ मेरी तुम' के गीत नवगीतों में कथ्य, भाषाई सौंदर्य ,भाषा की अभिधा शक्ति की अपेक्षा लक्षणा और व्यंजना शक्ति का प्रयोग अधिक हुआ है। अर्थ ध्वनि नाद सौंदर्य के मोहक उदाहरण हैं जिनमें माधुर्य और चारुता लक्षित होती है। इन सबके होते हुए भी गीतकार का पहला नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' सभी के प्रति लगाव और 'सड़क पर' दूसरे नवगीत संग्रह में आम आदमी के अधिकारों के लिए उनके साथ खड़े रहने के भाव 'ओ मेरी' में दृष्टिगत नहीं होते। 

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि गीतकार संजीव 'सलिल' जी ने स्वयं लिखा कि नवगीत में आम आदमी को या सामाजिक भावनाओं की अभिव्यक्ति दी जाती है जब कि गीतकार ने अपनी वैयक्तिक अनुभूतियों को शाब्दिक रूप प्रदान किया है। प्रश्न यह है की क्या प्रणय, समर्पण, साहचर्य और सहयोग आदि क्या सनातन और सर्वव्याप्त भावनाएँ नहीं हैं? क्या संबंधों का अपनापन, भावनाओं का प्रवाह सामाजिक सत्य नहीं है? जिन्हें हम वैयक्तिक पल कहते हैं  वह सबके जीवन का सच नहीं है? यदि है तो फिर 'ओ मेरी तुम' गीतकार के नितांत वैयक्तिक पलों में अनुभूत सार्वजनीन सत्य की अभिव्यक्ति का संग्रह है। अतः, इन्हें व्यक्तिगत प्रेम गीत  न कहकर, प्रणय परक नवगीत कहना उचित होगा। इस दृष्टि  ने नवगीत  के शुक को उबाऊ विडंबनाओं, अतिरेकी विसंगतियों के पिंजरे से आज़ाद कर प्रणयानुभूति के नीलगगन में उड़ान  भरने का अवसर उपलब्ध कराकर नवजीवन दिया है। 

सफल रचनाकार वही है जो अपने भावों को जस का तस पाठक के हृदय तक पहुँचा दे और पाठक उन्हें अपना मानकर ग्रहण कर सके।  'ओ मेरी तुम' पढ़कर पाठक काव्यानंद, रसानंद और छंदानंद के साथ प्रणयानन्द में भी गोते लगाने लगेंगे और जो इस सुख से अपरिचित हैं वे कल्पना जगत में खो जाएँगे।
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रविवार, 15 अगस्त 2021

समीक्षा ओ मेरी तुम

कृति चर्चा : 
प्रणय-ऋचाओं का गुलदस्ता-‘ओ मेरी तुम’
सुरेन्द्र सिंह पँवार
*
गीत सृजन की सुदीर्घ शृंखला में अविराम साधना रत साहित्यकार आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनका यश:-सौरभ विंध्याचल और सतपुड़ा की पर्वत मालाओं के सदृश भारत में विस्तृत है। ‘ओ मेरी तुम’ उनका तीसरा गीत-नवगीत संग्रह है, जिसमें 53 गीत-नवगीत और 52 दोहे (43 खड़ी बोली+9 बुन्देली) संग्रहित हैं। गीतकार ने गत सुधियों में विचरण करते मन की अनुभूतियों का शब्दांकन इन शृंगारिक गीतों-नवगीतों-दोहों में किया है। कृति कार सलिल ने अपनी ‘साधना’ (अर्धांगिनी डॉ साधना वर्मा) को उनकी अधि वार्षिकी-आयु पूर्ण होने (सेवा-निवृति) पर यह अनमोल कृति सृजित, संपादित, समर्पित और प्रकाशित की है। यहाँ यह कहना आवश्यक है कि नितांत निजी पलों में अनुभूत सत्य की यह अभिव्यक्ति प्रणय-ऋचाओं का ऐसा गुलदस्ता है, जिसे भेंट कर उन्होंने अपनी जीवन संगिनी के अमूल्य अवदान के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन माना है।

गीतकार संजीव सुखद वैवाहिक जीवन(परिणय तिथि---01/31/1985) के तीस साल बाद, जब अपने विवाह-संस्कार की मधुर स्मृति में गोता लगाते हैं, फ्लेश-बैक में जाते हैं, विशेषकर ‘कन्यादान’ और ‘सिंदूर दान’ जैसी रस्में---- तब माँग भरने के बदले कन्या को ‘वर’ का दान करने और ‘कन्या का दान’ मिलने पर अपनी ‘जिंदगी को दान करने’ की उनकी माँग शिष्ट व विशिष्ट है। रस्मों और रीति-रिवाजों की ऐसी आदर्श व्याख्या-- सलिल जैसा भारतीय संस्कारों और परंपराओं का पुजारी ही कर सकता है।

माँग इतनी/माँग भर दूँ। आपको वर/ दान कर दूँ। मिले कन्या/दान मुझको, जिंदगी को दान कर दूँ॥(चाहता मन/पृष्ठ 10-11)

गीतकार सलिल एक सिविल इंजीनियर हैं; ईंट, पत्थर, लोहा और कंक्रीट जैसी सख्त और बेजान चीजों से गगनचुंबी इमारतें, सीधी-सपाट सड़कें और सड़क-सेतुओं के निर्माण के बहाने सुंदर तम [आधारभूत] सृजन उनका व्यवसाय रहा है। लेकिन उनका यह भी अटूट विश्वास है कि एक गुणवंत नारी जब अपनी गृहस्थी की जिम्मेदारी संभालती है तब ईंट-गारे की चारदीवारी से घिरा मकान, घर बनता है और-तभी सारे सपने, अपने बनकर किलकारी कर मचलने लगते हैं---

मृग नयनी को/ गजगामिनी होते देखा तो, मकाँ बन गया/ पल भर में घर।(तुम सोईं/31)

देखने की बात यह है कि संयोग और वियोग के धरातल पर रचे संग्रह के सभी शृंगारक गीतों के उद्दीपन में प्रकृति का विशेष उपादान है, जैसे- उषा की अरुणाई, कोकिल-स्वर, कमल दल, पनघट, पुरवैया के झौंके, महकता मोंगरा , अमलतास, मन महुआ, नीड़ लौटे परिंदे, चाँदनी, छिटके तारे, सावन, फागुन, पावस, हरसिंगार का मुस्काना, नंदन वन में चंदन-वंदन, हिरनिया की तरह कुलाँचें भरना, मरुवन का हरा होना। विभाव, अनुभव और संचारी भावों से परिपुष्ट स्थायी भाव रति को जागरण की स्थिति तक पहुँचाने का श्रेय संयोग में मिलता है। शृंगार रस के देवता लक्ष्मी और विष्णु माने गए है जो सृष्टि के पोषण, पालन प्रक्रिया के संचालक हैं और यही भाव सुघड़-गृहिणी के सृष्टि-क्रम का साधन-यज्ञ है। गीतकार ने अपनी नायिका को सद्य:स्नाता कहा है और उसकी चेष्टा, मुद्राओं और कार्य व्यापार का सम्यक चित्रण किया है। विद्यापति के गीतों से सद्य:स्नाता का संदर्भ तलाशा तो उसका सीधा- सीधा अर्थ मिला, “अभी-अभी नहाई नायिका”। ऐसी नायिका की सलिल-क्रीड़ाओं को देखकर सौन्दर्य-भोगी ‘सलिल’ का हृदय पंच-शरों (कामदेव के पाँच तीरों- सम्मोहन, उन्मादन, स्तंभन, शोषण, तापन) से बिंध जाता है और उस अंतरंग क्षण की सुखद-स्मृति, जो संग्रह के गीतों-नवगीतों में है, में डूबने-अतराने लगता है। ‘ओ मेरी तुम’ के हमारे समाज में, जहाँ पति-पत्नी एक दूसरे का नाम नहीं लेते, ‘ऐ जी’, ‘ओ जी’ जैसे संबोधनों के अभ्यस्त हैं, स्नेह (दाम्पत्य-संबंधों) की सार्वजनिक स्वीकृति की परंपरा परिवारों में नहीं है। गीतकार सलिल ने इसे आरंभ कर तनिक जोखिम अवश्य उठाया है। उनका एक प्रयोग,----

चिबुक निशानी / लिए, देह की/इठलाया है।

बिखरी लट, फैला काजल भी/ इतराया ह

टूट बाजूबंद/ प्राण-पल/जोड़ गया है!

कँगना खनका/ प्रणय राग गा/ मुस्काया है।

बुझी पिपासा / तनिक, देह भई/ कुसमित टहनी/

ओ मृग नयनी! ओ पिक बयनी !! ओ मेरी तुम। (ओ मेरी तुम/पृष्ठ 68-69)

देखा जाए तो; गीतकार ने जब-जब वियोग के गीत गाये हैं, वे ‘संयोग’ से ज्यादा मुखर हुए हैं। नायिका का किसी कार्य वश प्रवास ( मायके) में होने पर संतृप्त नायक की स्थिति अलका पुरी से निष्कासित यक्ष के समान होती है जो अपनी प्रेमिका को मेघ के माध्यम से संदेश भेजता है--- गीत ‘बिन तुम्हारे’ में विरह का वैसा-ही हृदय स्पर्शी वर्णन किया गया है, विशेषकर उद्दीपन— जो सर्वथा मौलिक हैं, सहज-सरल हैं, अपने से जिए-भोगे हैं। --

द्वार पर कुंडी खटकती / भरम मन का जानकर भी/ दृष्टि राहों पर अटकती।

अनमने मन/चाय की ले/चाह, जगकर नहीं जगना ।

दूध का गंजी में फटना/या उफन गिरना-बिखरना।

साथियों से/ बिना कारण /उलझना, कुछ भूल जाना।

अकेले में गीत कोई / पुराना फिर गुनगुनाना।

साँझ बोझिल पाँव/ तन का श्रांत/ मन का क्लांत होना।

याद के बागों में कुछ/ कलमें लगाना, बीज बोना।

विगत पल्लव के तले/ इस आज को/फिर-फिर भुलाना।

कान बजना/ कभी खुद पर/खुद लुभाना-मुस्कराना।(पृष्ठ/४८-४९)

और; यहाँ तो विप्रलंभ की पराकाष्ठा ही हो गई, जब वियोगी गा उठा-

बिना तुम्हारे

सूर्य उगता

पर नहीं होता सबेरा। (बिना तुम्हारे/पृष्ठ 48)

इतर इससे, उम्र और अनुभव के इस पड़ाव में गीतकार का अध्यात्म की तरफ झुक जाना आश्चर्य चकित नहीं करता। उसका दैहिक-सौन्दर्य से परे आत्मीय-सौन्दर्य के प्रति आकर्षित होना सहज है, स्वाभाविक है। द्वैत तज अद्वैत का वरण इसकी अंतिम फल श्रुति है।

मैं तुम हम बनकर हर पल को/ बांटे आजीवन खुशहाली। (तुम बिन/पृष्ठ 34)

संग्रह में ज्यादातर गीत, नवगीत के साँचे में ढले हैं। यानी उनमें एक मुखड़ा है, दो से तीन अंतरे हैं, मुखड़ों की पंक्ति-संख्या या पंक्तियों में वर्ण या मात्रा संख्या का कोई बंधन नहीं है। यद्यपि मुखड़े की प्रथम या अंतिम पंक्ति के समान पद भार की पंक्ति प्रत्येक अंतरे के अंत में विद्यमान है, जिसे गाने के बाद मुखड़े को दोहराए जाने से निरन्तरता की प्रतीति होती है। इन गीतों–नवगीतों में जहाँ एक ओर संक्षिप्तता है, बेधकता है, स्पष्टता है, सहजता-सरलता है, वहीं दूसरी तरफ मृदुल-हास है, नोक-झौंक है, रूठना-मनाना है। एक लाक्षणिक दृश्य है; जहां बावरा-सजन परिजनों की उपस्थिति में सजनी से न मिल पाने के कारण खीजता है, ऐसी स्थिति में गीत के शब्द अपने साधारण या प्रचलित अर्थ को छोड़कर अन्य अर्थ बतलाने लगते हैं—

लल्ली-लल्ला करते हल्ला/ देवर बना हुआ दुमछल्ला/

ननद सहेली बनी न छोड़े/ भौजाई का पल भर पल्ला। (तुम मुस्काई-2/41)

संग्रह के गीतों–नवगीतों की भाषा में देशज शब्द और मुहावरे यथा- तन्नक (थोड़ा/बुन्देली), मुतकी (अधिक-स्त्रीलिंग/बुन्देली), फुनिया (अंग्रेजी शब्द फोन से व्युत्पति जिसका देशज अर्थ टेलीफोन या मोबाइल पर निरर्थक चर्चा से है), सुड़की चाय (देशज-चाय को सुड़ककर पीना), राह काट गई करिया बिल्ली (एक रूढ़िगत मुहावरा/ ‘बिल्ली ने रास्ता काटा’ का बुन्देली संस्करण), चंदा–तारे हिरा गए (अदृश्य हो जाने को या गुम जाने को बुन्देली में ‘हिरा गए’ प्रचलित है) के प्रयोग से लाया गया टटकापन विशिष्ट है। यदि दोहा एवं सोरठा को प्रयुक्त कर तुम हो या (पृष्ठ- 50/51)। हरिगीतिका छंद में सजनी मिलो (पृष्ठ-61), दस मात्रिक दैशिक छंद पर आधारित मखमली-मखमली (पृष्ठ-106), दोहा सलिला मुग्ध (पृष्ठ-107/111), बुन्देली दोहे (पृष्ठ-112) तथा तुमको देखा (पृष्ठ-56-57), तुम क्या जानो (पृष्ठ -58), मनुहार (पृष्ठ-59), तुम कैसे (पृष्ठ-60), धूल में फूल (पृष्ठ-62), मन का इकतारा (पृष्ठ-63) की गजल-सजल छोड़ दी जाए तो शेष गीत, नवगीत की ही शैली में हैं। वैसे लोक-शैली या धुनो पर दो-एक गीत/नवगीत और होते तो पढ़ने का आनंद दुगना हो जाता। इन गीतों-नवगीतों में अलंकारिकता के प्रति अधिक रुझान नहीं है, फिर भी ‘बरगद बब्बा’ या ‘सूरज ससुरा’ जैसे उपमेय-उपमान और ‘मन्मथ भजते अंतर्मन मथ’ जैसे यमक के साथ पुनरुक्ति[SSP1] प्रकाश अलंकारों व पद-मैत्री अलंकारों के प्रयोग से भाषा में विशेष लयात्मकता आभासित हुई है। पूर्ण पुनरुक्त पदावली—खनक-खनक, टप-टप, झूल-झूल, अपूर्ण पुनरुक्त पदावली— तुड़ी-मुड़ी, ऐ जी-ओ जी, तन-मन-धन, शारदा-रमा-उमा, विरोधाभाषी शब्द-सुख-दुःख, ज्ञान-कर्म, धरा -गगन, मिलन-विरह व सहयोगी शब्दों-ठुमरी-ख्याल, कथा-वार्ता, चूल्हा–चौका, नख-शिख के प्रयोग के प्रति गीतकार जागरूक रहा है। कुछ गीतों-नवगीतों में सलिल (तख्खलुस/उपनाम) का पर्यायवाची अर्थ में तथा ‘नेह नर्मदा’ ‘द्वैत-अद्वैत’ जैसी शब्दावलियों के प्रयोग के प्रति आसक्ति दिखाई देती है। ऐसे ही प्रस्तुत मकता (मक्तअ) में

सच का सूत न समय कात पाया लेकिन

सच की चादर सलिल कबीरा तहता है।(मन का इकतारा/पृष्ठ63)

में सूत और चादर के साथ ‘सच’ की आवृति, पुनरावृत्ति दोष है।--- सलिल रसज्ञ हैं,--- भाषा-विज्ञानी हैं,--- शब्दों के जादूगर हैं, वे ऐसी अपरिहार्य स्थिति को टालने में समर्थ हैं। हाँ, एक शे’र में अतिशयोक्ति का प्रशस्त-प्रयोग है,

चने चबाते थे लोहे के, किन्तु न अब वे दाँत रहे।

कहे बुढ़ापा किससे क्या-क्या, कर गुजरा तरुणाई में॥ (तुम क्या जानो /58)

“गीत” को परिभाषित करते हुए अनंत राम ‘अनंत’ लिखते हैं,-- “गीत कविता का अनुभूति एवं विशुद्ध भाव-प्रणव वह अंतर्मुखी रूप है, जिसमें कवि की वैयक्तिक अभिरुचियाँ, परिवेशगत संस्कार, विचार तथा उसके राग-विराग पूरे उन्मेष के साथ उभर कर सामने आते हैं”। वहीं “नवगीत” को व्याख्यायित करते हुए आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ने एक आलेख में लिखा है कि “नवगीत में आम-आदमी को या सार्वजनिक भावनाओं को अभिव्यक्ति दी जाती है जबकि गीत में गीतकार अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियों को शब्दित करता है”। उक्त परिप्रेक्ष्य में समीक्ष्य संग्रह ‘ओ मेरी तुम’ के गीत–नवगीत कथ्य, भाषा-सौष्ठव, भाषा-शक्ति, भाव-प्रवणता, अर्थ, ध्वनि एवं नाद सौन्दर्य के अप्रतिम उदाहरण हैं। इनमें लास्य है ! चारुत्व है !! माधुर्य है !!! परंतु ऐसा भी हो सकता है कि नवगीत की सारी अर्हता पूरी करने के बावजूद इन में ‘काल है संक्रांति का’ (सलिल का पहला नवगीत संकलन/2016 )-जैसा समष्टि के प्रति झुकाव और ‘सड़क पर’ ( सलिल का दूसरा नवगीत संकलन/2018)-जैसा आम-आदमी के पक्ष में खड़े होने का भाव न होने से नवगीत के धुरंधर इन्हें पहली-पाँत (पंक्ति) में बिठाने में कतिपय संकोच करें। अत: मेरा यह व्यक्तिगत सुझाव है कि इन गीतों को ‘शृंगार परक गीत’ या ‘प्रणय-ऋचाएं’ संज्ञापित करना अधिक तर्क-संगत होगा, बनिस्बत नवगीत के।


समन्वय प्रकाशन संस्थान, जबलपुर से प्रकाशित और श्रीपाल प्रिंटर्स से मुद्रित समीक्ष्य-संकलन ‘ओ मेरी तुम’ का आकर्षक-आवरण शीर्षक के अनुरूप है। किताब के करीने से तराशे कोने इसकी दूसरी खूबी है। यदि प्रिन्ट-लाइन और प्रिंटर्स-डेविल्स (मुद्रण-की-भूलें) को अनदेखा किया जाए तो यह एक स्तरीय और संग्रहणीय कृति है। आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ द्वारा सृजित और संकलित ये उपहार-गीत---गीतकार की अंतरंग भावनाओं का आवेग है, अंतरतम विचारों की अभिव्यक्ति है, आत्मीय-संबंधों की आश्वस्त है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ये गीत उनके अधरों का शृंगार हैं, जिनके लिए लिखे गए।----- श्रम सार्थक हुआ। देर-सबेर जब सुधी-पाठक इनमें डूबेंगे, तो उन्हें भी पर्याप्त रस प्राप्त होगा, ऐसा विश्वास है।

201,शास्त्रीनगर,गढ़ा,जबलपुर(मध्य प्रदेश)-482003/ 9300104296/7000388332