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शनिवार, 20 सितंबर 2025

सितंबर २०, हिंदी ग़ज़ल, सॉनेट, मुक्तिका, भक्ति गीत, तुम, प्रार्थना

सलिल सृजन सितंबर २०
*
हिंदी ग़ज़ल
.
राम राम करते गिरीश जी
सत्य मानिए हैं मनीश जी
.
जिन्हें हकीकत यह मालुम हैं
कहें न लेकिन हैं हरीश जी
.
भिन्न न हरि-हर कृपा कर रहे
जब रमेश जी तब सतीश जी
.
पृथा पुत्र मनु, धरती माता
खुद को मत मानें पृथीश जी
.
राम काम निष्काम कीजिए
'सलिल' सदय होंगे कपीश जी
***
एक दोहा 
छाया शुक्ला हो गई, छवि श्यामल है खूब।
दर्श राधिका-कान्ह कर, गए हर्ष में डूब।।
१९.९.२०२५
***
कार्यशाला
सॉनेट गणपति
शिप्रा सेन
*
वरद विनायक मयूरेश्वरा, 
गणधीश्वर विघ्न हरो। 
गिरिजात्मजा बल्लारेश्वरा,  
ओमकार पार्वति तनया नमो।  
चिंतामणि ही सिद्धिविनायक,  
गुणप्रदायका नमो नमो।  
महा गणपतये विघ्नेश्वरा,  
प्रथम पूज्य की जय बोलो।  
प्रणव स्वरूपा गण नाथा,  
अंबा भवानी कुमार शंभो।  
कारूण्य लावण्य लंबोदरा,  
शरणम् शरणम् प्रभो। 
महादेवादिदेव विनायका,  
अष्ट विनायक श्री गणराया।।  
सॉनेट की सभी १४ पंक्तियों का पदभार समान होना जरूरी है। उक्त में ११ से १७ उच्चारों का प्रयोग है। 
*
सॉनेट संशोधित
गणपति
(पदभार १६)
*
वरद विनायक मयूरेश्वरा,
हे गणधीश्वर! विघ्न हरो प्रभु,
गिरिजात्मजा बल्लारेश्वरा,
हे ओंकार! पार्वती-तनय विभु।
चिंतामणि श्री सिद्धिविनायक,
गुणप्रदायका नमो नमो हे!
श्री गणपतये विघ्न ईश्वरा,
प्रथम पूज्य की जय बोलो रे!
प्रणव स्वरूपा हे गणनाथा!,
अंबा भवानी-शंभु कुमार,
शरणम् शरणम् हे जगनाथ!
क्षमा करें प्रभो! परम उदार।
श्री गणराया हे विनायका!
नमन नमन प्रभु वर प्रदायका।।
२०-९-२०२३
*
सॉनेट
अरण्य वाणी
*
मनुज पुलक; सुन अरण्य वाणी
जीवन मधुवन बन जाएगा
कंकर शंकर बन गाएगा
श्वास-आस होगी कल्याणी
भुज भेंटे आलोक तिमिर से
बारी-बारी आए-जाए
शयन-जागरण चक्र चलाए
सीख समन्वय गिरि-निर्झर से
टिट्-टिट् करती विहँस टिटहरी
कुट-कुट कुतरे सुफल गिलहरी
गरज करे वनराज अफसरी
खेलें-खाएँ हिल-मिल प्राणी
मधुरस पूरित टपरी-ढाणी
दस दिश गुंजित अरण्य वाणी
२०-९-२०२२
***
मुक्तिका
निराला हो
*
जैसे हुए, न वैसा ही हो, अब यह साल निराला हो
मेंहनतकश ही हाथों में, अब लिये सफलता प्याला हो
*
उजले वसन और तन जिनके, उनकी अग्निपरीक्षा है
सावधान हों सत्ता-धन-बल, मन न तनिक भी काला हो
*
चित्र गुप्त जिस परम शक्ति का, उसके पुतले खड़े न कर
मंदिर-मस्जिद के झगड़ों में, देव न अल्लाताला हो
*
कल को देख कलम कल का निर्माण आज ही करती है
किलकिल तज कलकल वरता मन-मंदिर शांत शिवाला हो
*
माटी तन माटी का दीपक बनकर तिमिर पिये हर पल
आए-रहे-जाए जब भी तब चारों ओर उजाला हो
*
क्षर हो अक्षर को आराधें, शब्द-ब्रम्ह की जय बोलें
काव्य-कामिनी रसगगरी, कवि-आत्म छंद का प्याला हो
*
हाथ हथौड़ा कन्नी करछुल कलम थाम, आराम तजे
जब जैसा हो जहाँ 'सलिल' कुछ नया रचे, मतवाला हो
२०-९-२०१७
***
मुक्तक सलिला:
*
प्रभु ने हम पर किया भरोसा, दिया दर्द अनुपम उपहार
धैर्य सहित कर कद्र, न विचलित हों हम, सादर कर स्वीकार
जितनी पीड़ा में खिलता है, जीवन कमल सुरभि पाता-
'सलिल' गौरवान्वित होता है, अन्यों का सुख विहँस निहार
***
भक्ति गीत:
*
हे प्रभु दीनानाथ दयानिधि
कृपा करो, हर विघ्न हमारे.
जब-जब पथ में छायें अँधेरे
तब-तब आशा दीप जला रे….
*
हममें तुम हो, तुममें हम हों
अधर हँसें, नैन ना नम हों.
पीर अधीर करे जब देवा!
धीरज-संबल कहबी न कम हों.
आपद-विपदा, संकट में प्रभु!
दे विवेक जो हमें उबारे….
*
अहंकार तज सकें ज्ञान का
हो निशांत, उद्गम विहान का.
हम बेपर पर दिए तुम्हीं ने
साहस दो हरि! नव उड़ान का.
सत-शिव-सुंदर राह दिखाकर
सत-चित-आनंद दर्श दिखा रे ….
*
शब्द ब्रम्ह आराध्य हमारा
अक्षर, क्षर का बना सहारा.
चित्र गुप्त है जो अविनाशी
उसने हो साकार निहारा.
गुप्त चित्र तव अगम, गम्य हो
हो प्रतीत जो जन्म सँवारे ….
२०-९-२०१३
***
नव गीत :
उत्सव का मौसम.....
*
तुम मुस्काईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
*
लगे दिहाड़ी पर हम
जैसे कितने ही मजदूर.
गीत रच रहे मिलन-विरह के
आँखें रहते सूर..
नयन नयन से मिले झुके
उठ मिले मिट गया गम.
तुम शर्माईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
*
देखे फिर दिखलाये
एक दूजे को सपन सलोने.
बिना तुम्हारे छुए लग रहे
हर पकवान अलोने..
स्वेद-सिंधु में नहा लगी
हर नेह-नर्मदा नम.
तुम अकुलाईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
*
कंडे थाप हाथ गुबरीले
सुना रहे थे फगुआ.
नयन नशीले दीपित
मना रहे दीवाली अगुआ..
गाल गुलाबी 'वैलेंटाइन
डे' की गाते सरगम.
तुम भर्माईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
***
प्रार्थना
भक्ति-भाव की विमल नर्मदा में अवगाहन कर तर जाएँ.
प्रभु ऐसे रीझें, भू पर आ, भक्तों के संग नाचें-गाएँ..
हम आरती उतारें प्रभु की, उनके चरणों पर गिर जाएँ.
जय महेश! जय बम-बम भोले, सुन प्रभु हमको कंठ लगाएँ..
स्वप्न देख ले 'सलिल' सुनहरे, पूर्व जन्म के पुण्य भुनाएँ..
प्रभु को मन-मंदिर में पाकर, तन को हँसकर भेंट चढ़ाएँ..
२०-९-२०१०
***

शुक्रवार, 12 सितंबर 2025

सितंबर १२, सॉनेट, तुम, गणेश विसर्जन,

सलिल सृजन सितंबर १२
० 
पूर्णिका 
० 
तुमसे जीवन फुलबगिया है
श्वास-श्वास सुरभित डलिया है
.
धूप-छाँव सम सुख-दुख हमने
मिल झेले सामना किया है
.
खूब मिला आशीष बड़ों का
छोटों ने सम्मान दिया है
.
प्रभु संग-साथ बनाए रखना
साथ रहें संकल्प लिया है
.
हाथ हाथ में लिए साथ रह
हमने जीवन विहँस जिया है
.
संजीवित है सफल साधना
पुलकित हर पल रहा हिया है
.
जब जब घेरा अँधियारों ने
हमने बाला तभी दिया है
१२.९.२०२५
०००
सॉनेट
तुम
तुमको शत-शत, साभार नमन
तुमको अर्पित निज अंतर्मन
तुम ही फागुन, तुम ही सावन
तुम ही श्वासों में पली लगन
तुम बिन मरुथल होता जीवन
तुम संग रहीं तो है मधुवन
तुम बनीं नयन, तुम बनीं वचन
तुमको पा जीवन है जीवन
तुम कहो, कौन है तुम सा धन
तुम साध्य, तुम्हीं तो हो साधन
तुम ही वादन, तुम ही गायन
तुम बिन हो पाता नहीं सृजन
तुम-मैं हम हैं कर विविध जतन
शत वर्ष हँसो, महकाओ चमन
१२-९-२०२२
●●●
मुक्तक
गीत पूर्णिमा जगमग तब हो जब राकेश प्रकाशित हो।
शब्द भाव रस लय मय ध्वनि से त्रिभुवन सकल निनादित हो।।
कलकल कलरव सुनकर श्रोता झूमे, करतल ध्वनि गूँजे-
मन से मन मिल सके, प्राण संप्राणित मुदित।।
***
एक विमर्श
विसर्जन क्यों और कैसे?
*
अनंत चतुर्दशी गणेश विसर्जन और पुनरागमन प्रार्थना का पर्व।
चतुर्थी पर स्थापना, दस दिन पूजन और फिर विसर्जन के नाम पर प्रतिभाओं की दुर्दशा और अकल्पनीय प्रदूषण।
यह त्रासदी नव दुर्गा महोत्सव पर दोहराई जाएगी।
शोचनीय है कि जिन्हें विघ्नेश कहकर उनसे विघ्न निवारण हेतु प्रार्थना की, उन्हीं को विघ्नेश में डाल दिया। मूर्तियों की दुर्दशा करने से बेहतर है परंपरा का पालन करते हुए हल्दी और सुपारी में दैवीय शक्तियों का आव्हान-पूजन कर विसर्जन हो। इससे न तो प्रदूषण फैलेगा, न मूर्तियों की दुर्दशा होगी।
पुष्प तथा अन्य पूजन सामग्री महानगरों में नगर निगम वालों को दें तथा गाँवों में एक गड्ढा खोदकर उसमें दबा दें।
प्लास्टिक, रसायनों, एस्बेस्टस, प्लास्टर अॉफ पेरिस आदि का प्रयोग कतई न करें।
मूर्ति पूजन में श्रद्धा हो तो धातु (सोना, चाँदी, ताँबा, पीतल, अष्टधातु, पत्थर या एल्यूमीनियम) की मूर्ति का पूजन करें। इसे पूरे वर्ष भी पूज सकते हैं और विसर्जन के बाद अगले वर्ष के लिए सुरक्षित भी रखते सकते हैं। इससे घर वर्ष मूर्ति पर और उसे लाने-ले जाने में होने वाला खर्च भी बचेगी जो मँहगाई का मार कुछ कम करेगा।
अन्य उपाय मिट्टी की ६ इंच तक की मूर्ति को विसर्जन पश्चात घर में ही स्वच्छ जल में विसर्जित कर उसे पेड़-पौधों का जड़ में डाल देना है।
चित्र का पूजन भी समान फल देता है। इसे विसर्जित न करें।
सनातन धर्म की मूल परंपरा प्रतीक पूजन है। वैष्णव देवी जैसे पुरातन स्थलों पर अनगढ़ पाषाण पिंड ही पूजे जाते हैं। यह सर्वमान्य है कि ईश्वर निराकार हैं। 'जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी' के अनुसार भक्त अपने इष्ट को रूपाकार देकर पूजते हैं। कई बार माताएँ पुत्र को पुत्री के रूप में अथवा पुत्री को पुत्री के रूप में सज्जित कर अपनी मनस्तुष्टि करती हैं । यही भाव भक्त से प्रतिमा बनाता है। इसीलिए कहा जाता है 'भगत के बस में हैं भगवान। भगवान सौजन्यता वश भक्त के 'बस' में होने पर भी 'बेबस' नहीं है। भक्त अपने इष्ट की प्रतिमा की दुर्दशा का निमित्त बनकर अपने ही कष्ट को आमंत्रित करता है।
आवश्यक है कि हम दैवीय शक्तियों का आह्वान अपने अंतर्मन में करें। प्रतिमा पूजन कम और लघ्वाकारी विग्रहों का हो। शिवलिंग पूजन प्रतीक पूजन का कालजयी उदाहरण है।
सनातन धर्म की परंपरानुसार बुद्ध ने भी मूर्ति का निषेध किया, भक्तों ने सबसे अधिक मूर्तियाँ बुद्ध की बनाकर समझा कि महान कार्य किया पर काल साक्षी है कि वे मूर्तियाँ तोड़ा गईं, बौद्ध धर्म का पराभव हुआ। पुरातात्त्विक अवशेषों में बड़ी संख्या में मूर्तियों के ध्वंसावशेषों को देखकर भी हम उनकी निस्सारता न समझें तो हमारी समझ का ही दोष है।
मूर्तियों के निर्माण में लगने वाला श्रम और सामग्री किसी जीवनोपयोगी निर्माण में लगे तो सबका भला होगा। 'मंदिर मंदिर मूरत तेरी, कहुँ न देखी सूरत तेरी' का अर्थ समझ मम मंदिर में देव स्थापना कर सकें तो विसर्जन करने का मन ही न होगा।
क्या हम प्रतिमा के स्थान पर देव और दिव्यता को पूजकर दैवीय गुणों से युक्त हो सकेंगे?
अनंत चौदस
१२-९-२०१९
७९९९५५९६१८
***
दोहा दुनिया
जो अच्छा उसको दिखे, अच्छा सब संसार
धन्य भाग्य जो पा रहा, 'सलिल' स्नेह उपहार
*
शरण मिली कमलेश की, 'सलिल' हुआ है धन्य
दिव्या कविता सा नहीं, दूज मीत अनन्य
*
शब्दों के संसार में, मिल जाते हैं मीत
पता न चलता समय का, कब जाता दिन बीत
* 
हिंदी दिवस पर विशेष गीत:
सारा का सारा हिंदी है
*
जो कुछ भी इस देश में है, सारा का सारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
मणिपुरी, कथकली, भरतनाट्यम, कुचपुडी, गरबा अपना है.
लेजिम, भंगड़ा, राई, डांडिया हर नूपुर का सपना है.
गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा, चनाब, सोन, चम्बल,
ब्रम्हपुत्र, झेलम, रावी अठखेली करती हैं प्रति पल.
लहर-लहर जयगान गुंजाये, हिंद में है और हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा सबमें प्रभु एक समान.
प्यार लुटाओ जितना, उतना पाओ औरों से सम्मान.
स्नेह-सलिल में नित्य नहाकर, निर्माणों के दीप जलाकर.
बाधा, संकट, संघर्षों को गले लगाओ नित मुस्काकर.
पवन, वन्हि, जल, थल, नभ पावन, कण-कण तीरथ, हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
जै-जैवन्ती, भीमपलासी, मालकौंस, ठुमरी, गांधार.
गजल, गीत, कविता, छंदों से छलक रहा है प्यार अपार.
अरावली, सतपुडा, हिमालय, मैकल, विन्ध्य, उत्तुंग शिखर.
ठहरे-ठहरे गाँव हमारे, आपाधापी लिए शहर.
कुटी, महल, अँगना, चौबारा, हर घर-द्वारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
सरसों, मका, बाजरा, चाँवल, गेहूँ, अरहर, मूँग, चना.
झुका किसी का मस्तक नीचे, 'सलिल' किसी का शीश तना.
कीर्तन, प्रेयर, सबद, प्रार्थना, बाईबिल, गीता, ग्रंथ, कुरान.
गौतम, गाँधी, नानक, अकबर, महावीर, शिव, राम महान.
रास कृष्ण का, तांडव शिव का, लास्य-हास्य सब हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
ट्राम्बे, भाखरा, भेल, भिलाई, हरिकोटा, पोकरण रतन.
आर्यभट्ट, एपल, रोहिणी के पीछे अगणित छिपे जतन.
शिवा, प्रताप, सुभाष, भगत, रैदास कबीरा, मीरा, सूर.
तुलसी. चिश्ती, नामदेव, रामानुज लाये खुदाई नूर.
रमण, रवींद्र, विनोबा, नेहरु, जयप्रकाश भी हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
***
दोहा सलिला:
हिंदी वंदना
*
हिंदी भारत भूमि की आशाओं का द्वार.
कभी पुष्प का हार है, कभी प्रचंड प्रहार..
*
हिन्दीभाषी पालते, भारत माँ से प्रीत.
गले मौसियों से मिलें, गायें माँ के गीत..
हृदय संस्कृत- रुधिर है, हिंदी- उर्दू भाल.
हाथ मराठी-बांग्ला, कन्नड़ आधार रसाल..
*
कश्मीरी है नासिका, तमिल-तेलुगु कान.
असमी-गुजराती भुजा, उडिया भौंह-कमान..
*
सिंधी-पंजाबी नयन, मलयालम है कंठ.
भोजपुरी-अवधी जिव्हा, बृज रसधार अकुंठ..
*
सरस बुंदेली-मालवी, हल्बी-मगधी मीत.
ठुमक बघेली-मैथली, नाच निभातीं प्रीत..
*
मेवाड़ी है वीरता, हाडौती असि-धार,
'सलिल'अंगिका-बज्जिका, प्रेम सहित उच्चार ..
*
बोल डोंगरी-कोंकड़ी, छत्तिसगढ़िया नित्य.
बुला रही हरियाणवी, ले-दे नेह अनित्य..
*
शेखावाटी-निमाड़ी, गोंडी-कैथी सीख.
पाली, प्राकृत, रेख्ता, से भी परिचित दीख..
*
डिंगल अरु अपभ्रंश की, मिली विरासत दिव्य.
भारत का भाषा भावन, सकल सृष्टि में भव्य..
*
हिंदी हर दिल में बसी, है हर दिल की शान.
सबको देती स्नेह यह, सबसे पाती मान..
***
नवगीत:
हिंदी की जय हो...
*
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
जनगण-मन की
अभिलाषा है.
हिंदी भावी
जगभाषा है.
शत-शत रूप
देश में प्रचलित.
बोल हो रहा
जन-जन प्रमुदित.
ईर्ष्या, डाह, बैर
मत बोलो.
गर्व सहित
बोलो निर्भय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
ध्वनि विज्ञानं
समाहित इसमें.
जन-अनुभूति
प्रवाहित इसमें.
श्रुति-स्मृति की
गहे विरासत.
अलंकार, रस,
छंद, सुभाषित.
नेह-प्रेम का
अमृत घोलो.
शब्द-शक्तिमय
वाक् अजय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
शब्द-सम्पदा
तत्सम-तद्भव.
भाव-व्यंजना
अद्भुत-अभिनव.
कारक-कर्तामय
जनवाणी.
कर्म-क्रिया कर
हो कल्याणी.
जो भी बोलो
पहले तौलो.
जगवाणी बोलो
रसमय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
***
नवगीत:
अपना हर पल है हिन्दीमय....
*
अपना हर पल है हिन्दीमय
एक दिवस क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें नित्य अंग्रेजी
जो वे एक दिवस जय गाएँ...
*
निज भाषा को कहते पिछडी.
पर भाषा उन्नत बतलाते.
घरवाली से आँख फेरकर
देख पडोसन को ललचाते.
ऐसों की जमात में बोलो,
हम कैसे शामिल हो जाएँ?...
*
हिंदी है दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक की भाषा.
जिसकी ऐसी गलत सोच है,
उससे क्या पालें हम आशा?
इन जयचंदों की खातिर
हिंदीसुत पृथ्वीराज बन जाएँ...
*
ध्वनिविज्ञान-नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में माने जाते.
कुछ लिख, कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम हिंदी में पाते.
वैज्ञानिक लिपि, उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में साम्य बताएँ...
*
अलंकार, रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की बिम्ब अनूठे.
नहीं किसी भाषा में मिलते,
दावे करलें चाहे झूठे.
देश-विदेशों में हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन बढ़ते जाएँ...
*
अन्तरिक्ष में संप्रेषण की
भाषा हिंदी सबसे उत्तम.
सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन में
हिंदी है सर्वाधिक सक्षम.
हिंदी भावी जग-वाणी है
निज आत्मा में 'सलिल' बसाएँ...
१२-९-२०१६
***
नवगीत:
*
सिसक रही है
हिंदी मैया
कॉन्वेंट स्कूल में
*
शानदार सम्मलेन होता
किन्तु न इसमें जान है.
बुंदेली को जगह नहीं है
न ही मालवी-मान है.
रुद्ध प्रवेश निमाड़ी का है
छत्तीसगढ़ी न श्लाघ्य है
बृज, अवधी, मैथिली न पूछो
हल्बी का न निशान है.
भोजपुरी को भूल
नहीं क्या
घिरते हैं हम भूल में?
सिसक रही है
हिंदी मैया
कॉन्वेंट स्कूल में
*
महीयसी को बिठलाया है
प्रेस गैलरी द्वार पर.
भारतेंदु क्या छोड़ गये हैं
सम्मेलन ही हारकर?
मातृशक्ति की अनदेखी
क्यों संतानें ही करती हैं?
घाघ-भड्डरी को बिसराया
देशजता से रार कर?
बिंधी हुई है
हिंदी कलिका
अंग्रेजी के शूल में
सिसक रही है
हिंदी मैया
कॉन्वेंट स्कूल में
*
रास, राई, बंबुलिया रोये
जगनिक-आल्हा यहाँ नहीं.
भगतें, जस, कजरी गायब हैं
गीत बटोही मिला नहीं.
सुआ गीत, पंथी या फागें
बिन हिंदी है कहाँ कहो?
जड़ बिसराकर पत्ते गिनते
माटी का संग मिला नहीं।
ताल-मेल बिन
सपने सारे
मिल जाएंगे धूल में.
सिसक रही है
हिंदी मैया
कॉन्वेंट स्कूल में
*
(१०-९-१५ को विश्व हिंदी सम्मेलन भोपाल में उद्घाटन के पूर्व लिखा गया)
***
दोहा सलिला:
करना है साहित्य बिन, भाषा का व्यापार
भाषा का करती 'सलिल', सत्ता बंटाधार
*
मनमानी करते सदा, सत्ताधारी लोग
अब भाषा के भोग का, इन्हें लगा है रोग
*
करता है मन-प्राण जब, अर्पित रचनाकार
तब भाषा की मृदा से, रचना ले आकार
*
भाषा तन साहित्य की, आत्मा बिन निष्प्राण
शिवा रहित शिव शव सदृश, धनुष बिना ज्यों बाण
*
भाषा रथ को हाँकता, सत्ता सूत अजान
दिशा-दशा साहित्य दे, कैसे? दूर सुजान
*
अवगुंठन ही ज़िन्दगी, अनावृत्त है ईश
प्रणव नाद में लीन हो, पाते सत्य मनीष
*
पढ़ ली मन की बात पर, ममता साधे मौन
अपनापन जैसा भला, नाहक तोड़े कौन
*
जीव किरायेदार है, मालिक है भगवान
हुआ किरायेदार के, वश में दयानिधान
*
रचना रचनाकार से, रच ना कहे न आप
रचना रचनाकार में, रच जाती है व्याप
*
जल-बुझकर वंदन करे, जुगनू रजनी मग्न
चाँद-चाँदनी का हुआ, जब पूनम को लग्न
*
तिमिर-उजाले में रही, सत्य संतान प्रीति
चोली-दामन के सदृश, संग निभाते रीति
*
जिसे हुआ संतोष वह, रंक अमीर समान
असंतोषमय धनिक सम, दीन न कोई जान
*
अवगुंठन ही ज़िन्दगी, अनावृत्त है ईश
प्रणव नाद में लीन हो, पाते सत्य मनीष
*
पढ़ ली मन की बात पर, ममता साधे मौन
अपनापन जैसा भला, नाहक तोड़े कौन
*
जीव किरायेदार है, मालिक है भगवान
हुआ किरायेदार के, वश में दयानिधान
*
रचना रचनाकार से, रच ना कहे न आप
रचना रचनाकार में, रच जाती है व्याप
*
जल-बुझकर वंदन करे, जुगनू रजनी मग्न
चाँद-चाँदनी का हुआ, जब पूनम को लग्न
*
तिमिर-उजाले में रही, सत्य संतान प्रीति
चोली-दामन के सदृश, संग निभाते रीति
*
जिसे हुआ संतोष वह, रंक अमीर समान
असंतोषमय धनिक सम, दीन न कोई जान
१२-९-२०१५
*


गुरुवार, 7 अगस्त 2025

अगस्त ७, सॉनेट, लघुकथा, चित्रगुप्त, मैं, तुम, ज्योतिष जन्म लग्न, पूर्णिका

सलिल सृजन अगस्त ७
*
पूर्णिका
.
कहिए कम, पढ़िए अधिक
सत् के प्रति रखिए ललक
,.
मंज़िल पाने के लिए
हँसकर श्रम करिए अथक
.
सिर पर चढ़कर बोलती
सुरा पिएँ यदि आप तक
.
सँकुचे-मुरझाए कली
भ्रमर तके घर एकटक
.
अगर शत्रु से सामना
भाई से मत हों पृथक
.
करें फैसले सोचकर
सही न होते यक-ब-यक
.
अपनापन संजीवनी
‌हरता मन का चैन शक
७.८.२०२५
०००
ज्योतिष
जन्म लग्न, रोग और भोजन पात्र -
मेष, सिंह, वृश्चिक लग्न- ताँबे के बर्तन पित्त, गुरदा, ह्रदय, श्रम भगंदर, यक्ष्मा आदि रोगों से बचायेंगे।
मिथुन, कन्या, धनु, मीन लग्न- स्टील के बर्तनों से अनिद्रा, गठिया, जोड़ दर्द, तनाव, अम्लता, आंत्र दोष की संभावना। कांसे के बर्तन लाभदायक।
वृष, कर्क, तुला लग्न - स्टील के बर्तनों से आँख, कान, गले, श्वास, मस्तिष्क संबंधी रोग हो सकते हैं। चाँदी - पीतल मिश्र धातु का प्रयोग लाभप्रद।
मकर लग्न - किसी धातु के साथ लकड़ी के पात्र का प्रयोग वायु दोष, चर्म रोग, तिल्ली, उर्वरता, स्मरण शक्ति हेतु फायदे मन्द।
कुम्भ लग्न - स्टील पात्र लाभप्रद, मिट्टी के पात्र में केवड़ा मिला जल लाभदायक।
***
सॉनेट
असली-नकली
असली-नकली चित-पट जैसे,
रहते साथ, न साथ निभाते,
दृश्य दिखाते कैसे-कैसे,
कभी नाचते, कभी नचाते।
जब मिलते लड़ते टें-टें कर,
यह उसको है धता बताता,
पक्ष-विपक्ष सदृश चें-चें कर
वह इसको है जीभ चिढ़ाता।
नूरा कुश्ती करते रहते,
ताल ठोंकते, ताली मारें,
नीर-क्षीर सम कभी न मिलते,
यह चिंघाड़े, वह फुंँफकारे।
खोटी मुद्रा कब्जा करती।
खरी न टिक पाती है डरती।।
७-८-२०२३
•••
कृतिचर्चा :
'रेत हुआ दिन' गीत के बिन
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण : रेत हुआ दिन, नवगीत संग्रह, जयप्रकाश श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण अगस्त २०२०, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., पृष्ठ संख्या १२४, आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड, मूल्य १५०/-, युगधारा प्रकाशन लखनऊ, गीतकार संपर्क : ७८६९१ ९३९२७, ९७१३५ ४४६४२।]
*
मनुष्य का गीत से प्रथम परिचय माँ की लोरी के मध्यम से होता है। गर्भ में लोरता (करवट बदलता) गुनगुनाहट की प्रतीति से हर्षित होता है। अभिमन्यु ने चक्रव्यूह प्रवेश की विद्या माँ सुभद्रा के गर्भ में ही सीखी थी। इस पौराणिक आख्यान की पुष्टि आधुनिक विज्ञान भी करता है। श्वास-प्रश्वास की लय के साथ माँ के कंठ से नि:सृत गीत को शिशु जन्म पूर्व ही पहचान लेता है और जन्मोपरांत सुन कर रोते-रोते चुप हो जाता है। वाचिक लय बद्ध गीतिकाव्य लिपिबद्ध होने पर वार्णिक-मात्रिक छंद के रूप में पहचाना जाकर 'गीत' कहलाता है। गीत के अनिवार्य तत्व कथ्य, रस, छंद, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक, मिथक, शैली आदि हैं। गीत के किसी तत्व में 'नवता' होने पर उसे 'नवगीत' कहा जाना चाहिए जैसे यौवन में प्रवेश करते युवा को 'नवयुवक' कहा जाता है। 'नवता' रूढ़ नहीं हो सकती, वह सतत परिवर्तित होती चेतना है। हिंदी में नवगीत को आंदोलन की तरह अधिरोपित करने का प्रयास साम्यवाद के प्रति प्रतिबध्द गीतकारों ने लगभग आठ दशक पूर्व किया। तब जिसने जैसी परिभाषा प्रस्तुत की उसे रूढ़ मानकर आज भी नवगीत रचे जा रहे हैं। अंतर मात्र यह है कि आरंभ में जो विषय और विचार नए थे, वे अब घिसते-घिसते जराजीर्ण होकर नवता का उपहास करते प्रतीत होते हैं। सामाजिक विसंगतियों, विडंबनाओं और टटकेपन के नाम पर नवगीत को नकारात्मक ऊर्जा का भंडार बना दिया गया है। भारतीय लोक मनीषा उत्सव धर्मी है। वह अभावों में भी हँसना जानती है, लोकदेवता शिव विष पीकर भी अमर हो जाते हैं। ऋतु परिवर्तन, कृषि जन्य बीज बोने, रोपे लगाने, फसल देखने-काटने आदि ही नहीं भोर और साँझ होने पर भी गीत गायन लोक जीवन का अंग है। सरस गीतों को गाकर जिजीविषाजयी होते लोक को तथाकथित नवगीतीय शोकमुद्रा रास नहीं आई। फलत:, नवगीत लोक से कटकर नवगीतकारों के खेमे तक सीमित रहकर दम तोड़ने लगा।
नवगीत को इस विवशता से मुक्ति देकर नवजीवन देने के लिए सतत सृजनरत कलमों में एक कलम है जयप्रकाश श्रीवास्तव की। संयोगवश उनका नाम ही प्रकाश का जयघोष करता है और यह भी कि नवगीत को 'श्री' वास्तव में तभी मिल सकती है जब वह प्रकाश की जय बोले, जीवन में रस घोले, जिसे गुनगुनाकर कोई आमजन किसी नदी-निर्झर के किनारे डोले। रचनात्मक परिवर्तन एकाएक और पूरी तरह एक बार में नहीं होता, वह क्रमिक रूप से सामने आता है। पहली दो गीत कृतियों मन का साकेत और परिंदे संवेदना के में जयप्रकाश के गीत विविध रसों में स्नान करते प्रति होते हैं जबकि तीसरा संग्रह 'शब्द वर्तमान' के गीत विसंगति-विडंबना प्रधान हैं। जय प्रकाश का 'शिक्षक' जानता है उजाला और अँधेरा सहोदर होते हैं किंतु पर्व 'अँधेरे का नहीं, उजाले का मनाया जाता है और यह भी कि अँधेरा स्वयमेव हो जाता है, उजाला करना होता है। वे अपने चौथी गीत कृति 'रेत हुआ दिन' में गीतों के माध्यम से उजाला करने की ओर कदम बढ़ाते हैं।
आँगनों की धूप
छत की मुँडेरों पर
बैठ दिन को भेज रही है।
यहाँ किसी एक आँगन की नहीं, आँगनों की जा रही है, धूप दिन को भज रही है, दिन कर्मठता का आह्वान करता है। गीतकार धूप के माध्यम से कर्मयोग का संकेत करता है।
सुबह की ठिठुरन
रजाई में दुबकी
रात भरती उसाँसें
लेती है झपकी
सिहरते से रूप
काजल कोर बहती
आँख सपने तज रही है।
यह अन्तरा विश्राम करती रात और सुबह की ठिठुरन से उबरकर आँख को सपने तजकर सच से साक्षात करने की प्रेरणा दे रहा है। अगले अन्तरे में कर्म-संदेश और उभरता है आलस अंगड़ाई लेकर हँसते हुए फटकने-बुहारने का काम करने को उद्यत होता है।
अलस अँगड़ाई
उठा घूँघट खड़ी है
झटकती सी सिर
हँसी होंठों जड़ी है
फटकती है सूप
झाड़ू से बुहारे
भोर उजली सज रही है।
अंतिम अंतरे में सुआ बटलोई चढ़ाकर चित्रकोटी पढ़ रहा है, कूप जग गए हैं, पनघट टेर रहा है और पायल छनक रही है। स्पष्ट: समूचा गीत, नकारात्मकता पर सकारात्मकता का विजय नाद गुँजा रहा है। यह नवता ही नवगीत को नवजीवन देने में समर्थ होगी। अभिव्यक्ति ही जन-गण के मन को श्रम सीकर बहाने की प्रेरणा देगा।
जयप्रकाश विसंगतियों का महिममण्डन नहीं करते, वे व्यवस्था के सामने सवाल उठाते हैं -
क्यों हैं चिड़िया गुमसुम बैठी?
क्यों आँगन खामोश हुआ है?
गीत की १४ पंक्तियाँ 'क्यों' के माध्यम से, बिना कहे पाठक के मन में बदलाव की चिंगारी सुलगाने के लिए ईंधन का काम करती हैं। घिसे-पिटे नवगीतों का वैषम्य-विलाप यहाँ नहीं है।
नवगीतों के कलेवर को और अधिक स्पष्ट और प्रेरक हुए जयप्रकाश आशावादिता, हर्ष और हुलास को नवगीत का कलेवर बनाते हुए 'आओ तो' शीर्षक गीत में श्रृंगार सुरभि से नवगीत का सत्कार करते हैं-
कुछ सपनों ने
जन्म लिया है
तुम आओ तो आँखें खोलें।
नींद सुलाकर
गई अभी है
चंदा ने गाई है लोरी
रात झुलाती रही पालना
दूध-भात की लिए कटोरी
फूलों ने है
गंध बिखेरी
तुम हँस दो तो दर्पन बोलें।
किरन डोर से बँधे उजाले लेकर आती भोर, धूप उगाता सूरज, मंदिर में बजती घंटियाँ, पंछियों के कलरव, सुवासित समीर में अमृत घोलते भजन-आरती आदि को प्रतिबद्ध विचारधारा के बंदी मठाधीशों ने बहिष्कृत कर रखा था। 'काल है संक्रांति का' से नवगीतों की जमीन में लोक छंदों और लोक गीतों को रोपने के जिस कार्य का श्री गणेश किया गया था, उसे जयप्रकाश जी ने आगे बढ़ाया है। विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर की नवगीत कार्यशालाओं के अभिन्न अंग के रूप में जयप्रकाश जी नवगीत के जमीनी जुड़ाव को भाषिक टटकापन तक सीमित न रखकर लोक जीवन से संश्लिष्ट रखने के पक्षधर रहे हैं।
जीतने की ज़िद और जीने की जिजीविषा को नवगीत में लाता है नवगीत 'एक जंगल'-
एक जंगल
खड़ा है चुपचाप
पीकर आग का दरिया
है अभी जीवित
सदी मुझमें
हरापन बोलता है
जड़ों से लेकर
शिराओं में
लहू बन डोलता है
चहकती है
सुन नई पदचाप
आँगन गंध गौरैया।
'फटेहाल / सी रहा ज़िंदगी / बैठ मेड़ पर रमुआ' कोशिश करते रहने का संदेश देता नवगीत है।
नवगीत में 'जगती आस / पत्ते नयापन बुनते', 'डालियों पर / फुदकते संलाप', 'अंकुरित फिर से / हुआ है बीज' शब्दावली मरुथल में ताजी सावनी बयार के झोंके की तरह जान में जान फूँकने में समर्थ है।
नवगीत में प्रेम को वर्ज्य मानने की जड़ता पर शब्द प्रहार करते जयप्रकाश 'चलो प्रेम की ऊँगली थामें / कुछ दूरी तक साथ चलें', 'आओ, स्नेह भरे बालों से / मन के सब कल्मष धोलें', 'माटी सोंधी अपनेपन की / बोयें खुशियों की फसलें' पर ही न रुककर नवगीत को सकारात्मक सोद्देश्यता देते हुए 'घुट-घुटकर जीने से अच्छा / पल दो पल गालें। हँस लें' का जय घोष करते हैं।
विसंगति और त्रासदी में भी जीवट और जिजीविषा को मरने न देना इन नवगीतों का वैशिष्ट्य है।
वह लड़की
कचरे के ढेर में
खोजे टुकड़े सपनों के।
काँधे पर लादे
सूरज की गठरी
परे हटा जागे
अंधियारी कथरी
बढ़ती कुछ
पाने के फेर में
काम आए जो अपनों के।
नवगीतों में संदेशपरकता, बोधात्मकता तथा संप्रेषणीयता का सम्यक तालमेल जयप्रकाश कर सके हैं। 'हमने साथ / भीड़-भाड़ से/ हरकर चलना सीख लिया', 'मत डराओ / खौलती खामोशियों से / हमने कोलाहल पिया है', 'आओ मिल-बैठकर / सुलझाएँ गुत्थियाँ / धो डालें मन के सब मैल' आदि दृष्टव्य हैं।
नवगीतों में पारिवारिक सहजता और स्नेहपरकता घोलकर उसे सहजग्राह्य बनाने में विनोद निगम का सानी नहीं है। जयप्रकाश भी पीछे नहीं है- 'तुम आँगन में / स्वेटर बुनती / मैं पढ़ता अखबार / वहीं धूप अठखेली करती', 'फिर यादों के / नीम झरोखे में आ बैठा / दादी का सपना', तुम नहीं आए / तुम्हारी याद आई / आँख से आँसू झरे'।
'रेत हुआ दिन' नवगीतकार जयप्रकाश श्रीवास्तव के नए तेवरों से समृद्ध ऐसा नवगीत संकलन है जो नई कलमों को नैराश्य के दंडकारण्य से निकाल कर उल्लास के सतपुड़ा-वनों में, हरसिंगारी पौधरोपण की प्रेरणा देकर नवगीत को 'स्यापा गीत' बनने से बचाकर, सोहर, चैती या राई के निकट ले जाएगा। इन नवगीतों में आह्वान गीत की छुअन, मिलन गीत का हुलास, बोध गीत की संदेशपरकता, जागरण गीत की सोद्देश्यता का परस इन्हें हर दिन छाप रहे नवगीतों की भीड़ से अलग खड़ा करता है। स्वाभाविक है कि लकीर के फकीर मठाधीशों को यह स्वर सहज स्वीकार न हो किन्तु बहुसंख्यक पाठक और नवगीतकार इनमें डूब-उतरा कर फिर-फिर रसास्वादन करने के साथ-साथ अगले संकलन की प्रतीक्षा करेंगे।
७-८-२०२१
***
भावांजलि
*
शारद सुता विदा हुई, माँ शारद के लोक
धरती माँ व्याकुल हुई, चाह न सकती रोक
*
सुषमा से सुषमा मिली, कमल खिला अनमोल
मानवता का पढ़ सकीं, थीं तुम ही भूगोल
*
हर पीड़ित की मदद कर, रचा नया इतिहास
सुषमा नारी शक्ति का, करा सकीं आभास
*
पा सुराज लेकर विदा, है स्वराज इतिहास
सब स्वराज हित ही जिएँ, निश-दिन किए प्रयास
*
राजनीति में विमलता, विहँस करी साकार
ओजस्वी वक्तव्य से, दे ममता कर वार
*
वाक् कला पटु ही नहीं, कौशल का पर्याय
लिखे कुशलता के कई, कौशलमय अध्याय
*
राजनीति को दे दिया, सुषमामय आयाम
भुला न सकता देश यह, अमर तुम्हारा नाम
*
शब्द-शब्द अंगार था, शीतल सलिल-फुहार
नवरस का आगार तुम, अरि-हित घातक वार
*
कर्म-कुशलता के कई, मानक रचे अनन्य
सुषमा जी शत-शत नमन, पाकर जनगण धन्य
*
शब्दों को संजीव कर, फूँके उनमें प्राण
दल-हित से जन-हित सधे, लोकतंत्र संप्राण
*
महिमामयी महीयसी, जैसा शुचि व्यक्तित्व
फिर आओ झट लौटकर, रटने नव भवितव्य
*
चिर अभिलाषा पूर्ति से, होकर परम प्रसन्न
निबल देह तुमने तजी, हम हो गए विपन्न
*
युग तुमसे ले प्रेरणा, रखे लक्ष्य पर दृष्टि
परमेश्वर फिर-फिर रचे, नव सुषमामय सृष्टि
७-८-२०१९
***
लघुकथा
दूषित वातावरण
*
अपने दल की महिला नेत्री की आलोचना को नारी अपमान बताते हुए आलोचक की माँ, पत्नि, बहन और बेटी के प्रति अपमानजनक शब्दों की बौछार करते चमचों ने पूरे शहर में जुलूस निकाला। दूरदर्शन पर दृश्य और समाचार देख के बुरी माँ सदमें में बीमार हो गयी जबकि बेटी दहशत के मारे विद्यालय भी न जा सकी। यह देख पत्नी और बहन ने हिम्मत कर कुछ पत्रकारों से भेंट कर विषम स्थिति की जानकारी देते हुए महिला नेत्री और उनके दलीय कार्यकर्ताओं को कटघरे में खड़ा किया।
कुछ वकीलों की मदद से क़ानूनी कार्यवाही आरम्भ की। उनकी गंभीरता देखकर शासन - प्रशासन को सक्रिय होना पड़ा, कई प्रतिबन्ध लगा दिए गए ताकि शांति को खतरा न हो। इस बहस के बीच रोज कमाने-खानेवालों के सामने संकट उपस्थित कर गया दूषित वातावरण।
***
लघुकथा
निज स्वामित्व
*
आप लघुकथा में वातावरण, परिवेश या पृष्ठ भूमि क्यों नहीं जोड़ते? दिग्गज हस्ताक्षर इसे आवश्यक बताते हैं।
यदि विस्तार में जाए बिना कथ्य पाठक तक पहुँच रहा है तो अनावश्यक विस्तार क्यों देना चाहिए? लघुकथा तो कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की विधा है न? मैं किसी अन्य विचारों को अपने लेखन पर बन्धन क्यों बनने दूँ। किसी विधा पर कैसे हो सकता है कुछ समीक्षकों या रचनाकारों का निज स्वामित्व?
***
लघुकथा
शर संधान
*
आजकल स्त्री विमर्श पर खूब लिख रही हो। 'लिव इन' की जमकर वकालत कर रहे हैं तुम्हारी रचनाओं के पात्र। मैं समझ सकती हूँ।
तू मुझे नहीं समझेगी तो और कौन समझेगा?
अच्छा है, इनको पढ़कर परिवारजनों और मित्रों की मानसिकता ऐसे रिश्ते को स्वीकारने की बन जाए उसके बाद बताना कि तुम भी ऐसा करने जा रही हो। सफल हो तुम्हारा शर-संधान।
***
लघुकथा
बेपेंदी का लोटा
*
'आज कल किसी का भरोसा नहीं, जो कुर्सी पर आया लोग उसी के गुणगान करने लगते हैं और स्वार्थ साधने की कोशिश करते हैं। मनुष्य को एक बात पर स्थिर रहना चाहिए।' पंडित जी नैतिकता का पाठ पढ़ा रहे थे।
प्रवचन से ऊब चूका बेटा बोल पड़ा- 'आप कहते तो ठीक हैं लेकिन एक यजमान के घर कथा में सत्यनारायण भगवान की जयकार करते हैं, दूसरे के यहाँ रुद्राभिषेक में शंकर जी की जयकार करते हैं, तीसरे के निवास पर जन्माष्टमी में कृष्ण जी का कीर्तन करते हैं, चौथे से अखंड रामायण करने के लिए कह कर राम जी को सर झुकाते हैं, किसी अन्य से नवदुर्गा का हवन करने के लिए कहते हैं। परमात्मा आपको भी तो कहता होंगे बेपेंदी का लोटा।'
७-८-२०१६
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जन्म लग्न, रोग और भोजन पात्र -
मेष, सिंह, वृश्चिक लग्न- ताँबे के बर्तन पित्त, गुरदा, ह्रदय, श्रम भगंदर, यक्ष्मा आदि रोगों से बचायेंगे।
मिथुन, कन्या, धनु, मीन लग्न- स्टील के बर्तनों से अनिद्रा, गठिया, जोड़ दर्द, तनाव, अम्लता, आंत्र दोष की संभावना। कांसे के बर्तन लाभदायक।
वृष, कर्क, तुला लग्न - स्टील के बर्तनों से आँख, कान, गले, श्वास, मस्तिष्क संबंधी रोग हो सकते हैं। चाँदी - पीतल मिश्र धातु का प्रयोग लाभप्रद।
मकर लग्न - किसी धातु के साथ लकड़ी के पात्र का प्रयोग वायु दोष, चर्म रोग, तिल्ली, उर्वरता, स्मरण शक्ति हेतु फायदे मन्द।
कुम्भ लग्न - स्टील पात्र लाभप्रद, मिट्टी के पात्र में केवड़ा मिला जल लाभदायक।
***
चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे?
श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन प्रातः-संध्या में तथा विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन (जो सदा था, है और रहेगा) धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वह हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह खाने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं।
चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं:
सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु उनके अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीय पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं। सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य: आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति अनहद नाद से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में प्रति पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर कण (बोसान पार्टिकल) तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना।
यम द्वितीया पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर के तरल 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिये 'ॐ' को सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिये उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है।
७-८-२०१४
***
दोहा सलिला:
'मैं'-'मैं' मिल जब 'हम' हुए...
*
'मैं'-'मैं' मिल जब 'हम' हुए, 'तुम' जा बैठा दूर.
जो न देख पाया रहा, आँखें रहते सूर..
*
'मैं' में 'तुम' जब हो गया, अपने आप विलीन.
व्याप गयी घर में खुशी, हर पल 'सलिल' नवीन..
*
'तुम' से 'मैं' की गैरियत, है जी का जंजाल.
'सलिल' इसी में खैरियत, 'हम' बन हों खुशहाल..
*
'मैं' ने 'मैं' को कब दिया, याद नहीं उपहार?
'मैं' गुमसुम 'तुम' हो गयी, रूठीं 'सलिल' बहार..
*
'मैं' 'तुम' 'यह' 'वह' प्यार से, भू पर लाते स्वर्ग.
'सलिल' करें तकरार तो, दूर रहे अपवर्ग..
*
'मैं' की आँखों में बसा, 'तू' बनकर मधुमास.
जिस-तिस की क्यों फ़िक्र हो, आया सावन मास..
*
'तू' 'मैं' के दो चक्र पर, गृह-वाहन गतिशील.
'हम' ईधन गति-दिशा दे, बाधा सके न लील..
*
'तू' 'तू' है, 'मैं' 'मैं' रहा, हो न सके जब एक.
तू-तू मैं-मैं न्योत कर, विपदा लाईं अनेक..
*
'मैं' 'तुम' हँस हमदम हुए, ह्रदय हर्ष से चूर.
गाल गुलाबी हो गये, नत नयनों में नूर..
*
'मैं' में 'मैं' का मिलन ही, 'मैं'-तम करे समाप्त.
'हम'-रवि की प्रेमिल किरण, हो घर भर में व्याप्त..
७-८-२०१२
***

गुरुवार, 17 जुलाई 2025

जुलाई १७, सॉनेट, अम्मी, गाय, तुम, जनमत, दोहा, महाभागवत छंद, चौकडिया, ईसुरी

सलिल सृजन जुलाई १७
विश्व इमोजी दिवस
इमोजी का अर्थ है "चित्र-अक्षर", जो जापानी शब्द "ए" (चित्र) और "मोजी" (अक्षर) से मिलकर बना है। इमोजी छोटे चित्र या प्रतीक होते हैं जिनका उपयोग भावनाओं, विचारों और वस्तुओं को व्यक्त करने के लिए किया जाता है, खासकर ऑनलाइन संचार में। इमोजी का उपयोग विभिन्न प्रकार के ऑनलाइन प्लेटफार्मों पर किया जाता है, जैसे कि सोशल मीडिया, मैसेजिंग ऐप्स, और ईमेल. वे टेक्स्ट संदेशों को अधिक जीवंत और आकर्षक बनाने, भावनाओं को व्यक्त करने, और विचारों को स्पष्ट रूप से संप्रेषित करने में मदद करते हैं।
सॉनेट
स्व. हरिकृष्ण त्रिपाठी के प्रति
रखी रीढ़ की हड्डी सीधी
मस्तक ऊँचा, दृष्टि लक्ष्य पर
आशंका को दिया न अवसर
बिगड़ी बात बनाई-साधी।
बात न रुची अधूरी आधी
कलमकार हित रहा खुल
नवता-क्षमता धन्य नमन कर।
शिक्षा का नव तीर्थ बनाया
सींचा उपवन संस्मरण का
हृदय बसाया मीमांसा को।
नव पीढ़ी से आदर पाया
दे आशीष सुपंथ वर्ण का
दीप जलाया आकांक्षा का।
२७.७.२०२५
०0०
सॉनेट
जनमत
*
कुछ ने इसको आज चुना
औरों ने ठुकराया है
ठेंगा भी दिखलाया
कुछ ने उसको आज चुना
हर दाना है यहाँ घुना
किसको बीज बना बोएँ
किस्मत को हम क्यों रोएँ
सपना फिर से नया बुना
नेता सभी रचाए स्वांग
सत्ता-कूप घुली है भांग
इसकी उसकी खींचें टांग
खुद को नहीं सुधार रहे
जनमत हाय! बिसार रहे
नेता ही बीमार रहे
१७-७-२०२१
***
दोहा सलिला
*
सलिल धार दर्पण सदृश, दिखता अपना रूप।
रंक रंक को देखता, भूप देखता भूप।।
*
स्नेह मिल रहा स्नेह को, अंतर अंतर पाल।
अंतर्मन में हो दुखी, करता व्यर्थ बवाल।।
*
अंतर अंतर मिटाकर, जब होता है एक।
अंतर्मन होत सुखी, जगता तभी विवेक।।
*
गुरु से गुर ले जान जो, वह पाता निज राह।
कर कुतर्क जो चाहता, उसे न मिलती थाह।।
*
भाषा सलिला-नीर सम, सतत बदलती रूप।
जड़ होकर मृतप्राय हो, जैसे निर्जल कूप।।
*
हिंदी गंगा में मिलीं, नदियाँ अगिन न रोक।
मर जाएगी यह समझ, पछतायेगा लोक।।
*
शब्द संपदा बपौती, नहीं किसी की जान।
जिनको अपना समझते, शब्द अन्य के मान।।
*
'आलू' फारस ने दिया, अरबी शब्द 'मकान'।
'मामा' भी है विदेशी, परदेसी है 'जान'।।
*
छाँट-बीन करिये अलग, अगर आपकी चाह।
मत औरों को रोकिए, जाएँ अपनी राह।।
*
दोहा तब जीवंत हो, कह पाए जब बात।
शब्द विदेशी 'इंडिया', ढोते तजें न तात।।
*
'मोबाइल' को भूलिए, कम्प्यूटर' से बैर।
पिछड़ जायेगा देश यह, नहीं रहेंगे खैर।।
*
'बाप, चचा' मत वापरें, कहिये नहीं 'जमीन'।
दोहा के हम प्राण ही, क्यों चाहें लें छीन।।
*
'कागज-कलम' न देश के, 'खीर-जलेबी' भूल।
'चश्मा' लगा न 'आँख' पर, बोल न 'काँटा' शूल।।
*
चरण तीसरे में अगर, लघु-गुरु है अनिवार्य।
'श्वान विडाल उदर' लिखें, कैसे कहिये आर्य?
*
है 'विडाल' ब्यालीस लघु, गुरु-लघु दो से अंत।
चरण तीन दो गुरु कहाँ, पाएँ कहिए संत?
*
'श्वान' चवालिस लघु लिए, दो गुरु इसमें मीत!
चरण तीसरा बिना गुरु, यह दोहे की रीत।।
*
'उदर' एक गुरु मात्र ले, रचते दोहा खूब।
नहीं अंत में गुरु-लघु, तजें न कह 'मर डूब'।।
*
'सर्प' लिख रहे गुरु बिना, कहिए क्या आधार?
क्यों कहते दोहा इसे, बतलायें सरकार??
*
हिंदी जगवाणी बने अगर चाहते बंधु।
हर भाषा के शब्द ले, इसे बना दें सिंधु।।
*
खाल बाल की खींचकर, बदमजगी उत्पन्न।
करें न; भाषा को नहीं, करिये मित्र विपन्न।।
*
गुरु पूर्णिमा, १६-७-२०१९
***
एक रचना:
ओ तुम!
*
ओ तुम! मेरे गीत-गीत में बहती रस की धारा हो.
लगता हर पल जैसे तुमको पहली बार निहारा हो.
दोहा बनकर मोहा तुमने, हाथ थमाया हाथों में-
कुछ न अधर बोले पर लगता तुमने अभी पुकारा हो.
*
ओ तुम! ही छंदों की लय हो, विलय तुम्हीं में भाव हुए.
दूर अगर तुम तो सुख सारे, मुझको असह अभाव हुए.
अपने सपने में केवल तुम ही तुम हो अभिसारों में-
मन-मंदिर में तुम्हीं विराजित, चौपड़ की पौ बारा हो.
*
ओ तुम! मात्रा-वर्ण के परे, कथ्य-कथानक भाषा हो.
अलंकार का अलंकार तुम, जीवन की परिभाषा हो.
नयनों में सागर, माथे पर सूरज, दृढ़संकल्पमयी-
तुम्हीं पूर्णिमा का चंदा हो, और तुम्हीं ध्रुव तारा हो.
*
तुम्हीं लावणी, कजरी, राई, रास, तुम्हीं चौपाई हो.
सावन की हरियाली हो तुम, फागों की अरुणाई हो.
कथा-वार्ता, व्रत, मेला तुम, भजन, आरती की घंटी -
नेह-नर्मदा नित्य निनादित, तुम्हीं सलिल की धारा हो.
१७.७.२०१८
***
कार्यशाला:
बीनू भटनागर
राहुल मोदी भिड़ रहे, बीच केजरीवाल,
सत्ता के झगड़े यहाँ,दिल्ली बनी मिसाल।
संजीव
दिल्ली बनी मिसाल, अफसरी हठधर्मी की
हाय! सियासत भी मिसाल है बेशर्मी की
लोकतंत्र की कब्र, सभी ने मिलकर खोदी
जनता जग दफना दे, कजरी राहुल मोदी
***
कार्यशाला:
रोज मैं इस भँवर से दो- चार होती हूँ
क्यों नहीं मैं इस नदी से पार होती हूँ ।
*
संजीव
लाख रोके राह मेरी, है मुझे प्यारी
इसलिए हँस इसी पर सवार होती हूँ ।
*
***
कार्य शाला:
--अनीता शर्मा
शायरी खुदखुशी का धंधा है।
अपनी ही लाश, अपना ही कंधा है ।
आईना बेचता फिरता है शायर उस शहर मे
जो पूरा शहर ही अंधा है।।
*
-संजीव
शायरी धंधा नहीं, इबादत है
सूली चढ़ना यहाँ रवायत है
ज़हर हर पल मिला करता है पियो
सरफरोशी है, ये बगावत है
१७-७-२०१८
***
एक रचना
गाय
*
गाय हमारी माता है
पूजो गैया को पूजो
*
पिता कहाँ है?, ज़िक्र नहीं
माता की कुछ फ़िक्र नहीं
सदा भाई से है लेना-
नहीं बहिन को कुछ देना
है निज मनमानी करना
कोई तो रस्तों सूझो
पूजो गैया को पूजो
*
गौरक्षक हम आप बने
लाठी जैसे खड़े-तने
मौका मिलते ही ठोंके-
बात किसी की नहीं सुनें
जबरा मारें रों न देंय
कार्य, न कारण तुम बूझो
पूजो गैया को पूजो
*
गैया को माना माता
बैल हो गया बाप है
अकल बैल सी हुई मुई
बात अक्ल की पाप है
सींग मारते जिस-तिस को
भागो-बचो रे! मत जूझो
पूजो गैया को पूजो
१७-७-२०१७
***
मुक्तिका
*
मापनी: १२२ १२२ १२२ १२२
*
हमारा-तुम्हारा हसीं है फ़साना
न आना-जाना, बनाना बहाना
न लेना, न देना, चबाना चबेना
ख़ुशी बाँट, पाना, गले से लगाना
मिटाना अँधेरा, उगाना सवेरा
पसीना बहाना, ग़ज़ल गुनगुनाना
न सोना, न खोना, न छिपना, न रोना
नये ख्वाब बोना, नये गीत गाना
तुम्हीं को लुभाना, तुम्हीं में समाना
तुम्हीं आरती हो, तुम्हीं हो तराना
***
दोहा सलिला:
आँखों-आँखों में हुआ, जाने क्या संवाद?
झुकीं-उठीं पलकें सँकुच, मिलीं भूल फरियाद
*
आँखें करतीं साधना, रहीं वैद को टेर
जुल्मी कजरा आँज दे, कर न देर-अंधेर
*
आँखों की आभा अमित, पल में तम दे चीर
जिससे मिलतीं, वह हुआ, दिल को हार फ़क़ीर
*
आँखों में कविता कुसुम, महकें ज्यों जलजात
जूही-चमेली, मोगरा-चम्पा, जग विख्यात
*
विरह अमावस, पूर्णिमा मिलन, कह रही आँख
प्रीत पखेरू घर बना, बसा समेटे पाँख
*
आँख आरती हो गयी, पलक प्रार्थना-लीन
संध्या वंदन साधना, पूजन करे प्रवीण
१७-७-२०१५
***
अभिनव प्रयोग:
नवगीत
जब लौं आग न बरिहै
.
जब लौं आग न बरिहै तब लौं,
ना मिटहै अंधेरा
सबऊ करो कोसिस मिर-जुर खें
बन सूरज पगफेरा
.
कौनौ बारो चूल्हा-सिगरी
कौनौ ल्याओ पानी
रांध-बेल रोटी हम सेंकें
खा रौ नेता ग्यानी
झारू लगा आज लौं काए
मिल खें नई खदेरा
.
दोरें दिखो परोसी दौरे
भुज भेंटें बम भोला
बाटी भरता चटनी गटखें
फिर बाजे रमतूला
गाओ राई, फाग सुनाओ
जागो, भओ सवेरा
.
(बुंदेलों लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फाग की तर्ज़ पर प्रति पर मात्रा १६-१२, महाभागवत छंद)
बुधवार १४ जनवरी २०१५
***
दोहे - नाम अनाम
*
पूर्वाग्रह पाले बहुत, जब रखते हम नाम
सबको यद्यपि ज्ञात है, आये-गये अनाम
कैकेयी वीरांगना, विदुषी रखा न नाम
मंदोदरी पतिव्रता, नाम न आया काम
रास रचाती रही जो, राधा रखते नाम
रास रचाये सुता तो, घर भर होता वाम
काली की पूजा करें, डरें- न रखते नाम
अंगूरी रख नाम दें, कहें न थामो जाम
अपनी अपनी सोच है, छिपी सोच में लोच
निज दुर्गुण देखें नहीं, पर गुण लखें न पोच
१७-७-२०१४
***
मुक्तिका:
अम्मी
*
माहताब की जुन्हाई में, झलक तुम्हारी पाई अम्मी.
दरवाजे, कमरे आँगन में, हरदम पडीं दिखाई अम्मी.
*
बसा सासरे केवल तन है. मन तो तेरे साथ रह गया.
इत्मीनान हमेशा रखना- बिटिया नहीं पराई अम्मी.
*
भावज जी भर गले लगाती, पर तेरी कुछ बात और थी.
तुझसे घर अपना लगता था, अब बाकी पहुनाई अम्मी.
*
कौन बताये कहाँ गयी तू ? अब्बा की सूनी आँखों में,
जब भी झाँका पडी दिखाई तेरी ही परछाँई अम्मी.
*
अब्बा में तुझको देखा है, तू ही बेटी-बेटों में है.
सच कहती हूँ, तू ही दिखती भाई और भौजाई अम्मी.
*
तू दीवाली, तू ही ईदी, तू रमजान दिवाली होली.
मेरी तो हर श्वास-आस में तू ही मिली समाई अम्मी.
*
तू कुरआन, तू ही अजान है, तू आँसू, मुस्कान, मौन है.
जब भी मैंने नजर उठाई, लगा अभी मुस्काई अम्मी.
१७-७-२०१२
***
सुभाष राय
मित्र हुए हम सलिल के , हमको इसका नाज
हिन्दी के निज देश के पूरे होंगे काज
***

शनिवार, 28 जून 2025

जून २८, सॉनेट, चंद्र छंद, सुलोचना, दोहा, मोगरा, लघु कथा, कमल, तुम, अमलतास,

सलिल सृजन जून २८
सॉनेट
साँझ
*
साँझ सपने सजा निहाल हुई,
देख छैला करे मधुर बतियाँ,
आँख रतनार हो सवाल हुई,
दूर रहना, न हम कुम्हड़बतियाँ।
काम दिन भर करे न रुकती है,
रात भर जाग बाँचती पुस्तक,
कोशिशें कर कभी न थकती है,
भाग्य के द्वार दे रही दस्तक।
आप अपनी कही कहानी है,
मुश्किलों से तनिक नहीं डरती,
न, किसी की न निगहबानी है,
तारती है, न आप ही तरती।
बात सच्ची कहूँ कमाल हुई,
साँझ सबके लिए मिसाल हुई।
(महासंस्कारी जातीय, चंद्र छंद)
२८-६-२०२३
***
सती सुलोचना
सुलोचना वासुकी नाग की पुत्री और लंका के राजा रावण के पुत्र मेघनाद की पत्नी थी।
कायस्थों के मूल श्री चित्रगुप्त जी के १२ पुत्रों के विवाह नागराज वासुकि की १२ कन्याओं ही हुए थे। इस नाते मेघनाद कायस्थों का साढ़ू होता था। मेघनाद द्वारा लक्ष्मण पर शक्ति प्रहार के बाद कायस्थ वैद्य सुषेण ने ही लक्ष्मण की प्राण रक्षा की थी। अयोध्या में चारों भाइयों की श्रेष्ठ शिक्षा-दीक्षा करनेवाली राजमाता कैकेई भी कायस्थ थीं। कायस्थों को अपनी कन्याओं के नाम कैकेई और सुलोचना के नाम पर रखकर इन नारी रत्नों की जयंतियाँ मनानी चाहिए, उनके नाम पर अलंकरण देने चाहिए।
रावण के महापराक्रमी पुत्र इन्द्रजीत (मेघनाद) का वध करने की प्रतिज्ञा लेकर लक्ष्मण जिस समय युद्ध भूमि में जाने के लिये प्रस्तुत हुए, तब राम उनसे कहते हैं- "लक्ष्मण, रण में जाकर तुम अपनी वीरता और रणकौशल से रावण-पुत्र मेघनाद का वध कर दोगे, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है परंतु एक बात का विशेष ध्यान रखना कि मेघनाद का मस्तक भूमि पर किसी भी प्रकार न गिरे। क्योंकि मेघनाद एकनारी-व्रत का पालक है और उसकी पत्नी परम पतिव्रता है। ऐसी साध्वी के पति का मस्तक अगर पृथ्वी पर गिर पड़ा तो हमारी सारी सेना का ध्वंस हो जाएगा और युद्ध में विजय की आशा त्याग देनी पड़ेगी। लक्ष्मण अपनी सैना लेकर चल पड़े। युद्ध में अपने बाणों से उन्होंने मेघनाद का मस्तक उतार लिया, पर उसे पृथ्वी पर नहीं गिरने दिया। हनुमान उस मस्तक को राम के पास ले आए।
मेघनाद की दाहिनी भुजा आकाश में उड़ती हुई उसकी पत्नी सुलोचना के पास जाकर गिरी। सुलोचना चकित हो गयी। दूसरे ही क्षण अन्यंत दु:ख से कातर होकर विलाप करने लगी पर उसने भुजा को स्पर्श नहीं किया। उसने सोचा, सम्भव है यह भुजा किसी अन्य व्यक्ति की हो। ऐसी दशा में पर-पुरुष के स्पर्श का दोष मुझे लगेगा। निर्णय करने के लिये उसने भुजा से कहा- "यदि तू मेरे स्वामी की भुजा है, तो मेरे पतिव्रत की शक्ति से युद्ध का सारा वृत्तांत लिख दे। भुजा में दासी ने लेखनी पकड़ा दी। लेखिनी ने लिख दिया- "प्राणप्रिये, यह भुजा मेरी ही है। युद्ध भूमि में श्रीराम के भाई लक्ष्मण से मेरा युद्ध हुआ। लक्ष्मण ने कई वर्षों से पत्नी, अन्न और निद्रा छोड़ रखी है। वे तेजस्वी तथा समस्त दैवी गुणों से सम्पन्न है। संग्राम में उनके साथ मेरी एक नहीं चली। अन्त में उन्हीं के बाणों से विद्ध होने से मेरा प्राणान्त हो गया। मेरा शीश श्रीराम के पास है।
पति की भुजा-लिखित पंक्तियाँ पढ़ते ही सुलोचना व्याकुल हो गई। पुत्र-वधु के विलाप को सुनकर लंकापति रावण ने आकर कहा- 'शोक न कर पुत्री। प्रात: होते ही सहस्त्रों मस्तक मेरे बाणों से कट-कट कर पृथ्वी पर लोट जाऐंगे। मैं रक्त की नदियाँ बहा दूंगा। करुण चीत्कार करती हुई सुलोचना बोली- "पर इससे मेरा क्या लाभ होगा? सहस्त्रों नहीं, करोड़ों शीश भी मेरे स्वामी के शीश के अभाव की पूर्ति नहीं कर सकेंगे। सुलोचना ने निश्चय किया कि 'उसे सती हो जाना चाहिए किंतु पति का शव तो राम-दल में पड़ा हुआ था। फिर वह कैसे सती होती? जब अपने ससुर रावण से उसने अपना अभिप्राय कहकर अपने पति का शव मँगवाने के लिए कहा, तब रावण ने उत्तर दिया- "देवी ! तुम स्वयं ही राम-दल में जाकर अपने पति का शव प्राप्त करो।''
जिस समाज में बाल ब्रह्मचारी हनुमान, परम जितेन्द्रिय लक्ष्मण तथा एक पत्नीव्रती श्रीराम विद्यमान हैं, उस समाज में तुम्हें जाने से डरना नहीं चाहिए। मुझे विश्वास है कि इन स्तुत्य महापुरुषों के द्वारा तुम निराश नहीं लौटाई जाओगी।"
सुलोचना के आने का समाचार सुनते ही श्रीराम खड़े हो गए और स्वयं चलकर सुलोचना के पास आए और बोले- "देवी! तुम्हारे पति विश्व के अन्यतम योद्धा और पराक्रमी थे। उनमें बहुत-से सद्गुण थे; किंतु विधि की लिखी को कौन बदल सकता है? आज तुम्हें इस तरह देखकर मेरे मन में पीड़ा हो रही है।'' सुलोचना भगवान की स्तुति करने लगी।
श्रीराम ने उसे बीच में ही टोकते हुए कहा- "देवी, मुझे लज्जित न करो। पतिव्रता की महिमा अपार है, उसकी शक्ति की तुलना नहीं है। मैं जानता हूँ कि तुम परम सती हो। तुम्हारे सतीत्व से तो विश्व भी थर्राता है। बताओ कि मैं तुम्हारी किस प्रकार सहायता कर सकता हूँ?''
सुलोचना ने अश्रुपूरित नयनों से प्रभु की ओर देखा और बोली- "राघवेन्द्र, मैं सती होने के लिये अपने पति का मस्तक लेने के लिये यहाँ पर आई हूँ।'' श्रीराम ने शीघ्र ही ससम्मान मेघनाद का शीश मँगवाया और सुलोचना को दे दिया।
पति का छिन्न शीश देखते ही सुलोचना का हृदय अत्यधिक द्रवित हो गया। उसकी आँखें जोरों से बरसने लगीं। रोते-रोते उसने पास खड़े लक्ष्मण की ओर देखा और कहा- "सुमित्रानन्दन, तुम भूलकर भी गर्व मत करना कि इनका वध तुमने किया है। मेरे स्वामी को धराशायी करने की शक्ति विश्व में किसी के पास नहीं थी। यह तो दो पतिव्रता नारियों का भाग्य था। आपकी पत्नी भी पतिव्रता हैं और मैं भी पति चरणों में अनुरक्ती रखनेवाली उनकी अनन्य उपसिका हूँ। दुर्भाग्य से मेरे पति पतिव्रता नारी का अपहरण करनेवाले पिता का अन्न खाते थे और उन्हीं के लिये युद्ध में उतरे थे, इसी कारण मेरे जीवनधन परलोक सिधारे।''
सभी योद्धा सुलोचना को राम शिविर में देखकर चकित थे। वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि सुलोचना को यह कैसे पता चला कि उसके पति का शीश भगवान राम के पास है। जिज्ञासा शान्त करने के लिये सुग्रीव ने पूछ ही लिया कि यह बात उन्हें कैसे ज्ञात हुई कि मेघनाद का शीश श्रीराम के शिविर में है। सुलोचना ने स्पष्टता से बता दिया- "मेरे पति की भुजा युद्ध भूमि से उड़ती हुई मेरे पास चली गई थी। उसी ने लिखकर मुझे बता दिया।''
व्यंग्य भरे शब्दों में सुग्रीव बोल उठे- "निष्प्राण भुजा यदि लिख सकती है फिर तो यह कटा हुआ सिर भी हँस सकता है।''
श्रीराम ने कहा- "व्यर्थ बातें मन करो मित्र! पतिव्रता के माहात्म्य को तुम नहीं जानते।''
सुग्रीव की मुखाकृति देखकर सुलोचना उनके भावों को समझ गई कि सुग्रीव को तब भी विश्वास नहीं हुआ था।। उसने कहा- "यदि मैं मन, वचन और कर्म से पति को देवता मानती हूँ, तो मेरे पति का यह निर्जीव मस्तक हँस उठे।'' सुलोचना की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि कटा हुआ मस्तक जोरों से हँसने लगा।
यह देखकर सभी दंग रह गये। सभी ने पतिव्रता सुलोचना को प्रणाम किया। सभी पतिव्रता की महिमा से परिचित हो गये थे। चलते समय सुलोचना ने श्रीराम से प्रार्थना की- "भगवन! आज मेरे पति की अन्त्येष्टि क्रिया है और मैं उनकी सहचरी उनसे मिलने जा रही हूँ। आज युद्ध बंद रहे।'' श्रीराम ने सुलोचना की प्रार्थना स्वीकार कर ली। सुलोचना पति का सिर लेकर वापस लंका आ गई। लंका में समुद्र के तट पर एक चंदन की चिता तैयार की गयी। पति का शीश गोद में लेकर सुलोचना चिता पर बैठी और धधकती हुई अग्नि में कुछ ही क्षणों में सती हो गई।
***
कालजयी गीतकार गोपाल सिंह नेपाली
चीनी आक्रमण के समय अपने ओजपूर्ण गीत एवं कविताओं द्वारा जनांदोलन का शंख फूँकनेवाले तथा ''चौवालिस करोड़ को हिमालय ने पुकारा'' के रचयिता आधुनिक काल के जनप्रिय हिंदी कवि और गीतों के राजकुमार गोपाल सिंह नेपाली का जन्म ११ अगस्त, १९११ ई. को बिहार राज्य के पश्चिम चम्पारण जिले के कारी दरबार में हुआ था। एक फौजी पिता की संतान के रूप में जगह-जगह भटकते रहने के कारण आपकी स्कूली शिक्षा बहुत कम हो पायी थी। आप मात्र प्रवेशिका तक ही पढ़ पाए थे, परन्तु आपने आम लोगों की भावनाओं को खूब पढ़ा और उनकी अपेक्षाओं एवं आकांक्षाओं को आवाज दी।
साधारण वेश-भूषा, पतला चश्मा, थोड़े घुँघराले बाल, रंग साँवला और कोई गंभीर्य नहीं। विनोदपूर्ण और सरल व्यक्तित्व के स्वामी गोपाल सिंह नेपाली लहरों के विपरीत चलकर सफलता के झण्डे गाड़ने वाले अपराजेय योद्धा थे। आप साहित्य की प्राय: सभी विधाओं में पारंगत थे। आपकी रचना पाठ का एक अलग ही अनूठा अंदाज होता था। यही वजह थी कि आप जिस भी आयोजन में जाते, उसके प्राण हो जाते थे। आपके द्वारा गाये गीत तुरंत लोगों के दिलो-दिमाग पर छा जाते थे और लोग उन्हें बरबस गुनगुनाने लगते थे-
'जिस पथ से शहीद जाते है, वही डगरिया रंग दे रे/ अजर अमर प्राचीन देश की, नई उमरिया रंग दे रे। / मौसम है रंगरेज गुलाबी, गांव-नगरिया रंग दे रे। / तीस करोड़ बसे धरती की, हरी चदरिया रंग दे रे॥'
१९६५ ई. में पाकिस्तानी फौज की अचानक गोली-बारी में हमारे देश के शांतिप्रिय मेजर बुधवार और उनके साथी शहीद हो गए तो केंद्र में बैठे देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को संबोधित कर कविवर नेपाली ने लिखा था- 'ओ राही! दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से, चरखा चलता हाथों से, शासन चलता तलवार से।' कविवर नेपाली का नाम सिर्फ हिन्दी साहित्य में ही नहीं बल्कि सिने जगत के इतिहास में भी अविस्मरणीय है। आप १९४४ई. में बम्बई की फिल्म कम्पनी फिल्मिस्तान में गीतकार के रूप में पहुँचे और सर्वप्रथम 'मजदूर' जैसी ऐतिहासिक फिल्म के गीत लिखे, जिसके कथाकार स्वयं कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द थे और संवाद लेखन किया था उपेन्द्र नाथ 'अश्क' ने। गीत इतने लोकप्रिय हुए कि बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन की ओर से नेपाली जी को सन् १९४५ का सर्वश्रेष्ठ गीतकार का पुरस्कार मिला। भारत पर चीनी हमले से पूर्व तक आप बम्बई में रहे और करीब चार दर्जन से भी अधिक फिल्मों में एक से एक लोकप्रिय गीत लिखे, फिल्म तुलसीदास का वह गीत आज भी हमारे लिए उस महाकवि का एक उद्बोधन-सा ही लगता है- 'सच मानो तुलसी न होते, तो हिन्दी कहीं पड़ी होती, उसके माथे पर रामायण की बिन्दी नहीं जड़ी होती।'
आपने खुद की एक फिल्म-कम्पनी 'हिमालय-फिल्मस' के नाम से बनाई थी, जिसके तहत 'नजराना' और 'खुशबू' जैसी फिल्में बनी थीं। फिल्म में लिखे इनके गीत, चली आना हमारे अँगना, तुम न कभी आओगे पिया, दिल लेके तुम्हीं जीते दिल देके हमी हारे, दूर पपीहा बोल, ओ नाग कहीं जा बसियो रे मेरे पिया को न डसियो रे, इक रात को पकड़े गये दोनों जंजीर में जकड़े गये दोनों, रोटी न किसी को मोतियों का ढेर भगवान तेरे राज में अंधेर है अंधेर तथा प्यासी ही रह गई पिया मिलन को अँखियाँ राम जी कैसे अनेक गीत इतने लोकप्रिय हुए कि आज भी 'रीमिक्स' के जमाने में कभी-कभार सुनने को मिल जाते है तो बरबस नेपाली जी की याद दिलो दिमाग को कचोट जाती है। फिल्म नागपंचमी का वह गीत जो आज भी लोगों के ओठों पर बसा है- 'आरती करो हरिहर की, करो नटवर की, भोले शंकर की, आरती करो नटवर की..'
देश पर चीनी आक्रमण के दिनों में नेपाली जी लगातार समूचे देश का साहित्यिक दौरा करते हुए, आमजन को चीनी हमले के विरुद्ध जगा रहे थे- 'युद्ध में पछाड़ दो दुष्ट लाल चीन को, मारकर खदेड़ दो तोप से कमीन को, मुक्त करो साथियों हिन्द की जमीन को, देश के शरीर में नवीन खून डाल दो।'और इसी प्रकार लोगों को जगाते-जगाते अचानक १७ अप्रैल, १९६३ को दिन के करीब ११ बजे जीवन के अंतिम कवि सम्मेलन से कविता पाठ कर लौटते समय भागलपुर रेलवे जंक्शन के प्लेटफार्म नं. २ पर सदा के लिए सो गये। उनके पार्थिव शरीर को लोगों के दर्शनार्थ स्थानीय मारवाड़ी पाठशाला में करीब बीस घंटे तक रखा गया, वहीं से इनकी ऐतिहासिक शवयात्रा निकली, जिसमें जनसैलाब उमड़ पड़ा था। भागलपुर के ही बरारी घाट पर उन्हें पाँच साहित्यकारों ने संयुक्त रूप से मुखाग्नि दी और तब उनकी चिता जलाई गई। नेपाली के गीतों के साथ जनता की आकांक्षाएँ और कल्पनाएँ गुथीं हुई थीं। तभी तो नेपाली जी ने साहित्य में उभरती हुई राजनीति और चापलूसी को देखकर बहुत दु:ख प्रकट करते हुए लिखा था- 'तुझ सा लहरों में बह लेता तो मैं भी सत्ता गह लेता। ईमान बेचता चलता तो मैं भी महलों में रह लेता। तू दलबंदी पर मरे, यहाँ लिखने में है तल्लीन कलम, मेरा धन है स्वाधीन कलम।'
हिन्दी साहित्य जगत में गोपाल सिंह नेपाली के योगदान का महत्व इसी बात से लगाया जा सकता है कि इनकी मौत के बाद उस समय की कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं ने इनके जीवन और कृतित्व पर विशेषांकों की झड़ी-सी लगा दी थी। नेपाली जी के ऐसे अनेक साहित्यिक गीत है जो आज भी सुनने वालों के मन प्राण को अभिभूत कर देते है, खासकर- नौ लाख सितारों ने लूटा, दो तुम्हारे नयन दो हमारे नयन, तथा तन का दिया रूप की बाती, दीपक जलता रहा रातभर आदि गीत काफी अनूठे है।
आज हम उस महान जनप्रिय कवि गीतकार को याद करे न करे पर उनकी कृतियाँ- उमंग, पंछी, रागिनी, पंचमी, नवीन, हिमालय ने पुकारा, पीपल का पेड़, कल्पना, नीलिमा और तूफानों को आवाज दो जैसी कालजयी रचनाओं के माध्यम से साहित्य इतिहास में सदा-सदा अमर रहेगे। अंत में उन्हीं की पंक्तियों के साथ- 'बाबुल तुम बगिया के तरुवर, हम तरुवर की चिड़ियाँ, दाना चुगते उड़ जाएँ हम, पिया मिलन की घड़ियाँ।'
***
दोहा दोहा चिकित्सा
गर्म दूध-गुड़ नित पिएँ, त्वचा नर्म हो आप
हर विकार मिट वजन घट, रोग न पाए व्याप
नित गुड़ अदरक चबाएँ, जोड़ दर्द हो दूर
मासिक समय न दर्द हो, केश बढ़ें भरपूर
श्वास फूलती है अगर, दवा श्रेष्ठ अंजीर
कफ-बलगम कर दूर यह, शीघ्र मिटाए पीर
रात फुला अंजीर त्रय, पानी में खा भोर
पानी पी लें माह भर, करें न नाहक शोर
काढ़ा तुलसी सौंठ का, श्वसन तंत्र का मीत
श्वास फूलने दमा में, सेवन उत्तम रीत
सोंठ चूर्ण चुटकी, नमक काला, काली मिर्च
सेवन से खांसी मिटे, व्यर्थ न करिए खर्च
तुलसी पत्ते पाँच सँग, काला नमक उबाल
काली मिर्ची सौंठ सँग, सेवन करे कमाल
अजवाइन को पीसकर, पानी संग उबाल
पिएँ भाप लें यदि दमा, मिटे न करे निढाल
तिल का तेल गरम मलें, छाती पर लें सेक
दमा श्वास पीड़ा मिटे, है सलाह यह नेक
श्वास दमा पीड़ा घटे, खाएँ फल अंगूर
अंगूरी से दूर हों, लाभ मिले भरपूर
चौलाई रस-शहद पी, नित्य खाइए साग
कष्ट न दे हो दूर झट, श्वास रोग खटराग
तीन कली लहसुन डला, दूध उबालें मीत
शयन पूर्व पी लीजिए, श्वास रोग लें जीत
काढ़ा सेवन सौंफ का, बलगम करता दूर
श्वसन रोग से मुक्ति पा, बजे श्वास संतूर
लौंग-शहद काढ़ा बना, पीते रहें हुजूर
श्वसन तंत्र मजबूत हो, श्वास मिले भरपूर
शहद-दालचीनी मिला, पिएँ गुनगुना नीर
या पी लें गोमूत्र तो, घटे श्वास की पीर
हींग-शहद चुप चाटिए, चार बार रह शांत
साँस फूलने से मिले, मुक्ति न रहें अशांत
नीबू रस पानी गरम, पिएँ मिले आराम
केला सेवन मत करें, लेती श्वास विराम
गुड़-सरसों के तेल में, डाल मिला लें मौन
नित करिए सेवन मलें, रोग न जाने कौन
ताजे फल सब्जी हरी, चने अंकुरित श्रेष्ठ
चिकनाई एसिड तजें, कार्बोहाइड्रेट नेष्ठ
२८.६.२०२०
***
दोहा मुक्तिका:
काम न आता प्यार
काम न आता प्यार यदि, क्यों करता करतार।।
जो दिल बस; ले दिल बसा, वह सच्चा दिलदार।।
*
जां की बाजी लगे तो, काम न आता प्यार।
सरहद पर अरि शीश ले, पहले 'सलिल' उतार।।
*
तूफानों में थाम लो, दृढ़ता से पतवार।
काम न आता प्यार गर, घिरे हुए मझधार।।
*
गैरों को अपना बना, दूर करें तकरार।
कभी न घर में रह कहें, काम न आता प्यार।।
*
बिना बोले ही बोलना, अगर हुआ स्वीकार।
'सलिल' नहीं कह सकोगे, काम न आता प्यार।।
*
मिले नहीं बाज़ार में, दो कौड़ी भी दाम।
काम न आता प्यार जब, रहे विधाता वाम।।
*
राजनीति में कभी भी, काम न आता प्यार।
दाँव-पेंच; छल-कपट से, जीवन हो निस्सार।।
*
काम न आता प्यार कह, करें नहीं तकरार।
कहीं काम मनुहार दे, कहीं काम इसरार।।
*
२८.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
***
दोहा संवाद:
बिना कहे कहना 'सलिल', सिखला देता वक्त।
सुन औरों की बात पर, कर मन की कमबख्त।।
*
आवन जावन जगत में,सब कुछ स्वप्न समान।
मैं गिरधर के रंग रंगी, मान सके तो मान।। - लता यादव
*
लता न गिरि को धर सके, गिरि पर लता अनेक।
दोहा पढ़कर हँस रहे, गिरिधर गिरि वर एक।। -संजीव
*
मैं मोहन की राधिका, नित उठ करूँ गुहार।
चरण शरण रख लो मुझे, सुनकर नाथ पुकार।। - लता यादव
*
मोहन मोह न अब मुझे, कर माया से मुक्त।
कहे राधिका साधिका, कर मत मुझे वियुक्त।। -संजीव
*
ना मैं जानूँ साधना, ना जानूँ कुछ रीत।
मन ही मन मनका फिरे,कैसी है ये प्रीत।। - लता यादव
*
करे साधना साधना, मिट जाती हर व्याध।
करे काम ना कामना, स्वार्थ रही आराध।। -संजीव
*
सोच सोच हारी सखी, सूझे तनिक न युक्ति ।
जन्म-मरण के फेर से, दिलवा दे जो मुक्ति।। -लता यादव
*
नित्य भोर हो जन फिर, नित्य रात हो मौत।
तन सो-जगता मन मगर, मौन हो रहा फौत।। -संजीव
*
वाणी पर संयम रखूँ, मुझको दो आशीष।
दोहे उत्तम रच सकूँ, कृपा करो जगदीश।। -लता यादव
*
हरि न मौन होते कभी, शब्द-शब्द में व्याप्त।
गीता-वचन उचारते, विश्व सुने चुप आप्त।। -संजीव
*
२८-६-२०१८, ७९९९५५९६१८
***
दोहा सलिला:
*
हर्ष; खुशी; उल्लास; सुख, या आनंद-प्रमोद।
हैं आकाश-कुसुम 'सलिल', अब आल्हाद विनोद।।
*
कहीं न हैपीनेस है, हुआ लापता जॉय।
हाथों में हालात के, ह्युमन बीइंग टॉय।।
*
एक दूसरे से मिलें, जब मन जाए झूम।
तब जीवन का अर्थ हो, सही हमें मालूम।।
*
मेरे अधरों पर खिले, तुझे देख मुस्कान।
तेरे लब यदि हँस पड़ें, पड़े जान में जान।।
*
तू-तू मैं-मैं भुलकर, मैं तू हम हों मीत।
तो हर मुश्किल जीत लें, यह जीवन की रीत।।
*
श्वास-आस संबंध बो, हरिया जीवन-खेत।
राग-द्वेष कंटक हटा, मतभेदों की रेत।।
*
२८.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
***
दोहा दुनिया
चंपा तुझ में तीन गुण ,रूप ,रंग और बास
अवगुण केवल एक है ,भ्रमर ना आवै पास
चंपा बदनी राधिका भ्रमर कृष्ण का दास
निज जननी अनुहार के भ्रमर न जाये पास
इन दोनों दोहों के दोहाकारों के नाम भूल गया हूँ. बताइये
***

नवगीत
खिला मोगरा
*
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
महक उठा मन
श्वास-श्वास में
गूँज उठी शहनाई।
*
हरी-भरी कोमल पंखुड़ियाँ
आशा-डाल लचीली।
मादक चितवन कली-कली की
ज्यों घर आई नवेली।
माँ के आँचल सी सुगंध ने
दी ममता-परछाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
ननदी तितली ताने मारे
छेड़ें भँवरे देवर।
भौजी के अधरों पर सोहें
मुस्कानों के जेवर।
ससुर गगन ने
विहँस बहू की
की है मुँह दिखलाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
सजन पवन जब अंग लगा तो
बिसरा मैका-अँगना।
द्वैत मिटा, अद्वैत वर लिया
खनके पायल-कँगना।
घर-उपवन में
स्वर्ग बसाकर
कली न फूल समाई।
खिला मोगरा
जब-जब, मुझको
याद किसी की आई।
***
गीत-
*
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
राकेशी ज्योत्सना न शीतल, लिये क्रांति की नव मशाल है
*
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
हुई व्यवस्था ही प्रधान, जो करे व्यवस्था अभय नहीं है
*
कल तक रही विदेशी सत्ता, क्षति पहुँचाना लगा सार्थक
आज स्वदेशी चुने हुए से टकराने का दृश्य मार्मिक
कुरुक्षेत्र की सीख यही है, दु:शासन से लड़ना होगा
धृतराष्ट्री है न्याय व्यवस्था मिलकर इसे बदलना होगा
वादों के अम्बार लगे हैं, गांधारी है न्यायपीठ पर
दुर्योधन देते दलील, चुक गये भीष्म, पर चलना होगा
आप बढ़ा जी टकराने अब उसका तिलकित नहीं भाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
*
हाथ हथौड़ा तिनका हाथी लालटेन साइकिल पथ भूले
कमल मध्य को कुचल, उच्च का हाथ थाम सपनों में झूले
निम्न कटोरा लिये हाथ में, अनुचित-उचित न देख पा रहा
मूल्य समर्थन में, फंदा बन कसा गले में कहर ढा रहा
दाल टमाटर प्याज रुलाये, खाकर हवा न जी सकता जन
पानी-पानी स्वाभिमान है, चारण सत्ता-गान गा रहा
छाते राहत-मेघ न बरसें, टैक्स-सूर्य का व्याल-जाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
*
महाकाल जा कुंभ करायें, क्षिप्रा में नर्मदा बहायें
उमा बिना शिव-राज अधूरा, नंदी चैन किस तरह पायें
सिर्फ कुबेरों की चाँदी है, श्रम का कोई मोल नहीं है
टके-तीन अभियंता बिकते, कहे व्यवस्था झोल नहीं है
छले जा रहे अपनों से ही, सपनों- नपनों से दुःख पाया
शानदार हैं मकां, न रिश्ते जानदार कुछ तोल नहीं है
जल पलाश सम 'सलिल', बदल दे अब न सहन के योग्य हाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
२८.६.२०१६
***
मुक्तिका:
संजीव
*
पढ़ेंगे खुदका लिखा खुद निहाल होना है
पढ़े जो और तो उसको निढाल होना है
*
हुई है बात सलीके की कुछ सियासत में
तभी से तय है कि जमकर बबाल होना है
*
कहा जो हमने वही सबको मानना होगा
यही जम्हूरियत की अब मिसाल होना है
*
दियों से दुश्मनी, बाती से अदावत जिनको
उन्हीं के हाथों में जलती मशाल होना है
*
कहाँ से आये मियाँ और कहाँ जाते हो?
न इससे ज्यादा कठिन कुछ सवाल होना है
***
दोहा मुक्तिका:
*
उगते सूरज की करे, जगत वंदना जाग
जाग न सकता जो रहा, उसका सोया भाग
*
दिन कर दिनकर ने कहा, वरो कर्म-अनुराग
संध्या हो निर्लिप्त सच, बोला: 'माया त्याग'
*
तपे दुपहरी में सतत, नित्य उगलता आग
कहे: 'न श्रम से भागकर, बाँधो सर पर पाग
*
उषा दुपहरी साँझ के, संग खेलता फाग
दामन पर लेकिन लगा, कभी न किंचित दाग
*
निशा-गोद में सर छिपा, करता अचल सुहाग
चंद्र-चंद्रिका को मिला, हँसे- पूर्ण शुभ याग
*
भू भगिनी को भेंट दे, मार तिमिर का नाग
बैठ मुँड़ेरे भोर में, बोले आकर काग
*
'सलिल'-धार में नहाये, बहा थकन की झाग
जग-बगिया महका रहा, जैसे माली बाग़
२८.६.२०१५
***
लघु कथा:
बाँस
.
गेंड़ी पर नाचते नर्तक की गति और कौशल से मुग्ध जनसमूह ने करतल ध्वनि की. नर्तक ने मस्तक झुकाया और तेजी से एक गली में खो गया।
आश्चर्य हुआ प्रशंसा पाने के लिये लोग क्या-क्या नहीं करते? चंद करतल ध्वनियों के लिये रैली, भाषण, सभा, समारोह, यहाँ ताक की खुद प्रायोजित भी कराते हैं। यह अनाम नर्तक इसकी उपेक्षा कर चला गया जबकि विरागी-संत भी तालियों के मोह से मुक्त नहीं हो पाते। मंदिर से संसद तक और कोठों से अमरोहों तक तालियों और गालियों का ही राज्य है।
संयोगवश अगले ही दिन वह नर्तक फिर मिला गया। आज वह पीठ पर एक शिशु को बाँधे हाथ में लंबा बाँस लिये रस्से पर चल रहा था और बज रही थीं तालियाँ लेकिन वह फिर गायब हो गया।
कुछ दिन बाद नुक्कड़ पर फिर दिख गया वह... इस बार कंधे पर रखे बाँस के दोनों ओर जलावन के गट्ठर टँगे थे जिन्हें वह बेचने जा रहा था।
मैंने पुकारा तो वह रुक गया। मैंने उसके नृत्य और रस्से पर चलने की कला की प्रशंसा कर पूछा कि इतना अच्छा कलाकार होने के बाद भी वह अपनी प्रशंसा से दूर क्यों चला जाता है? कला साधना के स्थान पर अन्य कार्यों को समय क्यों देता है?
कुछ पल वह मुझे देखता रहा फिर लम्बी साँस भरकर बोला : 'क्या कहूँ? कला साधना और प्रशंसा तो मुझे भी मन भाती है पर पेट की आग न तो कला से, न प्रशंसा से बुझती है। तालियों की आवाज़ में रमा रहूँ तो बच्चे भूखे रह जायेंगे.' मैंने जरूरत न होते हुए भी जलावन ले ली... उसे परछी में बैठाकर पानी पिलाया और रुपये दिए तो वह बोल पड़ा: 'सब किस्मत का खेल है।अच्छा-खासा व्यापार करता था। पिता को किसी से टक्कर मार दी। उनके इलाज में हुए खर्च में लिये कर्ज को चुकाने में पूँजी ख़त्म हो गयी। बचपन का साथी बाँस और उस पर सीखे खेल ही पेट पालने का जरिया बन गये।' इससे पहले कि मैं उसे हिम्मत देता वह फिर बोला: 'फ़िक्र न करें, वे दिन न रहे तो ये भी न रहेंगे। अभी तो मुझे कहीं झुककर, कहीं तनकर बाँस की तरह परिस्थितियों से जूझना ही नहीं उन्हें जीतना भी है।' और वह तेजी से आगे बढ़ गया। मैं देखता रह गया उसके हाथ में झूलता बाँस।
***
* ब्रम्ह कमल
* कमल, कुमुद, व कमलिनी का प्रयोग कहीं-कहीं भिन्न पुष्प प्रजातियों के रूप में है, कहीं-कहीं एक ही प्रजाति के पुष्प के पर्याय के रूप में. कमल के रक्तकमल, नीलकमल तथा श्वेतकमल तीन प्रकार रंग के आधार पर वर्णित हैं. कमल-कमलिनी का विभाजन बड़े-छोटे आकार के आधार पर प्रतीत होता है. कुमुद को कहीं कमल, कहीं कमलिनी कहा गया है. कुमद के साथ कुमुदिनी का भी प्रयोग हुआ है. कमल सूर्य के साथ उदित होता है, उसे सूर्यमुखी, सूर्यकान्ति, रविप्रिया आदि कहा गया है. रात में खिलनेवाली कमलिनी को शशिमुखी, चन्द्रकान्ति, रजनीकांत, कहा गया है. रक्तकमल के लाल रंग की श्री तथा हरि के कर-पद पल्लवों से समानता के कारण हरिपद, श्रीकर जैसे पर्याय बने हैं, सूर्य, चन्द्र, विष्णु, लक्ष्मी, जल, नदी, समुद्र, सरोवर आदि से जन्म के आधार पर बने पर्यायों के साथ जोड़ने पर कमल के अनेक और पर्यायी शब्द बनते हैं. मुझसे अनुरोध था कि कमल के सभी पर्यायों को गूँथकर रचना करूँ. माँ शारदा के श्री चरणों में यह कमल-माल अर्पित कर आभारी हूँ. सभी पर्यायों को गूंथने पर रचना लंबी होगी. पाठकों की प्रतिक्रिया ही बताएगी कि गीतकार निकष पर खरा उतर सका या नहीं?
गीत
शतदल पंकज कमल
*
शतदल, पंकज, कमल, सूर्यमुख
श्रम-सीकर से स्नान कर रहा.
शूल चुभा सुरभित गुलाब का फूल-
कली-मन म्लान कर रहा...
*
जंगल काट, पहाड़ खोदकर
ताल पाटता महल न जाने.
भू करवट बदले तो पल में-
मिट जायेंगे सब अफसाने..
सरवर सलिल समुद्र नदी में
खिल इन्दीवर कुई बताता
हरिपद-श्रीकर, श्रीपद-हरिकर
कृपा करें पर भेद न माने..
कुंद कुमुद क्षीरज नीरज नित
सौगन्धिक का गान कर रहा.
सरसिज, अलिप्रिय, अब्ज, रोचना
श्रम-सीकर से स्नान कर रहा.....
*
पुण्डरीक सिंधुज वारिज
तोयज उदधिज नव आस जगाता.
कुमुदिनि, कमलिनि, अरविन्दिनी के
अधरों पर शशिहास सजाता..
पनघट चौपालों अमराई
खलिहानों से अपनापन रख-
नीला लाल सफ़ेद जलज हँस
सुख-दुःख एक सदृश बतलाता.
उत्पल पुंग पद्म राजिव
कब निर्मलता का भान कर रहा.
जलरुह अम्बुज अम्भज कैरव
श्रम-सीकर से स्नान कर रहा.....
*
बिसिनी नलिन सरोज कोकनद
जाति-धर्म के भेद न मानें.
मन मिल जाए ब्याह रचायें-
एक गोत्र का खेद न जानें..
दलदल में पल दल न बनाते,
ना पंचायत, ना चुनाव ही.
शशिमुख-रविमुख रह अमिताम्बुज
बैर नहीं आपस ठानें..
अमलतास हो या पलाश
पुहकर पुष्कर का गान कर रहा.
सौगन्धिक पुन्नाग अलोही
श्रम-सीकर से
स्नान कर
*
१०-७-२०१०
-----------------
अभिनव प्रयोग-
१९. कमल-कमलिनी विवाह
*
* रक्त कमल
अंबुज शतदल कमल
अब्ज हर्षाया रे!
कुई कमलिनी का कर
गहने आया रे!...
**
हिमकमल
अंभज शीतल उत्पल देख रहा सपने
बिसिनी उत्पलिनी अरविन्दिनी सँग हँसने
कुंद कुमुद क्षीरज अंभज नीरज के सँग-
नीलाम्बुज नीलोत्पल नीलोफर भी दंग.
कँवल जलज अंबोज नलिन पुहुकर पुष्कर
अर्कबन्धु जलरुह राजिव वारिज सुंदर
मृणालिनी अंबजा अनीकिनी वधु मनहर
यह उसके, वह भी
इसके मन भाया रे!...
*
* नील कमल
बाबुल ताल, तलैया मैया हँस-रोयें
शशिप्रभ कुमुद्वती कैरविणी को खोयें.
निशापुष्प कौमुदी-करों मेंहदी सोहे.
शारंग पंकज पुण्डरीक मुकुलित मोहें.
बन्ना-बन्नी, गारी गायें विष्णुप्रिया.
पद्म पुंग पुन्नाग शीतलक लिये हिया.
रविप्रिय श्रीकर कैरव को बेचैन किया
अंभोजिनी अंबुजा
हृदय अकुलाया रे!...
**
श्वेत कमल
चंद्रमुखी-रविमुखी हाथ में हाथ लिये
कर्णपूर सौगन्धिक श्रीपद साथ लिये.
इन्दीवर सरसिज सरोज फेरे लेते.
मौन अलोही अलिप्रिय सात वचन देते.
असिताम्बुज असितोत्पल-शोभा कौन कहे?
सोमभगिनी शशिकांति-कंत सँग मौन रहे.
'सलिल'ज हँसते नयन मगर जलधार बहे
श्रीपद ने हरिकर को
पूर्ण बनाया रे!...
*
२०-७-२०१२
* कमल हर कीचड़ में नहीं खिलता. गंदे नालों में कमल नहीं दिखेगा भले ही कीचड़ हो. कमल का उद्गम जल से है इसलिए वह नीरज, जलज, सलिलज, वारिज, अम्बुज, तोयज, पानिज, आबज, अब्ज है. जल का आगर नदी, समुद्र, तालाब हैं... अतः कमल सिंधुज, उदधिज, पयोधिज, नदिज, सागरज, निर्झरज, सरोवरज, तालज भी है. जल के तल में मिट्टी है, वहीं जल और मिट्टी में मेल से कीचड़ या पंक में कमल का बीज जड़ जमता है इसलिए कमल को पंकज कहा जाता है. पंक की मूल वृत्ति मलिनता है किन्तु कमल के सत्संग में वह विमलता का कारक हो जाता है. क्षीरसागर में उत्पन्न होने से वह क्षीरज है. इसका क्षीर (मिष्ठान्न खीर) से कोई लेना-देना नहीं है. श्री (लक्ष्मी) तथा विष्णु की हथेली तथा तलवों की लालिमा से रंग मिलने के कारण रक्त कमल हरि कर, हरि पद, श्री कर, श्री पद भी कहा जाता किन्तु अन्य कमलों को यह विशेषण नहीं दिया जा सकता. पद्मजा लक्ष्मी के हाथ, पैर, आँखें तथा सकल काया कमल सदृश कही गयी है. पद्माक्षी, कमलाक्षी या कमलनयना के नेत्र गुलाबी भी हो सकते हैं, नीले भी. सीता तथा द्रौपदी के नेत्र क्रमशः गुलाबी व् नीले कहे गए हैं और दोनों को पद्माक्षी, कमलाक्षी या कमलनयना विशेषण दिए गये हैं. करकमल और चरणकमल विशेषण करपल्लव तथा पदपल्लव की लालिमा व् कोमलता को लक्ष्य कर कहा जाना चाहिए किन्तु आजकल चाटुकार कठोर-काले हाथोंवाले लोगों के लिये प्रयोग कर इन विशेषणों की हत्या कर देते हैं. श्री राम, श्री कृष्ण के श्यामल होने पर भी उनके नेत्र नीलकमल तथा कर-पद रक्तता के कारण करकमल-पदकमल कहे गये. रीतिकालिक कवियों को नायिका के अन्गोंपांगों के सौष्ठव के प्रतीक रूप में कमल से अधिक उपयुक्त अन्य प्रतीक नहीं लगा. श्वेत कमल से समता रखते चरित्रों को भी कमल से जुड़े विशेषण मिले हैं. मेरे पढ़ने में ब्रम्हकमल, हिमकमल से जुड़े विशेषण नहीं आये... शायद इसका कारण इनका दुर्लभ होना है. इंद्र कमल (चंपा) के रंग चम्पई (श्वेत-पीत का मिश्रण) से जुड़े विशेषण नायिकाओं के लिये गर्व के प्रतीक हैं किन्तु पुरुष को मिलें तो निर्बलता, अक्षमता, नपुंसकता या पाण्डुरोग (पीलिया ) इंगित करते हैं. कुंती तथा कर्ण के पैर कोमलता तथा गुलाबीपन में साम्यता रखते थे तथा इस आधार पर ही परित्यक्त पुत्र कर्ण को रणांगन में अर्जुन के सामने देख-पहचानकर वे बेसुध हो गयी थीं.
*
हिम कमल
विकिपीडिया, एक मुक्त ज्ञानकोष से
चीन के सिन्चांग वेवूर स्वायत्त प्रदेश में खड़ी थ्येनशान पर्वत माले में समुद्र सतह से तीन हजार मीटर ऊंची सीधी खड़ी चट्टानों पर एक विशेष किस्म की वनस्पति उगती है, जो हिम कमल के नाम से चीन भर में मशहूर है। हिम कमल का फूल एक प्रकार की दुर्लभ मूल्यवान जड़ी बूटी है, जिस का चीनी परम्परागत औषधि में खूब प्रयोग किया जाता है। विशेष रूप से ट्यूमर के उपचार में, लेकिन इधर के सालों में हिम कमल की चोरी की घटनाएं बहुत हुआ करती है, इस से थ्येन शान पहाड़ी क्षेत्र में उस की मात्रा में तेजी से गिरावट आयी। वर्ष 2004 से हिम कमल संरक्षण के लिए व्यापक जनता की चेतना उन्नत करने के लिए प्रयत्न शुरू किए गए जिसके फलस्वरूप पहले हिम कमल को चोरी से खोदने वाले पहाड़ी किसान और चरवाहे भी अब हिम कमल के संरक्षक बन गए हैं।
***
प्रस्तुत है एक रचना - प्रतिरचना आप इस क्रम में अपनी रचना टिप्पणी में प्रस्तुत कर सकते हैं.
रचना - प्रति रचना : इंदिरा प्रताप / संजीव 'सलिल'
*
रचना:
अमलतास का पेड़
इंदिरा प्रताप
*
वर्षों बाद लौटने पर घर
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
पेड़ पुराना अमलतास का,
सड़क किनारे यहीं खड़ा था
लदा हुआ पीले फूलों से|
पहली सूरज की किरणों से
सजग नीड़ का कोना–कोना,
पत्तों के झुरमुट के पीछे,
कलरव की धुन में गाता था,
शिशु विहगों का मौन मुखर हो|
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
तेरी–मेरी
पेड़ पुराना अमलतास का
लदा हुआ पीले फूलों से
कुछ दिन पहले यहीं खड़ा था|
गुरुवार, २३ अगस्त २०१२
*****
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in
प्रतिरचना:
अमलतास का पेड़
संजीव 'सलिल'
**
तुम कहते हो ढूँढ रहे हो
पेड़ पुराना अमलतास का।
*
जाकर लकड़ी-घर में देखो
सिसक रही हैं चंद टहनियाँ,
कचरा-घर में रोती कलियाँ,
बिखरे फूल सड़क पर करते
चीत्कार पर कोई न सुनता।
करो अनसुना.
अपने अंतर्मन से पूछो:
क्यों सन्नाटा फैला-पसरा
है जीवन में?
घर-आंगन में??
*
हुआ अंकुरित मैं- तुम जन्मे,
मैं विकसा तुम खेल-बढ़े थे।
हुईं पल्लवित शाखाएँ जब
तुमने सपने नये गढ़े थे।
कलियाँ महकीं, कँगना खनके
फूल खिले, किलकारी गूँजी।
बचपन में जोड़ा जो नाता
तोड़ा सुन सिक्कों की खनखन।
तभी हुई थी घर में अनबन।
*
मुझसे जितना दूर हुए तुम,
तुमसे अपने दूर हो गए।
मन दुखता है यह सच कहते
आँखें रहते सूर हो गए।
अब भी चेतो-
व्यर्थ न खोजो,
जो मिट गया नहीं आता है।
उठो, फिर नया पौधा रोपो,
टूट गये जो नाते जोड़ो.
पुरवैया के साथ झूमकर
ऊषा संध्या निशा साथ हँस
स्वर्गिक सुख धरती पर भोगो
बैठ छाँव में अमलतास की.
*
salil.sanjiv@gmail.com
***
श्रृंगार-गीत :
तुम
*
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
सूरज करता ताका-झाँकी
मन में आँकें सूरत बाँकी
नाच रहे बरगद बब्बा भी
झूम दे रहे ताल।
तुम इठलाईं
तो पनघट पे
कूकी मौन रसाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
सद्यस्नाता बूँदें बरसें
देख बदरिया हरषे-तरसे
पवन छेड़ता श्यामल कुंतल
उलझें-सुलझे बाल।
तुम खिसियाईं
पल्लू थामे
झिझक न करो मलाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
बजी घंटियाँ मन मंदिर में
करी अर्चना कोकिल स्वर में
रीझ रहे नटराज उमा पर
पहना, पहनी माल।
तुम भरमाईं
तो राधा लख
नटवर हुए निहाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
करछुल-चम्मच बाजी छुनछन
बटलोई करती है भुनभुन
लौकी हाथ लगाए हल्दी
मुकुट टमाटर लाल।
तुम पछताईं
नमक अधिक चख
स्वेद सुशोभित भाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
पूर्वा सँकुची कली नवेली
हुई दुपहरी प्रखर हठीली
संध्या सुंदर, कलरव सस्वर
निशा नशीली चाल।
तुम हुलसाईं
अपने सपने
पूरे किये कमाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
२८-६-२०१७
***
गीत-
*
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
राकेशी ज्योत्सना न शीतल, लिये क्रांति की नव मशाल है
*
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
हुई व्यवस्था ही प्रधान, जो करे व्यवस्था अभय नहीं है
*
कल तक रही विदेशी सत्ता, क्षति पहुँचाना लगा सार्थक
आज स्वदेशी चुने हुए से टकराने का दृश्य मार्मिक
कुरुक्षेत्र की सीख यही है, दु:शासन से लड़ना होगा
धृतराष्ट्री है न्याय व्यवस्था मिलकर इसे बदलना होगा
वादों के अम्बार लगे हैं, गांधारी है न्यायपीठ पर
दुर्योधन देते दलील, चुक गये भीष्म, पर चलना होगा
आप बढ़ा जी टकराने अब उसका तिलकित नहीं भाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
*
हाथ हथौड़ा तिनका हाथी लालटेन साइकिल पथ भूले
कमल मध्य को कुचल, उच्च का हाथ थाम सपनों में झूले
निम्न कटोरा लिये हाथ में, अनुचित-उचित न देख पा रहा
मूल्य समर्थन में, फंदा बन कसा गले में कहर ढा रहा
दाल टमाटर प्याज रुलाये, खाकर हवा न जी सकता जन
पानी-पानी स्वाभिमान है, चारण सत्ता-गान गा रहा
छाते राहत-मेघ न बरसें, टैक्स-सूर्य का व्याल-जाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
*
महाकाल जा कुंभ करायें, क्षिप्रा में नर्मदा बहायें
उमा बिना शिव-राज अधूरा, नंदी चैन किस तरह पायें
सिर्फ कुबेरों की चाँदी है, श्रम का कोई मोल नहीं है
टके-तीन अभियंता बिकते, कहे व्यवस्था झोल नहीं है
छले जा रहे अपनों से ही, सपनों- नपनों से दुःख पाया
शानदार हैं मकां, न रिश्ते जानदार कुछ तोल नहीं है
जल पलाश सम 'सलिल', बदल दे अब न सहन के योग्य हाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
***
१८-६-२०१६
***
नवगीत
खिला मोगरा
*
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
महक उठा मन
श्वास-श्वास में
गूँज उठी शहनाई।
*
हरी-भरी कोमल पंखुड़ियाँ
आशा-डाल लचीली।
मादक चितवन कली-कली की
ज्यों घर आई नवेली।
माँ के आँचल सी सुगंध ने
दी ममता-परछाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
ननदी तितली ताने मारे
छेड़ें भँवरे देवर।
भौजी के अधरों पर सोहें
मुस्कानों के जेवर।
ससुर गगन ने
विहँस बहू की
की है मुँह दिखलाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
सजन पवन जब अंग लगा तो
बिसरा मैका-अँगना।
द्वैत मिटा, अद्वैत वर लिया
खनके पायल-कँगना।
घर-उपवन में
स्वर्ग बसाकर
कली न फूल समाई।
खिला मोगरा
जब-जब, मुझको
याद किसी की आई।
***
२८-६-२०१६
***
मुक्तिका:
*
पढ़ेंगे खुदका लिखा खुद निहाल होना है
पढ़े जो और तो उसको निढाल होना है
*
हुई है बात सलीके की कुछ सियासत में
तभी से तय है कि जमकर बबाल होना है
*
कहा जो हमने वही सबको मानना होगा
यही जम्हूरियत की अब मिसाल होना है
*
दियों से दुश्मनी, बाती से अदावत जिनको
उन्हीं के हाथों में जलती मशाल होना है
*
कहाँ से आये मियाँ और कहाँ जाते हो?
न इससे ज्यादा कठिन कुछ सवाल होना है
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दोहा मुक्तिका:
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उगते सूरज की करे, जगत वंदना जाग
जाग न सकता जो रहा, उसका सोया भाग
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दिन कर दिनकर ने कहा, वरो कर्म-अनुराग
संध्या हो निर्लिप्त सच, बोला: 'माया त्याग'
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तपे दुपहरी में सतत, नित्य उगलता आग
कहे: 'न श्रम से भागकर, बाँधो सर पर पाग
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उषा दुपहरी साँझ के, संग खेलता फाग
दामन पर लेकिन लगा, कभी न किंचित दाग
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निशा-गोद में सर छिपा, करता अचल सुहाग
चंद्र-चंद्रिका को मिला, हँसे- पूर्ण शुभ याग
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भू भगिनी को भेंट दे, मार तिमिर का नाग
बैठ मुँड़ेरे भोर में, बोले आकर काग
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'सलिल'-धार में नहाये, बहा थकन की झाग
जग-बगिया महका रहा, जैसे माली बाग़
२८-६-२०१५
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विमर्श -
जन का पैगाम - जन नायक के नाम
प्रिय नरेंद्र जी, उमा जी
सादर वन्दे मातरम
मुझे आपका ध्यान नदी घाटियों के दोषपूर्ण विकास की ओर आकृष्ट करना है।
मूलतः नदियाँ गहरी तथा किनारे ऊँचे पहाड़ियों की तरह और वनों से आच्छादित थे। कालिदास का नर्मदा तट वर्णन देखें। मानव ने जंगल काटकर किनारों की चट्टानें, पत्थर और रेत खोद लिये तो नदी का तक और किनारों का अंतर बहुत कम बचा। इससे भरनेवाले पानी की मात्रा और बहाव घाट गया, नदी में कचरा बहाने की क्षमता न रही, प्रदूषण फैलने लगा, जरा से बरसात में बाढ़ आने लगी, उपजाऊ मिट्टी बाह जाने से खेत में फसल घट गई, गाँव तबाह हुए।
इस विभीषिका से निबटने हेतु कृपया, निम्न सुझावों पर विचार कर विकास कार्यक्रम में यथोचित परिवर्तन करने हेतु विचार करें:
१. नदी के तल को लगभग १० - १२ मीटर गहरा, बहाव की दिशा में ढाल देते हुए, ऊपर अधिक चौड़ा तथा नीचे तल में कम चौड़ा खोदा जाए।
२. खुदाई में निकली सामग्री से नदी तट से १-२ किलोमीटर दूर संपर्क मार्ग तथा किनारों को पक्का बनाया जाए ताकि वर्षा और बाढ़ में किनारे न बहें।
३. घाट तक आने के लिये सड़क की चौड़ाई छोड़कर शेष किनारों पर घने जंगल लगाए जाएँ जिन्हें घेरकर प्राकृतिक वातावरण में पशु-पक्षी रहें मनुष्य दूर से देख आनंदित हो सके।
४. गहरी हुई बड़ी नदियों में बड़ी नावों और छोटे जलयानों से यात्री और छोटी नदियों में नावों से यातायात और परिवहन बहुत सस्ता और सुलभ हो सकेगा। बहाव की दिशा में तो नदी ही अल्प ईंधन में पहुंचा देगी। सौर ऊर्जा चलित नावों से वर्ष में ८-९ माह पेट्रोल -डीज़ल की तुलना में लगभग एक बटे दस धुलाई व्यय होगा। प्राचीन भारत में जल संसाधन का प्रचुर प्रयोग होता था।
५. घाटों पर नदी धार से ३००-५०० मीटर दूर स्नानागार-स्नान कुण्ड तथा पूजनस्थल हों जहाँ जलपात्र या नल से नदी उपलब्ध हो। नदी के दर्शन करते हुए पूजन-तर्पण हो। प्रयुक्त दूषित जल व् अन्य सामग्री घाट पर बने लघु शोधन संयंत्र में उपचारित का शुद्ध जल में परिवर्तित की जाने के बाद नदी के तल में छोड़ा जाए। तथा नदी का प्रदुषण समाप्त होगा तथा जान सामान्य की आस्था भी बनी सकेगी। इस परिवर्तन के लिये संतों-पंडों तथा स्थानी जनों को पूर्व सहमत करने से जन विरोध नहीं होगा।
६. नदी के समीप हर शहर, गाँव, कस्बे, कारखाने, शिक्षा संस्थान, अस्पताल आदि में लघु जल-मल निस्तारण केंद्र हो। पूरे शहर के लिए एक वृहद जल-नल केंद्र मँहगा, जटिल तथा अव्यवहार्य है जबकि लघु ईकाइयां कम देखरेख में सुविधा से संचालित होने के साथ स्थानीय रोजगार भी सृजित करेंगी। इनके द्वारा उपचारित जल नदियों में छोड़ना सुरक्षित होगा।
७. एक राज्यों में बहने वाली नदियों पर विकास योजना केंद्र सरकार की देख-रेख और बजट से हो जबकि एक राज्य की सीमा में बह रही नदियों की योजनों की देखरेख और बजट राज्य सरकारें देखें।जिन स्थानों पर निवासी २५ प्रतिशत जन सहयोग दान करें उन्हें प्राथमिकता दी जाए। हिस्सों में स्थानीय जनों ने बाँध बनाकर या पहाड़ खोदकर बिना सरकारी सहायता के अपनी समस्या का निदान खोज लिया है और इनसे लगाव के कारण वे इनकी रक्षा व मरम्मत भी खुद करते है जबकि सरकारी मदद से बनी योजनाओं को आम जन ही लगाव न होने से हानि पहुंचाते हैं। इसलिए श्रमदान अवश्य हो। ७० के दशक में सरकारी विकास योजनाओं पर ५० प्रतिशत श्रमदान की शर्त थी, जो क्रमशः काम कर शून्य कर दी गयी तो आमजन लगाव ख़त्म हो जाने के कारण सामग्री की चोरी करने लगे और कमीशन माँगा जाने लगा।श्रमदान करनेवालों को रोजगार मिलेगा।
८. नर्मदा में गुजरात से जबलपुर तक, गंगा में बंगाल से हरिद्वार तक तथा राजस्थान, महाकौशल, बुंदेलखंड और बघेलखण्ड में छोटी नदियों से जल यातायात होने पर इन पिछड़े क्षेत्रों का कायाकल्प हो जाएगा।
९. इससे भूजल स्तर बढ़ेगा और सदियों के लिए पेय जल की समस्या हल हो जाएगी।भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ेगी।
कृपया, इन बिन्दुओं पर गंभीरतापूर्वक विचारण कर, क्रियान्वयन की दिशा में कदम उठाये जाने हेतु निवेदन है।
संजीव वर्मा
एक नागरिक
२८-६-२०१४