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बुधवार, 10 जुलाई 2013

doha salila :5 archana malaiya

doha salila

pratinidhi doha kosh 5  -  

अर्चना मलैया  


प्रतिनिधि दोहा कोष:५ 

 इस स्तम्भ के अंतर्गत आप पढ़ चुके हैं सर्व श्री/श्रीमती  नवीन सी. चतुर्वेदी, पूर्णिमा बर्मन तथा प्रणव भारती तथा डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र' के दोहे। आज अवगाहन कीजिए श्रीमती अर्चना मलैया रचित दोहा सलिला में :
जन्म: १८ जून १९५८, सागर मध्य प्रदेश 
आत्मजा: श्रीमती राजकुमारी - श्री देव कुमार रांधेलिया कटनी।
जीवन संगी: श्री प्रकाश मलैया।
शिक्षा: एम.ए. हिंदी।
सृजन विधा: कविता, कहानी, नाटक, लेख, लघुकथा आदि. 
संपर्क : चन्द्रिका टावर्स,  मोडल रोड, शास्त्री पुल, जबलपुर ४८२००१ दूरभाष : ०७६१४००६७२३ / चल भाष: ९९७७२५०३४१*

०१ . प्रकृति सुंदरी खोलती, अपने सुरभित केश
      अखिल सृष्टि को मोहता, सम्मोहित परिवेश
       *
०२. नयनों ने न्यौता दिया, दहके प्रीती पलाश
      तन की फरकन समोती, मुट्ठी में आकाश
       *
०३. वासंती ने पहिनकर, पीत रंग परिधान
      जानेक्यों अधरों रची, मदमाती मुस्कान
       *
०४. अरुणारे खंजन नयन, चपल दामिनी देह
      वासंती राधा लगे, अनुपम निस्संदेह
      *
०५. वासंती के रूप में राधा का ही गान
       युग बदले पर मन नहीं, गुंजित वंशी तान
      *
०६. सावन सावन सा नहीं, मन में नहीं उमंग
       बादल बैरी से लगें, पिया नहीं जब संग
      *
०७. संबंधों की नींव का, बस इतना इतिहास
       सूली पर संदेह की, टँगा रहा विश्वास
      *
०८. घेरों में अपने बँधे, मनुज धर्म औ' देश
       दृष्टि संकुचित प्रदूषित, करती है परिवेश
      *
०९. चांद लुटाता चांदनी, सूरज झरे प्रकाश
       सरहद में कब बंध सके, नीर पीर आकाश
      *
१०. भीगी भीगी दृष्टि से, झंकृत होती देह
      ज्यों पहली बरसात में, महमह धरती मेह
      *
११. हाथ थामकर हम चलें, एहसासों के गाँव
      मधुवंती चौपाल हो, सपनीली हो छाँव
       *
१२. अहसासों ने बुन लिए, सपने कुछ अनजान
      कौन सहेजेगा इन्हें, आँख अभी नादान
       *
१३. किसके हिस्से पुण्य है, किसके हिस्से पाप
      कर्मों के अनुबंध कब, जान सके हैं आप
       *
१४. भरी भरी सी मैं लगूं, तुम होते जब पास
      मीत प्रीत की जोत से, चरों ओर उजास
      *
१५. दृष्टि तुम्हारी सौंपती, नेह भरे अनुबंध
       मन प्राणों ने समो ली, भीनी भीनी गंध
      *
१६. दुर्दिन को मत कोसिए, मत खो संयम रत्न
       नियति नटी के सामने, बौने रहें प्रयत्न
       *
१७.  साँसों की लय में बसे, मन को मिले न चैन
       शीतलता तब मिलेगी, छवि देखें जब नैन
      *
१८. बस बातों ही बात में, बीते दिन औ' रात
       बातों बातों में कही, मन ने असली बात
      *
१९. इतना मत इतराइये, जैसे कोई ख्वाब
       नैनन दरस न दीजिए, मन में बसे जनाब
      *
२०. एक अकेला क्या करे, मिले न जब तक साथ
       ताली भी तब ही बजे, मिले हाथ से हाथ
      *
२१. तनिक न साधे से सधे, मन का अद्भुत खेल
       इसको बंदी कर सके, बनी न ऐसी जेल
      *
२२. हाथ पैर हैं, नयन हैं, तन है स्वर्ण समान
       काया दे सब कुछ दिया, प्रभु तुम कृपा निधान
      *
२३. जग चलता व्यवहार से, होकर चतुर सुजान
       मन के गहरे भाव का, कौन करे अनुमान
      *
२४. जाति धर्म में बँट गयी, मानव की सन्तान
       कब आयेगा दिवस वह, होंसे सभी समान
      *
२५. पत्तों शाखों पर लिखे, जाति धर्म के नाम
       जड़ को ही भूले अगर, क्या होगा परिणाम
      *
२६. चलो उतारें गगन से, जीवनदायी नीर
       मुरझाये विश्वास की, कम तो होगी पीर
      *
२७. प्राण प्रिया रटते फिरें, भरें प्रेम की पींग
       बीच बीच में झलकते, घरवाली के सींग
      *
२८. घर बाहर दोनों सधे, हर्रा लगे न हींग
       दोनों के दुश्चक्र में, गुमी आँख से नींद
      *
२९. नयना लोचन क्या कहूँ, छीने मन का चैन
       आँखों का क्या दोष है, मन ही है बेचैन
      *
३०. नैना बाजीगर बने, करतब अजब दिखाय
       बोली ऐसी बोलते, सुन पड़ता कुछ नांय
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शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

कवितायेँ: अर्चना मलैया


इस स्तम्भ में रचनाकार का संक्षिप्त परिचय, लघु रचनाएँ  तथा संक्षिप्त प्रतिक्रियाएँ  प्रस्तुत की जा सकेंगी. 
अर्चना मलैया
जन्म : कटनी, मध्य प्रदेश.
शिक्षा : एम. ए. (हिंदी).
संप्रति : हिंदी उपन्यासों में नारी विद्रोह पर शोधरत.
संपर्क : ०७६१-५००६७२३
कवितायेँ:


१. रचना प्रक्रिया:

भावना के सागर पर
वेदना की किरण पड़ती है,
भावों की भाप जमती है.
धीरे-धीरे
भाप मेघ में बदलती है
फिर किसी आघात से
मेघ फटते हैं,
बरसात होती है
और ये नन्हीं-नन्हीं बूदें
कविता होती हैं.
*
२. लडकी

वही था सूरज वही था चाँद
और वही आकाश
जिसके आगोश में
खिलते थे सितारे.
पाखी तुम भी थे
पाखी मैं भी
फिर क्यों तुम
केवल तुम
उड़ सके?,
मैं नहीं.
क्यों बींधे गये
पंख मेरे
क्यों हर उड़न
रही घायल?
*
३. आदिम अग्नियाँ
हो रही हैं उत्पन्न
खराशें हममें
हमारी सतत तराश से.
मत डालो अब और आवरण
क्योंकि अवरणों की
मोती सतह के नीचे
चेहरे न जने
कहाँ गुण हो रहे हैं?
असंभव है कि
बुझ जाएँ
वे आदिम अच्नियाँ
जो हममें सोई पड़ी हैं
बलपूर्वक दबाई चिनगारी
कभी-कभी
विस्फोटक हो जाती है.
*
अर्चना मलैया की कविताओं में व्यक्ति और समाज के अंतर्संबंधों को तलाशने-तराशने, पारंपरिक और अधुनातन मूल्यबोध को परखने की कोशिश निहित है. दर्द, राग, सामाजिक सरोकारों और संवेदनात्मक दृष्टि के तने-बाने से बुनी रचनाएँ सहज भाषा, सटीक बिम्ब और सामयिक कथ्य के कारण आम पाठक तक पहुँच पाती हैं.

Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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