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गुरुवार, 31 जुलाई 2025

जुलाई ३१, तुहिना, हास्य, मुक्तिक, सॉनेट, समीक्षा, पंकज परिमल, सपने, दुनिया

सलिल सृजन जुलाई ३१
*
सॉनेट
सपने
*
दिन में भी दिखते हैं सपने,
सच लगते पर झूठे होते,
नहीं पराए किंतु न अपने,
मरुथल में भी फसलें बोते।
सपने बिना पैर चलते हैं,
उड़ते बिना पंख भी सपने,
बनकर मित्र नहीं छलते हैं,
उगते बिना बीज भी सपने।
शीतलता दें तपते हो तो,
पापी को कर देते पावन,
नया जन्म दें मिटते हो तो,
फागुन कभी; कभी हों सावन।
पद लय गति यति रस तुक के बिन।
सॉनेट रचते सपने निशि -दिन
३१-७-२०२३
***
पंकज परिमल की याद में माहिए
*
पंकज परिमल खोकर
नवगीत उदास हुआ
पिंजरे से उड़ा सुआ।
*
जीवट का रहा धनी
थी जिजीविषा अद्भुत
पंकज था धुनी गुनी।
*
नवगीत मिसाल बने
भाषिक-शैल्पिक नव दृष्टि
नव रूपक-बिंब घने।
*
बिन पंकज हो श्रीहीन
करता है याद सलिल
टूटी सावन में बीन।
*
नवगीत सुनेंगे इंद्र
दे शुभाशीष तुमको
होंगे खुश बहुत रवींद्र।
*
अपनी मिसाल तुम आप
छू पाए अन्य नहीं
तव सुयश सका जग व्याप।
*
भावांजलि लिए सलिल
चुप अश्रुपात करता
खो पंकज दिल दुखता
३१.७.२०२१
***
सॉनेट
दुनिया
*
दुनिया बहुत सयानी है,
मीठे को बोले तीता,
मत समझो नादानी है,
भरा कोष कहती रीता।
झंडा वही उठाती है,
जो सत्ता तक ले जाए,
गीत उसी के जाती है,
लिए बिना जो दे जाए।
मिले प्रसाद जहाँ ज्यादा,
वही देवता प्यारा है,
फर्क नहीं नर या मादा,
झूठे की पौ बारा है।
दीखते है यह प्रेम पगी।
किंतु किसी सगी।।
***
मुक्तिका:
*
याद जिसकी भुलाना मुश्किल है
याद उसको न आना मुश्किल है
.
मौत औरों को देना है आसां
मौत को झेल पाना मुश्किल है
.
खुद को कहता रहा मसीहा जो
उसका इंसान होना मुश्किल है
.
तुमने बोले हैं झूठ सौ-सौ पर
एक सच बोल सकना मुश्किल है
.
अपने अधिकार चाहते हैं सभी
गैर को हक़ दिलाना मुश्किल है
३१-७-२०१७
***
अभियंता, हाइकुकार, व्यंग्यकार, ग़ज़लकार आनंद पाठक को
जन्म दिवस की अनंत शुभ कामनायें
*
आनंद परमानंद पा रच माहिया हरते जिया
लिख व्यंग्य दें जिस पर उसी का हिला देते हैं हिया
लिख दें ग़ज़ल तो हो फसल भावों की बिन बरसात भी
कृपा है इन पर उसी की हुए ये जिसके ये पिया
*
३१-७-२०१६
समीक्षा-
"काल है संक्रांति का" आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की अनुपम नवगीत कृति
- इंजी. संतोष कुमार माथुर, लखनऊ
*
एक कुशल अभियंता, मूर्धन्य साहित्यकार, निष्णात संपादक, प्रसिद्ध समीक्षक, कुशल छंदशास्त्री, समर्पित समाजसेवी पर्यावरणप्रेमी, वास्तुविद अर्थात बहुमुखी प्रतिभा के धनी आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी की नवीनतम पुस्तक "काल है संक्रांति का" पढ़ने का सुअवसर मिला। गीत-नवगीत का यह संग्रह अनेक दृष्टियों से अनुपम है।
'संक्रांति' का अर्थ है एक क्षेत्र, एक पद्धति अथवा एक व्यवस्था से दूसरे क्षेत्र, व्यवस्था अथवा पद्धति में पदार्पण। इंजी. सलिल की यह कृति सही अर्थों में संक्रांति की द्योतक है।
प्रथम संक्रांति- गीति
सामान्यत: किसी भी कविता संग्रह के आरम्भ में भूमिका के रूप में किसी विद्वान द्वारा कृति का मूल्यांकन एवं तदोपरांत रचनाकार का आत्म निवेदन अथवा कथन होता है। इस पुस्तक में इस प्रथा को छोड़कर नई प्रथा स्थापित करते हुए गद्य के स्थान पर पद्य रूप में कवि ने 'वंदन', 'स्मरण', 'समर्पण' और 'कथन' सम्मिलित करते हुए गीत / नवगीत के शिल्प और कथ्य के लक्षण इंगित किये हैं -
'नव्यता संप्रेषणों में जान भरती
गेयता संवेदनों का गान करती
कथ्य होता तथ्य का आधार खाँटा
सधी गति-यति अंतरों का मान बनती
अंतरों के बाद मुखड़ा आ विहँसता
.
छंद से संबंध दिखता या न दिखता
किंतु बन आरोह या अवरोह पलता'
.
'स्मरण' के अंतर्गत सृष्टि आरम्भ से अब तक अपने पूर्व हुए सभी पूर्वजों को प्रणिपात कर सलिल धरती के हिंदी-धाम होने की कामना करने के साथ-साथ नवरचनाकारों को अपना स्वजन मानते हुए उनसे जुड़कर मार्गदर्शन करने का विचार व्यक्त करते हैं-
'मिटा दूरियाँ, गले लगाना
नवरचनाकारों को ठानें
कलश नहीं, आधार बन सकें
भू हो हिंदी धाम'
'समर्पण' में सलिल जी ने यह संग्रह अनंत शक्ति स्वरूपा नारी के भगिनी रूप को समर्पित किया है। नारी शोषण की प्रवृत्ति को समाप्त कर नारी सशक्तिकरण के इस युग में यह प्रवृत्ति अभिनंदनीय है।
'बनीं अग्रजा या अनुजा तुम
तुमने जीवन सरस बनाया
अर्पित शब्द-सुमन स्वीकारे
नेहिल नाता मन को भाया'
द्वितीय संक्रांति-विधा
बहुधा काव्य संग्रह या तो पारंपरिक छंदों में रचित 'गीत संग्रह' होता है, या नये छंदों में रचित 'नवगीत संग्रह' अथवा छंदहीन कविताओं का संग्रह होता है। इंजी. सलिल जी ने पुस्तक के शीर्षक के साथ ही गीत-नवगीत लिखकर एक नयी प्रथा में पदार्पण किया है कि गीत-नवगीत एक दूसरे से सर्वथा भिन्न नहीं, एक दूसरे के पूरक हैं और इसलिए एक घर में रहते पिता-पुत्र की तरह उन्हें एक संकलन में रखा जा सकता हैं। उनके इस कदम का भविष्य में अन्यों द्वारा अनुकरण होगा।
तृतीय संक्रांति- भाषा
एक संकलन में अपनी रचनाओं हेतु कवि बहुधा एक भाषा-रूप का चयन कर उसी में कविता रचते हैं। सलिल जी ने केवल 'खड़ी बोली' की रचनाएँ सम्मिलित न कर 'बुंदेली' तथा लोकगीतों के उपयुक्त देशज भाषा-रूप में रचित गीति रचनाएँ भी इस संकलन में सम्मिलित की हैं तथा तदनुसार ही छन्द-विधान का पालन किया है। यह एक नयी सोच और परंपरा की शुरुआत है। इस संग्रह की भाषा मुख्यत: सहज एवं समर्थ खड़ी बोली है जिसमें आवश्यकतानुसार उर्दू, अंग्रेजी एवं बुंदेली के बोलचाल में प्रचलित शब्दों का निस्संकोच समावेश किया गया है।
प्रयोग के रूप में पंजाब के दुल्ला भट्टी को याद करते हुई गाये जानेवाले लोकगीतों की तर्ज पीर 'सुंदरिये मुंदरिये होय' रचना सम्मिलित की गयी है। इसी प्रकार बुंदेली भाषा में भी तीन रचनाएँ जिसमें 'आल्हा' की तर्ज पर लिखी गयी रचना भी है, इस संग्रह में संग्रहीत हैं।
इस संग्रह में काव्यात्मक 'समर्पण' एवं 'कथन' को छोड़कर ६३ रचनाएँ हैं।यह एक सुखद संयोग ही है कि इस पुस्तक के प्रकाशन के समय कविवर सलिल जी की आयु भी ६३ वर्ष ही है।
चतुर्थ संक्रांति- विश्वात्म दृष्टि और विज्ञान
कवि ने आरम्भ में निराकार परात्पर परब्रम्ह का 'वन्दन' करते हुए महानाद के विस्फोट से व्युत्पन्न ध्वनि तरंगों के सम्मिलन-घर्षण के परिणामस्वरूप बने सूक्ष्म कणों से सृष्टि सृजन के वैज्ञानिक सत्य को इंगित कर उसे भारतीय दर्शन के अनुसार अनादि-अनंत, अक्षय-अक्षर कहते हुए सुख-दुःख के प्रति समभाव की कामना की है-
'आदि-अंत, क्षय-क्षर विहीन हे!
असि-मसि, कलम-तूलिका हो तुम
गैर न कोई सब अपने हैं-
काया में हैं आत्म सभी हम
जन्म-मरण, यश-अपयश चक्रित
छाया-माया, सुख-दुःख हो सम'
पंचम संक्रांति- छंद वैविध्य
कवि ने अपनी नवगीत रचनाओं में छन्द एवं लयबद्धता का विशेष ध्यान रखा है जिससे हर रचना में एक अविकल भाषिक प्रवाह परिलक्षित होता है। प्रचलित छन्दों यथा दोहा-सोरठा के अतिरिक्त कवि ने कतिपय कम प्रचलित छंदों में भी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। आचार्यत्व का निर्वहन करते हुए कवि ने जहाँ विशिष्ट छंदों का उपयोग किया है वहाँ जिज्ञासु पाठकों एवं छात्रों के हितार्थ उनका स्पष्ट उल्लेख भी रचना के अंत में नीचे कर दिया है। यथा महाभागवत जातीय सार छंद, हरिगीतिका छंद, आल्हा छंद, मात्रिक करुणाकर छंद, वार्णिक सुप्रतिष्ठा छंद आदि। कुछ रचनाओं में कवि ने एकाधिक छन्दों का प्रयोग कर अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया है। यथा एक रचना में मात्रिक करुणाकर तथा वार्णिक सुप्रतिष्ठा छंद दोनों के मानकों का पालन किया है जबकि दो अन्य रचनाओं में मुखड़े में दोहा तथा अंतरे में सोरठा छंद का समन्वय किया है।
विषयवस्तु-
विषय की दृष्टि से कवि की रचनाओं यथा 'इतिहास लिखें हम', 'मन्ज़िल आकर' एवं 'तुम बन्दूक चलाओ' में आशावादिता स्पष्ट परिलक्षित होती है।
'समाजवादी', 'अगले जनम', 'लोकतन्त्र का पंछी', 'ग्रंथि श्रेष्ठता की', 'जिम्मेदार नहीं हैं नेता' एवं 'सच की अर्थी' में व्यवस्था के प्रति आक्रोश है। जीवन का कड़वा सच 'मिली दिहाड़ी' एवं 'वेश सन्त का' जैसी रचनाओं में भी उजागर हुआ है। 'राम बचाये' एवं 'हाथों में मोबाइल' रचनाएँ आधुनिक जीवनशैली पर कटाक्ष हैं। 'समर्पण' एवं 'काम तमाम' में नारी-प्रतिभा को उजागर किया गया है। कुछ रचनाओं यथा 'छोड़ो हाहाकार मियाँ', 'खों-खों करते' तथा 'लेटा हूँ' आदि में तीखे व्यंग्य बाण भी छोड़े गये हैं। सामयिक घटनाओं से प्रभावित होकर कवि ने 'ओबामा आते', पेशावर के नरपिशाच' एवं 'मैं लड़ूँगा' जैसी रचनाएँ भी लिपिबद्ध की हैं।
विषयवस्तु के संबंध में कवि की विलक्षण प्रतिभा का उदाहरण है एक ही विषय 'सूरज' पर लिखे सात तथा अन्य विषय 'नव वर्ष' पर रचित पाँच नवगीत। इस रचनाओं में यद्यपि एकरसता परिलक्षित नहीं होती तथापि लगातार एक ही विषय पर अनेक रचनाएँ पाठक को विषय की पुनरावृत्ति का अभ्यास अवश्य कराती हैं।
कुछ अन्य रचनाओं में भी शब्दों की पुरावृत्ति दृष्टिगोचर होती है। उदाहरणार्थ पृष्ठ १८ पर 'उठो पाखी' के प्रथम छंद में 'शराफत' शब्द का प्रयोग खटकता है। पृष्ठ ४३ पर 'सिर्फ सच' की १० वीं व ११ वीं पंक्ति में 'फेंक दे' की पुनरावृत्ति छपाई की भूल है।
कुल मिलाकर कवि-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' का यह संग्रह अनेक प्रकार से सराहनीय है। ज्ञात हुआ है कि संग्रह की अनेक रचनाएँ अंतर्जाल पर बहुप्रशंसित और बहुचर्चित हो चुकी हैं। सलिल जी ने अंतरजाल पर हिंदी भाषा, व्याकरण और पिंगल के प्रसार-प्रचार और युवाओं में छन्द के प्रति आकर्षण जगाने की दिशा में सराहनीय प्रयास किया है। छन्द एवं विषय वैविध्य, प्रयोगधर्मिता, अभिनव प्रयोगात्मक गीतों-नवगीतों से सुसज्जित इस संग्रह 'काल है संक्रांति का' के प्रकाशन हेतु इंजी, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' बधाई के पात्र हैं।
*****
समीक्षक सम्पर्क- अभियंता संतोष कुमार माथुर, कवि-गीतकार, सेवा निवृत्त मुख्य अभियंता, लखनऊ।
***
पुस्तक चर्चा -
'मैं पानी बचाता हूँ' सामयिक युगबोध की कवितायेँ
*
[पुस्तक विवरण- मैं पानी बचाता हूँ, काव्य संग्रह, राग तेलंग, वर्ष २०१६, ISBN ९७८-९३-८५९४२-२३-५, पृष्ठ १४४, मूल्य १२०/-, आकार २०.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, बोधि प्रकाशन, ऍफ़ ७७, सेक्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६]
*
साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है किन्तु दर्पण संवेदनहीन होता है जो यथास्थिति को प्रतिबिंबित मात्र करता है जबकि साहित्य सामयिक सत्य को भावी शुभत्व के निकष पर कसते हुए परिवर्तित रूप में प्रस्तुत कर समाज के उन्नयन का पथ प्रशस्त करता है। दर्पण का प्रतिबिम्ब निरुद्देश्य होता है जबकि साहित्य का उद्देश्य सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय माना गया है। विविध विधाओं में सर्वाधिक संवेदनशीलता के कारण कविता यथार्थ और सत्य के सर्वाधिक निकट होती है। छन्दबद्ध हो या छन्दमुक्त कविता का चयन कवि अपनी रुचि अनुरूप करता है। बहुधा कवि प्रसंग तथा लक्ष्य पाठक/श्रोता के अनुरूप शिल्प का चयन करता है।
'मैं पानी बचाता हूँ' हिंदी कविता के समर्थ हस्ताक्षर राग तेलंग की छोटी-मध्यम कविताओं का पठनीय संग्रह है। बिना किसी भूमिका के कवि पाठकों को कविता से मिलाता है, यह उसकी सामर्थ्य और आत्म विश्वास का परिचायक है। पाठक पढ़े और मत बनाये, कोई पाठक के अभिमत को प्रभावित क्यों करे? यह एक सार्थक सोच है। इसके पूर्व 'शब्द गुम हो जाने के खतरे', 'मिट्टी में नमी की तरह', 'बाजार से बेदखल', 'कहीं किसी जगह कई चेहरों की एक आवाज़', कविता ही आदमी को बचायेगी' तथा 'अंतर्यात्रा' ६ काव्य संकलनों के माध्यम से अपना पाठक वर्ग बना चुके और साहित्य में स्थापित हो चुके राग तेलंग जी समय की नब्ज़ टटोलना जानते हैं। वे कहते हैं- 'अब नहीं कहता / जानता कुछ नहीं / न ही / जानता सब कुछ / बस / समझता हूँ कुछ-कुछ।' यह कुछ-कुछ समझना ही आदमी का आदमी होना है। सब कुछ जानने और कुछ न जानने के गर्व और हीनता से दूर रहने की स्थिति ही सृजन हेतु आदर्श है।
कवि अनावश्यक टकराव नहीं चाहता किन्तु अस्मिता की बात हो तो पैर पीछे भी नहीं हटाता। भाषा तो कवि की माँ है। जब भाषा की अस्मिता का सवाल हो तोवह पीछे कैंसे रह सकता है।
'अब अगर / अपनी जुबां की खातिर / छीनना ही पड़े उनसे मेरी भाषा तो / मुझे पछाड़ना ही होगा उन्हें '
काश यह संकल्प भारत के राजनेता कर सकते तो हिंदी जगवाणी हो जाती। तेलंग आस्तिकता के कवि हैं। तमाम युगीन विसंगतियों और सामाजिक विडंबनाओं के बावजूद वह मनुष्यता पर विश्वास रखते है। इसलिए वह लिखते हैं- 'मैं प्रार्थनाओं में / मनुष्य के मनुष्य रहने की / कामना करता हूँ। '
'लता-लता हैं और आशा-आशा' शीर्षक कविता राग जी की असाधारण संवेदनशीलता की बानगी है। इस कविता में वे लता, आशा, जगजीत, गुलज़ार, खय्याम, जयदेव, विलायत खां, रविशंकर, बिस्मिल्ला खां, अमजद अली खां, अल्लारक्खा खां, जाकिर हुसैन, बेगम अख्तर, फरीद खानम,परवीन सुल्ताना सविता देवी आदि को किरदार बनाकर उनके फन में डूबकर गागर में सागर भरते हुए उनकी खासियतों से परिचित कराकर निष्कर्षतः: कहते हैं- "सब खासमखास हैं / किसी का किसी से / कोई मुकाबला नहीं।"
यही बात इस संग्रह की लगभग सौ कविताओं के बारे में भी सत्य है। पाठक इन्हें पढ़ें, इनमें डूबे और इन्हें गुने तो आधुनिक कविता के वैशिष्ट्य को समझ सकेगा। नए कवियों के लिए यह पाठ्य पुस्तक की तरह है। कब कहाँ से कैसे विषय उठाना, उसके किस पहलू पर ध्यान केंद्रित करना और किस तरह सामान्य दिखती घटना में किस कोण से असाधारणता की तलाश कर असामान्य बात कहना कि पाठक-श्रोता के मन को छू जाए, पृष्ठ-पृष्ठ पर इसकी बानगी है। ग्रामीण क्षेत्रों में पत्र लेखन परंपरा में 'कम लिखे से ज्यादा समझना' की बानगी 'मार' शीर्षक कविता में देखें-
"देखना / बिना छुए / छूना है
सोचना / बिना पहुँचे / पहुँचना है
सोचकर देखना / सोचकर / देखना नहीं है
सोचकर देखो / फिर उस तक पहुँचो
गागर में सागर की तरह कविता में एक भी अनावश्यक शब्द न रहने देना और हर शब्द से कुछ न कुछ कहना राग तेलंग की कविताओं का वैशिष्ट्य है। उनके आगामी संकलन की बेसब्री से प्रतीक्षा की ही जाना चाहिए अन्यथा कविता की सामर्थ्य और पाठक की समझ दोनों पर प्रश्न चिन्ह लगने की आशंका होगी।
***
अभियंता, हाइकुकार, व्यंग्यकार, ग़ज़लकार आनंद पाठक को
जन्म दिवस की अनंत शुभ कामनायें
*
आनंद परमानंद पा रच माहिया हरते जिया
लिख व्यंग्य दें जिस पर उसी का हिला देते हैं हिया
लिख दें ग़ज़ल तो हो फसल भावों की बिन बरसात भी
कृपा है इन पर उसी की हुए ये जिसके ये पिया
३१-७-२०१६
***
कृति-चर्चा:
चीखती टिटहरी हाँफता अलाव : नवगीत का अनूठा रचाव
*
[कृति-विवरण: चीखती टिटहरी हाँफता अलाव, नवगीत संग्रह, डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १३१, १८०/-, वर्ष २०११, अयन प्रकाशन महरौली नई दिल्ली, नवगीतकार संपर्क: ८६ तिलक नगर, बाई पास मार्ग फीरोजाबाद २८३२०३, चलभाष ९४१२३ १६७७९, ई मेल: dr.yayavar@yahoo.co.in]
*
डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर' ने मन पलाशवन, गलियारे गंध के तथा अँधा हुआ समय का दर्पण के पश्चात चीखती टिटहरी हाँफता अलाव शीर्षक से चौथा नवगीत संग्रह लेकर माँ शारदा के चरणों में समर्पित किया है. नवगीत दरबार पूरी दबंगता के साथ अपनी बात शिष्ट-शालीन-संस्कारिक शब्दावली में कहने में यायावर जी का सानी नहीं है. ठेठ भदेसी शब्दावली की अबूझता, शब्दकोशी क्लिष्ट शब्दों की बोझिलता तथा अंग्रेजी शब्दों की अनावश्यक घुसपैठ की जो प्रवृत्ति समकालीन नवगीतों में वैशिष्ट्य कहकर आरोपित की गयी है, डॉ. यायावर के नवगीत उससे दूर रहते हुए हिंदी भाषा की जीवंतता, सहजता, सटीकता, सरसता तथा छान्दसिकता बनाये रखते हुए पाठक-श्रोता का मर्म छू पाते हैं.
कवि पिंगल की मर्यादानुसार प्रथम नवगीत 'मातरम् मातरम्' वंदना में भी युगीन विसंगतियों को समाहित करते हुए शांति की कामना करता है: 'झूठ ही झूठ है / पूर्ण वातावरण / खो गया है कहीं / आज सत्याचरण / बाँटते विष सभी / आप, वे और मैं / बंधु बांधव सखा / भ्रातरम् भ्रातरम्' तथा 'हो चतुर्दिक / तेरे हंस की धवलिमा / जाय मिट / हर दिशा की / गहन कालिमा / बाँसुरीi में / नये स्वर / बजें प्रीति के / / शांति, संतोष, सुख / मंगलम् मंगलम्' . 'कालिमा' की तर्ज पर 'धवलिमा' शब्द को गढ़ना और उसका सार्थक प्रयोग करना यायावर जी की प्रयोगशील वृत्ति का परिचायक है.
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार डॉ. महेंद्र भटनागर ने ठीक ही परिलक्षित किया है: 'डॉ. यायावर के नवगीतों की सबसे बड़ी विशेषता है कि उनमें जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टि अपनायी गयी है. ये वातावरण की रिक्तता, मूल्यहीनता के घटाटोप अन्धकार के दुर्दमनीय फैलाव और निराशा के अछोर विस्तार से भले ही गीत का प्रारंभ करते हों परन्तु अंत सदैव आशावाद और आशावादी संदेश के साथ करते हैं.'
डॉ. यायावर हिंदी के असाधारण विद्वान, छंद शास्त्री, प्राध्यापक, शोध निदेशक होने के साथ-साथ नवदृष्टि परकता के लिये ख्यात हैं. वे नवगीत के संदर्भ में प्रचलित से हटकर कहते हैं: 'नवगीत खौलाती संवेदनाओं की वर्ण-व्यंजना है, दर्द की बाँसुरी पर धधकते परिवेश में भुनती ज़िंदगी का स्वर संधान है, वह पछुआ के अंधड़ में तिनके से उड़ते स्वस्तिक की विवशता है, अपशकुनी टिटहरियों की भुतहा चीखों को ललकारने का हौसला है, गिरगिटों की दुनिया में प्रथम प्रगीत के स्वर गुंजाने का भगीरथ प्रयास है, शर-शैया पर भीष्म के स्थान पर पार्थ को धार देनेवाली व्यवस्था का सर्जनात्मक प्रतिवाद है, अंगुलिमालों की दुनिया में बुद्ध के अवतरण की ज्योतिगाथा है, लाफ्टर चैनल के पंजे में कराहती चौपाई को स्वतंत्र करने का प्रयास है, 'मूल्यहन्ता' और 'हृदयहन्ता' समय की छाती पर कील गाड़ने की चेष्टा है, बुधिया के आँचल में डर-डर कर आते हुए सपनों को झूठी आज़ादी से आज़ाद करने का गुरुमंत्र है, ट्रेक्टर के नीचे रौंदे हुए सपनों के चकरोड की चीख है, झूठ के कहकहों को सुनकर लचर खड़े सच को दिया गया आश्वासन है और रचनाकार द्वारा किसी भी नहुष की पालकी न ढोने का सर्जनात्मक संकल्प है. वस्तुत: नवगीत समय का सच है.'
विवेच्य संग्रह के नवगीत सच की अभ्यर्थना ही नहीं करते, सच को जीवन में उतारने का आव्हान भी करते हैं:
'भ्रम ही भ्रम
लिखती रही उमर
आओ!
अब प्रथम प्रगीत लिखें
मन का अनहद संगीत लिखें' (संस्कारी छंद)
जनहित की पक्षधरता नवगीत का वैशिष्ट्य नहीं, उद्देश्य है. आम जन की आवाज़ बनकर नवगीत आसमान नहीं छूता, जमीन से अँकुराता और जमीन में जड़ें जमाता है. आपातकाल में दुष्यंत कुमार ने लिखा था: 'कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं / गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं'. यायावर का स्वर दुष्यंत से भिन्न नहीं है. वे विसंगति, किंकर्तव्यविमूढ़ता तथा आक्रोश तीनों मन:स्थितियों को नवगीतों में ढालते हैं:
विसंगति:
बुढ़िया के आँचल में / सपने आते डरे-डरे.
भकुआ बना हुआ / अपनापन / हँसती है चालाकी
पंच नहीं परमेश्वर / हारी / पंचायत में काकी
तुलसीचौरे पर दियना अब / जले न साँझ ढरे.' (महाभागवतजातीय छंद)
.
पैरों में जलता मरुथल है (संस्कारी छंद)
और पीठ पर चिथड़ा व्योम
हम सच के हो गए विलोम (तैथिक जातीय छंद)
.
आँगन तक आ पहुँची / रक्त की नदी
सूली पर लटकी है / बीसवीं सदी (महादेशिक जातीय छंद)
.
किंकर्तव्यविमूढ़ता:
हो गया गंदा / नदी का जल / यहाँ पर
डाँटती चौकस निगाहें / अब कहाँ पर? (त्रैलोक जातीय छंद)
घुन गयी वह / घाटवाली नाव / कोई क्या करे? (महाभागवतजातीय छंद)
.
चाँदनी में / जल रहे हैं पाँव / कोई क्या करे?
कट गया वट / कटा पीपल / कटी तुलसी
थी यहाँ / छतनार इमली / बात कल सी (त्रैलोक जातीय छंद)
अब हुई गायब / यहां की छाँव / कोई क्या करे? (महाभागवतजातीय छंद)
.
आव्हान :
भ्रम ही भ्रम / लिखती रही उमर
आओ! अब / प्रथम प्रगीत लिखें
मन का अनहद संगीत लिखें।
.
अर्थहीन कोलाहल में / हम वंशी नाद भरें
चलो, चलें प्रिय!
इस मौसम में / कुछ तो नया करें
.
यायावर जी रचित ' ऊर्ध्वगामी चिंतन से संपृक्त इन गीतों में जीवन अपनी पूर्ण इयत्ता के साथ जीवंत हो उठा है. ये गीत लोक जीवन के अनुभवों-अनुभूतियों एवं आवेगों-संवेगों के गीतात्मक अभिलेख हैं. ये गीत मानवीय संवेदनाओं की ऐसी अभिव्यंजना हैं जो मन के अत्यंत समीप आकर कोमल स्पर्श की अनुभूति कराते हैं.सहजता इन गीतों की विशिष्ट है और मर्मस्पर्शिता इनकी पहचान. प्राय: सभी गीत सहज अनुभूति के ताने-बाने से बने हुए हैं. वे कब साकार होकर हमसे बतियाते हुए मर्मस्थल को बेध जाते हैं, पता ही नहीं चलता।' वरिष्ठ समीक्षक दिवाकर वर्मा का यह मत नव नवगीतकारों के लिये संकेत है की नवगीत का प्राण कहाँ बसता है?
डॉ. यायावर के ये नवगीत लक्षणा शक्ति से लबालब भरे हैं. जीवंत बिम्ब विधान तथा सरस प्रतीकों की आधारशिला पर निर्मित नवगीत भवन में छांदस वैविध्य के बेल बूटों की मनोहर कलाकारी हृदयहारी है. यायावर जी का शब्द भण्डार समृद्ध होना स्वाभाविक है. असाधारण साधारणता से संपन्न ये नवगीत भाषिक संस्कार का अनुपम उदाहरण हैं. यायावर जी की विशेषता मिथकीय प्रयोगों के माध्यम से युगीन विसंगतियों को इंगित करने के साथ-साथ उनके प्रतिकार की चेतना उत्पन्न करना है.
कितने चक्रव्यूह / तोड़ेगा? / यह अभिमन्यु अकेला?
यह कुरुक्षेत्र / अधर्म क्षेत्र है / कलियुग का महाभारत
यहाँ स्वार्थ के / चक्रोंवाले / दौड़ रहे सबके रथ
छल, प्रपंच, दुर्बुद्धि / क्रोध का लगा हुआ है मेला
(यौगिक जातीय छंद)
.
डलहौजी की हड़पनीति / मौसम ने अपनायी
अपने खाली हाथों में यह ख़ामोशी आयी
(महाभागवत जातीय छंद)
.
एक मान्यता यह रही है कि किसी घटना विशेष पर प्रतिक्रियास्वरूप नवगीत नहीं रचा जाता। यायावर जी ने इस मिथ को तोडा है. इस संकलन में बहुचर्चित निठारी कांड, २००९ में मुंबई पर आतंकी हमले आदि पर रचे गये नवगीत मर्मस्पर्शी हैं.
काँप रहे हैं / गोली कंचे
इधर कटारी / उधर तमंचे
क्यों रोता है? / बोल कबीरा
कोमल कलियाँ / बनी नसैनी
नर कंकाल / कुल्हाड़ी पैनी
भोले सपने / हँसी दूधिया
अट्टहास कर / हँसता बनिया
आँख जलाकर / बना ममीरा
(वासव जातीय छंद)
.
अर्थहीन / शब्दों की तोपें / लिए बिजूके
शब्दबेध चौहानी धनु के / चूके-चूके
शांति कपोत / बंद आँख से करें प्रतीक्षा
रक्त पियें मार्जार / उड़े / सतर्क प्रतिहिंसक
(महावतारी जातीय छंद)
( यहाँ 'आँख' में वचन दोष है, 'आँखों' होना चाहिए)
.
चंद्रपाल शर्मा 'शीलेश' के अनुसार 'संगीत से सराबोर इन गीतों का हर चरण भारतीय संस्कृति और लोक रस का सरस प्रक्षेपण करता है. नई प्रयोगधर्मिता, लक्षणा से भरपूर विचलन, जीवंत बिम्बात्मकता, रसात्मक प्रतीकात्मकता तथा राग-रागिनियों से हाथ मिलाता हुआ छंद विधान इन गीतों की साँसों का सञ्चालन करते हैं.''
यायावर जी ने दोहा नवगीत का भी प्रयोग किया है. इसमें वे मुखड़ा दैशिक जातीय छंद का रखते हैं जबकि अंतरे एक दोहा रखकर, पदांत में मुखड़े की समतुकान्ती देशिक जातीय गीत-पंक्ति रखते हैं:
न युद्ध विराम है / सतत संग्राम है (दैशिक जातीय छंद)
बाहर-बाहर कुटिल रास, भीतर कुटिल प्रहार
मिला ज़िंदगी से हमें, बस इतना उपहार (दोहा)
न खनिक विराम है / सतत संग्राम है (दैशिक जातीय छंद)
.
यायावर जी का शब्द-भण्डार समृद्ध है. इन नवगीतों में तत्सम शब्द: चीनांशुक, अभीत, वातायन, मधुयामिनी, पिपिलिकाएँ, अंगराग, भग्न चक्र, प्रत्यंचा, कंटकों, कुम्भज, पोष्य, परिचर्या, स्वयं आदि, तद्भव शब्द: सांस, दूध, सांप, गाँव, घर, आग आदि, देशज शब्द: सुअना, मछुआरिन, कित्ता, रचाव, समंदर, चूनर, मछरी, फोटू, बुड़बक, जनम, बबरीवन, पीपरपांती, सतिया, कबिरा, ढूह, ढैया, मड़ैया, तलैया आदि शब्द-युग्म: छप्पर-छानी, शब्द-साधना, ऐरों-गैरों, नाम-निशान, मंदिर-मस्जिद, गत-आगत, चमक-दमक, काक-राग, सृजन-मंत्र, ताने-बाने, रवि-शशि, खिले-खिलाये, ताता-थैया, लय-ताल, धूल-धूसरित, भूखी-प्यासी, छल-बल आदि उर्दू शब्द: अमीन, ऐरे-गैरे-नत्थू खैरे, काबिज़, परचम, फ़िज़ाओं, मजबूरी, तेज़ाबी, सड़के, ममीरा, फ़क़ीरा, रोज़, दफ्तर, फौजी, निजाम आदि, अंग्रेजी शब्द: बैंक-लॉकर, ओवरब्रिज, बूट, पेंटिंग, लिपस्टिक, ट्रैक्टर, बायो गैस, आदि पूरी स्वाभाविकता से प्रयोग हुए हैं. एक शब्द की दो आवृत्तियाँ सहज द्रष्टव्य हैं. जैसे: डरे-डरे, राम-राम, पर्वत-पर्वत, घाटी-घाटी, चूके-चूके, चुप-चुप, प्यासी-प्यासी, पकड़े-पकड़े, मारा-मारा, अकड़े-अकड़े, जंगल-जंगल, बित्ता-बित्ता, सांस-सांस आदि.
यायावर जी ने पारम्परिक गीत और छंद के शिल्प और कलेवर में प्रयोग किये हैं किन्तु मनमानी नहीं की है. वे गीत और छंद की गहरी समझ रखते हैं इसलिए इन नवगीतों का रसास्वादन करते हुए सोने में सुगंध की प्रतीति होती रहती है.
***
हास्य सलिला:
*
लालू जी बाजार गये, उस दिन लाली के साथ
पल भर भी छोड़ा नहीं, थे लिये हाथ में हाथ
हो खूब' थ था हुआ चमत्कृत बोला: 'तुम हो खूब
दिन भर भउजी के ख्याल में कैसे रहते डूब?
इतनी रहती फ़िक्र न करते पल भर को भी दूर'
लालू बोले: ''गलत न समझो, हूँ सचमुच मजबूर
गर हाथ छोड़ा तो मेरी आ जाएगी शामत
बिना बात क्यों कहो बुलाऊँ खुदही अपनी आफत?
जैसे छोड़ा हाथ खरीदी कर लेगी यह खूब
चुका न पाऊँ इतने कर्जे में जाऊँगा डूब''
***
मुक्तिका:
*
कैसा लगता काल बताओ
तनिक मौत को गैर लगाओ
मारा है बहुतों को तड़पा
तड़प-तड़पकर मारे जाओ
सलमानों के अरमानों की
चिता आप ही आप जलाओ
समय न माफ़ करेगा तुमको
काम देश के अगर न आओ
३१-७-२०१५
***
हास्य रचना
स्वादिष्ट निमंत्रण
तुहिना वर्मा 'तुहिन'
*
''खट्टे-मिट्ठे जिज्जाजी को चटपटी साली जी यानी आधी घरवाली जी की ताज़ा-ताज़ा गरमागरम मीठी-मीठी नमस्ते।
यह कुरकुरी पाती पाकर आपके मन में पानी - बतासे की तरह मोतीचूर के लड्डू फूटने लगेंगे क्योंकि हम आपको आपकी ससुराल में तशरीफ़ लाने की दावत दे रहे हैं।
मौका? अरे हुजूर मौका तो ऐसा है कि जो आए वो भी पछताए...जो न आए वह भी पछताए क्योंकि आपकी सिर चढ़ी सिरफिरी साली इमरतिया की शादी यानी बर्बादी का जश्न बार-बार तो होगा नहीं।
ये रसमलाई जैसा मिठास भरा रिश्ता पेड़ा शहर, कचौड़ी नगर के खीरपुर मोहल्ले के मोटे-ताजे सेठ समोसामल मिंगौड़ीलाल के हरे-भरे साहिबजादे, खीरमोहन सिवईं प्रसाद के साथ होना तय हुआ है।
चाँदनी चौक में चमचम चाची को चाँदी की चमचमाती चम्मच से चिरपिरी चटनी चटाकर चर्चा में आ चुके चालू चाचा अपने आलूबंडे बेटे और भाजीबड़ा बिटिया के साथ चटखारे लेते हुए यहाँ आकर डकार ले रहे हैं।
जलेबी जिज्जी, काजू कक्का, किशमिश काकी, बादाम बुआ, फुल्की फूफी, छुहारा फूफा, चिरौंजी चाची, चिलगोजा चाचा, मखाना मौसा, मुसम्बी मौसी, दहीबड़ा दादा, दाल-भात दादी, आज गुलाब जामुन-मैसूरपाग एक्सप्रेस से आइसक्रीम खाते हुए, अखरोटगंज स्टेशन पर उतरेंगे।
रसमलाई धरमशाला में संदेश बैंड, बर्फी आर्केस्ट्रा, सिवईया बानो की कव्वाली, बूंदी बेगम का मुजरा, आपको दिल थामकर आहें भरने पर मजबूर कर देगा।
शरबती बी के बदबख्त हाथों से विजया भवानी यानी भांग का भोग लगाकर आप पोंगा पंडित की तरह अंगुलियाँ चाटते हुए कार्टून या जोकर नजर आयेंगे. पत्थर हज़म हजम हाजमा चूर्ण, मुंह जलाऊ मुनक्का बाटी के साथ मीठे मसालेवाला पान और नशीला पानबहार लिये आपके इन्तेज़ार में आपकी नाक में दम करनेवाली रस की प्याली
-- रबडी मलाई
*

शनिवार, 25 मई 2024

मई २५, बिटिया, दुर्गा भाभी, अनुलोम विलोम, मुक्तिक, दोहा, नवगीत, जाति, शकुन्तला खरे

सलिल सृजन मई २५
*
एक रचना
बिटिया!
कोशिश करी बधाई।
*
पहला पैर रखा धरती पर
खड़े न रहकर
गिरे धम्म से।
कदम बढ़ाया चल न सके थे
बार बार
कोशिश की हमने।
'इकनी एक' न एक बार में
लिख पाए हम
तो न करें गम।
'अ अनार का' बार बार
लिख गलत
सही सीखा था हमने।
नहीं विफलता से घबराया
जो उसने ही
मंजिल पाई।
बिटिया!
कोशिश करी बधाई।
*
उड़ा न पाता जो पतंग वह
कर अभ्यास
उड़ाने लगता।
गोल न रोटी बनती गर तो
आंटा बेलन
तवा न थकता।
बार बार गिरती मकड़ी पर
जाल बनाए बिना
न रुकती।
अगिन बार तिनके गिरते पर
नीड़ बिना
पाखी कब रुकता।
दुखी न हो, संकल्प न छोड़ो
अश्रु न मीत
न सखी रुलाई।
बिटिया!
कोशिश करी बधाई।
*
कुंडी बार बार खटकाओ
तब दरवाजा
खुल पाता है।
अगणित गीत निरंतर गाओ
तभी कंठ-स्वर
सध पाता है।
श्वास ट्रेन पर आस मुसाफिर
थके-चुके बिन
चलते रहता।
प्रभु सुन ले या करें अनसुनी
भक्त सतत
भजता जाता है।
रुके न थक जो
वह तरुणाई।
बिटिया!
कोशिश करी बधाई।
२५-५-२०२३
***
दुर्गा भाभी और हम
*
विधि की विडंबना किअंग्रेजो से माफी माँगनेवाले स्वातंत्र्य वीर और प्रधान मंत्री हो गए किन्तु जान हथेली पर रखकर अंग्रेजों की नाक में दम करनेवाले किसी को याद तक नहीं आते।
एक वो भी थे जो देश हित कुर्बान हो गए।
एक हम हैं जो उनको याद तक नहीं करते।।
दुर्गा भाभी साण्डर्स वध के बाद राजगुरू और भगतसिंह को लाहौर से अंग्रेजो की नाक के नीचे से निकालकर कोलकत्ता ले गई थीं। इनके पति क्रांतिकारी भगवती चरण वोहरा थे। ये भी कहा जाता है किचंद्रशेखर आजाद के पास आखिरी वक्त में दुर्गा भाभी द्वारा दी गई माउजर पिस्तौल थी।
१४ अक्टूबर १९९९ में वो इस दुनिया से चुपचाप ही विदा हो गईं।
आज तक उस वीरांगना को इतिहास के पन्नों में वो जगह मिली जिसकी वो हकदार थीं और न ही वो किसी को याद रही चाहे वो सरकार हो या जनता।
एक स्मारक तक उनके नाम पर नहीं है, कहीं कोई मूर्ति नहीं है उनकी। सरकार, पत्रकार और जनता किसी को नहीं आती उनकी याद। कितने कृतघ्न हैं हम?
***
दोहा दुनिया
कर उपासना सिंह की, वन में हो तव धाक
सिर नीचा पर समझ ले, तेरी ऊँची नाक
*
दोहा प्रगटे आप ही, मेरा नहीं प्रयास
मातु शारदा की कृपा, अनायास सायास
*
शब्द निशब्द अशब्द हो, तभी प्रगट हो सत्य
बाकी मायाजाल है, है असत्य भी सत्य
*चाह चाहकर हो चली, जर्जर देह विदेह

वाह वाह कर ले तनिक, हो संजीव अगेह
***
मुक्तिका
*
परिंदे मिल कह रहे हैं ईद मुबारक
सेठ दौलत तह रहे हैं ईद मुबारक
कामगर बेकाम भूखे पेट मर रहा
दे रहे हैं कर्ज बैंक ईद मुबारक
खेत की छाती पे राजमार्ग बन गया
है नहीं दरख्त-कुआँ ईद मुबारक
इंजीनियर मजदूर की है कद्र कुछ नहीं
नेता पुलिस की बोलिए जय ईद मुबारक
जा आइने के सामने मिलिए गले खुद से
आँखों नें आँख डाल कहें ईद मुबारक
***
हिंदी के सोरठे
*
हिंदी मोतीचूर, मुँह में लड्डू सी घुले
जो पहले था दूर, मन से मन खुश हो मिले
हिंदी कोयल कूक, कानों को लगती भली
जी में उठती हूक, शब्द-शब्द मिसरी डली
हिंदी बाँधे सेतु, मन से मन के बीच में
साधे सबका हेतु, स्नेह पौध को सींच के
मात्रिक-वर्णिक छंद, हिंदी की हैं खासियत
ज्योतित सूरज-चंद, बिसरा कर खो मान मत
अलंकार है शान, कविता की यह भूल मत
छंद हीन अज्ञान, चुभा पेअर में शूल मत
हिंदी रोटी-दाल, कभी न कोई ऊबता
ऐसा सूरज जान, जो न कभी भी डूबता
हिंदी निश-दिन बोल, खुश होगी भारत मही
नहीं स्वार्थ से तोल, कर केवल वह जो सही
२२-५-२०२०
***
अनुलोम-विलोम
गिरेन्द्रसिंह भदौरिया प्राण
*
अनुलोम अर्थात रचना की किसी पँक्ति को सीधा पढ़ने पर भी अर्थ निकले और विलोम अर्थात् उल्टा (पीछे से ) पढ़ने पर भी अर्थ दे ।
संस्कृत के कई कवियों तथा रीतिकालीन हिन्दी के आचार्य कवि केशव दास ने भी ऐसी रचनाएँ की हैं ।
नीचे लिखी रचना में अनुलोम लावणी में और विलोम ताटंक छन्द में बन पड़ा है।
अनुलोम
=======
क्यों दी रोक सार कह नारी गोधारा नीलिमा नदी ।
क्यों दी मोको तालि लय जया माता मम कालिमा पदी ।।
विलोम
=====
दीन मालिनी राधा गोरी नाहक रसा करोदी क्यों ?
दीप मालिका ममता माया जयललिता को मोदी क्यों ?
अनुलोम का अर्थ
===
हे नारी तूने नीलिमा ( यमुना ) नदी की बहती हुई गो धारा क्यों रोक दी ।ऐसा ही करना था तो उस काले पैरों वाली ( कालिमापदी) मेरी जया माता ने मुझे लय और ताल क्यों दी ? यह बता ।
विलोम का अर्थ
====
दीन गरीब मालिनी ने राधा गोरी से पूछा कि तू नाहक धरती क्यों कुरेद रही है पता लगा कि तेरे होते हुए आजकल ये दीप मालिका सी ममता माया व जयललिता को मोदी क्यों चाहिए ?
***
चिंतन:
जाति, विवाह और कर्मकांड
*
जात कर्म = जन्म देने की क्रिया, जातक = नज्म हुआ बच्चा, जातक कथा = विविध योनियों में अवतार लिए बुद्ध की कथाएं.
विविध योनियों में बुद्ध कौन थे यह पहचान उनकी जाति से हुई. जाति = गुण-धर्म.
'जन्मना जायते शूद्रो' के अनुसार हर जातक जन्मा शूद्र होता है.
कर्म के अनुसार वर्ण होता है. 'चातुर्वण्य मया सृष्टम गुण कर्म विभागश:' कृष्ण गीता में.
सनातन धर्म में एक गोत्र, एक कुल, पिता की सात पीढ़ी और माँ की सात पीढ़ी में, एक गुरु के शिष्यों में, एक स्थान के निवासियों में विवाह वर्जित है. यह 'जेनेटिक मिक्सिंग' का भारतीय रूप ही है.
इनमें से हर आधार के पीछे एक वैज्ञानिक कारण है.
जो अव्यक्त है, वह निराकार है. जो निराकार है उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता अर्थात चित्र गुप्त है. यह चित्रगुप्त कौन है?
चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्वदेहिनाम' चित्रगुप्त सर्व प्रथम प्रणाम के योग्य हैं जो सर्व देहधारियों में आत्मा के रूप में विराजमान हैं'
'कायास्थिते स: कायस्थ:' वह (चित्रगुप्त या परमात्मा) जब किसी काया का निर्माण कर उसमें स्थित (आत्मा रूप में) होता है तो कायस्थ कहलाता है.
जैसे कुँए में जल, बाल्टी में निकाला तो जल, लोटे में भरा तो जल, चुल्लू से पिया तो जल, उसी प्रकार परमात्मा का अंश हर आत्मा भी काया धारण कर कायस्थ है.इसीलिये कायस्थ किसी एक वर्ण में नहीं है.
तात्पर्य यह कि सनातन चिंतन में वह है ही नहीं जो समाज में प्रचलन में है. आवश्यकता चिंतन को छोड़ने की नहीं सामाजिक आचार को बदलने की है. जो परिवर्तन की दिशा में सबसे आगे चले वह अग्रवाल, जिसके पास वास्तव में श्री हो वह श्रीवास्तव. जब दोनों का मेल हो तो सत्य और श्रेष्ठ ही बढ़ेगा.
विवाह दो जातकों का होता है, उनके रिश्तेदारों, परिवारों, प्रतिष्ठा या व्यवसाय का नहीं होता. पारस्परिक ताल-मेल, समायोजन, सहिष्णुता और संवेदनशीलता हो तो विवाह करना चाहिए अन्यथा विग्रह होना ही है.
पंडा, पुजारी, मुल्ला, मौलवी, ग्रंथी, पादरी होना धंधा है. जब कोई दूकानदार, कोई मिल मालिक हमें नियंत्रित नहीं करता करे तो हम स्वीकारेंगे नहीं तो कर्मकांड का व्यवसाय करनेवालों की दखलंदाजी हम क्यों मानते हैं? कमजोरी हमारी है, दूर भी हमें ही करना है.
२५-५-२०१७
***
स्वरबद्ध दोहे :
*
अक्षर अजर अमर असित, अजित अतुल अमिताभ
अकत अकल अकलक अकथ, अकृत अगम अजिताभ
*
आप आब आनंदमय, आकाशी आल्हाद
आक़ा आक़िल अजगबी, आज्ञापक आबाद
*
इश्वाकु इच्छुक इरा, इर्दब इलय इमाम
इड़ा इदंतन इदंता, इन इब्दिता इल्हाम
*
ईक्षा ईक्षित ईक्षिता, ई ईड़ा ईजान
ईशा ईशी ईश्वरी, ईश ईष्म ईशान
*
उत्तम उत्तर उँजेरा, उँजियारी उँजियार
उच्छ्वासित उज्जवल उतरु, उजला उत्थ उकार
*
ऊजन ऊँचा ऊजरा, ऊ ऊतर ऊदाभ
ऊष्मा ऊर्जा ऊर्मिदा, ऊर्जस्वी ऊ-आभ
*
एकाकी एकाकिनी, एकादश एतबार
एषा एषी एषणा, एषित एकाकार
*
ऐश्वर्यी ऐरावती, ऐकार्थ्यी ऐकात्म्य
ऐतरेय ऐतिह्यदा, ऐणिक ऐंद्राध्यात्म
*
ओजस्वी ओजुतरहित, ओंकारित ओंकार
ओल ओलदा ओबरी, ओर ओट ओसार
*
औगत औघड़ औजसिक, औत्सर्गिक औचिंत्य
औंगा औंगी औघड़ी, औषधीश औचित्य
*
अंक अंकिकी आंकिकी, अंबरीश अंबंश
अंहि अंशु अंगाधिपी, अंशुल अंशी अंश
*
हवा आग धरती गगन, रोटी वस्त्र किताब
'सलिल' कलम जिसको मिले, वह हो मनुज जनाब
२५-५-२०१६
***

एक दोहा
हवा आग धरती गगन, रोटी वस्त्र किताब
'सलिल' कलम जिसको मिले, वह हो मनुज जनाब
***

मुक्तिका:
*
सुरभि फ़ैली, आ गयीं
कमल-दल सम, भा गयीं
*
ज़िन्दगी के मंच पर
बन्दगी बन छा गयीं
*
विरह-गीतों में विहँस
मिलन-रस बिखरा गयीं
*
सियासत में सत्य सम
सिकुड़कर संकुचा गयीं
*
हर कहानी अनकही
बिन कहे फरमा गयीं
***

मुक्तिका:
*
हुआ जन दाना अधिक या अब अधिक नादान है
अब न करता अन्य का, खुद का करे गुणगान है
*
जब तलक आदम रहा दम आदमी में खूब था
आदमी जब से हुआ मच्छर से भी हैरान है.
*
जान की थी जान मुझमें अमन जीवन में रहा
जान मेरी जान में जबसे बसी, वीरान है.
*
भूलते ही नहीं वो दिन जब हमारा देश था
देश से ज्यादा हुआ प्रिय स्वार्थ सत्ता मान है
*
भेद लाखों, एकता का एक मुद्दा शेष है
मिले कैसे भी मगर मिल जाए कुछ अनुदान है
***
नवगीत:
*
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
जिंदगी नवगीत बनकर
सर उठाने जब लगी
भाव रंगित कथ्य की
मुद्रा लुभाने तब लगी
गुनगुनाकर छंद ने लय
कहा: 'बन जा संत रे!'
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
बिम्ब ने प्रतिबिम्ब को
हँसकर लगाया जब गले
अलंकारों ने कहा:
रस सँग ललित सपने पले
खिलखिलाकर लहर ने उठ
कहा: 'जग में तंत रे!'
*
बन्दगी इंसान की
भगवान ने जब-जब करी
स्वेद-सलिला में नहाकर
सृष्टि खुद तब-तब तरी
झिलमिलाकर रौशनी ने
अंधेरों को कस कहा:
भास्कर है कंत रे!
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
२५-५-२०१५
***


हाइकु चर्चा : १.
*
हाइकु (Haiku 俳句 high-koo) ऐसी लघु कवितायेँ हैं जो एक अनुभूति या छवि को व्यक्त करने के लिए संवेदी भाषा प्रयोग करती है. हाइकु बहुधा प्रकृति के तत्व, सौंदर्य के पल या मार्मिक अनुभव से प्रेरित होते हैं. मूलतः जापानी कवियों द्वारा विकसित हाइकु काव्यविधा अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओँ द्वारा ग्रहण की गयी.
पाश्चात्य काव्य से भिन्न हाइकु में सामान्यतः तुकसाम्य, छंद बद्धता या काफ़िया नहीं होता।
हाइकु को असमाप्त काव्य चूँकि हर हाइकु में पाठक / श्रोता के मनोभावों के अनुसार पूर्ण किये जाने की अपेक्षा होती है.
हाइकु का उद्भव 'रेंगा नहीं हाइकाइ haikai no renga सहयोगी काव्य समूह' जिसमें शताधिक छंद होते हैं से हुआ है. 'रेंगा' समूह का प्रारंभिक छंद 'होक्कु' मौसम तथा अंतिम शब्द का संकेत करता है. हाइकु अपने काव्य-शिल्प से परंपरा के नैरन्तर्य बनाये रखता है.
समकालिक हाइकुकार कम शब्दों से लघु काव्य रचनाएँ करते हैं. ३-५-३ सिलेबल के लघु हाइकु भी रचे जाते हैं.
हाइकु का वैशिष्ट्य
१. ध्वन्यात्मक संरचना:
Write a Haiku Poem Step 2.jpgपारम्परिक जापानी हाइकु १७ ध्वनियों का समुच्चय है जो ५-७-५ ध्वनियों की ३ पदावलियों में विभक्त होते हैं. अंग्रेजी के कवि इन्हें सिलेबल (लघुतम उच्चरित ध्वनि) कहते हैं. समय के साथ विकसित हाइकु काव्य के अधिकांश हाइकुकार अब इस संरचना का अनुसरण नहीं करते। जापानी या अंग्रेजी के आधुनिक हाइकु न्यूनतम एक से लेकर सत्रह से अधिक ध्वनियों तक के होते हैं. अंग्रेजी सिलेबल लम्बाई में बहुत परिवर्तनशील होते है जबकि जापानी सिलेबल एकरूपेण लघु होते हैं. इसलिए 'हाइकु चंद ध्वनियों का उपयोग कर एक छवि निखारना है' की पारम्परिक धारणा से हटकर १७ सिलेबल का अंग्रेजी हाइकु १७ सिलेबल के जापानी हाइकु की तुलना में बहुत लंबा होता है. ५-७-५ सिलेबल का बंधन बच्चों को विद्यालयों में पढाये जाने के बावजूद अंग्रेजी हाइकू लेखन में प्रभावशील नहीं है. हाइकु लेखन में सिलेबल निर्धारण के लिये जापानी अवधारणा "हाइकु एक श्वास में अभिव्यक्त कर सके" उपयुक्त है. अंग्रेजी में सामान्यतः इसका आशय १० से १४ सिलेबल लंबी पद्य रचना से है. अमेरिकन उपन्यासकार जैक कैरोक का एक हाइकू देखें:
Snow in my shoe मेरे जूते में बर्फ
Abandoned परित्यक्त
२५-५-२०१४
Sparrow's nest गौरैया-नीड़
***
कृति चर्चा:
सर्वमंगल: संग्रहणीय सचित्र पर्व-कथा संग्रह
आचार्य संजीव
*
[कृति विवरण: सर्वमंगल, सचित्र पर्व-कथा संग्रह, श्रीमती शकुन्तला खरे, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ संख्या १८६, मूल्य १५० रु., लेखिका संपर्क: योजना क्रमांक ११४/१, माकन क्रमांक ८७३ विजय नगर, इंदौर. म. प्र. भारत]
*
विश्व की प्राचीनतम भारतीय संस्कृति का विकास सदियों की समयावधि में असंख्य ग्राम्यांचलों में हुआ है. लोकजीवन में शुभाशुभ की आवृत्ति, ऋतु परिवर्तन, कृषि संबंधी क्रिया-कलापों (बुआई, कटाई आदि), महापुरुषों की जन्म-निधन तिथियों आदि को स्मरणीय बनाकर उनसे प्रेरणा लेने हेतु लोक पर्वों का प्रावधान किया गया है. इन लोक-पर्वों की जन-मन में व्यापक स्वीकृति के कारण इन्हें सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यता प्राप्त है. वास्तव में इन पर्वों के माध्यम से वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक जीवन में सामंजस्य-संतुलन स्थापित कर, सार्वजनिक अनुशासन, सहिष्णुता, स्नेह-सौख्य वर्धन, आर्थिक संतुलन, नैतिक मूल्य पालन, पर्यावरण सुधार आदि को मूर्त रूप देकर समग्र जीवन को सुखी बनाने का उपाय किया गया है. उत्सवधर्मी भारतीय समाज ने इन लोक-पर्वों के माध्यम से दुर्दिनों में अभूतपूर्व संघर्ष क्षमता और सामर्थ्य भी अर्जित की है.
आधुनिक जीवन में आर्थिक गतिविधियों को प्रमुखता मिलने के फलस्वरूप पैतृक स्थान व् व्यवसाय छोड़कर अन्यत्र जाने की विवशता, अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के कारण तर्क-बुद्धि का परम्पराओं के प्रति अविश्वासी होने की मनोवृत्ति, नगरों में स्थान, धन, साधन तथा सामग्री की अनुपलब्धता ने इन लोक पर्वों के आयोजन पर परोक्षत: कुठाराघात किया है. फलत:, नयी पीढ़ी अपनी सहस्त्रों वर्षों की परंपरा, जीवन शैली, सनातन जीवन-मूल्यों से अपरिचित हो दिग्भ्रमित हो रही है. संयुक्त परिवारों के विघटन ने दादी-नानी के कध्यम से कही-सुनी जाती कहानियों के माध्यम से समझ बढ़ाती, जीवन मूल्यों और जानकारियों से परिपूर्ण कहानियों का क्रम समाप्त प्राय कर दिया है. फलत: नयी पीढ़ी में पारिवारिक स्नेह-सद्भाव का अभाव, अनुशासनहीनता, उच्छंखलता, संयमहीनता, नैतिक मूल्य ह्रास, भटकाव और कुंठा लक्षित हो रही है.
मूलतः बुंदेलखंड में जन्मी और अब मालवा निवासी विदुषी श्रीमती शाकुंताका खरे ने इस सामाजिक वैषम्य की खाई पर संस्कार सेतु का निर्माण कर नव पीढ़ी का पथ-प्रदर्शन करने की दृष्टि से ४ कृतियों मधुरला, नमामि, मिठास तथा सुहानो लागो अँगना के पश्चात विवेच्य कृति ' सर्वमंगल' का प्रकाशन कर पंच कलशों की स्थापना की है. शकुंतला जी इस हेतु साधुवाद की पात्र हैं. सर्वमंगल में चैत्र माह से प्रारंभ कर फागुन तह सकल वर्ष में मनाये जानेवाले लोक-पर्वों तथा त्योहारों से सम्बन्धी जानकारी (कथा, पूजन सामग्री सूचि, चित्र, आरती, भजन, चौक, अल्पना, रंगोली आदि ) सरस-सरल प्रसाद गुण संपन्न भाषा में प्रकाशित कर लोकोपकारी कार्य किया है.
संभ्रांत-सुशिक्षित कायस्थ परिवार की बेटी, बहु, गृहणी, माँ, और दादी-नानी होने के कारण शकुन्तला जी शैशव से ही इन लोक प्रवों के आयोजन की साक्षी रही हैं, उनके संवेदनशील मन ने प्रस्तुत कृति में समस्त सामग्री को बहुरंगी चित्रों के साथ सुबोध भाषा में प्रकाशित कर स्तुत्य प्रयास किया है. यह कृति भारत के हर घर-परिवार में न केवल रखे जाने अपितु पढ़ कर अनुकरण किये जाने योग्य है. यहाँ प्रस्तुत कथाएं तथा गीत आदि पारंपरिक हैं जिन्हें आम जन के ग्रहण करने की दृष्टि से रचा गया है अत: इनमें साहित्यिकता पर समाजीकर और पारम्परिकता का प्राधान्य होना स्वाभाविक है. संलग्न चित्र शकुंतला जी ने स्वयं बनाये हैं. चित्रों का चटख रंग आकर्षक, आकृतियाँ सुगढ़, जीवंत तथा अगढ़ता के समीप हैं. इस कारण इन्हें बनाना किसी गैर कलाकार के लिए भी सहज-संभव है.
भारत अनेकता में एकता का देश है. यहाँ अगणित बोलियाँ, लोक भाषाएँ, धर्म-संप्रदाय तथा रीति-रिवाज़ प्रचलित हैं. स्वाभाविक है कि पुस्तक में सहेजी गयी सामग्री उन परिवारों के कुलाचारों से जुडी हैं जहाँ लेखिका पली-बढ़ी-रही है. अन्य परिवारों में यत्किंचित परिवर्तन के साथ ये पर्व मनाये जाना अथवा इनके अतिरिक्त कुछ अन्य पर्व मनाये जाना स्वाभाविक है. ऐसे पाठक अपने से जुडी सामग्री मुझे या लेखिका को भेजें तो वह अगले संस्करण में जोड़ी जा सकेगी. सारत: यह पुस्तक हर घर, विद्यालय और पुस्तकालय में होना चाहिए ताकि इसके मध्याम से समाज में सामाजिक मूल्य स्थापन और सद्भावना सेतु निर्माण का कार्य होता रह सके.
२३-५-२०१५
***

नवगीत:
लौटना मत मन...
*
लौटना मत मन,
अमरकंटक पुनः
बहना नर्मदा बन...
*
पढ़ा, सुना जो वही गुना
हर काम करो निष्काम.
सधे एक सब सधता वरना
माया मिले न राम.
फल न चाह,
बस कर्म किये जा
लगा आत्मवंचन...
*
कर्म योग कहता:
'जो बोया निश्चय काटेगा'.
सगा न कोई आपद-
विपदा तेरी बाँटेगा.
आँख मूँद फिर भी
जग सारा
जोड़ रहा कंचन...
*
क्यों सोचूँ 'क्या पाया-खोया'?
होना है सो हो.
अंतर क्या हों एक या कि
माया-विरंची हों दो?
सहज पके सो मीठा
मान 'सलिल'
पावस-सावन...
२५.५.२०१४
***
अंगिका दोहा मुक्तिका
*
काल बुलैले केकर, होतै कौन हलाल?
मौन अराधें दैव कै, एतै प्रातःकाल..
*
मौज मनैतै रात-दिन, हो लै की कंगाल.
संग न आवै छाँह भी, आगे कौन हवाल?
*
एक-एक कै खींचतै, बाल- पकड़ लै खाल.
नींन नै आवै रात भर, पलकें करैं सवाल..
*
कौन हमर रच्छा करै, मन में 'सलिल' मलाल.
केकरा से बिनती करभ, सब्भै हवै दलाल..
*
धूल झौंक दैं आँख में, कज्जर लेंय निकाल.
जनहित कै नाक रचैं, नेता निगलैं माल..
*
मत शंका कै नजर सें, देख न मचा बवाल.
गुप-चुप हींसा बाँट लै, 'सलिल' बजा नैं गाल..
*
ओकर कोय जवाब नै, जेकर सही सवाल.
लै-दै कै मूँ बंद कर, ठंडा होय उबाल..
२१-५-२०१३
===
गीत:
संजीव 'सलिल'
*
साजों की कश्ती से
सुर का संगीत बहा
लहर-लहर चप्पू ले
ताल देते भँवर रे....
*
थापों की मछलियाँ,
नर्तित हो झूमतीं
नादों-आलापों को
सुन मचलतीं-लूमतीं.
दादुर टरटरा रहे
कच्छप की रास देख-
चक्रवाक चहक रहे
स्तुति सुन सिहर रे....
*
टन-टन-टन घंटे का
स्वर दिशाएँ नापता.
'नर्मदे हर' घोष गूँज
दस दिश में व्यापता. .
बहते-जलते चिराग
हार नहीं मानते.
ताकत भर तम को पी
डूब हुए अमर रे...
२५-५-२०१०
***

शुक्रवार, 11 अगस्त 2023

दोहा, राखी, बाल गीत, माँ, लघुकथा, यमक, पावस, मुक्तिक, घनाक्षरी,

दोहा सलिला:

*
रक्षा किसकी कर सके, कहिये जग में कौन?
पशुपतिनाथ सदय रहें, रक्षक जग के मौन
*
अविचारित रचनाओं का, शब्दजाल दिन-रात
छीन रहा सुख चैन नित, बचा शारदा मात
*
अच्छे दिन मँहगे हुए, अब राखी-रूमाल
श्रीफल कैसे खरीदें, जेब करे हड़ताल
*
कहीं मूसलाधार है, कहीं न्यून बरसात
दस दिश हाहाकार है, गहराती है रात
*
आ रक्षण कर निबल का, जो कहलाये पटेल
आरक्षण अब माँगते, अजब नियति का खेल
*
आरक्षण से कीजिए, रक्षा दीनानाथ
यथायोग्य हर को मिले, बढ़ें मिलकर हाथ
*
दीप्ति जगत उजियार दे, करे तिमिर का अंत
श्रेय नहीं लेती तनिक, ज्यों उपकारी संत.
*
तन का रक्षण मन करे, शांत लगाकर ध्यान
नश्वर को भी तब दिखें अविनाशी भगवान
*
कहते हैं आज़ाद पर, रक्षाबंधन-चाह
रपटीली चुन रहे हैं, अपने सपने राह
*
सावन भावन ही रहे, पावन रखें विचार
रक्षा हो हर बहिन की, बंधन तब त्यौहार
*
लघुकथा
पहल
*
आपके देश में हर साल अपनी बहिन की रक्षा करने का संकल्प लेने का त्यौहार मनाया जाता है फिर भी स्त्रियों के अपमान की इतनी ज्यादा घटनाएँ होती हैं। आइये! अपनी बहिन के समान औरों की बहनों के मान-सम्मान की रक्षा करने का संकल्प भी रक्षबंधन पर हम सब लें।
विदेशी पर्यटक से यह सुझाव आते ही सांस्कृतिक सम्मिलन के मंच पर छा गया मौन, अपनी-अपनी कलाइयों पर रक्षा सूत्रों का प्रदर्शन करते अतिथियों में कोई भी नहीं कर सका यह पहल।
***
लघुकथा:
समय की प्रवृत्ति
*
'माँ! मैं आज और अभी वापिस जा रही हूँ।'
"अरे! ऐसे... कैसे?... तुम इतने साल बाद राखी मनाने आईं और भाई को राखी बाँधे बिना वापिस जा रही हो? ऐसा भी होता है कहीं? राखी बाँध लो, फिर भैया तुम्हें पहुँचा आयेगा।"
'भाई इस लायक कहाँ रहा कहाँ कि कोई लड़की उसे राखी बाँधे? तुम्हें मालूम तो है कि कल रात वह कार से एक लड़की का पीछा कर रहा था। लड़की ने किसी तरह पुलिस को खबर की तो भाई पकड़ा गया।'
"तुझे इस सबसे क्या लेना-देना? तेरे पिताजी नेता हैं, उनके किसी विरोधी ने यह षड्यंत्र रचा होगा। थाने में तेरे पिता का नाम जानते ही पुलिस ने माफी माँग कर छोड़ भी तो दिया। आता ही होगा..."
'लेना-देना क्यों नहीं है? पिताजी के किसी विरोधी का षययन्त्र था तो भाई नशे में धुत्त कैसे मिला? वह और उसका दोस्त दोनों मदहोश थे।कल मैं भी राखी लेने बाज़ार गयी थी, किसी ने फब्ती कस दी तो भाई मरने-मरने पर उतारू हो गया।'
"देख तुझे कितना चाहता है और तू?"
'अपनी बहिन को चाहता है तो उसे यह नहीं पता कि वह लड़की भी किसी भाई की बहन है। वह अपनी बहन की बेइज्जती नहीं सह सकता तो उसे यह अधिकार किसने दिया कि किसी और की बहन की बेइज्जती करे। कल तक मुझे उस पर गर्व था पर आज मुझे उस पर शर्म आ रही है। मैं ससुराल में क्या मुँह दिखाऊँगी? भाई ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा। इसीलिए उसके आने के पहले ही चले जाना चाहती हूँ।'
"क्या अनाप-शनाप बके जा रही है? दिमाग खराब हो गया है तेरा? मुसीबत में भाई का साथ देने की जगह तमाशा कर रही है।"
'तुम्हें मेरा तमाशा दिख रहा है और उसकी करतूत नहीं दिखती? ऐसी ही सोच इस बुराई की जड़ है। मैं एक बहन का अपमान करनेवाले अत्याचारी भाई को राखी नहीं बाँधूँगी।' 'भाई से कह देना कि अपनी गलती मानकर सच बोले, जेल जाए, सजा भोगे और उस लड़की और उसके परिवार वालों से क्षमायाचना करे। सजा भोगने और क्षमा पाने के बाद ही मैं उसे मां सकूँगी अपना भाई और बाँध सकूँगी राखी। सामान उठाकर घर से निकलते हुए उसने कहा- 'मैं अस्वीकार करती हूँ 'समय की प्रवृत्ति' को।
***
***
दोहा सलिला:
अलंकारों के रंग-राखी के संग
*
राखी ने राखी सदा, बहनों की मर्याद.
संकट में भाई सदा, पहलें आयें याद..
राखी= पर्व, रखना.
*
राखी की मक्कारियाँ, राखी देख लजाय.
आग लगे कलमुँही में, मुझसे सही न जाय..
राखी= अभिनेत्री, रक्षा बंधन पर्व.
*
मधुरा खीर लिये हुए, बहिना लाई थाल.
किसको पहले बँधेगी, राखी मचा धमाल..
*
अक्षत से अ-क्षत हुआ, भाई-बहन का नेह.
देह विदेहित हो 'सलिल', तनिक नहीं संदेह..
अक्षत = चाँवल के दाने,क्षतिहीन.
*
रो ली, अब हँस दे बहिन, भाई आया द्वार.
रोली का टीका लगा, बरसा निर्मल प्यार..
रो ली= रुदन किया, तिलक करने में प्रयुक्त पदार्थ.
*
बंध न सोहे खोजते, सभी मुक्ति की युक्ति.
रक्षा बंधन से कभी, कोई न चाहे मुक्ति..
*
हिना रचा बहिना करे, भाई से तकरार.
हार गया तू जीतकर, जीत गयी मैं हार..
*
कब आएगा भाई? कब, होगी जी भर भेंट?
कुंडी खटकी द्वार पर, भाई खड़ा ले भेंट..
भेंट= मिलन, उपहार.
*
मना रही बहिना मना, कहीं न कर दे सास.
जाऊँ मायके माय के, गले लगूँ है आस..
मना= मानना, रोकना, माय के=माता-पिता का घर, माँ के
*
गले लगी बहिना कहे, हर संकट हो दूर.
नेह बर्फ सा ना गले, मन हरषे भरपूर..
गले=कंठ, पिघलना.
***
राखी पर एक रचना -
बंधनों से मुक्त हो जा
*
बंधनों से मुक्त हो जा
कह रही राखी मुखर हो
कभी अबला रही बहिना
बने सबला अब प्रखर हो
तोड़ देना वह कलाई
जो अचाहे राह रोके
काट लेना जुबां जो
फिकरे कसे या तुझे टोंके
सासरे जा, मायके से
टूट मत, संयुक्त हो जा
कह रही राखी मुखर हो
बंधनों से मुक्त हो जा
*
बलि न तेरे हौसलों को
रीति वामन कर सके अब
इरादों को बाँध राखी
तू सफलता वर सके अब
बाँध रक्षा सूत्र तू ही
ज़िंदगी को ज़िंदगी दे
हो समर्थ-सुयोग्य तब ही
समय तुझको बन्दगी दे
स्वप्न हर साकार करने
कोशिशों के बीज बो जा
नयी फसलें उगाना है
बंधनों से मुक्त हो जा
*
पूज्य बन जा राम राखी
तुझे बाँधेगा जमाना
सहायक हो बँधा लांबा
घरों में रिश्ते जिलाना
वस्त्र-श्रीफल कर समर्पित
उसे जो सब योग्य दिखता
अवनि की हर विपद हर ले
शक्ति-वंदन विश्व करता
कसर कोई हो न बाकी
दाग-धब्बे दिखे धो जा
शिथिल कर दे नेह-नाते
बंधनों से मुक्त हो जा
***
विशेष आलेख-
रक्षाबंधन : कल, आज और कल
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारतीय लोक मनीषा उत्सवधर्मी है। ऋतु परिवर्तन, पवित्र तिथियों-मुहूर्तों, महापुरुषों की जयंतियों आदि प्रसंगों को त्यौहारों के रूप में मनाकर लोक मानस अभाव पर भाव का जयघोष करता है। ग्राम्य प्रथाएँ और परंपराएँ प्रकृति तथा मानव के मध्य स्नेह-सौख्य सेतु स्थापना का कार्य करती हैं। नागरजन अपनी व्यस्तता और समृद्धता के बाद भी लोक मंगल पर्वों से संयुक्त रहे आते हैं। हमारा धार्मिक साहित्य इतिहास, धर्म, दर्शन और सामाजिक मूल्यों का मिश्रण है। विविध कथा प्रसंगों के माध्यम से सामाजिक जीवन में नैतिक मूल्यों के नियमन का कार्य पुराणादि ग्रंथ करते हैं। श्रावण माह में त्योहारों की निरंतरता जन-जीवन में उत्साह का संचार करती है। रक्षाबंधन, कजलियाँ और भाईदूज के पर्व भारतीय नैतिक मूल्यों और पावन पारिवारिक संबंधों की अनूठी मिसाल हैं।
सावन में झूम-झूम, डालों से लूम-लूम, झूला झूल दुःख भूल, हँसिए हँसाइये.
एक दूसरे की बाँह, गहें बँधें रहे चाह, एक दूसरे को चाह, कजरी सुनाइये..
दिल में रहे न दाह, तन्नक पले न डाह, मन में भरे उछाह, पेंग को बढ़ाइए.
राखी की है साखी यही, पले प्रेम-पाखी यहीं, भाई-भगिनी का नाता, जन्म भर निभाइए..
(विजया घनाक्षरी)
रक्षा बंधन क्यों ?
स्कंदपुराण, पद्मपुराण तथा श्रीमद्भागवत में वामनावतार प्रसंग के अनुसार दानवेन्द्र राजा बलि का अहंकार मिटाकर उसे जनसेवा के सत्पथ पर लाने के लिए भगवान विष्णु ने वामन रूप धारणकर भिक्षा में ३ पग धरती माँगकर तीन पगों में तीनों लोकों को नाप लिया तथा उसके मस्तक पर चरणस्पर्श कर उसे रसातल भेज दिया। बलि ने भगवान से सदा अपने समक्ष रहने का वर माँगा। नारद के सुझाये अनुसार इस दिन लक्ष्मी जी ने बलि को रक्षासूत्र बाँधकर भाई माना तथा विष्णु जी को वापिस प्राप्त किया।
महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का, तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी.
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई, हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी..
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया, हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी.
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ, हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी..
(कलाधर घनाक्षरी)
भवन विष्णु के छल को पहचान कर असुर गुरु शुक्राचार्य ने शिष्य बलि को सचेत करते हुए वामन को दान न देने के लिए चेताया पर बलि न माना। यह देख शुक्राचार्य सक्षम रूप धारणकर जल कलश की टोंटी में प्रवाह विरुद्ध कर छिप गए ताकि जल के बिना भू दान का संकल्प पूरा न हो सके। इसे विष्णु ने भाँप लिया। उनहोंने कलश की टोंटी में एक सींक घुसेड़ दी जिससे शुक्राचार्य की एक आँख फुट गयी और वे भाग खड़े हुए-
बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने, एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी.
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली, हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी..
विप्र जब द्वार आये, राखी बांध मान पाये, शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी.
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े, साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी..
(कलाधर)
भविष्योत्तर पुराण के अनुसार देव-दानव युद्ध में इंद्र की पराजय सन्निकट देख उसकी पत्नी शशिकला (इन्द्राणी) ने तपकर प्राप्त रक्षासूत्र श्रवण पूर्णिमा को इंद्र की कलाई में बाँधकर उसे इतना शक्तिशाली बना दिया कि वह विजय प्राप्त कर सका।
गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- 'मयि सर्वमिदं प्रोक्तं सूत्रे मणिगणा इव' अर्थात जिस प्रकार सूत्र बिखरे हुए मोतियों को अपने में पिरोकर माला के रूप में एक बनाये रखता है उसी तरह रक्षासूत्र लोगों को जोड़े रखता है। प्रसंगानुसार विश्व में जब-जब नैतिक मूल्यों पर संकट आता है भगवान शिव प्रजापिता ब्रम्हा द्वारा पवित्र धागे भेजते हैं जिन्हें बाँधकर बहिने भाइयों को दुःख-पीड़ा से मुक्ति दिलाती हैं। भगवान कृष्ण ने महाभारत युद्ध में विजय हेतु युधिष्ठिर को सेना सहित रक्षाबंधन पर्व मनाने का निर्देश दिया था।
बागी थे हों अनुरागी, विरागी थे हों सुहागी, कोई भी न हो अभागी, दैव से मनाइए.
सभी के माथे हो टीका, किसी का न पर्व फीका, बहनों का नेह नीका, राखी-गीत गाइए..
कलाई रहे न सूनी, राखी बाँध शोभा दूनी, आरती की ज्वाल धूनी, अशुभ मिटाइए.
मीठा खाएँ मीठा बोलें, जीवन में रस घोलें, बहना के पाँव छूलें, शुभाशीष पाइए..
(कलाधर घनाक्षरी)
उत्तरांचल में इसे श्रावणी कहा जाता है तथा यजुर्वेदी विप्रों का उपकर्म (उत्सर्जन, स्नान, ऋषितर्पण आदि के पश्चात नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है।) राजस्थान में रामराखी (लालडोरे पर पीले फुंदने लगा सूत्र) भगवान को, चूड़ाराखी (भाभियों को चूड़ी में) या लांबा (भाई की कलाई में) बाँधने की प्रथा है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि में बहनें शुभ मुहूर्त में भाई-भाभी को तिलक लगाकर राखी बाँधकर मिठाई खिलाती तथा उपहार प्राप्त कर आशीष देती हैं।महाराष्ट्र में इसे नारियल पूर्णिमा कहा जाता है। इस दिन समुद्र, नदी तालाब आदि में स्नान कर जनेऊ बदलकर वरुणदेव को श्रीफल (नारियल) अर्पित किया जाता है। उड़ीसा, तमिलनाडु व् केरल में यह अवनिअवित्तम कहा जाता है। जलस्रोत में स्नानकर यज्ञोपवीत परिवर्तन व ऋषि का तर्पण किया जाता है।
बंधन न रास आये, बँधना न मन भाये, स्वतंत्रता ही सुहाये, सहज स्वभाव है.
निर्बंध अगर रहें, मर्याद को न गहें, कोई किसी को न सहें, चैन का अभाव है..
मना राखी नेह पर्व, करिए नातों पे गर्व, निभायें संबंध सर्व, नेह का निभाव है.
बंधन जो प्रेम का हो, कुशल का क्षेम का हो, धरम का नेम हो, 'सलिल' सत्प्रभाव है..
(कलाधर घनाक्षरी)
रक्षा बंधन से जुड़ा हुआ एक ऐतिहासिक प्रसंग भी है। राजस्थान की वीरांगना रानी कर्मावती ने राज्य को यवन शत्रुओं से बचने के लिए मुग़ल बादशाह हुमायूँ को राखी भेजी थी। राखी पाते ही हुमायूँ ने अपना कार्य छोड़कर बहिन कर्मवती की रक्षा के लिए प्रस्थान किया। विधि की विडंबना यह कि हुमायूँ के पहुँच पाने के पूर्व ही कर्मावती ने जौहर कर लिया, तब हुमायूँ ने कर्मवती के शत्रुओं का नाश किया।
संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी, शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी, शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो..
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी, बहिन की पत राखी, नेह का करार हो.
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया, नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो..
(कलाधर घनाक्षरी )
रक्षा बंधन के दिन बहिन भाई के मस्तक पर कुंकुम, अक्षत के तिलक कर उसके दीर्घायु और समृद्ध होने की कामना करती है। भाई बहिन को स्नेहोपहारों से संतुष्ट कर, उसकी रक्षा करने का वचन देकर उसका आशीष पाता है।
कजलियाँ
कजलियां मुख्यरूप से बुंदेलखंड में रक्षाबंधन के दूसरे दिन की जाने वाली एक परंपरा है जिसमें नाग पंचमी के दूसरे दिन खेतों से लाई गई मिट्टी को बर्तनों में भरकर उसमें गेहूं बो दिये जाते हैं और उन गेंहू के बीजों में रक्षाबंंधन के दिन तक गोबर की खाद् और पानी दिया जाता है और देखभाल की जाती है, जब ये गेंहू के छोटे-छोटे पौधे उग आते हैं तो इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि इस बार फसल कैसी होगी, गेंहू के इन छोटे-छोटे पौधों को कजलियां कहते हैं। कजलियां वाले दिन घर की लड़कियों द्वारा कजलियां के कोमल पत्ते तोडकर घर के पुरूषों के कानों के ऊपर लगाया जाता है, जिससे लिये पुरूषों द्वारा शगुन के तौर पर लड़कियों को रूपये भी दिये जाते हैं। इस पर्व में कजलिया लगाकर लोग एक दूसरे की शुभकामनाये के रूप कामना करते है कि सब लोग कजलिया की तरह खुश और धन धान्य से भरपूर रहे इसी लिए यह पर्व सुख समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।
भाई दूज
कजलियों के अगले दिन भाई दूज पर बहिनें गोबर से लोककला की आकृतियाँ बनाती हैं। भटकटैया के काँटों को मूसल से कूट-कूटकर भाई के संकट दूर होने की प्रार्थना करती हैं। नागपंचमी, राखी, कजलियाँ और भाई दूज के पर्व चतुष्टय भारतीय लोकमानस में पारिवारिक संबंधों की पवित्रता और प्रकृति से जुड़ाव के प्रतीक हैं। पाश्चात्य मूल्यों के दुष्प्रभाव के कारण नई पीढ़ी भले ही इनसे कम जुड़ पा रही है पर ग्रामीणजन और पुरानी पीढ़ी इनके महत्व से पूरी तरह परिचित है और आज भी इन त्योहारों को मनाकर नव स्फूर्ति प्राप्त करती है।
***

निबंध
पावस पानी पयस्विनी
*
पावस ऋतुरानी का स्वागत कर पाना प्रकृति और पुरुष दोनों का सौभग्य है। सनातन काल से रमणियों के हृदय और कवि-लेखकों की कलम सृष्टि-चक्र के प्राण सदृश "पावस" की पवन छटा का प्रशस्ति गान भाव-भीने गीतों से करते हुए, धन्य होते रहे रहे हैं। पावस का धरागमन होते ही प्रकृति क्रमश: नटखट बालिका, चपल किशोरी, तन्वंगी षोडशी, लजाती नवोढ़ा व प्रौढ़ प्रगल्भा छवि लिए अठखेलियाँ करती, मुस्कुराती है, खिल-खिल कर हँसती है और मनोहर छटा बिखेरती हुई जल बिंदुओं के संग केलि क्रीड़ा करती प्रतीत होती है। पावस की अनुभूति विरह तप्त मानव मन को संयोग की सुधियों से आप्लावित और ओतप्रोत कर देती है।
पावस की प्रतीति होते ही कालिदास का यक्ष अपनी प्रिय को संदेश देने के लिए मेघ को दूत बनाकर भेजता है। तुलसी क्यों पीछे रहते? वे तो बारह से उफनती नदी में कूदकर बहते हुई शव को काष्ठ समझ उसके सहारे नदी पार कर प्रिय रत्नावली के समीप पहुँचकर सांसारिक सुख प्राप्ति की आकांशा करते है किंतु तुलसी प्रिया कामिनी मात्र न रहकर भामिनि हो जाती है। वह प्रिय की इष्ट पूर्ति के लिए, अपना खुद का अनिष्ट भी स्वीकार कर, समूची मानवता के कल्याण हेतु अपने स्वामी गोस्वामी को 'गो स्वामी' कहकर सकल सृष्टि के स्वामी श्री राम के पदपद्मों से प्रीत करने का पाठ पढ़ाने के सुअवसर को व्यर्थ नहीं जाने देतीं। गोस्वामी अपनी गोस्वामिनी के अनन्य त्याग को देखकर क्षण मात्र को स्तबध रह जाते हैं किंतु शीघ्र ही सम्हल कर प्रिया के मनोरथ को पूर्ण करने का हर संभव उपाय करते हैं। दैहिक मिलान को सर्वस्व जाननेवाले कैसे समझें की पावस हो या न हो, गोस्वामी और गोस्वामिनी के चक्षुओं से बहती जलधार तब तक नहीं थमी जब तक राम भक्ति की जल वर्षा से समूचे सज्जनों और उनकी सजनियों को सराबोर नहीं कर दिया।
पावस ऋतु के आते ही वसुधा में नव जीवन का संचार होता है। नभ पटल पर छाये मेघराज, अपनी प्रेयसी वसुधा से मिलने के लिए उतावला होकर घनश्याम बन जाते हैं और प्रेम-प्यासी की करुण ध्वनि चित्तौड़गढ़ के प्रासादों के पत्थरों को आह भरने के लिए विवश करती हुई टेरती है हैं- 'श्याम गहन घनश्याम बरसो बहुत प्यासी हूँ'।
धरा को मनुहारता घन-गर्जन सुनकर उसकी भामिनि दामिनी तर्जन द्वारा रोष व्यक्त कर सबका दिल ही नहीं दहलाती, तड़ितपात कर मेघराज को अपने कदम पीछे करने के लिए विवश भी कर देती है। मेघ को बिन बरसे जाते देख, पवन भी पीछे नहीं रहता और दिशाओं को नापता हुआ, तरुओं को झकझोरता हुआ, लताओं को छेड़ता हुआ अपने विक्रम का प्रदर्शन करता है। भीत तन्वंगी लताएँ हिचकती-लजाती अपने तरु साथियों से लिपटकर भय निवारण के साथ-साथ, नटवर को सुमिरती हुई जमुन-तट की रास लीला को मूर्त कारण में कसर नहीं छोड़तीं। बालिका वधु सी सरिता, पर्वत बाबुल के गृह से विदा होते समय चट्टान बंधुओं से भुज भेंटकर कलपती हुई, बालुका मैया के अंक में विलाप कर सांत्वना पाने का प्रयास करती है किंतु अंतत: प्रिय समुद्र की पुकार सुनकर, सबसे मुख फेरकर आगे बढ़ भी जाती है और उसकी इस यात्रा का पाथेय जुटाता है पावस अपनी प्रेयसी वर्षा का सबला पाकर।
प्रकृति की लीला अघटन घटना पचीयसी की तरह कुछ दिखलाती, कुछ छिपाती, होनी से अनहोनी और अनहोनी से होनी की प्रतीति कराने की तरह होती है। क्रमश: पीहर की सुधियों में डूबती-उतराती सलिला, सपनों के संसार में प्रिय से मिलन की आस लिए हुए, कुछ आशंकित कुछ उल्लसित होती हुई, मंथर गति से बढ़ चलती है। कोकिलादि सखियों की छेड़-छाड़ से लजाती नदी, बेध्यानी में फिसलकर पथ में आए गह्वर में गिर पड़ती है। तन की पीड़ा मन की व्यथा भुला देती है। कलकल करती लहरियों का निनाद सुनकर मुस्कुराती तरंगिणी मत्स्यादि ननदियों और दादुरादि देवरों से भौजी, भौजी सुनकर मनोविनोद करते हुए आगे बढ़ती जाती है। पल-पल, कदम दर कदम बढ़ते हुए, कब उषा दुपहरी में, दुपहरी संध्या में और संध्या रजनी में परिवर्तिति हो जाती, पता ही नहीं चला। न जाने कितने दिन-रात हो गए? नील गगन से कपसीले बादल शांति संदेश देते, रंग-बिरंगे घुड़पुच्छ बादल इंद्रधनुषी सपने दिखाते, वर्षामेघ अपने स्नेहाशीष से शैलजा को समृद्ध करते। भोर होते ही तीर पर प्रगट होकर प्रणाम करते भक्त, मंदिरों में बजती घण्टियाँ, गूँजती शंख ध्वनियाँ, भक्ति-भाव से भरी प्रार्थनाएँ सुनकर शैवलिनी के कर अनजाने ही जुड़ जाते और वह अपने आराध्य नीलकंठ शिव का स्मरण कर अपने जल में अवगाहन कर रहे नारी-नारियों के पाप-शाप मिटाने के लिए कृत संकल्पित होकर, सुग्रहणी की तरह क्षमाशील हो ममता मूर्ति बनकर कब सबकी श्रद्धा का पात्र बन गई, उसे पता ही न चला।
सब दिन जात न एक समान। प्रकृति पुत्र मनुज को श्रांत-क्लांत पाकर निर्झरिणी उसे अंक में पाते ही दुलारती-थपथपाती लेकिन यह देख आहत भी होती कि यह मनुज स्वार्थ और लोभवध दनुज से भी बदतर आचरण कर रहा है। मनुष्यों के कदाचार और दुराचार से त्रस्त वृक्षों की हत्या से क्षुब्ध शैवलिनी क्या करे यह सोच ही रही थी कि अपने बंधु-बांधवों, मिटटी के टीलों-चट्टानों तथा पितृव्य गिरी-शिखरों को खोदकर भूमिसात किए जाते देख प्रवाहिनी समझ गई कि लातों के देव बातों से नहीं मानते। कोढ़ में खाज यह कि खुद को सभ्य-सुसंस्कृत कहते नागर जनों ने नागों, वानरों, ऋक्षों, उलूकों, गंधर्वों आदि को पीछे छोड़ते हुए मैया कहते-कहते शिखरिणी के निर्मल-धवल आँचल को मल-मूत्र और कूड़े-कचरे का आगार बना दिया। नदी को याद आया कि उसके आराध्य शिव ही नहीं, आराध्या शिवा को भी अंतत: शस्त्र धारण कर दुराचारों और दुराचारियों का अंत कर अपनी ही बनाई सृष्टि को मिटाना पड़ा था। 'महाजनो येन गत: स पंथा:' का अनुकरण करते हुए जलमला ने उफनाते हुए अपना रौद्र रूप दिखाया, तटबंधों को तोड़कर मानव बस्तियों में प्रवेश किया और गगनचुंबी अट्टालिकाओं को भूमिसात कर मानवी निर्मित यंत्रों को तिनकों की तरह बहकर नष्ट कर दिया। गगन ने भी अपनी लाड़ली के साथ हुए अत्याचार से क्रुद्ध होकर बद्रीनाथ और केदारनाथ पर हनीमून मनाते युग्मों को मूसलाधार जल वृष्टि में बहाते हुए पल भर में निष्प्राण कर दिया। सघन तिमिर में होती बरसात ने उस भयंकर निशा का स्मरण करा दिया जब हैं को हाथ नहीं सूझता था। कालिंदी का शांत प्रवाह, उफ़न उफनकर जग को भयभीत कर रहा था। क्रुद्ध नागिन की तरह दौड़ती-फुँफकारती लहरें दिल दहला रही थीं। तब तो द्वापर में नराधम कंस के अनाचारों का अंत करने के लिए घनश्याम की छत्रछाया में स्वयं घनश्याम अवतरित हुए थे किन्तु अब इस कलिकाल में अमला-धवला बालुकावाहिनी को अपनी रक्षा आप ही करनी थी। मदांध और लोलुप नराधमों को काल के गाल में धकेलते हुए स्रोतस्विनी ने महाकाली का रूप धारण किया और सब कुछ मिटाना आरंभ कर दिया, जो भी सामने आया, वही नष्ट होता गया।
इतिहास स्वयं को दुहराता है (हिस्ट्री रिपीट्स इटसेल्फ), किसी कल्प में जगजननी गौरी द्वारा महाकाली रूप धारण करने पर सृष्टि को विनाश से बचाने के लिए स्वयं महाकाल शिव को उनके पथ में लेट जाना पड़ा था और अपने स्वामी शिव के वक्ष पर चरण स्पर्श होते ही शिवा का आक्रोश, पल भर में शांत हो गया था। जो नहीं करना था, वही कर दिया। मेरे स्वामी मेरे ही पगतल में? यह सोचते ही काली का गौरी भाव जाग्रुत हुई और इनकी जिह्वा बाहर निकल आई। यह मूढ़ मनुष्य उनकी पार्थिव पूजा तो करता है किंतु यह भूल जाता है कि पार्वती और शिखरिणी दोनों ही पर्वत सुता हैं। दोनों शिवप्रिया है, एक शिव के हृदयासीन होकर जगतोद्धार करती है तो दूसरी शिव के मस्तक से प्रवहकर जगपालन करती है। तब भी मेघ गरजे थे, तब भी बिजलियाँ गिरी थीं, तब भी पवन प्रवाह मर्यादा तोड़कर बहा था, अब भी यही सब कुछ हुआ। तब भी क्रुद्ध शिवप्रिया सृष्टि नाश को तत्पर थीं, अब भी शिवप्रिया सृष्टिनाश को उद्यत हो गयी थीं। शैलजा के अदम्य प्रवाह के समक्ष पेड़-पौधों की क्या बिसात?, विशाल गिरि शिखर और भीमकाय गगनचुंबी अट्टालिकाएँ भी तृण की तरह निर्मूल हुए जा रहे थे। तब भी भोले भंडारी को राह में आना पड़ा था, अब भी दयानिधान भोले भंडारी राह में आ गए कि सर्वस्व नाश न हो जाए। पावस और तटिनी दोनों शिवशंकर के आगे नतमस्तक हो शांत हो गए।
कभी वृंदा नामक गोपी के मुख से परम भगवत श्री परमानंद दास का काव्य मुखरित हुआ था-"फिर पछताएगी हो राधा, कित ते, कित हरि, कित ये औसर, करत-प्रेम-रस-बाधा!'' सलिल-प्रवाह शांत हुआ तो सलिला फिर पावस को साथ लेकर चल पड़ी सासरे की ओर। उसे शांत रखने के लिए सदाशिव घाट-घाट पर आ विराजे और सुशीला शिवात्मजा अपने तटों पर तीर्थ बसाते हुए पहुँच गई अपनी यात्रा के अंतिम पड़ाव पर। उसे फिर याद आ गए तुलसी जिन्होंने सरितनाथ की महिमा में त्रिलोकिजयी लंकाधिपति शिवभक्त दशानन से कहलवाया था था-
बाँध्यो जलनिधि नीरनिधि, जलधि सिंधु वारीश।
सत्य तोयनिधि कंपति, उदधि पयोधि नदीश।।
अपलक राह निहारते सागर ने असंख्य मणि-मुक्ता समर्पित कर प्राणप्रिया की अगवानी की। प्रतीक्षा के पल पूर्ण हुए, चिर मिलन की बेला आरंभ हुई। पितृव्य गगन और भ्रातव्य मेघ हर बरस सावन पर जलराशि का उपहार सलिला को देते रहे हैं, देते रहेंगे। हम संकुचित स्वार्थी मनुष्य अम्ल-विमल सलिल प्रवाह में पंक घोलते रहेंगे और पुण्य सलिला पंकजा, लक्ष्मी निवास बनकर सकल सृष्टि के चर-अचर जीवों की पिपासा शांत करती रहेगी। हमने अपने कुशल-क्षेम की चिंता है तो हम पावस, पानी और पयस्विनी के पुण्य-प्रताप को प्रणाम करें। रहीम तो कह ही गये हैं -
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरे, मोती मानुस चून।।

11-8-2021

***

दोहा सलिला
*
जाते-जाते बता दें, क्यों थे अब तक मौन?
सत्य छिपा पद पर रहे, स्वार्थी इन सा कौन??
*
कुर्सी पाकर बंद थे, आज खुले हैं नैन.
हिम्मत दें भय-भीत को, रह पाए सुख-चैन.
*
वे मीठा कह कर गए, मिला स्नेह-सम्मान.
ये कड़वा कह जा रहे, क्यों लादे अभिमान?
*
कोयल-कौए ने कहे, मीठे-कडवे बोल.
कौन चाहता काग को?, कोयल है अनमोल.
*
मोहन भोग मिले मगर, सके न काग सराह.
देख छीछड़े निकलती, बरबस मुँह से आह.
*
फ़िक्र न खल की कीजिए, करे बात बेबात.
उसके न रात दिन, और नहीं दिन रात.
*
जितनी सुन्दर कल्पना, उतना सुन्दर सत्य.
नैन नैन में जब बसें, दिखता नित्य अनित्य.
११-८-२०१७
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मुक्तिका:

मापनी: 212 212 212 212
छंद: महादैशिक जातीय, तगंत प्लवंगम
तुकांत (काफ़िआ): आ
पदांत (रदीफ़): चाहिये
बह्र: फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
*
बोलना छोड़िए मौन हो सोचिए
बागबां कौन हो मौन हो सोचिए
रौंदते जो रहे तितलियों को सदा
रोकना है उन्हें मौन हो सोचिए
बोलते-बोलते भौंकने वे लगे
सांसदी क्यों चुने हो मौन हो सोचिए
आस का, प्यास का है हमें डर नहीं
त्रास का नाश हो मौन हो सोचिए
देह को चाहते, पूजते, भोगते
खुद खुदी चुक गये मौन हो सोचिए
मंदिरों में तलाशा जिसे ना मिला
वो मिला आत्म में ही छिपा सोचिए
छोड़ संजीवनी खा रहे संखिया
मौत अंजाम हो मौन हो सोचिए
11-8-2015
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मुक्तिका:
हाथ में हाथ रहे...
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हाथ में हाथ रहे, दिल में दूरियाँ आईं.
दूर होकर ना हुए दूर- हिचकियाँ आईं..
चाह जिसकी न थी, उस घर से चूड़ियाँ आईं..
धूप इठलाई तनिक, तब ही बदलियाँ आईं..
गिर के बर्बाद ही होने को बिजलियाँ आईं.
बाद तूफ़ान के फूलों पे तितलियाँ आईं..
जीते जी जिद ने हमें एक तो होने न दिया.
खाप में मेरे, तेरे घर से पूड़ियाँ आईं..
धूप ने मेरा पता जाने किस तरह पाया?
बदलियाँ जबके हमेशा ही दरमियाँ आईं..
कह रही दुनिया बड़ा, पर मैं रहा बच्चा ही.
सबसे पहले मुझे ही दो, जो बरफियाँ आईं..
दिल मिला जिससे, बिना उसके कुछ नहीं भाता.
बिना खुसरो के न फिर लौट मुरकियाँ आईं..
नेह की नर्मदा बहती है गुसल तो कर लो.
फिर न कहना कि नहीं लौट लहरियाँ आईं..
११-८-२०१०
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बाल गीत :
अपनी माँ का मुखड़ा.....
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
मुझको सबसे अच्छा लगता
अपनी माँ का मुखड़ा.....
*
सुबह उठाती गले लगाकर,
फिर नहलाती है बहलाकर.
आँख मूँद, कर जोड़ पूजती
प्रभु को सबकी कुशल मनाकर.
देती है ज्यादा प्रसाद फिर
सबकी नजर बचाकर.
आंचल में छिप जाता मैं
ज्यों रहे गाय सँग बछड़ा.
मुझको सबसे अच्छा लगता
अपनी माँ का मुखड़ा.....
*
बारिश में छतरी आँचल की.
ठंडी में गर्मी दामन की..
गर्मी में धोती का पंखा,
पल्लू में छाया बादल की.
कभी दिठौना, कभी आँख में
कोर बने काजल की..
दूध पिलाती है गिलास भर -
कहे बनूँ मैं तगड़ा. ,
मुझको सबसे अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा!
११-८-२०१०
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