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मंगलवार, 23 जुलाई 2019

लेख: छंद : उद्भव, अंग तथा प्रकार

रसानंद है छंद नर्मदा : २ २.
छंद : उद्भव, अंग तथा प्रकार
- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
छंद का उद्भव आदिकवि महर्षि वाल्मीकि से मान्य है। कथा है कि मैथुनरत क्रौंच पक्षी युग्म के एक पक्षी को बहेलिये द्वारा तीर मार दिये जाने पर उसके साथी के आर्तनाद को सुनकर महर्षि के मुख से यह पंक्ति निकल पड़ी: 'मा निषाद प्रतिष्ठां त्वं गम: शाश्वती समा: यत्क्रौंच मिथुनादेकम अवधि: काममोहितं'। यह प्रथम काव्य पंक्ति करुण व्युत्पन्न है जिसे कालांतर में अनुष्टुप छंद संज्ञा प्राप्त हुई। वाल्मीकि रामायण में इस छंद का प्रचुर प्रयोग हुआ है।
एक अन्य कथानुसार छंदशास्त्र के आदि आविष्कर्ता भगवान् आदि शेष हैं। एक बार पक्षिराज गरुड़ ने नागराज शेष को पकड़ लिया। शेष ने गरुड़ से कहा कि उनके पास एक दुर्लभ विद्या है।इसे सीखने के पश्चात गरुण उनका भक्षण करें तो विद्या नष्ट होने से बच जाएगी। गरुड़ के सहमत होने पर शेष ने विविध छंदों के रचनानियम बताते हुए अंत में 'भुजंगप्रयाति छंद का नियम बताया और गरुड़ द्वारा ग्रहण करते ही अतिशीघ्रता से समुद्र में प्रवेश कर गये। गरुड़ ने शेष पर छल करने का आरोप लगाया तो शेष ने उत्तर दिया कि आपने मुझसे छंद शास्त्र की वदया ग्रहण की है, गुरु अभक्ष्य और पूज्य होता है। अत:, आप मुझे भोजन नहीं बना सकते। मैंने आपको भुजङ्ग प्रयात छंद का सूत्र 'चतुर्भिमकारे भुजंगप्रयाति' अर्थात चार गणों से भुजंग प्रयात छंद बनता है, दे दिया है। स्पष्ट है कि छंदशास्त्र दैवीय दिव्य विद्या है।
किंवदंती है की मानव सभ्यता का विकास होने पर शेष ने आचार्य पिंगल के रूप में अवतार लेकर सूत्रशैली में 'छंदसूत्र' ग्रन्थ की रचना की। इसकी अनेक टीकाएँ तथा व्याख्याएँ हो चुकी हैं।छंदशास्त्र के विद्वानों को दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है: प्रथम आचार्य जो छंदशास्त्र का शास्त्रीय निरूपण तथा नव छंदों का अन्वेषण करते हैं और द्वितीय कवि श्रेणी जो छंदशास्त्र में वर्णित विधानानुसार छंद-रचना करते हैं। कालांतर में छंद समीक्षकों की तीसरी श्रेणी विकसित हुई जो रचे गये छंद-काव्यों का पिंगलीय विधानों के आधार पर परीक्षण करते हैं। छंदशास्त्र में मुख्य विवेच्य विषय दो हैं 
१. छंदों की रचनाविधि तथा
२. छंद संबंधी गणना (प्रस्तार, पताका, उद्दिष्ट, नेष्ट) आदि। इनकी सहायता से किसी निश्चित संख्यात्मक वर्गों और मात्राओं के छंदों की पूर्ण संख्यादि का बोध सरलता से हो जाता है।
छंद को वेदों का 'पैर' कहा गया है। जिस तरह किसी विद्वान की कृपा-दृष्टि, आशीष पाने के लिये उसके चरण-स्पर्श करना होते हैं वैसे ही वेदों को पढ़ने-समझने के लिये छंदों को जानना आवश्यक है। यदि गद्य की कसौटी व्याकरण है तो कविता की कसौटी ‘छन्दशास्त्र’ है। 
छंद शब्द 'चद्' धातु से बना है। छंद शब्द के दो अर्थ आल्हादित (प्रसन्न) करना तथा 'आच्छादित करना' (ढाँक लेना) हैं। यह आल्हाद वर्णों, मात्राओं अथवा ध्वनियों की नियमित आवृत्तियों (दुहराव) से उत्पन्न होता है तथा रचयिता, पाठक या श्रोता को हर्ष और सुख में निमग्न कर आच्छादित कर लेता है। छन्द का अन्य नाम वृत्त भी है। वृत्त का अर्थ है घेरना । विशिष्ट वर्ण या मात्रा कर्म की अनेक आवृत्तियाँ ध्वनियों का एक घेरा सा बनाकर पाठक / श्रोता के मस्तिष्क को घेर कर अपने रंग में रंग लेती है। छन्दों की रचना और गुण-अवगुण के अध्ययन को छन्दशास्त्र कहते हैं। आचार्य पिंगल द्वारा रचित 'छंद: सूत्रम्' प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ है। उन्हीं के नाम पर इस शास्त्र को पिङ्गलशास्त्र भी कहा जाता है। गद्य का नियामक व्याकरण है तो पद्य का नियंता पिंगल है। 
कविता या गीत में वर्णों की संख्या, विराम के स्थान, पंक्ति परिवर्तन, लघु-गुरु मात्रा बाँट आदि से सम्बंधित नियमों को छंद-शास्त्र या पिंगल तथा इनके अनुरूप रचित लयबद्ध सरस तथा जन-मन-रंजक पद्य को छंद कहा जाता है। किन्हीं विशिष्ट मात्रा बाँट, गण नियम आदि के अनुरूप रचित पद्य को विशिष्ट नाम से पहचाना जाता है जैसे दोहा, चौपाई, आदि।विश्व की अन्य भाषाओँ में भी पद्य रचनाओं के लिए विशिष्ट नियम हैं तथा छंदमुक्त पद्य रचना भी की जाती है। संस्कृत में भरत - नाट्यशास्त्र अध्याय १४-१५, ज्योतिषाचार्य वराह मिहिर, अग्निपुराण अध्याय १, वराह मिहिर - वृहत्संहिता, कालिदास - श्रुतबोध, जयकीर्ति - छ्न्दानुशासन, आचार्य क्षेमेन्द्र - सुवृत्ततिलक, केदारभट्ट - वृत्त रत्नाकर, हेमचन्द्र - छन्दाsनुशासन, केदार भट्ट - वृत्त रत्नाकर, विरहांक - वृत्तजात समुच्चय, गंगादास - छन्दोमञ्जरी, भट्ट हलायुध - छंदशास्त्र, दामोदर मित्र - वाणीभूषण आदि ने छंदशास्त्र के विकास में महती भूमिका निभायी है।छंदोरत्न मंजूषा, कविदर्पण, वृत्तदीपका, छंदसार, छांदोग्योपनिषद आदि छंदशास्त्र के महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। हिंदी में भूषण कवि - भूषणचन्द्रिका, जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' - छंद प्रभाकर, डॉ. रत्नाकर - घनाक्षरी नियम रत्नाकर , पुत्तूलाल शुक्ल - आधुनिक हिंदी काव्य में छंद योजना, रघुनंदन शास्त्री - हिंदी छंद प्रकाश, नारायण दास - हिंदी छंदोलक्षण, रामदेवलाल विभोर - छंद विधान, बृजेश सिंह - छंद रत्नाकर, सौरभ पाण्डे छंद मंजरी - ने छंदशास्त्र पर महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की है।
प्रयोग के अनुसार छंद के २ प्रकार वैदिक (७- गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप व जगती) तथा लौकिक (सोरठा, घनाक्षरी आदि) हैं। वैदिक छंदों में ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत और स्वरित, इन चार प्रकार के स्वरों का विचार किया जाता है। वैदिक छंद अपौरुषेय माने जाते हैं। लौकिक छंदों का का प्रयोग लोक तथा साहित्य में किया जाता हैं। ये छंद ताल और लय पर आधारित रहते हैं, इसलिये इनकी रचना सामान्य अशिक्षित जन भी अभ्यास से कर लेते हैं। लौकिक छंदों की रचना निश्चित नियमों के आधार पर होती है। लौकिक छंदों के रचना-विधि-संबंधी नियम सुव्यवस्थित रूप से जिस शास्त्र में रखे गये हैं उसे 'छंदशास्त्र' 'या पिंगल' कहते हैं।
छंद शब्द बहुअर्थी है। "छंदस" वेद का पर्यायवाची नाम है। सामान्यत: वर्णों, मात्राओं तथा विरामस्थलों के पूर्व निर्धारित नियमों के अनुसार रची गयी पद्य रचना को छंद कहा जाता है। पद्य अधिक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है। छंदशास्त्र अत्यंत पुष्ट शास्त्र है क्योंकि वह गणित पर आधारित है। वस्तुत: देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि छंदशास्त्र की रचना इसलिये की गई जिससे अग्रिम संतति इसके नियमों के आधार पर छंदरचना कर सके। छंदशास्त्र के ग्रंथों को देखने से यह भी ज्ञात होता है कि जहाँ एक ओर आचार्य प्रस्तारादि के द्वारा छंदो को विकसित करते रहे वहीं दूसरी ओर कविगण अपनी ओर से छंदों में किंचित् परिर्वन करते हुए नवीन छंदों की सृष्टि करते रहे जिनका छंदशास्त्र के ग्रथों में कालांतर में समावेश हो गया। 
वर्ण या अक्षर: एक स्वर वाली ध्वनि को वर्ण कहते हैं, चाहे वह स्वर ह्रस्व हो या दीर्घ। ह्रस्व स्वर वाला वर्ण लघु और दीर्घ स्वर वाला वर्ण गुरु कहलाता है। वह सूक्ष्म अविभाज्य ध्वनि जिससे मिलकर शब्द बनते हैं वर्ण तथा वर्णों का क्रमबद्ध समूह वर्णमाला कहलाता है। हिंदी में कुल ४९ वर्ण हैं जिनमें ११ स्वर, ३३ व्यंजन, ३ अयोगवाह वर्ण तथा ३ संयुक्ताक्षर हैं। वर्ण वह सबसे छोटी मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। वर्ण भाषा की लघुतम इकाई है।वर्ण २ प्रकार के होते हैं- १. स्वर तथा २. व्यञ्जन। हिंदी में उच्चारण के आधार पर ११+२ = १३ वर्ण तथा ३३ +३ = ३६ व्यञ्जन हैं। जिस ध्वनि में स्वर नहीं हो (जैसे हलन्त शब्द राजन् का 'न्', संयुक्ताक्षर का पहला अक्षर - कृष्ण का 'ष्') उसे वर्ण नहीं माना जाता । वर्ण 2 प्रकार के होते हैं-
ह्रस्व स्वर वाले वर्ण (ह्रस्व वर्ण): अ, इ, उ, ऋ, क, कि, कु, कृ आदि ।
दीर्घ स्वर वाले वर्ण (दीर्घ वर्ण): आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, का, की, कू, के, कै, को, कौ, कं, क: आदि ।
स्वर: स्वतंत्र रूप से उच्चारित की जा सकने वाली ध्वनियों को स्वर कहा जाता है। इन्हें बोलने में किसी अन्य ध्वनि की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। स्वर अपने आप बोले जाते हैं और उनकी मात्राएँ होती हैं। स्वरों की मात्राओं का प्रयोग व्यञ्जनों को बोलने में होता है। स्वर की मात्र को जोड़े बिना व्यंजन का उच्चारण नहीं किया जा सकता। उदहारण: क् + अ = क, क् का स्वतंत्र उच्चारण सम्भव नहीं है। 
स्वर के ३ वर्ग हैं।
१. हृस्व: अ, इ, उ, ऋ। 
२. दीर्घ: आ, ई, ऊ। 
३. संयुक्त: ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:।
व्यञ्जन: व्यंजन स्वतंत्र ध्वनियाँ नहीं हैं। व्यञ्जन का उच्चारण स्वर के सहयोग से किया जाता है। क , ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व्, श, ष , स, ह व्यंजन हैं।अनुनासिक अर्धचंद्र बिंदु, अनुस्वार बिंदु तथा विसर्ग : की गणना व्यञ्जनों में की जाती है। व्यञ्जन के २ भेद स्वतंत्र व्यञ्जन तथा संयुक्त व्यञ्जन हैं। 
१. स्वतंत्र व्यञ्जन स्वरों की सहायत से बोले जाने वाले व्यञ्जन स्वतंत्र या सामान्य व्यञ्जन कहलाते हैं। जैसे: क्, ख्, ग् , घ्, ज्, त् आदि।
२.संयुक्त व्यञ्जन: स्वर की सहायता से बोली जा सकने वाली एक से अधिक ध्वनियों या वर्णों को व्यञ्जन कहते हैं। जैसे: क् + ष = क्ष, त् + र = त्र, ज् + ञ = ज्ञ ।
मात्रा: ह्रस्व या लघु वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे मात्रा कहते हैं। उदाहरणार्थ अ, क, चि, तु, ऋ में से किसी एक को बोलने में लगा समय एक मात्रा है।
अनुस्वार: वर्ण के ऊपर लगाई जानेवाली बिंदी को अनुस्वार कहते हैं। इसका उच्चारण पश्चात्वर्ती वर्ण के वर्ग के पञ्चमाक्षर के अनुसार होता है। जैसे: अंब में ब प वर्ग का सदस्य है जिसका पञ्चमाक्षर 'म' है. अत:, अंब = अम्ब, संत = सन्त, अंग = अङ्ग, पंच = पञ्च आदि।
अनुनासिक: वर्ण के ऊपर लगाई जानेवाली अर्धचन्द्र बिंदी को अनुनासिक कहते हैं। अनुनासिक युक्त वर्ण का उच्चारण कोमल (आधा) होता है। जैसे: हँसी, अँगूठी, बाँस, काँच, साँस आदि। अर्धचंद्र-बिंदी युक्त स्वर अथवा व्यंजन १ मात्रिक माने जाते हैं। जैसे: हँस = १ + १ = २, कँप = १ + १ =२ आदि।
विसर्ग: वर्ण के बाद लगाई जाने वाली दो बिंदियाँ : विसर्ग कहलाती हैं, इसका उच्चारण आधे ह 'ह्' जैसा होता है । जैसे दुःख, पुनः, प्रातः, मनःकामना, पयःपान आदि। विसर्ग युक्त स्वर-व्यंजन दीर्घ होते है। जैसे: अंब = अम्ब = २ + १ =३, हंस = हन्स = २ + १ = ३, प्रायः = २ + २ = ४ आदि।
हलंत: उच्चारण के लिये स्वररहित वर्ण की स्थिति इंगित करने के लिए हलन्त् (हल की फाल) चिन्ह का प्रयोग किया जाता है जैसा हलन्त् के त, वाक् के क, मान्य के न साथ संयुक्त है । 
वर्ण-प्रकार और मात्रा गणना : 
किसी वर्ण या ध्वनि के उच्चारण-काल को मात्रा कहते हैं। ह्रस्व वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे एक मात्रा तथा दीर्घ वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे दो मात्रा माना जाता है। इस प्रकार मात्रा दो प्रकार की होती हैं- 
एक मात्रो भवेद ह्रस्वः, द्विमात्रो दीर्घ उच्यते
त्रिमात्रस्तु प्लुतो ज्ञेयो, व्यंजनंचार्द्ध मात्रकम्
लघु (एक मात्रिक): हृस्व (लघु अक्षर) के उच्चारण में लगनेवाले समय को इकाई माना जाता है। अ, इ, उ, ऋ, सभी स्वतंत्र व्यंजन तथा अर्धचन्द्र बिन्दुवाले वर्ण जैसे जैसे हँ (हँसी) आदि। इन्हें खड़ी डंडी रेखा (।) से दर्शाया जाता है। इनका मात्रा भार १ गिना जाता है। पाद का अन्तिम ह्रस्व स्वर आवश्यकता पड़ने पर गुरु गिन सकते है। स्वरहीन व्यंजनों की पृथक् मात्रा नहीं गिनी जाती। मात्रा को कला भी कहा जाता है।
अ, इ, उ, ऋ, क , ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, श, ष , स, ह मात्रिक हैं। व्यंजन में इ, उ स्वर जुड़ने पर भी अक्षर १ मात्रिक ही रहते हैं। जैसे: कि, कु आदि। 
गुरु या दीर्घ (दो मात्रिक): दीर्घ मात्रा युक्त वर्ण आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: तथा इनकी मात्रा युक्त व्यंजन का, ची, टू, ते, पै, यो, सौ, हं आदि गुरु हैं। क से ह तक किसी व्यंजन में आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः स्वर जुड जाये तो भी अक्षर २ मात्रिक ही रहते हैं। जैसे: ज व्यंजन में स्वर जुडने पर - जा जी जू जे जै जो जौ जं जः २ मात्रिक हैं। इन्हें वर्तुल रेखा या सर्पाकार चिन्ह (s) से इंगित किया जाता है। इनका मात्रा भार २ गिना जाता है। जब किसी वर्ण के उच्चारण में हस्व वर्ण के उच्चारण से दो गुना समय लगता है तो उसे दीर्घ या गुरु वर्ण मानते हैं तथा दो मात्रा गिनते हैं। जैसे - आ, पी, रू, से, को, जौ, वं, यः आदि।
प्लुत: यह हिंदी में मान्य नहीं है। अ, उ तथा म की त्रिध्वनियों के संयुक्त उच्चारण वाला वर्ण ॐ, ग्वं आदि इसके उदाहरण हैं। इसका मात्रा भार ३ होता है। 
संयुक्ताक्षर: सामान्यत:संयुक्ताक्षरों क्ष, त्र, ज्ञ की मात्राओं का निर्णय उच्चारण के आधार पर होता है। संयुक्ताक्षर के पूर्व का अक्षर गुरु हो तो अर्धाक्षर से कोई परिवर्तन नहीं होता। जैसे: आराध्य = २+२+ १ = ५। 
शब्दारंभ में संयुक्ताक्षर हो तो उसका मात्रा भार पर कोई प्रभाव नहीं होता। जैसे: क्षमा = १ + २ =३, प्रभा = ३। 
शब्द: अक्षरों (वर्णों) के मेल से बनने वाले अर्थ पूर्ण समुच्चय (समूह) को शब्द कहते हैं। शब्द-निर्माण हेतु अक्षरों का योग ४ प्रकार से हो सकता ।
१. स्वर + स्वर जैसे: आई।
२. स्वर + व्यंजन जैसे: आम। 
३. व्यञ्जन + स्वर जैसे: बुआ। 
४. व्यञ्जन + व्यञ्जन जैसे: कम। 
यदि हम स्वर तथा व्यंजन की मात्रा को जानें तो - 
अर्धाक्षर: अर्धाक्षर का उच्चारण उसके पहले आये वर्ण के साथ होता है, ऐसी स्थिति में पूर्व का लघु अक्षर गुरु माना जाता है। जैसे: शिक्षा = शिक् + शा = २ + २ = ४, विज्ञ = विग् + य = २ + १ = ३। 
अर्ध व्यंजन: अर्ध व्यंजन को एक मात्रिक माना जाता है परन्तु यह स्वतंत्र लघु नहीं होता यदि अर्ध व्यंजन के पूर्व लघु मात्रिक अक्षर होता है तो उसके साथ जुड कर और दोनों मिल कर दीर्घ मात्रिक हो जाते हैं।
उदाहरण - सत्य सत् - १+१ = २ य१ या सत्य = २१, कर्म - २१, हत्या - २२, मृत्यु २१, अनुचित्य - ११२१। 
यदि पूर्व का अक्षर दीर्घ मात्रिक है तो लघु की मात्रा लुप्त हो जाती है 
आत्मा - आत् / मा २२, महात्मा - म / हात् / मा १२२।
जब अर्ध व्यंजन शब्द के प्रारम्भ में आता है तो भी यही नियम पालन होता है अर्थात अर्ध व्यंजन की मात्रा लुप्त हो जाती हैं | उदाहरण - स्नान - २१ । एक ही शब्द में दोनों प्रकार देखें - धर्मात्मा - धर् / मात् / मा २२२। 
अपवाद - जहाँ अर्ध व्यंजन के पूर्व लघु मात्रिक अक्षर हो परन्तु उस पर अर्ध व्यंजन का भार न पड़ रहा हो तो पूर्व का लघु मात्रिक वर्ण दीर्घ नहीं होता।
उदाहरण - कन्हैया - १२२ में न् के पूर्व क है फिर भी यह दीर्घ नहीं होगा क्योकि उस पर न् का भार नहीं पड़ रहा है। ऐसे शब्दों को बोल कर देखे क + न्है + या = १ + २ + २ = ५, धन्यता = धन् + य + ता = २ + १ + २ = ५। 
संयुक्ताक्षर (क्ष, त्र, ज्ञ द्ध द्व आदि) दो व्यंजन के योग से बने हैं, अत: दीर्घ मात्रिक हैं किंतु मात्रा गणना में खुद लघु हो कर अपने पहले के लघु व्यंजन को दीर्घ कर देते है अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी स्वयं लघु हो जाते हैं। 
उदाहरण: पत्र= २१, वक्र = २१, यक्ष = २१, कक्ष - २१, यज्ञ = २१, शुद्ध =२१ क्रुद्ध =२१, गोत्र = २१, मूत्र = २१। 
शब्द संयुक्ताक्षर से प्रारंभ हो तो संयुक्ताक्षर लघु हो जाते हैं। जैसे: त्रिशूल = १२१, क्रमांक = १२१, क्षितिज = १२। 
संयुक्ताक्षर जब दीर्घ स्वर युक्त होते हैं तो अपने पहले के व्यंजन को दीर्घ करते हुए स्वयं भी दीर्घ रहते हैं अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी दीर्घ स्वर युक्त संयुक्ताक्षर दीर्घ मात्रिक गिने जाते हैं। 
उदाहरण = प्रज्ञा = २२ राजाज्ञा = २२२ आदि। 
ये नियम न तो मनमाने हैं, न किताबी। आदि मानव ने पशु-पक्षियों की बोली सुनकर उसकी नकल कर बोलना सीखा। मधुर वाणी से सुख, प्रसन्नता और कर्कश ध्वनि से दुःख, पीड़ा व्यक्त करना सीखा। मात्रा गणना नियमों के मूल में भी यही पृष्ठभूमि है।
चाषश्चैकांवदेन्मात्रां द्विमात्रं वायसो वदेत
त्रिमात्रंतु शिखी ब्रूते नकुलश्चार्द्धमात्रकम्
अर्थात नीलकंठ की बोली जैसी ध्वनि हेतु एक मात्रा, कौए की बोली सदृश्य ध्वनि के लिये २ मात्रा, मोर के समान आवाज़ के लिये ३ मात्रा तथा नेवले सदृश्य ध्वनि के लिये अर्ध मात्रा निर्धारित की गयी है।
छंद: मात्रा, वर्ण की रचना, विराम गति का नियम और चरणान्त में समता युक्त कविता को छन्द कहते हैं।

छंद से हृदय को सौंदर्यबोध होता है।
छंद मानवीय भावनाओं को झंकृत करते हैं।
छंद में स्थायित्व होता है।
छंद सरस होने के कारण मन को भाते हैं।
छंद लय बद्धता के कारण सुगमता से कण्ठस्थ हो जाते हैं।
पद : छंद की पंक्ति को पद कहते हैं । जैसे: दोहा द्विपदिक अर्थात दो पंक्तियों का छंद है। सामान्य भाषा में पद से आशय पूरी रचना से होता है। जैसे: सूर का पद अर्थात सूरदास द्वारा लिखी गयी एक रचना।
अर्धाली : पंक्ति के आधे भाग को अर्धाली कहते हैं। 
चरण अथवा पाद: पाद या चरण का अर्थ है चतुर्थांश। सामान्यत: छन्द के चार चरण या पाद होते हैं । कुछ छंदों में चार चरण दो पंक्तियों में ही लिखे जाते हैं, जैसे- दोहा, सोरठा,चौपाई आदि। ऐसे छंद की प्रत्येक पंक्ति को पद या दल कहते हैं। कुछ छंद छः- छः पंक्तियों (दलों) में लिखे जाते हैं, ऐसे छंद दो छंद के योग से बनते हैं, जैसे- कुण्डलिया (दोहा + रोला), छप्पय (रोला + उल्लाला) आदि।
सम और विषमपाद: पहला और तीसरा चरण विषमपाद कहलाते हैं और दूसरा तथा चौथा चरण समपाद कहलाता है । सम छन्दों में सभी चरणों की मात्राएँ या वर्ण बराबर और एक क्रम में होती हैं और विषम छन्दों में विषम चरणों की मात्राओं या वर्णों की संख्या और क्रम भिन्न तथा सम चरणों की भिन्न होती हैं ।
गण: तीन वर्णों के पूर्व निश्चित समूह को गण कहा जाता है। ८ गण यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण तथा सगण हैं। गणों को स्मरण रखने सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' है। अंतिम २ वर्णों को छोड़कर सूत्र के हर वर्ण अपने पश्चातवर्ती २ वर्णों के साथ मिलकर गण में लघु-गुरु मात्राओं को इंगित करता है। अंतिम २ वर्ण लघु गुरु का संकेत करते हैं। 
य = यगण = यमाता = । s s = सितारा = ५ मात्रा 
मा = मगण = मातारा = s s s = श्रीदेवी = ६ मात्रा 
ता = तगण = ताराज = s s । = संजीव = ५ मात्रा 
रा = रगण = राजभा = s । s = साधना = ५ मात्रा 
ज = जगण = जभान = । s । = महान = ४ मात्रा 
भा = भगण = भानस = s । । = आनन = ४ मात्रा 
न = नगण = नसल = । । । = किरण = ३ मात्रा 
स = सगण = सलगा = । । s = तुहिना = ४ मात्रा 
कुछ क्रृतियों में यगण, मगण, भगण, नगण को शुभ तथा तगण, रगण, जगण, सगण को अशुभ कहा गया है किन्तु इस वर्गीकरण का औचित्य संदिग्ध है।
गति: छंद पठन के प्रवाह या लय को गति कहते हैं। गति का महत्व वर्णिक छंदों की तुलना में मात्रिक छंदों में अधिक होता है। वर्णिक छंदों में लघु-गुरु का स्थान निश्चित होता है जबकि मात्रिक छंदों में अनिश्चित, इस कारण चरण अथवा पद (पंक्ति) में समान मात्राएँ होने पर भी क्रम भिन्नता से लय भिन्नता हो जाती है। अनिल अनल भू नभ सलिल में 'भू' का स्थान बदल कर भू अनिल अनल नभ सलिल, अनिल भू अनल नभ सलिल, अनिल अनल नभ भू सलिल, अनिल अनल नभ सलिल भू पढ़ें भिन्न तो हर बार भिन्न लय मिलेगी।
दोहा, सोरठा तथा रोल में २४-२४ मात्रा की पंक्तियाँ होते हुए भी उनकी लय अलग-अलग होती है। अत:, मात्रिक छंदों के निर्दोष लयबद्ध प्रयोग हेतु गति माँ समुचित ज्ञान व् अभ्यास आवश्यक है।
यति: छंद पढ़ते या गाते समय नियमित वर्ण या मात्रा पर साँस लेने के लिये रूकना पड़ता है, उसे यति या विराम कहते हैं । प्रत्येक छन्द के पाद के अन्त तथा बीच-बीच में भी यति का स्थान निश्चित होता है। हर छन्द के यति-नियम भिन्न किन्तु निश्चित होते हैं। छटे छंदों में विराम पंक्ति के अंत में होता है। बड़े छंदों में पंक्ति के बीच में भी एक (दोहा रोला सोरठा आदि) या अधिक (हरिगीतिका, मालिनी, घनाक्षरी, सवैया आदि) विराम स्थल होते हैं। 
मात्रा बाँट: मात्रिक छंदों में समुचित लय के लिये लघु-गुरु मंत्रों की निर्धारित संख्या के विविध समुच्चयों को मात्रा बाँट कहते हैं। किसी छंद की पूर्व परीक्षित मात्रा बाँट का अनुसरण कर की गयी छंद रचना निर्दोष होती है। 
तुक: तुक का अर्थ अंतिम वर्णों की आवृत्ति है। छंद के चरणान्त की अक्षर-मैत्री (समान स्वर-व्यंजन की स्थापना) को तुक कहते हैं। चरण के अंत में तुकबन्दी के लिये समानोच्चारित शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जैसे: राम, श्याम, दाम, काम, वाम, नाम, घाम, चाम आदि। यदि छंद में वर्णों एवं मात्राओं का सही ढंग से प्रयोग प्रत्येक चरण में हो तो उसकी ' गति ' स्वयमेव सही हो जाती है।
तुकांत / अतुकांत: जिस छंद के अंत में तुक हो उसे तुकान्त छंद और जिसके अन्त में तुक न हो उसे अतुकान्त छंद कहते हैं। अतुकान्त छंद को अंग्रेज़ी में ब्लैंक वर्स कहते हैं। 
घटकों की दृष्टि से छंदों के २ प्रकार वर्णिक (वर्ण वृत्त की आवृत्तियुक्त) तथा मात्रिक (मात्रा वृत्त की आवृत्तियुक्त) हैं। मात्रिक छन्दों में मात्राओं की गिनती की जाती है । वर्णिक छन्दों में वर्णों की संख्या और लघु - दीर्घ का निश्चित क्रम होता है, जो मात्रिक छन्दों में अनिवार्य नहीं है ।

पंक्तियों की संख्या के आधार पर छंदों को दो पंक्तीय द्विपदिक (दोहा, सोरठा, आल्हा, शे'र आदि), तीन पंक्तीय त्रिपदिक(गायत्री, ककुप्, माहिया, हाइकु आदि), चार पंक्तीय चतुष्पदिक (मुक्तक, घनाक्षरी, हरिगीतिका, सवैया आदि), छ: पंक्तीय षटपदिक (कुण्डलिनी) आदि में वर्गीकृत किया गया है। 
छंद की सभी पंक्तियों में एक सी योजना हो तो उन्हें 'सम', सभी विषम पंक्तियों में एक जैसी तथा सभी सम पंक्तियों में अन्य एक जैसी योजना हो तो अर्ध सम तथा हर पंक्ति में भिन्न योजना हो विषम छंद कहा जाता है।
मात्रिक छंद: जिन छन्दों की रचना मात्रा-गणना के अनुसार की जाती है, उन्हें 'मात्रिक' छन्द कहते हैं। मात्रा-गणना पर आधारित मात्रिक छंद गणबद्ध नहीं होते। मात्रिक छंद में लघु-गुरु के क्रम पर ध्यान नहीं दिया जाता है। मात्रिक छन्द के ३ प्रकार सम मात्रिक छन्द, अर्ध सम मात्रिक छन्द तथा विषम मात्रिक छन्द हैं। सम, विषम, अर्धसम छंदों का विभाजन मात्राओं और वर्णों की चरण-भेद-संबंधी विभिन्न संख्याओं पर आधारित है। मात्रिक छन्द के अन्तर्गत प्रत्येक चरण अथवा प्रत्येक पद में मात्रा ३२ तक होती है।
सम मात्रिक छन्द: जिस द्विपदी के चारों चरणों की वर्ण-स्वर संख्या या मात्राएँ समान हों, उन्हें सम मात्रिक छन्द कहते हैं। प्रमुख सम मात्रिक छंद अहीर (११मात्रा), तोमर (१२ मात्रा), मानव (१४ मात्रा); अरिल्ल, पद्धरि/ पद्धटिका, चौपाई (सभी १६ मात्रा); पीयूषवर्ष, सुमेरु (दोनों १९ मात्रा), राधिका (२२ मात्रा), रोला, दिक्पाल, रूपमाला (सभी २४ मात्रा), गीतिका (२६ मात्रा), सरसी (२७ मात्रा), सार , हरिगीतिका (२८ मात्रा), तांटक (३० मात्रा), वीर या आल्हा (३१ मात्रा) हैं।
अर्ध सम मात्रिक छन्द: जिस मात्रिक छन्द की द्विपदी में विषम चरणों की मात्राएँ समान तथा सम चरणों की मात्राएँ विषम चरणों से भिन्न एक समान होती हैं उसे अर्ध सम मात्रिक छंद कहा जाता है। प्रमुख अर्ध सम मात्रिक छंद बरवै (विषम चरण १२ मात्रा, सम चरण ७ मात्रा), दोहा (विषम १३, सम ११), सोरठा (दोहा का उल्टा विषम ११, सम १३), उल्लाला (विषम - १५, सम - १३) हैं ।
विषम मात्रिक छन्द: जिस मात्रिक छन्द की द्विपदी में चारों चरणों अथवा चतुष्पदी में चारों पदों की मात्रा असमान (अलग-अलग) होती है उसे विषम मात्रिक छन्द कहते हैं। प्रमुख विषम मात्रिक छंद कुण्डलिनी (दोहा १३-११ + रोला ११-१३), छप्पय (रोला ११-१३ + उल्लाला १५ -१३ ) हैं 
दण्डक छंद: वर्णों और मात्राओं की संख्या ३२ से अधिक हो तो बहुसंख्यक वर्णों और स्वरों से युक्त छंद दण्डक कहे जाते है। इनकी संख्या बहुत अधिक है।
वर्णिक छंद: वर्णिक छंद के सभी चरणों में वर्णों की संख्या और लघु-गुरु का क्रम समान रहता है। प्रमुख वर्णिक छंद : प्रमाणिका (८ वर्ण); स्वागता, भुजंगी, शालिनी, इन्द्रवज्रा, दोधक (सभी ११ वर्ण); वंशस्थ, भुजंगप्रयाग, द्रुतविलम्बित, तोटक (सभी१२ वर्ण); वसंततिलका (१४ वर्ण); मालिनी (१५ वर्ण); पंचचामर, चंचला (सभी १६ वर्ण); मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी (सभी १७ वर्ण), शार्दूल विक्रीडित (१९ वर्ण), स्त्रग्धरा (२१ वर्ण), सवैया (२२ से २६ वर्ण), घनाक्षरी (३१ वर्ण) रूपघनाक्षरी (३२ वर्ण), देवघनाक्षरी (३३वर्ण), कवित्त / मनहरण (३१-३३ वर्ण) हैं। वर्णिक छन्द वृत्तों के दो प्रकार हैं- गणात्मक और अगणात्मक।
वर्ण वृत्त: सम छंद को वृत कहते हैं। इसमें चारों चरण समान होते हैं और प्रत्येक चरण में आने वाले लघु गुरु मात्राओं का क्रम निश्चित रहता है। जैसे - द्रुतविलंबित, मालिनी आदि।
गणात्मक वर्णिक छंद: इन्हें वर्ण वृत्त भी कहते हैं। इनकी रचना तीन लघु-दीर्घ वर्णों से बने ८ गणों के आधार पर होती है। इनमें भ, न, म, य शुभ और ज, र, स, त अशुभ माने गए हैं। अशुभ गणों से प्रारंभ होनेवाले छंद में देवतावाची या मंगलवाची शब्द से आरंभ करने पर गणदोष दूर हो जाता है। इन गणों में परस्पर मित्र, शत्रु और उदासीन भाव माना गया है। छंद के आदि में दो गणों का मेल माना गया है।

दण्डकछंद: जिस वार्णिक छंद में २६ से अधिक वर्णों वाले चरण होते हैं उसे दण्डक कहा जाता है। दण्डक छंद के लम्बे चरण की रचना और याद रखना दण्डक वन की पगडण्डी पर चलने की तरह कठिन और सस्वर वाचन करना दण्ड की तरह प्रतीत होने के कारण इसे दण्डक नाम दिया गया है। उदाहरण: घनाक्षरी ३१ वर्ण।
अगणात्मक वर्णिक वृत्त: वे छंद हैं जिनमें गणों का विचार नहीं रखा जाता, केवल वर्णों की निश्चित संख्या का विचार रहता है विशेष मात्रिक छंदों में केवल मात्राओं का ही निश्चित विचार रहता है और यह एक विशेष लय अथवा गति (पाठप्रवाह अथवा पाठपद्धति) पर आधारित रहते हैं। इसलिये ये छंद लयप्रधान होते हैं।
स्वतंत्र छंद और मिश्रित छंद: यह छंद के वर्गीकरण का एक अन्य आधार है।

स्वतंत्र छंद: जो छंद किन्हीं विशेष नियमों के आधार पर रचे जाते हैं उन्हें स्वतंत्र छंद कहा जाता है।
मिश्रित छंद: मिश्रित छंद दो प्रकार के होते है:

(१) जिनमें दो छंदों के चरण एक दूसरे से मिला दिये जाते हैं। प्राय: ये अलग-अलग जान पड़ते हैं किंतु कभी-कभी नहीं भी जान पड़ते।
(२) जिनमें दो स्वतंत्र छंद स्थान-स्थान पर रखे जाते है और कभी उनके मिलाने का प्रयत्न किया जाता है, जैसे कुंडलिया छंद एक दोहा और चार पद रोला के मिलाने से बनता है।
दोहा और रोला के मिलाने से दोहे के चतुर्थ चरण की आवृत्ति रोला के प्रथम चरण के आदि में की जाती है और दोहे के प्रारंभिक कुछ शब्द रोला के अंत में रखे जाते हैं। दूसरे प्रकार का मिश्रित छंद है "छप्पय" जिसमें चार चरण रोला के देकर दो उल्लाला के दिए जाते हैं। इसीलिये इसे षट्पदी अथवा छप्पय (छप्पद) कहा जाता है।
इनके देखने से यह ज्ञात होता है कि छंदों का विकास न केवल प्रस्तार के आधार पर ही हुआ है वरन् कवियों के द्वारा छंद-मिश्रण-विधि के आधार पर भी हुआ है। इसी प्रकार कुछ छंद किसी एक छंद के विलोम रूप के भाव से आए हैं जैसे दोहे का विलोम सोरठा है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवियों ने बहुधा इसी एक छंद में दो एक वर्ण अथवा मात्रा बढ़ा घटाकर भी छंद में रूपांतर कर नया छंद बनाया है। यह छंद प्रस्तार के अंतर्गत आ सकता है।

यति के विचार से छन्द- वर्गीकरण
बड़े छंदों का एक चरण जब एक बार में पूरा नहीं पढ़ा जा सकता, तब यति (रुकने का स्थान) निर्धारित किया जाता है। यति के विचार से छंद दो प्रकार के होते हैं-
(१) यत्यात्मक: जिनमें कुछ निश्चित वर्णों या मात्राओं पर यति रखी जाती है। यह छंद प्राय: दीर्घाकारी होते हैं जैसे दोहा, कवित्त, सवैया, घनाक्षरी आदि।
(२) अयत्यात्मक: इन छंदों में चौपाई, द्रुत, विलंबित जैसे छंद आते हैं। यति का विचार करते हुए गणात्मक वृत्तों में गणों के बीच में भी यति रखी गई है जैसे मालिनी
छंद में संगीत तत्व द्वारा लालित्य का पूरा विचार रखा गया है। प्राय: सभी छंद किसी न किसी रूप में गेय हो जाते हैं। राग और रागिनी वाले सभी पद छंदों में नहीं कहे जा सकते। इसी लिये "गीति" नाम से कतिपय पद रचे जाते हैं। प्राय: संगीतात्मक पदों में स्वर के आरोह तथा अवरोह में बहुधा लघु वर्ण को दीर्घ, दीर्घ को लघु और अल्प लघु भी कर लिया जाता है। कभी-कभी हिंदी के छंदों में दीर्घ ए और ओ जैसे स्वरों के लघु रूपों का प्रयोग किया जाता है।
पदाधार पर छंद-वर्गीकरण:
छंदों को पद (पंक्ति) बद्ध कर रचा जाता है। पंक्ति संख्या के आधार पर भी छंदों को वर्गीकृत किया जाता है।
द्विपदिक छंद: ऐसे छंद दो पंक्तियों में पूर्ण हो जाते हैं। अपने आप में पूर्ण तथा अन्य से मुक्त (असम्बद्ध) होने के कारण इन्हें मुक्तक छंद भी कहा जाता है। दोहा, सोरठा, चौपाई, आदि द्विपदिक छंद हैं जिनमें मात्रा बंधन तथा यति स्थान निर्धारित हैं जबकि उर्दू का शे'र तथा अंग्रेजी का कप्लेट ऐसे द्विपदिक छंद हैं जिसमें मात्रा या यति का बंधन नहीं है।
त्रिपदिक छंद: ३ पंक्तियों में पूर्ण होने वाले छंदों की संस्कृत काव्य में चिरकालिक परंपरा है। हिंदी ने विदेशी भाषाओँ से भीरिक हैं। 
चतुष्पदिक छंद: ४ पंक्तियों के छंदों को हिंदी में मुक्तक, चौपदे आदि कहा जाता है। इनमें मात्रा भार तथा यति का बंधन नहीं होता किन्तु सभी पदों में समान मात्रा होना आवश्यक होता है। उर्दू छंद रुबाई भी चतुष्पदिक छंद है जिसे निर्धारित २४ औज़ान (मानक लयखण्ड) में से किसी एक में लिखा जाता है।
पंचपदिक छंद: जापानी छंद ताँका हिंदी में प्रचार पा रहा है। ताँका संकलन भी प्रकाशित हुए हैं। ताँका मूलत: जापानी छंद है जिसमें ५ पंक्तियाँ होती है।
षटपदिक छंद: ६ पंक्तियों के पदों में कुण्डलिनी सर्वाधिक लोकप्रिय है। कुण्डलिनी की प्रथम २ पंक्तियाँ शेष ४ पंक्तियाँ रोला छंद में होती हैं। 
चौदह पदिक छंद: अंग्रेजी छंद सोनेट की हिंदी में व्यापक पृष्ठभूमि अथवा गहराई नहीं है किन्तु नागार्जुन, भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' आदि कई कवियों ने सॉनेट लिखे हैं। कुछ सॉनेट मैंने भी लिखे हैं। 
अनिश्चित पदिक छंद: अनेक छंद ऐसे हैं जिनका पदभार तथा यति निर्धारित है किन्तु पंक्ति संख्या अनिश्चित है। क

सोमवार, 22 जुलाई 2019

मनहरण घनाक्षरी छन्द

मनहरण घनाक्षरी छन्द
विधान: ८-८-८-७ वर्ण 
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चीनियों को ठोंककर, पाकियों को पीटकर, 
फ़हरा तिरंगा आज, हम मुसकायेगे.
जन गण मन, वंदे मातरम गायेंगे.
सिक्किम भूटान नेपाल की न बात करो,
तिब्बत को भी फिर से, आजाद हम करायेंगे.
भारत से भाग किसी वक्त जो अलग हुए,
एक साथ जोड़ आर्यावर्त हम बनायेंगे.
*

गुरुवार, 5 जुलाई 2018

साहित्य त्रिवेणी: १८ छंद, भाषा, रस और अलंकार

छंद की आधार भूमि काव्य
संजीव वर्मा 'सलिल'
परिचय: अन्यत्र पृष्ठ ३ पर
*
छंद:
छंद की आत्मा ध्वनि और काया काव्य है। काव्य के बिना छंद की प्रतीति दुष्कर और छंद के बिना काव्य का लालित्य / चारुत्व नहीं होता। काव्य के विविध तत्व ही छंद की जड़ें ज़माने के लिए भूमि और छंद की फसल उगने के लिए उर्वरक का कार्य करते हैं। छंद-चर्चा के पूर्व काव्य और छंद के अंतर्संबंध तह काव्य के गुण-दोषों पर दृष्टिपात करना उचित होगा।
मात्रा, वर्ण, विराम/यति, गति, लय तथा तुक (समान उच्चारण) आदि के व्यवस्थित सामंजस्य को छंद कहते हैं। छंदबद्ध कविता सहजता से स्मरणीय, अधिक प्रभावशाली व हृदयग्राही होती है। छंद के २ मुख्य प्रकार मात्रिक (जिनमें मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है) तथा वर्णिक (जिनमें वर्णों की संख्या निश्चित तथा गणों के आधार पर होती है) हैं। छंद को लौकिक-वैदिक, हिंदी-अहिंदी, भारतीय-विदेशी, वाचिक आदि वर्गीकरण भी हैं। छंद के असंख्य उपप्रकार हैं जो ध्वनि विज्ञान तथा गणितीय समुच्चय-अव्यय पर आधृत हैं। वाचस्पतय संस्कृत शब्दकोष के अनुसार 'छदि' में 'इयसुन' प्रत्यय लगने से प्राप्त 'छन्दस' का अर्थ आच्छादित करनेवाला होता है। 'छंदोबद्ध पदं पद्यं' अर्थात छंदबद्ध पंक्ति ही अद्य है। छंद शिव से क्रमश: विष्णु, इंद्र, ब्रहस्पति, मांडव्य, सैतव, यास्क आदि के माध्यम से पिंगल को प्राप्त होना बताया गया है।
वेद को सकल विद्याओं का मूल माना गया है। वेद के ६ अंगों १. छंद, २. कल्प, ३. ज्योतिऽष , ४. निरुक्त, ५. शिक्षा तथा ६. व्याकरण में छंद का प्रमुख स्थान है।
छंदः पादौतु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ कथ्यते।
ज्योतिऽषामयनं नेत्रं निरुक्तं श्रोत्र मुच्यते।।
शिक्षा घ्राणंतुवेदस्य मुखंव्याकरणंस्मृतं।
तस्मात् सांगमधीत्यैव ब्रम्हलोके महीतले।।
वेद का चरण होने के कारण छंद पूज्य है। पग/चरण के बिना मनुष्य कहीं जा नहीं जा सकता, कुछ जान या देख नहीं सकता। चरण /पद के बिना काव्य व छंद को नहीं जाना जा सकता और छंद को जाने बिना वेद में गति नहीं हो सकती। इसलिए छंदशास्त्र का ज्ञान न होने पर मनुष्य पंगुवत है, वह न तो काव्य की यथार्थ गति समझ सकता है न ही शुद्ध रीति से काव्य रच सकता है। छंदशास्त्र को उसके आदिप्रणेता महर्षि पिंगल के नाम पर पिंगल तथा पर्यायवाची शब्दों सर्प, फणि, अहि, भुजंग आदि नामों से संबोधित कर शेषावतार कहा गया है। जटिल से जटिल विषय छंदबद्ध होने पर सहजता से कंठस्थ ही नहीं हो जाता, आनंद भी देता है। सर्प की फुंफकार में ध्वनि का आरोह-अवरोह, गति-यति की नियमितता और छंद में इन लक्षणों की व्याप्ति भी छंद को सर्प व पर्यायवाचियों से संबोधन का कारण है।
नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा।
कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा।।
अर्थात संसार में नर तन दुर्लभ है, विद्या अधिक दुर्लभ, काव्य रचना और अधिक दुर्लभ तथा सुकाव्य-सृजन की शक्ति दुर्लभतम है। काव्य के पठन-पाठन अथवा श्रवण से अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है।
काव्यशास्त्रेण विनोदेन कालो गच्छति धीमताम।
व्यसने नच मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।।
भाषा का सौंदर्य उसकी कविता में निहित होता है। प्राचीन काल में शिक्षा का प्रचार-प्रसार कम होने के कारण काव्य-सृजन केवल कवित्व शक्ति संपन्न प्रतिभावान महानुभावों द्वारा किया जाता था जो श्रवण परंपरा से छंद की लय व प्रवाह आत्मसात कर अपने सृजन में यथावत अभिव्यक्त कर पाते थे। श्रवण, स्मरण व सृजन के अंतराल में स्मृति भ्रम के कारण विधान उल्लंघन होना स्वाभाविक है। वर्तमान काल में शिक्षा का सर्वव्यापी प्रचार-प्रसार होने, भाषा व काव्यशास्त्र से आजीविका न मिलने तथा इन क्षेत्र में विशेष योग्यता अथवा अवदान होने पर भी राज्याश्रय या अलंकरण न होने के कारण सामान्यतः अध्ययनकाल में इनकी उपेक्षा की जाती है तथा कालांतर में काव्याकर्षण होने पर भाषा का व्याकरण-पिंगल समझे बिना छंदहीन व दोषपूर्ण काव्य रचनाकर कवि आत्मतुष्टि पाल लेते हैं जिसका दुष्परिणाम आमजनों में कविता के प्रति अरुचि के रूप में दृष्टव्य है। काव्य के तत्वों रस, छंद, अलंकार आदि से संबंधित सामग्री व उदाहरण पूर्व प्रचलित संस्कृत व अन्य भाषा/बोलियों में होने के कारण उनका आशय हिंदी के वर्तमान रूप तक सीमित जन पूरी तरह समझ नहीं पाते । प्राथमिक स्तर पर अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के चलन ने हिंदी की समझ और घटाई है। छंद रचना के भाषा आधार भूमि का कार्य करती है।
भाषा:
अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या/तथा ध्वनियों की आवश्यकता होती है। भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ। ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ।
चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप।
भाषा सलिला निरंतर करे अनाहद जाप।।
भाषा वह साधन है जिसके माध्यम से हम अपने अनुभूतियाँ, भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों की अनुभूतियाँ, भाव और विचार गृहण कर पाते हैं। यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है।
निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द।
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द ।।
लिपि: विविध ध्वनियों को लेखन सामग्री के माध्यम से किसी पटल पर विशिष्ट संकेतों द्वारा अंकित कर पढ़ा जा सकता है। इन संकेतों को लिपि कहते हैं। लिपि ध्वनि का अंकित रूप है। हिंदी भाषा को देवनागरी लिपि में लिखा जाता है।
व्याकरण (ग्रामर):
व्याकरण: (वि+आ+करण) का अर्थ भली-भाँति समझना है। व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है। भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि, शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेष्ण को जानना आवश्यक है।
वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार।
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार।।
वर्ण /अक्षर: ध्वनि का लघुतम उच्चारित रूप वर्ण है। वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं।
अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण।
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण।।
स्वर (वोवेल्स):
स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता, वह अक्षर है। स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:. स्वर के दो प्रकार १. हृस्व ( अ, इ, उ, ऋ ) तथा दीर्घ ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं।
अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान।
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान।।
व्यंजन (कांसोनेंट्स):
व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते। व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य, र, ल, व्, श), ३. (उष्म - श, ष, स ह) तथा ४. (संयुक्त - क्ष, त्र, ज्ञ) हैं। अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं।
भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव।
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव।।
शब्द: अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है। यह भाषा का मूल तत्व है।
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ।
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ।।
१. अर्थ की दृष्टि से शब्द प्रकार :
अ. सार्थक शब्द : जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि एवं
आ. निरर्थक शब्द : जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि ।
२. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से शब्द प्रकार :
अ. रूढ़ / स्वतंत्र शब्द: यथा भारत, युवा, आया आदि।
आ. यौगिक शब्द: दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोडागाडी आदि एवं
इ. योगरूढ़ शब्द : जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा- दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि ।
३. स्रोत या व्युत्पत्ति के दृष्टि से शब्द प्रकार :
अ. तत्सम शब्द: तद+सम अर्थात उसके समान, मूलतः हिंदी की जननी संस्कृत के शब्द जो हिंदी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा- अंबुज, उत्कर्ष, कक्षा, अग्नि, विद्या, कवि, अनंत, अग्राज, कनिष्ठ, कृपा, क्रोध आदि।
आ. तद्भव शब्द: तत+भव अर्थात संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिंदी में प्रयोग किया जाता है यथा- निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग, अंगुष्ठिका से अंगूठी, अद्य से आज, ग्राम से गाँव, दंड से डंडा, वरयात्रा से बरात, श्यामल से सांवला, सुवरण से स्वर्ण/सोना आदि।
इ. अनुकरण वाचक शब्द: विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा- घोड़े की बोली से हिनहिनाना, बिल्ली की बोली से म्याऊँ कौव से काँव-काँव, कुत्ते से भौंकना आदि।
ई. देशज शब्द: आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिये गये शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा- खिड़की, कुल्हड़ आदि।
उ. द्रविड़ परिवार की भाषाओँ से गृहीत शब्द: तमिल के काप्पी से कोफी, शुरुट से चुरुट, तेलुगु से पिल्ला, अर्क काक, कानून, कुटिल, कुंद, कोण, चतुर, चूडा, तामरस, तूल, दंड, मयूर, माता, मीन मुकुट, लाला, शव आदि।
ऊ. विदेशी शब्द: संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिये गये शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं। यथा- फ़ारसी से कमीज़, पाजामा, देहात, शहर, सब्जी, अंगूर, हलवा, जलेबी, कुर्सी. सख्त, दावा, मरीज़, हकीम आदि लगभग ३००० शब्द। अरबी से अदालत, किताब, कलम, कागज़, शैतान मुकदमा, फैसला आदि। तुर्की से बहादुर, कैंची, बेगम, बाबा, करता, गलीचा, चाकू, गनीमत लाश, सुराग आदि। पश्तो से पठान, गुंडा, डेरा, गड़बड़, नगाड़ा, हमजोली मटरगश्ती आदि। पुर्तगाली से आलमारी, स्त्री, आया, कनस्तर, गोदाम, चाबी, गमला, तौलिया, परात, तंबाकू आदि। जापानी से हाइकु, स्नैर्यु, सायोनारा आदि। अंग्रेजी से इंजिन, मोटर, कैमरा, रेडिओ, फोन, मीटर, होस्टल, फीस, स्टेशन, कंपनी, टीम, परेड, प्रेस, अपील, टाई आदि लगभग ३००० शब्द।
४. प्रयोग के आधार पर:
अ. विकारी शब्द: वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किये जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है। यथा - लड़का, लड़के, लड़कों, लड़कपन, अच्छा, अच्छे, अच्छी, अच्छाइयाँ आदि।
आ. अविकारी शब्द: वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता। इन्हें अव्यय कहते हैं। यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि। इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं।
नदियों से जल ग्रहणकर, सागर करे किलोल।
विविध स्रोत से शब्द ले, भाषा हो अनमोल।।
कविता के तत्वः कविता के २ तत्व बाह्य तत्व (लय, छंद योजना, शब्द योजना, अलंकार, तुक आदि) तथा आंतरिक तत्व (भाव, रस, अनुभूति आदि) हैं।
कविता के बाह्य तत्वः
अ. लयः भाषिक ध्वनियों के उतार-चढ़ाव, शब्दों की निरंतरता व विराम आदि के योग से लय बनती है। कविता में लय के लिये गद्य से कुछ हटकर शब्दों का क्रम संयोजन इस प्रकार करना होता है कि वांछित अर्थ की अभिव्यक्ति भी हो सके। संगीत में समय की समान गति को लय कहते हैं। लय के ३ प्रकार विलंबित, मध्य तथा द्रुत हैं। विलंबित लय अति धीमी और गंभीर होती है। मध्य लय सामान्य होती है। द्रुत लय के ३ प्रकार दुगुन, तिगुन तथा चौगुन हैं। साहित्य में लय से आशय विशिष्ट भाषिक प्रवाह से है। साहित्य में लय का आशय विशिष्ट भाषिक प्रवाह है।
ताल: संगीत में समय की माप ताल से की जाती है। ताल के हिस्सों को विभाग या 'टुकड़ा' कहा जाता है जो छोटे-बड़े हो सकते हैं। टुकड़ा के बोल भारी होने पर उसकी पहली मात्रा पर ताली और हल्के होने पर खाली होती है। ताल की पहली मात्रा को 'सम' कहते है। तबला वादन इसी स्थान से आरंभ होता है तथा गायन इसी स्थान पर समाप्त होता है।
मात्रा: काव्य में ध्वनि को उसके उच्चारण में लगे कम या अधिक समय के आधार पर लघु तथा दीर्घ मात्रा में विभाजित किया गया है। ध्वनि को स्वर-व्यंजन के माध्यम से व्यक्त किये जाने पर अक्षर का उच्चारण होता है। इन्हें ह्रस्व, लघु या छोटा तथा दीर्घ या गुरु कहा जाता है। इनका मात्रा भार क्रमश: १ व २ होता है। संगीत में ध्वनि की उपस्थिति ताल से होती है इसलिए ताल की इकाई को मात्रा कहा जाता है। मात्रा समूह से साहित्य में छंद तथा संगीत में ताल की उत्पत्ति होती है किंतु ये एक दूसरे के पर्याय नहीं सर्वथा भिन्न है।
मात्रा गणना नियम:
१. किसी ध्वनि-खंड को बोलने में लगनेवाले समय के आधार पर मात्रा गिनी जाती है। एकल ध्वनि जैसे चुटकी बजने में लगा समय ईकाई माना गया है।
२. कम समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की एक तथा अधिक समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की दो मात्राएँ गिनी जाती हैंं। तीन मात्रा के शब्द ॐ, ग्वं आदि संस्कृत में हैं, हिंदी में नहीं। एक मात्रा का संकेत I, तथा २ मात्रा का संकेत S है।
३. अ, इ, उ, ऋ तथा इन मात्राओं से युक्त वर्ण की एक मात्रा गिनें। उदाहरण- न = १, अब = १+१ = २, उधर = १+१+१ = ३, ऋषि = १+१= २, उऋण १+१+१ = ३, अनवरत = ५ आदि।
४. शेष वर्णों की दो-दो मात्रा गिनें। जैसे- गा = २, आम = २+१ = ३, काकी = २+२ = ४, पूर्णिमा = ५, कैकेई = २+२+२ = ६, ओजस्विनी = २+२+१+२ = ७, भोलाभाला = २+२+२+२ = ८ आदि।
५. शब्द के आरंभ में आधा या संयुक्त अक्षर हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। जैसे गृह = १+१ = २, प्रिया = १+२ =३ आदि।
६. शब्द के मध्य में आधा अक्षर हो तो उसे पहले के अक्षर के साथ गिनें। जैसे- क्षमा १+२, वक्ष २+१, विप्र २+१, उक्त २+१, प्रयुक्त = १+२+१ = ४ आदि।
७. रेफ को आधे अक्षर की तरह, पूर्वाक्षर के साथ गिनें। बर्र = २+१ = ३, पर्व = २+१ = ३, बर्रैया २+२+२ = ६ आदि।
८. अपवाद स्वरूप कुछ शब्दों के मध्य में आनेवाला आधा अक्षर उच्चारण के आधार बादवाले अक्षर के साथ गिना जाता है। जैसे- तुम्हें = १+ २ = ३, कन्हैया = क+न्है+या = १+२+२ = ५आदि।
९. अनुस्वर (आधे म या आधे न के उच्चारण वाले शब्द) के पहले लघु वर्ण हो तो गुरु हो जाता है, पहले गुरु होता तो कोई अंतर नहीं होता। यथा- अंश = अन्श = अं+श = २+१ = ३. कुंभ = कुम्+भ = २+१ = ३, झं+डा = झन्+डा = झण्+डा = २+२ = ४ आदि।
१०. अनुनासिक (चंद्र बिंदी) से मात्रा में कोई अंतर नहीं होता। धँस = १+१ = २आदि। हँस = १+१ =२, हंस = हं+स = २+१ = ३ आदि।
शब्द-योजनाः कविता में शब्दों का चयन विषय के अनुरूप, सजगता, कुशलता से इस प्रकार किया जाता है कि भाव, प्रवाह तथा गेयता से कविता के सौंदर्य में वृद्धि हो ।
तुकः काव्य पंक्तियों में अंतिम वर्ण तथा ध्वनि में समानता को तुक कहते हैं। अतुकांत कविता में यह तत्व नहीं होता। मुक्तिका या ग़ज़ल में तुक के २ प्रकार तुकांत व पदांत होते हैं जिन्हें उर्दू में क़ाफि़या व रदीफ़ कहते हैं। हिंदी और उर्दू रचनाओं में ध्वन्याक्षरों की भिन्नता के कारण तुक भिन्नता होती है। हिंदी में 'ह' ध्वनि के लिए एक ही वर्ण है जबकि उर्दू में २ 'हे' तथा 'हमजा' पदांत में दो भिन्न वर्ण वाले शब्द नहीं होना चाहिए। इसलिए उर्दूवाले 'हे' तथा 'हमजा' वाले शब्दों की तुक गलत मानते हैं जबकि हिंदी में दोनों के लिए एक ही वर्ण 'ह' है। अत: हिंदीवाले ऐसी तुक सही मानते हैं।तुकांतता देखते समय केवल अंतिम अक्षर नहीं अपितु उसके पूर्व के अक्षर भी देखे जाते हैं।
एकाक्षरी तुकांत: एकांत-दिगंत, आभास-विश्वास, आनन - साजन, सजनी - अवनी, आदि।
दो अक्षरी तुकांत: दिनकर - हितकर, सफल - विफल, आदि।
तीन अक्षरी तुकांत: प्रभाकर - विभाकर आदि।
छंद मंजरी में सौरभ पाण्डेय जी ने तुकांत निर्वहन के ३ प्रकार बताये हैं:
उत्तम: खाइये - जाइये, नमन - गमन आदि।
मध्यम: सूचना - बूझना, सुमति - विपति आदि।
निकृष्ट: देखिये - रोइये, साजन - दीनन आदि।
अलंकारः अलंकार से कविता की सौंदर्य-वृद्धि होती है और वह अधिक चित्ताकर्षक प्रतीत होती है। अलंकार की न्यूनता या अधिकता दोनों काव्य दोष हैं। अलंकार के ३ मुख्य प्रकार शब्दालंकार, अर्थालंकार तथा उभयालंकार के अनेक भेद-उपभेद हैं। अग्निपुराण तथा भोज कृत कंठाभरण के अनुसार: शब्दालंकार: जाति, गति, रीति, वृत्ति, छाया, मुद्रा, उक्ति, युक्ति, भणिति, गुम्फना, शैया, पथिति, यमक, श्लेष, अनुप्रास, चित्र, वाकोन्यास, प्रहेलिका, गूढ़, प्रश्नोत्तर, अध्येय, श्रव्य, प्रेक्ष्य, अभिनय आदि अर्थालंकार जाति, विभावना, हेतु, अहेतु, सूक्ष्म, उत्तर, विरोध, संभव, अन्योन्य, निदर्शन, भेद, समाहित, भरन्ति, वितर्क, मीलित, स्मृति, भाव, प्रत्यक्ष, अनुमान, आप्त वचन, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव आदि तथा उभयालंकार उपमा, रोपक, सामी, संशयोक्ति, अपन्हुति, समाध्ययुक्ति, समासोक्ति, उत्प्रेक्षा, अप्रस्तुत प्रस्तुति, तुल्ययोगिता, उल्लेख, सहोक्ति, समुच्चय, आक्षेप, अर्थान्तरन्यास, विशेष परिष्कृति, दीपक, क्रम, पर्याय, अतिशय, श्लेष, भाविक तथा संसृष्टि हैं। विविध आचार्यों ने शताधिक अलंकार बताए हैं।
कविता के आंतरिक तत्वः
रस: राजशेखर कृत काव्य मीमांसा के अनुसार काव्य विधा शिव से ब्रम्हा, तथा ब्रम्हा से १८ अधिकरण भिन्न-भिन्न ऋषियों को प्राप्त हुए जिन्होंने इनका विकास तथा प्रसार किया "रूपक निरूपणीयं भरत, रसाधिकारिकं नन्दिकेश्वर:"। ये नंदिकेश्वर जबलपुर के समीप बरगी ने निकट के वासी थे।इनका गाँव बरगी बाढ़ के जलाशय में डूब गया तथा इनके द्वारा पूजित शिवलिंग समीपस्थ पहाडी पर शिवालय में स्थापित किया गया है। काव्य को पढ़ने या सुनने से जो अनुभूति (आनंद, दुःख, हास्य, शांति आदि) होती है उसे रस कहते हैं । रस को कविता की आत्मा (रसात्मकं वाक्यं काव्यं), ब्रम्हानंद सहोदर आदि कहा गया है। यदि कविता पाठक को उस रस की अनुभूति करा सके जो कवि को कविता करते समय हुई थी तो वह सफल कविता कही जाती है। रस के ९ प्रकार श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, भयानक, वीर, वीभत्स, शांत तथा अद्भुत हैं। कुछ विद्वान वात्सल्य को दसवाँ रस मानते हैं।
अनुभूतिः गद्य की अपेक्षा पद्य अधिक हृद्स्पर्शी होता है चूंकि कविता में अनुभूति की तीव्रता अधिक होती है इसलिए कहा गया है कि गद्य मस्तिष्क को शांति देता है कविता हृदय को।
भावः रस की अनुभूति करानेवाले कारक को भाव कहते हैं। हर रस के अलग-अलग स्थायी भाव इस प्रकार हैं। श्रृंगार-रति, हास्य-हास्य, करुण-शोक, रौद्र-क्रोध, भयानक-भय, वीर-उत्साह, वीभत्स-जुगुप्सा/घृणा, शांत, निर्वेद/वैराग्य, अद्भुत-विस्मय तथा वात्सल्य-ममता।
काव्य लक्षण: आचार्य भारत ने अपने ग्रंथ 'नाट्य शास्त्र में ३६ काव्य लक्षण बताए हैं: भूषण, अक्षरसंघात, शोभा, उदाहरण, हेतु, संशय, दृष्टांत, प्राप्ति, अभिप्राय, निदर्शन, निरुक्त, सिद्धि, विशेषण, गुणानिपात, अतिशय, तुल्यतर्क, पदोच्चय, दृष्ट, उपद्रुष्ट, विचार, त्द्विपर्यय, भ्रंश, नौने, माला, दाक्षिण्य, गर्हण, अर्थापत्ति, प्रसिद्धि, पृच्छा, सारूप्य, मनोरथ, लेश, क्षोभ, गुणकीर्तन, अनुक्तसिद, प्रिय वचनं।
काव्य प्रयोजन / उद्देश्य: १. प्रीति: 'मुत प्रीति: प्रमदो हर्षो प्रमोदामोद संमदा:' - अमरकोश२/२४। यहाँ प्रीति से आशय काव्यकलाजनित आनंद से है।
आचार्य भरत इसे 'विनोद्जन्य आनंद' कहते हैं। डंडी इसका अर्थ 'काव्यास्वादन व काव्य-विहार कहते हैं। भामह 'कलात्मक उन्मेष व आनंद' को पर्यायवाची मानते हैं। कुंतक प्रीति को 'अन्त्श्चमत्कृति' का फल बताते हैं तो मम्मट 'परिनिवृत्ति' को प्रीति कहते हैं। आनंदवर्धन प्रीति को 'आनंद' कहते हैं। अभिनव गुप्त 'कलात्मक आनंद' को सर्वोच्च मानते हैं। जगन्नाथ इसे 'विनाशोपरांत अद्वैतानंद' कहते हैं। इस मनोदशा को रक्षेखर 'भावसमाधि' कहते है और आचार्य रामचंद्र शुक्ल 'भाव योग' कहते हैं। २. लोकहित: काव्य को लोकहित का माध्यम कहा गया है। राजशेखर के अनुसार काव्य का जन्म विविध कलाओं के योग से है। वामन के अनुसार 'कवि को रचना कर्म में प्रवृत्त होने के लिए विविध कलाओं का ज्ञान होना चाहिए'। भामह की ६४ कलाओं की सूची में 'काव्य लक्षण का ज्ञान' भी है। ३. यश / कीर्ति: कालिदास "मंद: कवि यशप्रार्थी' कहकर यश की कामना करते हैं। डंडी 'यावच्चन्द्रदिवाकरौ' शशि-रवि रहने तक यश की कामना करते हैं। भामह पृथ्वी तथा आकाश में कवि का यश रहने तक देव पद की प्राप्ति बताते हैं।
काव्य दोष: दोषों को गुणों का विपर्यय (एव एव विपर्यस्ता गुणा) कहते हुए १० दोष (गूढ़ार्थ, अर्थान्तर, अर्थविहीन, भिन्नार्थ, एकार्थ, अभिलुप्तार्थ, न्यायदपेत, विषम, विसंधि, शब्दहीन) बताये हैं। आचार्य मम्मट के अनुसार: मुख्यार्थहतिर्दोषो रसश्च मुख्यस्तदाश्रयाद्वाच्यः। / उभयोपयोगिनः स्युः शब्दाद्यास्तेन तेष्वपि सः।। अर्थात् मुख्यार्थ का अपकर्ष करनेवाला कारक दोष है और रस मुख्यार्थ है तथा उसका (रस का) आश्रय वाच्यार्थ का अपकर्षक भी दोष होता है। शब्द आदि (वर्ण और रचना) इन दोनों (रस और वाच्यार्थ) के सहायक होते हैं। अतएव यह दोष उनमें भी रहता है।
आचार्य विश्वनाथ कविराज अपने ग्रंथ साहित्यदर्पण दोष का लक्षण करते हुए कहते हैं- रसापकर्षका दोषाः, अर्थात् रस का अपकर्ष करनेवाले कारक दोष कहलाते हैं।
काव्य प्रदीपकार के शब्दों में नीरस काव्य में वाक्यार्थ के चमत्कार को हानि पहुँचानेवाले कारक दोष हैं- 'नीरसे त्वविलम्बितचमत्कारिवाक्यार्थप्रतीतिविघातका एव दोषाः।' स्पष्ट है कि मुख्यार्थ शब्द, अर्थ और रस के आश्रय से ही निर्धारित होता है। इसलिए काव्य-दोषों के तीन भेद किए गए हैं- शब्ददोष, अर्थदोष और रसदोष। चूँकि शब्ददोष होने से काव्य में प्रयुक्त पद का कोई भाग दूषित होने से पद दूषित होता है, पद के दूषित होने से वाक्य दूषित होता है। अतएव, शब्ददोष के पुनः तीन भेद किए गए हैं- पद-दोष, पदांश-दोष और वाक्य-दोष। दूसरे शब्दों में जो पददोष हैं वे वाक्यदोष भी होते हैं और वाक्यदोष अलग से स्वतंत्र रूप से भी होते हैं। इसके अतिरिक्त एक समास-दोष होते हैं, पर संस्कृत भाषा की समासात्मक प्रवृत्ति होने के कारण ये दोष संस्कृत-काव्यों में ही देखने को मिलते हैं, हिंदी में बहुत कम पाया जाते हैं। अतएव जितने पददोष हैं वे समासदोष भी होते हैं। समास के कारण कुछ दोष स्वतंत्र रूप से समासदोष के अंतर्गत आते हैं। इन दोषों को दो भागों में बाँटा गया है: नित्य-दोष और अनित्य-दोष। नित्य-दोष वे दोष हैं जो सदा बने रहते हैं, उनका समर्थन अनुकरण के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता, जैसे च्युतसंस्कार आदि। अनित्य-दोष वे होते हैं जो एक परिस्थिति में दोष तो हैं, पर दूसरी परिस्थिति में उनका परिहार हो जाता है, जैसे श्रुतिकटुत्व आदि।श्रुतिकटुत्व दोष श्रृंगार वर्णन में दोष है, जबकि वीर, रौद्र आदि रस में गुण हो जाता है।
निम्नलिखित तेरह दोषों को पददोष कहा गया हैः श्रुतिकटु, च्युतसंस्कार, अप्रयुक्त, असमर्थ, निहतार्थ, अनुचितार्थ, निरर्थक, अवाचक, अश्लील, संदिग्ध, अप्रतीतत्व, ग्राम्य और न्यायार्थ।
इसके अतिरिक्त तीन दोष- क्लिष्टत्व, अविमृष्टविधेयांश और विरुद्धमतिकारिता केवल समासगत दोष होते हैं। काव्यप्रकाश में इन्हें दो कारिकाओं में दिया गया है-
दुष्टं पदं श्रुतिकटु च्युतसंस्कृत्यप्रयुक्तमसमर्थम्।
निहतार्थमनुचितार्थं निरर्थकमवाचकमं त्रिधाSश्लीलम्।।
सन्दिग्धमप्रतीतं ग्राम्यं नेयार्थमथ भवेत् क्लिष्टम्।
अविमृष्टविधेयांशं विरुद्थमतिकृत समासगतमेव।।
आचार्य मम्मट के अनुसार काव्य के मुख्य अर्थ (रस) के विधात (बाधक) तत्व ही दोष हैं। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद ने साहित्यदर्पण में "रसापकर्षका दोष:" कहकर रस का अपकर्ष करने वालो तत्वों को दोष बताया है।
काव्य दोषों का विभाजन: काव्यप्रकाश में ७० दोष बताए गये हैं जिन्हें चार वर्गो में विभाजित किया गया है:-
१-शब्ददोष। २- वाक्य दोष। ३- अर्थ दोष। ४- रस दोष।
हिंदी में रीति-काव्य का आधार संस्कृत के लक्षण-ग्रंथ हैं। संस्कृत में कवि और आचार्य, दो अलग-अलग व्यक्ति होते थे, किंतु हिंदी में यह भेद मिट गया। प्रत्येक कवि आचार्य बनने की कोशिश करने लगा, जिसका परिणाम यह हुआ कि वे सफल आचार्य तो बन नहीं पाए, उनके कवित्व पर भी कहीं-कहीं दाग लग गए। इन रीति-ग्रंथकारों में मौलिकता का सर्वथा अभाव रहा। परिणामस्वरूप उनका शास्त्रीय विवेचन सुचारू रूप से नहीं हो सका। काव्यांगों का विवेचन करते हुए हिंदी के आचार्यों ने काव्य के सब अंगों का समान विवेचन नहीं किया । शब्द-शक्ति की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया। रस में भी केवल श्रृंगार को ही प्रधानता दी गई। लक्षण पद्य में देने की परंपरा के कारण इन कवियों के लक्षण अस्पष्ट और कहीं-कहीं अपूर्ण रह गए हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का निष्कर्ष द्रष्टव्य है - "हिंदी में लक्षण-ग्रंथों की परिपाटी पर रचना करने वाले सैकड़ों कवि हुए हैं, वे आचार्य की कोटि में नहीं आ सकते। वे वास्तव में कवि ही थे।" लक्षण ग्रंथों की दृष्टि से कुछ त्रुटियाँ होते हुए भी इन ग्रंथों का कवित्व की दृष्टि से बहुत महत्त्व है। अलंकारों अथवा रसों के उदाहरण के लिए जो पद्य उपस्थित किए गए हैं, वे अत्यंत सरस और रोचक हैं। श्रृंगार रस के जितने उदाहरण अकेले रीतिकाल में लिखे गए हैं, उतने सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में भी उपलब्ध नहीं होते। इनकी कविता में भावों की कोमलता, कल्पना की उड़ान और भाषा की मधुरता का सुंदर समन्वय हुआ है।
काव्य गुण: ध्वनिखंडों के संवेदनात्मक आवेग की आनुभूतिक प्रतीति (सेंसरी आस्पेक्ट ऑफ़ सिलेबल्स) ही काव्य गुण का आरंभ है। काव्य गुण की परिकल्पना काव्य में अभिव्यक्त विविध मन: स्थितियों का बोध करने हेतु ही है। आचार्य भरत के अनुसार १० काव्य गुण श्लेष, प्रसाद, समता, माधुर्य, सुकुमारता, अर्थव्यक्ति, उदारता, ओज, कांति तथा समाधि हैं। भामह तथा आनंदवर्धन ओज (श्लेष, उदारता, प्रसाद, समाधि), प्रसाद (कांति, सुकुमारता) तथा माधुर्य ३ काव्यगुण बताते हैं। वामन १० शब्द गुण व १० अर्थ गुण मानते हैं तो अग्निपुराणकार गुण के ३ भेद शब्द गुण (श्लेष, लालित्य, गांभीर्य, सुकुमारता, उदारता, सत्य, योगिकी), अर्थ गुण (माधुर्य, संविधान, कोमलता, उदारता, प्रौढ़ि, सामयिकत्व) व उभय गुण (प्रसाद, सौभाग्य, यथासंख्य, प्रशस्ति, पाक, राग) बताता है। जगन्नाथ अर्थ गुणों की संख्या अनंत मानते हैं।
आशा है काव्यात्मा छंद से परिचय के पूर्व छंद की देह काव्य का सामान्य परिचय उपयोगी होगा।
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शब्दार्थ: पद = पंक्ति, पदादि पंक्ति के आरंभ में, पदांत = पंक्ति के अंत में, पद = पंक्ति समूह सूर के पद, पदादि = पंक्ति का आरंभ, पदांत = पंक्ति का अंत, गति = एक साथ पढ़े जाना, यति दो शब्दों के बीच विराम, चरण = पंक्ति/पद का अंश, श्लेष = संश्लिष्ट पद योजना, प्रसाद = असंश्लिष्ट पद योजना, समता = असमस्त पद योजना, ओज = समस्त पद योजना, माधुरी = रस सिक्त अनुद्वेजक शब्दावली, अर्थ व्यक्ति = अर्थ स्पष्ट करनेवाली शब्दावली, सुकमार्ता बोलने में सुलभ, उदारता कवियों का सुंदर कथन, कांति = शब्दार्थ रूप काव्य का सुंदर कथन, समाधि = वाक्य; अर्थ; भाव आदि का एकाकार हो जाना, गुण = मन को रस दशा तक पहुँचाने का भाषिक आधार।
संदर्भ: १. भारतीय काव्य शास्त्र -डॉ. कृष्णदेव शर्मा, २. आलोचना शास्त्र -मोहन बल्लभ पंत, ३. कव्य मनीषा -डॉ. भगीरथ मिश्र, ४. आधुनिक पाश्चात्य काव्य और समीक्षा के उपादान -डॉ. नरेंद्र देव वर्मा, ५. भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य सिद्धांत -डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त, ६. पाश्चात्य काव्यशास्त्र: सिद्धांत और वाद -सं. राजकुमार कोहली, ७. भारतीय काव्य शास्त्र योगेन्द्र प्रताप सिंह, ८. अग्नि पुराण गीताप्रेस गोरखपुर।
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