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मंगलवार, 23 जुलाई 2019

कार्यशाला

कार्यशाला
आइये! कविता करें ६ :
.
मुक्तक 
आभा सक्सेना
कल दोपहर का खाना भी बहुत लाजबाब था, = २६
अरहर की दाल साथ में भुना हुआ कबाब था। = २६
मीठे में गाजर का हलुआ, मीठा रसगुल्ला था, = २८
बनारसी पान था पर, गुलकन्द बेहिसाब था।। = २६
लाजवाब = जिसका कोई जवाब न हो, अतुलनीय, अनुपम। अधिक या कम लाजवाब नहीं होता, भी'' से ज्ञात होता है कि इसके अतिरिक्त कुछ और भी स्वादिष्ट था जिसकी चर्चा नहीं हुई. इससे अपूर्णता का आभास होता है. 'भी' अनावश्यक शब्द है.
तीसरी पंक्ति में 'मीठा' और 'मीठे' में पुनरावृत्ति दोष है. गाजर का हलुआ और रसगुल्ला मीठा ही होता है, अतः यहाँ मीठा लिखा जाना अनावश्यक है.
पूरे मुक्तक में खाद्य पदार्थों की प्रशंसा है. किसी वस्तु का बेहिसाब अर्थात अनुपात में न होना दोष है, मुक्तककार का आशय दोष दिखाना प्रतीत नहीं होता। अतः, इस 'बेहिसाब' शब्द का प्रयोग अनुपयुक्त है.
कल दोपहर का खाना सचमुच लाजवाब था = २५
दाल अरहर बाटी संग भर्ता-कवाब था = २४
गाजर का हलुआ और रसगुल्ला सुस्वाद था- = २६
अधरों की शोभा पान बनारसी नवाब था = २५
.

रविवार, 25 नवंबर 2018

karyashala

कार्यशाला
प्रश्न- मीना धर द्विवेदी पाठक
लै ड्योढ़ा ठाढ़े भये श्री अनिरुद्ध सुजान
बाणासुर की सेन को हनन लगे भगवान
इसका अर्थ क्या है?
ड्योढ़ा = ?
*
प्रसंग
श्री कृष्ण के पुत्र अनिरुद्ध पर मोहित होकर दानवराज बाणासुर की पुत्री उषा उसे अचेत कर ले गई और महल में बंदी कर लिया। ज्ञात होने पर कृष्ण उसे छुड़ाने गए। भयंकर युद्ध हुआ।
शब्दार्थ
ड्योढ़ी = देहरी या दरवाज़ा
ड्योढ़ा = डेढ़ गुना, सामान्य से डेढ़ गुना बड़ा दरवाज़ा। दरवाजे को बंद करने के लिए प्रयोग किये जाने वाले आड़े लंबे डंडे को भी ड्योढ़ा कहा जाता है।
पदार्थ
श्री अनिरुद्ध ड्योढ़ा लेकर खड़े हुए और कृष्ण जी बाणासुर की सेना को मारने लगे।
भावार्थ
कृष्ण जी अनिरुद्ध को छुड़ाने के लिए बाणासुर के महल पर पहुँचे। यह जानकर अनिरुद्ध दरवाज़ा बंद करने के लिए प्रयोग किये जानेवाले डंडे को लेकर दरवाजे पर आ गये। बाणासुर की सेना ने रोका तो भगवान सेना का वध करने लगे।
*
संजीव,
२० - ११ - २०१८

शनिवार, 16 जून 2018

कार्यशाला

कार्यशाला:
कुछ अपनी, कुछ आपकी
*
मिला था ईद पे उससे गले हुलसकर मैं
किसे पता था वो पल में हलाल कर देगा
---------------------
ये मेरी तिश्नगी, लेकर कहाँ चली आई?
यहाँ तो दूर तक सहरा दिखाई देता है.
- डॉ.अम्बर प्रियदर्शी
चला था तोड़ के बंधन मिलेगी आजादी
यहाँ तो सरहदी पहरा दिखाई देता है.
-संजीव वर्मा 'सलिल'
-----------------------------------
तिश्नगी का न पूछिए आलम
मैं जहाँ हूँ, वहाँ समंदर है.
- अम्बर प्रियदर्शी
राह बारिश की रहे देखते सूने नैना
क्या पता था कि गया रीत सारा अम्बर है.
-संजीव वर्मा 'सलिल'
salil.sanjiv@gmail.com
७९९९५५९६१८

गुरुवार, 25 जनवरी 2018

कार्यशाला: लता यादव - संजीव

कार्यशाला:
एक कविता - दो कवि
*
लता यादव
मैं क्या जानूं बड़ी बड़ी गहरी बातों को मैं क्या जानूं मन में उठते जज्बातों को
लहर संग मैं उठती गिरती लहर सदृश ही चाँद पकड़ने निकली पूनम की रातों को
कभी लगे अम्बर में खेले कोई छौना
कभी लगे ये तो है मेरा स्वप्न सलोना
अरे! याद आया बाबा ने दिलवाया जो
अम्बर के हाथों में मेरा वही खिलौना
संजीव
चंदा कूद पड़ा नभ से सरवर में आया
पकड़ा हाथों में, गुम होकर मुझे छकाया
मैं नटखट, वह चंचल कोई हार न माने
रूठ चंद्रिका गयी, गया वह उसे मनाने
हुई अमावस काली मन को तनिक न भाए
बादल जाकर मेरा चंदा फिर ले आए
अब न चंद्रिका से मैं झगड़ा कभी करूँगी
स्नेह सलिल तट लता बनूँगी, खूब खिलूँगी
लता
हौले से जो लहर उठी नभ से टकराई
चंदा की कोई युक्ति फिर काम न आई
संजीव
झिलमिल-झिलमिल बहा नीर ज्यों चाँदी पिघली
हाथ न आई, झट से फिसल गयी फिर मछली
***

शुक्रवार, 5 जनवरी 2018

kundaliya

कार्यशाला:
कुण्डलिया एक : कवि दो
राधा मोहन को जपे, मोहन राधा नाम।
अनहोनी फिर भी हुई, पीड़ा उम्र तमाम।। -सुनीता सिंह
पीड़ा उम्र तमाम, सहें दोनों मुस्काते।
हरें अन्य की पीर, ज़िंदगी सफल बनाते।।
श्वास सुनीता आस, हुई संजीव अबाधा।
मोहन राधा नाम, जपे मोहन को राधा।। -संजीव
***

कुण्डलिया

कार्यशाला:
एक कुण्डलिया : दो कवि
तन को सहलाने लगी, मदमाती सी धूप
सरदी हंटर मारती, हवा फटकती सूप -शशि पुरवार

हवा फटकती सूप, टपकती नाक सर्द हो
हँसती ऊषा कहे, मर्द को नहीं दर्द हो
छोड़ रजाई बँधा, रहा है हिम्मत मन को
लगे चंद्र सा, सूर्य निहारे जब निज तन को - संजीव
***  

मंगलवार, 26 दिसंबर 2017

karyashala: navgeet

कार्यशाला
नवगीत
सुनीता सिंह
"ताजा हो ले" बोझ गिराकर हल्का हो ले। ऐ दिल थोड़ा ताजा हो ले। रफ्ता रफ्ता धीरे-धीरे। तू कितनी दूर चला आया।। कैसी-कैसी पगडंडी से। चलकर नीम अकेला आया।। तू ही अपना राजा हो ले।। ऐ दिल थोड़ा ताजा हो ले ।। आकर-जाते जाकर-आते । पल कैसे इतने बीत गये।। लड़ते भिड़ते रोते हँसते। युग सावन कितने रीत गये।। उम्मीदों का बाजा हो ले। ऐ दिल थोड़ा ताजा हो ले ।। उठते गिरते गिरते उठते। चलना तो तू भी सीख गया ।। तूफां फिसलन लाख करे पर। तू पाँव जमाना सीख गया।। तू अपना खुद ख्वाजा हो ले। ऐ दिल थोड़ा ताजा हो ले ।।
मूल रचना
*****
"ताजा हो ले"
प्यास बुझाने माजा हो ले। ऐ दिल! थोड़ा ताजा हो ले। रफ्ता-रफ्ता धीरे-धीरे। कितनी दूर चला आया।। कैसी-कैसी पगडंडी से नीम अकेला ही आया।। तन जा तन्नक राजा हो ले।। ऐ दिल! थोड़ा ताजा हो ले ।। आकर-जाते जाकर-आते । पल जैसे युग बीत गये।। लड़ते-भिड़ते रोते-हँसते सावन कितने रीत गये।। उम्मीदों का बाजा हो ले। ऐ दिल! थोड़ा ताजा हो ले ।। उठते-गिरते गिरते-उठते। चलना तू भी सीख गया ।। तूफां फिसलन लाख करे तू पाँव जमाना सीख गया।। खुद बन्दा, खुद ख्वाजा हो ले। ऐ दिल थोड़ा ताजा हो ले ।।
(कुछ बदलाव के बाद)
***

बुधवार, 27 सितंबर 2017

bundeli muktika

कार्यशाला 
सवाल-जवाब 
*
सच कहूँ तो चोट उन को लगती है
झूठ कहने से जुबान मेरी जलती है - राज आराधना 
*
न कहो सच, न झूठ मौन रहो
सुख की चाहत जुबान सिलती है -संजीव
*

मुक्तिका बुंदेली में
*
पाक न तन्नक रहो पाक है?
बाकी बची न कहूँ धाक है।।
*
सूपनखा सें चाल-चलन कर
काटी अपनें हाथ नाक है।।
*
कीचड़ रहो उछाल हंस पर
मैला-बैठो दुष्ट काक है।।
*
अँधरा दहशतगर्द पाल खें
आँखन पे मल रओ आक है।।
*
कल अँधियारो पक्का जानो
बदी भाग में सिर्फ ख़ाक है।।
*
पख्तूनों खों कुचल-मार खें
दिल बलूच का करे चाक है।।
*
२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४ 
salil.sanjiv@gmail.com
divyanarmada.blogspot.com 
#हिंदी_ब्लॉगर

बुधवार, 30 अगस्त 2017

doha karyashala

कार्यशाला:
चर्चा डॉ. शिवानी सिंह के दोहों पर
*
गागर मे सागर भरें भरें नयन मे नीर|
पिया गए परदेश तो कासे कह दे पीर||
तो अनावश्यक, प्रिय के जाने के बाद प्रिया पीर कहना चाहेगी या मन में छिपाना? प्रेम की विरह भावना को गुप्त रखना जाना करुणा को जन्म देता है.
.
गागर मे सागर भरें, भरें नयन मे नीर|
पिया गए परदेश मन, चुप रह, मत कह पीर||
*
सावन भादव तो गया गई सुहानी तीज|
कौनो जतन बताइए साजन जाए पसीज||
साजन जाए पसीज = १२
सावन-भादों तो गया, गई सुहानी तीज|
कुछ तो जतन बताइए, साजन सके पसीज||
*
प्रेम विरह की आग मे झुलस गई ये गात|
मिलन भई ना सांवरे उमर चली बलखात||
गात पुल्लिंग है., सांवरा पुल्लिंग, नारी देह की विशेषता उसकी कोमलता है, 'ये' तो कठोर भी हो सकता है.
प्रेम-विरह की आग में, झुलस गया मृदु गात|
किंतु न आया सांवरा, उमर चली बलखात||
*
प्रियतम तेरी याद में झुलस गई ये नार|
नयन बहे जो रात दिन भया समुन्दर खार||
.
प्रियतम! तेरी याद में, मुरझी मैं कचनार|
अश्रु बहे जो रात-दिन, हुआ समुन्दर खार||
कचनार में श्लेष एक पुष्प, कच्ची उम्र की नारी,
नयन नहीं अश्रु बहते हैं, जलना विरह की अंतिम अवस्था है, मुरझाना से सदी विरह की प्रतीति होती है.
*
अब तो दरस दिखाइए, क्यों है इतनी देर?
दर्पण देखूं रूप भी ढले साँझ की बेर|
क्यों है इतनी देर में दोषारोपण कर कारण पूछता है. दर्पण देखना सामान्य क्रिया है, इसमें उत्कंठा, ऊब, खीझ किसी भाव की अभिव्यक्ति नहीं है. रूप भी अर्थात रूप के साथ कुछ और भी ढल रहा है, वह क्या है?
.
अब तो दरस दिखाइए, सही न जाए देर.
रूप देख दर्पण थका, ढली साँझ की बेर
सही न जार देर - बेकली का भाव, रूप देख दर्पण थका श्लेष- रूप को बार-बार देखकर दर्पण थका, दर्पण में खुद को बार-बार देखकर रूप थका
*
टिप्पणी- १३-११ मात्रावृत्त, पदादि-चरणान्त व पदांत का लघु गुरु विधान-पालन या लय मात्र ही दोहा नहीं है. इन विधानों से दोहा की देह निर्मित होती है. उसमें प्राण संक्षिप्तता, सारगर्भितता, लाक्षणिकता, मर्मबेधकता तथा चारुता के पञ्च तत्वों से पड़ते हैं. इसलिए दोहा लिखकर तत्क्षण प्रकाशन न करें, उसका शिल्प और कथ्य दोनों जाँचें, तराशें, संवारें तब प्रस्तुत करें.
***

गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

chhand bahar ka mool hai

कार्यशाला-
​​
​​
छंद बहर का मूल है- २.
​​
*
उर्दू की १९ बहरें २ समूहों में वर्गीकृत की गयी हैं।
१. मुफरद बहरें-
इनमें एक ही अरकान या लय-खण्ड की पुनरावृत्ति होती है।
इनके ७ प्रकार (बहरे-हज़ज सालिम, बहरे-ऱज़ज सालिम, बहरे-रमल सालिम, बहरे-कामिल, बहरे-वाफिर, बहरे-मुतक़ारिब तथा बहरे-मुतदारिक) हैं।
२. मुरक्कब बहरें-
इनमें एकाधिक अरकान या लय-खण्ड मिश्रित होते हैं।
इनके १२ प्रकार (बहरे-मनसिरह, बहरे-मुक्तज़िब, बहरे-मुज़ारे, बहरे-मुजतस, बहरे-तवील, बहरे-मदीद, बहरे-बसीत, बहरे-सरीअ, बहरे-ख़फ़ीफ़, बहरे-जदीद, बहरे-क़रीब तथा बहरे-मुशाकिल) हैं।
*
ख. बहरे-मनसिरह
बहरे-मनसिरह मुसम्मन मतवी मक़सूफ़-
शायरों ने इस बहर का प्रयोग बहुत कम किया है। इसके अरकान 'मुफ़तइलुन फ़ाइलुन मुफ़तइलुन फ़ाइलुन' (मात्राभार ११११२ २१२ ११११२ २१२) हैं।
यह १६ वर्णीय अथाष्टिजातीय छंद है जिसमें ८-८ पर यति तथा पदांत में रगण (२१२) का विधान है।
यह २२ मात्रिक महारौद्र जातीय छंद है जिसमें ११-११ मात्राओं पर यति तथा पदांत में २१२ है।
उदाहरण-
१.
जब-जब जो जोड़ते, तब-तब वो छोड़ते
कर-कर के साथ हैं, पग-पग को मोड़ते
कर कुछ तू साधना, कर कुछ आराधना
जुड़-जुड़ जाता वही, जिस-जिस को तोड़ते
२.
निकट हमें देखना, सजन सुखी लेखना
सजग रहो हो कहीं, सलवट की रेख ना

उर्दू व्याकरण के अनुसार गुरु के स्थान पर २ लघु या दो लघु के स्थान पर गुरु मात्रा का प्रयोग करने पर छंद का वार्णिक प्रकार बदल जाता है जबकि मात्रिक प्रकार तभी बदलता है जब यह सुविधा पदांत में ली गयी हो। हिंदी पिंगल-नियम यह छूट नहीं देते। उर्दू का एक उदाहरण देखें-
१.
यार को क़ा/सिद मिरे/जाके अगर/देखना
मेरी तरफ/से भी तू/ एक नज़र/देखना
(सन्दर्भ ग़ज़ल रदीफ़-काफ़िया और व्याकरण, डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल')
=============

बुधवार, 28 दिसंबर 2016

chhand bahar ka mool hai-1

कार्यशाला-
छंद बहर का मूल है- १.
*
उर्दू की १९ बहरें २ समूहों में वर्गीकृत की गयी हैं।
१. मुफरद बहरें-
इनमें एक ही अरकान या लय-खण्ड की पुनरावृत्ति होती है।
इनके ७ प्रकार (बहरे-हज़ज सालिम, बहरे-ऱज़ज सालिम, बहरे-रमल सालिम, बहरे-कामिल, बहरे-वाफिर, बहरे-मुतक़ारिब तथा बहरे-मुतदारिक) हैं।
२. मुरक्कब बहरें-
इनमें एकाधिक अरकान या लय-खण्ड मिश्रित होते हैं।
इनके १२ प्रकार (बहरे-मनसिरह, बहरे-मुक्तज़िब, बहरे-मुज़ारे, बहरे-मुजतस, बहरे-तवील, बहरे-मदीद, बहरे-बसीत, बहरे-सरीअ, बहरे-ख़फ़ीफ़, बहरे-जदीद, बहरे-क़रीब तथा बहरे-मुशाकिल) हैं।
*
क. बहरे-मनसिरह
बहरे-मनसिरह मुसम्मन मतबी मौक़ूफ़-
इस बहर में बहुत कम लिखा गया है। इसके अरकान 'मुफ़तइलुन फ़ायलात मुफ़तइलुन फ़ायलात' (मात्राभार ११११२ २१२१  ११११२ २१२१) हैं।
यह १८ वर्णीय अथधृति जातीय शारद छंद है जिसमें ९-९ पर यति तथा पदांत में जगण (१२१) का विधान है।
यह २४ मात्रिक अवतारी जातीय छंद है जिसमें १२-१२ मात्राओं पर यति तथा पदांत में १२१ है।
उदाहरण-
१.
थक मत, बोझा न मान, कदम उठा बार-बार
उपवन में शूल फूल, भ्रमर कली पे निसार
पगतल है भू-बिछान, सर पर है आसमान
'सलिल' नहीं भूल भूल, दिन-दिन होगा सुधार
२.
जब-जब तूने कहा- 'सच', तब झूठा बयान
सच बन आया समक्ष, विफल हुआ न्याय-दान
उर्दू व्याकरण के अनुसार गुरु के स्थान पर २ लघु या दो लघु के स्थान पर गुरु मात्रा का प्रयोग करने पर छंद का वार्णिक प्रकार बदल जाता है जबकि मात्रिक प्रकार तभी बदलता है जब यह सुविधा पदांत में ली गयी हो। हिंदी पिंगल-नियम यह छूट नहीं देते।
३.
अरकान 'मुफ्तइलुन फ़ायलात मुफ्तइलुन फ़ायलात' (मात्राभार २११२ २१२१  २११२ २१२१)
क्यों करते हो प्रहार?, झेल सकोगे न वार
जोड़ नहीं, छीन भी न, बाँट कभी दे पुकार
कायम हो शांति-सौख्य, भूल सकें भेद-भाव
शांत सभी हों मनुष्य, किस्मत लेंगे सुधार
४.
दिल में हम अप/ने नियाज़/रखते हैं सो/तरह राज़
सूझे है इस/को ये भेद/जिसकी न हो/चश्मे-कोर
प्रथम पंक्ति में ए, ओ, अ की मात्रा-पतन दृष्टव्य।
(सन्दर्भ ग़ज़ल रदीफ़-काफ़िया और व्याकरण, डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल')
=============
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                             

सोमवार, 12 दिसंबर 2016

chhand - bahar

कार्यशाला
छंद बहर दोउ एक हैं
२ (रगण लघु मगण) = २ (राजभा लघु मातारा) = २ (२१२ १ २२२)= १४ वर्ण / २४ मात्रा, पदांत २२२    
सूत्र- २ x रलम
चौदह वर्णीय शर्करी जातीय छंद / चौबीस  मात्रीय अवतारी जातीय छंद
बहर- फाइलुं मुफाईलुं फाइलुं मुफाईलुं = २१२ १२२२
*
मुक्तक
मौन क्यों धरा?, तोड़ो, सेतु बात का जोड़ो
मंजिलें नहीं सीधी, राह को सदा मोड़ो
बात-बात में रूठे, बात-बात में माने
रूपसी लुभाती है, हाथ थाम ना छोड़ो
*
रूप की अदा प्यारी, रूपसी लगे न्यारी
होश होश खो बैठा, जोश तप्त चिंगारी
मौन ही रहा मानी, मूक हो रही बानी
रात नींद की बैरी, वाक् धार दोधारी
*
बात ठीक बोलूँगा, राज मैं न खोलूँगा
काम-काज क्या बोलो, व्यर्थ मैं न डोलूँगा
बात कायदे की हो, ना कि फायदे की हो
बाध्यता न मानूँ  मैं, बोल-बोल तोलूँगा
*
साम्य-
अ. २(गुरु जगण मगण) = २ (गुरु जभान मातारा) = २ (२ १२१ २२२) = १४ वर्ण/ २४ मात्रा, पदांत २२२,
सूत्र- २ x गजम,

आ. २(रगण यगण गुरु) २ (राजभा यमाता गुरु) = २ (२१२ १२२ २ )= १४ वर्ण/ २४मात्रा, पदांत २२२,
सूत्र- २ x रयग   

शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

chhand-bahar 3

कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं ३
*
मुक्तिका
चलें साथ हम
(छंद- तेरह मात्रिक भागवत जातीय, अष्टाक्षरी अनुष्टुप जातीय छंद, सूत्र ययलग )
[बहर- फऊलुं फऊलुं फअल १२२ १२२ १२, यगण यगण लघु गुरु ]
*
चलें भी चलें साथ हम 
करें दुश्मनों को ख़तम 
*
न पीछे हटेंगे कदम 
न आगे बढ़ेंगे सितम 
*
न छोड़ा, न छोड़ें तनिक 
सदाचार, धर्मो-करम 
*
तुम्हारे-हमारे सपन
हमारे-तुम्हारे सनम
*
कहीं और है स्वर्ग यह
न पाला कभी भी भरम
***

बुधवार, 16 नवंबर 2016

chhnd bahar dou ek hain

कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं १
*
गीत
करेंगे वही
(छंद- अष्ट मात्रिक वासव जातीय, पंचाक्षरी)
[बहर- फऊलुन फ़अल १२२ १२]
*
करेंगे वही
सदा जो सही
*
न पाया कभी
न खोया कभी
न जागा हुआ
न सोया अभी
वरेंगे वही
लगे जो सही
करेंगे वही
सदा जो सही
*
सुहाया वही
लुभाया वही
न खोया जिसे
न पाया कभी
तरेंगे वही
बढ़े जो सही
करेंगे वही
सदा जो सही
*
गिराया हुआ
उठाया नहीं
न नाता कभी
भुनाया, सही
डरेंगे वही
नहीं जो सही
करेंगे वही
सदा जो सही
*
इस लय पर रचनाओं (मुक्तक, हाइकु, ग़ज़ल, जनक छंद आदि) का स्वागत है।

मंगलवार, 11 अक्टूबर 2016

muktak

मुक्तक
*
पाक न तन्नक रहो पाक है?
बाकी बची न कहूँ धाक है।। 
सूपनखा सें चाल-चलन कर 
काटी अपनें हाथ नाक है।।
*

लाजवाब आप हो गुलाब हुए
स्नेह की अनपढ़ी किताब हुए 
हमको उत्तर नहीं सूझा जब भी 
आपके प्रश्न ही जवाब हुए

(आप = स्वयं, आत्मा सो परमात्मा = ईश्वर)
*
हाय रे! हुस्न रुआंसा क्यों है? 
ख्वाब कोई हुआ बासा क्यों है?
हास्य-जिंदादिली उपहार समझ 
दूर श्वासा से हुलासा क्यों है?

*
प्रीत की रीत सरस गीत हुई
मीत सँग श्वास भी संगीत हुई
आस ने प्यास को बुझने न दिया
बिन कहे खूब बातचीत हुई
*
क्या कहूँ, किस तरह कहूँ बोलो?
नित नई कल्पना का रस घोलो
रोक देना न कलम प्रभु! मेरी
छंद ही श्वास-श्वास में घोलो
*
छंद समझे बिना कहे जाते
ज्यों लहर-साथ हम बहे जाते
बुद्धि का जब अधिक प्रयोग किया
यूं लगा घाट पर रहे जाते
*
गेयता हो, न हो भाव रहे
रस रहे, बिम्ब रहे, चाव रहे
बात ही बात में कुछ बात बने
बीच पानी में 'सलिल' नाव रहे
*
छंद आते नहीं मगर लिखता
देखने योग्य नहीं, पर दिखता
कैसा बेढब है बजारी मौसम
कम अमृत पर अधिक गरल बिकता
*
छंद में ही सवाल करते हो
छंद का क्यों बवाल करते हो?
है जगत दन्द-फन्द में उलझा
छंद देकर निहाल करते हो
*
जीवन की आपाधापी ही है सरगम-संगीत 
रास-लास परिहास इसी में मन से मन की प्रीत 
जब जी चाहे चाहों-बाँहों का आश्रय गह लो 
आँख मिचौली खेल समय सँग, हँसकर पा लो जीत
*

छंद-छंद में बसे हैं, नटखट आनंदकंद
भाव बिम्ब रस के कसे कितने-कैसे फन्द
सुलझा-समझाते नहीं, कहते हैं खुद बूझ
तब ही सीखेगा 'सलिल' विकसित होगी सूझ
*
खून न अपना अब किंचित बहने देंगे
आतंकों का अरि-खूं से बदला लेंगे
सहनशीलता की सीमा अब ख़त्म हुई
हर ईंटे के बदले में पत्थर देंगे
*
खून न अपना अब किंचित बहने देंगे
आतंकों का अरि-खूं से बदला लेंगे
सहनशीलता की सीमा अब ख़त्म हुई
हर ईंटे के बदले में पत्थर देंगे
* ·
कहाँ और कैसे हो कुछ बतलाओ तो
किसी सवेरे आ कुण्डी खटकाओ तो
बहुत दिनों से नहीं ठहाके लगा सका
बहुत जल चुका थोड़ा खून बढ़ाओ तो
*
हाँ कह दूँ तो पत्नी पीटे, झूठ अगर ना बोलूँ
करूँ वंदना प्रेम आपसे है रहस्य क्यों खोलूँ ?
रोना है सौभाग्य हमारा, सब तनाव मिट जाता
क्यों न हास्य कर प्रेम-तराजू पर मैं खुद को तोलूँ
*

रचनामृत का पान किया है मनुआ हुलस गया 
गीत, गज़ल, कविता, छंदों से जियरा पुलक गया 
समाचार, लघुकथा, समीक्षा चटनी, मीठा, पान 
शब्द-भोज से तृप्त आत्मा-पंछी कुहुक गया 
*

मुक्तक एक-रचनाकार दो 
*
बुझी आग से बुझे शहर की, हों जो राख़ पुती सी रातें 
दूर बहुत वो भोर नहीं अब, जो लाये उजली सौगातें - आभा खरे, लखनऊ 
सभी परिंदों सावधान हो, बाज लगाए बैठे घातें 
रोक सकें सरकारों की अब, कहाँ रहीं ऐसी औकातें? - संजीव, जबलपुर

karyashala

कार्य शाला- १२ 
प्रश्न-उत्तर 
आप अपने उत्तर समान मात्रा-भार और तुक की पंक्तियों में दें। 
*
जो न लिखते हैं,
न पढ़ते हैं,
वे क्या करते हैं ? - अर्पित अनाम
*
जो न लिखते हैं,
न पढ़ते हैं
वे संसद में बैठकर
देश गढ़ते हैं। -संजीव
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karyashala

कार्यशाला १० 
पैरोडी
नीचे एक चित्रपटीय गीत है। इसका आनंद लें। चाहें तो इसकी पैरोडी बनाइये। 
१. हर मात्रा गिनिये, तुक मिलान पर ध्यान दें। मात्राओं में लघु-गुरु का क्रम देखें। २. शब्दों को आगे-पीछे करिये, इससे लघु-गुरु का क्रम बदलेगा। 
३. ध्यान से देखें- क्या शब्द बदलने का लय पर कोई प्रभाव पड़ता है? 
४. इसमें कौन-कौन से अलंकार हैं? पहचानिये। 
५. गलतियाँ खोजिये।
उत्तर टिप्पणी में अंकित करें।
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गीत-
ये रातें, ये मौसम, नदी का किनारा, ये चंचल हवा
कहा दो दिलों ने, के मिलकर कभी हम ना होंगे जुदा
ये क्या बात है, आज की चाँदनी में
के हम खो गये, प्यार की रागनी में
ये बाहों में बाहें, ये बहकी निगाहें
लो आने लगा जिंदगी का मज़ा
सितारों की महफ़िल ने कर के इशारा
कहा अब तो सारा, जहां है तुम्हारा
मोहब्बत जवां हो, खुला आसमां हो
करे कोई दिल आरजू और क्या
कसम है तुम्हे, तुम अगर मुझ से रूठे
रहे सांस जब तक ये बंधन ना टूटे
तुम्हे दिल दिया है, ये वादा किया है
सनम मैं तुम्हारी रहूंगी सदा
-------- फिल्म –‘दिल्ली का ठग’ 1958
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पैरोडी 
है कश्मीर जन्नत, हमें जां से प्यारी, हुए हम फ़िदा ३० 
ये सीमा पे दहशत, ये आतंकवादी, चलो दें मिटा ३१ 
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ये कश्यप की धरती, सतीसर हमारा २२ 
यहाँ शैव मत ने, पसारा पसारा २० 
न अखरोट-कहवा, न पश्मीना भूले २१ 
फहराये हरदम तिरंगी ध्वजा १८ 

अमरनाथ हमको, हैं जां से भी प्यारा २२ 
मैया ने हमको पुकारा-दुलारा २० 
हज़रत मेहरबां, ये डल झील मोहे २१ 
ये केसर की क्यारी रहे चिर जवां २० 
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लो खाते कसम हैं, इन्हीं वादियों की २१ 
सुरक्षा करेंगे, हसीं घाटियों की २० 
सजाएँ, सँवारें, निखारेंगे इनको २१ 
ज़न्नत जमीं की हँसेगी सदा १७ 
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