कुल पेज दृश्य

पुष्पा जोशी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
पुष्पा जोशी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 14 फ़रवरी 2021

कार्यशाला दोहा+रोला=कुंडलिया

कार्यशाला
दोहा+रोला=कुंडलिया
*
"बाधाओं से भागना, हिम्मत का अपमान।
बाधाओं का सामना, वीरों की पहचान।" -पुष्पा जोशी
वीरों की पहचान, रखें पुष्पा मन अपना
जोशीली मन-वृत्ति, करें पूरा हर सपना
बने जीव संजीव, जीतकर विपदाओं से
सलिल मिटा जग तृषा, जूझकर बाधाओं से  - सलिल 
*

बुधवार, 4 सितंबर 2019

कहानी पितर डॉ. पुष्पा जोशी

कहानी
पितर
डॉ. पुष्पा जोशी


मुझे लगता है कौए को हमेशा हेय दृष्टि से ही देखा जाता रहा है । उसकी काँव-काँव की कर्कश आवाज जब भी कानों पडती है लोगों का मुँह बन जाता है और बरबस मुँह से निकल जाता है, कहाँ से टपक गया कलमुँहा ?? किसी के सिर पर बैठ जाए तब तो पक्का अपशकुन .......कहते हैं जिसके सिर पर बैठता है उसकी मृत्यु निश्चित .... हमारे समय में तो रिश्तेदारों को तार
भिजवा दिया जाता था कि फलाना परलोक सिधार गया और जब तक वे रो-धोकर गोलोकवासी के घर जाने का प्रोग्राम बनाते थे तब तक दूसरा तार पहुँच जाता था कि सब ठीक-ठाक है……नासपिटे कौए के कारण आपको परेशान होना पडा .... सिर पर बैठ गया था। हमारे शास्त्रों में तो कौए की भर्त्सना कुछ इस प्रकार की गई है‌ ‌–

काकस्य गात्रं यदि काञ्चनस्य , माणिक्यरत्नं यदि चञ्चुदेशे।
ऐकैकपक्षे ग्रथितं मणिनां ,तथापि काको न तु राजहंस:

अर्थात् कौए का शरीर यदि सोने का हो जाए ,चोंच के स्थान पर माणिक्य और रत्न हो जाए, एक-एक पंख में मोतियों का गुम्फन हो तो भी कौआ राजहंस तो नही हो जाता।

यही कौआ हरकारे का काम भी करता आया है, जिस किसी की मुँडेर पर सुबह-सुबह बैठकर आवाज दे तो समझ लीजिए घर में कोई मेहमान आने वाला है। सबसे अधिक सम्मान तो उसे पितृपक्ष में प्राप्त होता है। हमारे पितर कौए के रूप में ही पूजे जाते हैं।

आज हरिया कौए के सभी मित्र पितृपक्ष में अपने–वंशजों की बाट जोह रहे हैं। उनके बच्चे इन दिनों उनका श्राद्ध करते हैं, उन्हें तृप्त करने के लिए खीर-पूडी और उनके इप्सित खाद्यों का भोग लगाते हैं। वर्ष में सोलह दिन शास्त्रों में पित्रों के लिए सुरक्षित किए गए हैं। इन दिनों देव भी सो जाते हैं। पितरों और उनके बच्चों के बीच कोई भी दख़ल देने वाला नही होता। याने जीते जी माता-पिता को खाना नही खिलाया तो पितृपक्ष में उन्हें तृप्त करना ही होगा। हरिया की मृत्यु पिछले वर्ष हुई थी। उसके सामने पहला पितृपक्ष पडा है।

हरिया जब मनुज योनि में था तब अपने पूर्वजों का खूब विधि –विधान से श्राद्ध किया करता था। माता-पिता की सेवा को उसने परम कर्तव्य माना था। जब तक माता-पिता जीवित रहे पहले उन्हें खिलाता फिर स्वयं खाता। रात में जब-तक उनकी चरण-सेवा न कर लेता खटिया न पकडता। पत्नी भी साध्वी रूपा सास-ससुर की सेवा पूरे मनोयोग से करती थी। बच्चों में भी उनके ही संस्कार पडे। परंतु जैसे-जैसे वे बडे होने लगे मनमानी करने लगे। पढाया-लिखाया अच्छे पद प्राप्त हुए, अपनी मर्जी से शादी-ब्याह किए। पढी-लिखी बहुएँ घर में आ गईं थीं। घर के बडे-बूढों में अब खोट निकलने लगे। रीति- रिवाजों की दुहाई दी जाने लगी। परम्पराएं, शास्त्रों की बातें अखरने लगी। हरिया बच्चों को समझाने की कोशिश करता तो सब उसकी बातों को काट
देते । धीरे-धीरे वह चुप रहने लगा। बहुएँ नौकरी पर जाती तो मेरी पत्नी घर का सारा काम करती ,बच्चे संभालती। ढलती उम्र में वो भी जल्दी ही थक जाती, मैं भी अंदर-बाहर कम कर पाता । बच्चों को लगता था हम मुफ़्त की रोटियाँ तोड रहे हैं।कभी-कभी बच्चे सुना दिया करते थे, इतने बूढे नही हो गये हैं आप कि आप से कुछ काम ही नही हो पा रहा है।

मैं सन्न रह जाता, हमने इस प्रकार की बात कभी अपने माता-पिता से नही की थी। एक बार छुट्टी के दिन चार बजे तक हमें खाने के लिए नही पूछा। मैंने कहा, “बेटा तुम्हारी माँ को भूख लग रही है। “ बहू ने ताना मारा 'काम के न काज के दुश्मन अनाज के' भीतर तक तडप कर रह गया था मैँ। बाहर से एक अमरूद वाला निकला तो चोरी से आधा किलो अमरूद लिये और चोरी से ही हम दोनों बुढ्ढे–बुढिया ने खाये। फिर तो यह सिलसिला ही चल निकला, मन होता खाना देते मन नही होता तो नही देते। माँगने पर दो टुकडे हमारे आगे डाल दिये जाते, साथ में ताना भी दिया जाता बाबूजी! इस उम्र में आपकी जीभ चटोरी हो गई है। क्या करता ऐसा कुछ नही था पास, जिसे लेकर बुढिया के साथ दूर निकल जाता। रूपया-पैसा सब बच्चों की पढाई पर खर्च कर दिया। यही सोच रही हमेशा पूत-कपूत तो का धन-संचय ,पूत‌‌ – सपूत तो का धन संचय बच्चों से बडी भी भला कोई पूँजी होती है इसलिए कभी पैसे को पूँजी नही बनाया। लोग समझाते थे थोडा बुढापे के लिए भी रख ले हरिया! पर मैंने किसी की भी एक न सुनी। ‘ मेरे बच्चे बहुत संस्कारी हैं उन्होंने देखा है हम किस प्रकार अपने माता-पिता की सेवा करते हैं’ कहकर उन्हें भगा देता।

दूर से दादा जी को उडकर आते हुए देखा। ‘अरे हरिया ! कैसा है? क्या कर रहा है?‘‘

'कुछ नही दादाजी! बस बैठा हूँ, आस लगाये बैठा हूँ शायद घर से कोई आये। घर के बच्चे दिख जाएं। दादाजी! आप कैसे हैं ?अभी-अभी पोते आकर खीर-पूडी खिला गए हैं, तृप्त हूँ। दादा जी ने बताया।

अरे! तेरा तो अभी पहला साल ही है, देख शायद कोई आ जाए। मुझे लगा
जीते जी तो मुझे भरपेट खाना दिया नही अब क्या देंगे? तब तक एक कौवे मित्र ने बात छेड दी। ‘मेरे घर में सभी मेरा सम्मान करते थे। समय-समय पर खाना-पानी , दवाई, कपडे-लत्ते सभी बातों का ध्यान रखते थे। लेकिन जब से मैं मरा हूँ कमबख़्त कोई एक ग्रास भी खाने का डालने नही आया। सोचते होंगे जीते जी कर तो दिया। वे भी अपनी जगह सही हैं । सदा खुशहाली का आशीर्वाद देता हूं अपने बच्चों को।

एक अन्य ने बताया उसके तो बच्चे ही नही थे पर एक पडोसी ने पिता की तरह मान-सम्मान दिया। कभी महसूस ही नही हुआ कि मेरी कोई संतान नही। मरते समय सब उसके नाम कर दिया। बहुत खुश है वह, मैं भी खूब आशीष देता हूँ उसे। जिस प्रकार मेरे कौवे मित्र अपनी बातें बता रहे थे मुझे लगा इससे तो मैं बेऔलाद ही होता तो अच्छा था।

अरे! ये क्या मेरे बेटे ब्राह्मण देव के साथ चले आ रहे हैं। हाथों में खाने-पीने का बहुत सा सामान दिखाई दे रहा है। ‘बेटा! तुम्हारे पिताजी का कर्मकाण्ड करते हुए तुम लोगों से कोई भूल हो गई है जिस कारण तुम्हारे पिता तुमसे नाराज हैं और तुम दोनों भाईयों को अनिष्ट का सामना करना पड रहा है।‘‘

पर अब तो सब ठीक हो जाएगा न?’ बडे बेटे ने पूछा।

‘हाँ-हाँ सब ठीक हो जाएगा यजमान’ माता-पिता अपने बच्चों का बुरा नही सोचते ‘ ब्राह्मण देव कहा।‘

‘पर पंडित जी हमने तो सदा माँ-बाबूजी का आदर किया, भरपेट और मनचाहा भोजन दिया, प्रत्येक कार्य उनकी ही सलाह से किया। फिर हमारे साथ ऐसा क्यों हो रहा है। जबसे पिताजी का देहांत हुआ है, घर में दुख का प्रवेश हो गया, खुशियों को तो जैसे हमारे घर का पता भूल ही गया है।‘ छोटा बेटा बोल रहा था।

कोई बात नही बेटा! हो जाता है कभी.... गलती किसी से भी हो सकती है । पितरों को तृप्त तो करना ही होगा। प्रतिवर्ष श्राद्ध कर दिया करो, प्रसन्न हो जायेंगे पितर देव । ब्राह्मण देव समझा रहे थे।

मैं देख रहा हूँ मेरे बेटों ने, विधि-विधान से स्नान, दान, स्वधा और फिर भोज्य पदार्थों का तर्पण किया .... अच्छा लग रहा था। बुढिया और मेरी रुचि के खाद्य पदार्थ, वस्त्रादि बडे प्रेम से अर्पित किए गए। मैं सोच रहा था, तब नही दिए अब सही। आगे भी देने का वादा किया है। मैं बहुत प्रसन्न था। उन शास्त्रों को भी लाखों धन्यवाद दे रहा था जिनके कारण मैं और मुझ जैसे अनेक लोग तृप्त होते हैं । मैं अपने छल-दंभ से भरे पुत्रों को सौ-सौ अशीष देता हुआ प्रार्थना कर रहा था कि हे परमात्मा! आज की पीढी को जीते जी माता-पिता का सम्मान करना सिखा, ढकोसलों से दूर रख, उन्हें श्राद्ध की नही श्रद्धा की जरूरत है।
***
संपर्क:आई-४६४, ११
ऐवेन्यू ,गौर सिटी २ नोएडा एक्सटैन्शन उ.प्र.
मो. नं. ७८३८०४३४८८

रविवार, 7 जुलाई 2019

विलक्षण साहित्य साधक –संजीव वर्मा 'सलिल' डॉ. पुष्पा जोशी



विलक्षण साहित्य साधक –संजीव वर्मा 'सलिल'
डॉ. पुष्पा जोशी 
*
संजीव जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर ट्रू मीडिया राष्ट्रीय पत्रिका में जब विशेषाँक निकालने की बात चली तो मुझे लगा कि बेशक संजीव जी के महादेवी वर्मा जी से पारिवारिक संबंध हैं परंतु हमसे भी उनके शब्द संबंध तो हैं ही । इसी संबंध के चलते लगा उनके विषय में कुछ लिखूँ । मुझे याद आ रहा ११ जनवरी २०१८  का वह दिन जब विश्व पुस्तक मेले में लेखक मंच पर ऋत फाउंडेशन एवं युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच के तत्वाधान में पुस्तक लोकार्पण एवं साहित्यिक परिचर्चा में मुख्य अतिथि के आसन पर संजीव जी विराजमान थे । ''साहित्य और राज्याश्रय'' विषयक परिचर्चा में मैं सद्म को संबोधित काट रही थी।  कुछ देर बाद जब सलिल जी का बोलने का समय आया तो उन्होंने सबसे पहले पूर्व वक्ताओं, विमोचित पुस्तकों और उनके लेखकों के नामों का संयोजन करते हुए तत्काल रचित छंद सुनाये, सभागार करतल ध्वनि से गूँज उठा। तभी उनकी काव्य क्षमता का अनुमान हो गया.... भात तैयार हो गया यह जानने के लिए चावल के एक दो- दाने ही तो पतीली से निकाल कर दबाकर तसल्ली कर ली जाती है। 

संजीव जी आजकल सवैया छंद पर काम कर रहे हैं। मुझे लगता है नवान्वेषित सवैये उन्हें साहित्याकाश की ऊँचाईयों पर ले जाएंगे। आईये ! देखते हैं एक सवैया –
तलाशते रहे कमी, न खूबियाँ निहारते , प्रसन्नता कहाँ मिले ?
विराजते रहें हमीं, न और को पुकारते, हँसी–खुशी कहाँ मिले?
बटोरते रहे सदा, न रंक बंधु हो सके, न आसमां–जमीं मिले ।
निहारते रहे छिपे, न मीत प्रीत पा सके, मिटे–कभी नहीं गिले।

साहित्य में नए प्रयोग करने में सलिल जी का सानी नहीं। जापानी छंद हाइकु से बने गीत की एक झलक -
*
आँख का पानी,
मर गया तो कैसे
धरा हो धानी?...
*
तोड़ बंधन
आँख का पानी बहा.
रोके न रुका.
आसमान भी
हौसलों की ऊँचाई
के आगे झुका.
कहती नानी
सूखने मत देना
आँख का पानी....
*
हमारी सनातन परंपराओं का निर्वहन करते हुए भी सलिल जी साहित्य को नहीं भूलते। पितृ पक्ष में तर्पण से जुड़ा नवगीत सलिल जी की सामर्थ्य का प्रमाण है।  कुछ पंक्तियाँ देखें-  
पुरुखों!
तुम्हें तिलोदक अर्पित
*
श्री-समृद्धि दी तुमने हमको
हम देते तिल-पानी
भूल विरासत दान-दया की
जोड़ रहे अभिमानी
भोग न पाते, अगिन रोगों का
देह बनी है डेरा
अपयश-अनदेखी से अाहत
मौत लगाती फेरा
खाली हाथ न फैला पाते
खुद के बैरी दर्पित
*

सलिल जी के कवि हृदय ने कल्पना के सप्तरंगी आकाश में आसन जमाकर जिस काव्य का सृजन किया है, वह घर-घर पहुँचे। अपनी अन्तर्मुखी मनोवृत्ति एवं साहित्य सुलभ गहरे अनुभवों के कारण आपके द्वारा रचित काव्य में वेदना एवं सूक्ष्म अनुभूतियों के कोमल भाव मुखरित हुए हैं। आपके काव्य में संगीतात्मकता एवं भाव-तीव्रता का सहज स्वाभाविक समावेश हुआ है। साहित्य के विलक्षण साधक आप निरंतर साहित्य –पथ पर अग्रसर रहें, युगों-युगों तक आपका यश गान हो।
[लेखिका परिचय: सह- संपादक ट्रू मीडिया नोएडा एक्सटैंशन यू.पी.]