कुल पेज दृश्य

हिंदी आरती लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
हिंदी आरती लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 20 फ़रवरी 2025

फरवरी २०, दोहा, यमक, सॉनेट, हिंदी आरती, नामवर, श्रृंगार गीत, नर्मदा, उल्लाला, गीत, हास्य,

सलिल सृजन फरवरी २०
*
गले मिले दोहा यमक
*
धमक यमक की जब सुने, चमक-दमक हो शांत।
अटक-मटक मत मति कहे, सटक न होना भ्रांत।।
*
नौ कर आप न चाहते, पर नौकर की चाह।
हो न कलेजा चाक रब, चाकर कर परवाह।।
*
हो बस अंत असंत का, यही तंत है तात।
संत बसंत सजा सके, सपनों की बारात।।
*
यम कब यमक समझ सके, सोच यमी हैरान।
तमक बमक कर ले न ले, लपक जान की जान।।
***
सॉनेट
शुभकामना
सुमन करते आपका स्वागत।
भाल पर शोभित तिलक चंदन।
सफलता है द्वार पर आगत।।
हृदय करते आपका वंदन।।
अनिल कर दे श्वास हर सुरभित।
जया दे जय, जयी हो हर आस।
अनल से पा तेज हों प्रमुदित।।
धरा-नभ दे धैर्य शौर्य हुलास।।
सलिल सिंचित माथ हो गर्वित।
वरद हों कर, हृदय करुणापूर्ण।
दिशाएँ वर दें रहो चर्चित।।
हर विपद कर कोशिशें दें चूर्ण।।
वह मिले जो चाहते हैं आप।
यश युगों तक सके जग में व्याप।।
२०-२-२०२२
•••
अशआर
*
अदीब खुदा की नेमत।
मिले न जिसको उसकी शामत।।
*
खुद खुदा हो सको अगर अपने।
पूरे होंगे तभी तेरे सपने।।
*
चाह ही चाह से निकलती है।
आह ही अश्क बन पिघलती है।।
*
साथ किसके हमेशा कौन रहा?
लब न बोले जवाब मौन रहा।।
***
हिंदी आरती
*
भारती भाषा प्यारी की।
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
वर्ण हिंदी के अति सोहें,
शब्द मानव मन को मोहें।
काव्य रचना सुडौल सुन्दर
वाक्य लेते सबका मन हर।
छंद-सुमनों की क्यारी की
आरती हिंदी न्यारी की।।
*
रखे ग्यारह-तेरह दोहा,
सुमात्रा-लय ने मन मोहा।
न भूलें गति-यति बंधन को-
न छोड़ें मुक्तक लेखन को।
छंद संख्या अति भारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
विश्व की भाषा है हिंदी,
हिंद की आशा है हिंदी।
करोड़ों जिव्हाओं-आसीन
न कोई सकता इसको छीन।
ब्रम्ह की, विष्णु-पुरारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
२०.२.२०२०
***
एक रचना
नामवर
*
लीक से हटकर चला चल
काम कर।
रोकता चाहे जमाना
नाम वर।।
*
जोड़ता जो, वह घटा है
तोड़ता जो, वह जुड़ा है
तना दिखता पर झुका है
पथ न सीधा हर मुड़ा है
श्वास साकी, आस प्याला
जाम भर
रोकता चाहे जमाना
नाम वर
*
जो न जैसा, दिखे वैसा
जो न बदला, वह सड़ा है
महत्तम की चाह मत कर
लघुत्तम सचमुच बड़ा है
कह न मरता कोई किंचित
चाम पर
रोकता चाहे जमाना
नाम वर
*
बात पूरी नहीं हो कह
'जो गलत, वे तोड़ मानक'
क्यों न करता पूर्ण कहकर
'जो सही, मत छोड़ मानक'
बन सिपाही, जान दे दे विहँस सच के
लाम पर
रोकता चाहे जमाना
नाम वर
२०.२.२०१९
***
एक रचना
मन
*
मर रहा पल-पल
अमर मन
जी रहा है.
*
जो सुहाए
कह न पाता, भीत है मन.
जो निभाये
सह न पाता, रीत है मन.
सुन-सुनाये
जी न पाता, गीत है मन.
घुट रहा पल-पल
अधर मन
सी रहा है.
*
मिल गयी पर
मिल न पायी, जीत है मन.
दास सुविधा ने
ख़रीदा, क्रीत है मन.
आँख में
पानी न, पाती पीत है मन.
जी रहा पल-पल
न कुछ कह
मर रहा है.
***
मुक्तक
बीत गईँ कितनी ऋतुएँ, बीते कितने साल
कोयल तजे न कूकना, हिरन न बदले चाल
पर्व बसंती हो गया, वैलेंटाइन आज
प्रेम फूल सा झट झरे, सात जन्म कंगाल
***
पुस्तक चर्चा -
नियति निसर्ग : दोहा दुनिया का नया रत्न
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक परिचय- नियति निसर्ग, दोहा संग्रह, प्रो. श्यामलाल उपाध्याय, प्रथम संस्करण, २०१५, आकार २२.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १२६, मूल्य १३०/-, प्रकाशक भारतीय वांग्मय पीठ, लोकनाथ कुञ्ज, १२७/ए/८ ज्योतिष राय मार्ग, नया अलीपुर कोलकाता ७०००५३]
*
विश्व वाणी हिंदी के छंद कोष के सर्वाधिक प्रखर और मूल्यवान दोहा कक्ष को अलंकृत करते हुए श्रेष्ठ-ज्येष्ठ शारदा-सुत प्रो. श्यामलाल उपाध्याय ने अपने दोहा संकलन रूपी रत्न 'नियति निसर्ग' प्रदान किया है. नियति निसर्ग एक सामान्य दोहा संग्रह नहीं है, यह सोद्देश्य, सारगर्भित,सरस, लाक्षणिक अभिव्यन्जनात्मकता से सम्पन्न दोहों की ऐसी रसधार प्रवाहित का रहा है जिसका अपनी सामर्थ्य के अनुसार पान करने पर प्रगाढ़ रसानंद की अनुभूति होती है.
प्रो. उपाध्याय विश्ववाणी हिंदी के साहित्योद्यान में ऐसे वट-वृक्ष हैं जिनकी छाँव में गणित जिज्ञासु रचनाशील अपनी शंकाओं का संधान और सृजन हेतु मार्गदर्शन पाते हैं. वे ऐसी संजीवनी हैं जिनके दर्शन मात्र से माँ भारती के प्रति प्रगाढ़ अनुराग और समर्पण का भाव उत्पन्न होता है. वे ऐसे साहित्य-ऋषि हैं जिनके दर्शन मात्र से श्नाकों का संधान होने लगता है. उनकी ओजस्वी वाणी अज्ञान-तिमिर का भेदन कर ज्ञान सूर्य की रश्मियों से साक्षात् कराती है.
नियति निसर्ग का श्री गणेश माँ शारदा की सारस्वत वन्दना से होना स्वाभाविक है. इस वन्दना में सरस्वती जी के जिस उदात्त रूप की अवधारणा ही, वह अन्यत्र दुर्लभ है. यहाँ सरस्वती मानवीय ज्ञान की अधिष्ठात्री या कला-संगीत की आदि शक्ति इला ही नहीं हैं अपितु वे सकल विश्व, अंतरिक्ष, स्वर्ग और ब्रम्ह-लोक में भी व्याप्त ब्रम्हाणी हैं. कवि उन्हें अभिव्यक्ति की देवी कहकर नमन करता है.
'विश्वपटल पर है इला, अन्तरिक्ष में वाणि
कहीं भारती स्वर्ग में, ब्रम्ह-लोक ब्रम्हाणि'
'घर की शोभा' धन से नहीं कर्म से होती है. 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' की विरासत नयी पीढ़ी के लिए श्लाघ्य है-
'लक्ष्मी बसती कर्म में, कर्म बनता भाग्य
भाग्य-कर्म संयोग से, बन जाता सौभाग्य'
माता-पिता के प्रति, शिशु के प्रति, बाल विकास, अवसर की खोज, पाठ के गुण विशेष, शिक्षक के गुण, नेता के गुण, व्यक्तित्व की परख जैसे शीर्षकों के अंतर्गत वर्णित दोहे आम आदमी विशेषकर युवा, तरुण, किशोर तथा बाल पाठकों को उनकी विशिष्टता और महत्त्व का भान कराने के साथ-साथ कर्तव्य और अधिकारों की प्रतीति भी कराते हैं. दोहाकार केवल मनोरंजन को साहित्य सृजन का लक्ष्य नहीं मानता अपितु कर्तव्य बोध और कर्म प्रेरणा देते साहित्य को सार्थक मानता है.
राष्ट्रीयता को साम्प्रदायिकता मानने के वर्तमान दौर में कवि-ऋषि राष्ट्र-चिंतन, राष्ट्र-धर्म, राष्ट्र की नियति, राष्ट्र देवो भव, राष्ट्रयता अखंडता, राष्ट्रभाषा हिंदी का वर्चस्व, देवनागरी लिपि आदि शीर्षकों से राष्ट्रीय की ओजस्वी भावधारा प्रवाहित कर पाठकों को अवगाहन करने का सुअवसर उपलब्ध कराते हैं. वे सकल संतापों का निवारण का एकमात्र मार्ग राष्ट्र की सुरक्षा में देखते हैं.
आदि-व्याधि विपदा बचें, रखें सुरक्षित आप
सदा सुरक्षा देश की, हरे सकल संताप
हिंदी की विशेषता को लक्षित करते हुए कवि-ऋषि कहते हैं-
हिंदी जैसे बोलते, वैसे लिखते आप
सहज रूप में जानते, मिटते मन के ताप
हिंदी के जो शब्द हैं, रखते अपने अर्थ
सहज अर्थ वे दे चलें, जिनसे हो न अनर्थ
बस हिंदी माध्यम बने, हिंदी का हो राज
हिंदी पथ-दर्शन करे, हिंदी हो अधिराज
हिंदी वैज्ञानिक सहज, लिपि वैज्ञानिक रूप
इसको सदा सहेजिए, सुंदर स्निग्ध स्वरूप
तकनीकी सम्पन्न हों, माध्यम हिंदी रंग
हिंदी पाठी कुशल हों, रंग न होए भंग
देवनागरी लिपि शीर्षक से दिए दोहे भारत के इतिहास में हिंदी के विकास को शब्दित करते हैं. इस अध्याय में हिंसी सेवियों के अवदान का स्मरण करते हुए ऐसे दोहे रचे गए हैं जो नयी पीढ़ी का विगत से साक्षात् कराते हैं.
संत कबीर, महाबली कर्ण, कविवर रहीम, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, मौनी बाबा तथा श्रीकृष्ण पर केन्द्रित दोहे इन महान विभूतियों को स्मरण मात्र नहीं करते अपितु उनके अवदान का उल्लेख कर प्रेरणा जगाने का काम भी करते हैं.
कबीर का गुरु एक है, राम नाम से ख्यात
निराकार निर्गुण रहा, साई से प्रख्यात
जब तक स्थापित रश्मि है, गंगा जल है शांत
रश्मिरथी का यश रहे, जग में सदा प्रशांत
ऐसा कवि पायें विभो, हो रहीम सा धीर
ज्ञानी दानी वुगी हो, युद्ध क्षेत्र का वीर
महावीर आचार्य हैं, क्या द्विवेद प्रसाद
शेरश जागरण काल के, विषय रहा आल्हाद
मौनी बाबा धन्य हैं, धन्य आप वरदान
जनमानस सुख से रहे, यही बड़ा अवदान
भारत कर्म प्रधान देश है. यहाँ शक्ति की भक्ति का विधान सनातन काल से है. गीता का कर्मयोग भारत ही नहीं, सकल विश्व में हर काल में चर्चित और अर्चित रहा है. सकल कर्म प्रभु को अर्पित कर निष्काम भाव से संपादित करना ही श्लाघ्य है-
सौंपे सरे काज प्रभु, सहज हुए बस जान
सारे संकट हर लिए, रख मान तो मान
कर्म कराता धर्म है, धर्म दिलाता अर्थ
अर्थ चले बहु काम ले, यह जीवन का मर्म
जातीय छुआछूत ने देश की बहुत हानि की है. कविगुरु कर्माधारित वर्ण व्यवस्था के समर्थक हैं जिसका उद्घोष गीत में श्रीकृष्ण 'चातुर्वर्ण्य माया सृष्टं गुण-कर्म विभागश:' कहकर करते हैं.
वर्ण व्यवस्था थी बनी, गुणवत्ता के काज
कुलीनता के अहं ने, अपना किया अकाज
घृणा जन्म देती घृणा, प्रेम बढ़ाता प्रेम
इसीलिए तुम प्रेम से, करो प्रेम का नेम
सर्वधर्म समभाव के विचार की विवेचना करते हुए काव्य-ऋषि धर्म और संप्रदाय को सटीकता से परिभाषित करते हैं-
होता धर्म उदार है, संप्रदाय संकीर्ण
धर्म सदा अमृत सदृश, संप्रदाय विष-जीर्ण
कृषि प्रधान देश भारत में उद्योग्व्र्धक और कृषि विरोधी प्रशासनिक नीतियों का दुष्परिणाम किसानों को फसल का समुचित मूल्य न मिलने और किसानों द्वारा आत्म हत्या के रूप में सामने आ रहा है. कवी गुरु ने कृषकों की समस्या का जिम्मेदार शासन-प्रशासन को ही माना है-
नेता खेलें भूमि से, भूमिग्रहण व्यापार
रोके इसको संहिता, चाँद लगाये चार
रोटी के लाले पड़े, कृषक भूमि से हीन
तडपे रक्षा प्राण को, जल अभाव में मीन
दोहे गोशाला के भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था और किसान की दुर्दशा को बताते हैं. कवी गौ और गोशाला की महत्ता प्रतिपादित करते हैं-
गो में बसते प्राण हैं, आशा औ' विश्वास
जहाँ कृष्ण गोपाल हैं, करनी किसकी आस
गोवध अनुचित सर्वथा, औ संस्कृति से दूर
कर्म त्याज्य अग्राह्य है, दुर्मत कुत्सित क्रूर
राष्ट्र के प्रति कर्तव्य, स्वाधीनता की नियति, मादक द्रव्यों के दुष्प्रभाव, चिंता, दुःख की निरंतरता, आत्मबोध तत्व, परमतत्व बोध, आशीर्वचन, संस्कार, रक्षाबंधन, शिवरात्रि, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी आदि शीर्षकों के अंतर्गत दिए गए दोहे पाठकों का पाठ प्रदर्शन करने क साथ शासन-प्रशासन को भी दिशा दिखाते हैं. पुस्तकांत में 'प्रबुद्ध भारत का प्रारूप' शीर्षक से कविगुरु ने अपने चिंतन का सार तत्व तथा भविष्य के प्रति चिंतन-मंथन क नवनीत प्रस्तुत किया है-
सत्य सदा विजयी रहा, सदा सत्य की जीत
नहीं सत्य सम कुछ जगत, सत्य देश का गीत
सभी पन्थ हैं एक सम, आत्म सन्निकट जान
आत्म सुगंध पसरते, ईश्वर अंश समान
बड़ी सोच औ काम से, बनता व्यक्ति महान
चिंतन औ आचार हैं, बस उनके मन जान
किसी कृति का मूल्याङ्कन विविध आधारों पर किया जाता है. काव्यकृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष उसका कथ्य होता है. विवेच्य ८६ वर्षीय कवि-चिन्तक के जीवनानुभवों का निचोड़ है. रचनाकार आरंभ में कटी के शिल्प के प्रति अत्यधिक सजग होता है क्योंकि शिल्पगत त्रुटियाँ उसे कमजोर रचनाकार सिद्ध करती हैं. जैसे-जैसे परिपक्वता आती है, भाषिक अलंकरण के प्रति मोह क्रमश: कम होता जाता है. अंतत: 'सहज पके सो मीठा होय' की उक्ति के अनुसार कवि कथ्य को सरलतम रूप में प्रस्तुत करने लगता है. शिल्प के प्रति असावधानता यत्र-तत्र दिखने पर भी कथ्य का महत्व, विचारों की मौलिकता और भाषिक प्रवाह की सरलता कविगुरु के संदेश को सीधे पाठक के मन-मस्तिष्क तक पहुँचाती है. यह कृति सामान्य पाठक, विद्वज्जनों, प्रशासकों, शासकों, नीति निर्धारकों तथा बच्चों के लिए समान रूप से उपयोगी है. यही इसका वैशिष्ट्य है.
२०.२.२०१७
===
एक रचना
मन
*
मर रहा पल-पल
अमर मन
जी रहा है.
*
जो सुहाए
कह न पाता, भीत है मन.
जो निभाये
सह न पाता, रीत है मन.
सुन-सुनाये
जी न पाता, गीत है मन.
घुट रहा पल-पल
अधर मन
सी रहा है.
*
मिल गयी पर
मिल न पायी, जीत है मन.
दास सुविधा ने
ख़रीदा, क्रीत है मन.
आँख में
पानी न, पाती पीत है मन.
जी रहा पल-पल
न कुछ कह
मर रहा है.
२०.२.२०१६
***
श्रृंगार गीत:
.
चाहता मन
आपका होना
.
शशि ग्रहण से
घिर न जाए
मेघ दल में
छिप न जाए
चाह अजरा
बने तारा
रूपसी की
कीर्ति गाये
मिले मन में
एक तो कोना
.
द्वार पर
आ गया बौरा
चीन्ह भी लो
तनिक गौरा
कूक कोयल
गाए बन्ना
सुना बन्नी
आम बौरा
मार दो मंतर
करो टोना
.
माँग इतनी
माँग भर दूँ
आप का
वर-दान कर दूँ
मिले कन्या-
दान मुझको
जिंदगी को
गान कर दूँ
प्रणय का प्रण
तोड़ मत देना
२०.२.२०१५
.
॥नर्मदाष्टक मणिप्रवाल।।
हिंदी काव्यानुवाद॥
*
देवासुरा सुपावनी नमामि सिद्धिदायिनी,
त्रिपूरदैत्यभेदिनी विशाल तीर्थमेदिनी ।
शिवासनी शिवाकला किलोललोल चापला,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।१।।
सुर असुरों को पावन करतीं सिद्धिदायिनी,
त्रिपुर दैत्य को भेद विहँसतीं तीर्थमेदिनी।
शिवासनी शिवकला किलोलित चपल चंचला,
.भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥१॥
विशाल पद्मलोचनी समस्त दोषमोचनी,
गजेंद्रचालगामिनी विदीप्त तेजदामिनी ।।
कृपाकरी सुखाकरी अपार पारसुंदरी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।२।।
नवल कमल से नयन, पाप हर हर लेतीं तुम,
गज सी चाल, दीप्ति विद्युत सी, हरती भय तम।
रूप अनूप, अनिन्द्य, सुखद, नित कृपा करें माँ‍
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥२॥
तपोनिधी तपस्विनी स्वयोगयुक्तमाचरी,
तपःकला तपोबला तपस्विनी शुभामला ।
सुरासनी सुखासनी कुताप पापमोचनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।३।।
सतत साधनारत तपस्विनी तपोनिधी तुम,
योगलीन तपकला शक्तियुत शुभ हर विधि तुम।
पाप ताप हर, सुख देते तट, बसें सर्वदा,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥३॥
कलौमलापहारिणी नमामि ब्रम्हचारिणी,
सुरेंद्र शेषजीवनी अनादि सिद्धिधकरिणी ।
सुहासिनी असंगिनी जरायुमृत्युभंजिनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।४।।
ब्रम्हचारिणी! कलियुग का मल ताप मिटातीं,
सिद्धिधारिणी! जग की सुख संपदा बढ़ातीं ।
मनहर हँसी काल का भय हर, आयु दे बढ़ा,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥४॥
मुनींद्र ‍वृंद सेवितं स्वरूपवन्हि सन्निभं,
न तेज दाहकारकं समस्त तापहारकं ।
अनंत ‍पुण्य पावनी, सदैव शंभु भावनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।५।।
अग्निरूप हे! सेवा करते ऋषि, मुनि, सज्जन,
तेज जलाता नहीं, ताप हर लेता मज्जन ।
शिव को अतिशय प्रिय हो पुण्यदायिनी मैया,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥५॥
षडंगयोग खेचरी विभूति चंद्रशेखरी,
निजात्म बोध रूपिणी, फणीन्द्रहारभूषिणी ।
जटाकिरीटमंडनी समस्त पाप खंडनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।६।।
षडंग योग, खेचर विभूति, शशि शेखर शोभित,
आत्मबोध, नागेंद्रमाल युत मातु विभूषित ।
जटामुकुट मण्डित देतीं तुम पाप सब मिटा,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥६।।
भवाब्धि कर्णधारके!, भजामि मातु तारिके!
सुखड्गभेदछेदके! दिगंतरालभेदके!
कनिष्टबुद्धिछेदिनी विशाल बुद्धिवर्धिनी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।७।।
कर्णधार! दो तार, भजें हम माता तुमको,
दिग्दिगंत को भेद, अमित सुख दे दो हमको ।
बुद्धि संकुचित मिटा, विशाल बुद्धि दे दो माँ!,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥७॥
समष्टि अण्ड खण्डनी पताल सप्त भैदिनी,
चतुर्दिशा सुवासिनी, पवित्र पुण्यदायिनी ।
धरा मरा स्वधारिणी समस्त लोकतारिणी,
तरंग रंग सर्वदा नमामि देवि नर्मदा ।।८।।
भेदे हैं पाताल सात सब अण्ड खण्ड कर,
पुण्यदायिनी! चतुर्दिशा में ही सुगंधकर ।
सर्वलोक दो तार करो धारण वसुंधरा,
भक्तिभाव में लीन सर्वदा, नमन नर्मदा ॥८॥
***
नर्मदा नामावली
*
पुण्यतोया सदानीरा नर्मदा.
शैलजा गिरिजा अनिंद्या वर्मदा.
शैलपुत्री सोमतनया निर्मला.
अमरकंटी शांकरी शुभ शर्मदा.
आदिकन्या चिरकुमारी पावनी.
जलधिगामिनी चित्रकूटा पद्मजा.
विमलहृदया क्षमादात्री कौतुकी.
कमलनयनी जगज्जननि हर्म्यदा.
शाशिसुता रौद्रा विनोदिनी नीरजा.
मक्रवाहिनी ह्लादिनी सौंदर्यदा.
शारदा वरदा सुफलदा अन्नदा.
नेत्रवर्धिनि पापहारिणी धर्मदा.
सिन्धु सीता गौतमी सोमात्मजा.
रूपदा सौदामिनी सुख-सौख्यदा.
शिखरिणी नेत्रा तरंगिणी मेखला.
नीलवासिनी दिव्यरूपा कर्मदा.
बालुकावाहिनी दशार्णा रंजना.
विपाशा मन्दाकिनी चित्रोंत्पला.
रुद्रदेहा अनुसूया पय-अंबुजा.
सप्तगंगा समीरा जय-विजयदा.
अमृता कलकल निनादिनी निर्भरा.
शाम्भवी सोमोद्भवा स्वेदोद्भवा.
चन्दना शिव-आत्मजा सागर-प्रिया.
वायुवाहिनी कामिनी आनंददा.
मुरदला मुरला त्रिकूटा अंजना.
नंदना नाम्माडिअस भव मुक्तिदा.
शैलकन्या शैलजायी सुरूपा.
विपथगा विदशा सुकन्या भूषिता.
गतिमयी क्षिप्रा शिवा मेकलसुता.
मतिमयी मन्मथजयी लावण्यदा.
रतिमयी उन्मादिनी वैराग्यदा.
यतिमयी भवत्यागिनी शिववीर्यदा.
दिव्यरूपा तारिणी भयहांरिणी.
महार्णवा कमला निशंका मोक्षदा.
अम्ब रेवा करभ कालिंदी शुभा.
कृपा तमसा शिवज सुरसा मर्मदा.
तारिणी वरदायिनी नीलोत्पला.
क्षमा यमुना मेकला यश-कीर्तिदा.
साधना संजीवनी सुख-शांतिदा.
सलिल-इष्टा माँ भवानी नरमदा.
१२-१०-२०१४
***
अभिनव प्रयोग-
उल्लाला गीत:
जीवन सुख का धाम है
*
जीवन सुख का धाम है,
ऊषा-साँझ ललाम है.
कभी छाँह शीतल रहा-
कभी धूप अविराम है...
*
दर्पण निर्मल नीर सा,
वारिद, गगन, समीर सा,
प्रेमी युवा अधीर सा-
हर्ष, उदासी, पीर सा.
हरि का नाम अनाम है
जीवन सुख का धाम है...
*
बाँका राँझा-हीर सा,
बुद्ध-सुजाता-खीर सा,
हर उर-वेधी तीर सा-
बृज के चपल अहीर सा.
अनुरागी निष्काम है
जीवन सुख का धाम है...
*
वागी आलमगीर सा,
तुलसी की मंजीर सा,
संयम की प्राचीर सा-
राई, फाग, कबीर सा.
स्नेह-'सलिल' गुमनाम है
जीवन सुख का धाम है...
***
उल्लाला मुक्तिका:
दिल पर दिल बलिहार है
*
दिल पर दिल बलिहार है,
हर सूं नवल निखार है..
प्यार चुकाया है नगद,
नफरत रखी उधार है..
कहीं हार में जीत है,
कहीं जीत में हार है..
आसों ने पल-पल किया
साँसों का सिंगार है..
सपना जीवन-ज्योत है,
अपनापन अंगार है..
कलशों से जाकर कहो,
जीवन गर्द-गुबार है..
स्नेह-'सलिल' कब थम सका,
बना नर्मदा धार है..
***
उल्लाला मुक्तक:
*
उल्लाला है लहर सा,
किसी उनींदे शहर सा.
खुद को खुद दोहरा रहा-
दोपहरी के प्रहर सा.
*
झरते पीपल पात सा,
श्वेत कुमुदनी गात सा.
उल्लाला मन मोहता-
शरतचंद्र मय रात सा..
*
दीप तले अँधियार है,
ज्यों असार संसार है.
कोशिश प्रबल प्रहार है-
दीपशिखा उजियार है..
*
मौसम करवट बदलता,
ज्यों गुमसुम दिल मचलता.
प्रेमी की आहट सुने -
चुप प्रेयसी की विकलता..
*
दिल ने करी गुहार है,
दिल ने सुनी पुकार है.
दिल पर दिलकश वार या-
दिलवर की मनुहार है..
*
शीत सिसकती जा रही,
ग्रीष्म ठिठकती आ रही.
मन ही मन में नवोढ़ा-
संक्रांति कुछ गा रही..
*
श्वास-आस रसधार है,
हर प्रयास गुंजार है.
भ्रमरों की गुन्जार पर-
तितली हुई निसार है..
*
रचा पाँव में आलता,
कर-मेंहदी पूछे पता.
नाम लिखा छलिया हुआ-
कहो कहाँ-क्यों लापता?
*
वह प्रभु तारणहार है,
उस पर जग बलिहार है.
वह थामे पतवार है.
करता भव से पार है..
****
उल्लाला सलिला:
*
(छंद विधान १३-१३, १३-१३, चरणान्त में यति, सम चरण सम तुकांत, पदांत एक गुरु या दो लघु)
*
अभियंता निज सृष्टि रच, धारण करें तटस्थता।
भोग करें सब अनवरत, कैसी है भवितव्यता।।
*
मुँह न मोड़ते फ़र्ज़ से, करें कर्म की साधना।
जगत देखता है नहीं अभियंता की भावना।।
*
सूर सदृश शासन मुआ, करता अनदेखी सतत।
अभियंता योगी सदृश, कर्म करें निज अनवरत।।
*
भोगवाद हो गया है, सब जनगण को साध्य जब।
यंत्री कैसे हरिश्चंद्र, हो जी सकता कहें अब??
*
भृत्यों पर छापा पड़े, मिलें करोड़ों रुपये तो।
कुछ हजार वेतन मिले, अभियंता को क्यों कहें?
*
नेता अफसर प्रेस भी, सदा भयादोहन करें।
गुंडे ठेकेदार तो, अभियंता क्यों ना डरें??
*
समझौता जो ना करे, उसे तंग कर मारते।
यह कड़वी सच्चाई है, सरे आम दुत्कारते।।
*
हर अभियंता विवश हो, समझौते कर रहा है।
बुरे काम का दाम दे, बिन मारे मर रहा है।।
*
मिले निलम्बन-ट्रान्सफर, सख्ती से ले काम तो।
कोई न यंत्री का सगा, दोषारोपण सब करें।।
२०.२.२०१४
***
तेवरी
*
ताज़ा-ताज़ा दिल के घाव।
सस्ता हुआ नमक का भाव।।
मंझधारों-भंवरों को पार,
किया किनारे डूबी नाव।।
सौ चूहे खाने के बाद
सत्य-अहिंसा का है चाव।।
ताक़तवर के चूम कदम
निर्बल को दिखलाया ताव।।
ठण्ड भगाई नेता ने
जला झोपडी, बना अलाव।।
डाकू तस्कर चोर खड़े
मतदाता क्या करे चुनाव?
नेता रावण, जन सीता
कैसे होगा सलिल निभाव?
२०.२.२०१३
***
हास्य पद:
जाको प्रिय न घूस-घोटाला
*
जाको प्रिय न घूस-घोटाला...
वाको तजो एक ही पल में, मातु, पिता, सुत, साला.
ईमां की नर्मदा त्यागयो, न्हाओ रिश्वत नाला..
नहीं चूकियो कोऊ औसर, कहियो लाला ला-ला.
शक्कर, चारा, तोप, खाद हर सौदा करियो काला..
नेता, अफसर, व्यापारी, वकील, संत वह आला.
जिसने लियो डकार रुपैया, डाल सत्य पर ताला..
'रिश्वतरत्न' गिनी-बुक में भी नाम दर्ज कर डाला.
मंदिर, मस्जिद, गिरिजा, मठ तज, शरण देत मधुशाला..
वही सफल जिसने हक छीना,भुला फ़र्ज़ को टाला.
सत्ता खातिर गिरगिट बन, नित रहो बदलते पाला..
वह गर्दभ भी शेर कहाता बिल्ली जिसकी खाला.
अख़बारों में चित्र छपा, नित करके गड़बड़ झाला..
निकट चुनाव, बाँट बन नेता फरसा, लाठी, भाला.
हाथ ताप झुलसा पड़ोस का घर धधकाकर ज्वाला..
सौ चूहे खा हज यात्रा कर, हाथ थाम ले माला.
बेईमानी ईमान से करना, 'सलिल' पान कर हाला..
है आराम ही राम, मिले जब चैन से बैठा-ठाला.
परमानंद तभी पाये जब 'सलिल' हाथ ले प्याला..
२०.२.२०११
***

शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

जनवरी ९, चंद्रशेखर आजाद, गंग छंद, लघुकथा, सोनिया गांधी, हिंदी आरती, सॉनेट सोरठा,

सलिल सृजन जनवरी ९  

पुण्य स्मरण- चंद्रशेखर आजाद जी 

महान क्रांतिकारी चंद्र शेखर आजाद को चित्र खिंचवाना नापसंद था। काकोरी कांड के बाद अंग्रेज संबंधित क्रांतिकारियों के पीछे पड़ गए। आजाद के साथियों की गिरफ्तारी होने लगी। चारों तरफ जासूसों का जाल बिछा हुआ था। आजाद ने जासूसों से बचते-बचते किसी तरह झाँसी पहुँचकार  रूद्रनारायण सिंह "मास्टर जी" के आवास में शरण ली । मास्टर जी का आवास कला-संस्कृति और व्यायाम का केंद्र था। सरकारी जासूसों और नौकरशाहों का भी आना-जाना लगा रहता था। आजाद ने अधिक समय तक वहाँ रूकना सुरक्षित नहीं समझा। वे पास के जंगल में एक छोटे से हनुमान मंदिर के पुजारी बनकर रहने लगे ।

एक दिन आजाद को मास्टर जी अपने आवास पर ले आये । कला-प्रेमी होने के साथ-साथ मास्टरजी फोटोग्राफी भी कर लिया करते थे। मास्टरजी आजाद को बिना बताए उनकी तस्वीर कैमरे में कैद करने की कोशिश बहुत देर तक करते रहे लेकिन आजाद थे कि सही पॉजिशन ले ही नहीं रहे थे। बाद में तंग होकर मास्टरजी ने आजाद से एक फोटो खिंचवाने का निवेदन ही कर दिया । पहले तो आजाद तैयार नहीं हो रहे थे लेकिन बाद में फोटो खिंचवाने के लिए खड़े हो गए।

फिर मास्टरजी ने जैसे ही अपना कैमरा संभाला और बोला- " आज तुम मुझे ऐसे ही तुम्हारा एक फोटो खींच लेने दो। 

आजाद ने कहा- " अच्छा! तो ज़रा मेरी मूँछे एँठ  लेने दो" और उन्होंने अपनी मूँछें घुमानी शुरू कर दी। इसी बीच मास्टर जी ने उस ऐतिहासिक तस्वीर को अपने कैमरे में कैद कर लिया जो आज राष्ट्र की महान नीधि बन गया। यह आजाद का एकमात्र प्रामाणिक चित्र है। 

***

सोरठा सलिला
कालिंदी के तीर, लिखा गया इतिहास था।
मन में धरकर धीर, जन-हित साधा कृष्ण ने।।
*
प्रकृति मैया पोस, मारा शोषक कालिया।
सहा इंद्र का रोष, गोवर्धन छिप कान्ह ने।।
*
मिला पूत नहिं एक, बंजर भू सम पूतना।
खोकर चली विवेक, कृष्ण मारने खुद मरी।।
*
जोशीमठ में आज, कान्हा हो जाओ प्रगट।
जन-जीवन की लाज, मात्र तुम्हारे हाथ में।।
*
दोषी शासन-नीति, रही प्रकृति को छेड़ती।
है पाखंडी रीति, घड़ियाली आँसू बहे।।
*
जनता जागे आज, कहें कृष्ण विप्लव करो।
बदल इंद्र का राज, करो प्रकृति से मित्रता।।
१०-१-२०२३
***
सॉनेट
हिंदी
*
जगवाणी हिंदी का वंदन, इसका वैभव अनुपम अक्षय।
हिंदी है कृषकों की भाषा, श्रमिकों को हिंदी प्यारी है।
मध्यम वर्ग कॉंवेंटी है, रंग बदलता व्यापारी है।।
जनवाणी, हैं तंत्र विरोधी, न्यायपालिका अंग्रेजीमय।।
बच्चों से जब भी बतियाएँ, केवल हिंदी में बतियाएँ।
अन्य बोलिओं-भाषाओँ को, सिखा-पढ़ाएँ साथ-साथ ही।
ह्रदय-दिमाग न हिंदी भूले, हिंदी पुस्तक लिए हाथ भी।।
हिंदी में प्रार्थना कराएँ, भजन-कीर्तन नित करवाएँ।।
शिक्षा का माध्यम हिंदी हो, हिंदी में हो काम-काज भी।
क्यों अंग्रेजी के चारण हैं, तनिक न आती हया-लाज भी।
हिंदी है सहमी गौरैया, अंग्रेजी है निठुर बाज सी।
शिवा कह रहे हैं शिव जी को, कैसे आए राम राज जी?
हो जब निज भाषा में शिक्षा, तभी सधेंगे, सभी काज जी।।
देवनागरी में लिखिए हर भाषा, होगा तब सुराज जी।।
***
सॉनेट
जात को अपनी कभी मरने न दीजिए।
बात से फिरिए नहीं, तभी तो बात है।
ऐब को यह जिस्म-जां चरने न दीजिए।।
करें फरेब जीत मिले तो भी मात है।।
फायदा हो कायदे से तभी लीजिए।
छीनिए मत और से, न छीनने ही दें।
वायदा टूटे नहीं हर जतन कीजिए।।
पंछियों को अन्न कभी बीनने भी दें।।
दुर्दशा लोगों की देखकर पसीजिए।
तंत्र रौंद लोक को गर्रा रहा हुज़ूर।
आईने में देख शकल नहीं रीझिए।।
लोग मरे जा रहे हैं; देखिए जरूर।।
सचाई से आखें कभी चार कीजिए।
औरों की सुन; तनिक ख़ुशी कभी दीजिए।।
१०-१-२०२२
***
हिंदी आरती
*
भारती भाषा प्यारी की।
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
वर्ण हिंदी के अति सोहें,
शब्द मानव मन को मोहें।
काव्य रचना सुडौल सुन्दर
वाक्य लेते सबका मन हर।
छंद-सुमनों की क्यारी की
आरती हिंदी न्यारी की।।
*
रखे ग्यारह-तेरह दोहा,
सुमात्रा-लय ने मन मोहा।
न भूलें गति-यति बंधन को-
न छोड़ें मुक्तक लेखन को।
छंद संख्या अति भारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
विश्व की भाषा है हिंदी,
हिंद की आशा है हिंदी।
करोड़ों जिव्हाओं-आसीन
न कोई सकता इसको छीन।
ब्रम्ह की, विष्णु-पुरारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
१०.१.२०१९
***
लघुकथा-
गूंगे का गुड़
*
अपने लेखन की प्रशंसा सुन मित्र ने कहा आप सब से प्रशंसा पाकर मन प्रसन्न होता है किंतु मेरे पति प्राय: कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते। मेरा ख़याल था कि उन्हें मेरा लिखना पसंद नहीं है परन्तु आप कहते हैं कि ऐसा नहीं है। यदि उन्हें मेरा लिखना औए मेरा लिखा अच्छा लगता है तो यह जानकर मुझे ख़ुशी और गौरव ही अनुभव होगा। मुझे उनकी जो बात अच्छी लगती है मैं कह देती हूँ, वे क्यों नहीं कहते?
मैंने कहा- आपके प्रश्न का उत्तर एक कहावत में निहित है 'गूंगे का गुड़'
***
मुक्तक
मन जी भर करता रहा, था जिसकी तारीफ
उसने पल भर भी नहीं, कभी करी तारीफ
जान-बूझ जिस दिन नहीं, मन ने की तारीफ
उस दिन वह उन्मन हुई, कर बैठी तारीफ
***
सोरठा
मन बैठा था मौन, लिखवाती संगत रही।
किसका साथी कौन?, संग खाती पंगत रही।।
***
दोहा सलिला
*
मन मीरां तन राधिका,तरें जपें घनश्याम।
पूछ रहे घनश्याम मैं जपूँ कौन सा नाम?
*
जिसको प्रिय तम हो गया, उसे बचाए राम।
लक्ष्मी-वाहन से सखे!, बने न कोई काम।।
*
प्रिय तम हो तो अमावस में मत बालो दीप।
काला कम्बल ओढ़कर, काजल नैना लीप।।
*
प्रियतम बिन कैसे रहे, मन में कहें हुलास?
विवश अधर मुस्का रहे, नैना मगर उदास।।
*
चाह दे रही आह का, अनचाहा उपहार।
वाह न कहते बन रहा, दाह रहा आभार।।
*
बिछुड़े आनंदकंद तो, छंद आ रहा याद।
बेचारा कब से करे, मत भूलो फरियाद।।
*
निठुर द्रोण-मूरत बने, क्यों स्नेहिल संजीव।
सलिल सलिल सा तरल हो, मत करिए निर्जीव।।
***
आलेख-
मत करें उपयोग इनका
हम जाने-अनजाने ऐसी सामग्री का उपयोग करते रहते हैं जो हमारे स्वस्थ्य, पर्यावरण और परिवेश के लिए घातक होती है. निम्न वस्तुएँ ऐसी ही हैं, इनका प्रयोग बंद कर हम आप तथा समाज और पर्यावरण को बेहतर बना सकते हैं.
१. प्लास्टिक निर्मित सामान- मनुष्य द्वारा किसी सामान का उपयोग किये जाने के बाद बचा निरुपयोगी कचरा कूड़े के ढेर, नाली, नाला, नदी से होते हुए अंतत: समुद्र में पहुँचकर 'रत्नाकर' को 'कचराघर' बना देता है. समुद्र को प्रदूषित करते कचरे में ८०% प्लास्टिक होता है. प्लास्टिक सड़ता, गलता नहीं, इसलिए वह मिट्टी में नहीं बदलता. भूमि में दबाये जाने पर बरसों बाद भी ज्यों का त्यों रहता है. प्लास्टिक जलने पर ओषजन वजू नष्ट होती है और प्रदूषण फैलानेवाली हानिप्रद वायु निकलती है. प्लास्टिक की डब्बियाँ, चम्मचें, प्लेटें, बर्तन, थैलियाँ, कुर्सियाँ आदि का कम से कम प्रयोग कर हम प्रदूषण कम कर सकते हैं.
प्लास्टिक के सामान मरम्मत योग्य नहीं होते. इनके स्थान पर धातु या लकड़ी का सामान प्रयोग किया जाए तो उसमें टूट-फूट होने पर मरम्मत तथा रंग-रोगन करना संभव होता है. इससे स्थानीय बेरोजगारों को आजीविका मिलती है जबकि प्लास्टिक सामग्री पूंजीपतियों का धन बढ़ाती है.
२. दन्तमंजन- हमने बचपन में कंडों या लकड़ी की राख में नमक-हल्दी मिले मंजन या दातौन का प्रयोग वर्षों तक किया है जिससे दांत मुक्त रहे. आजकल रसायनों से बने टूथपेस्ट का प्रयोग कर शैशव और बचपन दंत-रोगों से ग्रस्त हो रहा है. टूथपेस्ट कंपनियाँ ऐसे तत्वों (माइक्रोबीड्स) का प्रयोग करती हैं जिन्हें सड़ाया नहीं जा सकता. कोयले को घिसकर अथवा कोयले की राख से दन्तमंजन का काम लिया का सकता है. वनस्पतियों से बनाये गए दंत मंजन का प्रयोग बेहतर विकल्प है.
स्टीरोफोम
३. स्टिरोफोम से बने समान- आजकल तश्तरी, कटोरी, गिलास और चम्मच न सड़नेवाले (नॉन बायोडिग्रेडेबल) तत्वों से बनाये जाते हैं. हल्का और सस्ता होने पर भी यह गंभीर रोगों को जन्म दे सकता है. इसके स्थान पर बाँस, पेड़ के पत्तों, लकड़ी या छाल से बने समान का प्रयोग करें तो वह सड़कर मिटटी बन जाता है तह स्थानीय रोजगार का सर्जन करता है. इनकी उपलब्धता के लिए पौधारोपण बड़ी संख्या में करना होगा जिससे वन बढ़ेंगे और वायु प्रदूषण घटेगा.
१०.१.२०१७
***
नवगीत:
क्यों?
*
इसे क्यों
हिर्स लगती है
जिठानी से?
उसे क्यों
होड़ लेना
देवरानी से?
*
अँगुलियाँ कब हुई हैं
एक सी बोलो?
किसी को बेहतर-कमतर
न तुम तोलो
बँधी रख अँगुलियाँ
बन जाओ रे! मुट्ठी
कभी मत
हारना, दुनिया
दीवानी से
*
लड़े यदि नींव तो
दीवार रोयेगी
दिखाकर आँख छत
निज नाश बोयेगी
न पूछो हाल कलशों का
कि क्या होगा?
मिटाओ
विषमता मिल
ज़िंदगानी से
*
न हीरे-मोतियों से
प्यास मिटती है
न ताकत से अधर पर
हँसी खलती है
नयन में आस ही
बन प्रीत पलती है
न छीने
स्वप्न युग
नादां जवानी से
१०-१-२०१६
***
लघुकथा
जीत का इशारा
*
पिता को अचानक लकवा क्या लगा घर की गाड़ी के चके ही थम गये। कुछ दिन की चिकित्सा पर्याप्त न हुई. आय का साधन बंद और खर्च लगातार बढ़ता हुआ रोजमर्रा के खर्च, दवाई-इलाज और पढ़ाई।
उसने माँ के चहरे की खोटी हुई चमक और पिता की बेबसी का अनुमान कर अगले सवेरे औटो उठाया और चल पड़ी स्टेशन की ओर। कुछ देर बाद माँ जागी, उसे घर पर न देख अनुमान किया मंदिर गयी होगी। पिता के उठते ही उनकी परिचर्या के बाद तक वह न लौटी तो माँ को चिंता हुई, बाहर निकली तो देखा औटो भी नहीं है।
बीमार पति से क्या कहती?, नन्हें बेटे को जगाकर पडोसी को बुलाने का विचार किया। तभी एकदम निकट हॉर्न की आवाज़ सुनकर चौंकी। पलट कर देख तो उन्हीं का ऑटो था। ऑटो लेकर भागने वाले को पकड़ने के लिए लपकीं तो ठिठक कर रह गयीं, चालक के स्थान पर बैठी बेटी कर रही थी जीत का इशारा।
***
लघुकथा :
सहारे की आदत
*
'तो तुम नहीं चलोगे? मैं अकेली ही जाऊँ?' पूछती हुई वह रुँआसी हो आयी किंतु उसे न उठता देख विवश होकर अकेली ही घर से बाहर आयी और चल पड़ी अनजानी राह पर।
रिक्शा, रेलगाड़ी, विमान और टैक्सी, होटल, कार्यालय, साक्षात्कार, चयन, दायित्व को समझना-निभाना, मकान की तलाश, सामान खरीदना-जमाना एक के बाद एक कदम-दर-कदम बढ़ती वह आज विश्राम के कुछ पल पा सकी थी। उसकी याद सम्बल की तरह साथ होते हुए भी उसके संग न होने का अभाव खल रहा था।
साथ न आया तो खोज-खबर ही ले लेता, मन हुआ बात करे पर स्वाभिमान आड़े आ गया, उसे जरूरत नहीं तो मैं क्यों पहल करूँ? दिन निकलते गये और बेचैनी बढ़ती गयी। अंतत: मन ने मजबूर किया तो चलभाष पर संपर्क साधा, दूसरी और से उसकी नहीं माँ की आवाज़ सुन अपनी सफलता की जानकारी देते हुए उसके असहयोग का उलाहना दिया तो रो पड़ी माँ और बोली बिटिया वह तो मौत से जूझ रहा है, कैंसर का ऑपरेशन हुआ है, तुझे नहीं बताया कि फिर तू जा नहीं पाती। तुझे इतनी रुखाई से भेजा ताकि तू छोड़ सके उसके सहारे की आदत।
स्तब्ध रह गयी वह, माँ से क्या कहती?
तुरंत बाद माँ के बताये चिकित्सालय से संपर्क कर देयक का भुगतान किया, अपने नियोक्ता से अवकाश लिया, आने-जाने का आरक्षण कराया और माँ को लेकर पहुँची चिकित्सालय, वह इसे देख चौंका तो बोली मत परेशान हो, मैं तम्हें साथ ले जा रही हूँ। अब मुझे नहीं तुम्हें डालनी है सहारे की आदत।
***
लघुकथा:
विधान
*
नवोढ़ा पुत्रवधू के हर काम में दोष निकलकर उन्हें संतोष होता, सोचतीं यह किसी तरह मायके चली जाए तो पुत्र पर फिर एकाधिकार हो जाए. बेटी भी उनका साथ देती। न जाने किस मिट्टी की बनी थी पुत्रवधु कि हर बात मुस्कुरा कर टाल देती।
कुछ दिनों बाद बेटी का विवाह बहुत अरमनों से किया उन्होंने। कुछ दिनों बाद बेटी को अकेला देहरी पर खड़ा देखकर उनका माथा ठनका, पूछा तो पता चला कि वह अपनी सास से परेशान होकर लौट आयी फिर कभी न जाने के लिये। इससे पहले कि वे बेटी से कुछ कहें बहू अपनी ननद को अन्दर ले गयी और वे सोचती रह गयीं कि यह विधि का विधान है या शिक्षा-विधान?
१०.१.२०१६
***
विचित्र भारत
सोनिया गांधी मंदिर महबूबनगर, आंध्र

आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के एक कार्यकर्ता पूर्व मंत्री पी शंकर राव ने वर्ष १९१४ में सत्ताधारी दल की मुखिया सोनिया गांधी की ९ फुट ऊंची प्रतिमा स्थापित कर मंदिर तैयार करवाया है। इतालवी मूल की ७१ वर्षीय श्रीमती सोनिया गांधी देश के सबसे ताकतवर राजनीतिज्ञों में से एक हैं। वे उस नेहरू-गाँधी परिवार की सदस्य हैं जिसने देश को ३ तीन प्रधानमंत्री (जवाहर लाल जी, इंदिरा गाँधी जी और राजीव गाँधी जी) दिए हैं जिनमें से बाद के दोनों शहीद हुए। राव ने जुलाई १९९३ में आंध्र प्रदेश के विभाजन और अलग तेलंगाना राज्य बनाने के पार्टी के फैसले के बाद सोनिया गांधी को धन्यवाद देने के लिए महबूबनगर में यह मंदिर बनवाया है। ३.५ करोड़ आबादी वाले तेलंगाना इलाके में हैदराबाद समेत आंध्र प्रदेश के 23 जिलों के 10 जिले शामिल किए गए हैं। राव ने कहा, ''अलग तेलंगाना राज्य बनाने की दशकों पुरानी माँग को पूरा करने में ऐतिहासिक भूमिका अदा करने के लिए सोनिया गाँधीको धन्यवाद देने का यह हमारा तरीक़ा है।''
उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्य मंत्री रहीं बहुजन समाजवादी पार्टी की मायावती जी ने राजधानी लखनऊ में खुद अपनी प्रतिमा युक्त मंदिर का उद्घाटन किया है। दक्षिण भारत में साहित्यकारों, राजनेताओं और अभिनेताओं के मंदिर बनाने की लंबी परंपरा रही है।
***
नवगीत:
.
छोड़ो हाहाकार मियाँ!
.
दुनिया अपनी राह चलेगी
खुदको खुद ही रोज छ्लेगी
साया बनकर साथ चलेगी
छुरा पीठ में मार हँसेगी
आँख करो दो-चार मियाँ!
.
आगे आकर प्यार करेगी
फिर पीछे तकरार करेगी
कहे मिलन बिन झुलस मरेगी
जीत भरोसा हँसे-ठगेगी
करो न फिर भी रार मियाँ!
.
मंदिर में मस्जिद रच देगी
गिरजे को पल में तज देगी
लज्जा हया शरम बेचेगी
इंसां को बेघर कर देगी
पोंछो आँसू-धार मियाँ!
नवगीत:
.
रब की मर्ज़ी
डुबा नाखुदा
गीत गा रहा
.
किया करिश्मा कोशिश ने कब?
काम न आयी किस्मत, ना रब
दुनिया रिश्ते भूल गयी सब
है खुदगर्ज़ी
बुला, ना बुला
मीत भा रहा
.
तदबीरों ने पाया धोखा
तकरीरों में मिला न चोखा
तस्वीरों का खाली खोखा
नाता फ़र्ज़ी
रहा, ना रहा
जीत जा रहा
.
बादल गरजा दिया न पानी
बिगड़ी लड़की राह भुलानी
बिजली तड़की गिरी हिरानी
अर्श फर्श को
मिला, ना मिला
रीत आ रहा
***
नवगीत:
.
उम्मीदों की फसल
ऊगना बाकी है
.
अच्छे दिन नारों-वादों से कब आते हैं?
कहें बुरे दिन मुनादियों से कब जाते हैं?
मत मुगालता रखें जरूरी खाकी है
सत्ता साध्य नहीं है
केवल साकी है
.
जिसको नेता चुना उसीसे आशा है
लेकिन उसकी संगत तोला-माशा है
जनप्रतिनिधि की मर्यादा नापाकी है
किससे आशा करें
मलिन हर झाँकी है?
.
केंद्रीकरण न करें विकेन्द्रित हो सत्ता
सके फूल-फल धरती पर लत्ता-पत्ता
नदी-गाय-भू-भाषा माँ, आशा काकी है
आँख मिलाकर
तजना ताका-ताकी है
***
नवगीत:
.
लोकतंत्र का
पंछी बेबस
.
नेता पहले डालें दाना
फिर लेते पर नोच
अफसर रिश्वत गोली मारें
करें न किंचित सोच
व्यापारी दे
नशा रहा डँस
.
आम आदमी खुद में उलझा
दे-लेता उत्कोच
न्यायपालिका अंधी-लूली
पैरों में है मोच
ठेकेदार-
दलालों को जस
.
राजनीति नफरत की मारी
लिए नींव में पोच
जनमत बहरा-गूँगा खो दी
निज निर्णय की लोच
एकलव्य का
कहीं न वारिस
१०-१-२०१५
छंद सलिला:
नौ मात्रिक छंद गंग
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रा वज्रा, उपेन्द्र वज्रा, कीर्ति, घनाक्षरी, प्रेमा, वाणी, शक्तिपूजा, सार, माला, शाला, हंसी, दोधक, सुजान, छवि)
*
९ वसुओं के आधार पर नौ मात्राओं के छंदों को वासव छंद कहा गया है. नवधा भक्ति, नौ रस, नौ अंक, अनु गृह, नौ निधियाँ भी नौ मात्राओं से जोड़ी जा सकती हैं. नौ मात्राओं के ५५ छंदों को ५ वर्गों में विभाजित किया जा सकता है.
१. ९ लघु मात्राओं के छंद १
२. ७ लघु + १ गुरु मात्राओं के छंद ७
३. ५ लघु + २ गुरु मात्राओं के छंद २१
४. ३ लघु + ३ गुरु मात्राओं के छंद २०
५. १ लघु + ४ गुरु मात्राओं के छंद ५
नौ मात्रिक छंद गंग
नौ मात्रिक गंग छंद के अंत में २ गुरु मात्राएँ होती हैं.
उदाहरण:
१. हो गंग माता / भव-मुक्ति-दाता
हर दुःख हमारे / जीवन सँवारो
संसार चाहे / खुशियाँ हजारों
उतर आसमां से / आओ सितारों
जन्नत जमीं पे, नभ से उतारो
शिव-भक्ति दो माँ / भाव-कष्ट-त्राता
२. दिन-रात जागो / सीमा बचाओ
अरि घात में है / मिलकर भगाओ
तोपें चलाओ / बम भी गिराओ
सेना लड़ेगी / सब साथ आओ
३. बचपन हमेशा / चाहे कहानी
है साथ लेकिन / दादी न नानी
हो ज़िंदगानी / कैसे सुहानी
सुने न किस्से, न / बातें बनानी
१०.१.२०१४
***



मंगलवार, 5 मार्च 2024

५ मार्च, नवगीत, अंग्रेजी, दोहा, निर्मल शुक्ल, जगदीश व्योम, होली, मधुकर अष्ठाना, गोपी छंद, हिंदी आरती, सॉनेट, सरस्वती,

सृजन ५ मार्च
*
सॉनेट
रस्साकसी
*
अहंकार की रस्साकसी।
किरच काँच की दिल में धसी।।
सत्ता सौत सत्य की मुई।
चाहे चारण हो हर मसी।।
जा जीवन की जय-जय बोल।
बोला, रज्जु कण्ठ में कसी।।
रही मिलाए इससे नयन।
छवि नयनों में उसकी बसी।।
झूठ नहीं; है सच्ची खबर
नागिन मृत; नेता ने डसी।
काशी नहिं; कबिरा का मगहर।।
तुलसी-मुक्ति दायिनी असी।।
नहीं सिया-सत किंचित शेष।
मुई सियासत जबरन ठसी।।
५-३-२०२२
•••
मुक्तिका
*
कौन किसका हुआ जमाने में?
ज़िंदगी गई आजमाने में।।
बात आई समझ सलिल इतनी
दिल्लगी है न दिल लगाने में।।
चैन बाजार में नहीं मिलती
चैन मिलती है गुसलखाने में।।
रैन भर जाग थक रहा खुसरो
पी थका है उसे सुलाने में।।
जान पाया हूँ बाद अरसे के
क्या मजा है खुदी मिटाने में।।
५-३-२०२१
***
सरस्वती वंदना
*
हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
जग सिरमौर बनाएँ भारत.
सुख-सौभाग्य करे नित स्वागत.
आशिष अक्षय दे.....
साहस-शील हृदय में भर दे.
जीवन त्याग तपोमय करदे.
स्वाभिमान भर दे.....
लव-कुश, ध्रुव, प्रहलाद बनें हम.
मानवता का त्रास हरें हम.
स्वार्थ सकल तज दे.....
दुर्गा, सीता, गार्गी, राधा,
घर-घर हों काटें भव बाधा.
नवल सृष्टि रच दे....
सद्भावों की सुरसरि पावन.
स्वर्गोपम हो राष्ट्र सुहावन.
'सलिल'-अन्न भर दे...
***
छंद - " गोपी " ( सम मात्रिक )
शिल्प विधान: मात्रा भार - १५, आदि में त्रिकल अंत में गुरु/वाचिक अनिवार्य (अंत में २२ श्रेष्ठ)। आरम्भ में त्रिकल के बाद समकल, बीच में त्रिकल हो तो समकल बनाने के लिएएक और त्रिकल आवश्यक। यह श़ृंगार छंद की प्रजाति (उपजाति नहीं ) का है। आरम्भ और मध्य की लय मेल खाती है।
उदाहरण:
१. आरती कुन्ज बिहारी की।
कि गिरधर कृष्ण मुरारी की।।
२. नीर नैनन मा भरि लाए।
पवनसुत अबहूँ ना आए।।
३. हमें निज हिन्द देश प्यारा ।
सदा जीवन जिस पर वारा।।
सिखाती हल्दी की घाटी ।
राष्ट्र की पूजनीय माटी ।। -राकेश मिश्र
४. हमारी यदि कोई माने।
प्यार को ही ईश्वर जाने।
भले हो दुनियाँ की दलदल।
निकल जायेगा अनजाने।। -रामप्रकाश भारद्वाज
***
हिंदी आरती 
*
भारती भाषा प्यारी की।
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
वर्ण हिंदी के अति सोहें,
शब्द मानव मन को मोहें।
काव्य रचना सुडौल सुन्दर
वाक्य लेते सबका मन हर।
छंद-सुमनों की क्यारी की
आरती हिंदी न्यारी की।।
*
रखे ग्यारह-तेरह दोहा,
सुमात्रा-लय ने मन मोहा।
न भूलें गति-यति बंधन को-
न छोड़ें मुक्तक लेखन को।
छंद संख्या अति भारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
विश्व की भाषा है हिंदी,
हिंद की आशा है हिंदी।
करोड़ों जिव्हाओं-आसीन
न कोई सकता इसको छीन।
ब्रम्ह की, विष्णु-पुरारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
***
दोहा सलिला
*
खिली मंजरी देखकर, झूमा मस्त बसंत
फगुआ के रंग खिल गए, देख विमोहित संत
*
दोहा-पुष्पा सुरभि से, दोहा दुनिया मस्त
दोस्त न हो दोहा अगर, रहे हौसला पस्त
*
जब से ईर्ष्या बढ़ हुई, है आपस की जंग
तब से होली हो गयी, है सचमुच बदरंग
*
दोहे की महिमा बड़ी, जो पढ़ता हो लीन
सारी दुनिया सामने, उसके दिखती दीन
*
लता सुमन से भेंटकर, है संपन्न प्रसन्न
सुमन लता से मिल गले, देखे प्रभु आसन्न
*
भक्ति निरुपमा चाहती, अर्पित करना आत्म
कुछ न चाह, क्या दूँ इसे, सोच रहे परमात्म
*
५-३-२०१८
***
नवगीत-
रिश्ते
*
जब-जब रिश्तों की बखिया उधड़ी
तब-तब सुई स्नेह की लेकर
रिश्ते तुरप दिए
*
कटी-फटी दिन की चादर में
किरण लगाती टाँके
हँस-मुस्काती क्यारी पुष्पा
सूरज सुषमा आँके
आशा की पुरवैया झाँके
सुमन सुगंधित लाके
जब-जब नातों की तबियत बिगड़ी
रब-नब आगे हाथ जोड़कर
नाते नये किये
*
तुड़ी-मुड़ी नम रात-रजाई
ओढ़ नहीं सो पाते
चंदा-तारे हिरा गये लड़
मेघ खोज थक जाते
नींद-निशा से दूर परिंदे
उड़ दिनेश ले आते
छब-ढब अजब नहीं अगड़ी-पिछड़ी
चुप मन वीणा बजा-बजाकर
भेंटे सुगढ़ हिये
***
नवगीत
हमें न रोको, तनिक न टोंको
प्रगतिशील आज़ाद हम
नहीं शत्रु की कोई जरूरत
करें देश बर्बाद हम
*
हम आज़ाद ख़याल बहुत हैं
ध्वजा विदेश प्यारी है
कोसें निज ध्वज-संविधान को
मन भाती गद्दारी है
जनगण जिनको चुनें , उन्हें
कैसे देखें आबाद हम?
*
जिस पत्तल में कहते हैं हम
उसमें करते छेद हैं
उद्घाटित कर दें दुश्मन पर
कमजोरी के भेद हैं
छुरा पीठ में भोंक करेंगे
'न्याय मिले' फरियाद हम
*
हमें भरोसा तनिक नहीं
फिर भी संसद में बैठेंगे
काल कर निज चेहरे को हम
शिक्षालय में पैठेंगे
दोष व्यवस्था पर धर देंगे
जब तोड़ें मर्याद हम
*
आतंकी हमको हैं प्यारे
जला रहे घर ले अंगारे
आरक्षण चिरकाल चाहिए
चला योग्यता पर दोधारे
भारत माँ को रुला-रुला
आँसू का लेते स्वाद हम
***
नवगीत -
बम भोले! मत बोलो भाई
मत कहना जय राम जी!!
*
लोकतंत्र का अजब तकाज़ा
दुनिया देखे ठठा तमाशा
अपना हाथ
गाल भी अपना
जमकर मारें खुदी तमाचा
आज़ादी कुछ भी कहने की?
हुए विधाता वाम जी!
बम भोले! मत बोलो भाई
मत कहना जय राम जी!!
*
जन का निर्णय पचा न पाते
संसद में बैठे गुर्राते
न्यायालय का
कहा न मानें
झूठे, प्रगतिशील कहलाते
'ख़ास' बुद्धिजीवी पथ भूले
इन्हें न कहना 'आम' जी
बम भोले! मत बोलो भाई
मत कहना जय राम जी!!
*
कहाँ मानते हैं बातों से
कहो, देवता जो लातों के?
जैसे प्रभु
वैसी हो पूजा
उत्तर दो सब आघातों के
अवसर एक न पाएं वे
जो करें देश बदनाम जी
बम भोले! मत बोलो भाई
मत कहना जय राम जी!!
५-३-२०१६
***
कृति चर्चा:
वक्त आदमखोर: सामयिक वैषम्य का दस्तावेज़
.
[कृति विवरण: वक्त आदमखोर, नवगीत संग्रह, मधुकर अष्ठाना, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, १९९८, पृष्ठ १२६, नवगीत १०१, १५०/-, अस्मिता प्रकाशन, इलाहाबाद]
साहित्य का लक्ष्य सबका हित साधन ही होता है, विशेषकर दीन-हीन-कमजोर व्यक्ति का हित। यह लक्ष्य विसंगतियों, शोषण और अंतर्विरोधों के रहते कैसे प्राप्त हो सकता है? कोई भी तंत्र, प्रणाली, व्यवस्था, व्यक्ति समूह या दल प्रकृति के नियमानुसार दोषों के विरोध में जन्मता, बढ़ता, दोषों को मिटाता तथा अंत में स्वयं दोषग्रस्त होकर नष्ट होता है। साहित्यकार शब्द ब्रम्ह का आराधक होता है, उसकी पारदर्शी दृष्टि अन्यों से पहले सत्य की अनुभूति करती है। उसका अंतःकरण इस अभिव्यक्ति को सृजन के माध्यम से उद्घाटित कर ब्रम्ह के अंश आम जनों तक पहुँचाने के लिये बेचैन होता है। सत्यानुभूति को ब्रम्हांश आम जनों तक पहुँचाकर साहित्यकार व्यव्ष्ठ में उपजी गये सामाजिक रोगों की शल्यक्रिया करने में उत्प्रेरक का काम करता है।
विख्यात नवगीतकार श्री मधुकर अष्ठाना अपनी कृति ‘वक्त आदमखोर’ के माध्यम से समाज की नब्ज़ पर अँगुली रखकर तमाम विसंगतियों को देख-समझ, अभिव्यक्तकर उसके निराकरण का पथ संधानने की प्रेरणा देते हैं। श्री पारसनाथ गोवर्धन का यह आकलन पूरी तरह सही है: ‘इन नवगीतों की विशिष्ट भाषा, अछूते शब्द विन्यास, मौलिक उद्भावनाएँ, यथार्थवादी प्रतीक, अनछुए बिम्बों का संयोजन, मुहावरेदारी तथा देशज शब्दों का संस्कारित प्रयोग उन्हें अन्य रचनाकारों से पृथक पहचान देने में समर्थ है।
नवगीतों में प्रगतिवादी कविता के कथ्य को छांदस शिल्प के साथ अभिव्यक्त कर सहग ग्राह्य बनाने के उद्देश्य को लेकर नवगीत रच रहे नवगीतकारों में मधुर अष्ठाना का सानी नहीं है। स्वास्थ्य विभाग में सेवारत रहे मधुकर जी स्वस्थ्य समाज की चाह करें, विसंगतियों को पहचानने और उनका निराकरण करने की कामना से अपने नवगीतों के केंद्र में वैषम्य को रखें यह स्वाभाविक है। उनके अपने शब्दों में ‘मानवीय संवेदनाओं के प्रत्येक आयाम में विशत वातावरण से ह्त्प्रह्ब, व्यथित चेतना के विस्फोट ने कविताओं का आकार ग्रहण कर लिया.... भाषा का कलेवर, शब्द-विन्यास, शिल्प-शैली तथा भावनाओं की गंभीरता से निर्मित होता है... इसीलिए चुस्त-दुरुस्त भाषा, कसे एवं गठे शब्द-विन्यास, पूर्व में अप्रयुक्त, अनगढ़-अप्रचलित सार्थक शब्दों का प्रयोग एवं देश-काल-परिस्थिति के अनुकूल आंचलिक एवं स्थानीय प्रभावों को मुखरित करने की कोशिश को मैंने प्रस्तुत गीतों में प्राथमिकता देकर अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है।’
मधुकर जी की भाषा हिंदी-उर्दू-देशज मिश्रित है। ‘तन है वीरान खँडहर / मन ही इस्पात का नगर, मजबूरी आम हो गयी / जिंदगी हराम हो गयी, कदम-कदम क्रासों का सिलसिला / चूर-चूर मंसूबों का किला, प्यासे दिन हैं भूखी रातें / उम्र कटी फर्जी मुस्काते, टुकड़े-टुकड़े अपने राम रह गये / संज्ञाएँ गयीं सर्वनाम रह गये, जीवन भर जो रिश्ते ढोये हैं / कदम-कदम पर कांटे बोये हैं, प्याली में सुबह ढली, थाली में दोपहर / बुझी-बुझी आँखों में डूबे शामो-सहर, जीवन यों तो ठहर गया है / एक और दिन गुजर गया है, तर्कों पर लाद जबर्दस्तियाँ / भूल गयीं दीवारें हस्तियाँ आदि पंक्तियाँ पाठक को आत्म अनुभूत प्रतीत होती हैं। इन नवगीतों में कहीं भी आभिजात्यता को ओढ़ने या संभ्रांतता को साध्य बताने की कोशिश नहीं है। मधुकर जी को भाषिक टटकापन तलाशकर आरोपित नहीं करना पड़ता। उन्हें सहज-साध्य मुहावरेदार शब्दावली के भाव-प्रवाह में संस्कृतनिष्ठ, देशज, ग्राम्य और उर्दू मिश्रित शब्द अपने आप नर्मदा के सलिला-प्रवाह में उगते-बहते कमल दल और कमल पत्रों की तरह साथ-साथ अपनी जगह बनाकर सुशोभित होते जाते हैं। निर्मम फाँस गड़ी मुँहजोरी / तिरस्कार गढ़ गया अघोरी, जंगली विधान की बपौती / परिचय प्रतिमान कहीं उड़ गये / भकुआई भीड़ है खड़ी, टुटपुंजिया मिन्नतें तमाम / फंदों में झूलें अविराम, चेहरों को बाँचते खड़े / दर्पण खुद टूटने लगे आदि पंक्तियों में दैनंदिन आम जीवन में प्रयुक्त होते शब्दों का सघन संगुफन द्रष्टव्य है। भाषी शुद्धता के आग्रही भले ही इन्हें पढ़कर नाक-भौं सिकोड़ें किन्तु नवगीत का पाठक इनमें अपने परिवेश को मुखर होता पाकर आनंदित होता है। अंग्रेजी भाषा से शिक्षित शहरी नयी पीढ़ी के लिए इनमें कई शब्द अपरिचित होंगे किन्तु उन्हें शब्द भण्डार बढ़ाने का सुनहरा अवसर इन गीतों से मिलेगा, आम के आम गुठलियों के दाम...
मधुकर जी इन नवगीतों में सामयिक युगबोधजनित संवेदनाओं, पारिस्थितिक वैषम्य प्रतिबिंबित करती अनुभूतियों, तंत्रजनित विरोधाभासी प्रवृत्तियों तथा सतत ध्वस्त होते मानव-मूल्यों से उत्पन्न तनाव को केंद्र में रखकर अपने चतुर्दिक घटते अशुभ को पहचानकर उद्घाटित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। उनकी इस प्रवृत्ति पर आनंद-मंगल, शुभ, उत्सव, पर्व आदि की अनदेखी और उपेक्षा करने का आरोप लगाया जा सकता है किन्तु इन समसामयिक विद्रूपताओं की उपस्थिति और प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। घर में अपनों के साथ उत्सव मनाकर आनंदमग्न होने के स्थान पर किसी अपरिचित की आँखों के अश्रु पोछने का प्रयास अनुकरणीय ही हो सकता है।
मधुकर जी के इन नवगीतों की विशिष्ट भाषा, अछूता शब्द चयन, मौलिक सोच, यथार्थवादी प्रतीक, अछूता बिम्ब संयोजन, देशज-परिनिष्ठित शब्द प्रयोग, म्हावारों और कहावतों की तरह सरस लच्छेदार शब्दावली, सहज भाव मुद्रा, स्पष्ट वैषम्य चित्रण तथा तटस्थ-निरपेक्ष अभिव्यक्ति उनकी पहचान स्थापित करती है। नवगीत की प्रथम कृति में ही मधुकर जी परिपक्व नवगीतकार की तरह प्रस्तुत हुए हैं। उन्हें विधा के विधान, शिल्प, परिसीमाओं, पहुच, प्रभाव तथा वैशिष्ट्य की पूर्ण जानकारी है। उनकी शब्द-सामर्थ्य, रूपक गढ़न-क्षमता, नवोपमायें खोजन एकी सूक्ष्म दृष्टि, अनुभूत और अनानुभूत दोनों को समान अंतरंगता से अभिव्यक्त कर सकने की कुशलता एनी नवगीतकारों से अलग करती है। अपने प्रथम नवगीत संग्रह से ही वे नवगीत की दोष-अन्वेषणी प्रवृत्ति को पहचान कर उसका उपयोग लोक-हित के लिए करने के प्रति सचेष्ट प्रतीत होते हैं।
मधुकर जी गजल (मुक्तिका) तथा लोकभाषा में काव्य रचना में निपुण हैं। स्वाभाविक है कि गजल में मतला (आरम्भिका) लेखन का अभ्यास उनके नवगीतों में मुखड़ों तथा अंतरों को अधिकतर द्विपंक्तीय रखने के रूप में द्रष्टव्य है। अंतरों की पंक्तियाँ लम्बी होने पर उन्हें चार चरणों में विभक्त किया गया है। अंतरांत में स्थाई या टेक के रूप में कहीं-कहीं २-२ पंक्तियाँ का प्रयोग किया गया है।
मधुकर जी की कहाँ की बानगी के तौर पर एक नवगीत देखें:
पत्थर पर खींचते लकीरें
बीत रहे दिन धीरे-धीरे
चेहरे पर चेहरे, शंकाओं की बातें
शीतल सन्दर्भों में दहक रही रातें
धारदार पल अंतर चीरें
आँखों में तैरतीं अजनबी कुंठायें
नंगे तारों पर फिर जिंदगी बिठायें
अधरों पर अनगूंजी पीरें
बार-बार सूरज की लेकर कुर्बानी
सुधियों की डोर कटी, डूबी नादानी
स्याह हैं चमकती तस्वीरें
एक सौ एक नवगीतों की यह माला रस वैविध्य की दृष्टि से निराश करती है। मधुकर जी लिखते हैं: ‘ इंद्रढनुष में सातों सरगम लहरायें / लहरों पर गंध तिरे पाले छितरायें’ (चुभो न जहरीले डंक) किन्तु संग्रह के अधिकाँश नवगीत डंक दंशित प्रतीत होते हैं। मधुकर जी के साथ इस नवगीत कुञ्ज में विचरते समय कलियों-कुसुमों के पराग की अभिलाषा दुराशा सिद्ध होने पर भी गुलाब से लेकर नागफनी और बबूलों के शूलों की चुभन की प्रतीति और उस चुभन से मुक्त होकर फूलों की कोमलता का स्पर्श पाने की अनकही चाह pathak को बांधे रखती है। नवगीत की यथार्थवादी भावधारा का प्रतिनिधित्व करति यह कृति पठनीय होने के साथ-साथ विचारणीय भी है।
***
होली के दोहे
होली का हर रंग दे, खुशियाँ कीर्ति समृद्धि.
मनोकामना पूर्ण हों, सद्भावों की वृद्धि..
स्वजनों-परिजन को मिले, हम सब का शुभ-स्नेह.
ज्यों की त्यों चादर रखें, हम हो सकें विदेह..
प्रकृति का मिलकर करें, हम मानव श्रृंगार.
दस दिश नवल बहार हो, कहीं न हो अंगार..
स्नेह-सौख्य-सद्भाव के, खूब लगायें रंग.
'सलिल' नहीं नफरत करे, जीवन को बदरंग..
जला होलिका को करें, पूजें हम इस रात.
रंग-गुलाल से खेलते, खुश हो देख प्रभात..
भाषा बोलें स्नेह की, जोड़ें मन के तार.
यही विरासत सनातन, सबको बाटें प्यार..
शब्दों का क्या? भाव ही, होते 'सलिल' प्रधान.
जो होली पर प्यार दे, सचमुच बहुत महान..
***
कृति चर्चा :
नवगीत २०१३: रचनाधर्मिता का दस्तावेज
[कृति विवरण: नवगीत २०१३ (प्रतिनिधि नवगीत संकलन), संपादक डॉ. जगदीश व्योम, पूर्णिमा बर्मन, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, पृष्ठ १२ + ११२, मूल्य २४५ /, प्रकाशक एस. कुमार एंड कं. ३६१३ श्याम नगर, दरियागंज, दिल्ली २ ]
विश्व वाणी हिंदी के सरस साहित्य कोष की अनुपम निधि नवगीत के विकास हेतु संकल्पित-समर्पित अंतर्जालीय मंच अभिव्यक्ति विश्वं तथा जाल पत्रिका अनुभूति के अंतर्गत संचालित ‘नवगीत की पाठशाला’ ने नवगीतकारों को अभिव्यक्ति और मार्गदर्शन का अनूठा अवसर दिया है. इस मंच से जुड़े ८५ प्रतिनिधि नवगीतकारों के एक-एक प्रतिनिधि नवगीत का चयन नवगीत आंदोलन हेतु समर्पित डॉ. जगदीश व्योम तथा तथा पूर्णिमा बर्मन ने किया है.
इन नवगीतकारों में वर्णमाला क्रमानुसार सर्व श्री अजय गुप्त, अजय पाठक, अमित, अर्बुदा ओहरी, अवनीश सिंह चौहान, अशोक अंजुम, अशोक गीते, अश्वघोष, अश्विनी कुमार अलोक, ओम निश्चल, ओमप्रकाश तिवारी, ओमप्रकश सिंह, कमला निखुर्पा, कमलेश कुमार दीवान, कल्पना रमणी, कुमार रविन्द्र, कृष्ण शलभ, कृष्णानंद कृष्ण, कैलाश पचौरी, क्षेत्रपाल शर्मा, गिरिमोहन गुरु, गिरीशचंद्र श्रीवास्तव, गीता पंडित, गौतम राजरिशी, चंद्रेश गुप्त, जयकृष्ण तुषार, स्ग्दिश व्योम, जीवन शुक्ल, त्रिमोहन तरल, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, धर्मेन्द्र कुमार सिंह, नचिकेता, नवीन चतुर्वेदी, नियति वर्मा, निर्मल सिद्धू, निर्मला जोशी, नूतन व्यास, पूर्णिमा बर्मन, प्रभुदयाल श्रीवास्तव, प्रवीण पंडित, ब्रजनाथ श्रीवास्तव, भारतेंदु मिश्र, भावना सक्सेना, मनोज कुमार, विजेंद्र एस. विज, महेंद्र भटनागर, महेश सोनी, मानोशी, मीणा अग्रवाल, यतीन्द्रनाथ रही, यश मालवीय, रचना श्रीवास्तव, रजनी भार्गव, रविशंकर मिश्र, राजेंद्र गौतम, राजेंद्र वर्मा, राणा प्रताप सिंह, राधेश्याम बंधु, रामकृष्ण द्विवेदी ‘मधुकर’, राममूर्ति सिंह अधीर, संगीता मनराल, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, रवीन्द्र कुमार रवि, रूपचंद शास्त्री ‘मयंक’, विद्यानंदन राजीव, विमल कुमार हेडा, वीनस केसरी, शंभुशरण मंडल, शशि पाधा, शारदा मोंगा, शास्त्री नित्य गोपाल कटारे, सिवाकांत मिश्र ‘विद्रोही’, शेषधर तिवारी, श्यामबिहारी सक्सेना, श्याम सखा श्याम, श्यामनारायण मिश्र, श्रीकांत मिश्र ‘कांत’, संगीता स्वरुप, संजीव गौतम, संजीव वर्मा ‘सलिलl’, सुभाष राय, सुरेश पंडा, हरिशंकर सक्सेना, हरिहर झा, हरीश निगम हैं.
उक्त सूची से स्पष्ट है कि वरिष्ठ तथा कनिष्ठ, अधिक चर्चित तथा कम चर्चित, नवगीतकारों का यह संकलन ३ पीढ़ियों के चिंतन, अभिव्यक्ति, अवदान तथा गत ३ दशकों में नवगीत के कलेवर, भाषिक सामर्थ्य, बिम्ब-प्रतीकों में बदलाव, अलंकार चयन और सर्वाधिक महत्वपूर्ण नवगीत के कथ्य में परिवर्तन के अध्ययन के लिये पर्याप्त सामग्री मुहैया कराता है. संग्रह का कागज, मुद्रण, बँधाई, आवरण आदि उत्तम है. नवगीतों में रूचि रखनेवाले साहित्यप्रेमी इसे पढ़कर आनंदित होंगे.
शोध छात्रों के लिये इस संकलन में नवगीत की विकास यात्रा तथा परिवर्तन की झलक उपलब्ध है. नवगीतों का चयन सजगतापूर्वक किया गया है. किसी एक नवगीतकार के सकल सृजन अथवा उसके नवगीत संसार के भाव पक्ष या कला पक्ष को किसी एक नवगीत के अनुसार नहीं आँका जा सकता किन्तु विषय की परिचर्या (ट्रीटमेंट ऑफ़ सब्जेक्ट) की दृष्टि से अध्ययन किया जा सकता है. नवगीत चयन का आधार नवगीत की पाठशाला में प्रस्तुति होने के कारण सहभागियों के श्रेष्ठ नवगीत नहीं आ सके हैं. बेहतर होता यदि सहभागियों को एक प्रतिनिधि चुनने का अवसर दिया जाता और उसे पाठशाला में प्रस्तुत कर सम्मिलित किया जा सकता. हर नवगीत के साथ उसकी विशेषता या खूबी का संकेत नयी कलमों के लिये उपयोगी होता.
संग्रह में नवगीतकारों के चित्र, जन्म तिथि, डाक-पते, चलभाष क्रमांक, ई मेल तथा नवगीत संग्रहों के नाम दिये जा सकते तो इसकी उपयोगिता में वृद्धि होती. आदि में नवगीत के उद्भव से अब तक विकास, नवगीत के तत्व पर आलेख नई कलमों के मार्गदर्शनार्थ उपयोगी होते. परिशिष्ट में नवगीत पत्रिकाओं तथा अन्य संकलनों की सूची इसे सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में अधिक उपयोगी बनाती तथापि नवगीत पर केन्द्रित प्रथम प्रयास के नाते ‘नवगीत २०१३’ के संपादक द्वय का श्रम साधुवाद का पात्र है. नवगीत वर्तमान स्वरुप में भी यह संकलन हर नवगीत प्रेमी के संकलन में होनी चाहिए. नवगीत की पाठशाला का यह सारस्वत अनुष्ठान स्वागतेय तथा अपने उद्देश्य प्राप्ति में पूर्णरूपेण सफल है. नवगीत एक परिसंवाद के पश्चात अभिव्यक्ति विश्वं की यह बहु उपयोगी प्रस्तुति आगामी प्रकाशन के प्रति न केवल उत्सुकता जगाती है अपितु प्रतीक्षा हेतु प्रेरित भी करती है.
***
कृति चर्चा :
नवगीत को परखता हुआ “नवगीत एक परिसंवाद”
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
[कृति विवरण: नवगीत:एक परिसंवाद, संपादक निर्मल शुक्ल, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जेकेटयुक्त, पृष्ठ ११०, मूल्य २००/-, प्रकाशक विश्व पुस्तक प्रकाशन, ३०४ ए, बी, जी ६, पश्चिम विहार, नई दिल्ली ६३]
साहित्य समाज का दर्पण मात्र नहीं होता, वह समाज का प्रेरक और निर्माता भी होता है. काव्य मनुष्य के अंतर्मन से नि:स्रत ही नहीं होता, उसे प्रभावित भी करता है. नवगीत नव गति, नव लय, नव ताल, नव छंद से प्रारंभ कर नव संवाद, नव भावबोध, नव युगबोध नव अर्थबोध, नव अभिव्यक्ति ताक पहुँच चुका है. नवगीत अब बौद्धिक भद्र लोक से विस्तृत होकर सामान्य जन तक पैठ चुका है. युगीन सत्यों, विसंगतियों, विडंबनाओं, आशाओं, अरमानों तथा अपेक्षाओं से आँखें मिलाता नवगीत समाज के स्वर से स्वर मिलाकर दिशा दर्शन भी कर पा रहा है. अपने छः दशकीय सृजन-काल में नवगीत ने सतही विस्तार के साथ-साथ अटल गहराइयों तथा गगनचुम्बी ऊँचाइयों को भी स्पर्श किया है.
‘नवगीत : एक परिसंवाद’ नवगीत रचना के विविध पक्षों को उद्घाटित करते १४ सुचिंतित आलेखों का सर्वोपयोगी संकलन है. संपादक निर्मल शुक्ल ने भूमिका में ठीक ही कहा है: ‘नवगीत का सृजन एक संवेदनशील रचनाधर्मिता है, रागात्मकता है, गेयता है, एक सम्प्रेषणीयता के लिए शंखनाद है, यह बात और है कि इन साठ वर्षों के अंतराल में हर प्रकार से संपन्न होते हुए भी गीत-नवगीत को अपनी विरासत सौंपने के लिये हिंदी साहित्य के इतिहास के पन्नों पर आज भी एक स्थान नहीं मिल सका है.’ विवेच्य कृति नवगीत के अस्तित्व व औचित्य को प्रमाणित करते हुए उसकी भूमिका, अवदान और भावी-परिदृश्य पर प्रकाश डालती है.
उत्सव धर्मिता का विस्तृत संसार: पूर्णिमा बर्मन, नवगीत कितना सशक्त कितना अशक्त; वीरेंद्र आस्तिक, नवगीतों में राजनीति और व्यवस्था: विनय भदौरिया, नवगीत में महानगरीय बोध: शैलेन्द्र शर्मा, आज का नवगीत समय से संवाद करने में सक्षम है: निर्मल शुक्ल, नवगीत और नई पीढ़ी: योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’, हिंदी गीत: कथ्य और तथ्य अवनीश सिंह चौहान, नवगीत के प्रतिमान: शीलेन्द्र सिंह चौहान, गीत का प्रांजल तत्व है नवगीत: आनंद कुमार गौरव, समकालीन नवगीत की अवधारणा और उसके विविध आयाम: ओमप्रकाश सिंह, और उसकी चुनौतियाँ: मधुकर अष्ठाना, नवगीत में लोकतत्व की उपस्थिति: जगदीश व्योम, नवगीत में लोक की भाषा का प्रयोग: श्याम श्रीवास्तव, नवगीत में भारतीय संस्कृति: सत्येन्द्र, ये सभी आलेख पूर्व पोषित अवधारणाओं की पुनर्प्रस्तुति न कर अपनी बात अपने ढंग से, अपने तथ्यों के आधार पर न केवल कहते हैं, अब तक बनी धारणाओं और मान्यताओं का परीक्षण कर नवमूल्य स्थापना का पथ भी प्रशस्त करते हैं.
ख्यात नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ठीक ही आकलित करते हैं: ‘परम्परावादी गीतकार अपनी निजता में ही डूबा हुआ होता है, वहीं नवगीत का कवि बोध और समग्रता में गीत के संसार को विस्तार देता है. नवगीत भारतीय सन्दर्भ में ओनी जड़ों की तलाश और पहचान है. उसमें परंपरा और वैज्ञानिक आधुनिकता का संफुफां उसे समकालीन बनाता है. नवगीत कवि कठमुल्ला नहीं है, और न उसका विश्वास किसी बाड़े-बंदी में है. वह काव्यत्व का पक्षधर है. इसलिए आज के कविता विरोधी समय में, कविता के अस्तित्व की लड़ाई के अग्रिम मोर्चे पर खड़ा दिखता है. समकालीन जीवन में मनुष्य विरोधी स्थितियों के खिलाफ कारगर हस्तक्षेप का नाम है नवगीत.’’
नवगीत : एक परिसंवाद में दोहराव के खतरे के प्रति चेतावनी देती पूर्णिमा बर्मन कहती हैं: “हमारा स्नायु तंत्र ही गीतमय है, इसे रसानुभूति के लिये जो लय और ताल चाहिए वह छंद से ही मिलती है... नवगीत में एक ओर उत्सवधर्मिता का विस्तृत संसार है और दूसरी ओर जनमानस की पीड़ा का गहरा संवेदन है.” वीरेंद्र आस्तिक के अनुसार “नवगीत का अति यथार्थवादी, अतिप्रयोगवादी रुझान खोजपूर्ण मौलिकता से कतराता गया है.” विनय भदौरिया के अनुसार: ‘वस्तुतः नवगीत राजनीति और व्यवस्था के समस्त सन्दर्भों को ग्रहण कर नए शिल्प विधान में टटके बिम्बों एवं प्रतीकों को प्रयोगकर सहज भाषा में सम्प्रेषणीयता के साथ अभिव्यक्त कर रहा है.” शैलेन्द्र शर्मा की दृष्टि में “वर्तमान समय में समाज में घट रही प्रत्येक घटना की अनुगूँज नवगीतों में स्पष्ट दिखाई देती है.” निर्मल शुक्ल के अनुसार “आज का नवगीत समय से सीधा संवाद कर रहा है और साहित्य तथा समाज को महत्वपूर्ण आयाम दे रहा है, पूरी शिद्दत के साथ, पूरे होशोहवास में.”
नए नवगीतकारों के लेखन के प्रति संदेह रखनेवालों को उत्तर देते योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ के मत में: “नयी पीढ़ी की गीति रचनाओं के सामयिक बनने में किसी प्रकार की कोई शंका की गुन्जाइश नहीं है.” अवनीश सिंह चौहान छंदानुशासन, लय तथा काव्यत्व के सन्दर्भ में कहते हैं: “गीत सही मायने में गीत तभी कहलायेगा जब उसमें छंदानुशासन, अंतर्वस्तु की एकरूपता, भावप्रवणता, गेयता एवं सहजता के साथ समकालीनता, वैचारिक पुष्टता और यथार्थ को समावेशित किया गया हो.” शीलेन्द्र सिंह चौहान के अनुसार “नवगीत की सौंदर्य चेतना यथार्थमूलक है.” आनंद कुमार ‘गौरव’ के मत में “नवगीत की प्रासंगिकता ही जन-संवाद्य है.” ओमप्रकाश सिंह अतीत और वर्तमान के मध्य सेतु के रूप में मूल्यांकित करते हैं. मधुकर अष्ठाना अपरिपक्व नवगीत लेखन के प्रति चिंतित हैं: “गुरु-शिष्य परंपरा के भाव में नवगीत के विकास पर भी ग्रहण लग रहा है.” जगदीश व्योम नवगीत और लोकगीत के अंतर्संबंध को स्वीकारते हैं: “नवगीतों में जब लोक तत्वों का आभाव होता है तो उनकी उम्र बहुत कम हो जाती है.” श्याम श्रीवास्तव के मत में “लोकभाषा का माधुर्य, उससे उपजी सम्प्रेषणीयता रचना को पाठक से जोड़ती है.” सत्येन्द्र तिवारी का उत्स भारतीय संस्कृति में पाते हैं.
सारत: नवगीत:एक परिसंवाद पठनीय ही नहीं मननीय भी है. इसमें उल्लिखित विविध पक्षों से परिचित होकर नवगीतकार बेहतर रचनाकर्म करने में सक्षम हो सकता है. नवगीत को ६ दशक पूर्व के मापदंडों में बाँधने के आग्रही नवगीतकारों को में लोकतत्व, लोकभाषा, लोक शब्दों और लोक में अंतर्व्याप्त छंदों की उपयोगिता का महत्त्व पहचानकर केवल बुद्धिविलासत्मक नवगीतों की रचना से बचना होगा. ऐसे प्रयास आगे भी किये जाएँ तो नवगीत ही नहीं समालोचनात्मक साहित्य भी समृद्ध होगा.
५-३-२०१५
***
अंगरेजी पर दोहे
*
अंगरेजी में खाँसते, समझें खुद को श्रेष्ठ.
हिंदी की अवहेलना, समझ न पायें नेष्ठ..
*
टेबल याने सारणी, टेबल माने मेज.
बैड बुरा माने 'सलिल', या समझें हम सेज..
*
जिलाधीश लगता कठिन, सरल कलेक्टर शब्द.
भारतीय अंग्रेज की, सोच करे बेशब्द..
*
नोट लिखें या गिन रखें, कौन बताये मीत?
हिन्दी को मत भूलिए, गा अंगरेजी गीत..
*
जीते जी माँ ममी हैं, और पिता हैं डैड.
जिस भाषा में श्रेष्ठ वह, कहना सचमुच सैड..
*
चचा फूफा मौसिया, खो बैठे पहचान.
अंकल बनकर गैर हैं, गुमी स्नेह की खान..
*
गुरु शिक्षक थे पूज्य पर, टीचर हैं लाचार.
शिष्य फटीचर कह रहे, कैसे हो उद्धार?.
*
शिशु किशोर होते युवा, गति-मति कर संयुक्त.
किड होता एडल्ट हो, एडल्ट्री से युक्त..
*
कॉपी पर कॉपी करें, शब्द एक दो अर्थ.
यदि हिंदी का दोष तो अंगरेजी भी व्यर्थ..
*
टाई याने बाँधना, टाई कंठ लंगोट.
लायर झूठा है 'सलिल', लायर एडवोकेट..
*
टैंक अगर टंकी 'सलिल', तो कैसे युद्धास्त्र?
बालक समझ न पा रहा, अंगरेजी का शास्त्र..
*
प्लांट कारखाना हुआ, पौधा भी है प्लांट.
कैन नॉट को कह रहे, अंगरेजीदां कांट..
*
खप्पर, छप्पर, टीन, छत, छाँह रूफ कहलाय.
जिस भाषा में व्यर्थ क्यों, उस पर हम बलि जांय..
*
लिख कुछ पढ़ते और कुछ, समझ और ही अर्थ.
अंगरेजी उपयोग से, करते अर्थ-अनर्थ..
*
हीन न हिन्दी को कहें, भाषा श्रेष्ठ विशिष्ट.
अंगरेजी को श्रेष्ठ कह, बनिए नहीं अशिष्ट..
५-३-२०१४
***
नवगीत
*
आँखें रहते सूर हो गए,
जब हम खुद से दूर हो गए.
खुद से खुद की भेंट हुई तो-
जग-जीवन के नूर हो गए...
*
सबलों के आगे झुकते सब.
रब के आगे झुकता है नब.
वहम अहम् का मिटा सकें तो-
मोह न पाते दुनिया के ढब.
जब यह सत्य समझ में आया-
भ्रम-मरीचिका दूर हो गए...
*
सुख में दुनिया लगी सगी है.
दुःख में तनिक न प्रेम पगी है.
खुली आँख तो रहो सुरक्षित-
बंद आँख तो ठगा-ठगी है.
दिल पर लगी चोट तब जाना-
'सलिल' सस्वर सन्तूर हो गए...
५-३-२०१०
Chandravati Gautam Sharma
bahut hi khubsurat likha hai........itni sundar rachnaye to mujhko chor bana dengi....

'सलिल' बूँद ले मधु अगर, सलिल-धार हो धन्य.
मधु-मिठास इस जगत में, दुर्लभ और अनन्य..
आपका उत्साहवर्धन के लिए आभार है.
गीत अपने कद्रदां पर, बार-बार निसार है..
***