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बुधवार, 5 जुलाई 2023

मधुकर अष्ठाना

 कृति चर्चा:

वक्त आदमखोर: सामयिक वैषम्य का दस्तावेज़
चर्चाकार: आचार्य संजीव
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[कृति विवरण: वक्त आदमखोर, नवगीत संग्रह, मधुकर अष्ठाना, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, २००५, पृष्ठ १२६, नवगीत १०१, १५०/-, अस्मिता प्रकाशन, इलाहाबाद]
साहित्य का लक्ष्य सबका हित साधन ही होता है, विशेषकर दीन-हीन-कमजोर व्यक्ति का हित। यह लक्ष्य विसंगतियों, शोषण और अंतर्विरोधों के रहते कैसे प्राप्त हो सकता है? कोई भी तंत्र, प्रणाली, व्यवस्था, व्यक्ति समूह या दल प्रकृति के नियमानुसार दोषों के विरोध में जन्मता, बढ़ता, दोषों को मिटाता तथा अंत में स्वयं दोषग्रस्त होकर नष्ट होता है। साहित्यकार शब्द ब्रम्ह का आराधक होता है, उसकी पारदर्शी दृष्टि अन्यों से पहले सत्य की अनुभूति करती है। उसका अंतःकरण इस अभिव्यक्ति को सृजन के माध्यम से उद्घाटित कर ब्रम्ह के अंश आम जनों तक पहुँचाने के लिये बेचैन होता है। सत्यानुभूति को ब्रम्हांश आम जनों तक पहुँचाकर साहित्यकार व्यव्ष्ठ में उपजी गये सामाजिक रोगों की शल्यक्रिया करने में उत्प्रेरक का काम करता है।
विख्यात नवगीतकार श्री मधुकर अष्ठाना अपनी कृति ‘वक्त आदमखोर’ के माध्यम से समाज की नब्ज़ पर अँगुली रखकर तमाम विसंगतियों को देख-समझ, अभिव्यक्तकर उसके निराकरण का पथ संधानने की प्रेरणा देते हैं। श्री पारसनाथ गोवर्धन का यह आकलन पूरी तरह सही है: ‘इन नवगीतों की विशिष्ट भाषा, अछूते शब्द विन्यास, मौलिक उद्भावनाएँ, यथार्थवादी प्रतीक, अनछुए बिम्बों का संयोजन, मुहावरेदारी तथा देशज शब्दों का संस्कारित प्रयोग उन्हें अन्य रचनाकारों से पृथक पहचान देने में समर्थ है।
नवगीतों में प्रगतिवादी कविता के कथ्य को छांदस शिल्प के साथ अभिव्यक्त कर सहग ग्राह्य बनाने के उद्देश्य को लेकर नवगीत रच रहे नवगीतकारों में मधुर अष्ठाना का सानी नहीं है। स्वास्थ्य विभाग में सेवारत रहे मधुकर जी स्वस्थ्य समाज की चाह करें, विसंगतियों को पहचानने और उनका निराकरण करने की कामना से अपने नवगीतों के केंद्र में वैषम्य को रखें यह स्वाभाविक है। उनके अपने शब्दों में ‘मानवीय संवेदनाओं के प्रत्येक आयाम में विशत वातावरण से ह्त्प्रह्ब, व्यथित चेतना के विस्फोट ने कविताओं का आकार ग्रहण कर लिया.... भाषा का कलेवर, शब्द-विन्यास, शिल्प-शैली तथा भावनाओं की गंभीरता से निर्मित होता है... इसीलिए चुस्त-दुरुस्त भाषा, कसे एवं गठे शब्द-विन्यास, पूर्व में अप्रयुक्त, अनगढ़-अप्रचलित सार्थक शब्दों का प्रयोग एवं देश-काल-परिस्थिति के अनुकूल आंचलिक एवं स्थानीय प्रभावों को मुखरित करने की कोशिश को मैंने प्रस्तुत गीतों में प्राथमिकता देकर अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है।’
मधुकर जी की भाषा हिंदी-उर्दू-देशज मिश्रित है। ‘तन है वीरान खँडहर / मन ही इस्पात का नगर, मजबूरी आम हो गयी / जिंदगी हराम हो गयी, कदम-कदम क्रासों का सिलसिला / चूर-चूर मंसूबों का किला, प्यासे दिन हैं भूखी रातें / उम्र कटी फर्जी मुस्काते, टुकड़े-टुकड़े अपने राम रह गये / संज्ञाएँ गयीं सर्वनाम रह गये, जीवन भर जो रिश्ते ढोये हैं / कदम-कदम पर कांटे बोये हैं, प्याली में सुबह ढली, थाली में दोपहर / बुझी-बुझी आँखों में डूबे शामो-सहर, जीवन यों तो ठहर गया है / एक और दिन गुजर गया है, तर्कों पर लाद जबर्दस्तियाँ / भूल गयीं दीवारें हस्तियाँ आदि पंक्तियाँ पाठक को आत्म अनुभूत प्रतीत होती हैं। इन नवगीतों में कहीं भी आभिजात्यता को ओढ़ने या संभ्रांतता को साध्य बताने की कोशिश नहीं है। मधुकर जी को भाषिक टटकापन तलाशकर आरोपित नहीं करना पड़ता। उन्हें सहज-साध्य मुहावरेदार शब्दावली के भाव-प्रवाह में संस्कृतनिष्ठ, देशज, ग्राम्य और उर्दू मिश्रित शब्द अपने आप नर्मदा के सलिला-प्रवाह में उगते-बहते कमल दल और कमल पत्रों की तरह साथ-साथ अपनी जगह बनाकर सुशोभित होते जाते हैं। निर्मम फाँस गड़ी मुँहजोरी / तिरस्कार गढ़ गया अघोरी, जंगली विधान की बपौती / परिचय प्रतिमान कहीं उड़ गये / भकुआई भीड़ है खड़ी, टुटपुंजिया मिन्नतें तमाम / फंदों में झूलें अविराम, चेहरों को बाँचते खड़े / दर्पण खुद टूटने लगे आदि पंक्तियों में दैनंदिन आम जीवन में प्रयुक्त होते शब्दों का सघन संगुफन द्रष्टव्य है। भाषी शुद्धता के आग्रही भले ही इन्हें पढ़कर नाक-भौं सिकोड़ें किन्तु नवगीत का पाठक इनमें अपने परिवेश को मुखर होता पाकर आनंदित होता है। अंग्रेजी भाषा से शिक्षित शहरी नयी पीढ़ी के लिए इनमें कई शब्द अपरिचित होंगे किन्तु उन्हें शब्द भण्डार बढ़ाने का सुनहरा अवसर इन गीतों से मिलेगा, आम के आम गुठलियों के दाम...
मधुकर जी इन नवगीतों में सामयिक युगबोधजनित संवेदनाओं, पारिस्थितिक वैषम्य प्रतिबिंबित करती अनुभूतियों, तंत्रजनित विरोधाभासी प्रवृत्तियों तथा सतत ध्वस्त होते मानव-मूल्यों से उत्पन्न तनाव को केंद्र में रखकर अपने चतुर्दिक घटते अशुभ को पहचानकर उद्घाटित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। उनकी इस प्रवृत्ति पर आनंद-मंगल, शुभ, उत्सव, पर्व आदि की अनदेखी और उपेक्षा करने का आरोप लगाया जा सकता है किन्तु इन समसामयिक विद्रूपताओं की उपस्थिति और प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। घर में अपनों के साथ उत्सव मनाकर आनंदमग्न होने के स्थान पर किसी अपरिचित की आँखों के अश्रु पोछने का प्रयास अनुकरणीय ही हो सकता है।
मधुकर जी के इन नवगीतों की विशिष्ट भाषा, अछूता शब्द चयन, मौलिक सोच, यथार्थवादी प्रतीक, अछूता बिम्ब संयोजन, देशज-परिनिष्ठित शब्द प्रयोग, म्हावारों और कहावतों की तरह सरस लच्छेदार शब्दावली, सहज भाव मुद्रा, स्पष्ट वैषम्य चित्रण तथा तटस्थ-निरपेक्ष अभिव्यक्ति उनकी पहचान स्थापित करती है। नवगीत की प्रथम कृति में ही मधुकर जी परिपक्व नवगीतकार की तरह प्रस्तुत हुए हैं। उन्हें विधा के विधान, शिल्प, परिसीमाओं, पहुच, प्रभाव तथा वैशिष्ट्य की पूर्ण जानकारी है। उनकी शब्द-सामर्थ्य, रूपक गढ़न-क्षमता, नवोपमायें खोजन एकी सूक्ष्म दृष्टि, अनुभूत और अनानुभूत दोनों को समान अंतरंगता से अभिव्यक्त कर सकने की कुशलता एनी नवगीतकारों से अलग करती है। अपने प्रथम नवगीत संग्रह से ही वे नवगीत की दोष-अन्वेषणी प्रवृत्ति को पहचान कर उसका उपयोग लोक-हित के लिए करने के प्रति सचेष्ट प्रतीत होते हैं।
मधुकर जी गजल (मुक्तिका) तथा लोकभाषा में काव्य रचना में निपुण हैं। स्वाभाविक है कि गजल में मतला (आरम्भिका) लेखन का अभ्यास उनके नवगीतों में मुखड़ों तथा अंतरों को अधिकतर द्विपंक्तीय रखने के रूप में द्रष्टव्य है। अंतरों की पंक्तियाँ लम्बी होने पर उन्हें चार चरणों में विभक्त किया गया है। अंतरांत में स्थाई या टेक के रूप में कहीं-कहीं २-२ पंक्तियाँ का प्रयोग किया गया है।
मधुकर जी की कहाँ की बानगी के तौर पर एक नवगीत देखें:
पत्थर पर खींचते लकीरें
बीत रहे दिन धीरे-धीरे
चेहरे पर चेहरे, शंकाओं की बातें
शीतल सन्दर्भों में दहक रही रातें
धारदार पल अंतर चीरें
आँखों में तैरतीं अजनबी कुंठायें
नंगे तारों पर फिर जिंदगी बिठायें
अधरों पर अनगूंजी पीरें
बार-बार सूरज की लेकर कुर्बानी
सुधियों की डोर कटी, डूबी नादानी
स्याह हैं चमकती तस्वीरें
एक सौ एक नवगीतों की यह माला रस वैविध्य की दृष्टि से निराश करती है। मधुकर जी लिखते हैं: ‘ इंद्रढनुष में सातों सरगम लहरायें / लहरों पर गंध तिरे पाले छितरायें’ (चुभो न जहरीले डंक) किन्तु संग्रह के अधिकाँश नवगीत डंक दंशित प्रतीत होते हैं। मधुकर जी के साथ इस नवगीत कुञ्ज में विचरते समय कलियों-कुसुमों के पराग की अभिलाषा दुराशा सिद्ध होने पर भी गुलाब से लेकर नागफनी और बबूलों के शूलों की चुभन की प्रतीति और उस चुभन से मुक्त होकर फूलों की कोमलता का स्पर्श पाने की अनकही चाह पाठक को बांधे रखती है। नवगीत की यथार्थवादी भावधारा का प्रतिनिधित्व करती यह कृति पठनीय होने के साथ-साथ विचारणीय भी है।
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रविवार, 21 नवंबर 2021

मधुकर अष्ठाना, समीक्षा

कृति चर्चा:
'पहने हुए धूप के चेहरे' नवगीत को कैद करते वैचारिक घेरे
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण: पहने हुए धूप के चेहरे, नवगीत संग्रह, मधुकर अष्ठाना, प्रथम संस्करण २०१८, आई.एस.बी.एन. ९८७९३८०७५३४२३, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ १६०, मूल्य ३००/-, आवरण सजीओल्ड बहुरंगी जैकेट सहित, गुंजन प्रकाशन,सी १३० हिमगिरि कॉलोनी, कांठ मार्ग, मुरादाबाद, नवगीतकार संपर्क विधायन, एसएस १०८-१०९ सेक्टर ई, एल डी ए कॉलोनी, कानपुर मार्ग लखनऊ २८६०१२, चलभाष ९४५०४७५७९]
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नवगीत के इतिहास में जनवादी विचारधारा का सशक्त प्रतिनिधित्व करनेवाले प्रतिनिधि हस्ताक्षर राजेंद्र प्रसाद अष्ठाना जिन्हें साहित्य जगत मधुकर अष्ठाना के नाम से जानता है, अब तक एक-एक भोजपुरी गीत संग्रह, हिंदी गीत संग्रह तथा ग़ज़ल संग्रह के अतिरिक्त ९ नवगीत संग्रहों की रचना कर चर्चित हो चुके हैं। विवेच्य कृति मधुकर जी के ६१ नवगीतों का ताज़ा गुलदस्ता है। मधुकर जी के अनुसार- "संवेदना जब अभिनव प्रतीक-बिम्बों को सहज रखते हुए, सटीक प्रयोग और अपने समय की विविध समस्याओं एवं विषम परिस्थितियों से जूझते साधारण जान के जटिल जीवन संघर्ष को न्यूनतम शब्दों में छांदसिक गेयता के साथ मार्मिक रूप में परिणित होती है तो नवगीत की सृष्टि होती है।"मधुकर के सृजन-कर्म का वैशिष्ट्य नवगीतों में समसामयिक विडंबनाओं, त्रासदियों, विरोधभासों आदि का संकेतन करना है। सटीक बिम्बों के माध्यम से पाठक उनके नवगीतों के कथ्य से सहज ही तादात्म्य स्थापित कर लेता है। आम बोलचाल की भाषा में तत्सम - तद्भव शब्दावली उनके नवगीतों को जन-मन तक पहुँचाती है। ग्राम्यांचलों से नगरों की और पलायन से उपजा सामाजिक असंतुलन और पारिवारिक विघटन उनकी चिंता का विषय है-
बाबा लिए सुमिरनी झंखै
दादी को खटवाँस
जाये सब
परदेस जा बसे
घर में है वनवास
हरसिंगार की
पौध लगाई
निकले किन्तु बबूल
पड़ोसियों की
बात निराली
ताने हैं तिरसूल
'सादा जीवन उच्च विचार' की, पारंपरिक सीख को बिसराकर प्रदर्शन की चकाचौंध में पथ भटकी युवा पीढ़ी को मधुकर जी उचित ही चेतावनी देते हैं-
जिसमें जितनी चमक-दमक है
वह उतना नकली सोना है
आकर्षण के चक्र-व्यूह में
केवल खोना ही
खोना है
नयी पौध को दिखाए जा रहे कोरे सपने, रेपिस्टों की कलाई पर बाँधी जा रहे रही राखियां, पंडित-मुल्ला का टकराव,, सवेरे-सवेरे कूड़ा बीनता भविष्य, पत्थरों के नगर में कैद संवेदनाएँ, प्रगति बिना प्रगति का गुणगान, चाक-चौबंद व्यवस्था का दवा किन्तु लगातार बढ़ते अपराध, स्वप्न दिखाकर ठगनेवाले राजनेता, जीवनम में व्याप्त अबूझा मौन, राजपथों पर जगर-मगर घर में अँधेरा, नयी पीढ़ी के लिए नदी की धार का न बचना, पीपल-नीम-हिरन-सोहर-कजली-फाग का लापता होते जाना आदि-आदि अनेक चिंताएँ मधुकर जी के नवगीतों की विषय-वस्तु हैं। कथ्य में जमीनी जुड़ाव और शिल्प में सतर्क-सटीकता मधुकर जी के काव्य कर्म को अन्यों से अलग करता है। सम्यक भाषा, कथ्यानुरूप भाव, सहज कहन, समुचित बिम्ब, लोकश्रुत प्रतीकों और सर्वज्ञात रूपकों ने मधुकर जी की इन गीति रचनाओं को खास और आम की बात कहने में समर्थ बनाया है।
मधुकर जी के नवगीतकार की ताकत और कमजोरी उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता है। उनके गीतों में लयें हैं, छंद हैं, भावनाएँ हैं, आक्रोश है किंतु कामनाएँ नहीं है, हौसले नहीं हैं, अरमान नहीं है, उत्साह नहीं है, उल्लास नहीं है, उमंग नहीं है, संघर्ष नहीं है, सफलता नहीं है। इसलिए इन नवगीतों को कुंठा का, निराशा का, हताशा का वाहक कहा जा सकता है।
यह सर्वमान्य है कि जीवन में केवल विसंगतियाँ, त्रासदियाँ, विडंबनाएँ, दर्द, पीड़ा और हताशा ही नहीं होती। समाज में व्याप्त दुष्प्रवृत्तियों की, मानवीय जिजीविषा की पराजय की जय-जयकार करना मात्र ही साहित्य की किसी भी विधा का साध्य कैसे हो सकता है? क्या नवगीत राजस्थानी की रुदाली परंपरा या शोकगीत में व्याप्त रुदन-क्रंदन मात्र है?
नवगीत के उद्भव-काल में लंबी पराधीनताजनित शोषण, सामाजिक बिखराव और विद्वेष, आर्थिक विषमताजनित दरिद्रता आदि के उद्घोष का आशय शासन-प्रशासन का ध्यान आकर्षित कर पारिस्थितिक सुधार के दिशा प्रशस्त करना उचित था किन्तु स्वतंत्रता के ७ दशकों बाद परिस्थितियों में व्यापक और गहन परिवर्तन हुआ है। दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करते हुए क्रमश: अविकसित से विकासशील, अर्ध विकसित होते हुए विकसित देशों के स्पर्धा कर रहा देश विसंगतियों और विडम्बनाओं पर क्रमश: जीत दर्ज करा रहा है।
अब जबकि नवगीत विधा के तौर पर प्रौढ़ हो रहा है, उसे विसंगतियों का अतिरेकी रोना न रोते रहकर सच से आँख मिलाने का साहस दिखते हुए, अपने कथ्य और शिल्प में बदलाव का साहस दिखाना ही होगा अन्यथा उसके काल-बाह्य होने पर विस्मृत कर दिए जाने का खतरा है। नए नवगीतकार निरंतर चुनौतियों से जूझकर उन्नति पथ पर निरंतर बढ़ने के लिए तत्पर हैं। मधुकर अष्ठाना जैसे श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार की ओर नयी पीढ़ी बहुत आशा के साथ देख क्या वे आगामी नवगीत संग्रहों में नवगीत को यथास्थिति से जूझकर जयी होनेवाले तेवर से अलंकृत करेंगे?
नवगीत और हिंदी जगत दोनों के लिए यह आल्हादकारी है कि मधुकर जी के नवगीतों की कतिपय पंक्तियाँ इस दिशा का संकेत करती हैं। "आधा भरा गिलास देखिए / जीन है तो / दृष्टि बदलिए" में मधुयर्कार जी नवगीत कर का आव्हान करते हैं कि उन्हें अतीतदर्शी नहीं भविष्यदर्शी होना है। "यह संसद है / जहाँ हमारे सपने / तोड़े गए शिखर के" में एक चुनौती छिपी है जिसे दिनकर जी 'जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध' लिखकर व्यक्त करते हैं। निहितार्थ यह कि नए सपने देखो और सपने तोड़ने वाली संसद बदल डालो। दुष्यंत ने 'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो' कहकर स्पष्ट संकेत किया था, मधुकर जी अभी उस दिशा में बढ़ने से पहले की हिचकिचाहट के दौर में हैं। अगर वे इस दिशा में बढ़ सके तो नवगीत को नव आयाम देने के लिए उनका नाम और काम चिरस्मरणीय हो सकेगा।
इस पृष्ठभूमि में मधुकर जी की अनुपम सृजन-सामर्थ्य समूचे नवगीत लेखन को नई दिशाओं, नई भूमिकाओं और नई अपेक्षाओं से जोड़कर नवजीवन दे सकती है। गाठ ५ दशकों से सतत सृजनरत और ९ नवगीत संकलन प्रकाशित होने के बाद भी "समय के हाशिये पर / हम अजाने / रह गए भाई" कहते मधुकर जी इस दिशा और पथ पर बढ़े तो उन्हें " अधर पर / कुछ अधूरे / फिर तराने रह गए भाई" कहने का अवसर ही नहीं मिलेगा। "होती नहीं / बंधु! वर्षों तक / खुद से खुद की बात", "छोटी बिटिया! / हुई सयानी / नींद गयी माँ की", "सोच संकुचित / रोबोटों की / अंतर मानव और यंत्र में", "गति है शून्य / पंगु आशाएँ", "अब न पीर के लिए / ह्रदय का कोई कण", "विश्वासों के / नखत न टूटे", "भरे नयन में / कौंध रहे / दो बड़े नयन / मचले मन में / नूपुर बाँधे / युगल चरण / अभी अधखिले चन्द्रकिरण के फूल नए / डोल रही सर-सर / पुरवैया भरमाई" जैसी शब्दावली मधुकर जी के चिंतन और कहन में परिवर्तन की परिचायक है।
"कूद रहा खूँटे पर / बछरू बड़े जोश में / आज सुबह से" यह जोश और कूद बदलाव के लिए ही है। "कभी न बंशी बजी / न पाया हमने / कोई नेह निमंत्रण" लिखनेवाली कलम नवल नेह से सिक्त-तृप्त मन की बात नवगीत में पिरो दे तो समय के सफे पर अपनी छाप अंकित कर सकेगा। "चलो बदल आएँ हम चश्मा / चारों और दिखे हरियाली" का संदेश देते मधुकर जी नवगीत को निरर्थक क्रंदन न बनने देने के प्रति सचेष्ट हैं। "दीप जलाये हैं / द्वारे पर / अच्छे दिन की अगवानी में" जैसी अभिव्यक्ति मधुकर जी के नवगीत संसार में नई-नई है। शुभत्व और समत्व के दीप प्रज्वलित कर नवगीत के अच्छे दिन लाये जा सकें तो नवगीतकार काव्यानंद-रसानंद व् ब्रम्हानंद की त्रिवेणी में अवगाहन कर समाज को नवनिर्माण का संदेश दे सकेंगे।
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संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com
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मंगलवार, 22 जून 2021

लखनऊ के प्रतिनिधि गीतकार संपादक मधुकर अष्ठाना

पुस्तक चर्चा:
लखनऊ के प्रतिनिधि गीतकार : गीत-नवगीतों का आगार
चर्चाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[पुस्तक विवरण: लखनऊ के प्रतिनिधि गीतकार, संपादक मधुकर अष्ठाना, प्रथम संकरण, वर्ष २००९, आकार २२ से.मी. x १५ से.मी., आवरण बहुरंगी सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १४४, मूल्य २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन एम् १६८ आशियाना, लखनऊ २२६०१२, चलभाष ९८३९८२५०६२]
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अवधी तहजीब और शामे लखनऊ का सानी नहीं। शाम के इंद्रधनुषी रंगों को गीत-नवगीत, ग़ज़ल और अन्य विधाओं में घोलकर उसका आनंद लेना और देना लखनऊ की अदबी दुनिया की खासियत है। अग्रजद्वय निर्मल शुक्ल और मधुकर अष्ठाना लखनवी अदब की गोमती के दो किनारे हैं। इन दोनों के व्यक्तित्व और कृतित्व ने साहित्य सलिला में अनेक कमल पुष्प खिलाने में महती भूमिका अदा की है। विवेच्य कृति एक ऐसा ही साहित्यिक कमल है। इस कमल पुष्प की १५ पंखुड़ियाँ १५ श्रेष्ठ ज्येष्ठ गीतकार हैं। सम्मिलित गीतकारों के नाम, गीत और पृष्ठ संख्या इस प्रकार है- कुमार रवीन्द्र ५ /७, निर्मल शुक्ल ८ / १०, भारतेंदु मिश्र ५/६, राजेंद्र वर्मा ८/९, शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान ८/९, कैलाश नाथ निगम ८/१०, डॉ. रामाश्रय सविता ८/९, डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ८ /१०, डॉ. सुरेश ८/१०, शिव भजन कमलेश ८/९, रामदेव लाल विभोर ८/१०, अमृत खरे ८/९, श्याम नारायण श्रीवास्तव ८/१०, निर्मला साधना ८/१० तथा मधुकर अष्ठाना ८/१०। पुस्तक प्रकाशन के समय वरिष्ठतम सहभागी निर्मला साधना जी ७९ वर्षीय तथा कनिष्ठतम सहयोगी राजेंद्र वर्मा ५४ वर्षीय के मध्य २५ वर्षीय काल खंड है।
इन सभी काव्य सर्जकों की अपनी पहचान गंभीर सर्जक के रूप में रही है। आत्मानुशासन और साहित्यिक मानकों के अनुरूप रचनाधर्म का निर्वहन करने के प्रति संकल्पित-समर्पित १५ रचनाकारों की प्रतिनिधि रचनाओं का यह संकलन काव्योद्यान से चुनी गयी काव्य-कलिकाओं का रंग-बिरंगा गुलदस्ता है। हर रचना का विषय, कथ्य, शिल्प और शैली नवोदितों के लिये पाठ्य सामग्री की तरह पठनीय ही नहीं, अनुकरणीय भी है।
गीत-नवगीत के शलाका पुरुष डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' ने पुरोवाक में ठीक ही लिखा है: "साहित्य और काव्य भी परिस्थिति, परिवेश और देश-कालगत सापेक्षता में अपने उत्कर्षापकर्ष की यात्रा को पूरा करता है। रूढ़ि और गतानुगतिकता की भी इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका हुआ करती है जो विशिष्ट काव्य परंपरा और तदनुरूप शैलियों को जन्म देती है। उच्चकोटि के प्रतिभा संपन्न रचनाकार समय-समय पर क्रमागत शैलियों को उच्छिन्न करते हुए नयी अभिव्यक्ति और नव्यतर प्रारूपों के माध्यम से किसी नवोन्मेष को जन्म देते हैं।" चर्चित संग्रह में ऐसे हस्ताक्षरों को सम्मिलित किया गया है जिनमें नवोन्मेष को जन्म देने की न केवल सामर्थ्य अपितु जिजीविषा भी है।
कुमार रवीन्द्र जी नवगीत के शिखर हस्ताक्षर हैं। 'कहो साधुओं' शीर्षक नवगीत में साधुओं का वेश रखे हत्यारों का इंगित, 'हुआ खूब फ्यूजन' में पूर्व और पश्चिम के सम्मिलन से उपजी विसंगति, 'कहो बचौव्वा' में नव सक्रियता हेतु आव्हान, 'बोले भैया' में दिशाहीन परिवर्तन, 'इन गुनाहों के समय में' में युगीन विद्रूपता को केंद्र में रखा गया है। रवीन्द्र जी कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक और गहरी से गहरी बात कहने में सिद्धहस्त हैं। बानगी देखें-
'ईस्ट-वेस्ट' का / अब तो साधो, हुआ खूब 'फ्यूजन' / राजघाट पर / हुआ रात कल मैडोना का गान / न्यूयार्क में जाकर फत्तू / बेच रहे हैं पान / हफ्ते में है / तीन दिनों की 'योगा' की ट्यूशन / वेस्ट विंड है चली / झरे सब पत्ते पीपल के / दूर देश में जाकर / अम्मा के आँसू छलके / वहाँ याद आता है उनको / रह-रह वृन्दावन '।
निर्मल शुक्ल जी नवगीत दरबार के चमकते हुए रत्न हैं। 'दूषित हुआ विधान' तथा ऊँचे झब्बेवाली बुलबुल में पर्यावरणीय प्रदूषण, 'आँधियाँ आने को हैं' में प्रशासनिक विसंगति, 'छोटा है आकाश', लकड़ीवाला घोड़ा', 'सब कोरी अफवाह', 'प्राणायाम' तथा 'विशम्भर' शीर्षक नवगीतों में युगीन विडंबना पंक्ति-पंक्ति में मुखरित हुई है। निर्मल जी अभिव्यंजना में अनकही को कहने में माहिर हैं।
'एक था राजा / एक थी रानी / इतनी एक कहानी / गिनी-चुनी सांसों में भी, तय / रिश्तों का बँटवारा / जितना कुछ आकाश मिला, वह / सब खारा का खारा / मीठी नींद सुला देने के / मंतर सब बेकार / गुडिया के घर / गूँगी नानी / इतनी एक कहानी।
भारतेंदु मिश्र जी प्रगतिशील विचारधारा के गीतकार, समीक्षक और शिक्षाविद हैं। आपके पाँच नवगीतों में समाज के दलित-शोषित वर्ग का संघर्ष और पीड़ा मुखरित हुई है। अधुनातनता की आँधी में काँपती पारम्परिकता की दीपशिखा के प्रति चिंतित भारतेंदु जी के नवगीत, सामाजिक विद्रूपताओं को उद्घाटित करते हैं- 'रामधनी का बोझ उठाते / कभी नहीं अकुलाई / जलती हुई मोमबती है / रामधनी की माई / रामधनी मन से विकलांग / क्या जाने दुनिया के स्वांग? / भूख-प्यास का ज्ञान न उसको / जाने उसकी माई / जल बिन मछली सी रहती है / रामधनी की माई।
राजेन्द्र वर्मा जी साहित्यिक लेखन में भाषिक शुद्धता और विधागत मानकों के प्रति सजगता के पक्षधर हैं। 'कौन खरीदे?' में पारंपरिक चने पर हावी होते पाश्चात्य फास्ट फ़ूड से उपजी सामाजिक विसंगति, 'मीना' में श्रमजीवी युवती का विवाह न हो पाने से संत्रस्त परिवार, 'पर्वत ने धरा संन्यास' में सामाजिक बिखराव, 'अगरासन निकला', 'सत्यनरायन', 'बैताल' तथा 'कागजवाले घुड़सवार' में सामाजिक विसंगतियों का संकेत, दिल्ली का ढब' में राजनैतिक पाखण्ड पर सशक्त प्रहार दृष्टव्य है। 'बैताल' की कुछ पंक्तियाँ देखें-
'बूढ़े बरगद! / तू ही बतला, कैसे बदलूँ चाल? / मेरे ही कन्धों पर बैठा मेरा ही बेताल / स्वर्णछत्र की छाया में पल रहा मान-सम्मान / अमृतपात्र में विष पीने का मिलता है वरदान / प्रश्नों के पौरुष के आगे / उत्तर हैं बेहाल'
'कुटी चली परदेश कमाने' में गाँवों का सहारों के प्रति बढ़ता मोह, 'खड़े नियामक मौन' में असफल होती व्यवस्था, 'दो रोटी की खातिर', 'पंख कटे पंछी निकले हैं', 'काली बिल्ली ढूँढ रही है' तथा 'सोने के पिंजड़े' में सामाजिक वैषम्य, 'पराजित हो गए' में प्राकृतिक सौन्दर्य और अनुराग को शब्दित किया है शीलेंद्र सिंह चौहान जी ने। प्रशासनिक पदाधिकारी होते हुए भी विसंगतियों पर प्रहार करने में शीलेन्द्र जी पीछे नहीं हैं। वे नवगीत को केवल वैषम्य अभिव्यक्ति सीमित न रख प्रेम-सौंदर्य और उल्लास का भी माध्यम बनाते हैं-
'लो पराजित हो गए फिर / कँपकँपाते दिन / ढोलकों की थाप पर / गाने लगा फागुन / बज उठी मंजीर-खँजरी पर सुहानी धुन / आ गए मिरदंग, डफ / झाँझें बजाते दिन ... बोल मुखरित हो उठे / फिर नेह-सरगम के / कसमसाने लग गए / जड़बंध संयम के / आ गए फिर प्यार का / मधुरस लुटाते दिन'
'मधुऋतु ने आँखें फेरी', 'समय सत्ता', 'मीठे ज्वालामुखी', 'कब तक और सहें', 'आओ प्यार करें, इस कोने से उस कोने तक', 'मेरे देश अब तो जाग' तथा 'मिलता नहीं चैन' जैसे सरस गीतों-नवगीतों के माध्यम से कैलाशनाथ निगम जी ने संग्रह की शोभा-वृद्धि है। देश-काल-परिस्थिति के परिवर्तन को इंगित करती पंक्तिओं का रस लें-
'पीछे से तो वार, सामने मिसरी घुले वचन / शीशे जैसे मन को मिलता बस पथरीलापन / सच्चाई में जीनेवाली प्रथा निषिद्ध हुई / पल-पल रूप बदलनेवाली प्रथा प्रसिद्ध हुई / कानूनों की व्याख्या करती बुद्धि शकुनियों की / भीष्म हुए हैं मौन, लूट वैधानिक सिद्ध हुई / जनता का पांचाली जैसा होता चीर हरण।'
डॉ. रामाश्रय सविता जी के गीत 'ज़िंदगी तलाश हो गई', 'अपने में पराजय, 'आज का आदमी, 'रौशनी और आदमी', 'एक बार फिर', 'परजीवी बेल', 'कई ज़ीवन' तथा 'गधे रहे झूम' में पारंपरिक कथ्य और शिल्प मुखरित हुआ है। समय और परिस्थितियों में बढ़ रही विसंगतियों को इंगित किया है सविता जी ने-
'धरती के कोनों में आग लगी, / ताप रहे लोग / आत्मनिष्ठ व्यक्ति खड़े संशय के द्वार / कुंठा के पृष्ठ रहे जोरों से बाँच / उमस-घुटन के फेरे नचा रहे नाच / दिग्भ्रम का खूब मिला अक्षय-भण्डार।'
'किसी की याद आई', 'पितृपक्ष में', 'दूर ही रहो मिट्ठू', 'यह न पूछो', 'गीत छौने', 'क्षमा बापू', 'खत मिला' तथा 'जोड़ियाँ तो बनाता है रब' शीर्षक गीत-नवगीतों में डॉ. गोपालकृष्ण शर्मा ने सामाजिक बदलावों के परिप्रेक्ष्य में उपजी विसंगतियों को उद्घाटित करते हुए उनके उन्मूलन की कामना को स्वर दिया है-
'हाथ पकड़ अपने पापा का / हठ मुद्रा में बच्चा बोला / चलिए पापा / पितृपक्ष में बाबाजी को / वृद्धाश्रम से घर ले आयें .... पूरे साल नहीं तो छोड़ो / पितृपक्ष में ही कम से कम / बाबाजी को वापिस लाकर / मन-माफिक भोजन करवायें '. कृतघ्न पुत्र को उसके कर्तव्य का स्मरण कराता उसका पुत्र विसंगति मुक्त भविष्य के प्रति गीतकार की आस्था को इंगित करता है।
डॉ. सुरेश लिखित ' हम तो ठहरे यार बंजारे', 'सोने के दिन, चाँदी के दिन', 'मन तो भीगे कपड़े सा', 'समय से कटकर कहाँ जाएँ', 'कंधे कुली बोझ शहजादे', 'मैं घाट सा चुपचाप', 'दूर से चलकर', 'घर न लगे घर' आदि गीत-नवगीतों में युगीन विषमता को इंगित करते हुए विवशता को शब्द दिए गए हैं। इनमें परिवर्तन की मौन चाहत भी मुखर हो सकी है।
'वो नदी / मैं घाट सा चुपचाप / काटती है / काल की धारा मुझे भी / चोट करती हर पहर / टूटना ही / बिखरना ही नियति मेरी।' इस विवशता का चोला उतारकर बदलाव का आव्हान भी नवगीत को करना होगा। तभी उसकी सार्थकता सिद्ध होगी।
शिव भजन कमलेश जी 'कितना और अभी सोना हैँ, 'अपनी राह बनाऐंगे', 'सीताराम पढ़ो पट्टे', 'गाँव छोड़ क्या लेने आये', 'बिगड़ गया सब खेल', 'पोखर, पनघट, घाट, गली', 'महानगर' तथा 'तमाशा' शीर्षक रचनाओं में विसंगतियों को सामने लाते हैं। पारम्परिक गीतों के कलेवर में विस्तार तो है किन्तु पैनापन नहीं है। 'अपने में ही उलझा-सहमा / दिखता महानगर / जैसे बेतरतीब समेटा पड़ा हुआ बिस्तर / सड़कें कम पड़ गईं, गाड़ियाँ इतनी बढ़ी हुईं / महाजाल बन रहीं मकड़ियाँ जैसे चढ़ी हुईं / भाग्यवान ही पूरा करते / जोखिम भरा सफ़र।'
हिंदी छंद शास्त्र के मर्मज्ञ रामदेव लाल 'विभोर' जी के 'कैसा यह अवरोह', 'मैं घड़ी हूँ', 'भरा कंठ तक दूषित जल है', 'बाज न आये बाज', 'कैसे फूल मिले', 'फूटा चश्मा बूढ़ी आँखें', 'वक्त' तथा 'अभी-अभी' शीर्षक गीतों-की कहन स्पष्ट तथा शैली सहज है।
'दो-दो होते चार / कहो क्या संशय है? / सर्पों की भरमार कहो क्या संशय है? / मोटा अजगर पड़ा राह में / काला विषधर छुपा बाँह में / बाहर-भीतर वार कहो क्या संशय है?'
'जीवन एक कहानी है', 'फिर याद आने लगेंगे', 'गुजरती रही जिंदगी', 'देह हुई मधुशाला', 'अभिसार गा रहा हूँ', 'फिर वही नाटक','जीवन की भूल भूलभुलैया' तथा 'कहाँ आ गया' शीर्षक गीतों में अमृत खरे जी सहज बोधगम्य और सरस हैं। एक बानगी देखें-
'फिर वही नाटक, वही अभिनय / वही संवाद, सजधज / अब चकित करता नहीं है दृश्य कोई / मंच पर जो घट रहा / झूठा दिखावा है / सत्य तो नेपथ्य में है / यह प्रदर्शन तो / कथानक की / चतुर अभिव्यक्ति के / परिप्रेक्ष्य में है / फिर वही भाषण, वही नारे / वही अंदाज़, वादे / अब भ्रमित करता नहीं है दृश्य कोई।'
सरस गीत-नवगीतकार श्यामनारायण श्रीवास्तव जी के गीत-नवगीत 'माँ उसारे में पड़ी लाचार', 'रामदीन', 'क्यों भाग लूँ धन-धाम से', 'बदली समय की संहिता', 'चाहता मन पुण्य तोया धार', 'द्वारिका नयी बसने दो', 'पकड़े रहना हाथ पिया', तथा 'जीने के बहाने' आनंदित करते हैं। 'रामदीन' की व्यथा-कथा दृष्टव्य है-
''वैसे रामदीन उनको / परमेश्वर कहता है / पर मन ही मन उनसे / थोड़ा बचकर रहता है / कन्धों पर बंदूकें उनके / होठों पर वंशी / पंच, दरोगा, न्याय, दंड / सबके सब अनुषंगी / जैसे भी हो रामदीन को / जीना तो है ही / मजबूरी में उनकी हाँ में / हाँ भी करता है'
संग्रह की एकमात्र महिला गीतकार निर्मला साधना जी के गीत 'क्षोभ नहीं पीड़ा ढोई है', 'साँसें शिथिल हुई जाती हैं', ' अतीत के ताने-बाने', 'लाई कौन सन्देश', 'संख्यातीत क्षणों में' तथा 'पूछ रे मत कौन हूँ मैं' से उनकी सामर्थ्य का परिचय मिलता है। आपकी रचनाओं में यत्र-तत्र छायावाद के दर्शन हो जाते हैं। कहन और कथन की स्पष्टता आपका वैशिष्ट्य है।
'मन का विश्वामित्र डिगा तो / दोष कहाँ संयम का इसमें / तन वैरागी हो जाता है / मन का होना बहुत कठिन है / अनहद नाद कहीं गूँजा तो / कहीं बजे नूपुर-अलसाई / कहीं हुई पीड़ा मर्माहत / कहीं फुहारों की अँगड़ाई / जिस दिन झूठा प्यार हो गया / वह युग का सबसे दुर्दिन है।'
संग्रह के अंतिम कवि तथा संपादक मधुकर अष्ठाना जी हिंदी तथा भोजपुरी के सशक्त हस्ताक्षर हैं। अष्ठाना जी का हर नवगीत नए रचनाकारों के लिए मानक की तरह है। 'उगे शूल ही शूल', 'नया निजाम', 'कन्धों पर सर', ' आज अशर्फी बनी रुपैया', 'उसकी चालें', 'गली-गली में डगर-डगर में', 'और कितनी देर' तथा चाँदी, चाँवल, सोना, रोटी जैसे नवगीतों में विसंगतियों को चित्रित करने में मधुकर जी सफल हुए हैं।
कंधों पर सर रखने का / अब कोई अर्थ नहीं / केवल यहाँ संबंधों का ही / जीवन व्यर्थ नहीं / विश्वासों के मेले में / हैं ठगी-ठगी साँसें / गाड़ी हुई सबके सीने में / सोने की फाँसें / चीख-चीख कर हारे / लगता शब्द समर्थ नहीं।'
'लगता शब्द समर्थ नहीं' कहने के बाद भी मधुकर अष्ठाना जी से बेहतर और कौन जानता है कि उनके शब्द कितने समर्थ हैं। यह संग्रह रचनाकारों, अध्येताओं और शोधार्थियों के लिए समान रूप से उपयोगी है। गीतों-नवगीतों की विविध भाव भंगिमाओं से पाठक का साक्षात् कराता यह संकलन तो युगों की कारयित्री प्रतिभाओं के रचनाकर्म के तुलनात्मक अध्ययन के लिए निस्संदेह बहुत उपयोगी है। इस सारस्वत अनुष्ठान के लिए मधुकर जी, निर्मल जी और सभी सहभागी रचनाकार साधुवाद के पात्र हैं।
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संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्व वाणी हिंदी संस्थान, २०४विजय अपार्टमेंट, सुभद्रा वार्ड, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४।

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शनिवार, 21 नवंबर 2020

समीक्षा : पहने हुए धूप के चेहरे, नवगीत संग्रह, मधुकर अष्ठाना

 कृति चर्चा:

'पहने हुए धूप के चेहरे' नवगीत को कैद करते वैचारिक घेरे
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

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[कृति विवरण: पहने हुए धूप के चेहरे, नवगीत संग्रह, मधुकर अष्ठाना, प्रथम संस्करण २०१८, आई.एस.बी.एन. ९८७९३८०७५३४२३, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ १६०, मूल्य ३००/-, आवरण सजीओल्ड बहुरंगी जैकेट सहित, गुंजन प्रकाशन,सी १३० हिमगिरि कॉलोनी, कांठ मार्ग, मुरादाबाद, नवगीतकार संपर्क विधायन, एसएस १०८-१०९ सेक्टर ई, एल डी ए कॉलोनी, कानपुर मार्ग लखनऊ २८६०१२, चलभाष ९४५०४७५७९]
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नवगीत के इतिहास में जनवादी विचारधारा का सशक्त प्रतिनिधित्व करनेवाले प्रतिनिधि हस्ताक्षर राजेंद्र प्रसाद अष्ठाना जिन्हें साहित्य जगत मधुकर अष्ठाना के नाम से जानता है, अब तक एक-एक भोजपुरी गीत संग्रह, हिंदी गीत संग्रह तथा ग़ज़ल संग्रह के अतिरिक्त ९ नवगीत संग्रहों की रचना कर चर्चित हो चुके हैं। विवेच्य कृति मधुकर जी के ६१ नवगीतों का ताज़ा गुलदस्ता है। मधुकर जी के अनुसार- "संवेदना जब अभिनव प्रतीक-बिम्बों को सहज रखते हुए, सटीक प्रयोग और अपने समय की विविध समस्याओं एवं विषम परिस्थितियों से जूझते साधारण जान के जटिल जीवन संघर्ष को न्यूनतम शब्दों में छांदसिक गेयता के साथ मार्मिक रूप में परिणित होती है तो नवगीत की सृष्टि होती है।"मधुकर के सृजन-कर्म का वैशिष्ट्य नवगीतों में समसामयिक विडंबनाओं, त्रासदियों, विरोधभासों आदि का संकेतन करना है। सटीक बिम्बों के माध्यम से पाठक उनके नवगीतों के कथ्य से सहज ही तादात्म्य स्थापित कर लेता है। आम बोलचाल की भाषा में तत्सम - तद्भव शब्दावली उनके नवगीतों को जन-मन तक पहुँचाती है। ग्राम्यांचलों से नगरों की और पलायन से उपजा सामाजिक असंतुलन और पारिवारिक विघटन उनकी चिंता का विषय है-
बाबा लिए सुमिरनी झंखै
दादी को खटवाँस
जाये सब
परदेस जा बसे
घर में है वनवास
हरसिंगार की
पौध लगाई
निकले किन्तु बबूल
पड़ोसियों की
बात निराली
ताने हैं तिरसूल
'सादा जीवन उच्च विचार' की, पारंपरिक सीख को बिसराकर प्रदर्शन की चकाचौंध में पथ भटकी युवा पीढ़ी को मधुकर जी उचित ही चेतावनी देते हैं-
जिसमें जितनी चमक-दमक है
वह उतना नकली सोना है
आकर्षण के चक्र-व्यूह में
केवल खोना ही
खोना है
नयी पौध को दिखाए जा रहे कोरे सपने, रेपिस्टों की कलाई पर बाँधी जा रहे रही राखियां, पंडित-मुल्ला का टकराव,, सवेरे-सवेरे कूड़ा बीनता भविष्य, पत्थरों के नगर में कैद संवेदनाएँ, प्रगति बिना प्रगति का गुणगान, चाक-चौबंद व्यवस्था का दवा किन्तु लगातार बढ़ते अपराध, स्वप्न दिखाकर ठगनेवाले राजनेता, जीवनम में व्याप्त अबूझा मौन, राजपथों पर जगर-मगर घर में अँधेरा, नयी पीढ़ी के लिए नदी की धार का न बचना, पीपल-नीम-हिरन-सोहर-कजली-फाग का लापता होते जाना आदि-आदि अनेक चिंताएँ मधुकर जी के नवगीतों की विषय-वस्तु हैं। कथ्य में जमीनी जुड़ाव और शिल्प में सतर्क-सटीकता मधुकर जी के काव्य कर्म को अन्यों से अलग करता है। सम्यक भाषा, कथ्यानुरूप भाव, सहज कहन, समुचित बिम्ब, लोकश्रुत प्रतीकों और सर्वज्ञात रूपकों ने मधुकर जी की इन गीति रचनाओं को खास और आम की बात कहने में समर्थ बनाया है।
मधुकर जी के नवगीतकार की ताकत और कमजोरी उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता है। उनके गीतों में लयें हैं, छंद हैं, भावनाएँ हैं, आक्रोश है किंतु कामनाएँ नहीं है, हौसले नहीं हैं, अरमान नहीं है, उत्साह नहीं है, उल्लास नहीं है, उमंग नहीं है, संघर्ष नहीं है, सफलता नहीं है। इसलिए इन नवगीतों को कुंठा का, निराशा का, हताशा का वाहक कहा जा सकता है।
यह सर्वमान्य है कि जीवन में केवल विसंगतियाँ, त्रासदियाँ, विडंबनाएँ, दर्द, पीड़ा और हताशा ही नहीं होती। समाज में व्याप्त दुष्प्रवृत्तियों की, मानवीय जिजीविषा की पराजय की जय-जयकार करना मात्र ही साहित्य की किसी भी विधा का साध्य कैसे हो सकता है? क्या नवगीत राजस्थानी की रुदाली परंपरा या शोकगीत में व्याप्त रुदन-क्रंदन मात्र है?
नवगीत के उद्भव-काल में लंबी पराधीनताजनित शोषण, सामाजिक बिखराव और विद्वेष, आर्थिक विषमताजनित दरिद्रता आदि के उद्घोष का आशय शासन-प्रशासन का ध्यान आकर्षित कर पारिस्थितिक सुधार के दिशा प्रशस्त करना उचित था किन्तु स्वतंत्रता के ७ दशकों बाद परिस्थितियों में व्यापक और गहन परिवर्तन हुआ है। दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करते हुए क्रमश: अविकसित से विकासशील, अर्ध विकसित होते हुए विकसित देशों के स्पर्धा कर रहा देश विसंगतियों और विडम्बनाओं पर क्रमश: जीत दर्ज करा रहा है।
अब जबकि नवगीत विधा के तौर पर प्रौढ़ हो रहा है, उसे विसंगतियों का अतिरेकी रोना न रोते रहकर सच से आँख मिलाने का साहस दिखते हुए, अपने कथ्य और शिल्प में बदलाव का साहस दिखाना ही होगा अन्यथा उसके काल-बाह्य होने पर विस्मृत कर दिए जाने का खतरा है। नए नवगीतकार निरंतर चुनौतियों से जूझकर उन्नति पथ पर निरंतर बढ़ने के लिए तत्पर हैं। मधुकर अष्ठाना जैसे श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार की ओर नयी पीढ़ी बहुत आशा के साथ देख क्या वे आगामी नवगीत संग्रहों में नवगीत को यथास्थिति से जूझकर जयी होनेवाले तेवर से अलंकृत करेंगे?
नवगीत और हिंदी जगत दोनों के लिए यह आल्हादकारी है कि मधुकर जी के नवगीतों की कतिपय पंक्तियाँ इस दिशा का संकेत करती हैं। "आधा भरा गिलास देखिए / जीन है तो / दृष्टि बदलिए" में मधुयर्कार जी नवगीत कर का आव्हान करते हैं कि उन्हें अतीतदर्शी नहीं भविष्यदर्शी होना है। "यह संसद है / जहाँ हमारे सपने / तोड़े गए शिखर के" में एक चुनौती छिपी है जिसे दिनकर जी 'जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध' लिखकर व्यक्त करते हैं। निहितार्थ यह कि नए सपने देखो और सपने तोड़ने वाली संसद बदल डालो। दुष्यंत ने 'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो' कहकर स्पष्ट संकेत किया था, मधुकर जी अभी उस दिशा में बढ़ने से पहले की हिचकिचाहट के दौर में हैं। अगर वे इस दिशा में बढ़ सके तो नवगीत को नव आयाम देने के लिए उनका नाम और काम चिरस्मरणीय हो सकेगा।
इस पृष्ठभूमि में मधुकर जी की अनुपम सृजन-सामर्थ्य समूचे नवगीत लेखन को नई दिशाओं, नई भूमिकाओं और नई अपेक्षाओं से जोड़कर नवजीवन दे सकती है। गाठ ५ दशकों से सतत सृजनरत और ९ नवगीत संकलन प्रकाशित होने के बाद भी "समय के हाशिये पर / हम अजाने / रह गए भाई" कहते मधुकर जी इस दिशा और पथ पर बढ़े तो उन्हें " अधर पर / कुछ अधूरे / फिर तराने रह गए भाई" कहने का अवसर ही नहीं मिलेगा। "होती नहीं / बंधु! वर्षों तक / खुद से खुद की बात", "छोटी बिटिया! / हुई सयानी / नींद गयी माँ की", "सोच संकुचित / रोबोटों की / अंतर मानव और यंत्र में", "गति है शून्य / पंगु आशाएँ", "अब न पीर के लिए / ह्रदय का कोई कण", "विश्वासों के / नखत न टूटे", "भरे नयन में / कौंध रहे / दो बड़े नयन / मचले मन में / नूपुर बाँधे / युगल चरण / अभी अधखिले चन्द्रकिरण के फूल नए / डोल रही सर-सर / पुरवैया भरमाई" जैसी शब्दावली मधुकर जी के चिंतन और कहन में परिवर्तन की परिचायक है।
"कूद रहा खूँटे पर / बछरू बड़े जोश में / आज सुबह से" यह जोश और कूद बदलाव के लिए ही है। "कभी न बंशी बजी / न पाया हमने / कोई नेह निमंत्रण" लिखनेवाली कलम नवल नेह से सिक्त-तृप्त मन की बात नवगीत में पिरो दे तो समय के सफे पर अपनी छाप अंकित कर सकेगा। "चलो बदल आएँ हम चश्मा / चारों और दिखे हरियाली" का संदेश देते मधुकर जी नवगीत को निरर्थक क्रंदन न बनने देने के प्रति सचेष्ट हैं। "दीप जलाये हैं / द्वारे पर / अच्छे दिन की अगवानी में" जैसी अभिव्यक्ति मधुकर जी के नवगीत संसार में नई-नई है। शुभत्व और समत्व के दीप प्रज्वलित कर नवगीत के अच्छे दिन लाये जा सकें तो नवगीतकार काव्यानंद-रसानंद व् ब्रम्हानंद की त्रिवेणी में अवगाहन कर समाज को नवनिर्माण का संदेश दे सकेंगे।
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संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com
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गुरुवार, 21 नवंबर 2019

समीक्षा, नवगीत, मधुकर अष्ठाना,पहने हुए धूप के चहरे

कृति चर्चा:
'पहने हुए धूप के चेहरे' नवगीत को कैद करते वैचारिक घेरे
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: पहने हुए धूप के चेहरे, नवगीत संग्रह, मधुकर अष्ठाना, प्रथम संस्करण २०१८, आई.एस.बी.एन. ९८७९३८०७५३४२३, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ १६०, मूल्य ३००/-, आवरण सजीओल्ड बहुरंगी जैकेट सहित, गुंजन प्रकाशन,सी १३० हिमगिरि कॉलोनी, कांठ मार्ग, मुरादाबाद, नवगीतकार संपर्क विधायन, एसएस १०८-१०९ सेक्टर ई, एल डी ए कॉलोनी, कानपुर मार्ग लखनऊ २८६०१२, चलभाष ९४५०४७५७९]
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नवगीत के इतिहास में जनवादी विचारधारा का सशक्त प्रतिनिधित्व करनेवाले प्रतिनिधि हस्ताक्षर राजेंद्र प्रसाद अष्ठाना जिन्हें साहित्य जगत मधुकर अष्ठाना के नाम से जानता है, अब तक एक-एक भोजपुरी गीत संग्रह, हिंदी गीत संग्रह तथा ग़ज़ल संग्रह के अतिरिक्त ९ नवगीत संग्रहों की रचना कर चर्चित हो चुके हैं। विवेच्य कृति मधुकर जी के ६१ नवगीतों का ताज़ा गुलदस्ता है। मधुकर जी के अनुसार- "संवेदना जब अभिनव प्रतीक-बिम्बों को सहज रखते हुए, सटीक प्रयोग और अपने समय की विविध समस्याओं एवं विषम परिस्थितियों से जूझते साधारण जान के जटिल जीवन संघर्ष को न्यूनतम शब्दों में छांदसिक गेयता के साथ मार्मिक रूप में परिणित होती है तो नवगीत की सृष्टि होती है।"मधुकर के सृजन-कर्म का वैशिष्ट्य नवगीतों में समसामयिक विडंबनाओं, त्रासदियों, विरोधभासों आदि का संकेतन करना है। सटीक बिम्बों के माध्यम से पाठक उनके नवगीतों के कथ्य से सहज ही तादात्म्य स्थापित कर लेता है। आम बोलचाल की भाषा में तत्सम - तद्भव शब्दावली उनके नवगीतों को जन-मन तक पहुँचाती है। ग्राम्यांचलों से नगरों की और पलायन से उपजा सामाजिक असंतुलन और पारिवारिक विघटन उनकी चिंता का विषय है-
बाबा लिए सुमिरनी झंखै
दादी को खटवाँस
जाये सब
परदेस जा बसे
घर में है वनवास
हरसिंगार की
पौध लगाई
निकले किन्तु बबूल
पड़ोसियों की
बात निराली
ताने हैं तिरसूल
'सादा जीवन उच्च विचार' की, पारंपरिक सीख को बिसराकर प्रदर्शन की चकाचौंध में पथ भटकी युवा पीढ़ी को मधुकर जी उचित ही चेतावनी देते हैं-
जिसमें जितनी चमक-दमक है
वह उतना नकली सोना है
आकर्षण के चक्र-व्यूह में
केवल खोना ही
खोना है
नयी पौध को दिखाए जा रहे कोरे सपने, रेपिस्टों की कलाई पर बाँधी जा रहे रही राखियां, पंडित-मुल्ला का टकराव,, सवेरे-सवेरे कूड़ा बीनता भविष्य, पत्थरों के नगर में कैद संवेदनाएँ, प्रगति बिना प्रगति का गुणगान, चाक-चौबंद व्यवस्था का दवा किन्तु लगातार बढ़ते अपराध, स्वप्न दिखाकर ठगनेवाले राजनेता, जीवनम में व्याप्त अबूझा मौन, राजपथों पर जगर-मगर घर में अँधेरा, नयी पीढ़ी के लिए नदी की धार का न बचना, पीपल-नीम-हिरन-सोहर-कजली-फाग का लापता होते जाना आदि-आदि अनेक चिंताएँ मधुकर जी के नवगीतों की विषय-वस्तु हैं। कथ्य में जमीनी जुड़ाव और शिल्प में सतर्क-सटीकता मधुकर जी के काव्य कर्म को अन्यों से अलग करता है। सम्यक भाषा, कथ्यानुरूप भाव, सहज कहन, समुचित बिम्ब, लोकश्रुत प्रतीकों और सर्वज्ञात रूपकों ने मधुकर जी की इन गीति रचनाओं को खास और आम की बात कहने में समर्थ बनाया है।
मधुकर जी के नवगीतकार की ताकत और कमजोरी उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता है। उनके गीतों में लयें हैं, छंद हैं, भावनाएँ हैं, आक्रोश है किंतु कामनाएँ नहीं है, हौसले नहीं हैं, अरमान नहीं है, उत्साह नहीं है, उल्लास नहीं है, उमंग नहीं है, संघर्ष नहीं है, सफलता नहीं है। इसलिए इन नवगीतों को कुंठा का, निराशा का, हताशा का वाहक कहा जा सकता है।
यह सर्वमान्य है कि जीवन में केवल विसंगतियाँ, त्रासदियाँ, विडंबनाएँ, दर्द, पीड़ा और हताशा ही नहीं होती। समाज में व्याप्त दुष्प्रवृत्तियों की, मानवीय जिजीविषा की पराजय की जय-जयकार करना मात्र ही साहित्य की किसी भी विधा का साध्य कैसे हो सकता है? क्या नवगीत राजस्थानी की रुदाली परंपरा या शोकगीत में व्याप्त रुदन-क्रंदन मात्र है?
नवगीत के उद्भव-काल में लंबी पराधीनताजनित शोषण, सामाजिक बिखराव और विद्वेष, आर्थिक विषमताजनित दरिद्रता आदि के उद्घोष का आशय शासन-प्रशासन का ध्यान आकर्षित कर पारिस्थितिक सुधार के दिशा प्रशस्त करना उचित था किन्तु स्वतंत्रता के ७ दशकों बाद परिस्थितियों में व्यापक और गहन परिवर्तन हुआ है। दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करते हुए क्रमश: अविकसित से विकासशील, अर्ध विकसित होते हुए विकसित देशों के स्पर्धा कर रहा देश विसंगतियों और विडम्बनाओं पर क्रमश: जीत दर्ज करा रहा है।
अब जबकि नवगीत विधा के तौर पर प्रौढ़ हो रहा है, उसे विसंगतियों का अतिरेकी रोना न रोते रहकर सच से आँख मिलाने का साहस दिखते हुए, अपने कथ्य और शिल्प में बदलाव का साहस दिखाना ही होगा अन्यथा उसके काल-बाह्य होने पर विस्मृत कर दिए जाने का खतरा है। नए नवगीतकार निरंतर चुनौतियों से जूझकर उन्नति पथ पर निरंतर बढ़ने के लिए तत्पर हैं। मधुकर अष्ठाना जैसे श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार की ओर नयी पीढ़ी बहुत आशा के साथ देख क्या वे आगामी नवगीत संग्रहों में नवगीत को यथास्थिति से जूझकर जयी होनेवाले तेवर से अलंकृत करेंगे?
नवगीत और हिंदी जगत दोनों के लिए यह आल्हादकारी है कि मधुकर जी के नवगीतों की कतिपय पंक्तियाँ इस दिशा का संकेत करती हैं। "आधा भरा गिलास देखिए / जीन है तो / दृष्टि बदलिए" में मधुयर्कार जी नवगीत कर का आव्हान करते हैं कि उन्हें अतीतदर्शी नहीं भविष्यदर्शी होना है। "यह संसद है / जहाँ हमारे सपने / तोड़े गए शिखर के" में एक चुनौती छिपी है जिसे दिनकर जी 'जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध' लिखकर व्यक्त करते हैं। निहितार्थ यह कि नए सपने देखो और सपने तोड़ने वाली संसद बदल डालो। दुष्यंत ने 'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो' कहकर स्पष्ट संकेत किया था, मधुकर जी अभी उस दिशा में बढ़ने से पहले की हिचकिचाहट के दौर में हैं। अगर वे इस दिशा में बढ़ सके तो नवगीत को नव आयाम देने के लिए उनका नाम और काम चिरस्मरणीय हो सकेगा।
इस पृष्ठभूमि में मधुकर जी की अनुपम सृजन-सामर्थ्य समूचे नवगीत लेखन को नई दिशाओं, नई भूमिकाओं और नई अपेक्षाओं से जोड़कर नवजीवन दे सकती है। गाठ ५ दशकों से सतत सृजनरत और ९ नवगीत संकलन प्रकाशित होने के बाद भी "समय के हाशिये पर / हम अजाने / रह गए भाई" कहते मधुकर जी इस दिशा और पथ पर बढ़े तो उन्हें " अधर पर / कुछ अधूरे / फिर तराने रह गए भाई" कहने का अवसर ही नहीं मिलेगा। "होती नहीं / बंधु! वर्षों तक / खुद से खुद की बात", "छोटी बिटिया! / हुई सयानी / नींद गयी माँ की", "सोच संकुचित / रोबोटों की / अंतर मानव और यंत्र में", "गति है शून्य / पंगु आशाएँ", "अब न पीर के लिए / ह्रदय का कोई कण", "विश्वासों के / नखत न टूटे", "भरे नयन में / कौंध रहे / दो बड़े नयन / मचले मन में / नूपुर बाँधे / युगल चरण / अभी अधखिले चन्द्रकिरण के फूल नए / डोल रही सर-सर / पुरवैया भरमाई" जैसी शब्दावली मधुकर जी के चिंतन और कहन में परिवर्तन की परिचायक है।
"कूद रहा खूँटे पर / बछरू बड़े जोश में / आज सुबह से" यह जोश और कूद बदलाव के लिए ही है। "कभी न बंशी बजी / न पाया हमने / कोई नेह निमंत्रण" लिखनेवाली कलम नवल नेह से सिक्त-तृप्त मन की बात नवगीत में पिरो दे तो समय के सफे पर अपनी छाप अंकित कर सकेगा। "चलो बदल आएँ हम चश्मा / चारों और दिखे हरियाली" का संदेश देते मधुकर जी नवगीत को निरर्थक क्रंदन न बनने देने के प्रति सचेष्ट हैं। "दीप जलाये हैं / द्वारे पर / अच्छे दिन की अगवानी में" जैसी अभिव्यक्ति मधुकर जी के नवगीत संसार में नई-नई है। शुभत्व और समत्व के दीप प्रज्वलित कर नवगीत के अच्छे दिन लाये जा सकें तो नवगीतकार काव्यानंद-रसानंद व् ब्रम्हानंद की त्रिवेणी में अवगाहन कर समाज को नवनिर्माण का संदेश दे सकेंगे।
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संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष - ९४२५१८३२४४ 
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मंगलवार, 27 जनवरी 2015

kruti charcha: waqt adamkhor- madhukar ashthana

कृति चर्चा: 
वक्त आदमखोर: सामयिक वैषम्य का दस्तावेज़    
चर्चाकार: आचार्य  संजीव 
[कृति विवरण: वक्त आदमखोर, नवगीत संग्रहमधुकर अष्ठाना, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, १९९८, पृष्ठ १२६, नवगीत १०१, १५०/-, अस्मिता प्रकाशन, इलाहाबाद] 

साहित्य का लक्ष्य सबका हित साधन ही होता है, विशेषकर दीन-हीन-कमजोर व्यक्ति का हित। यह लक्ष्य विसंगतियों, शोषण और अंतर्विरोधों के रहते कैसे प्राप्त हो सकता है? कोई भी तंत्र, प्रणाली, व्यवस्था, व्यक्ति समूह या दल प्रकृति के नियमानुसार दोषों के विरोध में जन्मता, बढ़ता, दोषों को मिटाता तथा अंत में स्वयं दोषग्रस्त होकर नष्ट होता है। साहित्यकार शब्द ब्रम्ह का आराधक होता है, उसकी पारदर्शी दृष्टि अन्यों से पहले सत्य की अनुभूति करती है। उसका अंतःकरण इस अभिव्यक्ति को सृजन के माध्यम से उद्घाटित कर ब्रम्ह के अंश आम जनों तक पहुँचाने के लिये बेचैन होता है। सत्यानुभूति को ब्रम्हांश आम जनों तक पहुँचाकर साहित्यकार व्यव्ष्ठ में उपजी गये सामाजिक रोगों की शल्यक्रिया करने में उत्प्रेरक का काम करता है। 

विख्यात नवगीतकार श्री मधुकर अष्ठाना अपनी कृति ‘वक्त आदमखोर’ के माध्यम से समाज की नब्ज़ पर अँगुली रखकर तमाम विसंगतियों को देख-समझ, अभिव्यक्तकर उसके निराकरण का पथ संधानने की प्रेरणा देते हैं। श्री पारसनाथ गोवर्धन का यह आकलन पूरी तरह सही है: ‘इन नवगीतों की विशिष्ट भाषा, अछूते शब्द विन्यास, मौलिक उद्भावनाएँ, यथार्थवादी प्रतीक, अनछुए बिम्बों का संयोजन, मुहावरेदारी तथा देशज शब्दों का संस्कारित प्रयोग उन्हें अन्य रचनाकारों से पृथक पहचान देने में समर्थ है।

नवगीतों में प्रगतिवादी कविता के कथ्य को छांदस शिल्प के साथ अभिव्यक्त कर सहग ग्राह्य बनाने के उद्देश्य को लेकर नवगीत रच रहे नवगीतकारों में मधुर अष्ठाना का सानी नहीं है। स्वास्थ्य विभाग में सेवारत रहे मधुकर जी स्वस्थ्य समाज की चाह करें, विसंगतियों को पहचानने और उनका निराकरण करने की कामना से अपने नवगीतों के केंद्र में वैषम्य को रखें यह स्वाभाविक है। उनके अपने शब्दों में ‘मानवीय संवेदनाओं के प्रत्येक आयाम में विशत वातावरण से ह्त्प्रह्ब, व्यथित चेतना के विस्फोट ने कविताओं का आकार ग्रहण कर लिया.... भाषा का कलेवर, शब्द-विन्यास, शिल्प-शैली तथा भावनाओं की गंभीरता से निर्मित होता है... इसीलिए चुस्त-दुरुस्त भाषा, कसे एवं गठे शब्द-विन्यास, पूर्व में अप्रयुक्त, अनगढ़-अप्रचलित सार्थक शब्दों का प्रयोग एवं देश-kaalkaalकाल-परिस्थिति के अनुकूल आंचलिक एवं स्थानीय प्रभावों को मुखरित करने की कोशिश को मैंने प्रस्तुत गीतों में प्राथमिकता देकर अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है।’

मधुकर जी की भाषा हिंदी-उर्दू-देशज मिश्रित है। ‘तन है वीरान खँडहर / मन ही इस्पात का नगर, मजबूरी आम हो गयी / जिंदगी हराम हो गयी, कदम-कदम क्रासों का सिलसिला / चूर-चूर मंसूबों का किला, प्यासे दिन हैं भूखी रातें / उम्र कटी फर्जी मुस्काते, टुकड़े-टुकड़े अपने राम रह गये / संज्ञाएँ गयीं सर्वनाम रह गये, जीवन भर जो रिश्ते ढोये हैं / कदम-कदम पर कांटे बोये हैं, प्याली में सुबह ढली, थाली में दोपहर / बुझी-बुझी आँखों में डूबे शामो-सहर, जीवन यों तो ठहर गया है / एक और दिन गुजर गया है, तर्कों पर लाद जबर्दस्तियाँ / भूल गयीं दीवारें हस्तियाँ आदि पंक्तियाँ pathakको आत्म अनुभूत प्रतीत होती हैं। इन नवगीतों में कहीं भी आभिजात्यता को ओढ़ने या संभ्रांतता को साध्य बताने की कोशिश नहीं है। मधुकर जी को भाषिक टटकापन तलाशकर आरोपित नहीं करना पड़ता। उन्हें सहज-साध्य मुहावरेदार शब्दावली के भाव-प्रवाह में संस्कृतनिष्ठ, देशज, ग्राम्य और उर्दू मिश्रित शब्द अपने आप नर्मदा के सलिला-प्रवाह में उगते-बहते कमल दल और कमल पत्रों की तरह साथ-साथ अपनी जगह बनाकर सुशोभित होते जाते हैं। निर्मम फाँस गड़ी मुँहजोरी / तिरस्कार गढ़ गया अघोरी, जंगली विधान की बपौती / परिचय प्रतिमान कहीं उड़ गये / भकुआई भीड़ है खड़ी, टुटपुंजिया मिन्नतें तमाम / फंदों में झूलें अविराम, चेहरों को बाँचते खड़े / दर्पण खुद टूटने लगे आदि पंक्तियों में दैनंदिन आम जीवन में प्रयुक्त होते शब्दों का सघन संगुफन द्रष्टव्य है। भाषी शुद्धता के आग्रही भले ही इन्हें पढ़कर नाक-भौं सिकोड़ें किन्तु नवगीत का पाठक इनमें अपने परिवेश को मुखर होता पाकर आनंदित होता है। अंग्रेजी भाषा से शिक्षित शहरी नयी पीढ़ी के लिए इनमें कई शब्द अपरिचित होंगे किन्तु उन्हें  शब्द भण्डार बढ़ाने का सुनहरा अवसर इन गीतों से मिलेगा, आम के आम गुठलियों के दाम...

मधुकर जी इन नवगीतों में सामयिक युगबोधजनित संवेदनाओं, पारिस्थितिक वैषम्य प्रतिबिंबित करती अनुभूतियों, तंत्रजनित विरोधाभासी प्रवृत्तियों तथा सतत ध्वस्त होते मानव-मूल्यों से उत्पन्न तनाव को केंद्र में रखकर अपने चतुर्दिक घटते अशुभ को पहचानकर उद्घाटित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। उनकी इस प्रवृत्ति पर आनंद-मंगल, शुभ, उत्सव, पर्व आदि की अनदेखी और उपेक्षा करने का आरोप लगाया जा सकता है किन्तु इन समसामयिक विद्रूपताओं की उपस्थिति और प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। घर में अपनों के साथ उत्सव मनाकर आनंदमग्न होने के स्थान पर किसी अपरिचित की आँखों के अश्रु पोछने का प्रयास अनुकरणीय ही हो सकता है।

मधुकर जी के इन नवगीतों की विशिष्ट भाषा, अछूता शब्द चयन, मौलिक सोच, यथार्थवादी प्रतीक, अछूता बिम्ब संयोजन, देशज-परिनिष्ठित शब्द प्रयोग, म्हावारों और कहावतों की तरह सरस लच्छेदार शब्दावली, सहज भाव मुद्रा, स्पष्ट वैषम्य चित्रण तथा तटस्थ-निरपेक्ष अभिव्यक्ति उनकी पहचान स्थापित करती है। नवगीत की प्रथम कृति में ही मधुकर जी परिपक्व नवगीतकार की तरह प्रस्तुत हुए हैं। उन्हें विधा के विधान, शिल्प, परिसीमाओं, पहुच, प्रभाव तथा वैशिष्ट्य की पूर्ण जानकारी है। उनकी शब्द-सामर्थ्य, रूपक गढ़न-क्षमता, नवोपमायें खोजन एकी सूक्ष्म दृष्टि, अनुभूत और अनानुभूत दोनों को समान अंतरंगता से अभिव्यक्त कर सकने की कुशलता एनी नवगीतकारों से अलग करती है। अपने प्रथम नवगीत संग्रह से ही वे नवगीत की दोष-अन्वेषणी प्रवृत्ति को पहचान कर उसका उपयोग लोक-हित के लिए करने के प्रति सचेष्ट प्रतीत होते हैं।

मधुकर जी muktikगजल (muktikamuktikaमुक्तिका) तथा लोकभाषा में काव्य रचना में निपुण हैं। स्वाभाविक है कि गजलgazal में मतला (आरम्भिका) लेखन का अभ्यास उनके नवगीतों में मुखड़ों तथा अंतरों को अधिकतर द्विपंक्तीय रखने के रूप में द्रष्टव्य है। अंतरों की पंक्तियाँ लम्बी होने पर उन्हें चार चरणों में विभक्त किया गया है। अंतरांत में स्थाई या टेक के रूप में कहीं-कहीं २-२ पंक्तियाँ का प्रयोग किया गया है।

मधुकर जी की कहाँ की बानगी के तौर पर एक नवगीत देखें:

पत्थर पर खींचते लकीरें
बीत रहे दिन धीरे-धीरे

चेहरे पर चेहरे, शंकाओं की बातें
शीतल सन्दर्भों में दहक रही रातें
धारदार पल अंतर चीरें

आँखों में तैरतीं अजनबी कुंठायें
नंगे तारों पर फिर जिंदगी बिठायें
अधरों पर अनगूंजी पीरें

बार-बार सूरज की लेकर कुर्बानी
सुधियों की डोर कटी, डूबी नादानी
स्याह हैं चमकती तस्वीरें

एक सौ एक नवगीतों की यह माला रस वैविध्य की दृष्टि से निराश करती है। मधुकर जी लिखते हैं: ‘ इंद्रढनुष में सातों सरगम लहरायें / लहरों पर गंध तिरे पाले छितरायें’ (चुभो न जहरीले डंक) किन्तु संग्रह के अधिकाँश नवगीत डंक दंशित प्रतीत होते हैं। मधुकर जी के साथ इस नवगीत कुञ्ज में विचरते समय कलियों-कुसुमों के पराग की अभिलाषा दुराशा सिद्ध होने पर भी गुलाब से लेकर नागफनी और बबूलों के शूलों की चुभन की प्रतीति और उस चुभन से मुक्त होकर फूलों की कोमलता का स्पर्श पाने की अनकही चाह pathak को बांधे रखती है। नवगीत की यथार्थवादी भावधारा का प्रतिनिधित्व करति यह कृति पठनीय होने के साथ-साथ विचारणीय भी है।

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मंगलवार, 7 मई 2013

navgeet ka bhavishya madhukar ashthana


नवगीत चर्चा:
नवगीत परिसंवाद-२०१२ में पढ़ा गया शोध-पत्र
उत्तर प्रदेश में नवगीत का भविष्य
-मधुकर अष्ठाना

साहित्य समाज से आगे चलकर परिवर्तन का मार्ग बनाता है पूरे समाज को चिन्तन की नयी दिशा देता है, साहित्य उपदेशक या प्रवाचक नहीं है किन्तु ऐसा वातावरण बनाता है जिसमें प्रतिरोध एवं प्रतिकार के अंकुर जन्म ले सकें एवं अव्यवस्था के विरुद्ध आक्रोश ऊर्ध्वगामी हो, किन्तु इस तथ्य के विपरीत वही साहित्य मात्र कुछ लोगों के मनोरंजन के लिये लिखा जाता है तो वह ऊर्ध्वगामी होकर समाज की प्रगति में अवरोध उत्पन्न करता है और एक परिधि में बन्दी रहकर नकारात्मकता को प्रोत्साहन देता है, अभिजातवर्गीय मनोरंजन वादी किरकिरे साहित्य की मानव विरोधी प्रवृत्ति के विरुद्ध सम्पूर्ण विश्व में बदलाव आया जिसका प्रभाव कहीं जल्द और कहीं देर से आया, भारत में इस बदलाव की लहर देर से आई और गीतों में तो और भी विलम्ब से यह परिणामित हुई, इस बदलाव के प्रथम चरण में छायावादोत्तर गीतों में मामूली नयापन दिखाई पड़ा जिसमें प्रतिरोध और प्रतिकार का स्वर अलक्षित रहा।

वास्तव में गीतों में पविर्तन दूसरे चरण में आया जब लघुमानव के शोषण उत्पीड़न की व्यथा कथा के गीत मुखरित होने लगे, इस क्रम में नूतन कथ्य के अनुकूल भाषा की तलाश प्रारम्भ हुई। गीत ने भाषायी परिवर्तन और नयेपन के लिये नगरीय भाषा के साथ देशज शब्दों की युगलबन्दी को प्रोत्साहित किया, इस गीत में मुहावरों-लोकोक्तियों के योग से नये प्रतीकों और बिम्बों को गति मिली। दोहों की संक्षिप्तता, गजलों की व्यंजना और नयी कविता के विचारों ने इस गीत को नया तेवर और धार दी। जहाँ तक प्रतिरोध प्रतिकार का प्रश्न है यह पूँजी लोक गीतों के रूप में भारत जैसे ग्राम-देश में अकूत विद्यमान है जो पूर्णरूपेण भारतीय संस्कृति, संस्कार एवं परम्परा की देन है।

इस नये परिवर्तित रूप को अधिकांश रचनाकारों ने नवगीत के रूप में स्वीकार किया जिसमें साधाराण जनता के सुख-दुख, राग-विराग, शोषण-उत्पीड़न, जीवन-संघर्ष, जिजीविषा, त्रासदी, विसंगति, विषमता, विघटन, विद्रूपता, विद्वेष, मानवीय सम्बन्धों में बिखराव, मानवता का क्षरण और संस्कृति का पतन आदि का यथार्थ और वास्तविक चित्रण होने लगा जिसकी आत्मा में सम्वेदना रही एवं थोड़े बहुत परिवर्तन के उपरान्त भी यही क्रम गतिशील है। यदि नवगीतकार श्रीनिर्मल शुक्ल के शब्दों में कहें तो नवगीत खौलती सम्वेदनाओं को वर्ण-व्यंजना है, दर्द की बाँसुरी पर धधकते हुए परिवेश में भुनती जिन्दगी का स्वर संधान है, वह पछुवा के अंधड़ में तिनके की तरह उड़ते स्वास्तिक की कराह है।" मैं भी जानता हूँ कि नवगीत भावनाओं के खेत में उपजी सम्वेदनाओं की वह फसल है जिसमें पीड़ा की खाद पड़ती है और आँसुओं की सिंचाई होती है। समसामयिक सन्दर्भों की गहन सम्वेदना और अपने परिवेश को अभिव्यक्ति देता यह नवगीत साठ वर्ष से भी अधिक समय को मुखरित कर चुका है और अब भी समाज में जागरण लाने तथा अव्यवस्था के विरुद्ध पूरी क्षमता के साथ आक्रामक है।

नवगीत किसी वाद का प्रवर्तक नहीं है बल्कि मुक्त मानसिकता के साथ मानवता का पोषक है और मानवीय दृष्टिकोण से अपने समय की जाँच परख कर प्रस्तुत करता है। इस शब्द सम्वेदना के यज्ञ में सैंकड़ों रचनाकारों ने अपने विशिष्ट चिन्तन के साथ योगदान दिया है और भविष्य में भी यह क्रम कहीं रुकने वाला नहीं प्रतीत होता है। रागात्मक अन्तश्चेतना से उपजी सम्वेदना का यह छान्दसिक स्वरूप अनवरत रचनाकारों की कृतियों तक ही नहीं सीमित रह गया बल्कि आम आदमी की जबान पर भी चढ़ रहा है। इसके विकास और विस्तार के लिये हमें अपने दृष्टिकोण को असीमित रखते हुए उन सभी गेय एवं नवतायुत काव्य रूपों को नवगीत की परिधि में लाने का प्रयास करना चाहिये जिनमें प्रगतिशीलता व्याप्त है और उनकी कहन एवं कथ्य में भी समानता है एवं भाषा-शिल्प में भी लगभग एकरूपता दिखाई पड़ती है। नवगीत में उन तत्वों के संतुलन और सामंजस्य की बारीकियों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। यदि इसे अन्तर्देशीय रूप देना है तो सहज भाषा छान्दसिकता क्षेत्रीय बोलियों का दाल में नमक के बराबर ही उपयोग आवश्यक है अन्यथा विपरीत दशा में ऐसे नवगीत विशेष क्षेत्र में ही सिमट कर रह जायेंगे।

आज ऐसे गीतकार जो परम्परा के साथ, अपनी अभिजात गीत शैली के द्वारा गहराई से जुड़े थे, उनमें भी नवगीत का प्रबल प्रभाव देखा जा रहा है और नवगीत का कथ्य अपनी परम्परागत शैली में ही लिखने लगे हैं ऐसे भी गीतकार हैं जिन्होंने देर से ही सही नवगीत की अव्यवस्था को समझा और अपनी भाषा शिल्प में परिवर्तन ले आए। इनके अतिरिक्त अनेक युवा रचनाकार भी नवगीत की ओर बढ़े हैं और अपनी पहचान बनाने का प्रयास किया है। नवगीत के क्षेत्र में विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश की भूमिका पूर्व से आज तक सशक्त रूप से स्थापित होती रही है। इस क्रम में उत्तर प्रदेश में नवगीत के भविष्य को आपके समक्ष प्रस्तुत करना ही मेरा ध्येय है।

उत्तर प्रदेश में प्रारम्भ से ही नवगीत को उर्वर भूमि मिली, इस प्रदेश में पुराने हों अथवा नये नवगीतकार संख्या में सर्वथा अधिक रहे हैं और यह स्थिति वर्तमान में भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। कबीर, तुलसी, सूर, जायसी के समय से लेकर आज तक उत्तरप्रदेश हिन्दी का हृदय बना हुआ है। विधा कोई भी हो यह प्रदेश अग्रणी रहा है। नवगीत के प्रारम्भिक काल में यहीं पर स्मृति शेष डॉ. शम्भुनाथ सिंह, चन्ददेव सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, रवीन्द्र भ्रमर, रमानाथ अवस्थी, रामावतार त्यागी, भारतभूषण, उमाशंकर तिवारी, बालकृष्ण मिश्र, नीलम श्रीवास्तव, माधव मधुकर, देवेन्द्र बंगाली, उमाकान्त मालवीय, दिनेश सिंह, कैलाश गौतम, प्रतीक मिश्र आदि जैसे रचनाकारों ने नवगीत को विविध रूप और विविध प्रयोगों के माध्यम से नया आयाम दिया।

वर्तमान में सर्वश्री वृजभूषण सिंह गौतम ‘अनुराग’, प्रो. देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’, शचीन्द्र भटनागर, जगत प्रकाश चतुर्वेदी, रामदेव लाल, माहेश्वर तिवारी, श्याम नारायण श्रीवास्तव, रविन्द्र गौतम, देवेन्द्र शर्मा, कुमार रविन्द्र, राधेश्याम शुक्ल, श्याम निर्मल, ब्रजनाथ, राम सनेही लाल शर्मा, शिव बहादुर सिंह भदौरिया, अवध बिहारी श्रीवास्तव, श्रीकृष्ण तिवारी, सुरेन्द्र वाजपेयी, गुलाब सिंह, वीरेन्द्र आस्तिक, योगेन्द्र दत्त शर्मा, निर्मल शुक्ल, मधुकर अष्ठाना, भारतेन्दु मिश्र, सूर्य देव पाठक ‘प्रयाग’, गणेश गम्भीर, ओम धीरज, शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान, ओमप्रकाश सिंह, विनय भदौरिया, जय चक्रवर्ती, सुधांशु उपाध्याय, यश मालवीय आदि के अतिरिक्त भी अनेक नवगीतकार हैं जो हैं जो उत्तर प्रदेश के ही कितु वर्तमान में प्रदेश से बाहर बस गये हैं जिनमें बुद्धिनाथ मिश्र, अश्वघोष, विष्णुविराह, मयंक श्रीवास्तव, राधेश्याम बन्धु, पूर्णिमा वर्मन, महेन्द्र नेह आदि महत्वपूर्ण हैं।

इनके अतिरिक्त भी ऐसे अनेक नवगीतकार हैं जो हैं तो उत्तर प्रदेश के निवासी किन्तु अन्य प्रान्तों में निवास कर रहे हैं और नये रचनाकार जिनकी कम से कम एक कृति प्रकाशित हो गयी है अथवा प्रकाशन की प्रतीक्षा में है, उनकी भी संख्या उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक है। ऐसे रचनाकारों में सर्व श्री योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ अवनीश सिंह चौहान, आनन्द गौरव, संजय शुक्ल, शैलेन्द्र शर्मा, रामनारायण, रमाकान्त, राजेन्द्र बहादुर ‘राजन’, रामबाबू रस्तोगी, विनोद श्रीवास्तव, सत्येन्द्र तिवारी, विनय मिश्र जयशंकर शुक्ल, जयकृष्ण शर्मा तुषार, राजेन्द्र वर्मा, देवेन्द्र ‘सफल’ अभय मिहिर, अनिल मिश्र, राजेन्द्र शुक्ला ‘राज’, कैलाश निगम, मृदुल शर्मा, अनन्त प्रकाश तिवारी, निर्मलेन्दु शुक्ल, अमृत खरे आदि महत्वपूर्ण हैं। यदि खोज की जाये तो यह संख्या लगभग दूनी हो सकती है। नवगीतात्मक रुझान वाले रचनाकारों की संख्या तो इसके दूने से कम नहीं होगी। तीसरी पीढ़ी के अपेक्षाकृत कुछ रचनाकारों से मैं परिचित कराना चाहूँगाः-

डॉ. अवनीश कुमार सिंह चौहान

अंग्रेजी विषय में पी.एच.डी. डॉ. अवनीश मुरादाबाद में तीर्थंकर विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग में प्रवक्ता हैं वे नये पुराने सुप्रसिद्ध नवगीत पत्रिका के सम्पादन के साथ ही वेब पत्रिका पूर्वाभास व गीतपहल के समन्वयक एवं सम्पादक हैं। देश की पचासों पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दर्जनों सहयोगी संकलनों में उनके गीत हैं। देश की अनेक संस्थाओं ने तो उन्हें सम्मानित किया ही है, विदेश में भी उनके कार्य एवं सृजन पर अनेक सम्मान एवं पुरस्कार मिल चुके हैं। गीत के सम्बन्द्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए वे कहते हैं- ‘‘आम गीत किसी देश-विदेश की भौगोलिक सीमाओं तक सीमित नहीं रहा बल्कि समसामयिक स्थितियों परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपने कायान्तरण के बाद नवगीत के रूप में सम्पूर्ण सृष्टि की बात बड़ी बेबाकी से कर रहा है जिसमें समाहित है वस्तुपरता, लयात्मकता, समष्टिपरकता एवं अभिनव प्रयोग, इसलिये वर्तमान में नवगीत प्रासंगिक एवं प्रभावी विधा के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाये हुए है। सामाजिक विसंगतियों विद्रूपताओं को देख-सुन कर जब कभी मेरा मन अकुलाने लगता है अथवा कभी प्रेममय, शांतिमय या आनंदमय स्थिति में अपने को पाता हूँ तो मन गाने लगता है और मैं उन शब्दों को कलम बद्ध कर लेता हूँ।’’ उदाहरणार्थ डॉ. चौहान का एक नवगीत प्रस्तुत हैः-

‘‘बिना नाव के माझी देखे
मैंने नदी किनारे
इनके-उनके ताने सुनना, दिन भर देह जलाना
तीस रुपैया मिले मजूरी नौ की आग बुझाना
अलग-अलग है रामकहानी
टूटे हुए शिकारे

बढ़ती जाती रोज उधारी ले-दे काम चलाना
रोज-रोज झोपड़ पर अपने नये तगादे आना
घात सिखाई है तंगी में
किसको कौन उबारे
भरा जलाशय जो दिखता है केवल बातें घोले
प्यासा तोड़ दिया करना दम मुख को खोले-खोले
अपने स्वप्न भयावह कितने
उनके सुखद सुनहरे‘‘

श्री राजेन्द्र शुक्ल ‘राज’

हिन्दी विषय से एम.फिल., साहित्य रत्न श्री राजेन्द्र शुक्ल ‘राज’ वर्तमान में हिन्दी प्रवक्ता के पद पर एस. के. डी. एकेडमी इन्टर कालेज लखनऊ में कार्यरत हैं। छन्दों की पृष्ठभूमि से निकले श्री राज की नवगीत कृति ‘मुट्ठी की रेत’ प्रकाशनाधीन है। वे निरन्तर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। इन्टरनेट पत्रिका अनुभूति में भी इनके गीत आये हैं। इसके अतिरिक्त, आलेख, संस्मरण, भेंटवार्ता तथा समीक्षा आदि भी प्रकाशित होते रहे हैं। पत्रकारिता एवं रंग कर्म में भी उन्होंने प्रयास किया है, लगभग एक दर्जन संकलनों में सहभागी के रूप में संकलित हैं। लखनऊ नगर की अनेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े श्रीराज ‘सर्वजन हिताय’ साहित्यिक समिति के संयोजक हैं जिसकी मासिक गोष्ठियाँ अविच्छिन्न रूप से हो रही हैं। गीत को श्री राज साहित्य सर्वोत्तम विधा मानते हैं जबकि वे छन्दों में भी बेहद कुशल हैं। उनका यह भी कहना है कि गीत के संशोधित, परिवर्धित रूप में अपनी विगत पीड़ाओं को समष्टिगत रूप देना ही वास्तविक नवगीतकार का मुख्य रचनाधर्म है और ऐसी स्थिति में यथार्थता के साथ परिवेश का चित्रण सहज ही होता है। सृजन में रचनाकार का निष्पक्ष एवं ईमानदार कथ्य ही उसे समाज से जोड़ता है उदाहरणार्थ उनका एक नवगीत मैं यहाँ पर उद्धृत कर रहा हूँ:-

‘‘मुश्किल में मुस्कान हमारी क्या बोलूँ
संकट में पहचान हमारी
क्या बोलूँ
नालन्दा में लंदन पेरिस, कुटियों में
हम, बाजारी लाश खोजते दुखियों में
आसमान छू लिया मगर गिर गये बहुत
ग्रहण लगा बैठे धरती की खुशियों में
कैसी रही उड़ान हमारी
क्या बोलूँ
हमने थामा शास्त्र,शस्त्र को छोड़ दिया
प्यासा आया पास, तो गला रेत दिया
ऐसा तंत्र रचा विचार की मौत हुई
अपनी पीढ़ी को हमने बस पेट दिया
छवि है लहूलुहान हमारी
क्या बोलूँ’’

श्री संजय शुक्ल

स्नातक अध्यापक प्राकृतिक विज्ञान के पद पर शिक्षा विभाग, दिल्ली में कार्यरत हैं। अनेक लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं में उनकी रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। नवगीत के अतिरिक्त गजल और समीक्षक के रूप में भी उनकी प्रसिद्धि है। दूरदर्शन और आकाशवाणी से भी उनके गीत-नवगीत प्रसारित होते हैं। अनेक साहित्यिक संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया है। छन्दोबद्ध सृजन के प्रबल पक्षधर श्री शुक्ल मानते हैं कि ‘‘अपने भोगे यर्थार्थ से उपजी लौकिक-अलौकिक कल्पनाओं की कवि द्वारा की गयी कलात्मक, लयात्मक स्वर-ताल से सुसज्जित गीत रचना श्रोता और पाठक को मुग्ध करती है। नवगीत में अपने समय को अभिव्यक्त करने का संकल्प लिया है जो एक चुनौती है इसलिये दूर-दूर तक इसमें खुरदुरापन पसरा हुआ है। वैश्वीकरण, उपभोक्तावाद और लिजलिजे विज्ञापन के युग में कोमल, सरल, सरस, बिम्बों-प्रतीकों के माध्यम से अपने परिवेश को व्यक्त करना अब सम्भव नहीं रहा। कवियों ने नये सन्दर्भों, नये विमर्शों को पौराणिक एवं ऐतिहासिक आख्यानों से जोड़ कर अपने सृजन को समृद्ध तो किया ही है साथ अर्थवत्ता को व्यापकता प्रदान की है। कवि अपनी समृष्टि और ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा से स्वान्तः सुखाय और लोक मंगल के लिये भाव प्रवण मार्मिक गीतों के साथ-साथ सत्ता की अराजकता पर व्यंग्य गीत लिख रहे हैं और लिखते रहेंगे।’’

उदाहरणार्थ श्री संजय शुक्ल का एक नवगीत प्रस्तुत हैः-

‘‘ठीक बरस भर बाद सुखनवाँ घर को लौट रहा
सम्भावित प्रश्नों के उत्तर
मन में सोच रहा
पूछेगी अम्मा बचुआ क्यों इतने सूख रहे
पीते प्यास रहे अपनी क्या खाते भूख रहे
कह दूंगा अम्मा शहरों की उल्टी रीति रही
वही सजीले दिखते जिनके
तन में लोच रहा
बहुत तजुर्बा है आंखें सब सच-सच पढ़ लेंगी
गरजें बापू का मन बातें क्या-क्या गढ़ लेंगी
कह दूंगा फिर भी बिदेश में मरे न मजदूरी
नहीं अधिक खटने में
मुझको भी संकोच रहा
बहिना की अंखियाँ गौने का प्रश्न उठायेंगी
भौजी दद्दा की दारू का दंश छिपायेंगी
दिल घबराया तो मनने कुछ सुखद कल्पना की
झुकी हुई दादा की मूँछें
मुन्ना नोंच रहा

चाहेंगे मनुहार प्रश्न कुछ भोले, कुछ कमसिन
हमला बाजारों से लाया बेंदी-हेयरपिन
सिल्की जोड़ों के जैसा फिर प्यार व्यार होगा
रंगमहल सा देख रेल का
जनरल कोच रहा’’

उपर्युक्त उद्धरणों और नवगीतकारों का चिन्तन, भाषा, शिल्प और कथ्य की कहन स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि ये होनहार दिखे एक दिन वटवृक्ष बनेंगे और नवगीत को आगामी सदी तक ले जायेंगे। नवोदित नवगीतकारों के सृजन में, उनकी चुनौतियों, उनके परिवेश, राष्टप्रिय एवं वैश्विक परिदृश्य तथा आम आदमी का जीवन-संघर्ष, उसकी जिजीविषा आदि के साथ विसंगतियों तथा विद्रूपताओं की अभिव्यक्ति नूतन प्रतीक-बिम्बों के साथ एक ताजगी का अनुभव कराती है जिसमें वर्तमान पीढ़ी का आक्रोश, प्रतिकार तथा प्रतिरोध स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। नये नवगीतकारों का दृष्टि कोण जहाँ पुराने नवगीतकारों से भिन्न है वहीं उनकी सोच का दायरा भी विस्तृत है और प्रायः अधिकांश अपनी जमीन तथा अपना मार्ग स्वयं निर्धारित कर रहे हैं। उनके सृजन में कहीं भी छायाप्रति दिखने की गुंजाइश नहीं है। नवगीत के लिये निश्चित रूप से यह शुभलक्षण हैं जो विद्वान नवगीत के भविष्य के प्रति निराशा व्यक्त करते हैं उनसे सहमत होना सम्भव नहीं है। जब तक नवता तथा गेयता के प्रति समाज में अभिरुचि एवं आकर्षण रहेगा, लोकगीत रहेंगे, संगीत विद्यमान रहेगा, तब तक नवगीत की उपस्थिति चेतना को झकझोरती रहेगी और नये-नये नवगीतकार नवगीत को नया रूप-सौन्दर्य और समसामयिक यथार्थबोध अलंकृत कर आगे बढ़ाते रहेंगे।