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रविवार, 8 सितंबर 2024

सितंबर ८, सॉनेट, चाँद, गीत-नवगीत, हाइकु, मुक्तिका,

सलिल सृजन सितंबर ८
*
सॉनेट
चले चाँद की ओर १
जय जय सोमनाथ की कहकर,
चले चांँद की ओर साथ मिल,
इसरो जा रॉकेट से बँधकर,
फुर्र उड़ें, चंदा है मंजिल।
चंद्रमुखी पथ हेर रही है,
आते हैं हम मत घबराना,
जाने कब से टेर रही है,
बने चाँद ही नया ठिकाना।
मत रोको टोको जी हमको,
चलना है काँधे पर बैठो,
ट्रैफिक पुलिस ने हमसे दमड़ी,
मिल पाएगी एकउ तुमको।
मोदी जी-राहुल जी आओ,
ये दिल मांँगे मोर दिलाओ।।
८-९-२०२३
•••
चले चाँद की ओर २
आएँ सॉनेटवीरों! आप, चलें आप भी साथ
इस दल का हो या उस दल का; नेता का ले नाम
मनमानी करते हैं हम सब चलें उठाकर माथ
डरते नहीं पुलिस से लाठी का न यहाँ कुछ काम
घरवाली थी चंद्रमुखी अब सूर्यमुखी विकराल
सात सात जन्मों को बाँधे इसीलिए हम भाग
चले चाँद की ओर बजाए घर पर बैठी गाल
फुर्र हो रहे हम वह चाहे जितनी उगले आग
चीन्ह न पाए इसीलिए तो हम ढाँकें हैं मुखड़ा
चलें मून शिव-शक्ति वहीं पर छान रहे हैं भाँग
दुर्घटना है ताने सुनना, किसे सुनाएँ दुखड़ा
छह के कंधे पर छह बैठें, नहीं अड़ाएँ टाँग
सॉनेट सलिला के सब साथी व्यंजन लाएँ खूब
खाकर अमिधा और लक्षणा में गपियाएँ डूब
८-९-२०२३
***
सॉनेट
थोथा चना
*
थोथा चना; बाजे घना
मनमानी मन की बातें
ठूँठ सरीखा रहता तना
अपनों से करता घातें
बने मिया मिट्ठू यह रोज
औरों में नित देखे दोष
करा रहा गिद्धों को भोज
दोनों हाथ लुटाए कोष
साइकिल पंजा हाथी फूल
संसद में करते हैं मौज
जनता फाँक रही है धूल
बोझ बनी नेता की फ़ौज
यह भौंका; वह गुर्राया
यह खीझा, वह टर्राया
८-९-२०२२
*
हिन्दी के बारे में विद्वानों के विचार
सी.टी.मेटकॉफ़ ने १८०६ ई.में अपने शिक्षा गुरु जॉन गिलक्राइस्ट को लिखा-
'भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है,कलकत्ता से लेकर लाहौर तक,कुमाऊं के पहाड़ों से लेकर नर्मदा नदी तक मैंने उस भाषा का आम व्यवहार देखा है,जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी है। मैं कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक या जावा से सिंधु तक इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूं कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जाएंगे जो हिन्दुस्तानी बोल लेते होंगे।'
टॉमस रोबक ने १८०७ ई.में लिखा-
'जैसे इंग्लैण्ड जाने वाले को लैटिन सेक्सन या फ़्रेंच के बदले अंग्रेजी सीखनी चाहिए,वैसे ही भारत आने वाले को अरबी-फारसी या संस्कृत के बदले हिन्दुस्तानी सीखनी चाहिए।'
विलियम केरी ने १८१६ ई. में लिखा-
'हिन्दी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं बल्कि देश में सर्वत्र बोली जाने वाली भाषा है।'
एच.टी. केलब्रुक ने लिखा-
'जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रान्त के लोग करते हैं,जो पढ़े-लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है,जिसको प्रत्येक गांव में थोड़े बहुत लोग अवश्य ही समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिन्दी है।'
८-९-२०२२
***
लेख :
श्वास-प्रश्वास की गति ही गीत-नवगीत
*
भाषा का जन्म
प्रकृति के सानिंध्य में अनुभूत ध्वनियों को स्मरण कर अभिव्यक्त करने की कला और सामर्थ्य से भाषा का जन्म हुआ। प्राकृतिक घटनाओं वर्ष, जल प्रवाह, तड़ित, वायु प्रवाह था जीव-जंतुओं व पशु-पक्षियों की बोली कूक, चहचहाहट, हिनहिनाहट, फुँफकार, गर्जन आदि में अन्तर्निहित ध्वनि-खंडों को स्मरण रखकर उनकी आवृत्ति कर मनुष्य ने अपने सहयोगियों को संदेश देना सीखा। रुदन और हास ने उसे रसानुभूति करने में समर्थ बनाया। ध्वनिखंडों की पुनरावृत्ति कर श्वास-प्रश्वास के आरोह-अवरोह के साथ मनुष्य ने लय की प्रतीति की। सार्थक और निरर्थक ध्वनि का अंतर कर मनुष्य ने वाचिक अभिव्यक्ति की डगर पर पग रखे। अभिव्यक्त को स्थाई रूप से संचित करने की चाह ने ध्वनियों के लिए संकेत निर्धारण का पथ प्रशस्त किया, संकेतों के अंकन हेतु पटल, कलम और स्याही या रंग का उपयोग कर मनुष्य ने कालांतर में चित्र लिपियों और अक्षर लिपियों का विकास किया। अक्षरों से शब्द, शब्द से वाक्य बनाकर मनुष्य ने भाषा विकास में अन्य सब प्राणियों को पीछे छोड़ दिया।
भाषा की समझ
वाचिक अभिव्यक्ति में लय के कम-अधिक होने से क्रमश: गद्य व पद्य का विकास हुआ। नवजात शिशु मनुष्य की भाषा, शब्दों के अर्थ नहीं समझता पर वह अपने आस-पास की ध्वनियों को मस्तिष्क में संचित कर क्रमश: इनका अर्थ ग्रहण करने लगता है। लोरी सुनकर बच्चा लय, रस और भाव ग्रहण करता है। यही काव्य जगत में प्रवेश का द्वार है। श्वास-प्रश्वास के आरोह-अवरोह के साथ शिशु लय से तादात्म्य स्थापित करता है जो जीवन पर्यन्त बन रहता है। यह लय अनजाने ही मस्तिष्क में छाकर मन को प्रफुल्लित करती है। मन पर छह जाने वाली ध्वनियों की आवृत्ति ही 'छंद' को जन्म देती है। वाचिक व् लौकिक छंदों में लघु-दीर्घ उच्चार का संयोजन होता है। इन्हे पहचान और गईं कर वर्णिक-मात्रिक छंद बनाये जाते हैं।
गीत - नवगीत का शिल्प और तत्व
गीति काव्य में मुखड़े अंतरे मुखड़े का शिल्प गीत को जन्म देता है। गीत में गीतकार की वैयक्तिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होती है। गीत के अनिवार्य तत्व कथ्य, लय, रस, बिम्ब, प्रतीक, भाषा शैली आदि हैं। वर्ण संख्या, मात्रा संख्या, पंक्ति संख्या, पद संख्या, अलंकार, मिथक आदि आवश्यकतानुसार उपयोग किये जाते हैं। गीत सामान्यत: नवगीत से अधिक लंबा होता है।
लगभग ७० वर्ष पूर्व कुछ गीतकारों ने अपने गीतों को नवगीत कहा। गत सात दशकों में नवगीत की न तो स्वतंत्र पहचान बनी, न परिभाषा। वस्तुत: गीत वृक्ष का बोनसाई की तरह लघ्वाकारी रूप नवगीत है। नवगीत का शिल्प गीत की ही तरह मुखड़े और अंतरे का संयोजन है। मुखड़े और अंतरे में वर्ण संख्या, मात्रा संख्या, पंक्ति संख्या आदि का बंधन नहीं होता। मुखड़ा और अंतरा में छंद समान हो सकता है और भिन्न भी। सामान्यत: मुखड़े की पंक्तियाँ सम भारीय होती है। अंतरे की पंक्तियाँ मुखड़े की पंक्तियों के समान अथवा उससे भिन्न सम भार की होती हैं। सामान्यत: मुखड़े की पंक्तियों का पदांत समान होता है। अंतरे के बाद एक पंक्ति मुखड़े के पदभार और पड़ंत की होती है जिसके बाद मुखड़ा दोहराया जाता है।
गीत - नवगीत में अंतर
गीत कुल में जन्मा नवगीत अपने मूल से कुछ समानता और कुछ असमानता रखता है। दोनों में मुखड़े-अंतरे का शिल्प समान होता है किन्तु भावाभिव्यक्ति में अन्तर होता है। गीत की भाषा प्रांजल और शुद्ध होती है जबकि नवगीत की भाषा में देशज टटकापन होता है। गीतकार कथ्य को अभिव्यक्त करते समय वैयक्तिक दृष्टिकोण को प्रधानता देता है जबकि नवगीतकार सामाजिक दृष्टिकोण को प्रमुखता देता है। गीत में आलंकारिकता को सराहा जाता है, नवगीत में सरलता और स्पष्टता को। नवगीतकारों का एक वर्ग विसंगति, विडम्बना, टकराव, बिखराव, दर्द और पीड़ा को नवगीत में आवश्यक मंटा रह है किन्तु अब यह विचार धारा कालातीत हो रही है। मेरे कई नवगीत हर्ष, उल्लास, श्रृंगार, वीर, भक्ति आदि रसों से सिक्त हैं। कुमार रवींद्र, पूर्णिमा बर्मन, निर्मल शुक्ल, धनंजय सिंह, गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल', जय प्रकाश श्रीवास्तव, अशोक गीते, मधु प्रधान, बसंत शर्मा, रविशंकर मिश्र, प्रदीप शुक्ल, शशि पुरवार, संध्या सिंह, अविनाश ब्योहार, भावना तिवारी, कल्पना रामानी , हरिहर झा, देवकीनंदन 'शांत' आदि अनेक नवगीतकारों के नवगीतों में सांस्कृतिक रूचि और सकारात्मक ऊर्जा का प्राधान्य है। पूर्णिमा बर्मन ने भारतीय पर्वों, पेड़-पौधों और पुष्पों पर नवगीत लेखन कराकर नवगीत को विसंगतिपरकता के कठमुल्लेपन से निजात दिलाने में महती भूमिका निभाई है।
नवगीत का नया कलेवर
साम्यवादी वैचारिक प्रतिबद्धता के नाम पर सामाजिक विघटन, टकराव और द्वेषपरक नकारात्मकता से सामाजिक समरसता को क्षति पहुँचा रहे नवगीतकारों ने समाज-द्रोह को प्रोत्साहित कर परिवार संस्था को अकल्पनीय क्षति पहुँचाई है। नवगीत हे इन्हीं लघुकथा, व्यंग्य लेख आदि विधाओं में भी यह कुप्रवृत्ति घर कर गयी है। नवगीत ने नकारात्मकता का सकारात्मकता से सामना करने में पहल की है। कुमार रवींद्र की अप्प दीपो भव, पूर्णिमा बर्मन की चोंच में आकाश, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की काल है संक्रांति का और सड़क पर, देवेंद्र सफल की हरापन बाकी है, आचार्य भगवत दुबे की हिरन सुगंधों के, जय प्रकाश श्रीवास्तव की परिंदे संवेदनाओं के, अशोक गीते की धूप है मुंडेर की आदि कृतियों में नवाशापरक नवगीत संभावनाओं के द्वार खटखटा रहे हैं।
नवगीत अब विसंगति का ढोल नहीं पीट रहा अपितु नव निर्माण, नव संभावनाओं, नवोत्कर्ष की राह पर पग बढ़ा रहा है। नवगीत के आवश्यक तत्व सम-सामयिक कथ्य, सहज भाषा, स्पष्ट कथन, कथ्य को उभार देते प्रतीक और बिंब, सहज ग्राह्य शैली, लचीला शिल्प, लयात्मकता, छांदसिकता। लाक्षणिकता, व्यंजनात्मकता और जमीनी जुड़ाव हैं। आकाश कुसुम जैसी कल्पनाएँ नवगीत के लिए उपयुक्त नहीं हैं। क्लिष्ट भाषा नवगीत के है। नवगीत आम आदमी को लक्ष्य मानकर अपनी बात कहता है। नवगीत प्रयोगधर्मी काव्य विधा है। कुमार रवींद्र ने बुद्ध के जीवन से जुड़े पात्रों के माध्यम से एक-एक नवगीत कहकर प्रथम नवगीतात्मक प्रबंध काव्य की रचना की है। इन पंक्तियों के लेखक है संक्रांति का में नवगीत में शारद वंदन, फाग, सोहर आदि लोकगीतों की धुन, आल्हा, सरथा, दोहा आदि छंदों प्रयोग प्रथमत: किया है। पूर्णिमा बर्मन ने भारतीय सांस्कृतिक प्रतीकों को नवगीतों में बखूबी पिरोया है।
नवगीत के तत्वों का उल्लेख करते हुए एक रचना की कुछ पंक्तियाँ देखें-
मौन तजकर मनीषा कह बात अपनी
नव्यता संप्रेषणों में जान भरती
गेयता संवेदनों का गान करती
तथ्य होता कथ्य का आधार खाँटा
सधी गति-यति अंतरों का मान बनती
अंतरों के बाद मुखड़ा आ विहँसता
छंदहीना नई कविता क्यों सिरजनी
सरलता-संक्षिप्तता से बात बनती
मर्मबेधकता न हो तो रार थांती
लाक्षणिकता, भाव, रस,रूपक सलोने
बिम्ब टटकापन सजती नाचता
नवगीत के संग लोक का मन
ताल-लय बिन बेतुकी क्यों रहे कथनी?
नवगीत का भविष्य तभी उज्जवल होगा जब नवगीतकार प्रगतिवाद की आड़ में वैचारिक प्रतिबद्धता के नाम पर समाप्तप्राय राजनैतिक विचारधारा के कठमुल्लों हुए अंध राष्ट्रवाद से तटस्थ रहकर वैयक्तिकता और वैश्विकता, स्व और सर्व के मध्य समन्वय-संतुलन स्थापित करते हुए मानवीय जिजीविषा गुंजाते सकारात्मकता ऊर्जा संपन्न नवगीतों से विश्ववाणी हिंदी के रचना कोष को समृद्ध करते रहें।
८-९-२०२०
***
हाइकु सलिला
*
हाइकु करे
शब्द-शब्द जीवंत
छवि भी दिखे।
*
सलिल धार
निर्मल निनादित
हरे थकान।
*
मेघ गरजा
टप टप मृदंग
बजने लगा।
*
किया प्रयास
शाबाशी इसरो को
न हो हताश
*
जब भी लिखो
हमेशा अपना हो
अलग दिखो।
***
मुक्तिका
अपना शहर
*
अपना शहर अपना नहीं, दिन-दिन पराया हो रहा।
अपनत्व की सलिला सुखा पहचान अपनी खो रहा।।
मन मैल का आगार है लेकिन नहीं चिंता तनिक।
मल-मल बदन को खूब मँहगे सोप से हँस धो रहा।।
था जंगलों के बीच भी महफूज, अब घर में नहीं।
वन काट, पर्वत खोद कोसे ईश को क्यों, रो रहा।।
थी बेबसी नंगी मगर अब रईसी नंगी हुई।
है फूल कुचले फूल, सुख से फूल काँटे बो रहा।।
आती नहीं है नींद स्लीपिंग पिल्स लेकर जागता
गद्दे परेशां देख तनहा झींक कहता सो रहा।।
संजीव थे, निर्जीव नाते मर रहे बेमौत ही
संबंध को अनुबंध कर, यह लाश सुख की ढो रहा।।
सिसकती लज्जा, हया बेशर्म खुद को बेचती।
हाय! संयम बिलख आँसू हार में छिप पो रहा।।
८-९-२०१९
***
दोहा 
गोविन्द गुस्सा कब हुआ, कोई सके न जान
जौहर करे न जौहरी, क्या उपमा-उपमान
*
मुक्तिका:
*
तेवर बिन तेवरी नहीं, ज्यों बिन धार प्रपात
शब्द-शब्द आघात कर, दे दर्दों को मात
*
तेवरीकार न मौन हो, करे चोट पर चोट
पत्थर को भी तोड़ दे, मार लात पर लात
*
निज पीड़ा सहकर हँसे, लगा ठहाके खूब
तम का सीना फाड़ कर, ज्यों नित उगे प्रभात
*
हाथ न युग के जोड़ना, हाथ मिला दे तोड़
दिग्दिगंत तक गुँजा दे, क्रांति भरे नग्मात
*
कंकर को शंकर करे, तेरा दृढ़ संकल्प
बूँद पसीने के बने, यादों की बारात
*
चाह न मन में रमा की, सरस्वती है इष्ट
फिर भी हमीं रमेश हैं, राज न चाहा तात
*
ब्रम्ह देव शर्मा रहे, क्यों बतलाये कौन?
पांसे फेंकें कर्म के, जीवन हुआ बिसात
*
लोहा सब जग मान ले, ऐसी ठोकर मार
आडम्बर से मिल सके, सबको 'सलिल' निजात
८-९-२०१५
*

शुक्रवार, 8 सितंबर 2023

सॉनेट, थोथा चना, चाँद, लेख, गीत-नवगीत, हाइकु, मुक्तिका,

सॉनेट
चले चाँद की ओर १ 
जय जय सोमनाथ की कहकर,
चले चांँद की ओर साथ मिल,
इसरो जा रॉकेट से बँधकर,
फुर्र उड़ें, चंदा है मंजिल।

चंद्रमुखी पथ हेर रही है,
आते हैं हम मत घबराना,
जाने कब से टेर रही है,
बने चाँद ही नया ठिकाना।

मत रोको टोको जी हमको,
चलना है काँधे पर बैठो,
ट्रैफिक पुलिस ने हमसे दमड़ी,
मिल पाएगी एकउ तुमको।

मोदी जी-राहुल जी आओ,
ये दिल मांँगे मोर दिलाओ।।
८-९-२०२३
•••
चले चाँद की ओर २

आएँ सॉनेटवीरों! आप, चलें आप भी साथ
इस दल का हो या उस दल का; नेता का ले नाम
मनमानी करते हैं हम सब चलें उठाकर माथ
डरते नहीं पुलिस से लाठी का न यहाँ कुछ काम

घरवाली थी चंद्रमुखी अब सूर्यमुखी विकराल
सात सात जन्मों को बाँधे इसीलिए हम भाग
चले चाँद की ओर बजाए घर पर बैठी गाल
फुर्र हो रहे हम वह चाहे जितनी उगले आग

चीन्ह न पाए इसीलिए तो हम ढाँकें हैं मुखड़ा
चलें मून शिव-शक्ति वहीं पर छान रहे हैं भाँग
दुर्घटना है ताने सुनना, किसे सुनाएँ दुखड़ा
छह के कंधे पर छह बैठें, नहीं अड़ाएँ टाँग

सॉनेट सलिला के सब साथी व्यंजन लाएँ खूब
खाकर अमिधा और लक्षणा में गपियाएँ डूब
८-९-२०२३ 
***
सॉनेट
थोथा चना
*
थोथा चना; बाजे घना
मनमानी मन की बातें
ठूँठ सरीखा रहता तना
अपनों से करता घातें
बने मिया मिट्ठू यह रोज
औरों में नित देखे दोष
करा रहा गिद्धों को भोज
दोनों हाथ लुटाए कोष
साइकिल पंजा हाथी फूल
संसद में करते हैं मौज
जनता फाँक रही है धूल
बोझ बनी नेता की फ़ौज
यह भौंका; वह गुर्राया
यह खीझा, वह टर्राया
८-९-२०२२
*
हिन्दी के बारे में विद्वानों के विचार
सी.टी.मेटकॉफ़ ने १८०६ ई.में अपने शिक्षा गुरु जॉन गिलक्राइस्ट को लिखा-
'भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है,कलकत्ता से लेकर लाहौर तक,कुमाऊं के पहाड़ों से लेकर नर्मदा नदी तक मैंने उस भाषा का आम व्यवहार देखा है,जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी है। मैं कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक या जावा से सिंधु तक इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूं कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जाएंगे जो हिन्दुस्तानी बोल लेते होंगे।'
टॉमस रोबक ने १८०७ ई.में लिखा-
'जैसे इंग्लैण्ड जाने वाले को लैटिन सेक्सन या फ़्रेंच के बदले अंग्रेजी सीखनी चाहिए,वैसे ही भारत आने वाले को अरबी-फारसी या संस्कृत के बदले हिन्दुस्तानी सीखनी चाहिए।'
विलियम केरी ने १८१६ ई. में लिखा-
'हिन्दी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं बल्कि देश में सर्वत्र बोली जाने वाली भाषा है।'
एच.टी. केलब्रुक ने लिखा-
'जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रान्त के लोग करते हैं,जो पढ़े-लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है,जिसको प्रत्येक गांव में थोड़े बहुत लोग अवश्य ही समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिन्दी है।'
८-९-२०२२
***
लेख :
श्वास-प्रश्वास की गति ही गीत-नवगीत
*
भाषा का जन्म
प्रकृति के सानिंध्य में अनुभूत ध्वनियों को स्मरण कर अभिव्यक्त करने की कला और सामर्थ्य से भाषा का जन्म हुआ। प्राकृतिक घटनाओं वर्ष, जल प्रवाह, तड़ित, वायु प्रवाह था जीव-जंतुओं व पशु-पक्षियों की बोली कूक, चहचहाहट, हिनहिनाहट, फुँफकार, गर्जन आदि में अन्तर्निहित ध्वनि-खंडों को स्मरण रखकर उनकी आवृत्ति कर मनुष्य ने अपने सहयोगियों को संदेश देना सीखा। रुदन और हास ने उसे रसानुभूति करने में समर्थ बनाया। ध्वनिखंडों की पुनरावृत्ति कर श्वास-प्रश्वास के आरोह-अवरोह के साथ मनुष्य ने लय की प्रतीति की। सार्थक और निरर्थक ध्वनि का अंतर कर मनुष्य ने वाचिक अभिव्यक्ति की डगर पर पग रखे। अभिव्यक्त को स्थाई रूप से संचित करने की चाह ने ध्वनियों के लिए संकेत निर्धारण का पथ प्रशस्त किया, संकेतों के अंकन हेतु पटल, कलम और स्याही या रंग का उपयोग कर मनुष्य ने कालांतर में चित्र लिपियों और अक्षर लिपियों का विकास किया। अक्षरों से शब्द, शब्द से वाक्य बनाकर मनुष्य ने भाषा विकास में अन्य सब प्राणियों को पीछे छोड़ दिया।
भाषा की समझ
वाचिक अभिव्यक्ति में लय के कम-अधिक होने से क्रमश: गद्य व पद्य का विकास हुआ। नवजात शिशु मनुष्य की भाषा, शब्दों के अर्थ नहीं समझता पर वह अपने आस-पास की ध्वनियों को मस्तिष्क में संचित कर क्रमश: इनका अर्थ ग्रहण करने लगता है। लोरी सुनकर बच्चा लय, रस और भाव ग्रहण करता है। यही काव्य जगत में प्रवेश का द्वार है। श्वास-प्रश्वास के आरोह-अवरोह के साथ शिशु लय से तादात्म्य स्थापित करता है जो जीवन पर्यन्त बन रहता है। यह लय अनजाने ही मस्तिष्क में छाकर मन को प्रफुल्लित करती है। मन पर छह जाने वाली ध्वनियों की आवृत्ति ही 'छंद' को जन्म देती है। वाचिक व् लौकिक छंदों में लघु-दीर्घ उच्चार का संयोजन होता है। इन्हे पहचान और गईं कर वर्णिक-मात्रिक छंद बनाये जाते हैं।
गीत - नवगीत का शिल्प और तत्व
गीति काव्य में मुखड़े अंतरे मुखड़े का शिल्प गीत को जन्म देता है। गीत में गीतकार की वैयक्तिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होती है। गीत के अनिवार्य तत्व कथ्य, लय, रस, बिम्ब, प्रतीक, भाषा शैली आदि हैं। वर्ण संख्या, मात्रा संख्या, पंक्ति संख्या, पद संख्या, अलंकार, मिथक आदि आवश्यकतानुसार उपयोग किये जाते हैं। गीत सामान्यत: नवगीत से अधिक लंबा होता है।
लगभग ७० वर्ष पूर्व कुछ गीतकारों ने अपने गीतों को नवगीत कहा। गत सात दशकों में नवगीत की न तो स्वतंत्र पहचान बनी, न परिभाषा। वस्तुत: गीत वृक्ष का बोनसाई की तरह लघ्वाकारी रूप नवगीत है। नवगीत का शिल्प गीत की ही तरह मुखड़े और अंतरे का संयोजन है। मुखड़े और अंतरे में वर्ण संख्या, मात्रा संख्या, पंक्ति संख्या आदि का बंधन नहीं होता। मुखड़ा और अंतरा में छंद समान हो सकता है और भिन्न भी। सामान्यत: मुखड़े की पंक्तियाँ सम भारीय होती है। अंतरे की पंक्तियाँ मुखड़े की पंक्तियों के समान अथवा उससे भिन्न सम भार की होती हैं। सामान्यत: मुखड़े की पंक्तियों का पदांत समान होता है। अंतरे के बाद एक पंक्ति मुखड़े के पदभार और पड़ंत की होती है जिसके बाद मुखड़ा दोहराया जाता है।
गीत - नवगीत में अंतर
गीत कुल में जन्मा नवगीत अपने मूल से कुछ समानता और कुछ असमानता रखता है। दोनों में मुखड़े-अंतरे का शिल्प समान होता है किन्तु भावाभिव्यक्ति में अन्तर होता है। गीत की भाषा प्रांजल और शुद्ध होती है जबकि नवगीत की भाषा में देशज टटकापन होता है। गीतकार कथ्य को अभिव्यक्त करते समय वैयक्तिक दृष्टिकोण को प्रधानता देता है जबकि नवगीतकार सामाजिक दृष्टिकोण को प्रमुखता देता है। गीत में आलंकारिकता को सराहा जाता है, नवगीत में सरलता और स्पष्टता को। नवगीतकारों का एक वर्ग विसंगति, विडम्बना, टकराव, बिखराव, दर्द और पीड़ा को नवगीत में आवश्यक मंटा रह है किन्तु अब यह विचार धारा कालातीत हो रही है। मेरे कई नवगीत हर्ष, उल्लास, श्रृंगार, वीर, भक्ति आदि रसों से सिक्त हैं। कुमार रवींद्र, पूर्णिमा बर्मन, निर्मल शुक्ल, धनंजय सिंह, गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल', जय प्रकाश श्रीवास्तव, अशोक गीते, मधु प्रधान, बसंत शर्मा, रविशंकर मिश्र, प्रदीप शुक्ल, शशि पुरवार, संध्या सिंह, अविनाश ब्योहार, भावना तिवारी, कल्पना रामानी , हरिहर झा, देवकीनंदन 'शांत' आदि अनेक नवगीतकारों के नवगीतों में सांस्कृतिक रूचि और सकारात्मक ऊर्जा का प्राधान्य है। पूर्णिमा बर्मन ने भारतीय पर्वों, पेड़-पौधों और पुष्पों पर नवगीत लेखन कराकर नवगीत को विसंगतिपरकता के कठमुल्लेपन से निजात दिलाने में महती भूमिका निभाई है।
नवगीत का नया कलेवर
साम्यवादी वैचारिक प्रतिबद्धता के नाम पर सामाजिक विघटन, टकराव और द्वेषपरक नकारात्मकता से सामाजिक समरसता को क्षति पहुँचा रहे नवगीतकारों ने समाज-द्रोह को प्रोत्साहित कर परिवार संस्था को अकल्पनीय क्षति पहुँचाई है। नवगीत हे इन्हीं लघुकथा, व्यंग्य लेख आदि विधाओं में भी यह कुप्रवृत्ति घर कर गयी है। नवगीत ने नकारात्मकता का सकारात्मकता से सामना करने में पहल की है। कुमार रवींद्र की अप्प दीपो भव, पूर्णिमा बर्मन की चोंच में आकाश, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की काल है संक्रांति का और सड़क पर, देवेंद्र सफल की हरापन बाकी है, आचार्य भगवत दुबे की हिरन सुगंधों के, जय प्रकाश श्रीवास्तव की परिंदे संवेदनाओं के, अशोक गीते की धूप है मुंडेर की आदि कृतियों में नवाशापरक नवगीत संभावनाओं के द्वार खटखटा रहे हैं।
नवगीत अब विसंगति का ढोल नहीं पीट रहा अपितु नव निर्माण, नव संभावनाओं, नवोत्कर्ष की राह पर पग बढ़ा रहा है। नवगीत के आवश्यक तत्व सम-सामयिक कथ्य, सहज भाषा, स्पष्ट कथन, कथ्य को उभार देते प्रतीक और बिंब, सहज ग्राह्य शैली, लचीला शिल्प, लयात्मकता, छांदसिकता। लाक्षणिकता, व्यंजनात्मकता और जमीनी जुड़ाव हैं। आकाश कुसुम जैसी कल्पनाएँ नवगीत के लिए उपयुक्त नहीं हैं। क्लिष्ट भाषा नवगीत के है। नवगीत आम आदमी को लक्ष्य मानकर अपनी बात कहता है। नवगीत प्रयोगधर्मी काव्य विधा है। कुमार रवींद्र ने बुद्ध के जीवन से जुड़े पात्रों के माध्यम से एक-एक नवगीत कहकर प्रथम नवगीतात्मक प्रबंध काव्य की रचना की है। इन पंक्तियों के लेखक है संक्रांति का में नवगीत में शारद वंदन, फाग, सोहर आदि लोकगीतों की धुन, आल्हा, सरथा, दोहा आदि छंदों प्रयोग प्रथमत: किया है। पूर्णिमा बर्मन ने भारतीय सांस्कृतिक प्रतीकों को नवगीतों में बखूबी पिरोया है।
नवगीत के तत्वों का उल्लेख करते हुए एक रचना की कुछ पंक्तियाँ देखें-
मौन तजकर मनीषा कह बात अपनी
नव्यता संप्रेषणों में जान भरती
गेयता संवेदनों का गान करती
तथ्य होता कथ्य का आधार खाँटा
सधी गति-यति अंतरों का मान बनती
अंतरों के बाद मुखड़ा आ विहँसता
छंदहीना नई कविता क्यों सिरजनी
सरलता-संक्षिप्तता से बात बनती
मर्मबेधकता न हो तो रार थांती
लाक्षणिकता, भाव, रस,रूपक सलोने
बिम्ब टटकापन सजती नाचता
नवगीत के संग लोक का मन
ताल-लय बिन बेतुकी क्यों रहे कथनी?
नवगीत का भविष्य तभी उज्जवल होगा जब नवगीतकार प्रगतिवाद की आड़ में वैचारिक प्रतिबद्धता के नाम पर समाप्तप्राय राजनैतिक विचारधारा के कठमुल्लों हुए अंध राष्ट्रवाद से तटस्थ रहकर वैयक्तिकता और वैश्विकता, स्व और सर्व के मध्य समन्वय-संतुलन स्थापित करते हुए मानवीय जिजीविषा गुंजाते सकारात्मकता ऊर्जा संपन्न नवगीतों से विश्ववाणी हिंदी के रचना कोष को समृद्ध करते रहें।
८-९-२०२०
***
हाइकु सलिला
*
हाइकु करे
शब्द-शब्द जीवंत
छवि भी दिखे।
*
सलिल धार
निर्मल निनादित
हरे थकान।
*
मेघ गरजा
टप टप मृदंग
बजने लगा।
*
किया प्रयास
शाबाशी इसरो को
न हो हताश
*
जब भी लिखो
हमेशा अपना हो
अलग दिखो।
***
मुक्तिका
अपना शहर
*
अपना शहर अपना नहीं, दिन-दिन पराया हो रहा।
अपनत्व की सलिला सुखा पहचान अपनी खो रहा।।
मन मैल का आगार है लेकिन नहीं चिंता तनिक।
मल-मल बदन को खूब मँहगे सोप से हँस धो रहा।।
था जंगलों के बीच भी महफूज, अब घर में नहीं।
वन काट, पर्वत खोद कोसे ईश को क्यों, रो रहा।।
थी बेबसी नंगी मगर अब रईसी नंगी हुई।
है फूल कुचले फूल, सुख से फूल काँटे बो रहा।।
आती नहीं है नींद स्लीपिंग पिल्स लेकर जागता
गद्दे परेशां देख तनहा झींक कहता सो रहा।।
संजीव थे, निर्जीव नाते मर रहे बेमौत ही
संबंध को अनुबंध कर, यह लाश सुख की ढो रहा।।
सिसकती लज्जा, हया बेशर्म खुद को बेचती।
हाय! संयम बिलख आँसू हार में छिप पो रहा।।
८-९-२०१९
***
मुक्तिका:
*
तेवर बिन तेवरी नहीं, ज्यों बिन धार प्रपात
शब्द-शब्द आघात कर, दे दर्दों को मात
*
तेवरीकार न मौन हो, करे चोट पर चोट
पत्थर को भी तोड़ दे, मार लात पर लात
*
निज पीड़ा सहकर हँसे, लगा ठहाके खूब
तम का सीना फाड़ कर, ज्यों नित उगे प्रभात
*
हाथ न युग के जोड़ना, हाथ मिला दे तोड़
दिग्दिगंत तक गुँजा दे, क्रांति भरे नग्मात
*
कंकर को शंकर करे, तेरा दृढ़ संकल्प
बूँद पसीने के बने, यादों की बारात
*
चाह न मन में रमा की, सरस्वती है इष्ट
फिर भी हमीं रमेश हैं, राज न चाहा तात
*
ब्रम्ह देव शर्मा रहे, क्यों बतलाये कौन?
पांसे फेंकें कर्म के, जीवन हुआ बिसात
*
लोहा सब जग मान ले, ऐसी ठोकर मार
आडम्बर से मिल सके, सबको 'सलिल' निजात
८-९-२०१५
*

रविवार, 12 सितंबर 2021

नवगीत, हिंदी मैया

नवगीत:
संजीव
*
सिसक रही है
हिंदी मैया
कॉन्वेंट स्कूल में
*
शानदार सम्मलेन होता
किन्तु न इसमें जान है.
बुंदेली को जगह नहीं है
न ही मालवी-मान है.
रुद्ध प्रवेश निमाड़ी का है
छत्तीसगढ़ी न श्लाघ्य है
बृज, अवधी, मैथिली न पूछो
हल्बी का न निशान है.
भोजपुरी को भूल
नहीं क्या
घिरते हैं हम भूल में?
सिसक रही है
हिंदी मैया
कॉन्वेंट स्कूल में
*
महीयसी को बिठलाया है
प्रेस गैलरी द्वार पर.
भारतेंदु क्या छोड़ गये हैं
सम्मेलन ही हारकर?
मातृशक्ति की अनदेखी
क्यों संतानें ही करती हैं?
घाघ-भड्डरी को बिसराया
देशजता से रार कर?
बिंधी हुई है
हिंदी कलिका
अंग्रेजी के शूल में
सिसक रही है
हिंदी मैया
कॉन्वेंट स्कूल में
*
रास, राई, बंबुलिया रोये
जगनिक-आल्हा यहाँ नहीं.
भगतें, जस, कजरी गायब हैं
गीत बटोही मिला नहीं.
सुआ गीत, पंथी या फागें
बिन हिंदी है कहाँ कहो?
जड़ बिसराकर पत्ते गिनते
माटी का संग मिला नहीं।
ताल-मेल बिन
सपने सारे
मिल जाएंगे धूल में.
सिसक रही है
हिंदी मैया
कॉन्वेंट स्कूल में
*
(१०-९-१५ को विश्व हिंदी सम्मेलन भोपाल में उद्घाटन के पूर्व लिखा गया)
***
नवगीत:
अपना हर पल है हिन्दीमय....
संजीव 'सलिल'
*
अपना हर पल है हिन्दीमय
एक दिवस क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें नित्य अंग्रेजी
जो वे एक दिवस जय गाएँ...
*
निज भाषा को कहते पिछडी.
पर भाषा उन्नत बतलाते.
घरवाली से आँख फेरकर
देख पडोसन को ललचाते.
ऐसों की जमात में बोलो,
हम कैसे शामिल हो जाएँ?...
*
हिंदी है दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक की भाषा.
जिसकी ऐसी गलत सोच है,
उससे क्या पालें हम आशा?
इन जयचंदों की खातिर
हिंदीसुत पृथ्वीराज बन जाएँ...
*
ध्वनिविज्ञान-नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में माने जाते.
कुछ लिख, कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम हिंदी में पाते.
वैज्ञानिक लिपि, उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में साम्य बताएँ...
*
अलंकार, रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की बिम्ब अनूठे.
नहीं किसी भाषा में मिलते,
दावे करलें चाहे झूठे.
देश-विदेशों में हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन बढ़ते जाएँ...
*
अन्तरिक्ष में संप्रेषण की
भाषा हिंदी सबसे उत्तम.
सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन में
हिंदी है सर्वाधिक सक्षम.
हिंदी भावी जग-वाणी है
निज आत्मा में 'सलिल' बसाएँ...
*

नवगीत:
हिंदी की जय हो...
संजीव 'सलिल'
*
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
जनगण-मन की
अभिलाषा है.
हिंदी भावी
जगभाषा है.
शत-शत रूप
देश में प्रचलित.
बोल हो रहा
जन-जन प्रमुदित.
ईर्ष्या, डाह, बैर
मत बोलो.
गर्व सहित
बोलो निर्भय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
ध्वनि विज्ञानं
समाहित इसमें.
जन-अनुभूति
प्रवाहित इसमें.
श्रुति-स्मृति की
गहे विरासत.
अलंकार, रस,
छंद, सुभाषित.
नेह-प्रेम का
अमृत घोलो.
शब्द-शक्तिमय
वाक् अजय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
शब्द-सम्पदा
तत्सम-तद्भव.
भाव-व्यंजना
अद्भुत-अभिनव.
कारक-कर्तामय
जनवाणी.
कर्म-क्रिया कर
हो कल्याणी.
जो भी बोलो
पहले तौलो.
जगवाणी बोलो
रसमय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
***
दोहा सलिला:
हिंदी वंदना
संजीव 'सलिल'
*
हिंदी भारत भूमि की आशाओं का द्वार.
कभी पुष्प का हार है, कभी प्रचंड प्रहार..
*
हिन्दीभाषी पालते, भारत माँ से प्रीत.
गले मौसियों से मिलें, गायें माँ के गीत..
हृदय संस्कृत- रुधिर है, हिंदी- उर्दू भाल.
हाथ मराठी-बांग्ला, कन्नड़ आधार रसाल..
*
कश्मीरी है नासिका, तमिल-तेलुगु कान.
असमी-गुजराती भुजा, उडिया भौंह-कमान..
*
सिंधी-पंजाबी नयन, मलयालम है कंठ.
भोजपुरी-अवधी जिव्हा, बृज रसधार अकुंठ..
*
सरस बुंदेली-मालवी, हल्बी-मगधी मीत.
ठुमक बघेली-मैथली, नाच निभातीं प्रीत..
*
मेवाड़ी है वीरता, हाडौती असि-धार,
'सलिल'अंगिका-बज्जिका, प्रेम सहित उच्चार ..
*
बोल डोंगरी-कोंकड़ी, छत्तिसगढ़िया नित्य.
बुला रही हरियाणवी, ले-दे नेह अनित्य..
*
शेखावाटी-निमाड़ी, गोंडी-कैथी सीख.
पाली, प्राकृत, रेख्ता, से भी परिचित दीख..
*
डिंगल अरु अपभ्रंश की, मिली विरासत दिव्य.
भारत का भाषा भावन, सकल सृष्टि में भव्य..
*
हिंदी हर दिल में बसी, है हर दिल की शान.
सबको देती स्नेह यह, सबसे पाती मान..
*
हिंदी दिवस पर विशेष गीत:
सारा का सारा हिंदी है
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
जो कुछ भी इस देश में है, सारा का सारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
मणिपुरी, कथकली, भरतनाट्यम, कुचपुडी, गरबा अपना है.
लेजिम, भंगड़ा, राई, डांडिया हर नूपुर का सपना है.
गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा, चनाब, सोन, चम्बल,
ब्रम्हपुत्र, झेलम, रावी अठखेली करती हैं प्रति पल.
लहर-लहर जयगान गुंजाये, हिंद में है और हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा सबमें प्रभु एक समान.
प्यार लुटाओ जितना, उतना पाओ औरों से सम्मान.
स्नेह-सलिल में नित्य नहाकर, निर्माणों के दीप जलाकर.
बाधा, संकट, संघर्षों को गले लगाओ नित मुस्काकर.
पवन, वन्हि, जल, थल, नभ पावन, कण-कण तीरथ, हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
जै-जैवन्ती, भीमपलासी, मालकौंस, ठुमरी, गांधार.
गजल, गीत, कविता, छंदों से छलक रहा है प्यार अपार.
अरावली, सतपुडा, हिमालय, मैकल, विन्ध्य, उत्तुंग शिखर.
ठहरे-ठहरे गाँव हमारे, आपाधापी लिए शहर.
कुटी, महल, अँगना, चौबारा, हर घर-द्वारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
सरसों, मका, बाजरा, चाँवल, गेहूँ, अरहर, मूँग, चना.
झुका किसी का मस्तक नीचे, 'सलिल' किसी का शीश तना.
कीर्तन, प्रेयर, सबद, प्रार्थना, बाईबिल, गीता, ग्रंथ, कुरान.
गौतम, गाँधी, नानक, अकबर, महावीर, शिव, राम महान.
रास कृष्ण का, तांडव शिव का, लास्य-हास्य सब हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
ट्राम्बे, भाखरा, भेल, भिलाई, हरिकोटा, पोकरण रतन.
आर्यभट्ट, एपल, रोहिणी के पीछे अगणित छिपे जतन.
शिवा, प्रताप, सुभाष, भगत, रैदास कबीरा, मीरा, सूर.
तुलसी. चिश्ती, नामदेव, रामानुज लाये खुदाई नूर.
रमण, रवींद्र, विनोबा, नेहरु, जयप्रकाश भी हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
****

मंगलवार, 8 सितंबर 2020

लेख गीत-नवगीत

लेख  :
श्वास-प्रश्वास की गति ही गीत-नवगीत
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भाषा का जन्म
प्रकृति के सानिंध्य में अनुभूत ध्वनियों को स्मरण कर अभिव्यक्त करने की कला और सामर्थ्य से भाषा का जन्म हुआ। प्राकृतिक घटनाओं वर्ष, जल प्रवाह, तड़ित, वायु प्रवाह था जीव-जंतुओं व पशु-पक्षियों की बोली कूक, चहचहाहट, हिनहिनाहट, फुँफकार, गर्जन आदि में अन्तर्निहित ध्वनि-खंडों को स्मरण रखकर उनकी आवृत्ति कर मनुष्य ने अपने सहयोगियों को संदेश देना सीखा। रुदन और हास ने उसे रसानुभूति करने में समर्थ बनाया। ध्वनिखंडों की पुनरावृत्ति कर श्वास-प्रश्वास के आरोह-अवरोह के साथ मनुष्य ने लय की प्रतीति की। सार्थक और निरर्थक ध्वनि का अंतर कर मनुष्य ने वाचिक अभिव्यक्ति की डगर पर पग रखे। अभिव्यक्त को स्थाई रूप से संचित करने की चाह ने ध्वनियों के लिए संकेत निर्धारण का पथ प्रशस्त किया, संकेतों के अंकन हेतु पटल, कलम और स्याही या रंग का उपयोग कर मनुष्य ने कालांतर में चित्र लिपियों और अक्षर लिपियों का विकास किया। अक्षरों से शब्द, शब्द से वाक्य बनाकर मनुष्य ने भाषा विकास में अन्य सब प्राणियों को पीछे छोड़ दिया।
भाषा की समझ 
वाचिक अभिव्यक्ति में लय के कम-अधिक होने से क्रमश: गद्य व पद्य का विकास हुआ। नवजात शिशु मनुष्य की भाषा, शब्दों के अर्थ नहीं समझता पर वह अपने आस-पास की ध्वनियों को मस्तिष्क में संचित कर क्रमश: इनका अर्थ  ग्रहण करने लगता है। लोरी सुनकर बच्चा लय, रस और भाव ग्रहण करता है। यही काव्य जगत में प्रवेश का द्वार है। श्वास-प्रश्वास के आरोह-अवरोह के साथ शिशु लय से तादात्म्य स्थापित करता है जो जीवन पर्यन्त बन रहता है। यह लय अनजाने ही मस्तिष्क में छाकर मन को प्रफुल्लित करती है। मन पर छह जाने वाली ध्वनियों की आवृत्ति ही 'छंद' को जन्म देती है। वाचिक व् लौकिक छंदों में लघु-दीर्घ उच्चार का संयोजन होता है। इन्हे पहचान और गईं कर वर्णिक-मात्रिक छंद बनाये जाते हैं।
गीत - नवगीत का शिल्प और तत्व 
गीति काव्य में मुखड़े अंतरे मुखड़े का शिल्प गीत को जन्म देता है। गीत में गीतकार की वैयक्तिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होती है। गीत के अनिवार्य तत्व कथ्य, लय, रस, बिम्ब, प्रतीक, भाषा शैली आदि हैं। वर्ण संख्या, मात्रा संख्या, पंक्ति संख्या, पद संख्या, अलंकार, मिथक आदि आवश्यकतानुसार उपयोग किये जाते हैं। गीत सामान्यत: नवगीत से अधिक लंबा होता है।
लगभग ७० वर्ष पूर्व कुछ गीतकारों ने अपने गीतों को नवगीत कहा। गत सात दशकों में नवगीत की न तो स्वतंत्र पहचान बनी, न परिभाषा। वस्तुत: गीत वृक्ष का बोनसाई की तरह लघ्वाकारी रूप नवगीत है। नवगीत का शिल्प गीत की ही तरह मुखड़े और अंतरे का संयोजन है। मुखड़े और अंतरे में वर्ण संख्या, मात्रा संख्या, पंक्ति संख्या आदि का बंधन नहीं होता। मुखड़ा और अंतरा में छंद समान हो सकता है और भिन्न भी। सामान्यत: मुखड़े की पंक्तियाँ सम भारीय होती है। अंतरे की पंक्तियाँ मुखड़े की पंक्तियों के समान अथवा उससे भिन्न सम भार की होती हैं। सामान्यत: मुखड़े की पंक्तियों का पदांत  समान होता है। अंतरे के बाद एक पंक्ति मुखड़े के पदभार और पड़ंत की होती है जिसके बाद मुखड़ा दोहराया जाता है।
गीत - नवगीत में अंतर
गीत कुल में जन्मा नवगीत अपने मूल से कुछ समानता और कुछ असमानता रखता है। दोनों में मुखड़े-अंतरे का शिल्प समान होता है किन्तु भावाभिव्यक्ति में अन्तर होता है। गीत की भाषा प्रांजल और शुद्ध होती है जबकि नवगीत की भाषा में देशज टटकापन होता है। गीतकार कथ्य को अभिव्यक्त करते समय वैयक्तिक दृष्टिकोण को प्रधानता देता है जबकि नवगीतकार सामाजिक दृष्टिकोण को प्रमुखता देता है।  गीत में आलंकारिकता को सराहा जाता है, नवगीत में सरलता और स्पष्टता को। नवगीतकारों का एक वर्ग विसंगति, विडम्बना, टकराव, बिखराव, दर्द और पीड़ा को नवगीत में आवश्यक मंटा रह है किन्तु अब यह विचार धारा कालातीत हो रही है। मेरे कई नवगीत हर्ष, उल्लास, श्रृंगार, वीर, भक्ति आदि रसों से सिक्त हैं। कुमार रवींद्र, पूर्णिमा बर्मन, निर्मल शुक्ल, धनंजय सिंह, गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल', जय प्रकाश श्रीवास्तव, अशोक गीते, मधु प्रधान, बसंत शर्मा, रविशंकर मिश्र, प्रदीप शुक्ल,  शशि पुरवार, संध्या सिंह, अविनाश ब्योहार, भावना तिवारी, कल्पना रामानी , हरिहर झा, देवकीनंदन 'शांत' आदि अनेक नवगीतकारों के नवगीतों में सांस्कृतिक रूचि और सकारात्मक ऊर्जा का प्राधान्य है। पूर्णिमा बर्मन ने भारतीय पर्वों, पेड़-पौधों और पुष्पों पर नवगीत लेखन कराकर नवगीत को विसंगतिपरकता के कठमुल्लेपन से निजात दिलाने में महती भूमिका निभाई है।
नवगीत का नया कलेवर
साम्यवादी वैचारिक प्रतिबद्धता के नाम पर सामाजिक विघटन, टकराव और द्वेषपरक नकारात्मकता से  सामाजिक समरसता को क्षति पहुँचा रहे नवगीतकारों ने समाज-द्रोह को प्रोत्साहित कर परिवार संस्था को अकल्पनीय क्षति पहुँचाई है। नवगीत हे इन्हीं लघुकथा, व्यंग्य लेख आदि विधाओं में भी यह कुप्रवृत्ति घर कर गयी है। नवगीत ने नकारात्मकता का सकारात्मकता से सामना करने में पहल की है। कुमार रवींद्र की अप्प दीपो भव, पूर्णिमा बर्मन की चोंच में आकाश, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की काल है संक्रांति का और सड़क पर, देवेंद्र सफल की हरापन बाकी है, आचार्य भगवत दुबे की हिरन सुगंधों के, जय प्रकाश श्रीवास्तव की परिंदे संवेदनाओं के, अशोक गीते की धूप है मुंडेर की आदि कृतियों में नवाशापरक नवगीत संभावनाओं के द्वार खटखटा रहे हैं।
नवगीत अब विसंगति का ढोल नहीं पीट रहा अपितु नव निर्माण, नव संभावनाओं, नवोत्कर्ष की राह पर पग बढ़ा रहा है। नवगीत के आवश्यक तत्व सम-सामयिक कथ्य, सहज भाषा, स्पष्ट कथन, कथ्य को उभार देते प्रतीक और बिंब, सहज ग्राह्य शैली, लचीला शिल्प, लयात्मकता, छांदसिकता। लाक्षणिकता, व्यंजनात्मकता और जमीनी जुड़ाव हैं। आकाश कुसुम जैसी कल्पनाएँ नवगीत के लिए उपयुक्त नहीं हैं। क्लिष्ट भाषा नवगीत के है। नवगीत आम आदमी को लक्ष्य मानकर अपनी बात  कहता है। नवगीत प्रयोगधर्मी काव्य विधा है। कुमार रवींद्र ने बुद्ध के जीवन से जुड़े पात्रों के माध्यम से एक-एक नवगीत कहकर प्रथम नवगीतात्मक प्रबंध काव्य की रचना की है। इन पंक्तियों के लेखक है संक्रांति का में नवगीत में शारद वंदन, फाग, सोहर आदि लोकगीतों की धुन, आल्हा,  सरथा, दोहा आदि छंदों  प्रयोग प्रथमत: किया है। पूर्णिमा बर्मन ने भारतीय सांस्कृतिक प्रतीकों को नवगीतों में बखूबी पिरोया है।
नवगीत के तत्वों का उल्लेख करते हुए एक रचना की कुछ पंक्तियाँ देखें-

मौन तजकर मनीषा कह बात अपनी

नव्यता संप्रेषणों में जान भरती
गेयता संवेदनों का गान करती
तथ्य होता कथ्य का आधार खाँटा
सधी गति-यति अंतरों का मान बनती
अंतरों के बाद मुखड़ा आ विहँसता
छंदहीना नई कविता क्यों सिरजनी

सरलता-संक्षिप्तता से बात बनती
मर्मबेधकता न हो तो रार थांती
लाक्षणिकता, भाव,  रस,रूपक सलोने
बिम्ब टटकापन  सजती नाचता
नवगीत के संग लोक का मन
ताल-लय बिन बेतुकी क्यों रहे कथनी?

नवगीत का भविष्य  तभी उज्जवल  होगा जब नवगीतकार प्रगतिवाद की आड़ में वैचारिक प्रतिबद्धता के नाम पर समाप्तप्राय राजनैतिक विचारधारा  के कठमुल्लों हुए अंध राष्ट्रवाद से तटस्थ रहकर वैयक्तिकता और वैश्विकता, स्व और सर्व के मध्य समन्वय-संतुलन स्थापित करते हुए मानवीय जिजीविषा  गुंजाते सकारात्मकता ऊर्जा संपन्न नवगीतों से विश्ववाणी हिंदी के रचना कोष को समृद्ध करते रहें।  

बुधवार, 19 अगस्त 2020

समीक्षा - खेतों ने खत लिखा, गीत-नवगीत, कल्पना रामानी

पुस्तक सलिला
"खेतों ने खत लिखा" गीतिकाव्य के नाम
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*�
[पुस्तक विवरण- खेतों ने खत लिखा, गीत-नवगीत, कल्पना रामानी, वर्ष २०१६ ISBN ९७८-८१-७४०८-८६९-७, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, आकार डिमाई, पृष्ठ १०४, मूल्य २००/-, अयन प्रकाशन १/२० महरौली, नई दिल्ली ११००३०, लेखिका संपर्क ६०१/५ हेक्स ब्लॉक, सेक्टर १०, खारघर, नवी मुम्बई ४१०२१०, चलभाष ७४९८८४२०७२, ईमेल kalpanasramani@gmail.com]
*

गीत-नवगीत के मध्य भारत-पकिस्तान की तरह सरहद खींचने पर उतारू और एक को दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने के दुष्प्रयास में जुटे समीक्षक समूह की अनदेखी कर मौन भाव से सतत सृजन साधना में निमग्न रहकर अपनी रचनाओं के माध्यम से उत्तर देने में विश्वास रखनेवाली कल्पना रामानी का यह दूसरा गीत-नवगीत संग्रह आद्योपांत प्रकृति और पर्यावरण की व्यथा-कथा कहता है। आवरण पर अंकित धरती के तिमिर को चीरता-उजास बिखेरता आशा-सूर्य और झूमती हुई बालें आश्वस्त करती हैं कि नवगीत प्रकृति और प्रकृतिपुत्र के बीच संवाद स्थापितकर निराश में आशा का संचार कर सकने में समर्थ है। अपने नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' में सूर्य की विविध भाव-भंगिमाओं पर ८ तथा नए साल पर ६ रचनाएँ देने के बाद इस संकलन में सूर्य तथा नव वर्ष पर केंद्रित ३-३ रचनाएँ पाकर सुख हुआ। एक ही समय में समान अनुभूतियों से गुजरते दो रचनाकारों की भावसृष्टि में साम्य होते हुए भी अनुभति और अभिव्यक्ति में विविधता स्वाभाविक है। कल्पना जी ने 'शत-शत वंदन सूर्य तुम्हारा', 'सूरज संक्रांति क्रांति से' तथा 'भक्ति-भाव का सूर्य उगा' रचकर तिमिरांतक के प्रति आभार व्यक्त किया है। 'नव वर्ष आया', 'शुभारंभ है नए साल का' तथा 'नए साल की सुबह' में परिवर्तन की मांगल्यवाहकता तथा भविष्य के प्रति नवाशा का संकेत है।
सूरज की संक्रांति क्रांति से / जन-जन नीरज वदन हुआ
*
एक अंकुर प्रात फूटा / हर अँगन में प्रीत बनकर
नींद से बोला- 'उठो / नव वर्ष आया

कल्पना जी ने अपने प्रथम नवगीत संग्रह से अपने लेखन के प्रति आशा जगाई है।जंगल, हरियाली, बाग़-बगीचे, गुलमोहर, रातरानी, बेल, हरसिंगार, चंपा, बाँस, गुलकनेर, बसन्त, पंछी, कौआ, कोयल, सावन, फागुन, बरखा, मेघ, प्रात, दिन, सन्ध्या, धूप, शीत आदि के माध्यम से गीत-गीत में प्रकृति से साक्षात कराती यह कृति अधिक परिपक्व रचनाएँ समाहित किये है। मौसम के बदलते रंग जन-जीवन को प्रभावित करते हैं-
धड़क उठेंगी फिर से साँसें / ज्यों मौसम बदलेगा चोला
*
देखो उस टपरी में अम्मा / तन को तन से ताप रही है
आधी उधड़ी ओढ़ रजाई / खींच-खींचकर नाप रही है
जर्जर गात, कुहासा कथरी / वेध रहा बनकर हथगोला
*
'बेबस कमली' की व्यथा-कथा कल्पना जी की रचना सामर्थ्य की बानगी है। एक दिन बिना नहाये काम पर जाने का दंड उससे काम छुड़ाकर दिया जाता है-
रूठी किस्मत, टूटी हिम्मत / ध्वस्त हुए कमली के ख्वाब
काम गया क्या दे पायेगी / बच्चों को वो सही जवाब?
लातों से अब होगी खिदमत / मुआ मरद है क्रूर / कसाई
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हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू के कटघरों से मुक्त कल्पना जी कथ्य की आवश्यकतानुसार शब्दों का प्रयोग करती हैं।इन नवगीतों में जलावतन, वृंत, जर्जर, सन्निकट, वृद्धाश्रम, वसन, कन्दरा, आम्र, पीतवर्णी, स्पंदित, उद्घोष, मृदु, श्वेताभ जैसे तत्सम शब्द आखर, बतरस, बतियाते, चौरा, बिसरा, हुरियारों, पैंजन, ठेस, मारग, चौबारे, पुरवाई, अगवानी, सुमरन, जोगन आदि तद्भव शब्दों के साथ गलबहियाँ डाले हैं तो खत, ज़िंदा, हलक, नज़ारा, आशियां, कारवां, खौफ, रहगुजर, क़ातिल, फ़क़ीर, इनायत, रसूल, खुशबू आदि उर्दू शब्द कोर्ट, डी जे, पास, इंजीनियर, डॉक्टर जैसे अंग्रेजी शब्दों के साथ आँख मिचौली खेल रहे हैं।

कल्पना जी परंपरा का अनुसरण करने के साथ-साथ नव भाषिक प्रयोग कर पाठकों-श्रोताओं का अभिव्यक्ति सामर्थ्य बढ़ाती हैं। सरसों की धड़कन, ओस चाटकर सोई बगिया, लातों से अब होगी खिदमत, मुआ मरद है क्रूर कसाई, ख़ौफ़ ही बेख़ौफ़ होकर अब विचरता जंगलों में, अंजुरी अनन्त की, देव! छोड़ दो अब तो होना / पल में माशा पल में तोला, उनके घर का नमक न खाना, लहरें आँख दिखाएँ तो भी / आँख मिला उन पर पग धरना, 'पल में माशा, पल में तोला' जैसे मुहावरे, 'घड़ा देखकर प्यासा कौआ / चला चोंच में पत्थर लेकर' जैसी बाल कथाएँ, गुणा-भाग, कर्म-कलम, छान-छप्पर, लेख-जोखा, बिगड़ते-बनते, जोड़-तोड़, रूखी-सूखी, हल-बैल-बक्खर, काया-कल्प, उमड़-घुमड़, गिल्ली-डंडा, सुख-दुःख, सूखे-भीगे, चाक-चौबंद, झील-ताल, तिल-गुड़, शिकवे-गिले, दान-पुण्य आदि शब्द युग्म तथा दिनकर दीदे फाड़ रहा, सून सकोरा, सूखी खुरचन, जूते चित्र बनाते आये, जोग न ले अमराई, घने पेड़ का छायाघर, सूरज ने अरजी लौटाई, अमराई को अमिय पिलाओ, घिरे अचानक श्याम घन घने, खोल गाँठें गुत्थियों की, तिल-तिल बढ़ता दिन बंजारा, खेतों ने खत लिखा, पालकी बसन्त की, दिन बसन्ती ख्वाब पाले, रात आई रातरानी ख्वाब पाले, गीत कोकिला गाती रहना, बेला महके कहाँ उगाऊँ हरसिंगार, गुलकनेर यादों में छाया, हमें बुलाते बाग़-बगीचे, धान की फसल पुकारे, कभी न होना धूमिल चंदा जैसे सरस प्रयोग मन में चाशनी सी घोल देते हैं।
'खेतों ने खत लिखा सूर्य को', 'नज़रें नूर बदन नूरानी', 'सर्प सारे सर उठा, अर्ध्य अर्पित अर्चना का', 'कन्दरा से कोकिला का मौन बोला', आदि में अनुप्रास की मोहक छटा यत्र-तत्र दर्शनीय है। 'देखो उस टपरी में अम्मा / तन को तन से ताप रही है' में पुनरावृत्ति अलंकार, 'चाट गया जल जलता तापक', 'रात आई रातरानी' आदि में यमक अलंकार, 'कर्म कलम', 'दिन भट्टी' आदि में रूपक अलंकार हैं।
'एक मन्त्र दें वृक्षारोपण' कहते समय यह तथ्य अनदेखा हुआ है कि वृक्ष नहीं, पौधा रोपा जाता है। 'साथ चमकता पथ जब चलता' में तथ्य दोष है क्योंकि पथ नहीं पथिक चलता है। 'उगी पुनः नयी प्रभात' के स्थान पर 'उगा पुनः नया प्रभात' होना था। 'माँ होती हैं जाँ बच्चों की' के सन्दर्भ में स्मरणीय है कि किसी शब्द के अंत में 'न' आने पर एक मात्रा कम करने के लिए उसे पूर्व के दीर्घाक्षर में समाहित कर दीर्घाक्षर पर बिंदी लगाई जाती है। 'जान' के स्थान पर 'जां' होगा 'जाँ' नहीं।
हिंदी के आदि कवि अमीर खुसरो को प्रिय किंतु आजकल अल्प प्रचलित 'मुकरी' विधा की रचनाओं का नवगीत में होना असामान्य है। बेहतर होता कि समतुकांती मुकरियों का प्रयोग अंतरे के रूप में करते हुए कुछ नवगीत रचे जाते। ऐसा प्रयोग रोचक और विचारणीय होता।
नवगीत को लेकर कल्पना जी की संवेदनशीलता कुछ पंक्तियों में व्यक्त हुई है- 'दिनचर्या के गुणा-भाग से / रधिया ने नवगीत रचा', 'रच लो जीवन-गीत, कर्म की / कलम गहो हलधर', 'भाव, भाषा, छंद, रस-लय / साथ सब ये गीत माँगें', 'गीत सलोने बिखरे चारों ओर', 'गर्दिशों के भूलकर शिकवे-गिले / फिर उमंगों के / चलो नवगीत गायें'। नवगीत को सामाजिक विसंगतियों, विडंबनाओं, त्रासदियों और टकरावों से उपजे दर्द, पीड़ा और हताश का पर्याय मानने-बतानेवाले साम्यवादी चिन्तन से जुड़े समीक्षकों को नवगीत के सम्बन्ध में कल्पना जी की सोच से असहमति और उनके नवगीतों को स्वीकारने में संकोच हो सकता है किन्तु इन्हीं तत्वों से सराबोर नयी कविता को जनगण द्वारा ठुकराया जाना और इन्हीं प्रगतिवादियों द्वारा गीत के मरण की घोषणा के बाद भी गीत की लोकप्रियता बढ़ती जाना सिद्ध करता है नवगीत के कथ्य और कहन के सम्बन्ध में पुनर्विचार कर उसे उद्भव कालीं दमघोंटू और सामाजिक बिखरावजनित मान्यताओं से मुक्त कर उत्सवधर्मी नवाशा से संयुक्त किया जाना समय की माँग है। इस संग्रह के गीत-नवगीत यह करने में समर्थ हैं।

'बाँस की कुर्सी', 'पालकी बसन्त की', दिन बसन्ती ख्वाबवाले', 'मन जोगी मत बन', 'कलम गहो हलधर' आदि गीत इस संग्रह की उपलब्धि हैं। सारत:, कल्पना जी के ये गीत अपनी मधुरता, सरसता, सामयिकता, सरलता और पर्यावरणीय चेतना के लिए पसंद किये जाएंगे। इन गीतों में स्थान-स्थान पर सटीक बिम्ब और प्रतीक अन्तर्निहित हैं। 'सर्प सारे सिर उठा चढ़ते गए / दबती रहीं ये सीढ़ियाँ', 'एक अंकुर प्रात फूटा / हर अँगन में प्रीत बनकर', घने पेड़ के छाया घर में / आये आज शरण में इसकी / ज़ख़्मी जूते भर दुपहर में', दाहक रहे दिन भाटी बन / भून रहे बेख़ता प्राण-मन', 'बनी रहें इनायतें रसूल दानवन्त की / जमीं पे आई व्योम वेध पालकी बसन्त की', 'क्रूर मौसम के किले को तोड़कर फिर / लौट आये दिन बसन्ती ख्वाबवाले' जैसी अभिव्यक्तियाँ पाठक के साथ रह जाती हैं। कल्पना जी के मधुर गीत-नवगीत फिर-फिर पढ़ने की इच्छा शेष रह जाना और अतृप्ति की अनुभूति होना ही इस संग्रह की सफलता है।
१९-८-२०१६ 
Sanjiv verma 'Salil', 94251 83244
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