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मंगलवार, 9 जनवरी 2024

हिंदी, स्वर, व्यंजन, वर्ण, लघु, गुरु, प्लुत, अनुस्वार, अनुनासिक,

विश्ववाणी हिंदी में स्वर-व्यंजन 
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हिंदी भाषा में ५२ वर्ण और १६ स्वर हैं, जबकि अंग्रेजी में इंग्लिश में केवल २६ वर्ण  हैं जिनमें ७ स्वर हैं। हिंदी में लिंग केवल दो हैं स्त्रीलिंग और पुल्लिंग, संस्कृत में ३ लिंग हैं स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और नपुंसक लिंग जबकि अंग्रेजी में ४ लिंग हैं फेमिनिन जेंडर, मैसक्यूलाइन जेंडर, कॉमन जेंडर और न्यूट्रल जेंडर (स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, उभय लिंग और नपुंसकलिंग)।  हिंदी में दो वचन (एक वचन और बहु वचन), संस्कृत में ३ वचन (एक वचन, द्वि वचन और बहु वचन) तथा अंग्रेजी में दो वचन (सिंगुलर और प्लूरल) होते हैं। हर भाषा की सुदीर्घ परंपरा, विशेषता और कमियाँ होती हैं जो उसे बोले जाने वाले क्षेत्र के लोगों की आवश्यकता, सभ्यता, संस्कृति, मौसम, प्रकृति, पर्यावरण, वनस्पति, पशु-पक्षी आदि से विकसित होती है। हर भाषा में उसका श्रेष्ठ साहित्य होता है। इसलिए किसी भाषा को हेय नहीं माना जाना चाहिए। हिंदी भाषा के तत्वों को समझें- 

वर्ण - वर्ण उस मूल ध्वनि को कहते हैं, जिसके खंड या टुकड़े नहीं किये जा सकते। जैसे- अ, ई, व, च, क, ख् इत्यादि। वर्ण भाषा की सबसे छोटी इकाई है, इसके और खंड नहीं किये जा सकते। उदाहरण द्वारा मूल ध्वनियों को यहाँ स्पष्ट किया जा सकता है। 'राम' और 'गया' में चार-चार मूल ध्वनियाँ हैं, जिनके खंड नहीं किये जा सकते- र + आ + म + अ = राम, ग + अ + य + आ = गया। इन्हीं अखंड मूल ध्वनियों को वर्ण कहते हैं। हर वर्ण की अपनी लिपि होती है। लिपि को वर्ण-संकेत भी कहते हैं। हिन्दी में ५२ वर्ण हैं।

वर्णमाला- किसी भाषा के समस्त वर्णो के समूह को वर्णमाला कहते हैै। प्रत्येक भाषा की अपनी वर्णमाला होती है। हिंदी व संस्कृत - अ, आ, क, ख, ग आदि, अंग्रेजी- A, B, C, D, E आदि, फारसी व उर्दू अलिफ़ बे पे ते टे से जीम दाल सीम काफ नून आदि ।  

वर्ण के भेद- हिंदी भाषा में वर्ण दो प्रकार के होते है।- (१) स्वर (vowel) (२) व्यंजन (Consonant)

(१) स्वर (vowel) :- वे वर्ण जिनके उच्चारण में किसी अन्य वर्ण की सहायता की आवश्यकता नहीं होती, स्वर कहलाता है। इसके उच्चारण में कंठ, तालु का उपयोग होता है, जीभ, होठ का नहीं। हिंदी वर्णमाला में १६ स्वर हैं। जैसे- अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः ऋ ॠ ऌ ॡ।

स्वर के भेद-  स्वर के दो भेद होते है- (१) मूल स्वर- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ (२) संयुक्त स्वर- ऐ (अ +ए) और औ (अ +ओ)

मूल स्वर के भेद- मूल स्वर के तीन भेद होते हैं- (१) ह्स्व स्वर (२) दीर्घ स्वर तथा (३) प्लुत स्वर। 

(१) ह्रस्व, लघु या छोटा स्वर :- जिन स्वरों के उच्चारण में कम समय लगता है उन्हें ह्स्व स्वर कहते है। ह्स्व स्वर पाँच होते है- अ इ उ ऋ। इनकी एक मात्रा गिनी जाती है। 'ऋ' की मात्रा (ृ) के रूप में लगाई जाती है तथा उच्चारण 'रि' की तरह होता है।

(२) दीर्घ, गुरु या बड़ा स्वर :-वे स्वर जिनके उच्चारण में ह्रस्व स्वर से दोगुना समय लगता है, वे दीर्घ स्वर कहलाते हैं। जिन स्वरों केउच्चारण में अधिक समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं। इनकी २ मात्रा गिनी जाती हैं। हिंदी में दीर्घ स्वर सात हैं- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ। दीर्घ स्वर दो शब्दों के योग से बनते हैं। जैसे- आ =(अ +अ ), ई =(इ +इ ), ऊ =(उ +उ ), ए =(अ +इ ), ऐ =(अ +ए ), ओ =(अ +उ ), औ =(अ +ओ)।

(३) प्लुत स्वर :-वे स्वर जिनके उच्चारण में दीर्घ स्वर से भी अधिक समय यानी तीन मात्राओं का समय लगता है, प्लुत स्वर कहलाते हैं। सरल शब्दों में- जिस स्वर के उच्चारण में तिगुना समय लगे, उसे 'प्लुत' कहते हैं। इसका चिह्न (ऽ) है। इसका प्रयोग अकसर पुकारते समय किया जाता है। जैसे- सुनोऽऽ, राऽऽम, ओऽऽम्। हिन्दी में साधारणतः प्लुत का प्रयोग नहीं होता। वैदिक संस्कृत, निमाड़ी -मलवी बोलियों आदि में प्लुत स्वर का प्रयोग अधिक हुआ है। इसे 'त्रिमात्रिक' स्वर भी कहते हैं। हिंदी में ॐ/ओम्  त्रिमात्रिक है। 

अनुस्वार-विसर्ग- अं, अः अयोगवाह कहलाते हैं। वर्णमाला में इनका स्थान स्वरों के बाद और व्यंजनों से पहले होता है। अं को अनुस्वार तथा अः को विसर्ग कहा जाता है।

अनुनासिक, निरनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग

अनुनासिक, निरनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग- हिन्दी में स्वरों का उच्चारण अनुनासिक और निरनुनासिक होता हैं। अनुस्वार और विसर्ग व्यंजन हैं, जो स्वर के बाद, स्वर से स्वतंत्र आते हैं। 

अनुनासिक (ँ)- ऐसे स्वरों का उच्चारण नाक और मुँह से होता है और उच्चारण में लघुता रहती है। जैसे- गाँव, दाँत, आँगन, साँचा इत्यादि।

अनुस्वार ( ं)- यह स्वर के बाद आनेवाला व्यंजन है, जिसकी ध्वनि नाक से निकलती है। जैसे- अंगूर, अंगद, कंकन।

निरनुनासिक- केवल मुँह से बोले जानेवाला सस्वर वर्णों को निरनुनासिक कहते हैं। जैसे- इधर, उधर, आप, अपना, घर इत्यादि।

विसर्ग( ः)- अनुस्वार की तरह विसर्ग भी स्वर के बाद आता है। यह व्यंजन है और इसका उच्चारण 'ह' की तरह होता है। संस्कृत में इसका काफी व्यवहार है। हिन्दी में अब इसका अभाव होता जा रहा है; किन्तु तत्सम शब्दों के प्रयोग में इसका आज भी उपयोग होता है। जैसे- मनःकामना, पयःपान, अतः, स्वतः, दुःख इत्यादि।

टिप्पणी- अनुस्वार और विसर्ग न तो स्वर हैं, न व्यंजन; किन्तु ये स्वरों के सहारे चलते हैं। स्वर और व्यंजन दोनों में इनका उपयोग होता है। जैसे- अंगद, रंग। इस सम्बन्ध में आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का कथन है कि ''ये स्वर नहीं हैं और व्यंजनों की तरह ये स्वरों के पूर्व नहीं पश्र्चात आते हैं, ''इसलिए व्यंजन नहीं। इसलिए इन दोनों ध्वनियों को 'अयोगवाह' कहते हैं।'' अयोगवाह का अर्थ है- योग न होने पर भी जो साथ रहे।

अनुस्वार और अनुनासिक में अन्तर

अनुनासिक के उच्चारण में नाक से बहुत कम साँस निकलती है और मुँह से अधिक, जैसे- आँसू, आँत, गाँव, चिड़ियाँ इत्यादि। अनुनासिक स्वर की विशेषता है, अर्थात अनुनासिक स्वरों पर चन्द्रबिन्दु लगता है। लेकिन, अनुस्वार एक व्यंजन ध्वनि है।
अनुस्वार की ध्वनि प्रकट करने के लिए वर्ण पर बिन्दु लगाया जाता है। तत्सम शब्दों में अनुस्वार लगता है और उनके तद्भव रूपों में चन्द्रबिन्दु लगता है ; जैसे- अंगुष्ठ से अँगूठा, दन्त से दाँत, अन्त्र से आँत। इसकी एक मात्रा गिनी जाती है। 

अनुस्वार के उच्चारण में नाक से अधिक साँस निकलती है और मुख से कम, जैसे- अंक, अंश, पंच, अंग इत्यादि। इसकी २ मात्रा गिनी जाती हैं 

(2) व्यंजन (Consonant):- जिन वर्णो को बोलने के लिए स्वर की सहायता लेनी पड़ती है उन्हें व्यंजन कहते हैं। व्यंजन उन वर्णों को कहते हैं, जिनके उच्चारण में स्वर वर्णों की सहायता ली जाती है। 'क' से विसर्ग ( : ) तक सभी वर्ण व्यंजन हैं। प्रत्येक व्यंजन के उच्चारण में 'अ' की ध्वनि छिपी रहती है। 'अ' के बिना व्यंजन का उच्चारण सम्भव नहीं। जैसे- क् + अ = क,  ख्+अ=ख, प्+अ =प आदि। व्यंजन वह ध्वनि है, जिसके उच्चारण में भीतर से आती हुई वायु मुख में कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में, बाधित होती है। स्वर वर्ण स्वतंत्र और व्यंजन वर्ण स्वर पर आश्रित है। हिन्दी में व्यंजन वर्णो की संख्या ३३ है।

व्यंजनों के प्रकार - व्यंजन तीन प्रकार के होते है- (1)स्पर्श व्यंजन, (2)अन्तःस्थ व्यंजन तथा (3)उष्म व्यंजन । 

(1)स्पर्श व्यंजन :- स्पर्श का अर्थ होता है -छूना। जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय जीभ मुँह के किसी भाग जैसे- कण्ठ, तालु, मूर्धा, दाँत, अथवा होठ का स्पर्श करती है, उन्हें स्पर्श व्यंजन कहते है। ये कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दन्त और ओष्ठ स्थानों के स्पर्श से बोले जाते हैं। इसी से इन्हें स्पर्श व्यंजन या 'वर्गीय व्यंजन' कहते हैं; क्योंकि ये उच्चारण-स्थान की अलग-अलग एकता लिए हुए वर्गों में विभक्त हैं। इनकी संख्या २५ है। 
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मंगलवार, 1 अगस्त 2017

navekhan karyashala 1


नवलेखन कार्यशाला:
पाठ १.  
भाषा और बोली 

मुख से उच्चारित होनेवाले सार्थक शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह जिसके द्वारा मन की बात बतलाई जाती है, भाषा कहलाता है। अपने मन की अनुभूतियाँ व्यक्त करने के लिए जिन ध्वनियों का प्रयोग किया जाता है उन्हें स्वन कहते हैं । इन ध्वनियों को व्यवस्थित रूप से प्रयोग करना ही भाषा का प्रयोग करना है। ध्वनियों की अभिव्यक्ति बोलकर की जाती है, इसलिए यह बोली है। बोली को वाणी तथा जुबान भी कहा जाता है। 
भाषा और बोली में अंतर: 
शब्दों को निरंतर बोलने पर उनकी अर्थवत्ता को बढ़ाने तथा विविध मनुष्यों की अभिव्यक्ति में एकरूपता लाने के लिए कुछ बनाये गए नियमों के अनुसार व्यवस्थित रूप से की गयी अभिव्यक्ति को भाषा कहते हैं। भाषा अपने बोलनेवालों की अभिव्यक्ति को एक सा रूप देती है। बोलनेवालों की शिक्षा, क्षेत्र, व्यवसाय, धर्म, पंथ, लिंग या विचार भिन्न होने के बाद भी भाषा में एकरूपता होती है।   
बोली सहज रूप से बोला जानेवाला वाचिक रूप है जबकि भाषा नियमानुसार बोला जानेवाला रूप। सामान्यत: ग्राम्य जन दैनिक जीवन में उपयोग होने वाले शब्दों को छोटे से छोटा तथा सरल कर बोलते हैं, यह बोली है। बोली के वाक्य छोटे और सरल होते हैं। बड़े तथा कठिन शब्दों को सरल कर लिया जाता है जैसे- मास्टर साहब को मास्साब, हॉस्पिटल को अस्पताल आदि। बोली पर बोलनेवाले के परिवेश, शिक्षा, व्यवसाय आदि की छाप होती है। विश्व विद्यालय के प्राध्यापक और किसान एक ही बात कहें तो उनके द्वारा चुने गये शब्दों में अंतर होना स्वाभाविक है। यही भाषा और बोली का अन्तर है। 
अक्षर / वर्ण  

शाब्दिक अर्थ में अक्षर का अर्थ है जिसका 'क्षरण' (घटाव या विनाश) न हो। दर्शन शास्त्र के अनुसार यह परमात्मा का लक्षण है। भाषा के सन्दर्भ में 'अक्षर' छोटे से छोटी या मूल ध्वनि है, जिसे बोला जाता है तथा व्यक्त करने के लिए विशेष संकेत या आकृति का उपयोग किया जाता है। वर्णों के समुदाय को ही वर्णमाला कहते हैं। हिन्दी वर्णमाला में ४४ वर्ण हैं। उच्चारण और प्रयोग के आधार पर हिन्दी वर्णमाला के दो भेद स्वर और व्यंजन हैं।  
स्वर- स्वतंत्र रूप से बोले जानेवाले और जो व्यंजनों को बोलने में में सहायक ध्वनियाँ 'स्वर' कहलाती हैं। ये संख्या में ग्यारह हैं: अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ।

उच्चारण के समय की दृष्टि से स्वर के तीन भेद किए गएहैं:
१. ह्रस्व स्वर - जिन स्वरों के उच्चारण में कम-से-कम समय लगता हैं उन्हें ह्रस्व स्वर कहते हैं। ये चार हैं- अ, इ, उ, ऋ। इन्हें मूल स्वर भी कहते हैं।
२. दीर्घ स्वर - जिन स्वरों के उच्चारण में ह्रस्व स्वरों से दुगुना समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं। ये हिन्दी में सात हैं- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।
विशेष- दीर्घ स्वरों को ह्रस्व स्वरों का दीर्घ रूप नहीं समझना चाहिए। यहाँ दीर्घ शब्द का प्रयोग उच्चारण में लगने वाले समय को आधार मानकर किया गया है।
३. प्लुत स्वर - जिन स्वरों के उच्चारण में दीर्घ स्वरों से भी अधिक समय लगता है उन्हें प्लुत स्वर कहते हैं। प्रायः इनका प्रयोग दूर से बुलाने में किया जाता है। 
मात्रा- स्वरों के समयाधारित स्वरूप को मात्रा कहते हैं स्वरों की मात्राएँ निम्नलिखित हैं:
स्वर       अ     आ       इ      ई      उ      ऊ     ए      ऐ    ओ     औ   ऋ
मात्राएँ     -       ा     ि      ी     ु     ू       े     ै      ो     ौ     ृ 
मात्रा भार १      २       १        २     १       २       २     २      २      २      १   
शब्द      हम   नाम   किन   खीर  गुम   घूम    बेर   तैर    शोर    नौ     कृष  
अ वर्ण (स्वर) की कोई मात्रा नहीं होती। 
व्यंजन- जिन ध्वनियों / वर्णों के पूर्ण उच्चारण के लिए स्वरों की सहायता ली जाती है वे व्यंजन कहलाते हैं।  व्यंजन बिना स्वरों की सहायता के बोले ही नहीं जा सकते। ये संख्या में ३३ हैं। इसके निम्नलिखित तीन भेद हैं:
१. स्पर्श- इन्हें पाँच वर्गों में रखा गया है और हर वर्ग में पाँच-पाँच व्यंजन हैं। हर वर्ग का नाम पहले वर्ग के अनुसार रखा गया है जैसे: कवर्ग- क् ख् ग् घ् ड़्, चवर्ग- च् छ् ज् झ् ञ्, टवर्ग- ट् ठ् ड् ढ् ण् (ड़् ढ्), तवर्ग- त् थ् द् ध् न् तथा पवर्ग- प् फ् ब् भ् म्।  
२. अंतःस्थ-  य् र् ल् व्। 
३. ऊष्म- श् ष् स् ह्। 
संयुक्त व्यंजन- जहाँ  दो अथवा दो से अधिक व्यंजन मिल जाते हैं वे संयुक्त व्यंजन कहलाते हैं। देवनागरी लिपि में संयोग के बाद रूप-परिवर्तन हो जाने के कारण इन तीन को गिनाया गया है। ये दो-दो व्यंजनों से मिलकर बने हैं। जैसे-क्ष=क्+ष अक्षर, ज्ञ=ज्+ञ ज्ञान, त्र=त्+र नक्षत्र कुछ लोग क्ष् त्र् और ज्ञ् को भी हिन्दी वर्णमाला में गिनते हैं, पर ये संयुक्त व्यंजन हैं। अतः इन्हें वर्णमाला में गिनना उचित प्रतीत नहीं होता।
व्यंजनों का अपना स्वरूप निम्नलिखित हैं:
क् च् छ् ज् झ् त् थ् ध् आदि।
अ लगने पर व्यंजनों के नीचे का (हल) चिह्न हट जाता है। तब ये इस प्रकार लिखे जाते हैं:
क च छ ज झ त थ ध आदि।
अनुस्वार- इसका प्रयोग पंचम वर्ण के स्थान पर होता है। इसका चिन्ह अक्षर के ऊपर बिंदी (ं) है। जैसे- सम्भव=संभव, सञ्जय=संजय, गड़्गा=गंगा।
विसर्ग- इसका उच्चारण ह् के समान होता है। इसका चिह्न अक्षर के बगल में एक के ऊपर एक दो बिंदी (ः) है। जैसे-अतः, प्रातः।
अनुनासिक- जब किसी स्वर का उच्चारण नासिका और मुख दोनों से किया जाता है तब उसके ऊपर चंद्रबिंदु (ँ) लगा दिया जाता है। यह अनुनासिक कहलाता है। जैसे-हँसना, आँख। हिन्दी वर्णमाला में ११ स्वर तथा ३३ व्यंजन गिनाए जाते हैं, परन्तु इनमें ड़्, ढ़् अं तथा अः जोड़ने पर हिन्दी के वर्णों की कुल संख्या ४८ हो जाती है।
हलंत- जब कभी व्यंजन का प्रयोग स्वर से रहित किया जाता है तब उसके नीचे एक तिरछी रेखा (्) लगा दी जाती है। यह रेखा हल कहलाती है। हलयुक्त व्यंजन हलंत वर्ण कहलाता है। जैसे-विद्यां।
वर्ण का उच्चारण स्थल- मुख के जिस भाग से जिस वर्ण का उच्चारण होता है उसे उस वर्ण का उच्चारण स्थान कहते हैं।
क्रमवर्णउच्चारणश्रेणी
१.अ आ क् ख् ग् घ् ड़् ह्विसर्ग कंठ और जीभ का निचला भागकंठस्थ
२.इ ई च् छ् ज् झ् ञ् य् शतालु और जीभतालव्य
३.ऋ ट् ठ् ड् ढ् ण् ड़् ढ़् र् ष्मूर्धा और जीभमूर्धन्य
४.त् थ् द् ध् न् ल् स्दाँत और जीभदंत्य
५.उ ऊ प् फ् ब् भ् मदोनों होंठओष्ठ्य
६.ए ऐकंठ तालु और जीभकंठतालव्य
७.ओ औकंठ जीभ और होंठकंठोष्ठ्य
८.व्दाँत जीभ और होंठदंतोष्ठ्य 
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४
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