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सोमवार, 8 नवंबर 2021

समीक्षा, नवगीत, रामकिशोर दाहिया

कृति चर्चा:
अल्लाखोह मची - नवगीतीय भाव-भंगिमा मँजी
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण: अल्लाखोह मची, नवगीत संग्रह, रामकिशोर दाहिया, वर्ष २०१४, ३००/-, पृष्ठ १४३, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, सजिल्द, जैकेट सहित, उद्भावना प्रकाशन, एच ५५ सेक्टर २३, राजनगर, गाज़ियाबाद, चलभाष: ९८११५८२९०२, नवगीतकार संपर्क: गौर मार्ग, दुर्गा चौक, जुहला कटनी ४८३५०१, चलभाषा: ०९७५२५३९८९६]
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'अल्लाखोह मची' अर्थात 'हाहाकार मचा' ऐसी नवगीत कृति है जिसका शीर्षक ही उसके रचनाकार की दृष्टि और सृष्टि, परिवेश और परिस्थिति, आभ्यंतरिक अन्तर्वस्तु और बाह्य आचरणजनित प्रभावों का संकेत करता है। नवगीत की रचना वैयक्तिक दर्द और पीड़ाजनित न होकर सामूहिक और पारिस्थितिक वैषम्य एवं विडम्बनाकारित अनुभूतियों के सम्प्रेषण हेतु की जाती है। नवगीत का प्रादुर्भाव होता है या वह रचा जाता है, आदिकवि वाल्मीकि रचित प्रथम काव्य पंक्तियों की तरह नवगीत किसी घटना की स्वत: स्फूर्त प्राकृतिक क्रिया है अथवा किसी घटना या किन्हीं घटनाओं के कारण उत्पन्न प्रतिक्रियाओं के संचित होते जाने और निराकृत न होने पर रचनाकार के सुचिंतन का सारांश इस पर मत वैभिन्न्य हो सकता है किन्तु यह लगभग निर्विवाद है कि नवगीत आम जन की अनुभूतियों का शब्दांकन है, न कि व्यक्तिगत चिन्तन का प्रस्तुतीकरण। विवेच्य कृति की हर रचना गीतकार के साक्षीभाव का प्रमाण है।
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार श्री अवधबिहारी श्रीवास्तव के अनुसार 'ईमानदार कवि ने जो करीब से देखा, महसूस किया, भीतर-भीतर जिन घटनाओं की संवेदना उसके भीतर उतर गयी है, उस सच का बयान है, ये गीत फैशन और बहाव में लिखे गीत नहीं हैं. ये गीत एयरकण्डीशनरों में बैठकर कल्पना से गाँव, गरीबी, परिश्रम और पसीने का अनुगायन नहीं है। इन्हें एक गरीब किसान के बेटे ने कड़ी धूप में खड़े होकर भूख और प्यास की पीड़ा सहते हुए धरती की छाती पर लिखा है, इसीलिये इनके गीतों में पसीने से भीगी माटी की गंध आ रही है।' खुद रामकिशोर जी मानते हैं कि उनका लेखन 'घुटन, टूटन, संत्रास, उपेक्षा के शिकार, संघर्षरत आम आदमी की समस्याओं को ज्यों का त्यों रेखांकित करने का प्रयास है।' प्रयास हमेशा सायास होता है, अनायास नहीं। 'ज्यों का त्यों सायास' प्रस्तुतिकरण इन नवगीतों का प्रथम वैशिष्ट्य है।
इन नवगीतों का दूसरा वैशिष्ट्य 'स्वर में आक्रामकता' है, वैषम्य और विडम्बनाओं के प्रहार निरंतर सहनेवाला मन कितना भी भीरु हो, उनमें सुधारने और सुधार न सके तो तोड़ने की प्रवृत्ति होना स्वाभाविक है। एक बच्चे के पास कोई खिलौना हो और दूसरे के पास न हो तो वह खिलौना पाने की ज़िद करता है और न मिलने पर तोड़ देता है, भले ही बाद में दंडित हो। यह आक्रामकता इन गीतों में है।
शीश नहीं / कंधे पर लेकिन / रुण्ड हवा में / लाठी भाँजे।
सोना-तपा / खरा हो निकला / चमका जितना / छीले-माँजे।
इस आक्रामकता को दिशाहीन होने से जो प्रवृत्ति बचाती है वह है 'गाम्भीर्य'। संयोगवश रामकिशोर जी शिक्षक हैं, वे रचनाकार का गंभीर होना उसका नैतिक दायित्व मानते हैं तो शिक्षक का संयमित होना कैसे भूल सकते हैं? आक्रामकता, गंभीरता और संयम की त्रिवेणी इन नवगीतों को उनके गाँव में प्रवहित झिरगिरी नदी के प्रवाह की तरह उफनने, गरजने, शांत होने, तृषा हरने की प्रवृत्ति से युक्त करते हैं।
ईंधन आग / जलाने के हम / फिर से / झोंके गए भाड़ में ।
जान सौंपकर / किये काम को / ताकत-हिम्मत / रही हाड़ में ।
इन नवगीतों का सर्वाधिक उल्लेखनीय तत्व इनकी लोकधर्मिता है। यह लोकधर्मिता रामकिशोर जी को उनके लोकगायक पिता से विरासत में मिली है। बुंदेलखंड-बघेलखण्ड का सीमावर्ती अंचल बुढ़ार, उमरिया, मानपुर, बरही आदि कुछ समय के लिए मेरा और लम्बे समय तक रामकिशोर जी का कार्यक्षेत्र रहा है। वे नयी पीढ़ी को शिक्षित करने में जुटे थे और मैं नदियों पर सेतु परियोजनाओं के प्रस्ताव तैयार करने और निर्माण कराने में जुटा था। तब हमारी भेंट भले ही नहीं हो सकी किन्तु अंचल के आदमी के अभाव, दर्द, बेचैनी, उकताहट के साक्षी होने का अवसर अवश्य ही दोनों को मिला। वहाँ रहकर देखने, भोगने और सीखने के काल ने वह पैनी दृष्टि दी जो आवरणों को भेदकर सत्य की प्रतीति कर सके।
फूटी पाँव / बिवाई धरती / एक बूँद भी / लगे इमरती
भारी महा गिरानी / आसों बादल टाँगे पानी।
आधा डोल / कहे अब आके। / कुएँ लगे पेंदी से जाके।
गया और / जलस्तर नीचे। / सावन सूखा पड़ा उलीचे।
'सावन सूखा' की विडंबना लगातार झेलती पीड़ा का संवेदनशील चक्षुसाक्षी, नीरो की तरह वेणुवादन कर प्रेम और शांति के राग नहीं गा सकता। कादम्बरीकार बाणभट्ट और मेघदूत सर्जक कालिदास के काल से विंध्याटवी के इस अंचल में लगातार वन कटने, पहाड़ खुदने और नदियों का जलग्रहण क्षेत्र घटने के बाद भी अकल्पनीय प्राकृतिक सौंदर्य है। सौंदर्य कितना भी नैसर्गिक और दिव्य हो उससे क्षुधा और तृषा शांत नहीं होती। जाने-अनजाने कोलाहल को जीता-पीता हुआ वह मोहकवादियों में भी तपिश अनुभव करता है।
अंतहीन / जलने की पीड़ा / मैं बिन तेल दिया की बाती।
मन के भीतर / जलप्रपात है / धुआँधार की मोहकवादी।
सलिल कणों में / दिन उगते ही / माचिस की तीली टपका दी।
सूख रही / नर्मदा पेट से / ऊपर जलती धू-धू छाती।
निर्जन वन का / सूनापन भी / भरे कोलाहल भीतर जैसे।
मैं विस्मित हूँ / खोह विजन में / चिल-कूट करते तीतर कैसे?
बरसों से जड़वत-निष्ठुर राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था और अधिकाधिक संवेदहीन-प्रभावहीन होती सांस्कृतिक-साहित्यिक विरासत सिर्फ और सिर्फ असंतोष को जन्म देती है जो घनीभूत होकर क्षोभ और आक्रोश की अभिव्यक्ति कर नवगीत बन जाती है। विडंबना यह कि विदेशी शासकों के विरुद्ध विद्रोह करने पर देशप्रेम और जनसमर्थन तो प्राप्त होता पर तथाकथित स्वदेशी सम्प्रभुओं ने वह राह भी नहीं छोड़ी है। अब शासन-प्रशासन के विरुद्ध जाने की परिणति नक्सलवादऔर आतंकवाद में होती है। इस संग्रह के प्रथम खंड 'धधकी आग तबाही' के अंतर्गत समाहित नवगीत अनसुनी-अनदेखी शिकायतों के जीवंत दस्तावेज हैं-
डंपर-ट्रॉली / ढोते ट्रक हैं / नंबर दो की रेत।
महानदी के / तट कैसे / दाबे कुचले खेत।
लिखी शिकायत / केश उखाड़े / सबको गया टटोला।
पीली-लाल / बत्तियों पर / संयुक्त मोर्चा खोला।
छान-बीन / तफ्तीशें जारी / डंडे भूत-परेत।
असंतुष्ट पर से भूत-प्रेत उतारते व्यवस्था के डंडे कल से कल तक का अकाट्य सत्य है। आम आदमी को इस सत्य से जूझते देख उसकी जिजीविषा पर विस्मिय होता है। रामकिशोर जी का अंदाज़े-बयां 'कम लिखे से जादा समझना' की परिपाटी का पालन करता है-
दवा सरीखे / भोजन मिलता / रस में टँगा मरीज रहा हूँ।
दैनिक / वेतनभोगी की मैं / फटती हुई कमीज रहा हूँ।
गर्दन से / कब सिर उतार दे / पैनी खड्ग / व्यवस्था इतनी।....
.... झोपड़पट्टी के / आँगन में / राखी-कजली / तीज रहा हूँ।
आम आदमी की यह ताकत जो उसे राखी, कजली, तीज अर्थात पारिवारिक-सामाजिक संबंधों के अनुबंधों से मिलती है, वही सर्वस्व ध्वंस के अवांछित रास्तों पर जाने से रोकती है किन्तु अंतत: इससे मुक्ताकाश में पर तौलने के इच्छुक पर कतरे जाकर बकौल रहीम 'रहिमन निज मन की व्यथा मन ही राखो गोय' कहते हैं तो आम आदमी की जुबान से सिर्फ यह कह पाते हैं-
मेरी पीड़ा मेरा धन है। / नहीं बाँटता मेरा मन है।
सूम बने रहना / ही बेहतर / खुशहाली में घर-आँगन है।
संग्रह का दूसरा खंड 'पागल हुआ रमोली' के हुआ सवेरा जैसे गीत कवि के अंतर्मन में बैठे आशावादी शिक्षक की वाणी हैं- 'उठ जा बेटे! हुआ सवेरा । / हुई भोर है गया अँधेरा। / जागा सूरज खोले आँखें / फ़ैल रही किरणों की पाँखें'। नवाशा का यह स्वर भोर की ताजगी की ही तरह शीघ्र ही गायब हो जाता है और शेष रह जाती है 'मूँड़ फूट जाएगा लगता / हींसों के बँटवारे में' की आशंका, 'लाल-पीली / बत्तियों का / हो गया / कानून बंधुआ' का कड़वा सच, 'ले गयी है / बाढ़ हमसे / छीनकर घर-द्वार पूरा' का दर्द, 'वजनदार हो फ़ाइल सरके / बाबू बैठा हुआ अकड़ के / पटवारी का काला-पीला' से उपजा शोषण, 'झमर-झिमिर भी / बरसे पानी / हालत सार-सरीखी घर की' की बेचारगी, 'चांवल, दाल / गेहूं सोना है। / रोजी-रोटी का रोना है' की विवशता, 'खौल रहा / अंदर से लेकिन / बना हुआ गंभीर लेड़ैया / नहीं बोलता / हुआ हुआ का' की हताशा और 'झोपड़पट्टी टूट रही है / सिर की छाया छूट रही है .... चलता / छाती पर / बुलडोजर / बेजा कब्जा खाली होता' की आश्रय हीनता।
'मेरी अपनी जीवन शैली / अलग सोच की अलग / कहन है' कहनेवाले रामकिशोर जी का शब्द भण्डार स्पृहणीय है। वे कुनैते, दुनका, चरेरू, बम्हनौही, कनफोर, क़मरी, सरौधा, अइसन, हींसा, हरैया, आसन, पिटपासों, दुनपट, फरके, छींदी, तरोगा, चिंगुटे, हँकरा, गुंगुआना, डहडक, टूका, पुरौती, ठोंढ़ा, तुम्मी, अकिल, पतुरिया, कुदारी, चुरिया, मिड़वइया आदि देशज बुंदेली-बघेली शब्द, इंटरनेट, लान, ड्रीम, डम्पर, ट्रॉली, ट्रक, नंबर, लीज, लिस्ट, सील, साइन, एटम बम, कोर्ट, मार्किट, रेडीमेड, ऑप्शन, मशीन, पेपरवेट, रेट, कंप्यूटर, ड्यूटी जैसे अंग्रेजी शब्द तथा फरेब, रोज, किस्मत, रकम, हकीम, ऐब, रौशनी, रिश्ते, ज़हर, अहसान, हर्फ़, हौसला, बोटी, आफत, कानून, बख्शें, गुरेज, खानगी, फरमाइश, बेताबी, खुराफात, सोहबत, ख़ामोशी, फ़क़त, दहशत, औकात आदि उर्दू शब्द खड़ी हिंदी के साथ समान सहजता और सार्थकता के साथ उपयोग कर पाते हैं। पूर्व नवगीत संग्रह की तरह ठेठ देशज शब्दों के अर्थ पाद टिप्पणी में दिए जान शहरी तथा अन्य अंचलों के पाठकों के लिए आवश्यक है क्योंकि ऐसे शब्दों के अर्थ सामान्य शब्दकोशों में भी नहीं मिलते हैं।
'अपने दम पर / मैं अभाव के / छक्के छुड़ा दिआ', 'मैं फरेबी धुंध की / वह छोर खोजा हूँ' जैसी एक-दो त्रुटिपूर्ण अभिव्यक्ति के अपवाद को छोड़कर पूर्ण संग्रह भाषिक दृष्टि से निर्दोष है। पारम्परिक गीत की छंदरूढ़ता और प्रगतिवादी काव्य की छंदहीनता के बीच सहज साध्य छंदयोजना के अपनाते हुए रामकिशोर जी इन नवगीतों की लयबद्धता को सरस और रूचि पूर्ण रख सके हैं। 'ज़िंदा सरोधा' शीर्षक नवगीत के मुखड़े में २३ मात्रिक छंद रौद्राक जातीय उपमान छंद का, मुखड़े में २६ मात्रिक महाभागवत जातीय छंद का, 'भरे कोलाहल भीतर', 'रस में टँगा मरीज' शीर्षक नवगीतों के मुखड़े-अंतरों में ३२ मात्रिक लाक्षणिक छंद, 'रुण्ड हवा में' शीर्षक नवगीत के मुखड़े में ४२ मात्रिक कोदंड जातीय तथा अँतरे में ३२ मात्रिक लाक्षणिक जातीय छंद का, 'घूँघट वाला अँचरा' में ३० मात्रिक महातैथिक जातीय छंद का मुखड़ा, २८ मात्रिक यौगिक जातीय छंद का अन्तरा, 'हींसों के बँटवारे' में ३० मात्रिक महातैथिक जातीय छंद का मुखड़ा तथा १६ मात्रिक संस्कारी जातीय ७ पंक्तियों का अंतरा प्रयोग किया गया है। अपवादस्वरूप कुछ नवगीतों में अंतरों में भी अलग-अलग छंद प्रयुक्त हुए है जो नवगीतकार की प्रयोगधर्मिता को इंगित करता है।
समीक्ष्य संग्रह के नवगीत रामकिशोर के व्यक्तित्व और चिंतन के प्रतीति कराते हैं। लेखनमें किसी अन्य से प्रभावित हुए बिना अपनी लीक आप बनाते हुए, पारम्परिकता, नवता और स्वीकार्यता की त्रिवेणी प्रवाहित करते हुए रामकिशोर जी के अगले संकलन की प्रतीक्षा हेतु उत्सुकता जगाता है यह संग्रह।
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-समन्वयम २०४ विजय, अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, सुभद्रा वार्ड, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ salil.sanjiv@gmail.com, o७६१ २४१११३१ / ९४२५१८३२४४
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गुरुवार, 6 सितंबर 2018

समीक्षा

कृति चर्चा:

अल्लाखोह मची- रामकिशोर दाहिया

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
'अल्लाखोह मची' अर्थात 'हाहाकार मचा' ऐसी नवगीत कृति है जिसका शीर्षक ही उसके रचनाकार की दृष्टि और सृष्टि, परिवेश और परिस्थिति, आभ्यंतरिक अन्तर्वस्तु और बाह्य आचरणजनित प्रभावों का संकेत करता है। नवगीत की रचना वैयक्तिक दर्द और पीड़ाजनित न होकर सामूहिक और पारिस्थितिक वैषम्य एवं विडम्बनाकारित अनुभूतियों के सम्प्रेषण हेतु की जाती है। नवगीत का प्रादुर्भाव होता है या वह रचा जाता है, आदिकवि वाल्मीकि रचित प्रथम काव्य पंक्तियों की तरह नवगीत किसी घटना की स्वत: स्फूर्त प्राकृतिक क्रिया है अथवा किसी घटना या किन्हीं घटनाओं के कारण उत्पन्न प्रतिक्रियाओं के संचित होते जाने और निराकृत न होने पर रचनाकार के सुचिंतन का सारांश इस पर मत वैभिन्न्य हो सकता है किन्तु यह लगभग निर्विवाद है कि नवगीत आम जन की अनुभूतियों का शब्दांकन है, न कि व्यक्तिगत चिन्तन का प्रस्तुतीकरण। विवेच्य कृति की हर रचना गीतकार के साक्षीभाव का प्रमाण है।

श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार श्री अवधबिहारी श्रीवास्तव के अनुसार 'ईमानदार कवि ने जो करीब से देखा, महसूस किया, भीतर-भीतर जिन घटनाओं की संवेदना उसके भीतर उतर गयी है, उस सच का बयान है, ये गीत फैशन और बहाव में लिखे गीत नहीं हैं. ये गीत एयरकण्डीशनरों में बैठकर कल्पना से गाँव, गरीबी, परिश्रम और पसीने का अनुगायन नहीं है। इन्हें एक गरीब किसान के बेटे ने कड़ी धूप में खड़े होकर भूख और प्यास की पीड़ा सहते हुए धरती की छाती पर लिखा है, इसीलिये इनके गीतों में पसीने से भीगी माटी की गंध आ रही है।' खुद रामकिशोर जी मानते हैं कि उनका लेखन 'घुटन, टूटन, संत्रास, उपेक्षा के शिकार, संघर्षरत आम आदमी की समस्याओं को ज्यों का त्यों रेखांकित करने का प्रयास है।' प्रयास हमेशा सायास होता है, अनायास नहीं। 'ज्यों का त्यों सायास' प्रस्तुतिकरण इन नवगीतों का प्रथम वैशिष्ट्य है।

इन नवगीतों का दूसरा वैशिष्ट्य 'स्वर में आक्रामकता' है, वैषम्य और विडम्बनाओं के प्रहार निरंतर सहनेवाला मन कितना भी भीरु हो, उनमें सुधारने और सुधार न सके तो तोड़ने की प्रवृत्ति होना स्वाभाविक है। एक बच्चे के पास कोई खिलौना हो और दूसरे के पास न हो तो वह खिलौना पाने की ज़िद करता है और न मिलने पर तोड़ देता है, भले ही बाद में दंडित हो। यह आक्रामकता इन गीतों में है।
शीश नहीं / कंधे पर लेकिन / रुण्ड हवा में / लाठी भाँजे।
सोना-तपा / खरा हो निकला / चमका जितना / छीले-माँजे।
इस आक्रामकता को दिशाहीन होने से जो प्रवृत्ति बचाती है वह है 'गाम्भीर्य'। संयोगवश रामकिशोर जी शिक्षक हैं, वे रचनाकार का गंभीर होना उसका नैतिक दायित्व मानते हैं तो शिक्षक का संयमित होना कैसे भूल सकते हैं? आक्रामकता, गंभीरता और संयम की त्रिवेणी इन नवगीतों को उनके गाँव में प्रवहित झिरगिरी नदी के प्रवाह की तरह उफनने, गरजने, शांत होने, तृषा हरने की प्रवृत्ति से युक्त करते हैं।
ईंधन आग / जलाने के हम / फिर से / झोंके गए भाड़ में।
जान सौंपकर / किये काम को / ताकत-हिम्मत / रही हाड़ में।
इन नवगीतों का सर्वाधिक उल्लेखनीय तत्व इनकी लोकधर्मिता है। यह लोकधर्मिता रामकिशोर जी को उनके लोकगायक पिता से विरासत में मिली है।

बुंदेलखंड-बघेलखण्ड का सीमावर्ती अंचल बुढ़ार, उमरिया, मानपुर, बरही आदि कुछ समय के लिए मेरा और लम्बे समय तक रामकिशोर जी का कार्यक्षेत्र रहा है। वे नयी पीढ़ी को शिक्षित करने में जुटे थे और मैं नदियों पर सेतु परियोजनाओं के प्रस्ताव तैयार करने और निर्माण कराने में जुटा था। तब हमारी भेंट भले ही नहीं हो सकी किन्तु अंचल के आदमी के अभाव, दर्द, बेचैनी, उकताहट के साक्षी होने का अवसर अवश्य ही दोनों को मिला। वहाँ रहकर देखने, भोगने और सीखने के काल ने वह पैनी दृष्टि दी जो आवरणों को भेदकर सत्य की प्रतीति कर सके।
फूटी पाँव / बिवाई धरती / एक बूँद भी / लगे इमरती
भारी महा गिरानी / आसों बादल टाँगे पानी।
आधा डोल / कहे अब आके। / कुएँ लगे पेंदी से जाके।
गया और / जलस्तर नीचे। / सावन सूखा पड़ा उलीचे।

'सावन सूखा' की विडंबना लगातार झेलती पीड़ा का संवेदनशील चक्षुसाक्षी, नीरो की तरह वेणुवादन कर प्रेम और शांति के राग नहीं गा सकता। कादम्बरीकार बाणभट्ट और मेघदूत सर्जक कालिदास के काल से विंध्याटवी के इस अंचल में लगातार वन कटने, पहाड़ खुदने और नदियों का जलग्रहण क्षेत्र घटने के बाद भी अकल्पनीय प्राकृतिक सौंदर्य है। सौंदर्य कितना भी नैसर्गिक और दिव्य हो उससे क्षुधा और तृषा शांत नहीं होती। जाने-अनजाने कोलाहल को जीता-पीता हुआ वह मोहकवादियों में भी तपिश अनुभव करता है।
अंतहीन / जलने की पीड़ा / मैं बिन तेल दिया की बाती।
मन के भीतर / जलप्रपात है / धुआँधार की मोहकवादी।
सलिल कणों में / दिन उगते ही / माचिस की तीली टपका दी।
सूख रही / नर्मदा पेट से / ऊपर जलती धू-धू छाती।
निर्जन वन का / सूनापन भी / भरे कोलाहल भीतर जैसे।
मैं विस्मित हूँ / खोह विजन में / चिल-कूट करते तीतर कैसे?

बरसों से जड़वत-निष्ठुर राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था और अधिकाधिक संवेदहीन-प्रभावहीन होती सांस्कृतिक-साहित्यिक विरासत सिर्फ और सिर्फ असंतोष को जन्म देती है जो घनीभूत होकर क्षोभ और आक्रोश की अभिव्यक्ति कर नवगीत बन जाती है। विडंबना यह कि विदेशी शासकों के विरुद्ध विद्रोह करने पर देशप्रेम और जनसमर्थन तो प्राप्त होता पर तथाकथित स्वदेशी सम्प्रभुओं ने वह राह भी नहीं छोड़ी है। अब शासन-प्रशासन के विरुद्ध जाने की परिणति नक्सलवादऔर आतंकवाद में होती है। इस संग्रह के प्रथम खंड 'धधकी आग तबाही' के अंतर्गत समाहित नवगीत अनसुनी-अनदेखी शिकायतों के जीवंत दस्तावेज हैं-
डंपर-ट्रॉली / ढोते ट्रक हैं / नंबर दो की रेत।
महानदी के / तट कैसे / दाबे कुचले खेत।
लिखी शिकायत / केश उखाड़े / सबको गया टटोला।
पीली-लाल / बत्तियों पर / संयुक्त मोर्चा खोला।
छान-बीन / तफ्तीशें जारी / डंडे भूत-परेत।

असंतुष्ट पर से भूत-प्रेत उतारते व्यवस्था के डंडे कल से कल तक का अकाट्य सत्य है। आम आदमी को इस सत्य से जूझते देख उसकी जिजीविषा पर विस्मिय होता है। रामकिशोर जी का अंदाज़े-बयां 'कम लिखे से जादा समझना' की परिपाटी का पालन करता है-
दवा सरीखे / भोजन मिलता / रस में टँगा मरीज रहा हूँ।
दैनिक / वेतनभोगी की मैं / फटती हुई कमीज रहा हूँ।
गर्दन से / कब सिर उतार दे / पैनी खड्ग / व्यवस्था इतनी।....
.... झोपड़पट्टी के / आँगन में / राखी-कजली / तीज रहा हूँ।

आम आदमी की यह ताकत जो उसे राखी, कजली, तीज अर्थात पारिवारिक-सामाजिक संबंधों के अनुबंधों से मिलती है, वही सर्वस्व ध्वंस के अवांछित रास्तों पर जाने से रोकती है किन्तु अंतत: इससे मुक्ताकाश में पर तौलने के इच्छुक पर कतरे जाकर बकौल रहीम 'रहिमन निज मन की व्यथा मन ही राखो गोय' कहते हैं तो आम आदमी की जुबान से सिर्फ यह कह पाते हैं-
मेरी पीड़ा मेरा धन है। / नहीं बाँटता मेरा मन है।
सूम बने रहना / ही बेहतर / खुशहाली में घर-आँगन है।

संग्रह का दूसरा खंड 'पागल हुआ रमोली' के हुआ सवेरा जैसे गीत कवि के अंतर्मन में बैठे आशावादी शिक्षक की वाणी हैं- 'उठ जा बेटे! हुआ सवेरा । / हुई भोर है गया अँधेरा। / जागा सूरज खोले आँखें / फ़ैल रही किरणों की पाँखें'। नवाशा का यह स्वर भोर की ताजगी की ही तरह शीघ्र ही गायब हो जाता है और शेष रह जाती है 'मूँड़ फूट जाएगा लगता / हींसों के बँटवारे में' की आशंका, 'लाल-पीली / बत्तियों का / हो गया / कानून बंधुआ' का कड़वा सच, 'ले गयी है / बाढ़ हमसे / छीनकर घर-द्वार पूरा' का दर्द, 'वजनदार हो फ़ाइल सरके / बाबू बैठा हुआ अकड़ के / पटवारी का काला-पीला' से उपजा शोषण, 'झमर-झिमिर भी / बरसे पानी / हालत सार-सरीखी घर की' की बेचारगी, 'चांवल, दाल / गेहूं सोना है। / रोजी-रोटी का रोना है' की विवशता, 'खौल रहा / अंदर से लेकिन / बना हुआ गंभीर लेड़ैया / नहीं बोलता / हुआ हुआ का' की हताशा और 'झोपड़पट्टी टूट रही है / सिर की छाया छूट रही है .... चलता / छाती पर / बुलडोजर / बेजा कब्जा खाली होता' की आश्रय हीनता।

'मेरी अपनी जीवन शैली / अलग सोच की अलग / कहन है' कहनेवाले रामकिशोर जी का शब्द भण्डार स्पृहणीय है। वे कुनैते, दुनका, चरेरू, बम्हनौही, कनफोर, क़मरी, सरौधा, अइसन, हींसा, हरैया, आसन, पिटपासों, दुनपट, फरके, छींदी, तरोगा, चिंगुटे, हँकरा, गुंगुआना, डहडक, टूका, पुरौती, ठोंढ़ा, तुम्मी, अकिल, पतुरिया, कुदारी, चुरिया, मिड़वइया आदि देशज बुंदेली-बघेली शब्द, इंटरनेट, लान, ड्रीम, डम्पर, ट्रॉली, ट्रक, नंबर, लीज, लिस्ट, सील, साइन, एटम बम, कोर्ट, मार्किट, रेडीमेड, ऑप्शन, मशीन, पेपरवेट, रेट, कंप्यूटर, ड्यूटी जैसे अंग्रेजी शब्द तथा फरेब, रोज, किस्मत, रकम, हकीम, ऐब, रौशनी, रिश्ते, ज़हर, अहसान, हर्फ़, हौसला, बोटी, आफत, कानून, बख्शें, गुरेज, खानगी, फरमाइश, बेताबी, खुराफात, सोहबत, ख़ामोशी, फ़क़त, दहशत, औकात आदि उर्दू शब्द खड़ी हिंदी के साथ समान सहजता और सार्थकता के साथ उपयोग कर पाते हैं। पूर्व नवगीत संग्रह की तरह ठेठ देशज शब्दों के अर्थ पाद टिप्पणी में दिए जान शहरी तथा अन्य अंचलों के पाठकों के लिए आवश्यक है क्योंकि ऐसे शब्दों के अर्थ सामान्य शब्दकोशों में भी नहीं मिलते हैं।

'अपने दम पर / मैं अभाव के / छक्के छुड़ा दिआ', 'मैं फरेबी धुंध की / वह छोर खोजा हूँ' जैसी एक-दो त्रुटिपूर्ण अभिव्यक्ति के अपवाद को छोड़कर पूर्ण संग्रह भाषिक दृष्टि से निर्दोष है। पारम्परिक गीत की छंदरूढ़ता और प्रगतिवादी काव्य की छंदहीनता के बीच सहज साध्य छंदयोजना के अपनाते हुए रामकिशोर जी इन नवगीतों की लयबद्धता को सरस और रूचि पूर्ण रख सके हैं। 'ज़िंदा सरोधा' शीर्षक नवगीत के मुखड़े में २३ मात्रिक छंद रौद्राक जातीय उपमान छंद का, मुखड़े में २६ मात्रिक महाभागवत जातीय छंद का, 'भरे कोलाहल भीतर', 'रस में टँगा मरीज' शीर्षक नवगीतों के मुखड़े-अंतरों में ३२ मात्रिक लाक्षणिक छंद, 'रुण्ड हवा में' शीर्षक नवगीत के मुखड़े में ४२ मात्रिक कोदंड जातीय तथा अँतरे में ३२ मात्रिक लाक्षणिक जातीय छंद का, 'घूँघट वाला अँचरा' में ३० मात्रिक महातैथिक जातीय छंद का मुखड़ा, २८ मात्रिक यौगिक जातीय छंद का अन्तरा, 'हींसों के बँटवारे' में ३० मात्रिक महातैथिक जातीय छंद का मुखड़ा तथा १६ मात्रिक संस्कारी जातीय ७ पंक्तियों का अंतरा प्रयोग किया गया है। अपवादस्वरूप कुछ नवगीतों में अंतरों में भी अलग-अलग छंद प्रयुक्त हुए है जो नवगीतकार की प्रयोगधर्मिता को इंगित करता है।
समीक्ष्य संग्रह के नवगीत रामकिशोर के व्यक्तित्व और चिंतन के प्रतीति कराते हैं। लेखनमें किसी अन्य से प्रभावित हुए बिना अपनी लीक आप बनाते हुए, पारम्परिकता, नवता और स्वीकार्यता की त्रिवेणी प्रवाहित करते हुए रामकिशोर जी के अगले संकलन की प्रतीक्षा हेतु उत्सुकता जगाता है यह संग्रह।
२१.१२.२०१५ 
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गीत- नवगीत संग्रह - अल्लाखोह मची, रचनाकार- रामकिशोर दाहिया, प्रकाशक- उद्भावना प्रकाशन, एच ५५ सेक्टर २३, राजनगर, गाज़ियाबाद। प्रथम संस्करण- २०१४, मूल्य- रूपये ३००/-, पृष्ठ- १४३, समीक्षा- संजीव सलिल

समीक्षा

कृति चर्चा:

अल्पना अंगार पर - रामकिशोर दाहिया

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
नदी के कलकल प्रवाह, पवन की सरसराहट और कोयल की कूक की लय जिस मध्र्य को घोलती है वह गीतिरचना का पाथेय है। इस लय को गति-यति, बिंब-प्रतीक-रूपक से अलंकृत कर गीत हर सहृदय के मन को छूने में समर्थ बन जाता है। गति और लय को देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप नवता देकर गीत के आकाशी कथ्य को जमीनी स्पर्श देकर सर्वग्राह्य बना देता है नवगीत। अपने-अपने समय में जिसने भी पारम्परिक रूप से स्थापित काव्य के शिल्प और कथ्य को यथावत न स्वीकार कर परिवर्तन का शंखनाद किया और सृजन-शरों से स्थापित को स्थानच्युत कर परिवर्तित का अभिषेक किया वह अपने समय में नवता का वाहक बना। इस समय के नवताकारक सृजनधर्मियों में अपनी विशिष्ट भावमुद्रा और शब्द-समृद्धता के लिये चर्चित नवगीतकार रामकिशोर दाहिया की यह प्रथम कृति अपने शीर्षक 'अल्पना अंगार पर' में अन्तर्निहित व्यंजना से ही अंतर्वस्तु का आभास देती है। अंगार जैसे हालात का सामना करते हुए समय के सफे पर हौसलों की अल्पना  के नवगीत लिखना सब के बस का काम नहीं है।  

नवगीत को उसके उद्भव काल के मानकों और भाषिक रूप तक सीमित रखने के लिए असहमत रामकिशोर जी ने अपने प्रथम संग्रह में ही अपनी जमीन तैयार कर ली है। बुंदेली-बघेली अंचल के निवासी होने के नाते उनकी भाषा में स्थानीय लोकभाषाओं का पूत तो अपेक्षित है किन्तु उनके नवगीत इससे बहुत आगे जाकर इन लोकभाषाओं के जमीनी शब्दों को पूरी स्वाभाविकता और अधिकार के साथ अंगीकार करते हैं। वे यह भी जानते हैं कि शब्दों के अर्थों से कॉंवेंटी पीढ़ी ही नहीं रचनाकार, शब्द कोष भी अपरिचित हैं इसलिए पाद टिप्पणियों में शब्दों के अर्थ समाविष्ट कर अपनी सजगता का परिचय देते हैं।

आजीविका से शिक्षक, मन से साहित्यकार और प्रतिबद्धता से आम आदमी की पीड़ा के सहभागी हैं राम किशोर, इसलिए इन नवगीतों में सामाजिक वैषम्य, राजनैतिक विद्रूपताएँ, आर्थिक विषमता, धार्मिक पाखंड और व्यक्तिगत दोमुँहेपन पर प्रबल-तीक्ष्ण शब्द-प्रहार होना स्वाभाविक है। उनकी संवेदनशील दृष्टि राजमार्गोन्मुखी न होकर पगडंडी के कंकरों, काँटों, गड्ढों और उन पर बेधड़क चलने वाले पाँवों के छालों, चोटों, दर्द और आह को केंद्र में रखकर रचनाओं का ताना-बाना बुनती है। वे माटी की सौंधी गंध तक सीमित नहीं रहते, माटी में मिले सपनों की तलाश भी कर पाते हैं। विवेच्य संग्रह वस्तुत: २ नवगीत संग्रहों को समाहित किये है जिन्हें २ खण्डों के रूप में 'महानदी उतरी' (ग्राम्यांचल के सजीव शब्द चित्र तदनुरूप बघेली भाषा)  और  'पाले पेट कुल्हाड़ी' (सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भों से जुड़े नवगीत) शीर्षकों के अंतर्गत रखा गया है। २५-३० रचनाओं की स्वतंत्र पुस्तकें निकालकर संख्या बढ़ाने के काल में ४५ + ५३ कुल ९८ नवगीतों के  समृद्ध संग्रह को पढ़ना स्मरणीय अनुभव है। 

कवि ज़माने की बंदिशों को ठेंगे पर मारते हुए अपने मन की बात सुनना अधिक महत्वपूर्ण मानता है-
कुछ अपने दिल की भी सुन 
संशय के गीत नहीं बुन 

अंतड़ियों को खँगाल कर 
भीतर के ज़हर को निकाल 
लौंग चूस, जोड़े से चाब 
सटका दे, पेट के बबाल 
तंत्री पर साध नई धुन

लौंग को जोड़े से चाबना और तंत्री पर धुन साधना जैसे अनगिन प्रयोग इस कृति में पृष्ठ-पृष्ठ पर हैं। शिक्षक रामकिशोर को पर्यावरण की फ़िक्र न हो यह कैसे संभव है? 

धुआँ उगलते वाहन सारे 
साँसों का संगीत लुटा है

धूल-धुएँ से, हवा नहाकर 
बैठी खुले मुँडेरे 
नहीं उठाती माँ भी सोता 
बच्चा अलस्सवेरे 

छद्म प्रगति के व्यामोह में फँसे जनगण को प्रतीत हो रहे से सर्वथा विपरीत स्थिति से रू-ब-रू कराते हुए कवि अपना बेलाग आकलन प्रस्तुत करता है: 
आँख बचाकर 
छप्पर सिर की 
नव निर्माण उतारे 
उठती भूखी 
सुबह सामने 
आकर हाथ पसारे 

दिये गये 
संदर्भ प्रगति के 
उजड़े रैन बसेरे 

समाज में व्याप्त दोमुँहापन कवि की चिंता का विषय है: 
लोग बहुत हैं, धुले दूध के 
खुद हैं चाँद-सितारे 
कालिख रखते, अंतर्मन में 
नैतिक मूल्य बिसारे 

नैतिक मूल्यों की चिंता सर्वाधिक शिक्षक को ही होती है। शिक्षकीय दृष्टि सुधार को लक्षित करती है किन्तु कवि उपदेश नहीं देना चाहता, अत:,  इन रचनाओं में शब्द प्रचलित अर्थ के साथ विशिष्ट अर्थ व्यंजित करते हैं- 
स्वेद गिरकर देह से 
रोटी उगाता
ज़िंदगी के जेठ पर 
आजकल दरबान सी 
देने लगी है 
भूख पहरा पेट पर  

स्वतंत्रता के बाद क्या-कितना बदला? सूदखोर साहूकार आज भी किसानों के म्हणत की कमाई खा रहा है। मूल से ज्यादा सूद चुकाने के बाद भी क़र्ज़ न चुकाने की त्रासदी भोगते गाँव की व्यथा-कथा गाँव में पदस्थ और निवास करते संवेदनशील शिक्षक से कैसे छिप सकती है? व्यवस्था को न सुधार पाने और शोषण को मूक होकर  देखते रहने से उपजा असंतोष इन रचनाओं के शब्द-शब्द में व्याप्त है- 
खाते-बही, गवाह-जमानत 
लेते छाप अँगूठे 
उधार बाढ़ियाँ रहे चुकाते 
कन्हियाँ धाँधर टूटे 

भूखे-लाँघर रहकर जितना 
देते सही-सही 
जमा नहीं पूँजी में पाई 
बढ़ती ब्याज रही 

बने बखार चुकाने पर भी 
खूँटे से ना छूटे 

लड़के को हरवाही लिख दी 
गोबरहारिन बिटिया 
उपरवार महरारु करती 
फिर भी डूबी लुटिया 

मिले विरासत में हम बंधुआ 
अपनी साँसें कूते 

सामान्य लीक से हटकर रचे गए  नवगीतों में अम्मा शीर्षक गीत उल्लेखनीय है- 
मुर्गा बाँग न देने पाता 
उठ जाती अँधियारे अम्मा 
छेड़ रही चकिया पर भैरव 
राग बड़े भिन्सारे अम्मा 

से आरम्भ अम्मा की दिनचर्या में दोपहर कब आ जाती है पता ही नहीं चलता-
चौका बर्तन करके रीती 
परछी पर आ धूप खड़ी है 
घर से नदिया चली नहाने  
चूल्हे ऊपर दाल चढ़ी है 

आँगन के तुलसी चौरे पर 
आँचल रोज पसारे अम्मा  

पानी सिर पर हाथ कलेवा 
लिए पहुँचती खेत हरौरे 
उचके हल को लत्ती देने 
ढेले आँख देखते दौरे 

यह क्रम देर रात तक चलता है:
घिरने पाता नहीं अँधेरा 
बत्ती दिया जलाकर रखती
भूसा-चारा पानी - रोटी 
देर-अबेर रात तक करती 

मावस-पूनो ढिंगियाने को 
द्वार-भीत-घर झारे अम्मा 

ऐसा जीवन शब्द चित्र मानो पाठक अम्मा को सामने देख रहा हो। संवेदना की दृष्टि से श्री आलोक श्रीवास्तव की सुप्रसिद्ध 'अम्मा' शीर्षक ग़ज़ल के समकक्ष और जमीनी जुड़ाव में उससे बढ़कर यह नवगीत इस संग्रह की प्रतिनिधि रचना है। 

रामकिशोरजी सिर्फ शिक्षक नहीं अपितु सजग और जागरूक शिक्षक हैं। शिक्षक के प्राण शब्दों में बसते हैं। चूँकि शब्द ही उसे संसार और शिष्यों से जोड़ते हैं। विवेच्य कृति कृतिकार के समृद्ध शब्द भण्डार का परिचय पंक्ति-पंक्ति में देती है। एक ओर बघेली के शब्दों दहरा, लमतने, थूँ, निगडौरे, भिनसारे, हरौरे, ढिंगियाने, भीत, पगडौरे, लौंद, गादर, अलमाने, च्यांड़ा, चौहड़े, लुसुक, नेडना, उरेरे, चरागन, काकुन, डिंगुरे, तुरतुरी, खुम्हरी आदि को हिंदी के संस्कृतनिष्ठ शब्दों लौह्गामिनी, कीटविनाशी, दावानल, बड़वानल, वसुधा, व्योम, अनुगूँज, ऊर्जा, स्रोत, शिल्प, चन्द्रकला, अविराम, वृन्त, कुंतल, ऊर्ध्ववती, कपोल, समुच्चय, पारलौकिक, श्रृंगारित आदि को गले मिलते देखना आनंदित करता है तो  दूसरी ओर उर्दू के लफ़्ज़ों वज़ूद, सिरफिरी, सोहबत, दौलत, तब्दील, कंदील, नूर, शोहरत, सरहदों, बाजार, हुकुम, कब्ज़े, फरजी, पेशी, जरीब, दहशत, सरीखा, बुलंदी, हुनर, जुर्म, ज़हर, बेज़ार, अपाहिज, कफ़न, हैसियत, तिजारत, आदि को अंग्रेजी वर्ड्स पेपर, टी. व्ही., फ़ोकस, मिशन, सीन, क्रिकेटर, मोटर, स्कूल, ड्रेस, डिम, पावर, केस, केक, स्वेटर, डिजाइन, स्क्रीन, प्लेट, सर्किट, ग्राफ, शोकेस आदि के साथ हाथ मिलाते देखना सामान्य से इतर सुखद अनुभव कराता है।   

इस संग्रह में शब्द-युग्मों का प्रयोग यथावसर हुआ है। साही-साम्भर, कोड़ों-कुटकी, 'मावस-पूनो, तमाखू-चूना, काँदो-कीच, चारा-पानी, काँटे-कील, देहरी-द्वार, गुड-पानी, देर-अबेर, चौक-बर्तन, दाने-बीज, पौधे-पेड़, ढोर-डंगार, पेड़-पत्ते, कुलुर-बुलुर, गली-चौक, आडी-तिरछी, काम-काज, हट्टे-कट्टे, सज्जा-सिंगार, कुंकुम-रोली, लचर-पचर, खोज-खबर, बत्ती-दिया आदि गीतों की भाषा को सरस बनाते हैं। 

राम किशोर जी ने किताबी भाषा के व्यामोह को तजते हुए पारंपरिक मुहावरों दांत निपोरेन, सर्ग नसेनी, टेंट निहारना आदि के साथ धारा हुई लंगोटी, डबरे लगती रोटी, झरबेरी की बोटी, मन-आँगन, कानों में अनुप्रास, मदिराया मधुमास, विषधर वसन, बूँद के मोती, गुनगुनी चितवन, शब्दों के संबोधन, आस्था के दिये, गंध-सुंदरी, मन, मर्यादा पोथी, इच्छाओं के तारे, नदिया के दो ओंठ, नयनों के पतझर जैसी निजी अनुभूतिपूर्ण शब्दावली से भाषा को जीवंत किया है।       

बुंदेलखंड-बघेलखण्ड के घर-गाँव अपने परिवेश के साथ इस गहराई और व्यापकता के साथ उपस्थित हैं कि कोई चित्रकार शब्दचित्रों से रेखाचित्र की ओर बढ़ सके। कुछ शब्दों का संकेत ही पर्याप्त है यह इंगित करने के लिए कि ग्राम्य जीवन का हर पक्ष इन गीतों में है। निवास स्थल- द्वार, भीत, घर, टटिया, कछरा आदि, श्रृंगार- सेंदुर, कुंड़वा, कंघी, चुरिया महावर आदि, वाद्य- टिमकी, माँडल, ढोलक, मंजीर, नृत्य-गान- राई, करमा, फाग, कबीर, कजरी, राग आदि, वृक्ष-पौधे महुआ, आम, अर्जुन, सेमल, साल, पलाश, अलगोजे, हरसिंगार, बेल, तुलसी आदि, नक्षत्र- आर्द्रा, पूर्व, मघा आदि, माह- असाढ़, कातिक, भादों, कुंवार, जेठ, सावन, पूस, अगहन आदि, साग-सब्जी- सेमल, परवल, बरबटी, टमाटर, गाजर, गोभी, मूली, फल- आँवले, अमरुद, आम, बेल आदि, अनाज- उर्द, अरहर, चना, मसूर, मूँग, उड़द, कोदो, कुटकी, तिल, धान, बाजरा, ज्वार आदि, पक्षी- कबूतर, चिरैयाम सुआ, हरियर, बया, तितली, भौंरे आदि, अन्य प्राणी- छिपकली, अजगर, शेर, मच्छर सूअर, वनभैंसा, बैल, चीतल, आदि, वाहन- जीप, ट्रक, ठेले, रिक्शे, मोटर आदि , औजार- गेंती, कुदाल आदि उस अंचल के प्रतिनिधि है जहाँ की पृष्ठभूमि में इन नवगीतों की रचना हुई है. अत: इन गीतों में उस अंचल की संस्कृति और जीवन-शब्द में अभिव्यक्त होना स्वाभाविक है।       

उर्दू का एक प्रसिद्ध शेर है 'गिरते हैं शाह सवार ही मैदाने जंग में / वह तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले' कवि राम किशोर जी घुड़सवारी करने, गिरने और बढ़ने का माद्दा रखते हैं यह काबिले-तारीफ है। नवगीतों की बँधी-बँधाई लीक से हटकर उन्होंने पहली ही कृति में अपनी पगडंडी आप बनाने का हौसला दिखाया है। दाग की तरह कुछ त्रुटियाँ होना स्वाभविक है-

'टी. व्ही. के / स्क्रीन सरीखे 
सारे दृश्य दिखाया'... में वचन दोष, 

'सर्किट प्लेट / हृदय ने घटना 
चेहरे पर फिल्माया' तथा 

'बढ़ती ब्याज रही' में लिंग दोष है। लब्बो-लुबाब यह कि 'अल्पना अंगार पर' समसामयिक सन्दर्भों में नवगीत की ऐसी कृति है जिसके बिना इस दशक के नवगीतों का सही आकलन नहीं किया जा सकेगा। रामकिशोर जी का शिक्षक मन इस संग्रह में पूरी ईमानदारी से उपस्थित है-

'दिल की बात लिखी चहरे पर
चेहरा पढ़ना सीख'।  
७.१२.२०१५ 
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गीत- नवगीत संग्रह - अल्पना अंगार पर, रचनाकार- रामकिशोर दाहिया, प्रकाशक- उद्भावना प्रकाशन, ए २१ झिलमिल इंडस्ट्रियल एरिया,  जी. टी.  रोड, शाहदरा दिल्ली ११००९५। प्रथम संस्करण- २००८, मूल्य- रूपये १००/-, पृष्ठ- १९२, समीक्षा- संजीव वर्मा सलिल, ISBN ९७८-९३-८०९१६-१६-३।

रविवार, 8 नवंबर 2015

samiksha

कृति चर्चा:
अल्लाखोह मची - नवगीतीय भाव-भंगिमा मँजी 
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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[कृति विवरण: अल्लाखोह मची, नवगीत संग्रह, रामकिशोर दाहिया, वर्ष २०१४, ३००/-, पृष्ठ १४३, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, सजिल्द, जैकेट सहित, उद्भावना प्रकाशन, एच ५५ सेक्टर २३, राजनगर, गाज़ियाबाद, चलभाष: ९८११५८२९०२, नवगीतकार संपर्क: गौर मार्ग, दुर्गा चौक, जुहला कटनी ४८३५०१, चलभाष: ०९७५२५३९८९६]
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'अल्लाखोह मची' अर्थात 'हाहाकार मचा' ऐसी नवगीत कृति है जिसका शीर्षक ही उसके रचनाकार की  दृष्टि और सृष्टि, परिवेश और परिस्थिति, आभ्यंतरिक अन्तर्वस्तु  और बाह्य आचरणजनित प्रभावों का संकेत करता है। नवगीत की रचना वैयक्तिक दर्द और पीड़ाजनित न होकर सामूहिक और पारिस्थितिक वैषम्य एवं विडम्बनाकारित अनुभूतियों के सम्प्रेषण हेतु की जाती है। नवगीत का प्रादुर्भाव होता है या वह रचा जाता है, आदिकवि वाल्मीकि रचित प्रथम काव्य पंक्तियों की तरह नवगीत किसी घटना की स्वत: स्फूर्त  प्राकृतिक क्रिया है अथवा किसी घटना या किन्हीं घटनाओं के कारण उत्पन्न प्रतिक्रियाओं के संचित होते जाने और निराकृत न होने पर रचनाकार के सुचिंतन का सारांश इस पर मत वैभिन्न्य हो सकता है किन्तु यह लगभग निर्विवाद है कि नवगीत आम जन की अनुभूतियों का शब्दांकन है, न कि व्यक्तिगत चिन्तन का प्रस्तुतीकरण। विवेच्य कृति की हर रचना गीतकार के साक्षीभाव का प्रमाण है। 

श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार श्री अवधबिहारी श्रीवास्तव के अनुसार 'ईमानदार कवि ने जो करीब से देखा, महसूस किया, भीतर-भीतर जिन घटनाओं की संवेदना उसके भीतर उतर गयी है, उस सच का बयान है, ये गीत फैशन और बहाव में लिखे गीत नहीं हैं. ये गीत एयरकण्डीशनरों में बैठकर कल्पना से गाँव, गरीबी, परिश्रम और पसीने का अनुगायन नहीं है। इन्हें एक गरीब किसान के बेटे ने कड़ी धूप में खड़े होकर भूख और प्यास की पीड़ा सहते हुए धरती की छाती पर लिखा है, इसीलिये इनके गीतों में पसीने से भीगी माटी की गंध आ रही है।' खुद रामकिशोर जी मानते हैं कि उनका लेखन 'घुटन, टूटन, संत्रास, उपेक्षा के शिकार, संघर्षरत आम आदमी की समस्याओं को ज्यों का त्यों रेखांकित करने का प्रयास है।' प्रयास हमेशा सायास होता है, अनायास नहीं। 'ज्यों का त्यों सायास' प्रस्तुतिकरण इन नवगीतों का प्रथम वैशिष्ट्य है।

इन नवगीतों का दूसरा वैशिष्ट्य 'स्वर में आक्रामकता' है, वैषम्य और विडम्बनाओं के प्रहार निरंतर सहनेवाला मन  कितना भी भीरु हो, उनमें सुधारने और सुधार न सके तो तोड़ने की प्रवृत्ति होना स्वाभाविक है। एक बच्चे के पास कोई खिलौना हो और दूसरे के पास न हो तो वह  खिलौना पाने की ज़िद करता है और न मिलने पर तोड़ देता है, भले ही बाद में दंडित हो। यह आक्रामकता इन गीतों में है। 

                                      शीश नहीं / कंधे पर लेकिन / रुण्ड हवा में / लाठी भाँजे।
सोना-तपा / खरा हो निकला / चमका जितना / छीले-माँजे।     

इस आक्रामकता को दिशाहीन होने से जो प्रवृत्ति बचाती है वह है 'गाम्भीर्य'। संयोगवश रामकिशोर जी शिक्षक हैं, वे रचनाकार का गंभीर होना उसका नैतिक दायित्व मानते हैं तो शिक्षक का संयमित होना कैसे भूल सकते हैं? आक्रामकता, गंभीरता और संयम की त्रिवेणी इन नवगीतों को उनके गाँव में प्रवहित झिरगिरी नदी के प्रवाह की तरह उफनने, गरजने, शांत होने, तृषा हरने की प्रवृत्ति से युक्त करते हैं। 

ईंधन आग / जलाने के हम / फिर से / झोंके गए भाड़ में । 
जान सौंपकर / किये काम को / ताकत-हिम्मत / रही हाड़ में । 

इन नवगीतों  का सर्वाधिक उल्लेखनीय तत्व इनकी लोकधर्मिता है। यह लोकधर्मिता रामकिशोर जी को उनके लोकगायक पिता से विरासत में मिली है। बुंदेलखंड-बघेलखण्ड का सीमावर्ती अंचल बुढ़ार, उमरिया, मानपुर, बरही आदि कुछ समय के लिए मेरा और लम्बे समय तक रामकिशोर जी का कार्यक्षेत्र रहा है। वे नयी पीढ़ी को शिक्षित करने में जुटे थे और मैं नदियों पर सेतु परियोजनाओं के प्रस्ताव तैयार करने और निर्माण कराने में जुटा था। तब हमारी भेंट भले ही नहीं हो सकी किन्तु अंचल के आदमी के अभाव, दर्द, बेचैनी, उकताहट के साक्षी होने का अवसर अवश्य ही दोनों को मिला। वहाँ रहकर देखने, भोगने और सीखने के काल ने वह पैनी दृष्टि दी जो आवरणों को भेदकर सत्य की प्रतीति कर सके। 

फूटी पाँव / बिवाई धरती / एक बूँद भी / लगे इमरती 
भारी महा गिरानी / आसों बादल टाँगे पानी। 
आधा डोल / कहे अब आके। / कुएँ लगे पेंदी से जाके। 
गया और / जलस्तर नीचे। / सावन सूखा पड़ा उलीचे। 

'सावन सूखा' की विडंबना लगातार झेलती पीड़ा का संवेदनशील चक्षुसाक्षी, नीरो की तरह वेणुवादन कर प्रेम और शांति  के राग नहीं गा सकता। कादम्बरीकार बाणभट्ट और मेघदूत सर्जक कालिदास के काल से विंध्याटवी के इस अंचल में लगातार वन कटने, पहाड़ खुदने और नदियों का जलग्रहण क्षेत्र घटने के बाद भी अकल्पनीय प्राकृतिक सौंदर्य है। सौंदर्य कितना भी नैसर्गिक और दिव्य हो उससे क्षुधा और तृषा शांत नहीं होती। जाने-अनजाने कोलाहल को जीता-पीता हुआ वह मोहकवादियों में भी तपिश अनुभव करता है।

अंतहीन / जलने की पीड़ा / मैं बिन तेल दिया की बाती।
मन के भीतर / जलप्रपात है / धुआँधार की मोहकवादी।
सलिल कणों में / दिन उगते ही / माचिस की तीली टपका दी।  
सूख रही / नर्मदा पेट से / ऊपर जलती धू-धू छाती।
निर्जन वन का / सूनापन भी / भरे कोलाहल भीतर जैसे।
मैं विस्मित हूँ / खोह विजन में / चिल-कूट करते तीतर कैसे? 

बरसों से जड़वत-निष्ठुर राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था और अधिकाधिक संवेदहीन-प्रभावहीन होती सांस्कृतिक-साहित्यिक विरासत सिर्फ और सिर्फ असंतोष को जन्म देती है जो घनीभूत होकर क्षोभ और आक्रोश की अभिव्यक्ति कर नवगीत बन जाती है। विडंबना यह कि विदेशी शासकों के विरुद्ध विद्रोह करने पर देशप्रेम और जनसमर्थन तो प्राप्त होता पर तथाकथित स्वदेशी सम्प्रभुओं ने वह राह भी नहीं छोड़ी है। अब शासन-प्रशासन के विरुद्ध जाने की परिणति नक्सलवादऔर आतंकवाद में होती है। इस संग्रह के प्रथम खंड 'धधकी आग तबाही' के अंतर्गत समाहित नवगीत अनसुनी-अनदेखी शिकायतों के जीवंत दस्तावेज हैं-

डंपर-ट्रॉली / ढोते ट्रक हैं / नंबर दो की रेत। 
महानदी के / तट कैसे / दाबे कुचले खेत।  
लिखी शिकायत / केश उखाड़े / सबको गया टटोला। 
पीली-लाल / बत्तियों पर / संयुक्त मोर्चा खोला। 
छान-बीन / तफ्तीशें जारी / डंडे भूत-परेत। 

असंतुष्ट पर से भूत-प्रेत उतारते व्यवस्था के डंडे कल से कल तक का अकाट्य सत्य है।  आम आदमी को इस सत्य से जूझते देख उसकी जिजीविषा पर विस्मिय होता है। रामकिशोर जी का अंदाज़े-बयां 'कम लिखे से जादा समझना' की परिपाटी का पालन करता है-

दवा सरीखे / भोजन मिलता / रस में टँगा मरीज रहा हूँ।
दैनिक / वेतनभोगी की मैं / फटती हुई कमीज रहा हूँ।
गर्दन से / कब सिर उतार दे / पैनी खड्ग / व्यवस्था इतनी।.... 
.... झोपड़पट्टी के / आँगन में / राखी-कजली / तीज रहा हूँ।

आम आदमी की यह ताकत जो उसे राखी, कजली, तीज अर्थात पारिवारिक-सामाजिक संबंधों के अनुबंधों से मिलती है, वही सर्वस्व ध्वंस के अवांछित रास्तों पर जाने से रोकती है किन्तु अंतत: इससे मुक्ताकाश में पर तौलने के इच्छुक पर कतरे जाकर बकौल रहीम 'रहिमन निज मन की व्यथा मन ही राखो गोय' कहते हैं तो आम आदमी की जुबान से सिर्फ यह कह पाते हैं- 

मेरी पीड़ा मेरा धन है। / नहीं बाँटता मेरा मन है। 
सूम बने रहना / ही बेहतर / खुशहाली में घर-आँगन है।    

संग्रह का दूसरा खंड 'पागल हुआ रमोली' के हुआ सवेरा जैसे गीत कवि के अंतर्मन में बैठे आशावादी शिक्षक की वाणी हैं- 'उठ जा बेटे! हुआ सवेरा । /  हुई भोर है गया अँधेरा। / जागा सूरज खोले आँखें / फ़ैल रही किरणों की पाँखें'। नवाशा का यह स्वर भोर की ताजगी की ही तरह शीघ्र ही गायब हो जाता है और शेष रह जाती है 'मूँड़ फूट जाएगा लगता / हींसों के बँटवारे में' की आशंका, 'लाल-पीली / बत्तियों का / हो गया / कानून बंधुआ' का कड़वा सच, 'ले गयी है / बाढ़ हमसे / छीनकर घर-द्वार पूरा' का दर्द,  'वजनदार हो फ़ाइल सरके / बाबू बैठा हुआ अकड़ के / पटवारी का काला-पीला' से उपजा शोषण, 'झमर-झिमिर भी / बरसे पानी / हालत सार-सरीखी घर की' की बेचारगी, 'चांवल, दाल / गेहूं सोना है। / रोजी-रोटी का रोना है' की विवशता, 'खौल रहा / अंदर से लेकिन / बना हुआ गंभीर लेड़ैया / नहीं बोलता / हुआ हुआ का' की हताशा और 'झोपड़पट्टी टूट रही है / सिर की छाया छूट रही है .... चलता / छाती पर / बुलडोजर / बेजा कब्जा खाली होता' की आश्रय हीनता।

'मेरी अपनी जीवन शैली / अलग सोच की अलग / कहन है' कहनेवाले रामकिशोर जी का शब्द भण्डार स्पृहणीय है। वे कुनैते, दुनका, चरेरू, बम्हनौही, कनफोर, क़मरी, सरौधा, अइसन, हींसा, हरैया, आसन, पिटपासों, दुनपट, फरके, छींदी, तरोगा, चिंगुटे, हँकरा, गुंगुआना, डहडक, टूका, पुरौती, ठोंढ़ा, तुम्मी, अकिल, पतुरिया, कुदारी, चुरिया, मिड़वइया आदि देशज बुंदेली-बघेली शब्द, इंटरनेट, लान, ड्रीम, डम्पर, ट्रॉली, ट्रक, नंबर, लीज, लिस्ट, सील, साइन, एटम बम, कोर्ट, मार्किट, रेडीमेड, ऑप्शन, मशीन, पेपरवेट, रेट, कंप्यूटर, ड्यूटी जैसे अंग्रेजी शब्द तथा फरेब, रोज, किस्मत, रकम, हकीम, ऐब, रौशनी, रिश्ते, ज़हर, अहसान, हर्फ़, हौसला, बोटी, आफत, कानून, बख्शें, गुरेज, खानगी, फरमाइश, बेताबी, खुराफात, सोहबत, ख़ामोशी, फ़क़त, दहशत, औकात आदि उर्दू शब्द खड़ी हिंदी के साथ समान सहजता और सार्थकता के साथ उपयोग कर पाते हैं। पूर्व नवगीत संग्रह की तरह ठेठ देशज शब्दों के अर्थ पाद टिप्पणी में दिए जान शहरी तथा अन्य अंचलों के पाठकों के लिए आवश्यक है क्योंकि ऐसे शब्दों के अर्थ सामान्य शब्दकोशों में भी नहीं मिलते हैं। 

'अपने दम पर / मैं अभाव के / छक्के छुड़ा दिआ', 'मैं फरेबी धुंध की / वह छोर खोजा हूँ'  जैसी एक-दो त्रुटिपूर्ण अभिव्यक्ति के अपवाद को छोड़कर पूर्ण संग्रह भाषिक दृष्टि से निर्दोष है। पारम्परिक गीत की छंदरूढ़ता और प्रगतिवादी काव्य की छंदहीनता के बीच सहज साध्य छंदयोजना के अपनाते हुए रामकिशोर जी इन नवगीतों की लयबद्धता को सरस और रूचि पूर्ण रख सके हैं। 'ज़िंदा सरोधा' शीर्षक नवगीत के मुखड़े में २३ मात्रिक छंद रौद्राक जातीय उपमान छंद का, मुखड़े में २६ मात्रिक महाभागवत जातीय छंद का, 'भरे कोलाहल भीतर', 'रस में टँगा मरीज' शीर्षक नवगीतों के मुखड़े-अंतरों में ३२ मात्रिक लाक्षणिक छंद,  'रुण्ड हवा में' शीर्षक नवगीत के मुखड़े में ४२ मात्रिक कोदंड जातीय तथा अँतरे में ३२ मात्रिक लाक्षणिक जातीय छंद का, 'घूँघट वाला अँचरा' में ३० मात्रिक महातैथिक जातीय छंद का मुखड़ा, २८ मात्रिक यौगिक जातीय छंद का अन्तरा, 'हींसों के बँटवारे' में ३० मात्रिक महातैथिक जातीय छंद का मुखड़ा तथा १६ मात्रिक संस्कारी जातीय ७ पंक्तियों का अंतरा प्रयोग किया गया है। अपवादस्वरूप कुछ नवगीतों में अंतरों में भी अलग-अलग छंद प्रयुक्त हुए है जो नवगीतकार की प्रयोगधर्मिता को इंगित करता है।

समीक्ष्य संग्रह के नवगीत रामकिशोर के व्यक्तित्व और चिंतन के प्रतीति कराते हैं। लेखनमें किसी अन्य से प्रभावित हुए बिना अपनी लीक आप बनाते हुए, पारम्परिकता, नवता और स्वीकार्यता की त्रिवेणी प्रवाहित करते हुए रामकिशोर जी के अगले संकलन की प्रतीक्षा हेतु उत्सुकता जगाता है यह संग्रह।

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-समन्वयम २०४ विजय, अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, सुभद्रा वार्ड, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ salil.sanjiv@gmail.com, o७६१ २४१११३१ / ९४२५१८३२४४ 
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सोमवार, 2 नवंबर 2015

kruti charcha :

कृति चर्चा:
अल्पना अंगार पर - नवगीत निखार पर 
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण: अल्पना अंगार पर, नवगीत संग्रह, रामकिशोर दाहिया, २००८, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ १९२, १००/-,  उद्भावना प्रकाशन, ए २१ झिलमिल इंडस्ट्रियल एरिया,  जी. टी.  रोड,शाहदरा दिल्ली ११००९५, कृतिकार संपर्क: अयोध्या  बस्ती,साइंस कॉलेज, खिरहने कटनी ४८३५०१, ९४२४६ ७६२९७, ९४२४६ २४६९३] 
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नदी के कलकल प्रवाह, पवन की सरसराहट और कोयल की कूक की लय जिस मध्र्य को घोलती है वह गीतिरचना का पाथेय है। इस लय को गति-यति, बिंब-प्रतीक-रूपक से अलंकृत कर गीत हर सहृदय में मन को छूने में समर्थ बन जाता है। गति और लय को देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप नवता देकर गीत के आकाशी कथ्य को जमीनी स्पर्श देकर सर्वग्राह्य बना देता है नवगीत। अपने-अपने समय में जिसने भी पारम्परिक रूप से स्थापित काव्य के शिल्प और कथ्य को यथावत न स्वीकार कर परिवर्तन के शंखनाद किया और सृजन-शरों से स्थापित को स्थानच्युत कर परिवर्तित का भिषेक किया वह अपने समय में नवता का वाहक बना। इस समय के नवताकारक सृजनधर्मियों में अपनी विशिष्ट भावमुद्रा और शब्द-समृद्धता के लिये चर्चित नवगीतकार रामकिशोर दाहिया की यह प्रथम कृति अपने शीर्षक 'अल्पना अंगार पर' में अन्तर्निहित व्यंजना से ही अंतर्वस्तु का आभास देती है। अंगार जैसे हालात का सामना करते हुए समय के सफे पर हौसलों की अल्पना  के नवगीत लिखना सब के बस का काम नहीं है।  

नवगीत को उसके उद्भव काल के मानकों और भाषिक रूप तक सिमित रखने असहमत रामकिशोर जी ने अपने प्रथम संग्रह में ही अपनी जमीन तैयार कर ली हैं। बुंदेली-बघेली अंचल के निवासी होने के नाते उनकी भाषा में स्थानीय लोकभाषाओं का पूत तो अपेक्षित है किन्तु उनके नवगीत इससे बहुत आगे जाकर इन लोकभाषाओं के जमीनी शब्दों को पूरी स्वाभाविकता और अधिकार के साथ अंगीकार करते हैं। वे यह भी जानते हैं कि शब्दों के अर्थों से कॉंवेंटी पीढ़ी ही नहीं रचनाकार, शब्द कोष भी अपरिचित हैं इसलिए पाद टिप्पणियों में शब्दों के अर्थ समाविष्ट कर अपनी सजगता का परिचय देते हैं।

आजीविका से शिक्षक, मन से साहित्यकार और प्रतिबद्धता से आम आदमी की पीड़ा के सहभागी हैं राम किशोर, इसलिए इन नवगीतों में सामाजिक वैषम्य, राजनैतिक विद्रूपताएँ, आर्थिक विषमता, धार्मिक पाखंड और व्यक्तिगत दोमुँहेपन पर प्रबल-तीक्ष्ण शब्द-प्रहार होना स्वाभाविक है। उनकी संवेदनशील दृष्टि राजमार्गोन्मुखी न होकर पगडंडी के कंकरों, काँटों, गड्ढों और उन पर बेधड़क चलने वाले पाँवों के छालों, चोटों, दर्द और आह को केंद्र में रखकर रचनाओं का ताना-बाना बुनती है। वे माटी की सौंधी गंध तक सीमित नहीं रहते, माटी में मिले सपनों की तलाश भी कर पाते हैं। विवेच्य संग्रह वस्तुत: २ नवगीत संग्रहों को समाहित किये है जिन्हें २ खण्डों के रूप में 'महानदी उतरी' (ग्राम्यांचल के सजीव शब्द चित्र तदनुरूप बघेली भाषा)  और  'पाले पेट कुल्हाड़ी' (सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भों से जुड़े नवगीत) शीर्षकों के अंतर्गत रखा गया है। २५-३० रचनाओं की स्वतंत्र पुस्तकें निकालकर संख्या बढ़ाने के काल में ४५ + ५३ कुल ९८ नवगीतों के  समृद्ध संग्रह को पढ़ना स्मरणीय अनुभव है।

कवि ज़माने की बंदिशों को ठेंगे पर मारते हुए अपने मन की बात सुनना अधिक महत्वपूर्ण मानता है-

कुछ अपने दिल की भी सुन
संशय के गीत नहीं बुन
अंतड़ियों को खंगालकर
भीतर के ज़हर को निकाल
लौंग चूस / जोड़े से चाब
सटका दे / पेट के बबाल
तंत्री पर साध नई धुन

लौंग को जोड़े से चाबना और तंत्री पर धुन साधना जैसे अनगिन प्रयोग इस कृति में पृष्ठ-पृष्ठ पर हैं। शिक्षक रामकिशोर को पर्यावरण की फ़िक्र न हो यह कैसे संभव है?

धुआँ उगलते वाहन सारे / साँसों का संगीत लुटा है
धूल-धुएँ से / हवा नहाकर /  बैठी खुले मुँडेरे
नहीं उठाती माँ भी सोता / बच्चा अलस्सवेरे

छद्म प्रगति के व्यामोह में फँसे जनगण को प्रतीत हो रहे से सर्वथा विपरीत स्थिति से रू-ब-रू कराते हुए कवि अपना बेलाग आकलन प्रस्तुत करता है:

आँख बचाकर / छप्पर सिर की /नव निर्माण उतारे
उठती भूखी / सुबह सामने / आकर हाथ पसारे
दिये गये / संदर्भ प्रगति के / उजड़े रैन बसेरे

समाज में व्याप्त दोमुँहापन कवि की चिंता का विषय है:

लोग बहुत हैं / धुले दूध के / खुद हैं चाँद-सितारे
कालिख रखते / अंतर्मन में / नैतिक मूल्य बिसारे

नैतिक मूल्यों की चिंता सर्वाधिक शिक्षक को ही होती है। शिक्षकीय दृष्टि सुधर को लक्षित करती है किन्तु कवि उपदेश नहीं देना चाहता, अत:,  इन रचनाओं में शब्द प्रचलित अर्थ के साथ विशिष्ट अर्थ व्यंजित करते हैं:

स्वेद गिरकर / देह से / रोटी उगाता
ज़िंदगी के / जेठ पर / आजकल दरबान सी
देने लगी है / भूख पहरा पेट पर 

स्वतंत्रता के बाद क्या-कितना बदला? सूदखोर साहूकार आज भी किसानों के म्हणत की कमाई खा रहा है। मूल से ज्यादा सूद चुकाने के बाद भी क़र्ज़ न चुकाने की त्रासदी भोगते गाँव की व्यथा-कथा गाँव में पदस्थ और निवास करते संवेदनशील शिक्षक से कैसे छिप सकती है? व्यवस्था को न सुधार पाने और शोषण को मूक होकर  देखते रहने से उपजा असंतोष इन रचनाओं के शब्द-शब्द में व्याप्त है:

खाते-बही, गवाह-जमानत / लेते छाप अँगूठे
उधार बाढ़ियाँ / रहे चुकाते / कन्हियाँ धांधर टूटे
.
भूखे-लांघर रहकर जितना / देते सही-सही
जमा नहीं / पूँजी में पाई / बढ़ती ब्याज रही
बने बखार चुकाने पर भी / खूँटे से ना छूटे
.
लड़के को हरवाही लिख दी / गोबरहारिन बिटिया
उपरवार / महरारु करती / फिर भी डूबी लुटिया
मिले विरासत में हम बंधुआ / अपनी साँसें कूते

सामान्य लीक से हटकर रचे गए  नवगीतों में अम्मा शीर्षक गीत उल्लेखनीय है:

मुर्गा बांग / न देने पाता / उठ जाती अँधियारे अम्मा
छेड़ रही / चकिया पर भैरव / राग बड़े भिन्सारे अम्मा

से आरम्भ अम्मा की दिनचर्या में दोपहर कब आ जाती, है पता ही नहीं चलता-

चौक बर्तन / करके रीती / परछी पर आ धूप खड़ी है
घर से नदिया / चली नहाने / चूल्हे ऊपर दाल चढ़ी है
आँगन के / तुलसी चौरे पर / आँचल रोज पसारे अम्मा 
पानी सिर पर / हाथ कलेवा / लिए पहुँचती खेत हरौरे
उचके हल को / लत्ती देने / ढेले आँख देखते दौरे

यह क्रम देर रात तक चलता है:

घिरने पाता / नहीं अँधेरा / बत्ती दिया जलाकर रखती
भूसा-चारा / पानी - रोटी / देर-अबेर रात तक करती
मावस-पूनो / ढिंगियाने को / द्वार-भीत-घर झारे अम्मा

ऐसा जीवन शब्द चित्र मनो पाठक अम्मा को सामने देख रहा हो। संवेदना की दृष्टि से श्री आलोक श्रीवास्तव की सुप्रसिद्ध 'अम्मा' शीर्षक ग़ज़ल के समकक्ष और जमीनी जुड़ाव में उससे बढ़कर यह नवगीत इस संग्रह की प्रतिनिधि रचना है।

रामकिशोरजी सिर्फ शिक्षक नहीं अपितु सजग और जागरूक शिक्षक हैं। शिक्षक के प्राण शब्दों में बसते हैं चूँकि शब्द ही उसे संसार और शिष्यों से जोड़ते हैं। विवेच्य कृति कृतिकार के समृद्ध शब्द भण्डार का परिचय पंक्ति-पंक्ति में देती है। एक ओर बघेली के शब्दों दहरा, लमतने, थूं, निगडौरे, भिनसारे, हरौरे, ढिंगियाने, भीत, पगडौरे, लौंद, गादर, अलमाने, च्यांड़ा, चौहड़े, लुसुक, नेडना, उरेरे, चरागन, काकुन, डिंगुरे, तुरतुरी, खुम्हरी आदि को हिंदी के संस्कृतनिष्ठ शब्दों लौह्गामिनी, कीटविनाशी, दावानल, बड़वानल, वसुधा, व्योम, अनुगूंज, ऊर्जा, स्रोत, शिल्प, चन्द्रकला, अविराम, वृन्त, कुंतल, ऊर्ध्ववती, कपोल, समुच्चय, पारलौकिक, श्रृंगारित आदि को गले मिलते देखना आनंदित करता है तो  दूसरी ओर उर्दू के लफ़्ज़ों वज़ूद, सिरफिरी, सोहबत, दौलत, तब्दील, कंदील, नूर, शोहरत, सरहदों, बाजार, हुकुम, कब्ज़े, फरजी, पेशी, जरीब, दहशत, सरीखा, बुलंदी, हुनर, जुर्म, ज़हर, बेज़ार, अपाहिज, कफ़न, हैसियत, तिजारत, आदि को अंग्रेजी वर्ड्स पेपर, टी. व्ही., फ़ोकस, मिशन, सीन, क्रिकेटर, मोटर, स्कूल, ड्रेस, डिम, पावर, केस, केक, स्वेटर, डिजाइन, स्क्रीन, प्लेट, सर्किट, ग्राफ, शोकेस आदि के साथ हाथ मिलाते देखना सामान्य से इतर सुखद अनुभव कराता है।  

इस संग्रह में शब्द-युग्मों का प्रयोग यथावसर हुआ है। साही-साम्भर, कोड़ों-कुटकी, 'मावस-पूनो, तमाखू-चूना, कांदो-कीच, चारा-पानी, कांटे-कील, देहरी-द्वार, गुड-पानी, देर-अबेर, चौक-बर्तन, दाने-बीज, पौधे-पेड़, ढोर-डंगार, पेड़-पत्ते, कुलुर-बुलुर, गली-चौक, आडी-तिरछी, काम-काज, हट्टे-कट्टे, सज्जा-सिंगार, कुंकुम-रोली, लचर-पचर, खोज-खबर, बत्ती-दिया आदि गीतों की भाषा को सरस बनाते हैं।

राम किशोर जी ने किताबी भाषा के व्यामोह को तजते हुए पारंपरिक मुहावरों दांत निपोरेन, सर्ग नसेनी, टेंट निहारना आदि के साथ धारा हुई लंगोटी, डबरे लगती रोटी, झरबेरी की बोटी, मन-आँगन, कानों में अनुप्रास, मदिराया मधुमास, विषधर वसन, बूँद के मोती, गुनगुनी चितवन, शब्दों के संबोधन, आस्था के दिये, गंध-सुंदरी, मन, मर्यादा पोथी, इच्छाओं के तारे, नदिया के दो ओंठ, नयनों के पटझर जैसी निजी अनुभूतिपूर्ण शब्दावली से भाषा को जीवंत किया है।     

बुंदेलखंड-बघेलखण्ड के घर-गाँव अपने परिवेश के साथ इस गहराई और व्यापकता के साथ उपस्थित हैं कि कोई चित्रकार शब्दचित्रों से रेखाचित्र की ओर बढ़ सके। कुछ शब्दों का संकेत ही पर्याप्त है यह इंगित करने के लिए कि ग्राम्य जीवन का हर पक्ष इन गीतों में है। निवास स्थल- द्वार, भीत, घर, टटिया, कछरा आदि, श्रृंगार- सेंदुर, कुंड़वा, कंघी, चुरिया महावर आदि, वाद्य- टिमकी, मांडल, ढोलक, मंजीर, नृत्य-गान- राई , करमा, फाग, कबीर, कजरी, राग आदि, वृक्ष-पौधे महुआ, आम, अर्जुन, सेमल, साल, पलाश, अलगोजे, हरसिंगार, बेल, तुलसी आदि, नक्षत्र- आर्द्रा, पूर्व, मघा आदि, माह- असाढ़, कातिक, भादों, कुंवार, जेठ, सावन, पूस, अगहन आदि, साग-सब्जी- सेमल, परवल, बरबटी, टमाटर, गाजर, गोभी, मूली, फल- आंवले, अमरुद, आम, बेल आदि, अनाज- उर्द, अरहर, चना, मसूर, मूंग, उड़द, कोदो, कुटकी, तिल, धान, बाजरा, ज्वार आदि, पक्षी- कबूतर, चिरैयाम सुआ, हरियर, बया, तितली, भौंरे आदि, अन्य प्राणी- छिपकली, अजगर, शेर, मच्छर सूअर, वनभैंसा, बैल, चीतल, आदि, वाहन- जीप, ट्रक, ठेले, रिक्शे, मोटर आदि , औजार- गेंती, कुदाल आदि उस अंचल के प्रतिनिधि है जहाँ की पृष्ठभूमि में इन नवगीतों की रचना हुई है. अत: िंवगीतों में उस अंचल की संस्कृति और जीवन -शब्द में अभव्यक्त होना स्वाभाविक है।      

उर्दू का एक प्रसिद्ध शेर है 'गिरते हैं शाह सवार ही मैदाने जंग में / वह तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले' कवि राम किशोर जी गुड़सवारी करने, गिरने और बढ़ने का माद्दा रखते हैं यह काबिले-तारीफ है। नवगीतों की बंधी-बंधाई लीक से हटकर उन्होंने पहली ही कृति में अपनी पगडंडी आप बनाने का हसला दिखाया है।  दाग की तरह कुछ त्रुटियाँ होन स्वाभविक है- 'टी. व्ही. के / स्क्रीन सरीखे / सारे दृश्य दिखाया' में वचन दोष, 'सर्किट प्लेट / ह्रदय ने घटना / चेहरे पर फिल्माया' तथा 'बढ़ती ब्याज रही' में लिंग दोष है। लब्बो-लुबाब यह कि 'अल्पना अंगार पर' समसामयिक सन्दर्भों में नवगीत की ऐसी कृति है जिसके बिना इस दशक के नवगीतों का सही आकलन नहीं किया जा सकेगा। रामकिशोर जी का शिक्षक मन इस संग्रह में पूरी ईमानदारी से उपस्थित है- 'दिल की बात / लिखी चहरे पर/ चेहरा पढ़ना सीख'।

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समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २४१११३१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com 
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