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रविवार, 16 नवंबर 2025

नवंबर १५, नर्मदा, भूमि सूक्त, भू तकनीकी, गिरिमोहन गुरु, नवगीत, सुनो शहरियों, ईशावास्योपनिषद

सलिल सृजन नवंबर १५
*
नेह-नर्मदा
*
नेह-नर्मदा रोज नहाया करती थी
घाट-नाव संबंध निभाया करती थी
वेणु मौन की दूर बजाया करती थी
प्यास रूह की नित्य बुझाया करती थी
हारे हुए हौसलों को दिन में भी वो
ख्वाब फतह के लाख दिखाया करती थी
नानक की बानी, कबीर की साखी औ'
विद्यापति के गीत सुनाया करती थी
मैं 'मावस के अँधियारे से डरता था
दीवाली वह विहँस मनाया करती थी
ठोस जमीं में जमा जड़ें वह बाँहों में
आसमान भर सुबह उगाया करती थी
कौन किसी का कभी हुआ है दुनिया में
वो कड़वा सच बता, बचाया करती थी
प्रीत अछूती पुरवैया के झोंके सी
आँचल में भर विजन डुलाया करती थी
देह विदेह अगेह सनेह सुवासित सी
चंदन चर्चित चित्त चुराया करती थी
मैं अमरीका रूस चीन की कोशिश सा
वो इसरो झण्डा फहराया करती थी
पलक उठे तो ऊषा; झुके पलक संध्या
पलक गिरा वह रात बुलाया करती थी
खन-खन ले कंगन में, छम-छम पैजन में
छलिया का छल विहँस; भुलाया करती थी
था बेदर-दीवार फलक, दुनिया सूनी
उम्मीदों की फसल उगाया करती थी
कमसिन थी लेकिन वो बहुत सयानी थी
भटकों को मंजिल दिखलाया करती थी
चैन मिले बेचैन बहुत वो हो जाती
बेचैनी झट गले लगाया करती थी
सँग 'सलिल' के आज नहीं तो कल होगी
सोच कीच से कमल खिलाया करती थी
१५.११.२०२४
***
शोध लेख
भूमि सूक्त और भू तकनीकी
संजीव वर्मा सलिल'
युवा पीढ़ी ही नहीं अधिकांश वरिष्ठ अभियंता और भूतकनीकीविद् भी इस मिथ्या धारणा के शिकार हैं कि यह विधा/विषय पाश्चात्य जगत की देन है। भारत में वैदिक काल के बहुत पहले से भू अर्थात धरती तथा नदियों को माता और जल, वायु, अग्नि आदि प्रकृति उपादानों को देवता तथा आकाश को पिता कहा गया है। यह संबंध स्थापीर करने का मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि इन प्रकृतिं उपादानों का विवेकपूर्ण उपयोग किया जाए किंतु दोहन या शोषण न किया जाए, न ही उन्हें मलिन किया जाए। इस दृष्टि को खो देने के कारण अनेक विसंगतियों तथा समस्याओं ने इतना विकराल रूप धारण कर लिया है कि मानवता और जीवन के समाप्त होने का संकट मुंह बाए है। विडंबना यह कि तथाकथित उन्नत राष्ट्र भारत से प्रकृति को माता मान कर उसके साथ रहने की कला सीखने के स्थान पर चन्द्रमा और मंगल पर बसने के दिवा स्वप्न देख रहे हैं।
इस आलेख में पृथ्वी सूक्त में पृथ्वी के प्रति व्यक्त की गई मांगलिक भावनाओं का संकेत है। हर संरचना (स्ट्रक्चर) को वस्तु मानकर उसमें दैवी शक्ति का दर्शन कर उसके माध्यम से मानव सकल सृष्टि के कल्याण की दिव्य कामना करता भारतीय अभियांत्रिकी विज्ञान (वास्तु शास्त्र) भी भू तकनीकी के विषयों का प्रकृति के साथ तालमेल बैठा कर अध्ययन करता है।
आधुनिक प्रगत प्रौद्यौगिकी के अंधाधुंध उपयोग के कारण ज़िंदगी में जहर घोलता इलेक्ट्रॉनिक कचरा भू वैज्ञानिकों और बहुतकनीकीविदों की चिंता का विषय है। इस कचरे तथा प्लास्टिक पदार्थों के पुनर्चक्रीकरण (रिसायकलिंग) तथा निष्पादन (डिस्पोजल) पर चर्चा करते हुए लेख का समापन किया गया है। लेख का उद्देश्य नव अभियंताओं में स्वस्थ दृष्टि तथा चिंतन का विकास करना है ताकि वे परियोजनाओं को क्रियान्वित करते समय इन खतरों के प्रति सजग रहें।
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[लेखक- संजीव वर्मा 'सलिल', डिप्लोमा सिविल, बी.ई, सिविल,एम्.आई.ई., एम्.आई.जी.एस., एम्.ए. (दर्शन शास्त्र, अर्थ शास्त्र), एल-एल.बी., डिप्लोमा पत्रकारिता, से.नि. संभागीय परियोजना अभियंता, मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग। पूर्व महामंत्री इंजीनियर्स फोरम (भारत), अध्यक्ष आईजीएस जबलपुर चैप्टर। संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर। प्रख्यात कवि, कहानीकार, संपादक, समीक्षक, छन्दशास्त्री, समाजसेवी। अधिवक्ता उच्च न्यायालय मध्य प्रदेश। १२ पुस्तकें प्रकाशित। २०० से अधिक पुरस्कार व सम्मान।
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com]
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उपनिषद का शब्द कोशीय अर्थ है समीप बैठना, गुरु के समीप बैठकर ज्ञान प्राप्त करना, भिन्नार्थ ईश्वर के समीप होकर सत्य और ब्रह्म की प्रतीति करना। उपनिषद वेदांत का सार (निचोड़) है।
ईशावास्योपनिषद
उपनिषद श्रृंखला में प्रथम स्थान प्राप्त 'ईशावास्योपनिषद' शुक्ल यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय है। केवल १८ मंत्रों में ईश्वर के गुणों का वर्णन तथा अधर्म त्याग का उपदेश है। इस उपनिषद का प्रयोजन ज्ञान द्वारा मोक्ष प्राप्ति है। इसमें सभी कालों में सत्कार्म करने पर बल दिया गया है। परमेश्वर के अतिसूक्ष्म स्वरूप का वर्णन इस उपनिषद में है। सभी प्राणियों में आत्मा को परमात्मा का अंश जानकर अहिंसा की शिक्षा दी गयी है। 'कण-कण में भगवान' अथवा 'कंकर कंकर में शंकर' का लोक-सत्य इस उपनिषद में अन्तर्निहित है। समाधि द्वारा परमेश्वर को अपने अन्त:करण में जानने और शरीर की नश्वरता का उल्लेख ईशावास्योपनिषद में है। इस उपनिषद के आरंभ में प्रयुक्त 'ईशावास्यमिदं सर्वम्‌' पद के कारण यह 'ईशोपनिषद' अथवा 'ईशावास्योपनिषद' के नाम से विख्यात है।
शांतिपाठ
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
ॐ पूर्ण है वह; पूर्ण है यह, पूर्ण से उत्पन्न पूर्ण।
पूर्ण में से पूर्ण को यदि निकालें, पूर्ण तब भी शेष रहता।।
प्रथम मन्त्र में ही जीवन और जगत् को ईश्वर का आवास कहा गया है। 'यह किसका धन है?' प्रश्न द्वारा ऋषि ने मनुष्य को सभी सम्पदाओं के अहंकार का त्याग करने का सूत्र दिया है। इससे आगे लम्बी आयु, बन्धनमुक्त कर्म, अनुशासन और शरीर के नश्वर होने का बोध कराया गया है। यहाँ जो कुछ है, परमात्मा का है, यहाँ जो कुछ भी है, सब ईश्वर का है। हमारा यहाँ कुछ नहीं है-
ॐ ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत।
तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम॥१॥
ईश समझना हमें चाहिए, उसे दिखे जो कुछ इस जग में।
नाम रूप तज दें प्रपंच सब, मत चाहें; किसका होता धन॥१॥
*
यहाँ इस जगत् में सौ वर्ष तक कर्म करते हुए जीने की इच्छा करनी चाहिए-
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्ँ समा:।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥२॥
करते हुए कर्म इस जग में, जीना चाहो सौ वर्षों तक।
जिओ कर्म करते इस जग में, किंतु न होना लिप्त कर्म में॥२॥
*
असूर्या नाम के लोक अज्ञान से अंधा बना देनेवाले तिमिर से आवृत्त हैं। अपने यथार्थ रूप को न जाननेवाले मरणोपरांत उन लोकों में जाते हैं।
असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता:।
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्मनो जना:।।३।।
हैं जो लोक असूर्य नाम के, घिरे हुए हैं अंधक तम से।
मरकर जाते वहीं वही जो, निज स्वरूप को जान न पाते।।३।।
*
जीव मन से अच्युत स्वरूप (स्थिर); एक और अगम्य है। इसे चक्षु आदि इन्द्रियाँ नहीं पा सकतीं चूँकि यह मन से भी अधिक गतिशील है। आप निष्क्रिय रहते हुए भी अन्य का अतिक्रमण कर पाता है। वः नित्य चैतन्य आत्मतत्व ही वायु आदि देवों को जीवों की क्रियाशीलता हेतु प्रवृत्त करता है।
अनेजदेकं मनसो जैवीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वमर्षत।
तद्धावतो S न्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति।।४।।
वही तत्व अच्युत अगम्य है, परे इन्द्रियों से; मन से भी।
दौड़े आगे अन्य सभी के, अचल वायु को गति-प्रवृत्त कर।।४।।
*
वह आत्मा ही सोपधिक अवस्था में सक्रिय और निरुपाधिक अवस्था में निष्क्रिय होता है। वह दूर भी है और निकट भी वही है। वह अंदर भी है और बाहर भी वही है।
तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्विंतके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यत:।।५।।
वह सक्रिय; निष्क्रिय भी है वह, दूर निकट जो भी है वह है।
वह ही अन्दर जो कुछ भी है, और वही जो कुछ बाहर है।।५।।
*
जो सब भूतों को अपने में ही देखता है और अपने आपको सब भूतों में देखता है, उसके अन्तर्मन में किसी के प्रति घृणा उत्पन्न नहीं होती।
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानु पश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजिगुप्सते।।६।।
देख रहा जो सब भूतों को, खुद के अंदर भिन्न न जाने।
देखे खुद को सब भूतों में, कभी किसी से घृणा न करता।।६।।
*
जब सभी भूत तत्वज्ञ की दृष्टि में आत्मवत हो गए तब एकत्व अनुभव करनेवाले के लिए कौन सा मोह; कौन सा शोक रह गया?
यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभू िद्वजानत:।
तत्र को मोह: क: शोक: एकत्वमनुपश्यते।।७।।
जो समस्त भूतों को जाने, आत्मरूप; हो गैर न कोई।
उसे मोह क्या?; उसे शोक क्या?, वह एकत्व देखता सबमें।।७।।
*
वह आत्मतत्व आकाश के समान व्यापी, शुक्र व कायारहित, अक्षत, स्थूल शरीररहित शुद्ध तथा पापहीन है। वह क्रांतदर्शी मनीषी सर्वनियन्ता स्वयं उत्पन्न होनेवाला है। उसी ने यथोचित कार्यों के लिए सब पदार्थों का निर्माण किया है।
स पर्यागाच्छुक्रमकायमव्रणस्नाविरं शुद्धपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभूर्याथातथ्यतोsर्थान्य व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्य:।।८।।
नभ सम व्याप्त, न शुक्र-लिंग-व्रण, तन बिन शुद्ध अपापी है वह।
कवि मनीषि वह सर्वनियंता, प्रगटे आप रचे सबको वह।।८।।
*
अविद्या की उपासना करनेवाले घोर तम में घिर जाते हैं और उससे भी अधिक घने अँधेरे में वे घिरते हैं जो कर्म तजकर केवल विद्या की उपासना में रत रहते हैं।
अन्धं तम: प्रविशंति, येsविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रता:।।९।।
अंधा करते तम में घिरते, करें अविद्याजनित कर्म जो।
उससे अधिक तम में घिरते वे, जो बिन कर्म लीन विद्या में।।९।।
*
अविद्यात्मक कर्मों के अनुष्ठान से दूसरा ही फल मिलता है, ऐसा धीर जनों से हमने सुना है जिन्होंने कर्म और ज्ञान का व्याख्यान किया है।
अन्यदेवाहुर्विद्ययान्यदाहुरविद्यया।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे।।१०।।
कर्म अविद्या-विद्या मय जो, उनका फल कुछ अन्य बताया।
सुना धीर पुरुषों से हमने, जिनने वह व्याख्यान किया है।।१०।।
*
विद्या और अविद्या दोनों को जो एक ही पुरुष द्वारा अनुष्ठेय समझता है, वह अविद्या के अनुष्ठान से मृत्यु का अतिक्रमण कर बाद में विद्या के प्रभाव से अमर हो जाता है।
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते।।११।।
विद्या और अविद्या दोनों, एक पुरुष कृत जो समझे वह।
जीते मृत्यु अविद्या से फिर, होता अमर आत्म विद्या से।।११।।
*
अँधा बना देनेवाले सघन तम में प्रवेश कर जड़ हो जाते हैं वे जो सर्वव्यापी एकात्मभाव को भूलकर जो प्रकृति की उपासना करते हैं और उससे भी अधिक तम से घिर जाते हैं वे जो हिरण्यगर्भ नामक कार्यब्रह्म में ही रहते हैं।
अन्धं तम: प्रविशंति येsसंभूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्यांरता:।।१२।।
अंधक तम घुस जड़ होते वे, जो प्रकृति को उपासते हैं।
और सघन तम घिर जड़ होते, वे जो कार्यब्रह्म में रहते।।१२।।
*
संभव (कार्यब्रह्म) और असंभव (अव्याकृत प्रकृति) की अलग-अलग उपासना का फल, दोनों के समुच्चयित पूजन के फल से भिन्न है, ऐसा हमने धीर पुरुषों से सुना है जिन्होंने इस तत्व का साक्षात्कार किया है।
अन्य देवाहु: सम्भवादन्यदाहुरसंभवात्।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे।।१३।।
संभव और असंभव पूजन, अलग करें फल अलग मिलें तब।
ब्रह्म-प्रकृति सह पूजन का फल, भिन्न सुना है धीर जनों से।।१३।।
*
जो यह समझता है कि संभूति और विनाश इन दोनों का साथ ही साथ एक ही व्यक्ति के द्वारा अनुष्ठान होना चाहिए, वह विनाश से मृत्यु को पार कर, असंभूति से अमृतत्व पाता है।
संभूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयं सह।
विनाशेन मृत्युं तीर्वा संभूत्यामृतमश्नुते।।१४।।ईजटख
ब्रह्म-प्रकृति की सह उपासना, अनुष्ठेय होता जिसको वह।
करता पार विनाश-मृत्यु को, और अमृत को पा लेता है।।१४।।
*
अविचल परमात्मा एक ही है। वह मन से भी अधिक वेगवान है। वह दूर भी है और निकट भी है। वह जड़-चेतन सभी में सूक्ष्म रूप में स्थित है। जो ऐसा मानता है, वह कभी भ्रमित नहीं होता। वह शोक-मोह से दूर हो जाता है। परमात्मा सर्वव्यापी है। वह परमात्मा देह-रहित, स्नायु-रहित और छिद्र-रहित है। वह शुद्ध और निष्पाप है। वह सर्वजयी है और स्वयं ही अपने आपको विविध रूपों में अभिव्यक्त करता है। ज्ञान के द्वारा ही उसे जाना जा सकता है। मृत्यु-भय से मुक्ति पाकर उपयुक्त निर्माण कला से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। उस परमात्मा का मुख सोने के चमकदार पात्र से ढका हुआ है-
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपातृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥१५॥
कनक पात्र से ढका सत्य मुख, तुम दो हटा आवरण उसका।
सब का पालन करनेवाले, हे प्रभु! सत्य-धर्म पालूँ मैं॥१५॥
सकल जगत का पोषण करने और अकेले चलनेवाले हे पूषा!, यम!, सूर्य! तथा प्रजापति पुत्र! तुम अपने किरण जाल को दूर करो ताकि मैं तुम्हारा सर्व कल्याणकारी देख सकूँ, जो हर प्राणी में तथा मुझमें भी भासमान है।
पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मिन्समूह।
तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि योsसावसौ पुरुष: सोsहमस्मि॥१६॥
जगपोषक पूषा एकाकी, यम रवि प्रजापति सुत किरणें।
लो समेट, छवि कल्याणी मैं, देख सकूँ जो सबमें-मुझमें॥१६॥
प्राण वायु, सकल सृष्टि में व्याप्त वायु में विलीन हो जाए, अंत में शरीर भस्म हो जाए, मन जीवन में जो कुछ किया उसे स्मरण कर, स्मरण करने योग्य परम ब्रह्म को स्मरण करे।
वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरं।
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर॥१७॥
प्राण वायु सर्वात्म वायु में, हो विलीन;हो भस्म देह यह।
याद ब्रह्म को; निज कर्मों को,करो याद जो याद-योग्य हो॥१७॥
हे अग्नि देव! अच्छी राह से हमें ले चलो। तुम सब कर्मों को जानते हो। हमसे पाप कर्मों को दूर करो। हम तुम्हें बार बार नमन करते हैं।
अग्ने नय सुपथा राये असमान्, विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम॥१८॥
अग्नि! ले चलो सुपथ पर मुझे, कर्म-ज्ञान-फल ज्ञाता हो तुम।
दूर करो मुझसे पापों को, बार-बार मैं नमन कर रहा॥१८॥
।। इति श्री भगवत्पूज्यपाद के शिष्य परमहंस परिव्राजकाचार्य श्री शंकर भगवत रचित वाजपेई संहिता उपनिषद (काव्यानुवाद आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल') टीका पूर्ण ।।
१५.११.२०२१
***
नवगीत
सुनो शहरियों!
*
सुनो शहरियों!
पिघल ग्लेशियर
सागर का जल उठा रहे हैं
जल्दी भागो।
माया नगरी नहीं टिकेगी
विनाश लीला नहीं रुकेगी
कोशिश पार्थ पराजित होगा
श्वास गोपिका पुन: लुटेगी
बुनो शहरियों !
अब मत सपने
खुद से खुद ही ठगा रहे हो
मत अनुरागो
संबंधों के लाक्षागृह में
कब तक खैर मनाओगे रे!
प्रतिबंधों का, अनुबंधों का
कैसे क़र्ज़ चुकाओगे रे!
उठो शहरियों !
बेढब नपने
बना-बना निज श्वास घोंटते
यह लत त्यागो
साँपिन छिप निज बच्चे सेती
झाड़ी हो या पत्थर-रेती
खेत हो रहे खेत सिसकते
इमारतों की होती खेती
धुनो शहरियों !
खुद अपना सिर
निज ख्वाबों का खून करो
सोओ, मत जागो
१५-११-२०१९
***
कृति चर्चा -
'अपने शब्द गढ़ो' तब जीवन ग्रन्थ पढ़ो
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण - अपने शब्द गढ़ो, गीत-नवगीत संग्रह, डॉ. अशोक अज्ञानी, प्रथम संस्करण २०१९, आईएसबीएन ९७८-८१-९२२९४४-०-७, आकार २१ से.मी. x १४ से.मी., आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ १३८, मूल्य १५०/-, प्रकाशक - न्यू आस्था प्रकाशन, लखनऊ। गीतकार संपर्क - सी ३८८७ राजाजीपुरम, लखनऊ १७, चलभाष ९४५४०८२१८१। ]
*
संवेदनाओं को अनुभव कर, अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने की कला और विज्ञान जानकर प्रयोग करने ने ही मनुष्य को अन्य जीवों की तुलना में अधिक उन्नत और मानवीय सभ्यता को अधिक समृद्ध किया है। सभ्यता और संस्कृति के उन्नयन में साहित्य की महती भूमिका होती है। साहित्य वह विधा है जिसमें सबका हित समाहित होता है। जब साहित्य किसी वर्ग विशेष या विचारधारा विशेष के हित को लक्ष्यकर रचा जाता है तब वह अकाल काल कवलित होने लगता है। इतिहास साक्षी है कि ऐसा साहित्य खुद ही नष्ट नहीं होता, जिस सभ्यता और संस्कृति से जुड़ा होता है उसके पराभव का कारण भी बनता है। विविध पंथों, धर्मों, सम्प्रदायों, राजनैतिक दलों का उत्थान तभी तक होता है जब तक वे सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय को लक्ष्य मानते हैं। जैसे ही वे व्यक्ति या वर्ग के हित को साध्य मानने लगते हैं, नष्ट होने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाते है। इस सनातन सत्य का सम-सामयिक उदाहरण हिंदी साहित्य में प्रगतिशील कविता का उद्भव और पराभव है।
मानवीय अनुभूतियों की अभिव्यक्ति गद्य की तुलना में पद्य अधिक सहजता, सरलता और सरसता से कर पाता है। प्रकृति पुत्र मानव ने कलकल, कलरव, नाद, गर्जन आदि ध्वनियों का श्रवण और उनके प्रभावों का आकलन कर उन्हें स्मृति में संचित किया। समान परिस्थितियों में समान ध्वनियों का उच्चारण कर, साथियों को सजग-सचेत करने की क्रिया ने वाचिक साहित्य तथा अंकन ने लिखित साहित्य परंपरा को जन्म दिया जो भाषा, व्याकरण और पिंगल से समृद्ध होकर वर्तमान स्वरूप ग्रहण कर सकी। गीति साहित्य केंद्र में एक विचार को रखकर मुखड़े और अंतरे के क्रमिक प्रयोग के विविध प्रयोग करते हुए वर्तमान में गीत-नवगीत के माध्यम से जनानुभूतियों को जन-जन तक पहुँचा रही हैं।
इस पृष्ठभूमि में हिंदी में शोधोपाधि प्राप्त, शिक्षा जगत से जुड़े और वर्मन में प्राचार्य के रूप में कार्यरत डॉ. अशोक अज्ञानी के गीत-नवगीत संग्रह 'अपने शब्द गढ़ो' का पारायण एक सुखद अनुभव है। संकलन का शीर्षक ही रचनाकार और रचनाओं के उद्देश्य का संकेत करता है कि 'हुए' का अंधानुकरण न कर 'होना चाहिए' की दिशा में रचना कर्म को बढ़ना होगा। पुरातनता की आधारशिला पर नवीनता का भवन निर्मित किये बिना विकास नहीं होता। 'गीत' नवता का वरण कर जब 'नवगीत' का बाना धारण करता है तो समय के साथ उसे परिवर्तित भी करता रहता है। यह परिवर्तन कथ्य और शिल्प दोनों में होता है। अशोक जी दोनों आयामों में परिवर्तन के पक्षधर होते हुए भी 'कल' को नष्ट कर 'कल' बनाने की नासमझी से दूर रहकर 'कल' के साथ समायोजन कर 'कल' का निर्माण कर 'कल' प्राप्ति को साहित्य का लक्ष्य मानते हैं, वे मानव के 'कल' बनने के खतरे से चिंतित हैं। इन नवगीतों में यह चिंता यत्र-तत्र अन्तर्निहित है। 'सत्य की समीक्षा में' गीतकार कहता है-
झूठे का सर ऊँचा / कितने दिन रह पाया।
पुष्प कंटकों के ही / मध्य सदा मुस्काया।
प्रातिभ ही करते हैं / प्रतिभा का अभिनंदन
खुशियाँ है हड़ताली / निश्चित किरदार नहीं।
सामाजिक मंचों को / समता स्वीकार नहीं।
विकट परिस्थितियों का प्रक्षालन।
नवगीत को जन्म के तुरंत बाद से है 'वैचारिक प्रतिबद्धता' के असुर से जूझना पड़ रहा है। सतत तक न पहुँच सका साम्यवादी विचारधारा समर्थक वर्ग पहले कविता और फिर नवगीत के माध्यम से विसंगतियों के अतिरेकी चित्रण द्वारा जनअसंतोष को भड़काने का असफल प्रयास करता रहा है। अशोक जी संकेतों में कहते हैं- 'इस नदी में नीर कम / कीचड़ बहुत है।' वे चेताते हुए कहते हैं-
स्वार्थ के पन्ने पलटकर देख लेना
शीर्षक हरदम रहे है हाशिये पर।
पंथ पर दिनमान उसको मिले, जिसने
कर लिया विश्वास माटी के दिए पर...
... द्वन्द के पूजाघरों में मत भटकना
पूजने को एक ही कंकर बहुत है।
द्वन्द वाद के प्रणेताओं को अशोक जी का संदेश बहुत स्पष्ट है-
इस डगर से उस डगर तक / गाँव से लेकर शहर तक
छक रहे हैं लोग जी भरकर / चल रहे हैं प्यार के लंगर
आस्था की पूड़ियाँ हैं, रायता विश्वास का है।
ख्वाब सारे हैं पुलावी और गहि एहसास का है।
कामनाओं का है छोला, भावनाओं की मिठाई।
प्रेम के है प्लेट जिस पर कपट की कुछ है खटाई।
अशोक जी के नवगीतों में उनका 'शिक्षक' सामने न होकर भी अपना काम करता है। 'तनो बंधु' में कवि समाज को राह दिखाता है-
वीणा के सुर मधुरिम होंगे / तुम तारों सा तो तनो बंधु!
ज्ञापन-विज्ञापन का युग है / नूतन उद्घाटन का युग है
हर और खड़े हैं यक्ष प्रश्न / सच के सत्यापन का युग है
जनहित में जारी होने से पहले / खुद के तो बनो बंधु!
शिक्षक की दृष्टि समष्टिपरक होती है, वह एक विद्यार्थी को नहीं पूरी कक्षा को अध्ययन कराता है। यह समष्टिपरक चिंतन अशोक जी के नवगीतों में सर्वत्र व्याप्त है. वे श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित 'कर्मवाद' को अपने नवगीत में पिरोते हैं-
मन किसान जब लड़ा अकाल से / अकाल से
क्यारियाँ सँवर गयीं, कर्म की कुदाल से
फ़र्ज़ का न फावड़ा डरा / खेत हो गया हरा-भरा
विसंगतियों के अतिरेकी-छद्म चित्रण के खतरे के प्रति सजग अशोक जी इस विडंबना को बखूबी पहचानकर उसको चिन्हित करते हैं-
दोष दृश्य में है अथवा खुद दोष दृष्टि का है
गर्मी का मौसम, मौसम लग रहा वृष्टि का है
अर्थ देखकर अर्थ बदल डाले हैं शब्दों ने
विघटन लिए हुए यह कैसा सृजन सृष्टि का है
रोते हैं कामवर, नामवर मौज उड़ाते हैं
पोखर को सागर, सागर को पोखर कहते हैं
अशोक जी छंद को नवगीत का अपरिहार्य तत्व मानते हैं। साक्षी उनके नवगीत हैं। वे किसी छंद विशेष में गीत न रचकर, मात्रिक छंदों की जाती के विविध छंदों का प्रयोग विविध पंक्तियों में करते हैं। इससे कल बाँट भिन्न होने पर भी गीतों में छंद भंग नहीं होता। गीतकार समस्याओं का सम्यक समाधान निकलने का पक्षधर है-
समाधान कब निकल सके हैं / विधि-विधान उलझाने से
सीमित संसाधन हैं फिर भी / छोटा सही निदान लिखें
वह अतीतजीवी भी नहीं है-
आखिर कब तक धनिया-होरी / के किस्से दोहरायेंगे
कलम कह रही वर्तमान का / कोई नव गोदान लिखें।
फ़ारसी अशआर की तरह अशोक जी के नवगीतों के मुखड़े अपना मुहावरा आप बनाते हैं। उन्हें गीत से अलग स्वतंत्र रूप से भी पढ़कर अर्थ ग्रहण किया जा -
किसी परिधि में जिसे बाँधना / संभव नहीं हुआ
उस उन्मुक्त प्रेम को ढाई / अक्षर कहते लोग।
खुली खिड़कियाँ, खुले झरोखे / खुले हैं दरवाज़े
आम आदमी की किस्मत का / ताला नहीं खुला
आ गए जब से किलोमीटर / खो गए हैं मील पत्थर
अनुप्रास, उपमा, रूपक, विरोधाभास, यमक आदि अलंकारों का यथास्थान उपयोग इन नवगीतों को समृद्ध करता है। मौलिक बिम्ब, प्रतीक यत्र-तत्र शोभित हैं। अशोक जी के नवगीतों का वैशिष्ट्य उनकी लयात्मक कहन है-
उनसे बोलो / पर इतना सच है
अपनी बोली-बानी जैसे / घर के बूढ़े लोग
बँधी पांडुलिपियाँ हों जैसे / फटही गठरी में
वैसे पड़ी हुई हैं दादी / गिरही कोठरी में
वैसे ही बेकार हो गयी / दादा की काठी
घर के कोने पड़ी हुई हो / ज्यों टुटही लाठी
सुनो-ना सुनो, गुनो-ना गुनो / मन की मर्जी है
किस्सा और कहानी जैसे / घर के बूढ़े लोग
'काल है संक्रांति का' और 'सड़क पर' नवगीत संग्रहों में मैंने लोकगीतों छंदो के आधार पर नवगीत कहे हैं। अशोक जी भी इसी राह के राही हैं। वे लोकोक्तियों और मुहावरों को कच्ची मिट्टी की तरह उपयोग कर अपने गीतों में ढाल लेते हैं। लोकमंच का कालजयी खेल 'कठपुतली' अशोक जी के लिए मानवीय संवेदनाओं का जीवंत दस्तावेज बन जाता है -
बीत गए दिन लालटेन के / रहा न नौ मन तेल
आखिर कब तक खेलेंगे हम / कठपुतली का खेल
नेता बन बैठा दलगंजन / जमा रहा है धाक
गाजर खां ने भी दे डाली / हमको तीन तलाक
गौरैया सा जीवन अपना / सबके हाथ गुलेल
आखिर कब तक खेलेंगे हम / कठपुतली का खेल
शिव प्रसाद लाल जी ने ठीक ही आकलन किया है कि अशोक जी की काव्य प्रतिभा शास्त्रों की परिचारिका नहीं, खेत-खलिहानों से होकर निकली है। अशोक जी अपने गीतों में प्रयुक्त भाषा के शाहकार हैं। 'रट्टू तोता बहुत बने / अब अपने गढ़ो, शोध की इतिश्री नहीं करना / कुछ अभी संदर्भ छूटे हैं, तुम हमारे गाँव आकर क्या करोगे? / अब अहल्या सी शिलायें भी नहीं हैं, प्यार की छिछली नदी में मत उतरना / इस नदी में नीर कम कीचड़ बहुत है' जैसी पंक्तियाँ पाठक की जुबान पर चढ़ने का माद्दा रखती हैं।
'अनपढ़ रामकली' अशोक जी की पहचान स्थापित करनेवाला नवगीत है-
रूप-राशि की हुई अचानक / चर्चा गली-गली
जिस दिन से गयी आधुनिक / अनपढ़ रामकली
चाँदी लुढ़की, सोना लुढ़का / लुढ़क गया बाज़ार
रामकली की एक अदा पर / उछल पड़ा व्यापार
एकाएक बन गयी काजू / घर की मूँगफली
जिस दिन से गयी आधुनिक / अनपढ़ रामकली
धरम भूलने लगीं कंठियाँ / गये जनेऊ टूट
पान लिए मुस्कान मिली तो / मची प्रेम की लूट
ऊँची दूकानों को छोटी / गुमटी बहुत खली
जिस दिन से गयी आधुनिक / अनपढ़ रामकली
नवगीतों के कथ्याधारित विविध प्रकार इस संकलन में देखे जा सकते हैं। लक्षणा, व्यंजना तथा अमिधा तीनों अशोक जी के द्वारा यथास्थान प्रयोग की गयी हैं। 'अपने शब्द गढ़ो' का रचयिता गीत-नवगीत को भारत-पाकिस्तान नहीं, गंगा-जमुना मानता है। इन नवगीतों में पाठक के मन तक पहुँचने की काबलियत है।
*********
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
चलभाष - ९४२५१८३२४४, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com
१५.११.२०१९
***
गीत
*
जो चाहेंगे
वह कर लेंगे
छू लेंगे
कदम रोक ले
नहीं कहीं भी
कोई ऐसा पाश।
*
शब्द
निशब्द
देख तितली को
भरते नित्य उड़ान।
रुकें
चुकें झट
क्यों न जूझते
मुश्किल से इंसान?
घेर
भले लें
शशि को बादल
उड़ जाएँगे हार।
चटक
चाँदनी
फैला भू पर
दे धरती उजियार।
करे सलिल को
रजताभित मिल
बिछुड़ न जाए काश।
कदम रोक ले
नहीं कहीं भी
कोई ऐसा पाश।
*
दर्द
न व्यापे
हृदय न कांपे
छू ले नया वितान।
मोह
न रोके
द्रोह न झोंके
भट्टी में ईमान।
हो
सच व्यक्त
ज़िंदगी का हर
जयी तभी हो गीत।
हर्ष
प्रीत
उल्लास बिना
मर जाएगा नवगीत।
भूल विसंगति
सुना सुसंगति
जीवित हो तब लाश।
कदम रोक ले
नहीं कहीं भी
कोई ऐसा पाश।
१४-११-२०१९
***
गीत
'बादलों की कूचियों पर'
*
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
भूमि बीज जड़ पींड़ पर
छंद कहो डालियों पर
झूम रही टहनियों पर
नाच रही पत्तियों पर
मंत्रमुग्ध कलियों पर
क्यारियों-मालियों पर
गीत रचो बिजलियों पर
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
*
श्वेत-श्याम रंग मिले
लाल-नील-पीत खिले
रंग मिलते हैं गले
भोर हो या साँझ ढले
बरखा भिगा दे भले
सर्दियों में हाड़ गले
गर्मियों में गात जले
ख्वाब नयनों में पले
लट्टुओं की फिरकियों पर
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
*
अब न नफरत हो कहीं
हो अदावत भी नहीं
श्रम का शोषण भी नहीं
लोभ-लालच भी नहीं
रहे बरकत ही यहीं
हो सखावत ही यहीं
प्रेम-पोषण ही यहीं
हो लगावट ही यहीं
ज़िंदगी की झलकियों पर
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
***
गीत
मनुहार
.
कर रहे मनुहार कर जुड़ मान भी जा
प्रिये! झट मुड़ प्रेम को पहचान भी जा
जानता हूँ चाहती तू निकट आना
फ़ेरना मुँह है सुमुखि! केवल बहाना
बाँह में दे बाँह आ गलहार बन जा
बनाकर भुजहार मुझ में तू सिमट जा
अधर पर धर अधर आ रसलीन होले
बना दे रसखान मुझको श्वास बोले
द्वैत तज अद्वैत रसनिधि वरण कर ले
तार दे मुझको शुभांगी आप तर ले
१५.११.२०१७
***
कृति चर्चा:
गिरिमोहन गुरु के नवगीत : बनाते निज लीक-नवरीत
चर्चाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: गिरिमोहन गुरु के नवगीत, नवगीत संग्रह, गिरिमोहन गुरु, संवत २०६६, पृष्ठ ८८, १००/-, आकर डिमाई, आवरण पेपरबैक दोरंगी, मध्य प्रदेश तुलसी अकादमी ५० महाबली नगर, कोलार मार्ग, भोपाल, गीतकार संपर्क:शिव संकल्प साहित्य परिषद्, गृह निर्माण कोलोनी होशंगाबाद ]
*
विवेच्य कृति नर्मदांचल के वरिष्ठ साहित्यकार श्री गिरिमोहन गुरु के ६७ नवगीतों का सुवासित गीतगुच्छ है जिसमें से कुछ गीत पूर्व में 'मुझे नर्मदा कहो' शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुके हैं। इन गीतों का चयन श्री रामकृष्ण दीक्षित तथा श्री गिरिवर गिरि 'निर्मोही' ने किया है। नवगीत प्रवर्तकों में से एक डॉ. शंभुनाथ सिंह, नवगीत पुरोधा डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' आदि ९ हस्ताक्षरों की संस्तुति सज्जित यह संकलन गुरु जी के अवदान को प्रतिनिधित्व करता है। डॉ. दया कृष्ण विजयवर्गीय के अनुसार इन नवगीतों में 'शब्द की प्रच्छन्न ऊर्जा को कल्पना के विस्तृत नीलाकाश में उड़ाने की जो छान्दसिक अबाध गति है, वह गुरूजी को नवगीत का सशक्त हस्ताक्षर बना देती है।
डॉ. शंभुनाथ सिंह ने नवगीत के वर्ण्य विषयों में धर्म-आध्यात्म-दर्शन, प्रेम-श्रृंगार तथा प्रकृति चित्रण की वर्जना की थी। उन्होंने युगबोधजनित भावभूमि तथा सर्वत्र एक सी टीस जगानेवाले पारंपरिक छंद-विधान को नवगीत हेतु सर्वाधिक उपयुक्त पाया। महाप्राण निराला द्वारा 'नव गति, नव ले, ताल-छंद नव' के आव्हान के अगले कदम के रूप में यह तर्क सम्मत भी था किन्तु किसी विधा को आरम्भ से ही प्रतिबंधों में जकड़ने से उसका विकास और प्रगति प्रभावित होना भी स्वाभाविक है। एक विचार विशेष के प्रति प्रतिबद्धता ने प्रगतिशील कविता को जन सामान्य से काट कर विचार धारा समर्थक बुद्धिजीवियों तक सीमित कर दिया। नवगीत को इस परिणति से बचाकर, कल से कल तक सृजन सेतु बनाते हुए नव पीढ़ी तक पहुँचाने में जिन रचनाधर्मियों ने साहसपूर्वक निर्धारित की थाती को अनिर्धारित की भूमि पर स्थापित करते हुए अपनी मौलिक राह चुनी उनमें गुरु जी भी एक हैं।
नवगीत के शिल्प-विधान को आत्मसात करते हुए कथ्य के स्तर पर निज चिंतन प्रणीत विषयों और स्वस्फूर्त भंगिमाओं को माधुर्य और सौन्दर्य सहित अभिव्यंजित कर गुरु जी ने विधा को गौड़ और विधा में लिख रहे हस्ताक्षर को प्रमुख होने की प्रवृत्ति को चुनौती दी। जीवन में विरोधाभासजनित संत्रास की अभिव्यक्ति देखिए-
अश्रु जल में तैरते हैं / स्वप्न के शैवाल
नाववाले नाविकों के / हाथ है जाल
.
हम रहे शीतल भले ही / आग के आगे रहे
वह मिला प्रतिपल कि जिससे / उम्र भर भागे रहे
वैषम्य और विडंबना बयां करने का गुरु जी अपना ही अंदाज़ है-
घूरे पर पत्तलें / पत्तलों में औंधे दौने
एक तरफ हैं श्वान / दूसरी तरफ मनुज छौने
अनुभूति की ताजगी, अभिव्यक्ति की सादगी तथा सुंस्कृत भाषा की बानगी गुरु के नवगीतों की जान है। उनके नवगीत निराशा में आशा, बिखराव में सम्मिलन, अलगाव में संगठन और अनेकता में एकता की प्रतीति कर - करा पाते हैं-
लौटकर फिर आ रही निज थान पर / स्वयं बँधने कामना की गाय
हृदय बछड़े सा खड़ा है द्वार पर / एकटक सा देखता निरुपाय
हौसला भी एक निर्मम ग्वाल बन / दूध दुहने बाँधता है, छोड़ता है
छंद-विधान, बिम्ब, प्रतीक, फैंटेसी, मिथकीय चेतना, प्रकृति चित्रण, मूल्य-क्षरण, वैषम्य विरोध और कुंठा - निषेध आदि को शब्दित करते समय गुरु जी परंपरा की सनातनता का नव मूल्यों से समन्वय करते हैं।
कृषक के कंधे हुए कमजोर / हल से हल नहीं हो पा रही / हर बात
शहर की कृत्रिम सडक बेधड़क / गाँवों तक पहुँच / करने लगी उत्पात
गुरु जी के मौलिक बिम्बों-प्रतीकों की छटा देखे-
इमली के कोचर का गिरगिट दिखता है रंगदार
शाखा पर बैठी गौरैया दिखती है लाचार
.
एक अंधड़ ने किया / दंगा हुए सब वृक्ष नंगे
हो गए सब फूल ज्वर से ग्रस्त / केवल शूल चंगे
.
भैया बदले, भाभी बदले / देवर बदल गए
वक्त के तेवर बदल गए
.
काँपते सपेरों के हाथ साँपों के आगे
झुक रहे पुण्य, स्वयं माथ, पापों के आगे
सामाजिक वैषम्य की अभिव्यक्ति का अभिनव अंदाज़ देखिये-
चाँदी के ही चेहरों का स्वागत होता झुक-झुक
खड़ा भोज ही, बड़ा भोज, कहलाने को उत्सुक
फिर से हम पश्चिमी स्वप्न में स्यात लगे खोने
.
सपने में सोन मछरिया पकड़ी थी मैंने
किन्तु आँख खुलते ही
हाथ से फिसल गयी
.
इधर पीलिया उधर खिल गए
अमलतास के फूल
.
गुरु के नवगीतों का वैशिष्ट्य नूतन छ्न्दीय भंगिमाएँ भी है। वे शब्द चित्र चित्रित करने में प्रवीण हैं।
बूढ़ा चाँद जर्जरित पीपल
अधनंगा चौपाल
इमली के कोचर का गिरगिट
दिखता है रंगदार
नदी किनारेवाला मछुआ
रह-रह बुनता जाल
भूखे-प्यासे ढोर देखते
चरवाहों की और
भेड़ चरानेवाली, वन में
फायर ढूंढती भोर
मरना यदि मुश्किल है तो
जीना भी है जंजाल
गुरु जी नवगीतों में नवाशा के दीप जलाने में भी संकोच नहीं करते-
एक चिड़िया की चहक सुनकर
गीत पत्तों पर लगे छपने
.
स्वप्न ने अँगड़ाइयाँ लीं, सुग्बुआऎ आस
जिंदगी की बन गयी पहचान नूतन प्यास
छंदों का सधा होना उनके कोमल-कान्त पदावली सज्जित नवगीतों की माधुरी को गुलाबजली सुवास भी देता है। प्रेम, प्रकृति और संस्कृति की त्रिवेणी इन गीतों में सर्वत्र प्रवाहित है।
जग को अगर नचाना हो तो / पहले खुद नाचो, मौसम के अधरों पर / विश्वासी भाषा, प्यासों को देख, तृप्ति / लौटती सखेद, ले आया पावस के पत्र / मेघ डाकिया, अख़बारों से मिली सुचना / फिर बसंत आया जैसी अभिव्यक्तियाँ पाठक को गुनगुनाने के लिए प्रेरित करती हैं। नवगीतों को उसके उद्भव काल में निर्धारित प्रतिबंधों के खूँटे से बांधकर रखने के पक्षधरों को नवगीत की यह भावमुद्रा स्वीकारने में असहजता प्रतीत हो सकती है, कोई कट्टर हस्ताक्षर नाक-भौं सिकोड़ सकता है पर नवगीत संसद के दरवाजे पर दस्तक देते अनेक नवगीतकार इन नवगीतों का अनुसरण कर खुद को गौरवान्वित अनुभव करेंगे।
===
***
कृति चर्चा:
समीक्षा के बढ़ते चरण : गुरु साहित्य का वरण
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: समीक्षा के बढ़ते चरण, समालोचनात्मक संग्रह, डॉ. कृष्ण गोपाल मिश्र, वर्ष २०१५, पृष्ठ ११२, मूल्य २००/-, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, दोरंगी, प्रकाशक शिव संकल्प साहित्य परिषद, नर्मदापुरम, होशंगाबाद ४६१००१, चलभाष ९४२५१८९०४२, लेखक संपर्क: ए / २० बी कुंदन नगर, अवधपुरी, भोपाल चलभाष ९८९३१८९६४६]
*
समीक्षा के बढ़ते चरण नर्मदांचल के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार गिरिमोहन गुरु रचित हिंदी ग़ज़लों पर केंद्रित समीक्षात्मक लेखों का संग्रह है जिसका संपादन हिंदी प्राध्यापक व रचनाकार डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र ने किया है. डॉ. मिश्र के अतिरिक्त डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय, डॉ. लक्ष्मीकांत पाण्डेय, डॉ. रोहिताश्व अष्ठाना, डॉ. आर. पी. शर्मा 'महर्षि', डॉ. श्यामबिहारी श्रीवास्तव, श्री अरविन्द अवस्थी, डॉ. रामवल्लभ आचार्य, डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ, श्री युगेश शर्मा,श्री लक्ष्मण कपिल, श्री फैज़ रतलामी, श्री रमेश मनोहरा, श्री नर्मदा प्रसाद मालवीय, श्री नन्द कुमार मनोचा, डॉ. साधना संकल्प, श्री भास्कर सिंह माणिक, श्री भगवत दुबे, डॉ. विजय महादेव गाड़े, श्री बाबूलाल खण्डेलवाल, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', डॉ. भगवानदास जैन, श्री अशोक गीते, श्री मदनमोहन उपेन्द्र, प्रो. उदयभानु हंस, डॉ. हर्ष नारायण नीरव, श्री कैलाश आदमी द्वारा गुरु वांग्मय की विविध कृतियों पर लिखित आलेखों का यह संग्रह शोध छात्रों के लिए गागर में सागर की तरह संग्रहणीय और उपयोगी है. उक्त के अतिरिक्त डॉ. कृष्णपाल सिंह गौतम, डॉ. महेंद्र अग्रवाल, डॉ. गिरजाशंकर शर्मा, श्री बलराम शर्मा, श्री प्रकाश राजपुरी लिखित परिचयात्मक समीक्षात्मक लेख, परिचयात्मक काव्यांजलियाँ, साहित्यकारों के पत्रों आदि ने इस कृति की उपयोगिता वृद्धि की है. ये सभी रचनाकार वर्तमान हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं.
गुरु जी बहुविधायी सृजनात्मक क्षमता के धनी-धुनी साहित्यकार हैं. वे ग़ज़ल, दोहे, गीत, नवगीत, समीक्षा, चालीसा आदि क्षेत्रों में गत ५ दशकों से लगातार लिखते-छपते रहे हैं. कामराज विश्व विद्यालय मदुरै में 'गिरिमोहन गुरु और उनका काव्य' तथा बरकतउल्ला विश्वविद्यालय भोपाल में 'पं. गिरिमोहन गुरु के काव्य का समीक्षात्मक अध्ययन दो लघु शोध संपन्न हो चुके हैं. ८ अन्य शोध प्रबंधों में गुरु-साहित्य का संदर्भ दिया गया है. गुरु साहित्य पर केंद्रित १० अन्य संदर्भ इस कृति में वर्णित हैं. कृति के आरंभ में नवगीतकार, ग़ज़लकार, मुक्तककार, दोहाकार, क्षणिककर, भक्तिकाव्यकार के रूप में गुरु जी के मूल्यांकन करते उद्धरण संगृहीत किये गए है.
गुरु जी जैसे वरिष्ठ साहित्य शिल्पी के कार्य पर ३ पीढ़ियों की कलमें एक साथ चलें तो साहित्य मंथन से नि:सृत नवनीत सत्य-शिव-सुंदर के तरह हर जिज्ञासु के लिए ग्रहणीय होगा ही. विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों के ग्रंथालयों में ऐसी कृतियाँ होना ही चाहिए ताकि नव पीढ़ी उनके अवदान से परिचित होकर उन पर कार्य कर सके.
गिरि मोहन गुरु गिरि शिखर सम शोभित है आज
अगणित मन साम्राज्य है, श्वेत केश हैं ताज
दोहा लिख मोहा कभी, करी गीत रच प्रीत
ग़ज़ल फसल नित नवल ज्यों, नीत नयी नवगीत
भक्ति काव्य रचकर छुआ, एक नया आयाम
सम्मानित सम्मान है, हाथ आपका थाम
संजीवित कर साधना, मन्वन्तर तक नाम
चर्चित हो ऐसा किया, तुहिन बिन्दुवत काम
'सलिल' कहे अभिषेक कर, हों शतायु तल्लीन
सृजन कर्म अविकल करें, मौलोक और नवीन
१५.११.२०१५
***
गीत:
*
मैं नहीं....
*
मैं नहीं पीछे हटूँगा,
ना चुनौती से डरूँगा.
जानता हूँ, समय से पहले
न मारे से मरूँगा.....
*
जूझना ही ज़िंदगी है,
बूझना ही बंदगी है.
समस्याएँ जटिल हैं,
हल सूझना पाबंदगी है.
तुम सहायक हो न हो
खातिर तुम्हारी मैं लडूँगा.
जानता हूँ, समय से पहले
न मारे से मरूँगा.....
*
राह के रोड़े हटाना,
मुझे लगता है सुहाना.
कोशिशों का धनी हूँ मैं,
शूल वरकर, फूल तुम पर
वार निष्कंटक करूँगा.
जानता हूँ, समय से पहले
न मारे से मरूँगा.....
*
जो चला है, वह गिरा है,
जो गिरा है, वह उठा है.
जो उठा, आगे बढ़ा है-
उसी ने कल को गढ़ा है.
विगत से आगत तलक
अनथक तुम्हारे सँग चलूँगा.
जानता हूँ, समय से पहले
न मारे से मरूँगा.....
१५.११.२०१०

* 

रविवार, 19 अक्टूबर 2025

अक्टूबर १९, मुक्तिका, रैप, आरती, लक्ष्मी, नर्मदा, रूप चतुर्दशी, एथेना, दोहा

सलिल सृजन अक्टूबर १९  
*
एक रचना
रूप चतुर्दशी, रूप सँवारे
रूप सँवारें अंतर्मन का
रूप निखारें देहज तन का
देहद को बिसराएँ न किंचित्
रूप अरूप भव्य जीवन का।
रूप चौथ कहती हैं हमसे
हो विद्रूप न रूप सनातन
घर-घर में फिर हो न विभाजन
हो मतभेद बैठ-मिल समझें
हो मनभेद न कहीं विखंडन।
शारद-रमा-उमा विधि-हरि-हर 
दर्शन दें, हम भव जाएँ तर
भू पर स्वर्ग बसा पाएँ मिल
विहँस उठे हर आँगन-घर 
-दर।
जीव-जंतु हर जड़ अरु चेतन
सबमें बसता है अनिकेतन
जिएँ और जीने दें सबको
रूप चौथ पर दमके तन-मन।
१९.१०.२०२५
०००
गीत
नरक चौदस
.
मनुज की जय
नरक चौदस
.
चल मिटा तम
मिल मिटा गम
विमल हो मन
नयन हों नम
पुलकती खिल
विहँस चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
घट सके दुःख
बढ़ सके सुख
सुरभि गंधित
दमकता मुख
धरणि पर हो
अमर चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
विषमता हर
सुसमता वर
दनुजता को
मनुजता कर
तब मने नित
विजय चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
मटकना मत
भटकना मत
अगर चोटिल
चटकना मत
नियम-संयम
वरित चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
बहक बादल
मुदित मादल
चरण नर्तित
बदन छागल
नरमदा मन
'सलिल' चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
००० 
नरक चौदस / रूप चतुर्दशी पर विशेष रचना:                      
गीत  
संजीव 'सलिल'
*
असुर स्वर्ग को नरक बनाते
उनका मरण बने त्यौहार.
देव सदृश वे नर पुजते जो
दीनों का करते उपकार..

अहम्, मोह, आलस्य, क्रोध, भय,
लोभ, स्वार्थ, हिंसा, छल, दुःख,
परपीड़ा, अधर्म, निर्दयता,
अनाचार दे जिसको सुख..

था बलिष्ठ-अत्याचारी
अधिपतियों से लड़ जाता था.
हरा-मार रानी-कुमारियों को
निज दास बनाता था..

बंदीगृह था नरक सरीखा
नरकासुर पाया था नाम.
कृष्ण लड़े, उसका वधकर
पाया जग-वंदन कीर्ति, सुनाम..

राजमहिषियाँ कृष्णाश्रय में
पटरानी बन हँसी-खिलीं.
कहा 'नरक चौदस' इस तिथि को
जनगण को थी मुक्ति मिली..

नगर-ग्राम, घर-द्वार स्वच्छकर
निर्मल तन-मन कर हरषे.
ऐसा लगा कि स्वर्ग सम्पदा
धराधाम पर खुद बरसे..

'रूप चतुर्दशी' पर्व मनाया
सबने एक साथ मिलकर.
आओ हम भी पर्व मनाएँ
दें प्रकाश दीपक बनकर..

'सलिल' सार्थक जीवन तब ही
जब औरों के कष्ट हरें.
एक-दूजे के सुख-दुःख बाँटें
इस धरती को स्वर्ग करें..
४.११.२०१६
******************* 
ग्रीस की सरस्वती एथेना

एथेना ज्ञान, हस्तकला और युद्ध कला से जुड़ी हुई एक प्राचीन ग्रीक देवी है। उसे ग्रीस में नगर राज्यों का संरक्षक माना जाता था। एथेंस शहर से उसे सर्वाधिक प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। एथेना को शिरस्त्राण (हेलमेट) पहने हुए, भाला पकड़े हुए दिखाया जाता ह। उसके प्रमुख प्रतीकों में उल्लू, जैतून का वृक्ष, साँप और गार्गोरियन हैं।एथेना के मंदिर शहर के मध्य भाग में किले वाले एक्रोपोलिस के ऊपर होते थे। एथेना को शिल्प बुनाई के संरक्षक माना जाता है। वह दुर्गा की तरह युद्ध की देवी थी जो सैनिकों को युद्ध में ले जाती थी। एथेंस में ग्रीष्म मध्य में हेकाटोम्बायोन के माह में पानथेनिया पर्व एथेना को लिए मनाया जाता था। यह ग्राहकों की सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार था। ग्रीक पौराणिक कथाओं के अनुसार उसका जन्म जीउस के सिर से हुआ था। एथेंस के संरक्षण हेतु प्रतियोगिता में उसने पोसिडॉन को शुभकामना दी थी। वह चिर कुँआरी (पार्थेनोस, द वर्जिन) मानी जाती थी। एक पुरातन अटारी मिथक के अनुसार ग्रीक देवता हेफेस्टस ने उसके साथ बलात्कार करने की असफल कोशिश की। फलस्वरूप गर्भवती हुई गाय ने ऐरिचोनियस (महत्वपूर्ण ग्रीक नायक) को जन्म दिया। वीर प्रयासों की संरक्षक देवी ऐथेना ने पियर्सस, हेराक्लेस, बेलेरोफॉन व जेन को सहायता प्रदान की थी। एफ्रोडाइट, होरा और ऐथेना के झगड़े को कारण ट्रोप हुआ। यूरोप के आदिकवि होमर के महाकाव्य इलियड में ऐथेना आचेन्स की सहायता करती है। होमर को दूसरे महाकाव्य ओडिसी में वह नायक ओडीसियस की दिव्य परामर्शदाता है। रोमन कवि ओविड ने एथेना अरचाने को मकड़ी में तथा अपने मंदिर में पोसाइडन द्वारा बलात्कार के गवाह मेडुसा को एक गौ रक्षक के रूप में बदल देती है। पुनर्जागरण के बाद एथेना ज्ञान और शास्त्रीय शिक्षा का अंतरराष्ट्रीय प्रतीक मानी गई। पश्चिमी कलाकारों और अलगाववादियों ने अक्सर एथेना का उपयोग स्वतंत्रता और लोकतंत्र के प्रतीक के रूप में किया है।
ooo

मुक्तिका
लगने लगे हैं प्यार के बाजार इन दिनों
*
वज़न - २२१२ २२१२ २२१२ १२
बह्र - बह्रे रजज़ मुसम्मन
अर्कान - मुस्तफइलुन मुस्तफइलुन मुस्तफइलुन इलुन
*
लगने लगे हैं प्यार के बाजार इन दिनों।
चुभने लगे हैं फूल ज्यों हों खार इन दिनों।।
जुमला कहेंगे जीत इलेक्शन, वो वायदा।
मिलने लगे हैं रात-दिन सरकार इन दिनों।।
इसरार की आदत न थी पर क्या करें हुज़ूर।
इकरार का हैं कर रहे व्यापार इन दिनों।।
पड़ते गले वो, बोलते हैं मिल रहे गले।
करते छिपा के पीठ में वो वार इन दिनों।।
नजरें मिला के फेरते हैं नजर आप क्यों?
चाहा, हुए क्यों चाह से बेजार इन दिनों?
१९.१०.२०२३
***
लेख : मुक्तिका क्या है?
*
मुक्तिका वह पद्य रचना है जिसका-
१. प्रथम, द्वितीय तथा उसके बाद हर सम या दूसरा पद समान पदांत तथा तुकांत युक्त होता है।
२. हर पद का पदभार हिंदी वर्ण या मात्रा गणना के अनुसार समान होता है। तदनुसार इसे वार्णिक मुक्तिका या मात्रिक मुक्तिका कहा जाता है। उच्चार के अनुसार समान पदभार रखे जाकर भी मुक्तिका लिखी जा सकती है।
३. मुक्तिका का कोई एक या कुछ निश्चित छंद नहीं हैं। इसे जिस छंद में रचा जाता है उसके शैल्पिक नियमों का पालन किया जाता है।
४. हाइकु मुक्तिका में हाइकु के सामान्यतः प्रचलित ५-७-५ मात्राओं या उच्चार के शिल्प का पालन किया जाता है, दोहा मुक्तिका में दोहा, सोरठा मुक्तिका में सोरठा, रोला मुक्तिका में रोला छंदों के नियमों का पालन किया जाता है। ५-७-५ वर्णों को लेकर भी हाइकु मुक्तिका लिखी जाती है।
५. मुक्तिका का प्रधान लक्षण यह है कि उसकी हर द्विपदी अलग-भाव-भूमि या विषय से सम्बद्ध होती है अर्थात अपने आपमें मुक्त होती है। एक द्विपदी का अन्य द्विपदीयों से सामान्यतः कोई सम्बन्ध नहीं होता।
६. किसी विषय विशेष पर केन्द्रित मुक्तिका की द्विपदियाँ केन्द्रीय विषय के आस-पास होने पर भी आपस में असम्बद्ध होती हैं।
७. मुक्तिका मूलत: हिन्दी व्याकरण-पिंगल नियमों का अनुपालन करते हुए लिखी गयी ग़ज़ल है। इसे अनुगीत, तेवरी, गीतिका, सजल, पूर्णिका आदि भी कहा गया है।
गीतिका हिन्दी का एक छंद विशेष है। अतः, गीत के निकट होने पर भी इसे गीतिका कहना उचित नहीं है.
तेवरी शोषण और विद्रूपताओं के विरोध में विद्रोह और परिवर्तन की भाव -भूमि पर रची जाती है किन्तु शिल्प ग़ज़ल का शिल्प का ही है।
हिन्दी ग़ज़ल के विविध रूपों में से एक मुक्तिका है। मुक्तिका उर्दू गजल की किसी बहर पर भी आधारित हो सकती है किन्तु यह उर्दू ग़ज़ल की तरह चंद लय-खंडों (बहरों) तक सीमित नहीं है। उर्दू लय खण्डों की पदभार गणना तथा पदांत-तुकांत, फारसी नहीं हिंदी व्याकरण-पिंगल के अनुसार रखे जाते हैं।
१९-१०-२०२१
***
रैप सॉन्ग -
*
हल्ला-गुल्ला,
शोर-शराबा,
मस्ती-मौज,
खेल-कूद,
मनरंजन,
डेटिंग करती फ़ौज.
लेना-देना,
बेच-खरीदी,
कर उपभोग.
नेता-टी.व्ही.
कहते जीवन-लक्ष्य यही.
कोई न कहता
लगन-परिश्रम,
कर कोशिश.
संयम-नियम,
आत्म अनुशासन,
राह वरो.
तज उधार,
कर न्यून खर्च
कुछ बचत करो.
उत्पादन से
मिले सफ़लता
वही करो.
उत्पादन कर मुक्त
लगे कर उपभोगों पर.
नहीं योग पर
रोक लगे
केवल रोगों पर.
तब सम्भव
रावण मर जाए.
तब सम्भव
दीपक जल पाए.
***
दोहा मुक्तिका
*
नव हिलोर उल्लास की, बनकर सृजन-उमंग.
शब्द लहर के साथ बह, गहती भाव-तरंग .
*
हिय-हुलास झट उमगकर, नयन-ज्योति के संग.
तिमिर हरे उजियार जग, देख सितारे दंग.
*
कालकूट को कंठ में, सिर धारे शिव गंग.
चंद मंद मुस्का रहा, चुप भयभीत अनंग.
*
रति-पति की गति देख हँस, शिवा दे रहीं भंग.
बम भोले बम-बम कहें, बजा रहे गण चंग.
*
रंग भंग में पड़ गया, हुआ रंग में भंग.
फागुन में सावन घटा, छाई बजा मृदंग.
*
चम-चम चमकी दामिनी, मेघ घटा लग अंग.
बरसी वसुधा को करे, पवन छेड़कर तंग.
*
मूषक-नाग-मयूर, सिंह-वृषभ न करते जंग.
गणपति मोदक भोग पा, नाच जमाते रंग.
१९.१०.२०१८, salil.sanjiv@mail.com
***
नवगीत:
लछमी मैया!
पैर तुम्हारे
पूज न पाऊँ
*
तुम कुबेर की
कोठी का
जब नूर हो गयीं
मजदूरों की
कुटिया से तब
दूर हो गयीं
हारा कोशिश कर
पल भर
दीदार न पाऊँ
*
लाई-बताशा
मुठ्ठी भर ले
भोग लगाया
मृण्मय दीपक
तम हरने
टिम-टिम जल पाया
नहीं जानता
पूजन, भजन
किस तरह गाऊँ?
*
सोना-चाँदी
हीरे-मोती
तुम्हें सुहाते
फल-मेवा
मिष्ठान्न-पटाखे
खूब लुभाते
माल विदेशी
घाटा देशी
विवश चुकाऊँ
*
तेज रौशनी
चुँधियाती
आँखें क्या देखें?
न्यून उजाला
धुँधलाती
आँखें ना लेखें
महलों की
परछाईं से भी
कुटी बचाऊँ
*
कैद विदेशी
बैंकों में कर
नेता बैठे
दबा तिजोरी में
व्यवसायी
खूबई ऐंठे
पलक पाँवड़े बिछा
राह हेरूँ
पछताऊँ
*
कवि मजदूर
न फूटी आँखों
तुम्हें सुहाते
श्रद्धा सहित
तुम्हें मस्तक
हर बरस नवाते
गृह लक्ष्मी
नन्हें-मुन्नों को
क्या समझाऊँ?
***
आरती क्यों और कैसे?
*
ईश्वर के आव्हान तथा पूजन के पश्चात् भगवान की आरती, नैवेद्य (भोग) समर्पण तथा अंत में विसर्जन किया जाता है। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। आरती करने ही नहीं, इसमें सम्मिलित होंने से भी पुण्य मिलता है। देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। आरती का गायन स्पष्ट, शुद्ध तथा उच्च स्वर से किया जाता है। इस मध्य शंख, मृदंग, ढोल, नगाड़े , घड़ियाल, मंजीरे, मटका आदि मंगल वाद्य बजाकर जयकारा लगाया जाना चाहिए।
आरती हेतु शुभ पात्र में विषम संख्या (1, 3, 5 या 7) में रुई या कपास से बनी बत्तियां रखकर गाय के दूध से निर्मित शुद्ध घी भरें। दीप-बाती जलाएं। एक थाली या तश्तरी में अक्षत (चांवल) के दाने रखकर उस पर आरती रखें। आरती का जल, चन्दन, रोली, हल्दी तथा पुष्प से पूजन करें। आरती को तीन या पाँच बार घड़ी के काँटों की दिशा में गोलाकार तथा अर्ध गोलाकार घुमाएँ। आरती गायन पूर्ण होने तक यह क्रम जरी रहे। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। आरती पूर्ण होने पर थाली में अक्षत पर कपूर रखकर जलाएं तथा कपूर से आरती करते हुए मन्त्र पढ़ें:
कर्पूर गौरं करुणावतारं, संसारसारं भुजगेन्द्रहारं।
सदावसन्तं हृदयारवंदे, भवं भवानी सहितं नमामि।।
पांच बत्तियों से आरती को पंच प्रदीप या पंचारती कहते हैं। यह शरीर के पंच-प्राणों या पञ्च तत्वों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव पंच-प्राणों (पूर्ण चेतना) से ईश्वर को पुकारने का हो। दीप-ज्योति जीवात्मा की प्रतीक है। आरती करते समय ज्योति का बुझना अशुभ, अमंगलसूचक होता है। आरती पूर्ण होने पर घड़ी के काँटों की दिशा में अपने स्थान पट तीन परिक्रमा करते हुए मन्त्र पढ़ें:
यानि कानि च पापानि, जन्मान्तर कृतानि च।
तानि-तानि प्रदक्ष्यंती, प्रदक्षिणां पदे-पदे।।
अब आरती पर से तीन बार जल घुमाकर पृथ्वी पर छोड़ें। आरती प्रभु की प्रतिमा के समीप लेजाकर दाहिने हाथ से प्रभु को आरती दें। अंत में स्वयं आरती लें तथा सभी उपस्थितों को आरती दें। आरती देने-लेने के लिए दीप-ज्योति के निकट कुछ क्षण हथेली रखकर सिर तथा चेहरे पर फिराएं तथा दंडवत प्रणाम करें। सामान्यतः आरती लेते समय थाली में कुछ धन रखा जाता है जिसे पुरोहित या पुजारी ग्रहण करता है। भाव यह हो कि दीप की ऊर्जा हमारी अंतरात्मा को जागृत करे तथा ज्योति के प्रकाश से हमारा चेहरा दमकता रहे।
सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं।
कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं।
यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंतिहै कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।
जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।
दीपमालिका का हर दीपक,अमल-विमल यश-कीर्ति धवल दे
शक्ति-शारदा-लक्ष्मी मैया, 'सलिल' सौख्य-संतोष नवल दे
***
पुस्तक समीक्षा-- काल है संक्रांति का...डा. श्याम गुप्त
पुस्तक समीक्षा
समीक्ष्य कृति- काल है संक्रांति का...रचनाकार-आचार्य संजीव वर्मा सलिल...संस्करण-२०१६..मूल्य -२००/- ..आवरण –मयंक वर्मा..रेखांकन..अनुप्रिया..प्रकाशक-समन्वय प्रकाशन अभियान, जबलपुर.. समीक्षक—डा श्यामगुप्त |
साहित्य जगत में समन्वय के साहित्यकार, कवि हैं आचार्य संजीव वर्मा सलिल | प्रस्तुत कृति ‘काल है संक्रांति का’ की सार्थकता का प्राकट्य मुखपृष्ठ एवं शीर्षक से ही होजाता है | वास्तव में ही यह संक्रांति-काल है, जब सभी जन व वर्ग भ्रमित अवस्था में हैं | एक और अंग्रेज़ी का वर्चस्व जहां चमक-धमक वाली विदेशी संस्कृति दूर से सुहानी लगती है; दूसरी और हिन्दी –हिन्दुस्तान का, भारतीय स्व संस्कृति का प्रसार जो विदेश बसे को भी अपनी मिट्टी की और खींचता है | या तो अँगरेज़ होजाओ या भारतीय –परन्तु समन्वय ही उचित पंथ होता है हर युग में जो विद्वानों, साहित्यकारों को ही करना होता है | सलिल जी की साहित्यिक समन्वयक दृष्टि का एक उदहारण प्रस्तुत है ---गीत अगीत प्रगीत न जानें / अशुभ भुला शुभ को पहचानें |
माँ शारदा से पहले, ब्रह्म रूप में चित्रगुप्त की वन्दना भी नवीनता है | कवि की हिन्दी भक्ति वन्दना में भी छलकती है –‘हिन्दी हो भावी जग वाणी / जय जय वीणापाणी’ |
यह कृति लगभग १४ वर्षों के लम्बे अंतराल में प्रस्तुत हुई है | इस काल में कितनी विधाएं आईं–गईं, कितनी साहित्यिक गुटबाजी रही, सलिल मौन दृष्टा की भांति गहन दृष्टि से देखने के साथ साथ उसकी जड़ों को, विभिन्न विभागों को अपने काव्य व साहित्य-शास्त्रीय कृतित्वों से पोषण दे रहे थे, जिसका प्रतिफल है यह कृति|
कितना दुष्कर है बहते सलिल को पन्ने पर रोकना उकेरना | समीक्षा लिखते समय मेरा यही भाव बनता था जिसे मैंने संक्षिप्त में काव्य-रूपी समीक्षा में इस प्रकार व्यक्त किया है-
“शब्द सा है मर्म जिसमें, अर्थ सा शुचि कर्म जिसमें |
साहित्य की शुचि साधना जो, भाव का नव धर्म जिसमें |
उस सलिल को चाहता है, चार शब्दों में पिरोना ||”
सूर्य है प्रतीक संक्रांति का, आशा के प्रकाश का, काल की गति का, प्रगति का | अतः सूर्य के प्रतीक पर कई रचनाएँ हैं | ‘जगो सूर्य लेकर आता है अच्छे दिन’ ( -जगो सूर्य आता है ) में आशावाद है, नवोन्मेष है जो उन्नाकी समस्त साहित्य में व इस कृति में सर्वत्र परिलक्षित है | ‘मानव की आशा तुम, कोशिश की भाषा तुम’ (-उगना नित) ‘छंट गए हैं फूट के बादल, पतंगें एकता की उडाओ”(-आओ भी सूरज ) |
पुरुषार्थ युत मानव, शौर्य के प्रतीक सूर्य की भांति प्रत्येक स्थित में सम रहता है | ‘उग रहे या ढल रहे तुम, कान्त प्रतिपल रहे सूरज’ तथा ‘आस का दीपक जला हम, पूजते हैं उठ सवेरे, पालते या पल रहे तुम ‘(-उग रहे या ढल रहे ) से प्रकृति के पोषण-चक्र, देव-मनुज नाते का कवि हमें ज्ञान कराता है | शिक्षा की महत्ता – ‘सूरज बबुआ’ में, सम्पाती व हनुमान की पौराणिक कथाओं के संज्ञान से इतिहास की भूलों को सुधारकर लगातार उद्योग व हार न मानने की प्रेरणा दी गयी है ‘छुएँ सूरज’ रचना में | शीर्षक रचना ‘काल है संक्रांति का’ प्रयाण गीत है, ‘काल है संक्रांति का, तुम मत थको सूरज’ ..सूर्य व्यंजनात्मक भाव में मानवता के पौरुष का,ज्ञान का व प्रगति का प्रतीक है जिसमें चरैवेति-चरैवेति का सन्देश निहित है | यह सूर्य स्वयं कवि भी होसकता है | “
युवा पीढ़ी को स्व-संस्कृति का ज्ञान नहीं है कवि व्यथित हो स्पष्टोक्ति में कह उठता है –
‘जड़ गँवा जड़ युवापीढी, काटती है झाड, प्रथा की चूनर न भाती, फैकती है फाड़ /
स्वभाषा भूल इंग्लिश से लड़ाती लाड |’
यदि हम शुभ चाहते हैं तो सभी जीवों पर दया करें एवं सामाजिक एकता व परमार्थ भाव अपनाएं | कवि व्यंजनात्मक भाव में कहता है ---‘शहद चाहैं, पाल माखी |’ (-उठो पाखी )| देश में भिन्न भिन्न नीतियों की राजनीति पर भी कवि स्पष्ट रूप से तंज करता है..’धारा ३७० बनी रहेगी क्या’/ काशी मथुरा अवध विवाद मिटेंगे क्या’ | ‘ओबामा आते’ में आज के राजनीतिक-व्यवहार पर प्रहार है |
अंतरिक्ष पर तो मानव जारहा है परन्तु क्या वह पृथ्वी की समस्याओं का समाधान कर पाया है यह प्रश्न उठाते हुए सलिल जी कहते हैं..’मंगल छू / भू के मंगल का क्या होगा |’ ’सिंधी गीत ‘सुन्दरिये मुंदरिये ’...बुन्देली लोकगीत ‘मिलती कायं नें’ कवि के समन्वयता भाव की ही अभिव्यक्ति है |
प्रकृति, पर्यावरण, नदी-प्रदूषण, मानव आचरण से चिंतित कवि कह उठता है –
‘कर पूजा पाखण्ड हम / कचरा देते डाल |..मैली होकर माँ नदी / कैसे हो खुशहाल |’
‘जब लौं आग’ में कवि उत्तिष्ठ जागृत का सन्देश देता है कि हमारी अज्ञानता ही हमारे दुखों का कारण है-
‘मोड़ तोड़ हम फसल उगा रये/ लूट रहे व्यौपार |जागो बनो मशाल नहीं तो / घेरे तुमें अन्धेरा |
धन व शक्ति के दुरुपयोग एवं वे दुरुपयोग क्यों कर पा रहे हैं, ज्ञानी पुरुषों की अकर्मण्यता के कारण | सलिल जी कहते हैं हैं---‘रुपया जिसके पास है / उद्धव का संन्यास है /सूर्य ग्रहण खग्रास है |’ (-खासों में ख़ास है )
पेशावर के नरपिशाच..तुम बन्दूक चलाओ तो..मैं लडूंगा ..आदि रचनाओं में शौर्य के स्वर हैं| छद्म समाजवाद की भी खबर ली गयी है –‘लड़वाकर / मामला सुलझाए समाजवादी’ |
पुरखों पूर्वजों के स्मरण बिना कौन उन्नत हो पाया है, अतः सभी पूर्व, वर्त्तमान, प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष पुरखों , पितृजनों के एवं उनकी सीख का स्मरण में नवता का एक और पृष्ठ है ‘स्मरण’ रचना में –
‘काया माया छाया धारी / जिन्हें जपें विधि हरि त्रिपुरारी’
‘कलम थमाकर कर में बोले / धन यश नहीं सृजन तब पथ हो |’ क्योंकि यश व पुरस्कार की आकांक्षा श्रेष्ठ सृजन से वंचित रखती है | नारी-शक्ति का समर्पण का वर्णन करते हुए सलिल जी का कथन है –
‘बनी अग्रजा या अनुजा तुम / तुमने जीवन सरस बनाया ‘ (-समर्पण ) | मिली दिहाड़ी रचना में दैनिक वेतन-भोगी की व्यथा उत्कीर्णित है |
‘लेटा हूँ ‘ रचना में श्रृंगार की झलक के साथ पुरुष मन की विभिन्न भावनाओं, विकृत इच्छाओं का वर्णन है | इस बहाने झाडूवाली से लेकर धार्मिक स्थल, राजनीति, कलाक्षेत्र, दफ्तर प्रत्येक स्थल पर नारी-शोषण की संभावना का चित्र उकेरा गया है | ‘राम बचाए‘ में जन मानस के व्यवहार की भेड़चाल का वर्णन है –‘मॉल जारहे माल लुटाने / क्यों न भीड़ से भिन्न हुए हम’| अनियंत्रित विकास की आपदाएं ‘हाथ में मोबाइल’ में स्पष्ट की गयी हैं|
‘मंजिल आकर’ एवं ‘खुशियों की मछली’ नवगीत के मूल दोष भाव-सम्प्रेषण की अस्पष्टता के उदाहरण हैं | वहीं आजकल समय बिताने हेतु, कुछ होरहा है यह दिखाने हेतु, साहित्य एवं हर संस्था में होने वाले विभिन्न विषयों पर सम्मेलनों, वक्तव्यों, गोष्ठियों, चर्चाओं की निरर्थकता पर कटाक्ष है—‘दिशा न दर्शन’ रचना में ...
‘क्यों आये हैं / क्या करना है |..ज्ञात न पर / चर्चा करना है |’
राजनैतिक गुलामी से मुक्त होने पर भी अभी हम सांस्कृतिक रूप से स्वतंत्र नहीं हुए हैं | वह वास्तविक आजादी कब मिलेगी, कृतिकार के अनुसार, इसके लिए मानव बनना अत्यावश्यक है ....
‘सुर न असुर हम आदम यदि बन जायेंगे इंसान, स्वर्ग तभी होपायेगा धरती पर आबाद |’
सार्वजनिक जीवन व मानव आचरण में सौम्यता, समन्वयता, मध्यम मार्ग की आशा की गयी है ताकि अतिरेकता, अति-विकास, अति-भौतिक उन्नति के कारण प्रकृति, व्यक्ति व समाज का व्यबहार घातक न होजाय-
‘पर्वत गरजे, सागर डोले / टूट न जाएँ दीवारें / दरक न पायें दीवारे |’
इस प्रकार कृति का भावपक्ष सबल है | कलापक्ष की दृष्टि से देखें तो जैसा कवि ने स्वयं कहा है ‘गीत-नवगीत‘ अर्थात सभी गीत ही हैं | कई रचनाएँ तो अगीत-विधा की हैं –‘अगीत-गीत’ हैं| वस्तुतः इस कृति को ‘गीत-अगीत-नवगीत संग्रह’ कहना चाहिए | सलिल जी काव्य में इन सब छंदों-विभेदों के द्वन्द नहीं मानते अपितु एक समन्वयक दृष्टि रखते हैं, जैसा उन्होंने स्वयम कहा है- ‘कथन’ रचना में --
‘गीत अगीत प्रगीत न जानें / अशुभ भुला शुभ को पहचाने |’
‘छंद से अनुबंध दिखता या न दिखता / किन्तु बन आरोह या अवरोह पलता |’
‘विरामों से पंक्तियाँ नव बना / मत कह, छंद हीना / नयी कविता है सिरजनी |’
सलिल जी लक्षण शास्त्री हैं | साहित्य, छंद आदि के प्रत्येक भाव, भाग-विभाग का व्यापक ज्ञान व वर्णन कृति में प्रतुत किया गया है| विभिन्न छंदों, मूलतः सनातन छंदों –दोहा, सोरठा, हरिगीतिका, आल्ह छंद, लोकधुनों के आधार पर नवगीत रचना दुष्कर कार्य है | वस्तुतः ये विशिष्ट नवगीत हैं, प्रायः रचे जाने वाले अस्पष्ट सन्देश वाले तोड़ मरोड़कर लिखे जाने वाले नवगीत नहीं हैं | सोरठा पर आधारित एक गीत देखें-
‘आप न कहता हाल, भले रहे दिल सिसकता |
करता नहीं ख़याल, नयन कौन सा फड़कता ||’
कृति की भाषा सरल, सुग्राह्य, शुद्ध खड़ीबोली हिन्दी है | विषय, स्थान व आवश्यकतानुसार भाव-सम्प्रेषण हेतु देशज व बुन्देली का भी प्रयोग किया गया है- यथा ‘मिलती कायं नें ऊंची वारी/ कुरसी हमकों गुइयाँ |’ उर्दू के गज़लात्मक गीत का एक उदाहरण देखें—
‘ख़त्म करना अदावत है / बदल देना रवायत है /ज़िंदगी गर नफासत है / दीन-दुनिया सलामत है |’
अधिकाँश रचनाओं में प्रायः उपदेशात्मक शैली का प्रयोग किया गया है | वर्णानात्मक व व्यंगात्मक शैली का भी यथास्थान प्रयोग है | कथ्य-शैली मूलतः अभिधात्मक शब्द भाव होते हुए भी अर्थ-व्यंजना युक्त है | एक व्यंजना देखिये –‘अर्पित शब्द हार उनको / जिनमें मुस्काता रक्षाबंधन |’ एक लक्षणा का भाव देखें –
‘राधा हो या आराधा सत शिव / उषा सदृश्य कल्पना सुन्दर |’
विविध अलंकारों की छटा सर्वत्र विकिरित है –‘अनहद अक्षय अजर अमर है /अमित अभय अविजित अविनाशी |’ में अनुप्रास का सौन्दर्य है | ‘प्रथा की चूनर न भाती ..’ व उनके पद सरोज में अर्पित / कुमुद कमल सम आखर मनका |’ में उपमा दर्शनीय है | ‘नेता अफसर दुर्योधन, जज वकील धृतराष्ट्र..’ में रूपक की छटा है तो ‘कुमुद कमल सम आखर मनका’ में श्लेष अलंकार है | उपदेशात्मक शैली में रसों की संभावना कम ही रहती है तथापि ओबामा आते, मिलती कायं नें, लेटा हूँ में हास्य व श्रृंगार का प्रयोग है | ‘कलश नहीं आधार बनें हम..’ में प्रतीक व ‘आखें रहते भी सूर’ व ‘पौवारह’ कहावतों के उदाहरण हैं | ‘गोदी चढ़ा उंगलियाँ थामी/ दौड़ा गिरा उठाया तत्क्षण ‘.. में चित्रमय विम्ब-विधान का सौन्दर्य दृष्टिगत है |
पुस्तक आवरण के मोड़-पृष्ठ पर सलिल जी के प्रति विद्वानों की राय एवं आवरण व सज्जाकारों के चित्र, आचार्य राजशेखर की काव्य-मीमांसा का उद्धरण एवं स्वरचित दोहे भी अभिनव प्रयोग हैं | अतः वस्तुपरक व शिल्प सौन्दर्य के समन्वित दृष्टि भाव से ‘काल है संक्रांति का’ एक सफल कृति है | इसके लिए श्री संजीव वर्मा सलिल जी बधाई के पात्र हैं |
. ----डा श्याम गुप्त
लखनऊ . दि.११.१०.२०१६
विजय दशमी सुश्यानिदी , के-३४८, आशियाना , लखनऊ-२२६०१२.. मो.९४१५१५६४६४
***
मुक्तक कविता की जय कर रहे, अलंकार रह मौन
छंद पूछता,कद्रदां हमसे बढ़कर कौन?
रस परबस होकर लगे, गले न छोड़े हाथ
सलिल-धार में देख मुख, लाल गाल नत माथ
***
लघुकथाः
जेबकतरे :
*
= १९७३ में एक २० बरस के लड़के ने जिसे न क्रय का व्यावहारिक अनुभव था, न सिर पर पारिवारिक जिम्मेदारी सरकारी नौकरी आरंभ की। सामान्य भविष्य निधि कटाने के बाद जो वेतन हाथ में आता उससे पौने तीन तोले सोना खरीदा जा सकता था। लड़का ही नहीं परिवारजन भी खुश, शादी के अनेक प्रस्ताव, ख़ुशी ही ख़ुशी।
= ४० साल नौकरी के बाद सेवा निवृत्ति के समय उसने हिसाब लगाया तो पाया कि अधिकतम पारिवारिक जिम्मेदारियों और कार्य अनुभव के बाद सेवानिवृत्ति के समय वेतन मिल रहे वेतन में केवल डेढ़ तोला सोना आता है। पेंशन और कम, अधिकतम योग्यता, कार्य अनुभव और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बावजूद क्रय क्षमता में कमी.... ४० साल लगातार जेबकतरे जाने का अहसास अब रूह को कँपाने लगा है, बेटी के लिये नहीं मिलते उचित प्रस्ताव, दाल-प्याज-दवाई जैसी रोजमर्रा की चीजों के दाम आसमान पर और हौसले औंधे मुँह जमीन पर फिर भी पकड़ में नहीं आते जेबकतरे।
१९-१०-२०१५
***
विमर्श: सुंदरता और स्वच्छता
सरस्वतीचन्द्र सीरियल नहीं हिंदी चलचित्र जिन्होंने देखा है वे ताजिंदगी नहीं भूल सकते वह मधुर गीत 'चंदन सा बदन चंचल चितवन धीरे से तेरा वो मुस्काना' और नूतन जी की शालीन मुस्कराहट। इस गीत में 'तन भी सुन्दर, मन भी सुन्दर, तू सुंदरता की मूरत है' से विचार आया कि क्या सुंदरता बिना स्वच्छता के हो सकती है?
नहीं न…
तो कवि हमेशा सौंदर्य क्यों निरखता है. स्वच्छता क्यों नहीं परखता?
क्या चारों और सफाई न होने का दोषी कवि भी नहीं है? यदि है तो ऐसा क्यों हुआ? शायद इसलिए कि कवि मानस सृष्टि की रचना कर उसी में निग्न रहता है. इसलिए स्वच्छता भूल जाता है लेकिन स्वच्छता तो मन की भी जरूरी है, नहीं क्या?
'तन भी सुन्दर, मन भी सुन्दर' में कवि यह संतुलन याद रखता है किन्तु तन साफ़ कर परिवेश की सफाई का नाटक करनेवाले मन की सफाई की चर्चा भी नहीं करते और जब मन साफ़ न हो तो तन की सफाई केवल 'स्व' तक सीमित होती है 'सर्व' तक नहीं पहुँच पाती।
इस सफाई अभियान को नाटक कहने पर जिन्हें आपत्ति हो वे बताएं कि सफाई कार्य के बाद स्नान-ध्यान करते हैं या स्नान-ध्यान के बाद सफाई? यदि तमाम नेता सुबह उठकर अपने निवास के बहार सड़क पर सफर कर स्नान करें और फिर ध्यान करें तो परिवेश, तन और मन स्वच्छ और सुन्दर होगा, तब इसे नाटक-नौटंकी नहीं कहा जायेगा। खुद बिना प्रसाधन किये सफाई करेंगे तो छायाकार को चित्र भी नहीं खींचने देंगे और तब यह तमाशा नहीं होगा।
क्या आप मुझसे सहमत हैं? यदि हाँ तो क्या इस दीपावली के पहले और बाद अपने घर-गली को साफ़ करने के बाद स्नान और उसके बाद पूजन-वंदन करेंगे? क्या पटाखे फोड़कर कचरा उठाएंगे? क्या पड़ोसी के दरवाजे पर कचरा नहीं फेकेंगे? देखें कौन-कौन पड़ोसी के दरवाज़े से कचरा साफ़ करते हुए चित्र खींचकर फेसबुक पर लगाता है?
क्या हमारे तथाकथित नेतागण अन्य दाल के किसी नेता या कार्यकर्ता के दरवाज़े से कचरा साफ़ करना पसंद करेंगे? यदि कर सकेंगे तो लोकतान्त्रिक क्रांति हो जाएगी। तब स्वच्छता की राह किसी प्रकार का कचरा नहीं रोक सकेगा।
१९-१०-२०१४
***
मुक्तिका सलिला

साधना हो सफल नर्मदा-नर्मदा.
वंदना हो विमल नर्मदा-नर्मदा.
संकटों से न हारें, लडें,जीत लें.
प्रार्थना हो प्रबल नर्मदा-नर्मदा.
नाद अनहद गुंजाती चपल हर लहर.
नृत्यरत हर भंवर नर्मदा-नर्मदा.
धीर धर पीर हर लें गले से लगा.
रख मनोबल अटल नर्मदा-नर्मदा.
मोहिनी दीप्ति, आभा मनोरम नवल.
नाद निर्मल नवल नर्मदा-नर्मदा.
सिर कटाते समर में झुकाते नहीं.
शौर्य-अर्णव अटल नर्मदा-नर्मदा.
सतपुडा विन्ध्य मेकल सनातन शिखर
सोन जुहिला सजल नर्मदा-नर्मदा.
आस्था हो शिला, मित्रता हो 'सलिल'.
प्रीत-बंधन तरल नर्मदा-नर्मदा.
१९-१०-२०१३
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सोमवार, 13 अक्टूबर 2025

अक्टूबर १२, बुंदेली, मुक्तिका, सोरठे, चंद्र विजय, जिकड़ी, लँगड़ी, लघुकथा, नर्मदा नामावली,

 सलिल सृजन अक्टूबर १२

मुक्तक
बड़े भक्त हैं, बना रहे हैं देवों को भी दैत्य समान।
देख सहम जाए बच्चा मन, है सम्मान या कि अपमान।।
नहीं स्मरण रहा इन्हें क्या, कंकर-कंकर में शंकर-
वेद-पुराण युगों से कहते, कण-कण में रहते भगवान।।
ग्रंथ बताते जला विभीषण ने रावण को दिया
राम-बाण से जलवाते क्यों प्रथा रची मिथ्या
रावण वध की तिथि न दशहरा, लीला करती भ्रांत-
मर्यादा कर भंग न कंपित होता क्यों कर हिया?
हिंदी दिवस मनाने का अंग्रेजी में आदेश
तंत्र कर दमन जन गण-मन का देता क्या संदेश?
या तो अंग्रेजी बोले या हिंदी संस्कृत घोल-
सरल-सहज बोली से पाले क्यों यह पाले बैर हमेश?
१२.१०.२०२५
०००
मुक्तिका (बुंदेली)
*
कर धरती बर्बाद चाँद पै जा रओ है
चंदा डर सें पीरो, जे बर्रा रओ है
एक दूसरे की छाती पै फेंकें बम्म
लोग मरें, नेता-अफसर गर्रा रओ है
करे अमंगल धरती को मंगल जा रओ
नव ग्रह जालम आदम सें थर्रा रओ है
छुरा पीठ में भोंखें; गले मिलें जबरन
गिरगिट हेरे; हैरां हो सरमा रओ है
मैया कह रओ लूट-लूट खें धरती खों
चंदा मम्मा लूटन खों हुर्रा रओ है
***
सोरठे
चंद्रमुखी जी रूठ, जा बैठी हैं चाँद पर।
कहा न मैंने झूठ, तुम चंदा सी लग रहीं।।
चाँद
झुकें दिखा दें चाँद, निकला है नभ पर नहीं।
तोड़ूँ व्रत निष्पाप, कहे चाँदनी चाँद से।।
प्रज्ञानिन जा चाँद, अर्ध्य धरा को दे रही।
भागा कक्षा फाँद, विक्रम को आई हँसी।।
रोवर पढ़ता पाठ, कक्षा में कक्षा लगी।
लैंडर का है ठाठ, गोल मारकर घूमता।
१२-१०-२०२३
मुक्तिका
गम के बादल अंबर पर छाते जब भी
प्रियदर्शी को देख हवा हो जाते हैं
हुए गमजदा गम तो पाने छुटकारा
आँखों से झर मन का ताप मिटाते हैं
रखो हौसला होता है जब तिमिर घना
तब ही दिनकर-उषा सवेरा लाते हैं
तूफानों से नीड़ उजड़ जाए चाहे
पंछी आकर सरस प्रभाती गाते हैं
दिया शारदा ने वर गीतों का अनुपम
गम हरने वे मन-कुंडी खटकाते हैं
अमरकंटकी विष पीने की परंपरा
शब्दामृत पी विष को अमिय बनाते हैं
बे-गम हुई जिंदगी तो क्या जीतें हम
गम आ मिल मिट हमको जयी बनाते हैं
अंबर का विस्तार नहीं गम नाप सके
बारिश बन बह, भू को हरा बनाते हैं
१२-१०-२०१९
***
अभिनव प्रयोग:
प्रस्तुत है पहली बार खड़ी हिंदी में बृजांचल का लोक काव्य भजन जिकड़ी
जय हिंद लगा जयकारा
(इस छंद का रचना विधान बताइए)
*
भारत माँ की ध्वजा, तिरंगी कर ले तानी।
ब्रिटिश राज झुक गया, नियति अपनी पहचानी।। ​​​​​​​​​​​​​​
​अधरों पर मुस्कान।
गाँधी बैठे दूर पोंछते, जनता के आँसू हर प्रात।
गायब वीर सुभाष हो गए, कोई न माने नहीं रहे।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
रास बिहारी; चरण भगवती; अमर रहें दुर्गा भाभी।
बिन आजाद न पूर्ण लग रही, थी जनता को आज़ादी।।
नहरू, राजिंदर, पटेल को, जनगण हुआ सहारा
जय हिंद लगा जयकारा।।
हुआ विभाजन मातृभूमि का।
मार-काट होती थी भारी, लूट-पाट को कौन गिने।
पंजाबी, सिंधी, बंगाली, मर-मिट सपने नए बुने।।
संविधान ने नव आशा दी, सूरज नया निहारा।
जय हिंद लगा जयकारा।।
बनी योजना पाँच साल की।
हुई हिंद की भाषा हिंदी, बाँध बन रहे थे भारी।
उद्योगों की फसल उग रही, पञ्चशील की तैयारी।।
पाकी-चीनी छुरा पीठ में, भोंकें; सोचें: मारा।
जय हिंद लगा जयकारा।।
पल-पल जगती रहती सेना।
बना बांग्ला देश, कारगिल, कहता शौर्य-कहानी।
है न शेष बासठ का भारत, उलझ न कर नादानी।।
शशि-मंगल जा पहुँचा इसरो, गर्वित हिंद हमारा।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
सर्व धर्म समभाव न भूले।
जग-कुटुंब हमने माना पर, हर आतंकी मारेंगे।
जयचंदों की खैर न होगी, गाड़-गाड़कर तारेंगे।।
आर्यावर्त बने फिर भारत, 'सलिल' मंत्र उच्चारा।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
६.७.२०१८
***
बाल गीत:
लँगड़ी खेलें.....
*
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*************
मुक्तक:
शीत है तो प्रीत भी है.
हार है तो जीत भी है.
पुरातन पाखंड हैं तो-
सनातन शुभ रीत भी है
***
छंद में ही सवाल करते हो
छंद का क्यों बवाल करते हो?
है जगत दन्द-फन्द में उलझा
छंद देकर निहाल करते हो
१२-१०-२०१७
***
दोहा सलिला
*
हर सिक्के में हैं सलिल, चित-पट दोनों साथ
बिना पैर के मंज़िलें, कैसे पाए हाथ
*
पुत्र जन्म हित कर दिया, पुत्री को ही दान
फिर कैसे हम कह रहे?, है रघुवंश महान?
*
सत्ता के टकराव से, जुड़ा धर्म का नाम
गलत न पूरा दशानन, सही न पूरे राम
*
मार रहे जो दशानन , खुद करते अपराध
सीता को वन भेजते, सत्ता के हित साध
*
कैसी मर्यादा? कहें, कैसा यह आदर्श?
बेबस को वन भेजकर, चाहा निज उत्कर्ष
*
मार दिया शम्बूक को, अगर पढ़ लिया वेद
कैसा है दैवत्व यह, नहीं गलत का खेद
१२-१०-२०१६
***
लघुकथा
स्वजन तन्त्र
*
राजनीति विज्ञान के शिक्षक ने जनतंत्र की परिभाषा तथा विशेषताएँ बताने के बाद भारत को विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र बताया तो एक छात्र से रहा नहीं गया। उसने अपनी असहमति दर्ज करते हुए कहा- ' गुरु जी! भारत में जनतंत्र नहीं स्वजन तंत्र है।
"किताब में ऐसे किसी तंत्र का नाम नहीं है" - गुरु जी बोले।
"कैसे होगा? यह हमारी अपनी खोज है और भारत में की गयी खोज को किताबों में इतनी जल्दी जगह मिल ही नहीं सकती। यह हमारे शिक्षा के पाठ्य क्रम में भी नहीं है लेकिन हमारी ज़िन्दगी के पाठ्य क्रम का पहला अध्याय यही है जिसे पढ़े बिना आगे का कोई पाठ नहीं पढ़ा जा सकता।" छात्र ने कहा।
"यह स्वजन तंत्र होता क्या है? यह तो बताओ" - सहपाठियों ने पूछा।
"स्वजन तंत्र ऐसा तंत्र है जहाँ चंद चमचे इकट्ठे होकर कुर्सी पर लदे नेता के हर सही-ग़लत फैसले को ठीक बताने के साथ-साथ उसके वंशजों को कुर्सी का वारिस बताने और बनाने की होड़ में जी-जान लगा देते हैं। जहाँ नेता अपने चमचों को वफादारी का ईनाम और सुख-सुविधा देने के लिए विशेष प्राधिकरणों का गठन कर भारी धन राशि, कार्यालय, वाहन आदि उपलब्ध कराते हैं जिनका वेतन, भत्ता, स्थापना व्यय तथा भ्रष्टाचार का बोझ झेलने के लिये आम आदमी को कानून की आड़ में मजबूर कर दिया जाता है। इन प्राधिकरणों में मनोनीत किये गये चमचों को आम आदमी के दुःख-दर्द से कोई सरोकार नहीं होता पर वे जन प्रतिनिधि कहलाते हैं। वे हर काम का ऊँचे से ऊँचा दाम वसूलना अपना हक मानते हैं और प्रशासनिक अधिकारी उन्हें यह सब कराने के उपाय बताते हैं।"
"लेकिन यह तो बहुत बड़ी परिभाषा है, याद कैसे रहेगी?" छात्र नेता के चमचे ने परेशानी बताई।
"चिंता मत कर। सिर्फ़ इतना याद रख जहाँ नेता अपने स्वजनों और स्वजन अपने नेता का हित साधन उचित-अनुचित का विचार किए बिना करते हैं और जनमत, जनहित, देशहित जैसी की परवाह नहीं करते वही स्वजन तंत्र है लेकिन किताबों में इसे जनतंत्र लिखकर आम आदमी को ठगा जाता है ताकि वह बदलाव की माँग न करे।"
गुरु जी अवाक् होकर राजनीति के व्यावहारिक स्वरूप का ज्ञान पाकर धन्य हो रहे थे।
१२-१०-२०१५
***
नर्मदा नामावली
*
पुण्यतोया सदानीरा नर्मदा.
शैलजा गिरिजा अनिंद्या वर्मदा.
शैलपुत्री सोमतनया निर्मला.
अमरकंटी शांकरी शुभ शर्मदा.
आदिकन्या चिरकुमारी पावनी.
जलधिगामिनी चित्रकूटा पद्मजा.
विमलहृदया क्षमादात्री कौतुकी.
कमलनयनी जगज्जननि हर्म्यदा.
शाशिसुता रौद्रा विनोदिनी नीरजा.
मक्रवाहिनी ह्लादिनी सौंदर्यदा.
शारदा वरदा सुफलदा अन्नदा.
नेत्रवर्धिनि पापहारिणी धर्मदा.
सिन्धु सीता गौतमी सोमात्मजा.
रूपदा सौदामिनी सुख-सौख्यदा.
शिखरिणी नेत्रा तरंगिणी मेखला.
नीलवासिनी दिव्यरूपा कर्मदा.
बालुकावाहिनी दशार्णा रंजना.
विपाशा मन्दाकिनी चित्रोंत्पला.
रुद्रदेहा अनुसूया पय-अंबुजा.
सप्तगंगा समीरा जय-विजयदा.
अमृता कलकल निनादिनी निर्भरा.
शाम्भवी सोमोद्भवा स्वेदोद्भवा.
चन्दना शिव-आत्मजा सागर-प्रिया.
वायुवाहिनी कामिनी आनंददा.
मुरदला मुरला त्रिकूटा अंजना.
नंदना नाम्माडिअस भव मुक्तिदा.
शैलकन्या शैलजायी सुरूपा.
विपथगा विदशा सुकन्या भूषिता.
गतिमयी क्षिप्रा शिवा मेकलसुता.
मतिमयी मन्मथजयी लावण्यदा.
रतिमयी उन्मादिनी वैराग्यदा.
यतिमयी भवत्यागिनी शिववीर्यदा.
दिव्यरूपा तारिणी भयहांरिणी.
महार्णवा कमला निशंका मोक्षदा.
अम्ब रेवा करभ कालिंदी शुभा.
कृपा तमसा शिवज सुरसा मर्मदा.
तारिणी वरदायिनी नीलोत्पला.
क्षमा यमुना मेकला यश-कीर्तिदा.
साधना संजीवनी सुख-शांतिदा.
सलिल-इष्ट माँ भवानी नरमदा.
***
मुक्तिका
मुस्कान
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जिस चहरे पर हो मुस्कान १५
वह लगता मितवा रस-खान..
अधर हँसें तो लगता है- १४
हैं रस-लीन किशन भगवान..
आँखें हँसती तो दिखते -
उनमें छिपे राम गुणवान..
उमा, रमा, शारदा लगें
रस-निधि रही नहीं अनजान..
'सलिल' रस कलश जन जीवन
सुख देकर बन जा इंसान..
***
लघु कथा
समय का फेर
गुरु जी शिष्य को पढ़ना-लिखना सिखाते परेशां हो गए तो खीझकर मारते हुए बोले- ' तेरी तकदीर में तालीम है ही नहीं तो क्या करुँ? तू मेरा और अपना दोनों का समय बरबाद कर रहा है. जा भाग जा, इतने समय में कुछ और सीखेगा तो कमा खाएगा.'
गुरु जी नाराज तो रोज ही होते थे लेकिन उस दिन चेले के मन को चोट लग गई. उसने विद्यालय आना बंद कर दिया.'
गुरु जी कुछ दिन दुखी रहे कि व्यर्थ ही नाराज हुए, न होते तो वह आता ही रहता और कुछ न कुछ सीखता भी. धीरे-धीरे गुरु जी वह घटना भूल गए.
कुछ साल बाद गुरूजी एक अवसर पर विद्यालय में पधारे मंत्री जी का स्वागत कर रहे थे. तभी अतिथि ने पूछा- 'आपने पहचाना मुझे?'
गुरु जी ने दिमाग पर जोर डाला तो चेहरा और घटना दोनों याद आ गईं किंतु कुछ न कहकर चुप ही रहे.
गुरु जी को चुप देखकर मंत्री जी बोले- 'आपने ठीक पहचाना. मैं वही हूँ. सच ही मेरे भाग्य में विद्या पाना नहीं है, आपने ठीक कहा था किंतु विद्या देनेवालों का भाग्य बनाना मेरे भाग्य में है यह तो आपने नहीं बताया था.'
गुरु जी अवाक् होकर देख रहे थे समय का फेर.
१२-१०-२०१४
***
मुक्तक
मत कहो घर में महज मेहमान हैं ये बेटियाँ
मान-मर्यादा मृदुल मुस्कान हैं ये बेटियाँ
मोह, ममता, नाज़-नखरे, अदा भी, अंदाज़ भी-
मौन की आवाज़ हैं, अरमान हैं ये बेटियाँ
१२-१०-२०१३
***
बालगीत
(लोस एंजिल्स अमेरिका से अपनी मम्मी रानी विशाल सहित ददिहाल-ननिहाल भारत आई नन्हीं अनुष्का के लिए २०१० में रचा गया था यह गीत)
*
लो भारत में आई अनुष्का.
सबके दिल पर छाई अनुष्का.
यह परियों की शहजादी है.
खुशियाँ अनगिन लाई अनुष्का..
है नन्हीं, हौसले बड़े हैं.
कलियों सी मुस्काई अनुष्का..
दादा-दादी, नाना-नानी,
मामा के मन भाई अनुष्का..
सबसे मिल मम्मी क्यों रोती?
सोचे, समझ न पाई अनुष्का..
सात समंदर दूरी कितनी?
कर फैला मुस्काई अनुष्का..
जो मन भाए वही करेगी.
रोको, हुई रुलाई अनुष्का..
मम्मी दौड़ी, पकड़- चुपाऊँ.
हाथ न लेकिन आई अनुष्का..
ठेंगा दिखा दूर से हँस दी .
मन भरमा भरमाई अनुष्का..
***
गीत:
सहज हो ले रे अरे मन !
*
मत विगत को सच समझ रे.
फिर न आगत से उलझ रे.
झूमकर ले आज को जी-
स्वप्न सच करले सुलझ रे.
प्रश्न मत कर, कौन बूझे?
उत्तरों से कौन जूझे?
भुलाकर संदेह, कर-
विश्वास का नित आचमन.
सहज हो ले रे अरे मन !
*
उत्तरों का क्या करेगा?
अनुत्तर पथ तू वरेगा?
फूल-फलकर जब झुकेगा-
धरा से मिलने झरेगा.
बने मिटकर, मिटे बनकर.
तने झुककर, झुके तनकर.
तितलियाँ-कलियाँ हँसे,
ऋतुराज का हो आगमन.
सहज हो ले रे अरे मन !
*
स्वेद-सीकर से नहा ले.
सरलता सलिला बहा ले.
दिखावे के वसन मैले-
धो-सुखा, फैला-तहा ले.
जो पराया वही अपना.
सच दिखे जो वही सपना.
फेंक नपना जड़ जगत का-
चित करे सत आकलन.
सहज हो ले रे अरे मन !
*
सारिका-शुक श्वास-आसें.
देह पिंजरा घेर-फांसे.
गेह है यह नहीं तेरा-
नेह-नाते मधुर झाँसे.
भग्न मंदिर का पुजारी
आरती-पूजा बिसारी.
भारती के चरण धो, कर
निज नियति का आसवन.
सहज हो ले रे अरे मन !
*
कैक्टस सी मान्यताएँ.
शूल कलियों को चुभाएँ.
फूल भरते मौन आहें-
तितलियाँ नाचें-लुभाएँ.
चेतना तेरी न हुलसी.
क्यों न कर ले माल-तुलसी?
व्याल मस्तक पर तिलक है-
काल का है आ-गमन.
सहज हो ले रे अरे मन !
१२-१०-२०१०
***