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शनिवार, 18 नवंबर 2023

राजीव थेपरा दीप्ति गुप्ता, समीक्षा, उपन्यास

पुस्तक चर्चा- 
उपन्यास देवयानी : "स्त्री-पुरुष" के रिश्ते की मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक व्याख्या  
- राजीव थेपरा 
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                         दर्द का हद से ज्यादा गुजर जाना भी जीवन को गहरा बनाता है, प्रेम के एहसास को दरिया बनाता है और प्रेम की अनुभूतियों को और भी ज्यादा सघन बनाता हुआ प्रेम को एक उच्चतर आयाम तक पहुंचाता है। लेकिन यह भी तभी संभव है, जब व्यक्ति उस तल का हो। यानी कि व्यक्ति में समय और परिस्थितियों के मुताबिक वह समझ विकसित होती चली जाए, जबकि वह दर्द के तमाम एहसासात को अपने भीतर बहुत ही गहराई तक महसूस करता हुआ अपने भीतर घनीभूत हुए उस "आत्म" को महसूस कर सके, जो उसके भीतर सदा से रूहानी है! और सच यह भी है कि कुछ एक विरले लोग ही ऐसा कर पाने में सक्षम होते हैं। ऐसा ही एक सक्षम व्यक्तित्व हजारों शब्दों की अभिव्यक्ति के द्वारा मुझ में से होकर गुजरा है, वह है - दीप्ति गुप्ता के उपन्यास की नायिका देवयानी। अगर मैं कहूँ कि दर्द का एक दूसरा नाम देवयानी, तो अत्युक्ति न होगी।

                         देवयानी नाम यूँ तो एक उपन्यास का है, जिसकी नायिका देवयानी है, जिसके जीवन के प्रथमार्ध में जिस प्रकार एक अजस्र प्रेम किसी अविरल बहती हुई, अथाह पानी से भरी हुई गंगा के रूप में आता है और तकरीबन 20 वर्षों तक यह अविरल प्रेम मनुज और देवयानी के हृदय को अपनी अनन्त ऊष्मा और ऊर्जा से तरंगायित कर, अचानक इस प्रकार विदा होता है, जैसे वह कभी था ही नहीं! तो पहले प्रेम, फिर पूरी तरह कानूनी धरातल पर विछोह, जिसके चलते फिर से एक-दूसरे का होने की कोई उम्मीद की किरण ही नहीं बचती। आगे अब क्या होगा....नायिका देवयानी अकेली दो बच्चों को पालने-पोसने, उन्हें शिक्षित करने से लेकर, सैटिल करने की महती ज़िम्मेदारी कैसे सम्भालेगी? नौकरी को भी ज़िम्मेदारी से निबाहना, दूसरी ओर भावनात्मक और सामाजिक सहारे का पीछे छूट जाना, इस दर्द और अकेलेपन के साथ जीवन कैसे काट पाएगी - ये अनेक तरह के विचार पाठक को घेर लेते हैं, उस पर हावी हो जाते हैं। एक सस्पेंस बनना शुरू हो जाता है कि आगे क्या होगा!

                         आरंभ में देवयानी की दिनचर्या, घर का सहज-सलोना वातावरण, बेटे-बेटी से प्यारी बातें, मन को मोहती हैं। देवयानी के मन में, कुछ साल पहले तक उससे बेहद लगाव रखने वाले पति "मनु" के बदले हुए रुख़ को रखकर, चिन्ता और आशंकाओं के तूफ़ान उठना और देवयानी का अपने विचलित व मायूस मन को समझाना....सहज भाव ओढ़े, घर-परिवार और नौकरी में अपने को बहलाए रखना, परंतु किसी को भी अपनी वेदना और व्यथा की भनक न लगने देना - इस सबसे रू-ब-रू हो, पाठक आगे जानने की जिज्ञासा के साथ, देवयानी के साथ बना रहता है। मूल कथा के साथ अवान्तर लघु कथाओं और घटनाओं को लेखिका ने बहुत ख़ूबसूरती के बुना है।

                         उत्तराखंड के कुछेक हिस्सों के एक विस्तृत इतिहास के विभिन्न पक्षों एवं उन तमाम वादियों की खूबसूरती का बखान करता सुख, उपन्यास धीरे-धीरे जब आगे बढ़ता है, तो, प्रेम के स्थूल रूप से लेकर उसके उत्ताल रूप तक का वर्णन करता हुआ, दर्शन एवं आध्यात्मिकता की गहराई तक पहुँच जाता है। कभी-कभी कुछ आख्यान इस तरह से कह दिए जाते हैं, कि उनके पूरे होने के पश्चात ऐसा लगता ही नहीं कि कि जैसे कि वह काल्पनिक हों, बल्कि उनका एक-एक शब्द किसी की बीते जीवन की दास्तान सा लगता है। इस अद्भुत रूप से हृदयग्राही उपन्यास में तेजी से चलता हुआ घटनाक्रम इस तरह बदलता जाता है कि पाठक उनसे बंधा रह जाता है। सच तो यह भी है कि प्रेम के अतिरेक के बाद एक समय ऐसा भी आता है , जब पुरुष मन उस अतिरेक की एकरसता से ही ऊबकर किसी और ही ठाह में रमने को उत्सुक होने लगता है। इसी बहाने पुरुष मन की समस्त परतों की तरह तरह से पड़ताल की गई है, उनका सांगोपांग वर्णन, मनोविज्ञान पर लेखिका की पकड़ को दर्शाता है, लेकिन साथ ही देवयानी के मन में उमड़-घुमड़ कर रहे भावों को दार्शनिकता और आध्यात्मिकता की दृष्टि से प्रस्तुत करते हुए, जिस प्रकार देवयानी का व्यक्तित्व सामने रखा है, उससे नायिका का मात्र, बेहतरीन उदात्त स्वरूप ही सामने नहीं आता, बल्कि वो प्रेम की एक अटूट व धवल साधक के समान प्रतीत होती है।

                         किसी नए प्रेम के प्रति या किसी नए रिश्ते के प्रति पुरुष के अति उतावलेपन को रेखांकित करते हुए पुरुष की समस्त मन स्थितियों का जिस प्रकार का वर्णन लेखिका करती है, वह हमारे समाज में मौजूद अनेक व्यक्तियों में भी व्याप्त प्रतीत होता है। आए दिन हमारे सम्मुख घटने वाली घटनाओं में हम लगातार इसे होता हुआ पाते हैं कि किस प्रकार कोई पुरुष अपने जीवन में आने वाले किसी नई आने वाली स्त्री अथवा प्रेमिका के आगे बिछ-सा जाता है और वह उसकी इतनी मनुहार, इतनी बड़ाई और इतनी चिंता करता हुआ उस पर अपना प्यार और अधिकार जताता है, जैसे स्त्री के लिए उस पुरुष से बढ़कर दूसरा कोई हो ही नहीं! बल्कि एकमात्र वह पुरुष ही उस स्त्री का खुदा है और अक्सर स्त्री पुरुष की बातों में आकर अपना सर्वस्व उसके सम्मुख हार बैठती है और यह सब कुछ प्रेम का यह घनीभूत स्वरूप तब तक चलता रहता है, जब तक कि उस पुरुष के जीवन में कोई नई स्त्री नहीं आ जाती! लेकिन जो पुरुष अपने जीवन में आई हुई एक निष्ठावान, हर प्रकार उसके लिए सुंदर और सुशील स्त्री के एकनिष्ठ प्रेम को भूलने में देर नहीं लगाता, वह भला दूसरी स्त्री में भी कब तक रम सकता हैं?

                         विभिन्न अभिव्यंजनाओं अध्यात्मिकताओं, दार्शनिकताओं और विश्वभर के अनेकानेक दार्शनिकों एवं आध्यात्मिक प्रवर्तकों के उदगारों को अपने उपन्यास में परिस्थितियों के मुताबिक यथेष्ठ स्थान प्रदान करते हुए पुरुष मन की गहराई तक जाकर उसकी हर एक चपलता और कुटिलता को नापते हुए, लेखिका उसके पौरुष के विभिन्न उच्च पक्षों का भी बख़ूबी वर्णन करती हैं। उससे लेखिका की पुरुष के बारे में किसी एकपक्षीय दृष्टि नहीं, बल्कि संपूर्ण दृष्टि का वैभव दिखाई देता है। और यह वैभव उपन्यास के अंत में बख़ूबी नज़र आता है।

                         अपनी पहली प्रेमिका और पत्नी से ऊबा हुआ मनुज दूसरी प्रेमिका यानी पत्नी एना से कुछ ही वर्षों में ऊब करे, जब देवयानी के पास, वापस लौटने को व्यग्र होता है और अंततः देवयानी की जिंदगी में लौट आता है, तो उसके पश्चाताप भरे आवेगों का तथा उस पुरुष मन के पाक स्वरूप का परिचय देते हुए लेखिका आखिरकार अपने भावों द्वारा यह व्यक्त कर देती है कि यदि मानव अनजाने में की गई अपनी भूलों को किसी भी भांति स्वीकार कर लेता है, तो उसके जीवन में आया हुआ क्लेश भी दूर होकर जीवन पुन: स्वर्ग की भांति सुंदर और सुखमय हो सकता है। उसके जीवन में फिर से उजास फैल सकता है।

                         इस उपन्यास के प्रत्येक पृष्ठ को पढ़ते हुए देवयानी के चरित्र के रूप में हर शब्द प्रेम का एक विराट प्रतिमान मालूम पड़ता है, क्योंकि अपने जीवन में आने वाले बिन बुलाए, किंतु एक जबरदस्त दीवाने के अकथनीय प्रेम में डूबी देवयानी को जब अपने उसी प्रेम पात्र से प्रथमत: तनाव और फिर अलगाव और फिर उस अलगाव से पैदा हुआ विरह के रूप में जो धोखा मिलता है, आरंभ में वह धोखा, वह तनाव उसे बिखेरता हुआ, उसे तोड़ डालने को उद्यत दिखता है। किंतु शीघ्र ही अपने दो- दो छोटे बच्चों को देखती हुई उस धोखे को, उस तनाव को, उस विचलन को और अपने दिल में उमड़ रहे तमाम झंझावातों को सहेजती हुई नायिका जिस प्रकार अपने आप को संतुलित करती है, वह किसी भी सुघड़ नारी के लिए एक नायाब उदाहरण की भांति है। पहले पहल नायिका का अपने स्कूल में सर्वश्रेष्ठ होना, फिर जीवन की अन्य गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना और फिर एक अयाचित प्रेम के अपने जीवन में आने के पश्चात और उसके अनचाहे ही फटाफट घर बसने के बाद में एक सुघड़ बहू के रूप में परिवर्तित हो जाना और अपनी समस्त महत्वकांक्षाओं को अपने से बिल्कुल परे करते हुए अपने आप को पूरी तरह से गृहस्थी में झोंक देना, फिर बीसों बरस इस तरह एक अभूतपूर्व और विराट प्रेम में गुजरने के पश्चात अचानक जीवन में एक नए और उतने ही अभूतपूर्व वैसे ही किसी ठीक विलोम झंझावात का आना किसी भी स्त्री को तोड़ देने के लिए काफी होता है और अक्सर स्त्रियाँ टूट भी जाती हैं और कोई भी टूट सकता है और यह स्वाभाविक भी है।

                         क्योंकि प्रेम में अचानक से उस प्रेम पात्र से संबंध टूट जाना, वह भी बिना किसी गलती के या बिना किसी संभावना के, जीवन में किसी मृत्यु से कम नहीं होता। यह बहुत बड़ी दुर्घटना होती है, जो व्यक्ति को न केवल अंदर से तोड़ती है, बल्कि धीरे-धीरे उसे झुलसाती हुई उसे एकदम से क्षीण ही बना डालती है। ऊपर-ऊपर ठीक-ठाक जीने की कोशिश करता हुआ आदमी अंदर ही अंदर कहाँ और कितना सुलग रहा होता है, इसकी थाह शायद ही कोई ले पाता है! हालांकि अनुमान सब लगाते हैं और अपने उन्हीं अनुमानों के आधार पर लोग उसे तरह तरह की सलाह भी देते हैं और नए जीवन साथी चुनने को उकसाने की कोशिश करते हैं!

                         लेकिन अपने करैक्टर के अचल खूँटे से बंधा हुआ कोई "दिल" यह सब करना अस्वीकार कर देता हैं और जीवन की चुनौतियों से जूझने का माद्दा पाल लेता है| तब फिर से अपनी लिखाई-पढ़ाई करते हुए अपने-आप को अध्ययन- अध्यापन के कार्य में व्यस्त करते हुए अपने जीवन को संजोने की कोशिश करता है। जीवन के इस संजोने के क्रम में आदमी के जीवन के मन में उमड़-घुमड़ करने वाले खयालात कभी उसे आध्यात्मिकता की राह पर ले जाते हैं, तो कभी किसी अछोर दार्शनिक आयामों के तले गुम करने की कोशिश करते हैं!

                         जीवन सदा उभय पक्षीय होता है। यह प्रेम भी है, तो कठोरता भी है। गिरना भी है, तो उठना भी है। आदमी के जीवन के आयाम निम्न तलों से लेकर सर्वश्रेष्ठ तलों तक को छूने में सक्षम होते हैं, कौन किस ओर बहता है, यही आदमी की दिशा तय करता है। घाटियों में जाना आसान है और पहाड़ों में चढ़ना सदा कठिन हुआ करता है और यही वह कारण है, जिसके चलते ज्यादातर लोग नीचे की ओर बहते दिखाई देते हैं, खाइयों में फिसलते और गिरते दिखाई देते हैं। विरले ही लोग इसके ठीक उलट ऊंचाई की ओर चलना पसंद करते हैं, बेशक कभी-कभार उनमें से कोई फिसल कर खाईयों में जा गिरता है, लेकिन उनकी वह यात्रा सदा एक ऊर्ध्वगामी यात्रा के रूप में ही स्वीकार की जाती है। बेशक वह अकेले लगते हों, लेकिन अंततः वही सिद्ध होते हैं और युगों तक अनेकानेक लोगों के लिए अनुकरणीय भी।

                         पैरेंटल लाइफ तो हर कोई जीता है, लेकिन पैरेंटल लाइफ को एक उदाहरण बनाना, एक मिसाल बनाना, एक उत्कृष्टता बनाना और उसके प्रति एक श्रद्धा पैदा करना, यह कार्य कुछ लोग ही कर पाते हैं और जो इसे कर पाते हैं, वही लोग विलक्षण होते हैं या कि सर्वश्रेष्ठ होते हैं या कि वही लोग लाजवाब होते हैं, अतैव इस भाँति वे ह लोग अनुकरणीय होते हैं। इस उपन्यास की मूल विषय वस्तु भी वही है और सच यह भी है कि घटनाओं के घटाटोप तो हर किसी के लिए होते हैं। इस धरती पर ऐसा कोई नहीं जो संघर्षों से न जूझता हो, जो तनावों से न गुजरता हो। जिसके जीवन में कलुषित पक्ष न आते हों। बावजूद इसके, जो जीवन को अपने अनुरूप एक धनात्मक पक्ष की ओर मोड़ता हुआ, अपने आपको एक उदाहरण की तरह प्रस्तुत करता है, वह अपने उस विरोधी के लिए भी अनुकरणीय बन जाता है, जिसने उसके प्रति व्यर्थ ही डाह पाला हुआ है। वह अपने शत्रुओं के प्रति ईर्ष्या का कारण बन जाता है, लेकिन उसकी यह ईर्ष्या उसके प्रति इज्जत के कारण ही पनपी होती है। क्योंकि अपनी ही कटुता या बेवजह की वैमनस्यता के कारण उसने जिसे अपना शत्रु बनाया हुआ है, वह यदि उससे सभी मामलों में उत्कृष्ट हो, तब उसे उस सच को स्वीकार करना ही पड़ता है। चाहे इसे स्वीकार करने में उसे कितनी ही देर क्यों ना हो जाए!

                         किंतु यदि किसी दूसरी घटिया शत्रुता के कारण उसी प्रकार जीवन में कोई, जो हमें धोखा देता है, उससे नफरत करना आसान है और उसे क्षमा भी न करें, तो चलेगा और ज्यादातर यही होता भी है। लेकिन धोखा देने वाले के मानवीय पक्ष को समझते हुए उसे न केवल क्षमा करना, बल्कि समय-समय पर उससे मित्रवत व्यवहार करना और एक मित्र के समान बराबर मिलते-जुलते रहना, बातचीत करना, अपने घर में बुलाना, और तो और इतना सब कुछ घटने के बावजूद कभी कोई भावनात्मक मदद भी करना, ऐसा शायद नगण्य प्रतिशत लोगों में ही होता होगा और ऐसी ही उस नगण्य प्रतिशत में शामिल है "देवयानी" का चरित्र! यद्यपि उपन्यास में उत्तराखंड के विभिन्न स्थानों की अपूर्व सुंदरता का अनुपम वर्णन भी है। सूर्योदय व सूर्यास्त, पहाड़, घाटियाँ, फूल, उपवन, और विभिन्न ॠतुओं की ताजगी का एहसास इत्यादि-इत्यादि सब कुछ भरपूर है। लेकिन इन सबसे ऊपर इस उपन्यास का दार्शनिक पक्ष है, जो इसे इसी तरह के अन्य उपन्यासों से अलग करता है। किसी कवि ने कहा भी है दुख हमें मांजता है और इसका अनुपम उदाहरण "देवयानी" नाम का यह उपन्यास है, जिसमें नायिका का आत्मिकता का बोध- दुखों से सामना करते हुए शनै: शनै: परवान चढ़ता जाता है। इस तरह के गहन चिन्तन के अंत में देवयानी का अपना यह आत्मालाप'___

                         "खैर जाने दे देवयानी! त्याग, समर्पण, आत्मिक विसर्जन का अपना ही आनंद है, अपना ही अनोखा सुख है.... इसका स्वाद तो नारी ही जान सकती है! पुरुष यानी निरीह, बालक-सा मचलता, अधीर, बेचैन, हर पल अस्थिर, डगमगाया, दिल के हाथों लुटा...वह क्या जाने 'ढाई आखर' का सच्चा अर्थ, उसकी महिमा...! वह क्या जाने त्याग और समर्पण का परमानंद? यह तो निर्विवाद सत्य है कि अधिकांश पुरुष प्रेम से नहीं अपितु आसक्ति से भरे रहते हैं! अपनी आसक्ति को वे भ्रमवश प्रेम समझते हैं और नारी भी उनके भुलावे में आ जाती है, उनकी आसक्ति को ही प्रेम समझ बैठती है -पर, बाद में पछताती है विश्व के 90% पुरुष इसी आसक्ति और इसके साथ सेटेलाइट की तरह जुड़ी 'एकाधिकार' की अहम भावनाओं के जाल में उलझे होते हैं! तभी वे कभी "ओथेलो" बन अपनी "डैस्डीमोना" को शक की बिना पर मार डालते हैं, तो कभी दुष्यंत बन अपनी शकुंतला को भूल जाते हैं, तो कभी रावण बन परनारी का अपहरण कर लेते हैं, तो कभी वह उसे द्रौपदी के रूप में बांट लेते हैं! सब पुरुष और स्त्री एक से नहीं होते। पुरुष-पुरुष और स्त्री- स्त्री में बहुत अंतर होता है। लेकिन जिस 'उदात्त प्रेम' की 'एकनिष्ठता' के बारे में देवयानी सोच रही थी, उसके मामले में स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों का बड़ा प्रतिशत ढुलमुल ही देखा गया। इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि वफादार पुरुष नहीं होते। साथ ही, ंंयह भी कि कायनात ने नारी और पुरुष को कुछ सहज-स्वाभाविक गुणों से नवाजा है। जिसके अनुसार पुरुष मानसिक और शारीरिक रूप से सशक्त, परुष(कठोर) और साहसी या कहें कि दुस्साहसी होता है, जबकि नारी अशक्त कोमल और सहज और असुरक्षा के भाव से भरी होती है। कायनात द्वारा प्रदत्त इन विशेषताओं को नकारा नहीं जा सकता! प्रकृति के इस नियम के तहत ही युगों से धीरे-धीरे बदलते परिवेश में नारी पर अतिरिक्त कार्यभार बढ़ा, उसकी शिक्षा-दीक्षा में बढ़ोतरी हुई, उसकी छवि बदली, लेकिन उसके "सहज गुण" भावनात्मकता, मृदुलता और कोमलता नारी में, हर युग में बनी रही! इसीलिए ही शायद नारी की इतनी प्रगति के बाद भी सब उनसे विनम्र होने की आस लगाते हैं और इसमें कोई बुराई भी नहीं है! इस बात की आशा पुरुष से कम की जाती है। पुरुष भी "विनम्र" हों, तो किसे अच्छा नहीं लगता, लेकिन नारी से इस गुण की अपेक्षा अधिक की जाती है, क्योंकि प्रकृति ने यह गुण उसे अधिक दिया है। पुरुष और स्त्री का यह अंतर बना रहना जरूरी है - संतुलन के लिए! अगर दोनों ही कठोर हो गए या दोनों ही कोमल हो गए, तो असंतुलन हो जाएगा। जहॉं तक बुद्धिमानी और बौद्धिकता का प्रश्न है, उसे बीते युग से, पुरुष अपनी ही बपौती समझता आया है! कारण - युगों से नारी घर की चारदीवारी में रहती आई, कभी मुँह नहीं खोलती थी, न अपना दु:ख- सुख कहती थी, तर्क करना तो बहुत दूर की बात थी! उसकी स्थिति - "बैठ जा- बैठ गई, घूम जा- घूम गई", वाली थीं। अब जब बेटियों को शिक्षित किया जाने लगा, तो उनकी छुपी मानसिक और बौद्धिक क्षमता सहज ही अद्भुत रूप से सामने आई। वह क्षमता, वर्षों से अपनी सशक्त, शासक वाली छवि में जीने वाले पुरुष को नागवार लगी, तो पुरुष की नकारात्मक अनुभूति और कुंठित भावना जाहिर होना स्वभाविक थी। इसमें पुरुष की कोई गलती नहीं। लेकिन धीरे-धीरे पुरुष ने बौद्धिक नारी को स्वीकारना शुरू किया, गति भले ही थोड़ी धीमी रही, पर यह परिवर्तन अभी तक जारी है। यह पुरुष मनोविज्ञान है।

                         इस प्रकार "देवयानी" नाम का यह उपन्यास न केवल प्रेम, विरह, आलोड़न, विचलन, व्यथा, आदि की कथा कहता है, बल्कि पुरुष और स्त्री मनोविज्ञान की समस्त परतें भी उघाड़ता है। और खास तौर पर पुरुष मनोविज्ञान का एक पक्षीय नहीं, बल्कि संतुलित एवं सम्यक विवेचन प्रस्तुत करता है। हर लेखक की एक व्यापक दृष्टि होती है और उपन्यास की यही विशेषता भी होती है कि वह एक कथानक के साथ एक लेखक की विहंगम दृष्टि को भी प्रस्तुत करता है। क्योंकि लेखक को जो भी कहना होता है, वह अपने पात्रों के मुँह से ही कहलवाता है और यह कहलवाना जितना खूबसूरत बन पड़ता है, उपन्यास भी उतना ही खूबसूरत बन जाता है तथा अपने पाठकों को बांधे रखता है।

                         मेरी दृष्टि में यह उपन्यास अपने आप में एक लाजवाब एवं अनुपम कृति है और इसे हर एक सजग मनोविज्ञानी और एक आम आदमी को भी पढ़ना चाहिए कि किस प्रकार हमारा ईगो कई बार हमें बेवजह एक दूसरे से दूर ले जाता हैं और किस प्रकार हमारी अपनी भूलों को न मानने की वृत्ति हमें हमारे अपनों से दूर कर सकती है, वही अपने उन्हें भूलों को स्वीकार कर हम उन अपनों से पहले से भी ज्यादा और निकट और निकटतम आ सकते हैं, ऐसी भी संभावनाएँ हमारे इसी जीवन में होती हैं। इस उपन्यास के माध्यम से हम अपनी कमियों को भी परत दर परत उजागर करते हुए, उन्हें आत्मसात करते हुए, अपने जीवन को सरल और बेहतर बनाने का प्रयास कर सकते हैं।लेखिका डॉ. दीप्ति को ढेर बधाई !!

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.राजीव थेपरा




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सोमवार, 18 अक्टूबर 2021

शरणं, उपन्यास, नरेंद्र कोहली

कृति चर्चा :
'शरणम' - निष्काम कर्मयोग आमरणं
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण - शरणं, उपन्यास, नरेंद्र कोहली, प्रथम संस्करण, २०१५, पृष्ठ २२४, मूल्य ३९५/-, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, प[रक्षक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली]

उपन्यास शब्द में ‘अस’ धातु है जो ‘नि’ उपसर्ग से मिलकर 'न्यास' शब्द बनाती है। 'न्यास' शब्द का अर्थ है 'धरोहर'। उपन्यास शब्द दो शब्दों उप+न्यास से मिलकर बना है। ‘उप’ अधिक समीप वाची उपसर्ग है। संस्कृत के व्याकरण सिद्ध शब्दों, न्यास व उपन्यास का पारिभाषिक अर्थ कुछ और ही होता है। एक विशेष प्रकार की टीका पद्धति को 'न्यास' कहते हैं। हिन्दी में उपन्यास शब्द कथा साहित्य के रूप में प्रयोग होता है। बांग्ला भाषा में आख्यायिका, गुजराती में नवल कथा, मराठी में कादम्बरी तथा अंग्रेजी में 'नावेल' पर्याय के रूप में प्रयोग किए जाते हैं। वे सभी ग्रंथ उपन्यास हैं जो कथा सिद्धान्त के नियमों का पालन करते हुए मानव की सतत्, संगिनी, कुतूहल, वृत्ति को पात्रों तथा घटनाओं को काल्पनिक तथा ऐतिहासिक संयोजन द्वारा शान्त करते हैं। इस विधा में मनुष्य के आसपास के वातावरण दृश्य और नायक आदि सभी सम्मिलित होते हैं। इसमें मानव चित्र का बिंब निकट रखकर जीवन का चित्र एक कागज पर उतारा जाता है। प्राचीन काल में उपन्यास अविर्भाव के समय इसे आख्यायिका नाम मिला था। ‘‘कभी इसे अभिनव की अलौकिक कल्पना, आश्चर्य वृत्तान्त कथा, कल्पित प्रबन्ध कथा, सांस्कृतिक वार्ता, नवन्यास, गद्य काव्य आदि नामों से प्रसिद्धि मिली। उपन्यास को मध्यमवर्गीय जीवन का महाकाव्य भी कहा गया है वह वस्तु या कृति जिसे पढ़कर पाठक को लगे कि यह उसी की है, उसी के जीवन की कथा, उसी की भाषा में कही गई है। सारत: उपन्यास मानव जीवन की काल्पनिक कथा है।

आधुनिक युग में उपन्यास शब्द अंग्रेजी के 'नावेल' अर्थ में प्रयुक्त होता है जिसका अर्थ एक दीर्घ कथात्मक गद्य रचना है। उपन्यास के मुख्य सात तत्व कथावस्तु, पात्र या चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, देशकाल, शैली, उपदेश तथा तत्व भाव या रस हैं। उपन्यास की कथावस्तु में प्रमुख कथानक के साथ-साथ कुछ अन्य प्रासंगिक कथाएँ भी चल सकती है।उपन्यास की कथावस्तु के तीन आवश्यक गुण रोचकता स्वाभाविकता और गतिशीलता हैं। सफल उपन्यास वही है जो उपन्यास पाठक के हृदय में कौतूहल जागृत कर दे कि वह पूरी रचना को पढ़ने के लिए विवश हो जाए। पात्रों के चरित्र चित्रण में स्वभाविकता, सजीवता एवं मार्मिक विकास आवश्यक है। कथोपकथन देशकाल और शैली पर भी स्वभाविकता और सजीवता की बात लागू होती है। विचार, समस्या और उद्देश्य की व्यंजना रचना की स्वभाविकता और रोचकता में बाधक न हो। नरेंद्र कोहली के 'शरणम्' उपन्यास में  तत्वों की संतुलित प्रस्तुति दृष्टव्य है। श्रीमद्भगवद्गीता जैसे अध्यात्म-दर्शन प्रधान ग्रंथ पर आधृत इस कृति में स्वाभाविकता, निरन्तरता, उपदेशपरकता, सरलता और रोचकता का पंचतत्वी सम्मिश्रण  'शरणम्' को सहज ग्राह्य बनाता है।  

डॉ. श्याम सुंदर दास के अनुसार 'उपन्यास मनुष्य जीवन की काल्पनिक कथा है। 'प्रेमचंद ने उपन्यास को 'मानव चरित्र का चित्र कहा है।' तदनुसार मानव चरित्र पर प्रकाश डालना तथा उसके रहस्य को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है। सुधी समीक्षक आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी के शब्दो में ‘‘उपन्यास से आजकल गद्यात्मक कृति का अर्थ लिया जाता है, पद्यबद्ध कृतियाँ उपन्यास नहीं हुआ करते हैं।’’ डा. भगीरथ मिश्र के शब्दों में : ‘‘युग की गतिशील पृष्ठभूमि पर सहज शैली मे स्वाभाविक जीवन की पूर्ण झाँकी को प्रस्तुत करने वाला गद्य ही उपन्यास कहलाता है।’’ बाबू गुलाबराय लिखते हैं : ‘‘उपन्यास कार्य कारण श्रृंखला मे बँधा हुआ वह गद्य कथानक है जिसमें वास्तविक व काल्पनिक घटनाओं द्वारा जीवन के सत्यों का उद्घाटन किया है।’’ उक्त में से किसी भी परिभाषा के निकष पर  'शरणम्' को परखा जाए, वह सौ टंच खरा सिद्ध होता है। 

हिंदी के आरंभिक उपन्यास केवल विचारों को ही उत्तेजित करते थे, भावों का उद्रेक नहीं करते थे। दूसरी पीढ़ी के उपन्यासकार अपने कर्तव्य व दायित्व के प्रति सजग थे। वे कलावादी होने के साथ-साथ सुधारवादी तथा नीतिवादी भी रहे। विचार तत्व उपन्यास को सार्थक व सुन्दर बनाता है। भाषा शैली में सरलता के साथ-साथ सौष्ठव पाठक को बाँधता है। घटनाओं की निरंतरता आगे क्या घटा यह जानने की उत्सुकता पैदा करती है।  'शरणम्' का कथानक से सामान्य पाठक सुपरिचियत है, इसलिए जिज्ञासा और उत्सुकता बनाए रखने की चुनौती स्वाभाविक है। इस संदर्भ में कोहली जी लिखते हैं- 'मैं उपन्यास ही लिख सकता हूँ और पाठक उपन्यास को पढ़ता भी है और समझता भी है। मैं जनता था कि यह कार्य सरल नहीं था। गीता में न कथा है, न अधिक पात्र। घटना के नाम पर विराट रूप के दर्शन हैं, घटनाएँ नहीं हैं, न कथा का प्रवाह है। संवाद हैं, वह भी इन्हीं, प्रश्नोत्तर हैं, सिद्धांत हैं, चिंतन है, दर्शन है, अध्यात्म है। उसे कथा कैसा बनाया जाए? किन्तु उपन्यासकार का मन हो तो उपन्यास ही बनता है। जैसे मनवाई के गर्भ में मानव संतान ही आकार ग्रहण करती है। टुकड़ों-टुकड़ों में उपन्यास बनता रहा। पात्रों के रूप में संजय और धृतराष्ट्र तो थे ही, हस्तिनापुर में उपस्थित कुंती भी आ गई, विदुर और उनकी पत्नी भी आ गए, गांधारी हुए उसकी बहुएँ भी आ गईं। द्वारका में बैठे वासुदेव, देवकी, रुक्मिणी और उद्धव भी आ गए। उपन्यासकार जितनी छूट ले सकता है, मैंने ली किन्तु गीता के मूल से छेड़छाड़ नहीं की।' सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यही है कि उपन्यासकार सत्य में कल्पना कितनी मिलना है, यह समझ सके और अपनी वैचारिक उड़ान की दिशा और गति पर नियंत्रण रख सके। नरेंद्र जी 'शरणम्' लिखते समय यह आत्मनियंत्रण रख सके हैं। न तो यथार्थ के कारण उपन्यास बोझिल हुआ है, न अतिरेकी कल्पना के कारण अविश्वनीय हुआ है। 

'शरणम्' के पूर्व नरेंद्र कोहली ने उपन्यास, व्यंग्य, नाटक, कहानी के अलावा संस्मरण, निबंध आदि विधाओं में लगभग सौ पुस्तकें लिखीं हैं। उन्होंने महाभारत की कथा को अपने उपन्यास महासमर के आठ खंडों में समाहित किया। अपने विचारों में बेहद स्पष्ट, भाषा में शुद्धतावादी और स्वभाव से सरल लेकिन सिद्धांतों में बेहद कठोर थे। उनके चर्चित उपन्यासों में पुनरारंभ, आतंक, आश्रितों का विद्रोह, साथ सहा गया दुख, मेरा अपना संसार, दीक्षा, अवसर, जंगल की कहानी, संघर्ष की ओर, युद्ध, अभिज्ञान, आत्मदान, प्रीतिकथा, कैदी, निचले फ्लैट में, संचित भूख आदि हैं। संपूर्ण रामकथा को उन्होंने चार खंडों में १८०० पन्नों के वृहद उपन्यास में प्रस्तुत किया। उन्होंने पाठकों को भारतीयता की जड़ों तक खींचने की कामयाब कोशिश की और पौराणिक कथाओं को प्रयोगशीलता, विविधता और प्रखरता के साथ नए कलेवर में लिखा। संपूर्ण रामकथा के जरिये उन्होंने भारत की सांस्कृतिक परंपरा, समकालीन मूल्यों और आधुनिक संस्कारों की अनुभूति कराई।

हिन्दी साहित्य में 'महाकाव्यात्मक उपन्यास' की विधा को प्रारम्भ करने का श्रेय नरेंद्र जी को ही जाता है। पौराणिक एवं ऐतिहासिक चरित्रों की गुत्थियों को सुलझाते हुए उनके माध्यम से आधुनिक सामाज की समस्याओं एवं उनके समाधान को समाज के समक्ष प्रस्तुत करना कोहली की अन्यतम विशेषता है। कोहलीजी सांस्कृतिक राष्ट्रवादी साहित्यकार हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय जीवन-शैली एवं दर्शन का सम्यक् परिचय करवाया है।

उपन्यासों के मुख्य प्रकार सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, यथार्थवादी, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक, तिलस्मी जादुई, वैज्ञानिक, लोक कथात्मक, आंचलिक उपन्यास, रोमानी उपन्यास, कथानक प्रधान, चरित्र प्रधान, वातावरण प्रधान, महाकाव्यात्मक, जासूसी, समस्या प्रधान, भाव प्रधान, आदर्शवादी, नीति प्रधान, प्राकृतिक, विज्ञानपरक, आध्यात्मिक, प्रयोगात्मक आदि हैं। इस कसौटी पर 'शरणम्' को किसी एक खाँचे में नहीं रखा जा सकता।  'शरणम्' के कथानक और घटनाक्रम उसे उक्त लगभग सभी श्रेणियों की प्रतिनिधि रचना बनाते हैं। यह नरेंद्र जी के लेखकीय कौशल और भाषिक नैपुण्य की अद्भुत मिसाल है।  स्मृति श्रेष्ठ उपन्यास सम्राट नरेंद्र कोहली के उपन्यास 'शरणं' का अध्ययन एवं अनुशीलन पाठकों-समीक्षकों के लिए कसौटी पर कसा जाना है। यह उपन्यास एक साथ सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, यथार्थवादी, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक, तिलस्मी जादुई, वैज्ञानिक, लोक कथात्मक, कथानक प्रधान, चरित्र प्रधान, वातावरण प्रधान, महाकाव्यात्मक, जासूसी, समस्या प्रधान, भाव प्रधान, आदर्शवादी, नीति प्रधान, प्राकृतिक, विज्ञानपरक, प्रयोगात्मक, आध्यात्मिक दृष्टि संपन्न उपन्यास कहा जा सकता है। इस एक उपन्यास की कथा सुपरिचित है किन्तु 'कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और' के अनुरूप कहना होगा कि 'निश्चय ही नरेंद्र जी का है उपन्यास हरेक और'। 

हिंदी में सांस्कृतिक विरासत पर उपन्यास लेखन की नींव आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बाण भट्ट की आत्मकथा (१९४६), चारुचंद्र लेख  (१९६३) तथा पुनर्नवा (१९७३) जैसी औपन्यासिक कृतियों का प्रणयन कर रखी थी।  आचार्य द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य में एक ऐसे द्वार को खोला जिससे गुज़र कर नरेन्द्र कोहली ने एक सम्पूर्ण युग की प्रतिष्ठा कर डाली। यह हिन्दी साहित्य के इतिहास का सबसे उज्जवल पृष्ठ है और इस नवीन प्रभात के प्रमुख ज्योतिपुंज होने का श्रेय अवश्य ही आचार्य द्विवेदी का है जिसने युवा नरेन्द्र कोहली को प्रभावित किया। परम्परागत विचारधारा एवं चरित्रचित्रण से प्रभावित हुए बगैर स्पष्ट एवं सुचिंतित तर्क के आग्रह पर मौलिक दृष्ट से सोच सकना साहित्यिक तथ्यों, विशेषतः ऐतिहासिक-पौराणिक तथ्यों का मौलिक वैज्ञानिक विश्लेषण यह वह विशेषता है जिसकी नींव आचार्य द्विवेदी ने डाली थी और उसपर रामकथा, महाभारत कथा एवं कृष्ण-कथाओं आदि के भव्य प्रासाद खड़े करने का श्रेय नरेंद्र कोहली जी का है। संक्षेप में कहा जाए तो भारतीय संस्कृति के मूल स्वर आचार्य द्विवेदी के साहित्य में प्रतिध्वनित हुए और उनकी अनुगूंज ही नरेन्द्र कोहली रूपी पाञ्चजन्य में समा कर संस्कृति के कृष्णोद्घोष में परिवर्तित हुई जिसने हिन्दी साहित्य को हिला कर रख दिया।

आधुनिक युग में नरेन्द्र कोहली ने साहित्य में आस्थावादी मूल्यों को स्वर दिया था। सन् १९७५ में उनके रामकथा पर आधारित उपन्यास 'दीक्षा' के प्रकाशन से हिंदी साहित्य में 'सांस्कृतिक पुनर्जागरण का युग' प्रारंभ हुआ जिसे हिन्दी साहित्य में 'नरेन्द्र कोहली युग' का नाम देने का प्रस्ताव भी जोर पकड़ता जा रहा है। तात्कालिक अन्धकार, निराशा, भ्रष्टाचार एवं मूल्यहीनता के युग में नरेन्द्र कोहली ने ऐसा कालजयी पात्र चुना जो भारतीय मनीषा के रोम-रोम में स्पंदित था। महाकाव्य का ज़माना बीत चुका था, साहित्य के 'कथा' तत्त्व का संवाहक अब पद्य नहीं, गद्य बन चुका था। अत्याधिक रूढ़ हो चुकी रामकथा को युवा कोहली ने अपनी कालजयी प्रतिभा के बल पर जिस प्रकार उपन्यास के रूप में अवतरित किया, वह तो अब हिन्दी साहित्य के इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ बन चुका है। युगों युगों के अन्धकार को चीरकर उन्होंने भगवान राम की कथा को भक्तिकाल की भावुकता से निकाल कर आधुनिक यथार्थ की जमीन पर खड़ा कर दिया. साहित्यिक एवम पाठक वर्ग चमत्कृत ही नहीं, अभिभूत हो गया। किस प्रकार एक उपेक्षित और निर्वासित राजकुमार अपने आत्मबल से शोषित, पीड़ित एवं त्रस्त जनता में नए प्राण फूँक देता है, 'अभ्युदय' में यह देखना किसी चमत्कार से कम नहीं था। युग-युगांतर से रूढ़ हो चुकी रामकथा जब आधुनिक पाठक के रुचि-संस्कार के अनुसार बिलकुल नए कलेवर में ढलकर जब सामने आयी, तो यह देखकर मन रीझे बिना नहीं रहता कि उसमें रामकथा की गरिमा एवं रामायण के जीवन-मूल्यों का लेखक ने सम्यक् निर्वाह किया है। यह पुस्तक धर्म का ग्रंथ नहीं है। ऐसा स्वयं लेखक का कहना है। यह गीता की टीका या भाष्य भी नहीं है। यह एक उपन्यास है, शुद्ध उपन्यास, जो गीता में चर्चित सिद्धांतों को उपन्यास के रूप में पाठक के सामने रखता है। यह उपन्यास लेखक के मन में  उठने वाले प्रश्नों का नतीजा है। 'शरणम्' में सामाजिक मानदंड की एक सीमा तय की गयी है जो पाठक को आकर्षित करने में सक्षम है।

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कोई नयी पुस्तक प्रकाशित होती है तो प्रायः लेखक से पूछा ही जाता है कि उसने वह पुस्तक क्यों लिखी. वही विषय क्यों चुना? मैं भी मानता हूं कि बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता. किंतु सृजन के क्षेत्र में यह मामला इतना स्थूल नहीं होता. इसलिए मुझे तो सोचना पड़ता है कि पुस्तक मैंने लिखी या पुस्तक मुझ से लिखी गयी. विषय मैंने चुना अथवा विषय ने मुझे चुना? मैं रहस्यवादी होने का प्रयत्न नहीं कर रहा हूं किंतु सृजन का क्षेत्र मुझे कुछ ऐसा ही लगता है.

गीता को मैंने पहली बार शायद अपने विद्यालय के दिनों में कुछ न समझते हुए भी पढ़ने का प्रयत्न किया था. कारण? मेरा स्वभाव है कि मैं जानना चाहता हूं कि कोई पुस्तक महत्त्वपूर्ण क्यों मानी जाती है. तो गीता को भी पढ़ने का प्रयत्न किया, समझ में आये या न आये. उसके पश्चात् अनेक विद्वानों की टीकाएं और भाष्य पढ़ने का प्रयत्न किया. किंतु ‘महासमर’ लिखते हुए मन में आया कि मूल गीता को एक बार संस्कृत में भी अवश्य पढ़ना चाहिए. तब डॉ. कृष्णावतार से भेंट हो गयी. उनसे गीता पढ़ी. महासमर लिखा गया.

किंतु इधर मेरे अपने परिवार में यह प्रस्ताव रखा गया कि हम अपने बच्चों के साथ बैठकर गीता पढ़ें. हम सब जानते थे कि बच्चों की समझ में यह विषय नहीं आयेगा और वे सोते भी रह सकते हैं. फिर भी एक दिन में पाँच श्लोकों की गति से हमने गीता पढ़ी. पढ़ाने वाला था मैं, जिसे स्वयं न संस्कृत भाषा का ज्ञान है, न गीता के दर्शन और चिंतन का. फिर भी हम पढ़ते रहे. मैंने पहली बार अनुभव किया कि पढ़ने से कोई ग्रंथ उतना समझ में नहीं आता, जितना कि पढ़ाने से आता है. पढ़ाते हुए व्यक्ति समझ जाता है कि उसे क्या समझ में नहीं आ रहा है. फिर श्रोता प्रश्न भी करते हैं. मेरा छोटा पोता जो केवल तेरह वर्षों का है, कुछ अधिक गम्भीर था. वह सुनता भी था और मन में उठे बीहड़ प्रश्न भी पूछता था.

प्रश्न उसके हों अथवा मेरे अपने मन के, वे मेरे मन में गड़ते चले गये. मेरा अनुभव है कि मन में जो प्रश्न उठते हैं, मन निरंतर उनके उत्तर खोजता रहता है. चेतन ढंग से भी और अचेतन ढंग से भी. और वे उत्तर ही मुझसे उपन्यास लिखवा लेते हैं. इस बार भी वही हुआ. वे प्रश्न मेरे मन में उमड़ते-घुमड़ते रहे. अपना उत्तर खोजते रहे. किंतु सबसे बड़ी समस्या थी कि मुझे उपन्यास लिखना था. मैं उपन्यास ही लिख सकता हूं और पाठक उपन्यास को पढ़ता भी है और समझता भी है. मैं जानता था कि यह कार्य सरल नहीं था. गीता में न कथा है, न अधिक पात्र. घटना के नाम पर बस विराट रूप के दर्शन हैं. घटनाएँ नहीं हैं, न कथा का प्रवाह है. संवाद हैं, वह भी नहीं, प्रश्नोत्तर हैं, सिद्धांत हैं, चिंतन है, दर्शन है, अध्यात्म है. उसे कथा कैसे बनाया जाए?

किंतु उपन्यासकार का मन हो तो उपन्यास ही बनता है, जैसे मानवी के गर्भ में मानव संतान ही आकार ग्रहण करती है. टुकड़ों-टुकड़ों में उपन्यास बनता रहा. पात्रों के रूप में संजय और धृतराष्ट्र तो थे ही; हस्तिनापुर में उपस्थित कुंती भी आ गयी, विदुर और उनकी पत्नी भी आ गये. गांधारी और उसकी बहुएं भी आ गयीं. द्वारका में बैठे वसुदेव, देवकी, रुक्मिणी और उद्धव भी आ गये. उपन्यासकार जितनी छूट ले सकता है, मैंने ली. किंतु गीता के मूल रूप से छेड़-छाड़ नहीं की. मैं गीता का विद्वान् नहीं हूं, पाठक हूं. उपन्यासकार के रूप में जो मेरी समझ में आया, वह मैंने अपने पाठकों के सामने परोस दिया.

तो इसे धर्म अथवा दर्शन का ग्रंथ न मानें. यह गीता की टीका अथवा उसका भाष्य भी नहीं है. यह एक उपन्यास है, शुद्ध उपन्यास, जो गीता में चर्चित सिद्धांतों को उपन्यास के पाठक के सम्मुख उसके धरातल पर ही प्रस्तुत करने का प्रयत्न करता है.

नरेंद्र कोहली के गीता पर आधारित उपन्यास ‘शरणम’ की भाषा की प्रौढ़ता, प्रांजलता विषय और चरित्रों के अनुकूल है। पात्रों का चरित्र चित्रण भी रोचक है और धृतराष्ट्र व गांधारी आदि का चरित्र बहुत सजीव व दिलचस्प हैं। पुस्तक में गीता की मौलिक व्याख्या की गई है। इसमें मुख्य पात्र धृतराष्ट्र और संजय के संवाद तो हैं, पर उपन्यास का ताना-बाना खड़ा करने के लिए इस प्रकार के अन्य भी युग्म या समूह हैं जो कृष्ण-अर्जुन के संवाद पर व तात्कालिक परिस्थितियों, घटनाओं, व्यक्तियों पर विचार करते हैं। इसमें विदुर उनकी पत्नी परासांबी व कुंती हैं। गांधारी व उनकी बहुएं हैं। वासुदेव व देवकी हैं। उद्धव व रूक्मणि भी हैं। इस प्रकार गीता का विवेचन विभिन्न दृष्टिकोणों से किया गया है। साथ ही पाठ को सरस बनाने और सैद्धांतिकी को रसपूर्ण और ग्राह्य बनाने के लिए केनोपनिषद और कठोपनिषद आदि से कथाएँ ली गई हैं और महाभारत से भी कई दृष्टातों को प्रस्तुत किया है। कुल मिला कर प्रयास ‘गीता’ के मूल तत्वों से समझौता किए बिना उसे रसपूर्ण, सरल और सुग्राह्य बनाने पर है।

उपन्यास में नरेंद्र कोहली भारत के क्षात्रधर्म का भी आह्वान करते हैं। उन्होंने हिन्दी साहित्य में आजादी के बाद महाभारत पर लिखे महत्वपूर्ण काव्य नाटक ‘अंधायुग’ का उल्लेख किया, जो युद्ध के पश्चात हुए विध्वंस और शान्ति की बात करता है।

अभिमत 
मैं नहीं जानता कि उपन्यास से क्या अपेक्षा होती है और उसका शिल्प क्या होता है। प्रतीत होता है कि आपकी रचना उपन्यास के धर्म से ऊंचे उठकर कुछ शास्त्र की कक्षा तक बढ़ जाती है। मैं इसके लिए आपका कृतज्ञ होता हूँ और आपको हार्दिक बधाई देता हूँ. -जैनेन्द्र कुमार (१९.८.७७)

मैंने आपमें वह प्रतिभा देखी है जो आपको हिन्दी के अग्रणी साहित्यकारों में ला देती है। राम कथा के आदि वाले अंश का कुछ भाग आपने ('दीक्षा' में) बड़ी कुशलता के साथ प्रस्तुत किया है। उसमें औपन्यासिकता है, कहानी की पकड़ है। भगवतीचरण वर्मा, (१९७६) 

आपने राम कथा, जिसे अनेक इतिहासकार मात्र पौराणिक आख्यान या मिथ ही मानते हैं, को यथाशक्ति यथार्थवादी तर्कसंगत व्याख्या देने का प्रयत्न किया है। अहल्या की मिथ को भी कल्पना से यथार्थ का आभास देने का अच्छा प्रयास. यशपाल (८.२.१९७६) 

रामकथा को आपने एकदम नयी दृष्टि से देखा है। 'अवसर' में राम के चरित्र को आपने नयी मानवीय दृष्टि से चित्रित किया है। इसमें सीता का जो चरित्र आपने चित्रित किया है, वह बहुत ही आकर्षक है। सीता को कभी ऐसे तेजोदृप्त रूप में चित्रित नहीं किया गया था। साथ ही सुमित्रा का चरित्र आपने बहुत तेजस्वी नारी के रूप में उकेरा है। मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि यथा-संभव रामायण कथा की मूल घटनाओं को परिवर्तित किये बिना आपने उसकी एक मनोग्राही व्याख्या की है। ...पुस्तक आपके अध्ययन, मनन और चिंतन को उजागर करती है।- हजारीप्रसाद द्विवेदी, (३.११.१९७६) 

दीक्षा में प्रौढ़ चिंतन के आधार पर रामकथा को आधुनिक सन्दर्भ प्रदान करने का साहसिक प्रयत्न किया गया है। बालकाण्ड की प्रमुख घटनाओं तथा राम और विश्वामित्र के चरित्रों का विवेक सम्मत पुनराख्यान, राम के युगपुरुष/युगावतार रूप की तर्कपुष्ट व्याख्या उपन्यास की विशेष उपलब्धियाँ हैं। डॉ॰ नगेन्द्र (१-६-१९७६) 

यूं ही कुतूहलवश 'दीक्षा' के कुछ पन्ने पलटे और फिर उस पुस्तक ने ऐसा intrigue किया कि दोनों दिन पूरी शाम उसे पढ़कर ही ख़त्म किया। बधाई. चार खंडों में पूरी रामकथा एक बहुत बड़ा प्रोजेक्ट है। यदि आप आदि से अंत तक यह 'tempo' रख ले गए, तो वह बहुत बड़ा काम होगा. इसमें सीता और अहल्या की छवियों की पार्श्व-कथाएँ बहुत सशक्त बन पड़ी हैं।धर्मवीर भारती २७-२-७६) 

मैनें डॉ॰ शान्तिकुमार नानुराम का वाल्मीकि रामायण पर शोध-प्रबंध पढ़ा है। रमेश कुंतल मेघ एवं आठवलेकर के राम को भी पढ़ा है; लेकिन (दीक्षा में) जितना सूक्ष्म, गहन, चिंतनपूर्ण विराट चित्रण आपने किया वैसा मुझे समूचे हिन्दी साहित्य में आज तक कहीं देखने को नहीं मिला. अगर मैं राजा या साधन-सम्पन्न मंत्री होता तो रामायण की जगह इसी पुस्तक को खरीदकर घर-घर बंटवाता". रामनारायण उपाध्याय (९-५-७६) 

आप अपने नायक के चित्रण में सश्रद्ध भी हैं और सचेत भी. ...प्रवाह अच्छा है। कई बिम्ब अच्छे उभरे, साथ साथ निबल भी हैं, पर होता यह चलता है कि एक अच्छी झांकी झलक जाती है और उपन्यास फिर से जोर पकड़ जाता है। इस तरह रवानी आद्यांत ही मानी जायगी. इस सफलता के लिए बधाई. ... सुबह के परिश्रम से चूर तन किन्तु संतोष से भरे-पूरे मन के साथ तुम्हें बहुत काम करने और अक्षय यश सिद्ध करने का आर्शीवाद देता हूँ. अमृतलाल नागर (२०.१० १९७६) 

प्रथम श्रेणी के कतिपय उपन्यासकारों में अब एक नाम और जुड़ गया-दृढ़तापूर्वक मैं अपना यह अभिमत आपतक पहुंचाना चाहता हूँ. ...रामकथा से सम्बन्धित सारे ही पात्र नए-नए रूपों में सामने आये हैं, उनकी जनाभिमुख भूमिका एक-एक पाठक-पाठिका के अन्दर (न्याय के) पक्षधरत्व को अंकुरित करेगी यह मेरा भविष्य-कथन है। -कवि बाबा नागार्जुन 

रामकथा की ऐसी युगानुरूप व्याख्या पहले कभी नहीं पढ़ी थी। इससे राम को मानवीय धरातल पर समझने की बड़ी स्वस्थ दृष्टि मिलती है और कोरी भावुकता के स्थान पर संघर्ष की यथार्थता उभर कर सामने आती है।..आपकी व्याख्या में बड़ी ताजगी है। तारीफ़ तो यह है कि आपने रामकथा की पारम्परिक गरिमा को कहीं विकृत नहीं होने दिया है। ...मैं तो चाहूंगा कि आप रामायण और महाभारत के अन्य पौराणिक प्रसंगों एवं पात्रों का भी उद्घाटन करें. है तो जोखिम का काम पर यदि सध गया तो आप हिन्दी कथा साहित्य में सर्वथा नयी विधा के प्रणेता होंगे." -शिवमंगल सिंह 'सुमन' (२३-२-१९७६)

डा नरेन्द्र कोहली का हिन्दी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान है। विगत तीस-पैंतीस वर्षों में उन्होंने जो लिखा है वह नया होने के साथ-साथ मिथकीय दृष्टि से एक नई जमीन तोड़ने जैसा है।...कोहली ने व्यंग, नाटक, समीक्षा और कहानी के क्षेत्र में भी अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया है। मानवीय संवेदना का पारखी नरेन्द्र कोहली वर्तमान युग का प्रतिभाशाली वरिष्ठ साहित्यकार है।" डा विजयेन्द्र स्नातक 

वस्तुतः नरेन्द्र कोहली ने अपनी रामकथा को न तो साम्प्रदायिक दृष्टि से देखा है न ही पुनरुत्थानवादी दृष्टि से. मानवतावादी, विस्तारवादी एकतंत्र की निरंकुशता का विरोध करने वाली यह दृष्टि प्रगतिशील मानवतावाद की समर्थक है। मानवता की रक्षा तथा न्यायपूर्ण समताधृत शोषणरहित समाज की स्थापना का स्वप्न न तो किसी दृष्टि से साम्प्रदायिक है न ही पुनरुत्थानवादी. - डॉ कविता सुरभि
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‘महाराज.’ धृतराष्ट्र अच्छी तरह पहचानता था कि यह गांधारी का स्वर था. यदि एकांत न हो, तो वह उसे इसी प्रकार सम्बोधित करती थी.

‘हुं.’ धृतराष्ट्र ने न सिर उठाया, न उसकी ओर देखने का अभिनय किया. वस्तुतः इस समय गांधारी का आना उसे तनिक भी नहीं सुहाया था. यदि कोई दासी यह संदेश लेकर आयी होती कि महारानी उससे मिलने के लिए आना चाहती हैं तो शायद उसने मना ही कर दिया होता. किंतु अब क्या हो सकता था, बुढ़िया तो स्वयं ही आकर सिर पर सवार हो गयी थी.

‘दुर्योधन अब तो कुरुक्षेत्र चला गया है… पर यहां था, तो ही भानुमती को कहां कुछ कहता था. बहू के आ जाने पर बेटा पराया हो जाता है. आप भी उसे कुछ नहीं कहते. वह जानती है कि उसे रोकने वाला कोई नहीं है. इसलिए सिंहनी बनी घूमती है. आज इसका फैसला हो ही जाना चाहिए. वह इस प्रकार मेरी अवज्ञा नहीं कर सकती. सास हूं उसकी, कोई दासी नहीं.’

धृतराष्ट्र के मन में आया कि पूछे कि गांधारी ने कब अपनी सास की अवज्ञा नहीं की? किंतु इस प्रकार का हस्तक्षेप उसके लिए ही कहीं कोई समस्या न बन जाए…

‘हाँ, हो जाएगा इसका भी फैसला. उसके लिए राजसभा का विशेष अधिवेशन बुलाया जाएगा.’ धृतराष्ट्र ने बुरा-सा मुँह बना कर कहा, ‘कुरुक्षेत्र में हो रहे युद्ध से भी बड़ा युद्ध हो रहा है न तुम्हारे यहाँ. उससे अधिक महत्त्वपूर्ण. उससे बड़े अधिकार का युद्ध. संसार का भविष्य भी इसी पर टिका है शायद. सास-बहू का युद्ध.’ वह रुका, ‘तुम दोनों अपना-अपना पक्ष चुनकर कुरुक्षेत्र जाकर वहीं अपना निर्णय क्यों नहीं कर लेतीं.’

गांधारी का कलेजा जल उठा. बुढ़ापे ने महाराज की बुद्धि ही भ्रष्ट कर दी है. उसके मन में जैसे गिद्धों का कोई बड़ा झुंड उतर आया था. मन हो रहा था कि धृतराष्ट्र की बोटी-बोटी नोच ले. युवावस्था में यही व्यक्ति उसका ऐसा लोभी प्रेमी था कि उसका संग छोड़ना ही नहीं चाहता था और अब वह अपनी ही पुत्रवधू के विरुद्ध उसका पक्ष लेने को भी तैयार नहीं है. इस परिवार में सब ही डरते हैं उस भानुमती से…

इससे पहले कि गांधारी की जिह्वा प्रातः नींद से जागे कौओं के झुंड के समान काँव-काँव कर उठती, द्वारपाल उपस्थित हो गया, ‘महाराज, दासियाँ समाचार लायी हैं कि संजय कुरुक्षेत्र से लौट आये हैं.’

धृतराष्ट्र ने चौंक कर अपना चेहरा उसकी ओर घुमाया, ‘इस प्रकार अकस्मात्?’

‘और क्या पहले हरकारा भेजता.’ गांधारी चुप नहीं रह सकी. उसे तो धृतराष्ट्र को डपटना ही था. भानुमती के बहाने न सही, संजय के बहाने ही सही, ‘सूत है आपका. कोई सम्राट नहीं है. उसे तो ऐसे अकस्मात् असूचित, अघोषित ही आना था.’

‘द्वारपाल, तुम जाओ.’ धृतराष्ट्र ने कहा. वह नहीं चाहता था कि द्वारपाल के सामने गांधारी उसे खरी-खोटी सुनाये और द्वारपाल बाहर जाकर अन्य सारे द्वारपालों को अपने महाराज की दीन स्थिति के विषय में सूचना दे.

सहसा उसने अपना चेहरा पीछे की ओर मोड़ा, ‘अरे वे दासियां तुमको सूचना देकर ही चली गयीं क्या? यहां नहीं आयीं? राजा को दी जाने वाली सूचना राजा को दी जानी चाहिए या द्वारपाल को?’

द्वारपाल की ओर से कोई उत्तर नहीं आया. वह सूचना देकर राजा को प्रणाम कर वापस जा चुका था.

‘चला गया क्या?’ धृतराष्ट्र ने जैसे अपने आप से कहा, ‘हवा के घोड़े पर सवार होकर आते हैं. मिनट भर रुकने में इनके प्राण निकलते हैं. अब सेवक भी स्वामियों के समान व्यवहार करने लगे हैं.’

‘सूचना देने आया था; सूचना देकर चला गया. आपका मित्र तो था नहीं कि चौसर बिछाकर बैठ जाता.’ गांधारी ने कुछ और विष उगला, ‘वैसे अब आपको क्या करना है दासियों का. आपके पहले ही एक सौ एक पुत्र हैं.’

‘मैं राजकीय शिष्टाचार की बात कर रहा था और तुम बच्चे पैदा करने तक जा पहुंचीं.’

‘राजकीय शिष्टाचार में दासियां कक्ष के बाहर से ही सूचनाएं देती हैं और वहीं से आदेश लेती हैं. वे राजाओं की गोद में नहीं बैठतीं.’

‘तुम्हारी भाषा बहुत अशिष्ट हो चुकी है. यह महारानियों की भाषा तो नहीं है. ऐसे में राजपरिवार के शिष्टाचार का निर्वाह कैसे होगा.’

धृतराष्ट्र के मन में स्पष्ट था कि यह गांधारी नहीं, उसकी वृद्धावस्था चिड़चिड़ा रही थी. आजकल उसके बोलने की यही शैली थी. तनिक-सा विरोध भी सहन नहीं कर सकती थी. कुछ कहो तो उसका स्वर तत्काल ऊंचा उठ जाता था. जब लड़ने लगती थी तो यह भी भूल जाती थी कि आस-पास कितनी दासियां हैं और कितने सेवक-चाकर हैं. हस्तिनापुर के महाराज धृतराष्ट्र को भी ऐसा धो डालती थी जैसे किसी अति साधारण कर्मचारी को फटकार रही हो. और धृतराष्ट्र का साहस नहीं होता था कि वह उसे कुछ कह सके. जरा-सा टोक दो, तो मर्यादाहीन प्रलाप तो होता ही था, वह आत्महत्या की धमकी तक दे डालती थी. शायद अधैर्य का ही दूसरा नाम वृद्धावस्था है. और अब दासियां… उनसे भी उसे ईर्ष्या होने लगी है. धृतराष्ट्र के पास बैठी अथवा उसके आस-पास मंडराती दासियां उसे अच्छी नहीं लगतीं. उसका वश चले तो वह उन सबको धृतराष्ट्र से कम से कम कोस भर दूर रखे.

उसने गांधारी की दिशा में मुख घुमा कर कहा, ‘ठीक कह रही हो तुम. वह सूत है तो सूत के समान ही व्यवहार करेगा न.’

‘तो आप भानुमती की ताड़ना करेंगे या मैं न्याय मांगने धर्मराज अथवा कृष्ण के पास जाऊं?’ गांधारी ने उसे अपने उसी बिगड़े कंठ से धमकाया. वह पुनः अपने मूल विषय पर लौट आयी थी.

मन हुआ कि चुप रह जाये. इस समय विवाद को बढ़ाने से क्या लाभ; किंतु कहे बिना रहा भी नहीं गया, ‘मैं तो केवल यह सोच रहा था कि आज युद्ध को आरम्भ हुए दस दिन हो चुके हैं. दस दिनों से समाचारों की टोह में संजय कुरुक्षेत्र में डेरा डाले बैठा था. तो आज ऐसा क्या हो गया कि सेनाओं की कोई हलचल हुई नहीं; राजा, मंत्री और सेनापति वहीं बैठे हैं; और यह इस प्रकार औचक ही हस्तिनापुर लौट आया?’

‘यह तो वही बताएगा. पूछ लेना उसी से.’ गांधारी ने कहा, ‘किंतु मेरे प्रश्न का क्या उत्तर है?’

धृतराष्ट्र देख तो नहीं सकता था किंतु अपनी कल्पना में वह देख रहा था कि इस समय गांधारी के चेहरे पर अत्यंत कटु भाव जमे बैठे होंगे, जैसे सैकड़ों बिच्छू डंक फैलाये घूम रहे हों. धृतराष्ट्र ने कभी बिच्छू देखा नहीं था; किंतु उसके मन में उसकी एक भयंकर कल्पना थी. वही कल्पना उसने गांधारी के चेहरे पर चिपका दी थी. जाने क्यों गांधारी को संजय का धृतराष्ट्र के पास आकर बैठना तनिक भी अच्छा नहीं लगता था. ये पत्नियां भी पति को अपनी सम्पति मान लेती हैं. धृतराष्ट्र का जो कुछ था, उस सब पर उसका अधिकार था. इतना अधिकार कि उसके लिए उसे धृतराष्ट्र से कुछ पूछने की आवश्यकता ही नहीं थी. धृतराष्ट्र के आस-पास वही रहे, वही बैठे, जो गांधारी को अच्छा लगता हो. सत्य तो यह था कि उसे किसी का भी धृतराष्ट्र के पास बैठना, उसके पास आना, उससे मिलना-जुलना अच्छा नहीं लगता था. कोई दो क्षण बैठ जाए तो तत्काल गांधारी का उपालम्भ चील के समान झपट पड़ता था, ‘हर समय दरबार लगाये बैठना आवश्यक है क्या? दरबारों से सम्राट नहीं होते, सम्राटों से दरबार होते हैं.’ क्या चाहती थी वह? बस वह बैठी अपनी बहुओं की निंदा करती रहे और उसकी दासियां उसे घेरे रहें. उसके आदेश उसकी बहुओं तक पहुंचाती रहें. बहुएं आदेश न मानें तो राजा, गांधारी के सम्मान की रक्षा के लिए बहुओं की डांट-फटकार करे, जैसे वे कहीं की अपराधिन हों. गांधारी को इस बात का अनुमान ही नहीं है कि बहुओं को तनिक-सा भी आभास हो जाए कि सास को सम्राट का सुरक्षा-कवच प्राप्त नहीं है, तो वे गिद्धों और सियारों के समान उसे जीवित ही नोच खायें… शायद वह आजकल की पुत्र-वधुओं के स्वभाव से परिचित नहीं थी.

‘दुर्योधन को भी देखो, न कोई संदेश, न संदेशवाहक; दस दिनों में एक भी संदेशवाहक नहीं भेजा.’ धृतराष्ट्र ने विषय बदला, ‘जैसे हमें अपने पुत्रों की कोई चिंता ही न हो.’

‘आप क्या सोचते हैं,’ गांधारी उखड़े हुए स्वर में बोली, ‘वह युद्ध-क्षेत्र में आपको ही स्मरण करता रहता होगा. महाराज को समाचार पहुंचाना ही उसका एकमात्र काम होगा. और कोई काम नहीं है, उसे. युद्धक्षेत्र में योद्धाओं को संदेश भेजने के लिए ही संदेशवाहक कम पड़ जाते होंगे. अब आपके पास भेजता रहे वह संदेशवाहक. कहां से कहां तक फैला हुआ यह युद्धक्षेत्र. कुछ पता भी है.’

‘ठीक है. ठीक है.’ इस बार धृतराष्ट्र कुछ चिड़चिड़ा गया. मन में तो आया कि कहे, कि वह तो नहीं जानता किंतु गांधारी तो युद्धक्षेत्र का क्षेत्रफल जानती है न. नाप कर जो आयी है. अपनी आंखों की पट्टी खोलकर कुरुक्षेत्र का चक्कर लगा कर आयी है क्या? या प्रतिदिन प्रातः वह वहां टहलने जाती है. बड़ी विदुषी बनी फिरती है. गंधार के ये सारे लोग एक जैसे ही होते हैं. पाखंडी… उसने अपनी चिड़चिड़ाहट को पीकर कहा, ‘अब प्रश्न यह है कि संजय के आने की प्रतीक्षा करूं या किसी को भेजकर उसे तत्काल आने का आदेश दूं?’

‘धैर्य रख सकें तो प्रतीक्षा करें. न रख सकें तो बुला भेजें. इसमें द्वंद्व की क्या बात है?’ गांधारी बोली, ‘किंतु जिसने अपना सारा जीवन द्वंद्व में ही बिताया हो और जो कभी किसी स्पष्ट निर्णय पर पहुंच ही न पाया हो, वह और कर ही क्या सकता है. आप तो शायद यह भी नहीं जानते कि परिवार की स्थिति देखकर, परिवार के मुखिया को इन अनसुलझे द्वंद्वों में उलझा और कर्म-पंगु देखकर ही तो मेरी बहुएं मेरी छाती पर मूंग दल रही हैं.’

‘अच्छा, उनसे कह दूंगा कि सास की छाती छोड़कर कहीं और जाकर मूंग दल लें.’ वह बोला, ‘किंतु वे मूंग दल ही क्यों रही हैं. पकौड़ियां तलेंगी क्या?’

‘मेरी पीड़ा पर मसखरी सूझ रही है आपको?’ गांधारी कुछ उग्र हो उठी, ‘मैं अपनी पर आयी तो…’ वह रुकी, ‘इससे तो अच्छा है कि संजय को बुला लीजिए और दोनों मिलकर शब्दों की जलेबियां तलिए.’

गांधारी जानती थी कि धैर्य धृतराष्ट्र के स्वभाव में नहीं है. अतः वह संजय को आने का आदेश भेजेगा ही… और धृतराष्ट्र का मन, गांधारी के वाक्य-खंड ‘मैं अपनी पर आयी तो’ पर अटक गया था. वह अपनी पर आयी तो क्या कर लेगी? वह धमका रही थी, अपने पति को, परिवार के मुखिया को, देश के सम्राट को.

वह संजय को बुलाने का निश्चय कर ही चुका था; किंतु उसे आदेश देने अथवा किसी को भेजने की आवश्यकता नहीं पड़ी. संजय स्वयं ही उसे प्रणाम करने आ पहुंचा था.

‘प्रणाम राजन्! प्रणाम महारानी!’

धृतराष्ट्र ने अपना चेहरा संजय की ओर मोड़ा. अपनी प्रकाशहीन पुतलियों को घुमाया और बोला, ‘अकस्मात् ही हस्तिनापुर कैसे आ गये संजय? क्या युद्ध समाप्त हो गया? मेरे पुत्रों को विजय मिल गयी?’

‘तो मैं चलूं.’ गांधारी ने अपने हाथ से दासी को सहारा देने के लिए निकट आने का संकेत किया, ‘आप लोग धर्म-चर्चा करें.’

धृतराष्ट्र ने कुछ नहीं कहा. वह गांधारी के जाने की प्रतीक्षा करता रहा. जब उसे पूरा विश्वास हो गया कि गांधारी उस कक्ष से जा चुकी है, तो उसने संजय की ओर मुख उठाया.

‘युद्ध तो समाप्त नहीं हुआ है राजन्!’ संजय के स्वर की व्यथा धृतराष्ट्र के कानों में धमक रही थी, ‘किंतु…’

‘किंतु क्या?’ संजय की व्यथा धृतराष्ट्र को अटका नहीं सकी. संजय का क्या है, वह तो पांडवों के लिए भी दुखी होकर रोता है.

‘युद्ध के परिणाम का कुछ-कुछ आभास होने लगा है.’

‘क्या हुआ? अर्जुन मारा गया क्या या भीम नहीं रहा?’ धृतराष्ट्र का आह्लाद उसके स्वर में भी था और उसके चेहरे पर भी.

‘नहीं. अर्जुन अथवा भीम नहीं.’ संजय का कंठ अवरुद्ध हो रहा था.

‘तो क्या कृष्ण नहीं रहा? तुम उसके बहुत भक्त थे न. धर्म का प्रतिरूप मानते थे उसे. उसे विजय का ध्वज समझते थे.’

‘नहीं महाराज, नहीं.’

‘तो?’

‘शिखंडी ने पितामह को धराशायी कर दिया है.’

‘पितामह का देहांत हो गया?’ धृतराष्ट्र के स्वर में पहली बार किंचित चिंता झलकी.

‘देहांत तो अभी नहीं हुआ. श्वास चल रहे हैं.’

‘आहत हैं? क्षत-विक्षत हैं? वैद्यों ने हाथ खड़े कर दिये हैं?’

‘शर-शैया पर पड़े हैं. प्राण अभी निकले नहीं हैं; किंतु पितामह अब उठ नहीं सकेंगे.’

‘वे उठेंगे नहीं, तो पांडवों से युद्ध कौन करेगा?’ धृतराष्ट्र ने सामने पड़ी चौकी पर अपनी मुट्ठी ठोक दी.

संजय उस एक वाक्य में बहुत कुछ सुन रहा था. स्पष्ट था कि धृतराष्ट्र पितामह को अपना वेतनभोगी सैनिक मानता था और उसने उन्हें पांडवों से युद्ध करने का दायित्व सौंपा था. वे धराशायी हो गये तो धृतराष्ट्र के अनुसार वे अपना कर्तव्य पालन करने से चूक गये थे. वे धराशायी हो कैसे सकते थे. उन्हें तो पांडव सेना से लड़कर उसे पराजित करना था.

धृतराष्ट्र ने स्वयं को तत्काल ही संभाल लिया, ‘पर शिखंडी ने उन्हें इतना आहत कैसे कर दिया? शिखंडी तो कोई ऐसा महान योद्धा भी नहीं है. पितामह के सामने वह चीज़ ही क्या है? कैसे कर सका वह यह दुस्साहस? हमारे योद्धा सो रहे थे क्या?’

‘नहीं. आपके योद्धा सो नहीं रहे थे.’ संजय ने कहा, ‘किंतु शिखंडी की रक्षा अर्जुन कर रहा था. शिखंडी को अर्जुन के बाणों का रक्षा-कवच प्राप्त था.’

‘अर्जुन.’ धृतराष्ट्र अपने स्थान से उठ खड़ा हो गया. वह अपनी व्याकुलता को संभाल नहीं पा रहा था. यह तो अच्छा ही हुआ कि गांधारी वहां से चली गयी थी. नहीं तो उसे अपनी सहज प्रतिक्रियाओं को भी बाधित करना पड़ता.

वह आकर अपने स्थान पर पुनः बैठा तो कुछ संयत लग रहा था, ‘किंतु यह हुआ कैसे? इन दस दिनों में पितामह और आचार्य मिलकर भी इस एक अर्जुन का वध नहीं कर सके?’

‘पितामह ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि वे पांडवों का वध नहीं करेंगे.’

‘यही तो मूर्खता है.’ धृतराष्ट्र की उद्विग्नता पुनः ज्वार पर थी, ‘युद्ध भी करेंगे और शत्रु से प्रेम भी करेंगे. उसको मारेंगे नहीं. यह कौन-सी नीति है? बड़े नीतिवान बने फिरते हैं.’

‘राजन्! पहली बात तो यह है कि वे पांडवों को अपना शत्रु नहीं मानते और दूसरी बात है कि इसी मूर्खता के कारण ही पितामह दस दिनों तक जीवित रहे, युद्ध करते रहे और पांचालों का निर्बाध वध करते रहे. नहीं तो…’

‘नहीं तो?’

‘यदि वे पांडवों का वध करने का प्रयत्न करते तो बहुत सम्भव था कि अर्जुन पहले ही दिन उनको धराशायी कर देता.’

‘तुम कहना चाहते हो कि अर्जुन उनका वध कर सकता था; किंतु उसने नहीं किया?’

‘न केवल अर्जुन ने उनका वध नहीं किया, वरन् कृष्ण और युधिष्ठिर के निरंतर आग्रह करते रहने पर भी शिखंडी को अपने बाणों का सुरक्षा-कवच प्रदान नहीं किया, ताकि वह पितामह पर घातक प्रहार कर पाता.’ संजय ने कहा, ‘शिखंडी बार-बार पितामह की ओर बढ़ता था और हर बार अपने पक्ष से सुरक्षा और समर्थन की कमी के कारण, या कहिए अर्जुन के असहयोग के कारण उसे लौट जाना पड़ता था. और अंततः…’

धृतराष्ट्र मौन अवश्य बैठा था; किंतु उसका कठोर चेहरा तथा ज्योतिहीन आंखें संवादों के भंडार बने हुए थे.

अंततः उसने अपनी चुप्पी तोड़ी, ‘मुझे आरम्भ से बताओ संजय! धर्म के क्षेत्र कुरुक्षेत्र में एकत्रित होकर मेरे और
पांडु के पुत्रों ने क्या किया?’ और सहसा उसने जोड़ा, ‘उससे पहले यह बताओ कि मेरे सारे पुत्र जीवित तो हैं? दुर्योधन सकुशल है?’

‘हां, अभी तक तो वे सब सकुशल हैं.’ संजय ने कहा, ‘मेरे वहां से चलने तक वे सब ही जीवित थे.’

‘तुम्हारा तात्पर्य है कि तुम्हारे कुरुक्षेत्र से यहां आने तक में…’

‘युद्ध में तो कुछ भी सम्भव है महाराज. वहां एक सिरे से दूसरे सिरे तक हवा में बाण उड़ते ही रहते हैं; और किसी के प्राण लेने के लिए एक बाण ही पर्याप्त होता है.’ संजय ने कहा, ‘यदि शिखंडी पितामह के प्राण ले सकता है, तो कोई भी कुछ भी कर सकता है.’

‘मुझे डरा रहे हो?’ धृतराष्ट्र के चेहरे पर सैकड़ों झंझावात एक साथ खेल रहे थे. वह संजय को धमका भी रहा था और उससे आश्वस्ति भी चाह रहा था.

‘नहीं महाराज. मैंने तो युद्ध सम्बंधी एक छोटा-सा सत्य कहा है.’ संजय ने सधे हुए स्वर में कहा.

‘तो फिर आरम्भ से बताओ.’

धृतराष्ट्र की उद्विग्नता देख संजय भी कुछ विचलित हो उठा. कभी-कभी धृतराष्ट्र पर दया भी आने लगती थी. इस वृद्ध के एक सौ पुत्र हैं; किंतु वे सब युद्ध में मृत्यु से जूझ रहे हैं. जाने कोई एक भी घर लौटेगा या नहीं… पर धृतराष्ट्र पर दया करने का अर्थ था, असंख्य निर्दोष लोगों के प्रति क्रूर होना… अधर्म से प्रेम करना…

‘कुरुक्षेत्र तो वह है; किंतु धर्मक्षेत्र क्यों कह रहे हैं उसे? वहां न यज्ञ है, न दान है, न तपस्या है.’ संजय ने अपनी ओर से प्रश्न कर दिया, ‘कोई यज्ञ करने के लिए तो वहां सेनाएं एकत्रित हुई नहीं हैं; न कोई यज्ञशाला बनवा रहे हैं वे लोग. एक-दूसरे का रक्त बहाने गये हैं; मिट्टी को रक्त से लाल करने.’

‘रक्त बहाने.’ धृतराष्ट्र अधरों ही अधरों में बुदबुदाया. फिर जैसे कांप कर बोला, ‘सत्य कह रहे हो. पर मेरा मन कहता है कि यदि यह कृष्ण चाहता तो इस युद्ध को रोक सकता था. चाहे तो अब भी रोक सकता है. पांडव पूर्णतः उसके कहने में हैं; किंतु नहीं रोका उसने. मुझे तो लगता है कि एक वही चाहता है कि यह युद्ध हो. उसकी हार्दिक इच्छा है कि क्षत्रिय लोग कटें, मरें. गिद्धों को भोजन मिले; सियार वीर योद्धाओं के शवों को घसीटें, उनकी दुर्दशा करें; और सारे क्षत्रिय समाज के परिवारों में विधवा स्त्रियां और अनाथ बच्चे ही रह जाएं- रोने-चिल्लाने के लिए, हाहाकार करने के लिए और कष्ट पाने के लिए.’

‘और दुर्योधन क्या चाहता है? आप क्या चाहते हैं?’

‘हम तो एक ही बात चाहते हैं कि पांडव युद्ध न करें.’

‘पांडव युद्ध न करें चाहे दुर्योधन उनका सर्वस्व छीन ले. उनके साथ घृणित दुर्व्यवहार करे, उनकी पत्नी का अपमान करे.’

‘वह तो राजनीति का अंग है.’ धृतराष्ट्र बोला, ‘किंतु यह कृष्ण.’ धृतराष्ट्र की इच्छा हुई कि अपना सिर धुन ले, ‘न युद्धक्षेत्र से हटता है, न शस्त्र धारण करता है. वह युद्ध का अंग माना जायेगा या नहीं.’

‘युद्ध तो महाकाल का अस्त्र है.’ संजय ने कहा, ‘कृष्ण के हाथ में कोई शस्त्र हो या न हो.’

धृतराष्ट्र ने कुछ कहने के लिए मुख खोला किंतु कुछ कहा नहीं. सोचता ही रह गया.

‘दुर्योधन शांति की बात नहीं करता.’ संजय ने पुनः कहा, ‘उसे तो अपनी विजय का इतना विश्वास है कि वह शांति का श भी सुनना नहीं चाहता. वह मानता है कि यदि वह शक्तिशाली है, तो वह न्याय की चिंता नहीं करेगा. आपके मन में एक बार भी नहीं आया कि यह युद्ध दुर्योधन के कारण हो रहा है. दुर्योधन के अन्याय के कारण हो रहा है. उसके अधर्म के कारण हो रहा है. आप युद्ध का दोष कृष्ण पर क्यों मढ़ रहे हैं?’

‘क्योंकि कृष्ण शांतिप्रिय नहीं है.’

‘रक्त-पिपासु हैं वे? हिंस्र हैं? बर्बर हैं? करुणा और प्रेम नहीं है उनके मन में?’ संजय कुछ-कुछ असंयत हो चला था.

‘नहीं. वह सब नहीं है. वह धर्मप्रिय है.’ धृतराष्ट्र का स्वर अवसाद में डूब गया, ‘कृष्ण धर्म की स्थापना का कोई भी मूल्य दे सकता है. निर्मम है वह- हृदयहीन. धर्मप्रिय लोग प्रायः स्वजन-निष्ठुर होते हैं. यदि युद्ध और शांति का निर्णय युधिष्ठिर पर छोड़ दिया जाता…’

‘तो क्या होता?’

‘युद्ध की स्थिति ही नहीं आती… मैं दुर्योधन से कह किसी न किसी प्रकार उसे पांच गांव दिलवा देता. किंतु यह कृष्ण… उसे धर्म चाहिए, प्रत्येक स्थिति में, प्रत्येक मूल्य पर. रक्त बहा कर धर्म. शवों के पर्वत पर खड़ा धर्म का प्रासाद. धर्म… पता नहीं, उसका अहिंसा में विश्वास क्यों नहीं है. ऋषियों की सेवा करता है तो फिर ‘अहिंसा परमोधर्मः’ में क्यों उसका विश्वास नहीं है?’

‘क्योंकि वे हिंसा और अहिंसा का तात्त्विक भेद जानते हैं.’ और सहसा संजय ने बात को दूसरी ओर मोड़ दिया, ‘आप कहते हैं कि कृष्ण चाहते हैं कि यह युद्ध हो.’ उसका स्वर तीखा होता जा रहा था, ‘और दुर्योधन के विषय में क्यों नहीं सोचते? वह चाहता है कि युद्ध न हो? पांडवों और कृष्ण की ओर से तो फिर भी शांति प्रस्ताव आया; किंतु दुर्योधन… दुर्योधन ने एक बार भी शांति की बात की? दूत के रूप में भेजा भी तो उस उलूक को, जो अपने अपशब्दों से पांडवों को और भी भड़का आया. युद्ध चाहता है दुर्योधन, क्योंकि वह समझता है कि अधर्म का पक्ष भी विजयी हो सकता है.’

‘आज तक तो वह विजयी होता ही आया है.’ धृतराष्ट्र तड़प कर बोला, ‘अब ऐसा क्या हो गया है कि वह विजयी नहीं हो सकता?’

‘अब तक वह विजयी होता रहा, क्योंकि धर्म ने अधर्म का प्रतिरोध नहीं किया. पुण्य ने पाप से युद्ध नहीं किया.’ संजय की वाणी में प्रखरता थी, ‘अधर्म तभी तक विजयी होता है, जब तक धर्म उसके विरुद्ध शस्त्र नहीं उठाता.’ संजय रुके. उन्हें लगा कि उन्होंने शायद धृतराष्ट्र को बहुत डरा दिया था.

‘तो भी क्या हुआ.’ संजय ने उसे सांत्वना देने का प्रयत्न किया, ‘आप क्यों चिंतित हैं. सेना तो दुर्योधन के पास ही अधिक है. एक से एक बढ़कर योद्धा भी हैं. पितामह अब शर-शैया पर हैं तो क्या हुआ. उन्होंने आपकी ओर से युद्ध कर दस दिनों तक शत्रुओं के शवों से युद्ध-क्षेत्र को पाट दिया है. द्रोणाचार्य आपके पक्ष से लड़ ही रहे हैं. अश्वत्थामा है, कृपाचार्य हैं, कृतवर्मा है. और भी अनेक हैं. इन सबको युधिष्ठिर पराजित कर पायेंगे क्या? कृष्ण का धर्म इन सबका क्या बिगाड़ लेगा?’

संजय को लगा कि यदि धृतराष्ट्र की आंखें देख सकतीं, तो संजय की मुस्कान किसी भी प्रकार छुप नहीं पाती.

धृतराष्ट्र की समझ में नहीं आया कि संजय उसको सांत्वना दे रहा है या उसका उपहास कर रहा है.

‘बात युधिष्ठिर की नहीं, कृष्ण की है. उस निर्मोही ने पितामह का भी सम्मान नहीं किया, चिंता भी नहीं की. बींध कर रख दिया शरों से. पांडवों के राजसूय यज्ञ में पितामह ने उसकी अग्रपूजा करवायी थी. उसी झंझट में बेचारा शिशुपाल कट मरा था. मेरा भय सत्य ही सिद्ध हुआ. कृष्ण ने इस युद्ध में पितामह की अग्रबलि दे दी है. यह अग्रपूजा का प्रतिदान है क्या?…’

‘क्षत्रिय तो बाण से ही प्रणाम करते हैं और बाण से ही पूजा भी करते हैं…’ संजय बोला.

‘कृष्ण को तो कोई संकोच नहीं हुआ. तुम्हें भी उसका पक्ष लेते हुए लज्जा नहीं आ रही. यह पूजा की है, उन्होंने अपने पितामह की?’ धृतराष्ट्र की अंधी आंखों से क्रोध की चिंगारियां बरस रही थीं, ‘ये धर्म के पक्षधर और सिद्धांतों के उन्नायक ही मानवता के लिए सबसे बड़े संकट बनते जा रहे हैं. इनका सिद्धांत जीवित रहना चाहिए, चाहे सारी मानवता का नाश हो जाए.’

संजय ने कुछ नहीं कहा; किंतु उसका मन कह रहा था, ‘पितामह क्षत्रिय हैं, उनके पौत्र भी क्षत्रिय हैं. जैसे बाणों से दादा स्नेह बरसा रहे थे, वैसे ही बाणों से पौत्रों ने उनकी पूजा कर दी.’

‘पितामह के जीवित रहते हमें कोई भय नहीं था; किंतु पहली सूचना उन्हीं की वीरगति की…’ अंततः धृतराष्ट्र ने ही बात आरम्भ की, ‘उन्हें उनका धर्म भी नहीं बचा पाया.’

‘यदि बात धर्म की ही है तो पितामह को क्या भय. वे आजीवन धर्म पर टिके रहे हैं. धर्म का आचरण करते रहे हैं. वे भी धर्म का मर्म जानते हैं. वे धर्म को समझकर ही तो दुर्योधन के प्रधान सेनापति बनकर युद्धक्षेत्र में खड़े थे.’ संजय ने स्वयं को पूरी तरह समेट कर कहा, ‘धर्म दो-चार तो हो नहीं सकते. पितामह और श्रीकृष्ण के धर्म भिन्न कैसे हो
सकते हैं?’

‘बहुत सीमित था पितामह का धर्म. वे इतना ही जानते थे कि धर्म की गति अत्यंत सूक्ष्म है.’ धृतराष्ट्र जैसे अपने-आप से ही बोला, ‘भ्रम की साक्षात् मूर्ति हैं पितामह! और कृष्ण भ्रमों को जड़ से उखाड़ फेंकता है.’

‘कैसे?’

‘पितामह का धर्म अपने कुल की रक्षा तक है. वे कौरवों को मरने नहीं देना चाहते थे. वंश की रक्षा ही धर्म है उनका. आत्मरक्षा धर्म है पितामह का किंतु कृष्ण का धर्म…’

‘श्रीकृष्ण का धर्म भिन्न है उससे?’

‘कृष्ण का धर्म भी आत्मरक्षा है; किंतु वहां ‘आत्म’ बहुत व्यापक है. वह ऋत् की रक्षा करेगा, किसी कुल की नहीं. वह पांडवों की भी बलि दे देगा; किंतु धर्म को पराजित होने नहीं देगा.’

‘पर ऐसा क्यों है?’ संजय चकित था, ‘श्रीकृष्ण तो पांडवों को उनका अधिकार दिलाने के लिए युद्ध कर रहे हैं.’

‘तुम छोड़ो वह सब.’ धृतराष्ट्र का अधैर्य उसके चेहरे पर ही नहीं, उसकी वाणी में भी प्रकट हो गया, ‘तुमको तो महर्षि व्यास ने दिव्य दृष्टि दी थी, फिर तुम कुरुक्षेत्र क्या करने चल दिये? दस दिन धक्के खाते रहे वहां. कोई सूचना नहीं भेजी, कोई समाचार नहीं. अब आये भी तो ऐसा अशुभ समाचार लेकर.’

‘आपके पास चर्मचक्षु नहीं हैं; और महर्षि आपको दिव्य दृष्टि दे रहे थे, तो आपने मना क्यों कर दिया?’ संजय ने धृतराष्ट्र के प्रश्न का उत्तर नहीं दिया.

‘तुम चाहते हो कि मैं अपनी आंखों से अपने पुत्रों को कटते-मरते देखूं. कोई और चर्म चक्षुओं से युक्त पिता भी होता तो ऐसे समय में अपनी इच्छा से अंधा हो जाना पसंद करता. सारा जीवन अंधकार में बिताया तो अब क्या करना था मुझे दिव्य दृष्टि लेकर.’ धृतराष्ट्र किसी बिगड़ैल पशु के समान भड़क उठा था, ‘इतने ही कृपालु थे ऋषि, तो मेरे जन्म के समय ही दे देते मुझे चर्म-चक्षु. दे दिये होते तो मुझे हस्तिनापुर के राजसिंहासन से च्युत तो न किया जाता. तब न पांडु का कोई अधिकार था राज्य पर और न पांडवों का. उस समय, मेरे जन्म के समय तो चुपचाप लौट गये. जा बैठे अपने आश्रम में. और अब दिव्य दृष्टि देने चले हैं. पर तुम्हारे पास तो थी दिव्य दृष्टि… तुम क्या करने गये थे, कुरुक्षेत्र.’

‘यहां बैठा मैं केवल देख सकता हूं; या फिर सुन भी सकता हूं. किसी चित्रपट के चित्रों के समान.’ संजय, धृतराष्ट्र के प्रश्न पर लौट आया, ‘न उन्हें छू सकता हूं, न उनसे चर्चा कर सकता हूं; क्योंकि न वे मुझे सुन सकते हैं, न मैं उनको सुन सकता हूं. मैं गया था कुरुक्षेत्र. उन सबका मन टटोलने.’

‘क्या पाया, बोलो.’

‘वहां विशेष क्या था देखने को.’ संजय ने कहा, ‘दोनों ओर की सेनाएं सज गयी थीं. व्यूह बन गये थे. युद्ध आरम्भ करने की ही देर थी कि युधिष्ठिर का भय अपने भाइयों के सम्मुख मुखर हो उठा. वे बोले, ‘दुर्योधन की इस विशाल सेना से हम कैसे लड़ेंगे? कैसे जीतेंगे?’ अर्जुन ने उन्हें आश्वस्त किया, ‘विजय तो धर्म की ही होती है; और धर्म वहां है, जहां श्रीकृष्ण हैं. हमने आजीवन श्रीकृष्ण में धर्म देखा है; इसलिए उन्हें कभी छोड़ा नहीं है. श्रीकृष्ण के अपने सारे परिजन उन्हें छोड़ गये हैं; किंतु न कभी हमने उन्हें छोड़ा, न उन्होंने हमें छोड़ा.’

‘छोड़ो कृष्ण और अर्जुन को.’ धृतराष्ट्र पूर्णतः झल्लाया हुआ था, ‘मुझे बताओ, दुर्योधन ने क्या किया.’

संदर्भ -
बाबू गुलाब राय काव्य के रूप, आत्मा राम एंड संस, दिल्ली, प्रथम- 1970, 04
डा0 रमेश चन्द्र शर्मा हिन्दी साहित्य का इतिहास, विद्या प्रकाशन गुजैनी, कानपुर चतुर्थ- 2008, 14
डा0 श्री भगवान शर्मा गद्य संकलन कक्षा 9 (यू0पी0 बोर्ड) रवि आफसेट प्रिंटर्स, आगरा, द्वितीय 2003- 04, 02
डा0 बद्रीदास हिन्दी उपन्यास पृष्ठ भूमि और परम्परा ग्रंथम प्रकाशन, रामबाग कानपुर प्रथम- 1966, 89 9.
डा0 बद्रीदास हिन्दी उपन्यास पृष्ठ भूमि और परम्परा ग्रंथम प्रकाशन, रामबाग कानपुर प्रथम- 1966, 90 10.
डा0 कंचन शर्मा विश्वम्भरनाथ उपाध्याय के उपन्यास साहित्य निकेतन कानपुर, प्रथम- 2005, 175 11. डा0



शनिवार, 10 अप्रैल 2021

कही ईसुरी फाग, उपन्यास, मैत्रेयी पुष्पा

पुस्तक चर्चा 

कही ईसुरी फाग, उपन्यास, २०१८, मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ ३३९, आवरण सजिल्द बहुरंगी, आईएसबीएन ९७८८१२६७०८८३३

कुछ अंश

ऋतु डॉक्टर नहीं बन पाई क्योंकि रिचर्ड गाइड प्राध्यापक प्रवर पी.के. पाण्डे की दृष्टि में ऋतु ने ईसुरी पर जो कुछ लिखा था, वह न शास्त्र-सम्मत था ,न शोध अनुसंधान की जरूरतें पूरी करता था। वह शुद्ध बकवास था क्योंकि ‘लोक’ था। 

‘लोक’ में भी कोई एक गाइड नहीं होता। लोक उस बीहड़ जंगल की तरह होता है जहाँ अनेक गाइड होते हैं-जो जहाँ तक का रास्ता बता दे वही गाइड बन जाता है-कभी-कभी तो कोई विशेष पेड़, कुआँ या खंडहर ही गाइड का रूप ले लेते हैं। ऋतु भी ईसुरी-रजऊ की प्रेम कथा के ऐसे ही बीहड़ों के सम्मोहन का शिकार है। बड़ा खतरनाक होता है जंगलों, पहाड़ों, और समुद्र का आदिम सम्मोहन...हम बार-बार उधर भागते हैं किसी अज्ञात के ‘दर्शन’ के लिए ‘कहीं ईसुरी फाग’ भी ऋतु के ऐसे भटकावों की दुस्साहसिक कहानी है।

शास्त्रीय भाषा में ईसुरी शुद्ध ‘लम्पट’ कवि है- उसकी अधिकांश फागें एक पुरुष द्वारा स्त्री को दिये शारीरिक आमंत्रणों का उत्वीकरण है। जिनमें श्रृंगार काव्य की कोई मर्यादा भी नहीं है। इस उपन्यास का नायक ईसुरी है, मगर कहानी रजऊ की है-प्यार की रासायनिक प्रक्रियाओं की कहानी जहाँ ईसुरी और रजऊ दोनों के रास्ते बिलकुल विपरीत दिशाओं को जाते हैं। प्यार बल देता है तो तोड़ता भी है...

सिद्ध संगीतकार कविता की किसी एक पंक्ति को सिर्फ अपना प्रस्थान बिन्दु बनाता है-बाकी ठाठ और विस्तार उसका अपना होता है। बाजूबंद खुल-खुल जाए में न बाजूबंद रात-भर खुल पाता है, न कविता आगे बढ़ पाती है क्योंकि कविता की पंक्ति के बाद सुर-साधक की यात्रा अपने संसार की ऊँचाइयों और गराइयों के अर्थ तलाश करने लगती है। मैत्रैयी पुष्पा की कहानी उसी आधार का कथा-विस्तार है-शास्त्रीय दृष्टि के खिलाफ़ अवैध लोक का जयगान।

अस्वीकृति पत्र

प्रमाणित किया जाता है कि कुमारी ऋतु ने हिन्दी विषयान्तर्गत ‘ईसुरी के काव्य में नारी संचेतना’ शीर्षक से शोधकर्ता पी.एच.डी की उपाधि हेतु मेरे मार्ग-निर्देशन में निष्पादित एवं पूर्ण किया है। शोधार्थी ने दो सौ दिवस से अधिक की उपस्थितियाँ दर्ज कराई हैं।

मेरी जानकारी एवं विश्वास में प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध शोधार्थी का स्वयं का कार्य है। विषय चयन की दृष्टि से भी यह कार्य गम्भीर अध्ययन-विश्लेषण की माँग करता है, क्योंकि शोधकर्ता का लक्ष्य होता है अज्ञात को ज्ञात करना तथा ज्ञात को नई दृष्टि के आलोक में विश्लेषित करना।परंतु इस शोध को लेकर मेरी कुछ आपत्तियाँ हैं क्योंकि इस प्रबन्ध विश्वविद्यालय की शोध-उपाधि के लिए अध्यादेश की आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं करता।

1. शोधग्रन्थ के निष्कर्षों के लिए कुछ लिखित प्रमाण आवश्यक होते हैं, जैसे-विद्वानों द्वारा लिखे गए ग्रन्थों से उद्धरण, इतिहास ग्रन्थों से लिए गए प्रमाण, पत्र-पत्रिकाओं में दिए गए मंतव्य। ऐसे ही साक्ष्यों से निष्कर्षों को पुष्ट किया जाता है। अन्य पांडित्यपूर्ण गवेषणाएँ, जो शोध का आधार हो सकती हैं, इस शोध-प्रबन्ध में नहीं है। तब फिर संदर्भ नोट और संदर्भ-सूची बनाने की जरूरत महसूस नहीं हुई।

अनावश्यक काल्पनिक बातों, सुनी-सुनाई किंवदन्तियों को शोध का आधार बनाया गया है। साहित्य में अभी तक ‘ईसुरी और रजऊ’ ये दो ही नाम मिलते हैं। लोक साहित्य, वह भी मौखिक माध्यम, इस दिशा में कोई मानक प्रमाण नहीं हो सकता। यह शोध तो एक तरह से ईसुरी जैसे महान कवि का चरित्र हनन है। यदि हमारे कीर्ति-पुरूषों पर इस तरह के शोध-प्रबन्ध लिखे जाएँगें तो हम उनकी प्रतिष्ठा की रक्षा किस प्रकार कर पाएँगे ?

2.जहाँ तक इस शोध-प्रबन्ध की भाषा का प्रश्न है, वह भी तत्सम, प्रांजल और परिनिष्ठित रूप में नहीं है। चालू मुहावरे की बोलचाल वाली भाषा का प्रयोग किया गया है। माना कि यह रोचक और लोकप्रिय हो सकती है, मगर साहित्यिक नहीं। भाषा के इस व्यवहार से शोध की शास्त्रीय गरिमा को ठेस पहुँचती है। यह मान्य प्रविधि के प्रतिकूल है।
कुल मिलाकर मैं विश्वविद्यालयीन अकादमिक स्तरीयता को देखते हुए इस शोध-प्रबन्ध पर शोधकर्ता को पी.एच.डी की उपाधि देने की अनुशंशा करने के लिए विवश हूँ।
-डॉ.प्रमोद कुमार पाण्डेय
निर्देशक

नाटक

दिन के साढ़े दस बजे थे। गली में धूप फैल गई थी। तभी मैरून रंग की चमचमाती हुई कार सर्राटे से गली में घुस आई। उस चबूतरे के पास खड़ी हो गई, जिसके ऊपर नीम का पेड़ था और नीम के आगे बैठका बना था। बैठका के किवाड़ बन्द थे, क्योंकि फगवारे रात के लिए फाग-नाट्य का अभ्यास कर रहे थे। इसलिये उन्हें इस ‘आई कोन फोर्ड’ ब्रान्ड कार के आने का पता नहीं चला। हार्न की आवाज भी सुनाई नहीं दी। अन्दर झीका नगड़िया, मंजीरा, ढोल और रमतूला जैसे वाद्य बज रहे थे। गली में बहुत सारे बच्चे इकठ्ठे हो गए। इनकी आँखों में भी कोई कौतूहल न था, अभ्यस्तता-सी थी, जैसे कार का आना-जाना अक्सर देखते हों अपने गांव में। बहरहाल छोटे से छोटा बच्चा कार में से उतरने वालों की उम्मीद भरी नजरों से देख रहा था। किसी-किसी बच्चे ने कार के शीशे पर आँखें सटा रखी थीं।

क्या इस कार में से कोई परी उतरने वाली है ? या कोई सांता क्लॉज, जो इन बच्चों के लिए तोहफे लाए ? मगर बहुत देर तक कोई नहीं उतरा।

कार ड्राईवर बराबर हॉर्न दिए जा रहा था। गली कर्कश शोर से भर गई। बच्चे भी सहम कर पीछे हट गए। गली में खुलने वाले घरों से इक्का-दुक्का लोग निकले, जो कार को देखकर घरों में ही लौट गए।

तभी बैठका का दरवाजा खुला। किवाड़ों के बीच नगड़िया बजानेवाला कलाकार दिखा। और फिर कार के पिछले दरवाजे खुले। भीतर से जो निकले, वे दो लड़केनुमा आदमी थे। पोशाक के नाम पर जींस के साथ डेनम की जैकेट। छाती पर बटन खुले हुए। इनकी इकहरी छाती के बाल मर्दानगी की निशानी हैं, दिख रहा था। गले में फैशन के तहत रूद्राक्ष की मालाएँ और बाहों पर काले धागे के जरिए बँधे ताबीज। उनका पहनावा यूनीफार्म की तरह था, जो किसी संस्था की एकता के चिन्ह की तरह होता है। संस्था के क्या तेवर होंगे, यह लड़कों की सुर्ख आँखों से जाना जा सकता था। उनकी नजरें भी नेजों की तरह तेज थीं। जल्दबाजी अंगों में फड़क रही थी। चाल में खास किस्म की दमक, जो दहशत-सी पैदा करती थी। चेहरे के भावों में लोलुपता का रंग लार की तरह टपकता था। मुझे ऐसा ही लगा। हो सकता है अपने लड़कीपन के कारण लगा हो, जो संस्कारों में घुला है।

वे बैठका के भीतर समा गए। अभिनय के लिए ‘ग्रीन रूम’ रूपी कोठे में बहती वाद्यों की स्वर-तरंगें यकायक ऐसे रुक गई जैसे सामने कोई अलंघ्य पहाड़ आ गया हो। कहाँ मौके के हिसाब से वाद्यों के साथ फागें ऐसे क्रम में बिठाई जा रही थीं, जैसे माला को मोहक और मजबूत बनाने के लिए मनकों और धागे को जोड़ा जाता है ।

कथा के अनुसार लोककवि ईसुरी की उन फागों को विशेष महत्त्व दिया जा रहा था, जो उनकी प्रेमिका रजऊ की ओर से थीं।

लड़के अब फगवारों के आमने-सामने थे। मैं उन्हें बाहर से देख रही थी। मैं, अर्थात ऋतु नाम की युवती। मैंने माइकेल जैक्सन को टेलीविजन के पर्दे पर देखा है। कार से उतरकर यहाँ तक आने वाला एक लड़का माइकेल जैक्सन छाप लम्बे बाल रखे हुए था, लम्बे और सीधे। दूसरे के सिर पर खूँटानुमा छोटे बाल थे। मेरा साथी माधव ऐसे बालों को अमेरिकन स्टाइल में ‘क्रूकट’ कहता है। दोनों लड़कों का कद लम्बा माना जा सकता था, ऐसा जैसा की पुलिस और सेना के लिए काम करने वाले युवकों की भर्ती करते समय लम्बाई और सीने की चौड़ाई का खास माप रखा जाता है।

बेशक वे पतली कमर के मालिक थे और जरूरत से ज्यादा चौड़ी पेटियाँ कमर में बाँधे थे। मैंने यह भी गौर किया कि वे सीढ़ियों के जरिए चबूतरे पर नहीं चढ़े थे, खास तरीके से टाँगें उछालते हुए ऊपर आ गए थे। इस अदा ने उनके रूप को नई तरह का रूतवा दिया था, इसमें संदेह नहीं। साथ ही खुली किवाड़ों को बेमतलब धकियाते हुए बैठका में प्रविष्ट हुए, उनकी अपनी नई शैली थी। और फिर-

‘‘हल्लो’’ धीरे पंडा का अभिनय करने वाला फगवारा फुर्ती से आगे बढ़ता हुआ आया और हाथ बढ़ाकर माइकेल जैक्सन से हाथ मिलाया।

मगर इसके बरक्स मेरी निगाह वहाँ ठहर गई, जहाँ कार ड्राइवर अपनी जेब से टॉफी निकाल-निकालकर बच्चों को बाँट रहा था और बच्चे उत्फुल्ल होकर होंठों पर जीभ फेरते हुए छोटे-छोटे हाथों से सौगात ग्रहण कर रहे थे।
इधर क्रूकट पूछ रहा था- ‘‘कैसे हाल-चाल हैं ?’’
‘‘नाटक कर रहे हैं। फागें बढ़िया रंग लै रही हैं।’’ धीरे पंडा ने कहा।

इतने में दो मूढ़े बराबर-बराबर रख दिए गए। वे दोनों इत्मिनान से मूढ़ों पर विराजे और दो क्षण बाद ही माइकेल जैक्सन ने अपनी जैकेट की जेब से छोटी-सी थैली निकाली। थैली खैनी की थी। वह हथेली पर खैनी अँगूठे से मलने लगा, पट्ट-पट्ट की आवाज हुई। खैनी मुँह में डालने से पहले सवाल किया- ‘‘कितने दिनन को पिरोगराम है ?’’
मैं चौकी। अत्याधुनिक वेशभूषा और अति गँवार भाषा-बोली !
धीरे पंडा जवाब दे रहा था- ‘‘ सरस्वती देवी जानें कि हमें कितेक दिनन रोकेंगीं।’’
‘‘फिरऊँ।’’ क्रूटक ने मुँह मटकाया।
‘‘हफ्ता-दस दिना तो मामूली हैं। गाँव में भी जोश है।’’
‘‘कैसो गाँव है ! गाँवन में आजकल फागें को सुनत ? बैंचो सब पिक्चर के दिवाने हैं। सबै स्वाँग चइर।’’
‘‘चइर, तब ही तो हमने फागें नाटक में ढाली हैं। सरस्वती देवी नई-नई जुगत खोजने वाली जनी है। सो देख लो रात को लोग आसपास के गाँवों से चले आ रहे।’’ धीरे पंडा अपने काम पर मुग्ध था।
मैं कोठे के बाहर खड़ी थी। माइकेल जैक्सन बीच-बीच में बाहर देख लेता था। थोड़ी ही देर बाद पूछ बैठा- ‘‘मंडली में लड़कियाँ भर्ती करलईं का ?’’

नगड़िया वाला तुरंत बोला - ‘‘अरे आँहा !’’ कहकर उसने कानों में हाथ लगाया। माइकेल जैक्सन सिर हिला-हिला कर मुस्काया और बोली में व्यंग्य मिलाकर बोला- ‘‘हओ, ऐसो पाप करम तुम्हारी सरसुती नहीं करेंगी, काए से कि बैंचो फगवारे मतवारे हो जाएँगे। फागुन में क्वार महीना।’’ कहकर वह ठाहाका लगाकर हँसा। क्रूकट ने हँसी में साथ निभाया। आगे क्रूकट बोला- ‘‘खुर्राट डुकरिया है, सिरकारी लोगन खों भरमा रही है।’’

धीरे पंडा बनने वाला कलाकार माइकेल जैक्सन और क्रूकट के गूढ़ दर्शन को नासमझ की तरह मुँह बाए सुन रहा था। बाकी फगवारे भोले बच्चों की तरह स्वीकृति में सिर हिला रहे थे।

हाँ मैं तनिक पीछे हट गई कि वे मुझे न देख सकें। मगर वे भी तो मुझे नहीं दिख पा रहे थे। बस उनमें से एक की आवाज सुनाई दी- ‘‘तुम लोग खुदई देखोगे एक दिना कि तुम्हारी बूढ़ी सरसुती चिरइया जहाज में बैठके उड़ गई। हम ऐसी तमाम औरतन खों जानते हैं, जौन अनुदान खा-खाकें मुटिया रही हैं। सो बस सरसुती जी होंगी मालामाल और तुम ससुर जू ठोकते रहो नगड़िया, नाचते रहो जिन्दगी भर-।’’

मैं आवेश में उस खिड़की पर आ गई, जिनके पाटों के बीच महीन-सी फाँक थी। मेरे भीतर गालियों की झड़ी लग गई- बदतमीज, बदमाश, गुंडे सरस्वती देवी का इस तरह अपमान कर रहे हैं ? आखिर वे इनका क्या खाती हैं ? मालामाल हो गईं होती तो छोटे से गाँव सटई में रह रही होतीं ? कच्ची गलियों में पैदल चल रही होतीं ?

अब क्रूकट की बारी थी- ‘‘हम कितेक समझाएँ तुम्हें कि हाथी के दाँत खावे के और, दिखावे के और। इन सरसुती जू के भरोसे न रहो, लछमीं जू का भी मान-आदर करो। कहो, हमारे संगै जब-जब गए हो, जेबें भरके रूपइया मिले हैं कि नहीं ?’’
धीरे पंडा ने हामी भरी, सिर ऊपर-नीचे हिलाया। नगड़िया वाले ने मुस्कराहट के साथ कहा- ‘‘सो ऐसान मानते हैं हम तुमारा।’’

माइकेल जैक्सन ने उँगली के बाद कलाई पकड़ने जैसा भाव दिखाया- ‘‘ऐसान काय का ? बैंचो आँधी के से आम हते। कोन-सी परमामेन्ट आमदनी हती ? ऐसान तो तब मानोगे, जब पाँच सितारे वाले होटिल में तुम्हें ठाड़े कर देंगे हम। पोंदन (चूतरों) के नीचे मखमल और पाँवन तले ईरानी कालीन’’ धीरे पंडा अकबकाया- सा देखने लगा।

क्रूकट बोला-‘‘उजबक की तरियाँ क्या देख रहे ? हमारी तरफन अच्छी तरह हेरो। देख लो, मोबाइल गरे में डारे हैं और तमंचा जेब में धरे हैं। बैंचो आईकोन ठाड़ी है अरदली में, और क्या चइए आज के जमाने में ? सेठन के मोंड़ा क्या सोने की लेंड़ी हग रहे सो हम नहीं हग रहे ?’’ वाक्य समाप्त करने तक क्रूकट के हाथ में पिस्तौल दिखाई दी। उसने अपने हथियार को धूर्तता से मुस्कराते हुए उस खिड़की की ओर तान दिया, जिधर मैं खड़ी थी।
‘‘यार धीरे पंडा, हुनर खों पहचानो। तुम्हारे जैसी अदाकारी इलाका भर में नहीं है किसी के भीतर। बास्टर सारूफ खाँ की माँ..

तब तक माधव लौट आया, जो नहाने गया था। बाँह पर भींगे अण्डरवियर और बनियान लटकाए हुए साँवले और इकहरे बदन वाला माधव धुली साफ बनियान और पायजामा पहने हुए पूछ रहा था- ‘‘ऋतु, पड़ौस वाले घर से कोई खाने के लिए लिवाने नहीं आया ? सरस्वती देवी तो कह रही थी कि इनकी साथिन सरोज हमारे लिए खाना बना रही है।’’
मैं माधव की बात सुनकर झुँझला गई, क्योंकि पहले से खीझी हुई थी।

‘‘तुम्हें तो खाने की पड़ी है बस। यह क्या खाने ही आए थे ? और अब इतनी देर में आए हो, क्या नदी नहाने गए थे ?’’ कहना चाहती थी कि देखो हमारी तुम्हारी उम्र के लड़के क्या तूफान उठाने वाले हैं !

मगर तब तक क्रूकट मंडली के बीच लाठी की तरह खड़ा हो गया था। कहने के लिए मैंने उधर से मुँह फेर लिया, क्योंकि माइकेल जैक्सन ने खिड़की खोल दी थी और वह..पंडा से कह रहा था- ‘‘यार सरसुती बाई की चेली से इंटोडैक्सन तो करा दो । इनें तौ एक दिन रजऊ को पाट खेलनें ही हैं और हमारे संगै जानें ही है। सरसुती खों इन मेनका जू के दम पर अनुदान नहीं खाने देंगे हम। जो कि वे खाएँगी कि इस्तरी ससक्तीकरन कर रही हैं। और ससुर जू तुम्हें लोहे के लंगोटों में कस देगी कि बधिया हो जाओ।’’

माइकेल जैक्सन हँस पड़ा- ‘‘तब भागोगे मंडली छोड़कर। मौकापरस्त औरत के दाँव अभी से समझ लो ससुरी खों उल्टी मात दै दो।’’
धीरे पंडा बनने वाला अभिनेता मंडली का मुख्य आदमी है। वह कभी इन लड़कों को ललचाई निगाह से देखता तो कभी आँखें अजिज-सी हो जातीं।
‘‘अच्छा ठीक है। जो जब होगा सो तब देखा जाएगा। तुम तो अपनी सुनाओ।’’

माइकेल जैक्सन के चेहरे पर आत्मविश्वास बोल रहा था- ‘‘क्या बता दें, बैंचो देख नहीं रहे कि ‘आइकोन’ झुपड़िया के आगे काए ठाड़ी ? हम भइया जौहरी हैं, हीरा तलासते फिर रहे हैं। तुम्हें चमकनें है तो चलो संगै, नातर ससुर जू इतै परे-परे घूरा चाटो।’’ धीरे पंडा ने हाथ जोड़कर उन लड़कों की औकात बढ़ा दी। वह गर्व से बोला-‘‘ तुम कह रहे थे यह वारी-फुलवारी सरसुती देवी के कारण फूली-फली है तो हम कह रहे हैं नास भी उन्हीं के कारन होगी नास-विनास में तुम न घिरो। फिरांस की पार्टी आई है, राग-रंग की सौखीन है। ओरक्षा में रजऊ और ईसुरी की प्रेम कहानी सुनी होगी। सालिगराम कराटे गुनी गाइड है, सो समझा दई कि बुन्देलखण्ड में पग-पग पर मनमोहिनी लुगाई हैं।’’

मानकेल जैक्सन ने जेब में से छोटा सा पर्स निकाला। धीरे पंडा बननेवाले कलाकार के आगे हजार-हजार के दो नोट लहरा दिए।
‘‘देख रहे हो ऐसे तो कितने ही पैदा हो जाएँगे। फ्रेंक, पोंड और डॉलर की माया देखोगे तो गस आ जाएगा। इतै तुम ससुर जू पूरी पपरिया खाकर समझ रहे हो, राजा हो गए। चना-चबैना रोज की खुराक मान रहे हो। क्या कहते हैं कि लाई के लडुआ सुईट डिस। अब तक गाँवों के कलाकार ऐसे लुटते रहे हैं। ईसुरी की लीला कर रहे हो ईसुरी की असलियत जानते हो ? कैसी दिसा भई। तुम्हारे लानें तो कोई आवादी बेगम भी पैदा नहीं होने वाली। आज की औरतें सरसुती बनकर तुम्हें तबाह कर देंगी।’’

मैं बुरा मानू मुझे होश नहीं था। मेरी वह दुनिया उजड़ी जा रही थी, जिसे बसाने की शुरूआत मैंने कर दी थी। और बड़ी कोशिशों, बड़ी ठोकरों के बाद पाया था, यह ठिया।

मन में आया क्रूकट के हाथ जोड़कर प्रार्थना करूँ। अपने काम की दुहाई दूँ। सारा का सारा ब्योरा बताऊँ यहाँ फागों का होना हमारी पहुँच के भीतर है। पाँच सितारा होटल में इस फाग-लोक को कैद मत करो। बसंतोत्सव में मेरा साहित्य-शोध छिपा है, इस पर पहरे मत लगाओ। लोक संस्कृति पर हमारा भी हक है, हिस्सा हमसे मत छीनो। मगर क्रूकट अपनी रौ में था।

‘‘विदेशी लोग मौंमागा पइसा देते हैं। समझे धीरे पंडा रूपी रतीराम जी ? देर करोगे तो गढ़ी म्हलैरावाली मंडली मोर्चा मार लेगी। तुम पछताते रह जाओगे। हम तो महुसानिया के मंडली डीलर खों भी अडवांस दे आए हैं। सीजन की बात है। फिर तो हम भी वैष्णों देवी के जागरन की डीलिंग में लग जाएँगे, ससुर बखत ही कहाँ है ?’’

लगातार क्रूकट का मोबाइल फोन भी चल रहा था- हल्लो, बातचीत चल रही थी। सौदा पट रहा है। कम-बढ़ की गुंजाइस राखियो ।
माइकेल जैक्सन ने यह कहकर धीरे पंडा को पटा लिया कि वह फगवारों का शीश मुकुट है। रघु नगड़ियावाला माना हुआ उस्ताद है और सोनुआ झींका बजाने में प्रदेश प्रसिद्ध वादक। तीनों राई नाच में घूँघट ओढ़कर नर्तकियों के ‘अपरूप मौडिल’ बन जाते हैं। किरनबाई बेड़िनी से भी सौदा चल रहा है।

चटपटे प्रोग्राम के लिए गर्मागर्म नोट थमाए माइकेल जैक्सन ने और मंडली को खरीद लिया। लाभ-लोभ की बातें-वीडियो फिल्म बनेगी, सी डी बिकेंगी, हिस्सा बराबर रहेगा। आमदनी लगातार होगी। जी टी. वी., सोनी टी. वी पर देख लेना अपनी फोटू। हल्के होकर चलो। झींका-मींका, नगड़िया-फगड़िया मत लादो, गिटार बजेगी जमकर। क्या कहते हैं कि सिंथैसाइसर तैयार रखा है। अँग्ररेजी धुन में सजकें फागें अँगरेजिन हो जाएँगी। एक दिना तीजनबाई की तरह तुम विदेस के लानें उड़ जाओगे। हित की बातें सुन लो, नातर इन गाँवन में पड़े-पड़े सड़ जाओ। सरसुती देवी भी तुम्हें सड़े अचार की तरह नुकसानदायक मानकें फेंक देंगी।

सौदा होते ही क्रूकट कार में से यूनीफार्म निकाल लाया।
‘‘बसंती कमीज !’’ धीरे पंडा ने कहा तो माइकेल बोला- ‘‘कमीज नहीं यल्लो टी साट। बिलेक पेंट। टीसाट पर क्या लिखा है ? पढ़े हो तो पढ़ो-
‘मेरा भारत महान !’

पेंच के घुटनों पर जय हिन्द की चिप्ची ! देखते ही देखते फगवारों की टोली ‘आइकोन फोर्ड’ कार में भर गई। जो बाकी बचे थे, उनके लिए डिक्की खोल दी गई। वे सामान की तरह ठँस गए।
कच्ची गली थी। कार चली गई, पीछे धूल का गुबार था बड़ा-सा।
मैं और माधव खड़े थे, लुटी-लुटी गली में, उजड़े से गाँव में खून-खच्चर सपनों की छाँव में... स्तब्ध और हतप्रभ !
हताशा ने चेतना सोख ली।

माधव ने मेरी ओर देखा, जैसे पूछ रहा हो-अब ? अब अगला पड़ाव कहाँ होगा ? हम दोनों ऐसे ही चुपचाप कितनी देर तक खड़े रहे ? मैं पीछे कब लौटी ? सत्रह गाँव की खाक छानकर आई मैं, ऋतु, जहाँ रजऊ की खोज में जाती, वहाँ ईसुरी के निशान तो मिलते, प्रेमिका का पता कोई नहीं देता था, जैसे उसके बारे में बताना किसी वेश्या का पता देना हो। ईसुरी के साथ जोड़कर लोग उसके नाम पर मजा लेते, मगर उसको अपने आसपास की स्त्री मानने से मुकर जाते। बुरा मानते कि एक लड़की उस बदचलन औरत के बारे में बात कर रही है और गाँव की लड़कियों को उस बदनाम स्त्री से परिचित कराने की कोशिश में है।
एक आदमी ने विद्रूप सा चेहरा बनाकर कहा था-आजकल पढ़ाई में लुच्चियायी फागें सोई पढ़ाई जाती ?
एक गाँव में एक मनचले ने मुझे घेरकर कहा था-सुनोगी, तुम्हारे लानें हम ईसुरी की फागें लाए हैं-

जुवना कौन यार खों दइए, अपने मन की कइए
हैं बड़बोल गोल गुरदा से, कॉ लौ देखें रइए
जब सर्रति  सेज के ऊपर, पकर मुठी में रइए
हात धरत दुख होत ईसुरी, पीरा कैसें सइए

( तुम किस यार को जुबना दोगी ? इनकी बड़ी कीमत है। ये गुरदे की तरह गोल हैं। सेज पर सर्राते हैं मुठ्ठी में कस लेने को मन करता है। हाथ रखने से दुखते हैं, तुम दर्द कैसे सहोगी ?)

वह गाँव मेरी बुआ का गाँव था, मेरी बदनामी बुआ के परिवार की बदनामी थी मैंने रजऊ को अपने शोध का विषय क्यों बनाया है ? मैं अपने ऊपर झुँझलाकर रह गई क्योंकि कोई शिकायत करती तो रजऊ के स्त्रीत्व पर कोई विचार न करता, उसके रूप में मेरी देह के अक्स लोगों के सामने फैल जाते।

तब क्या मैं अपने लक्ष्य को वापस ले लूँ ? ऊहापोह में उस गाँव से सवेरे ही सवेरे अपना बैग उठाकर भागी थी, बुआ अचम्भा करती रह गई। अरे लड़की महीने भर के लिए आई थी, मगर...
‘क्या मैं विषय बदल दूँ ?’ सोचा यह भी था।
मगर अपना मन कैसे बदलूँगी ? मन जो माधव को ईसुरी के रूप में देखकर जुड़ा गया था। माधव का ध्यान करते ही चिन्ता तिरोहित-सी होने लगी। वह कॉलिज के झंझावातों में मुझ से ऐसे ही आ जुड़ा था। जुड़ाव ऐसा हुआ कि उसने भी ‘ईसुरी का बुन्देली को योगदान’ को अपने शोध का विषय बना लिया।

माधव मुग्ध भाव से बोला था- ‘‘तुम्हें ताज्जुब क्यों हो रहा है ऋतु ? ईसुरी अपनी रजऊ के पास आया है।’’
‘‘धत् ! वैसे भी लोग अजीब निगाहों से देखने लगे हैं। प्रतियोगिता में ईसुरी और रजऊ का रोल निभाने वाले कहीं वास्तविक प्रेम की पींगे तो नहीं बढ़ाने लगे।’’
‘‘ठीक ही सोचते हैं लोग। मैंने भी तो यही सुनकर अपने शोध का विषय बदल दिया था कि प्रतियोगितावाली ऋतु खुद को रजऊ समझने लगी है। मुझे भी ईसुरी होना है।’’
‘‘आज देख लो माधव मैं खाक छान रही हूँ।’’

माधव ने हँस कर कहा- ‘‘दोनों मिलकर खाक छानेंगे, जल्दी छन जाएगी।’’ माधव की बातें ! मुझे अनचाहे ही हँसी आ जाया करती है। वह दुख को खुशी में बदलने की कोशिश करता रहता है। अन्तरविश्वविद्यालय प्रतियोगिता में जब वह ईसुरी की ओर से फागें कहता था और मैं रजऊ की ओर से गाया करती थी, वह झूमने लगता था। कौन हारा कौन जीता कभी नहीं देखता था। हारकर भी जीत की बातें, यही अदा तो मुझे नहीं लुभा गई ? मैं चिढ़ाती हूँ-माधव निहत्थे होकर शेरों के सपने देखते हो। एक दिन शेर ही तुम्हें खा जाएगा।

‘‘तुम शेर को भी वश में कर लोगी, मैं जानता हूँ। अब मेरे शोध ग्रन्थ को ही ले लो, तुम साथ रहती हो तो उसमें स्त्री -भाषा का चमत्कार घटित होने लगता है। सच में तुम स्त्री के लिए पुरूषों द्वारा गढ़ी गई भाषा को अपदस्थ कर रही हो।’’
‘‘हाय मंडली चली गई !’’ कहकर मैं बार-बार ठंडे श्वास भर रही थी। माधव मौन उदासी के हवाले था। एक वाक्य कहकर रह गया- ‘‘कैसी खरीद-फरोक्त हुई !’’ माधव आज अपने घर जाने के लिए बैग पैक कर चुका था, क्योंकि मैं अब सरस्वती देवी के साथ यहाँ थी। मंडली की फागे सुन ही नहीं रही थी, देख रही थी। कल क्या नजारा था।

यों तो गाँव था, नाट्यमंच की सभी सुविधाएँ भी नहीं थीं। पर्दा उठने-गिरने का हीला भी नहीं, मगर कुशल संयोजन की करामात कि हर दृश्य सजीव हो उठा। बिजली गुल थी, पैट्रोमैक्स जगमगा रहा था। बाहर आकाश में तैरते चाँद ने चाँदनी धरती पर उतार कर सहयोग किया था। जलती हुई मशाल भी तो फगवारों ने एक कोने में गाड़ रखी थी।

सूत्रधार के रूप में धीरे पंडा उदित हुए। वे दर्शकों का अभिवादन करने के बाद अपने साथियों को सर्वश्रेष्ठ अभिनय करने का इशारा दे रहे थे। तभी किसी दर्शक ने कहा- ‘‘सटई गाँव की सरस्वती देवी से हमें ऐसी ही मंडली की उम्मीद थी। फगवारों में अच्छा जोश है।’’ सरस्वती देवी आगे की लाइन में मेरे और माधव के पास जाजिम पर बैठी थीं। लम्बी कद-काठी की पचाससाला औरत। तीखे नैन नक्श वाला लम्बोतरा गेहुँआ चेहरा। उनका मुख जुड़ी हुई भवों के कारण विशेष लगता। वैसे वे मुझे और माधव को शोधार्थी के रूप में पाकर गौरव और उत्साह से भरी हुई थीं।

मंच के बीचों बीच नगड़िया, झींका, बाँसुरी, ढोल और रमतूला जैसे वाद्य रखे थे, जिन्हें घेरकर फगवारे गोल बाँधकर बैठे थे। फगवारे लाल, नीले पीले, हरे कुर्ते और छींटदार पगड़ियों में सजे थे। सबने सफेद धोतियाँ पहन रखी थीं। गिनती में वे दस थे।
साभार -राजकमल प्रकाशन 
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 ''कही ईसुरी फाग'' में स्त्री विमर्श
अर्पणा दीप्ति
प्रेम के लिए देह नहीं, देह के लिए प्रेम ज़रूरी! - मैत्रेयी पुष्पा

मैत्रेयी पुष्पा का 2004 में प्रकाशित उपन्यास ''कही ईसुरी फाग'' स्त्री विमर्श के दृष्टिकोण से ध्यान आकर्षित करने वाला महत्वपूर्ण उपन्यास है । कथावस्तु को ऋतु नामक शोधार्थी द्वारा लोक कवि ईसुरी तथा रजऊ की प्रेम कथा पर आधारित शोध के बहाने नई तकनीक से विकसित किया गया है । इस शोध को इसलिए अस्वीकृत कर दिया जाता है क्योंकि रिसर्च गाइड प्रवर पी. के. पांडेय की दृष्टि में ऋतु ने जो कुछ ईसुरी पर लिखा था , वह न शास्त्र सम्मत था , न अनुसंधान की ज़रूरतें पूरी करता था । उसे वे शुद्ध बकवास बताते हैं क्योंकि वह लोक था । लोक में कोई एक गाइड नहीं होता । लोक उस बीहड़ जंगल की तरह होता है जहाँ अनेक गाइड होते हैं , जो जहाँ तक रास्ता बता दे , वही गाइड का रूप ले लेता है। ऋतु भी ईसुरी - रजऊ की प्रेम गाथा के ऎसॆ ‍बीहड़ों के सम्मोहन का शिकार होती है - 

"बड़ा खतरनाक होता है, जंगलों , पहाड़ों और समुद्र का आदिम सम्मोहन .....हम बार-बार उधर भागते हैं किसी अज्ञात के दर्शन के लिए ।''

’कही ईसुरी फाग’ भी ऋतु के ऎसे भटकावों की दुस्साहसिक कहानी है । इस उपन्यास का नायक ईसुरी है,लेकिन कहानी रजऊ की है - प्यार की रासायनिक प्रक्रियाओं की कहानी जहाँ ईसुरी और रजऊ के रास्ते बिल्कुल विपरीत दिशा में जाते हैं। प्यार जहाँ उनको बल देता है,तो तोड़ता भी है। शास्त्रीय भाषा में कहा जाए तो ईसुरी शुद्ध लंपट कवि है, उसकी अधिकांश फागें शृंगार काव्य की मर्यादा का अतिक्रमण करते हुए शारीरिक आमंत्रणों का उत्सवीकरण है।

ऋतु की शोध यात्रा माधव के साथ ओरछा गाँव से शुरू होती है । लेकिन यह क्या, कि सत्तरह गाँवों की खाक छानकर रजऊ की खोज में पहुँची ऋतु को लोग ईसुरी का पता तो देते हैं मगर रजऊ के बारे में जानकारी देना इसलिए बुरा मानते हैं चूँकि उनकी नजर में रजऊ बदचलन है । लोग विद्रूप सा चेहरा बनाकर कहते हैं , आजकल पढ़ाई में लुचियायी फागें पढ़ाई जाती हैं! यह गाँव ऋतु की बुआ का गाँव था । ऋतु की बदनामी बुआ के परिवार की बदनामी थी । ऋतु को अपने ऊपर झुँझलाहट होती है कि मैंने रजऊ को अपने शोध का विषय क्यों बनाया?
"क्योंकि रजऊ के स्त्रीत्व पर कोई विचार नहीं करता, उसके रूप में मेरी देह का अक्स लोगों के सामने फैल जाता है ।"(पृ.सं-14)

ऋतु के शोध का अगले पड़ाव का संबंध सरस्वती देवी की नाटक मडंली में फाग गाने वाले ईसुरी तथा धीर पंडा से है। रामलीला में तड़का लगाने के लिए ईसुरी के फागों की छौंक ! यह क्या, तभी एक बूढ़ी औरत मटमैली सफेद धोती पहने माथे तक घूँघट ओढ़े भीड़ को चीरती हुई मंच पर आ जाती है । उसकी कौड़ी सी दो आँखो में विक्षोभ का तूफ़ान उठ रहा था- " मानो फूलनदेवी की बूढ़ी अवतार हो । काकी उद्धत स्वर में चिल्लाई -’ओ नासपरे ईसुरी लुच्चा तोय महामाई ले जावे ।’ काकी भूखी शेरनी की तरह ईसुरी की तरफ बढ़ने लगी । मुँह से शब्द नहीं आग के गोले निकल रहे थे । टूटे दाँतों के फाँक से हवा नहीं तपती आँधी टूट रही थी । काकी ने चिल्लाकर कहा, हमारी बहू की जिन्दगानी बर्बाद करके तुम इधर फगनौटा गा रहे हो। अब तो तुम्हारे जीभ पर जरत लुघरा धरे बिना नहीं जाएंगे।"(पृ.सं.-21)

दर्शक उठकर खड़े हो जाते हैं | रघु नगड़िया वाला आकर कहता है - " भाइयों अब तक आपने फागें सुनी और अब फागें नाटक में प्रवेश कर गईं -’लीला देखे रजऊ लीला’ काकी रघु से कहती है-’अपनी मतारी की लीला दिखा’ काकी कहती है -’आज तो हम ईसुरी राच्छस के छाती का रक्त पीके रहेंगे । धीर का करेजा चबा जाएँगे।" (पृ.सं.-22)
काकी के कोप का आधार ? बात उन दिनों की है जब काकी का बेटा प्रताप छतरपुर रहता था और उसकी नवयुवा बहू रज्जो की उम्र बीस वर्ष से कम थी । सुंदर इतनी कि जहाँ खड़ी हो जाए, वही जगह खिल उठे । वह अपूर्व सुंदरी थी या नहीं , मगर ईसुरी के अनुराग में उसकी न जाने कितनी छवियाँ छिपी थीं ।

काकी के घर उन दिनों पंडितों के हिसाब से शनि ग्रह की साढ़े साती लगी थी; नहीं तो मेडकी के ईसुरी और धीर पंडा माधोपुरा की ओर न आते और रज्जो फगवारे को अनमोल निधि के रूप में न मिलती । घूंघटवाली रज्जो से अब तक ईसुरी का जितना भी परिचय हुआ वह लुकते छिपते चंद्र्मा से या राह चलते-निकलते आँखों की बिजलियों से । ऎसे ही बेध्यानी में ईसुरी एक दिन ठोकर खा गए और गिरे भी तो कहाँ; रजऊ की गली में ! ईसुरी ने अपनी ओर से रज्जो को नाम दिया - रजऊ ।

रज्जो को घूंघट से देखने की दिलकश अदा अब ईसुरी को सजा लगने लगी । वे सोचते - यह सब मुसलमानों के आने से हुआ । वे अपनी औरत को बुर्का पहनाने लगे । हिंदुओं ने सोचा, हमारी औरत उघड़ी काहे रहे ? मुसलमानों के परदे को अपना लिया पर अंग्रेजों का खुलापन उन्हें काटने दौड़ा ।

इधर प्रताप छतरपुर में मिडिल की पढ़ाई पूरी न कर पाने के कारण अपने गाँव वापस नहीं आ पाता है | इस खबर से उसकी बूढ़ी माँ एवं पत्नी उदास हो जाती हैं । सास बहू को समझाती - ऎसे उदास होने से काम नहीं चलेगा । स्थिति को पलटने के लिए सास ने दूसरा नुस्खा अपनाया । फाग के पकवानों की तैयारी पूरी है,फगवारे को खिलाकर कुछ पुन्न-धरम कर लेते हैं। रज्जो के चेहरे पर हुलास छा जाता है। सास मन-ही-मन जल-भुनकर गाली भरा श्राप ईसुरी को देना शुरू करती है।

सास रज्जो को समझाती है। पूरा मोहल्ला होली में आग नहीं लगा रहा बल्कि हमारे घर में आग लग रही है। प्रताप का चचेरा भाई रामदास भी रज्जो और फगवारे के प्रसंग को लेकर आगबबूला होता है। सास बदनामी से बचने के लिए रज्जो को मायके जाने की सलाह देती है। लेकिन रज्जो मायके जाने से साफ मना कर देती है। अपनापन उडेलते हुए सास से कहती है - "हमारे सिवा तुम्हारा यहाँ है कौन ? तुम्हारी देखभाल कौन करेगा । गाँव के लुच्चे लोगों की बात छोड़ दो ।" (पृ.सं.-45)

सास रज्जो का विश्वास कर लेती है और कहती है- "मोरी पुतरिया,भगवान राम भी कान के कच्चे थे, मेरा बेटा तो मनुष्य है।" (पृ.सं.-46)
सास रज्जो को अपनी आपबीती सुनाती है कि किस प्रकार फगवारा उसके लिए फाग गा रहा था और उसी दिन प्रताप के दददा उसे लिवाने आए थे । उन्होंने सुन लिया था ।

''मर्द की चाल और मर्द की नजर का मरम मर्द से ज्यादा कौन समझे ! अपना झोला उठाया और चुपचाप वापस चले गए । फिर खबर आई -अपनी बदचलन बेटी को अपने पास रखो, ऎसी सत्तरह जोरू मुझे मिल जाएगी ! फिर क्या था माँ ने डंडों से मेरी पिटाई कर डाली तथा जबरदस्ती नाऊ (हजाम) के संग सासरे भेज दिया । कहा कि नदी या ताल में ढकेल देना, अकेले हमारे देहरी न चढ़ाना । नहीं तो इसके सासरे वालों से कहना- खुद ही कुँआ बाबरी में धक्का दे दें । हम तो कन्यादान कर चुकें हैं । ससुराल वालों ने तो अपना लिया लेकिन पिरताप के दद्दा का कोप बढ़ता तो हथेली पर खटिया का पाया धर देते , अपने पाया के उपर बैठ जाते । डर और दर्द के मारे मैं सफेद तो हो जाती मगर रोती नहीं । यह सोचकर जिन्दा रही अपना ही आदमी है जिसका बोझ हम हथेली पर सह रहें हैं। जनी बच्चे का बोझ तो गरभ में सहती है जिंदगानी तो बोझ वजन के हवाले रहनी है ; सो आदत डाल लिया ।"(पृ.सं.48) रज्जो सास के हाथों पर घाव के भयानक निशान देखकर काँप उठती है।

सास ईसुरी तथा पंडा को खाना खिलाते हुए वचन लेना चाहती है कि रज्जो के नाम पर अब वे फाग नहीं गाएँगे । एकाएक फगवारे खाना छोड़कर उठ जाते हैं। ईसुरी इंकार करते हुए कहता है - "काकी हम जिस रजऊ का नाम फाग के संग लगाते हैं वह न तो प्रताप की दुल्हन है न तुम्हारी बहू?"(पृ.सं.53)

ऋतु के श्रीवास्तव अंकल ऋतु को सरस्वती देवी का पता देते हुए चिरगाँव जाने को कहते हैं और बताते हैं कि हिम्मती औरत है, समाज सेवा का काम करती है, लोकनाट्य में रुचि है और हर साल मंडली जोड़ती है।

सरस्वती देवी ने ऋतु तथा माधव को अपने जीवन का किस्सा बताया । "विधवा हुई , मेरे संसार में अंधेरा छा गया । मगर जिंदगी ने बता दिया कि पति न रहने के बाद औरतों को अपने बारे में सोचना पड़ता है। अपने लिए फैसले लेने पड़ते हैं और फैसला ले लिया । फाग मंडली एक कुलीन विधवा बनाए , परिवार वाले यह बात कैसे सहन करते। कभी जलते पेट्रोमेक्स तोड़े गए तो कभी फगवारे को भाँग पिला दी गई । सरस्वती देवी कहती हैं -पर मैं हार नहीं मानने वाली थी , दूसरे फगवारे को खोजती फिरती क्योंकि मेरे भीतर का हिस्सा रजऊ ने खोजकर कब्जा कर लिया था । फागों में उसका वर्णन सुनकर सोचती थी कि औरत में इतना साहस होता है कि उसके पसीने की बूँद गिरे तो रेगिस्तान में हरियाली छा जाए, आँखों से आँसू गिरे तो बेलों पर फूल खिल जाएँ । रजऊ जैसा नगीना फागों में न टँका होता तो ईसुरी को कौन पूछता ।’ " (पृ.सं.-57)

इधर मामा के छतरपुर वाले घर को आधुनिक नरक कहने वाला माधव उधर ही जा रहा था । लेकिन वहाँ के भ्रष्ट माहौल को देखकर वह वापस ऋतु के पास लौट आता है । जहाँ ऋतु के मन में माधव के प्रति प्रेम का अंकुर फूटता है वहीं मामा के घर जाने पर क्रोध भी आता है ।


सरस्वती देवी ऋतु को मीरा की कहानी सुनाती है - किस प्रकार आँगनवाड़ी के क्षेत्र में मीरा महिला सशक्तीकरण की मशाल अपने हाथ में लेती है । गाँव की सीधी-सादी तथा ससुरालवालों द्वारा पागल समझी जाने वाली मीरा को पढ़ने की बीमारी लग चुकी थी । गाँव की सभ्यता को दरकिनार करते हुए मीरा मोटरसाइकिल चलाने का निर्णय लेती है।


मीरा सिंह की मोटरसाइकिल पर ऋतु बसारी पहुँचती है, 90 वर्ष की बऊ से मिलने । गौना करके आई रज्जो के अपूर्व रूप का वर्णन बऊ करती है। कहती है - "प्रताप की बहू रूप की नगीना, नगीने के नशे में मदहोश प्रताप।"(पृ.सं.-69)

इधर प्रताप छुट्टी बिताकर छतरपुर वापस चला जाता है, उधर ईसुरी के चातक नयन रज्जो की बाट न जाने कब से देख रहे थे । एक ओर पराई औरत की आशिकी और फागों में फिर-फिर रजऊ का नाम लगाने वाले ईसुरी के यश की गाथा राजा रजवाड़ों तक पहुँची । दूसरी ओर सुंदर बहू की बदकारी गाँववालों से होते हुए प्रताप के कानों तक पहुँची । प्रताप पहले फगवारे को समझाता है, पैर पड़ता है, लेकिन सब बेकार। अंत में उसने फगवारे की पिटाई कर दी । प्रताप एक कठोर निर्णय लेता है वह रज्जो का मुँह कभी नहीं देखेगा । वह वापस छतरपुर जाकर अंग्रेजों की पलटन में भर्ती हो जाता है । मर्द चले जाते हैं , घर की रौनक बाँध ले जाते हैं । प्रताप का विमुख होना घर की तबाही बन गया ।

यह बात तो दीगर थी कि रज्जो ने ईसुरी को दिल से चाहा था , लेकिन यह क्या कि फगवारे तमोलिन की बहू के नाम पर फाग गा रहे हैं । जोगन बनी रज्जो आहत होती है । सास रज्जो की पहरेदारी करती है, रज्जो फगवारे से न मिल पाए । तभी पिरभू आकर खबर देता है -"ईसुरी जा रहे हैं आपसे आखिरी बार मिलना चाहते हैं ।" सास की परवाह किए बगैर रज्जो रात के आखिरी पहर हाथ में दिवला जलाए प्रेमानंद सूरे की कोठरी की ओर चल देती है । यह कैसा अदभुत प्रेम ! नहीं देखा कि उजाला हो आया, दीये की रोशनी से ज्यादा उजला उजाला । गाँव के लोगों ने कहा , यह तो प्रताप की दुल्हन है, बिचारी अपने आदमी की बाट हेर रही है , बिछोह में तन-मन की खबर भूल गई है। इतना भी होश नहीं रहा कि दिन उग आया है। नाइन की बहू फूँक मारकर दिवला बुझा देती है । रज्जो उस छोटे बच्चे की भाँति नाइन बहू की अंगुली थामे लौट आती है जिसे यह नहीं पता कि अंगुली थामने वाला उसे कहाँ ले जा रहा है ? रज्जो की सास कहती है- "मोरी पुतरिया कितै भरमी हो ? पिरताप की बाट देख-देखकर तुम्हारी आँखे पथरा गई !" (पृ.सं.-91)

"रज्जो उस बुझे हुए दीए की तरह खुद भी नीचे बैठ गयी मानो प्रकाश विहीन दीये की सारी अगन रज्जो ने सोख ली , जलन कलेजे में उमड़ रही थी ।"(पृ.सं.-91) सास और रज्जो दोनों जोर-जोर से रो पड़ीं । शोकगीत ने आँगन को ढँक लिया । किसके वियोग में गीत बज रहा था ? प्रताप के या ईसुरी के ? दोनों जानती थीं, दोनों के दुःख का कारण दो पुरुष हैं ।

प्रताप का चचेरा भाई रामदास रज्जो का जीना दूभर कर देता है। तीन बेटियों का बाप रामदास कुल की मर्यादा बचाने तथा कुलदीपक पैदा करने के लिए एवं प्रताप के हिस्से की जमीन हथियाने की चाह में रज्जो से शादी करना चाहता है। उसके अत्याचार से तंग आकर रज्जो घर छोड़ गंगिया बेड़िन के साथ भागकर देशपत के साथ जा मिलती है , जो देश की आजादी के लिए अपनी छोटी सी सेना के साथ अपने प्राण तक न्यौछावर करने को तैयार है। यहीं रज्जो को खबर मिलती है कि प्रताप गोरे सिपाहियों से बगावत कर अपने देश के खातिर शहीद हो चुका है। रज्जो दो बूँद आँसू अपने वीर पति की याद में श्रद्धांजलि स्वरूप अर्पण करती है। शरीर का साथ वर्षों से नहीं रहा वहीं मन इस कदर बँधा था । तभी तो कहती है - "गंगिया जिज्जी,प्रेम के लिए देह ज़रूरी नहीं है पर देह के लिए प्रेम ज़रूरी है । उनके तन की खाक मिल जाती, हम देह में लगा के साँची जोगिन हो जाते ।"(पृ.सं.-278)

देशपत की फौज में जासूसी का काम करने वाली रज्जो पर कुंझलशाह की बुरी नजर पड़ती है । देशपत की फौज का बाँका सिपाही राजकुमार आदित्य रज्जो को कुंझलशाह के कहर से मुक्ति दिलाता है। रज्जो आदित्य से घुड़सवारी तथा तलवारबाजी सीखती है।

1857 में अंग्रेजों ने झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र को मान्यता देने से इंकार करते हुए रानी के खिलाफ युद्ध का बिगुल फूँक दिया । रानी को बचाने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेती हुई रज्जो रानी का बाना धारण करती है और अंग्रेजों के साथ लड़ाई करते हुए रानी से पहले शहीद हो जाती है ।

इधर अपने प्रायश्चित के ताप में तप रहे ईसुरी को आबादी बेगम के द्वारा वीरांगना रज्जो के शहीद होने की खबर मिलती है । अपने जीवन की आखिरी जंग लड़ रहे ईसुरी आँखें मूँदे आखिरी निरगुण फाग गाते हुए सदा के लिए खामोश हो जाते हैं ।
"कलिकाल के वसंत में न गोमुख से धाराएँ फूटी न तरुणियों ने रंगोलियाँ सजाईं, न दीये का उजियारा , न ही उल्लास की टोकरी भरता अबीर गुलाल ईसुरी ने अखंड संन्यास की ओर कदम रख दिया ।"(पृ.सं.-340)

ऋतु ने अपने शोध का ऎसा अंत कब चाहा था ! आंकाक्षा थी कि ईसुरी और रजऊ का मिलन होता ,वे अपनी चाहत को आकार देते हुए जीवन यात्रा तय करते और फागों का संसार सजाते । मगर चाहने से क्या होता है जानने की पीड़ा और दूर होते जाने की दर्दनाक मुक्ति तन और मन मिलने पर भी भावनाओं का ऎसा बँटवारा! ऋतु और माधव दोनों के रास्ते अलग-अलग । ऋतु को माधव का संबंध विच्छेद पत्र मिलता है - "ऋतु मुझे गलत नहीं समझना । साहित्य से आदमी की आजीविका नहीं चलती । भूख आदमी को कहाँ से गुजार देती है, यह मैंने गोधरा और अहमदाबाद के दंगों के दौरान देखा है। ऋतु मुझे क्षमा करना रिसर्च रास नहीं आई । अभावों भरी जिंदगी तो बस तरस कर मर जाने वाली हालत है, संतोष कर लेना भी गतिशीलता की मृत्यु है और इस बात से तुम ना नहीं कर सकतीं, जानेवाला टूटा हुआ होता है, उसके तन मन में टूटन के सिवा कुछ नहीं होता। तुम्हें टूटकर चाहने के सिवा मेरे पास कुछ भी नहीं है ।"(पृ.सं.-306-307)

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या ईसुरी रजऊ को अहिरिया कहकर राधा के विराट व्यक्तित्व से जोड़ना चाहते थे? या राधा जैसी मान्यता दिलवाकर कुछ छूटों का हीला बना रहे थे, जो साधारण औरत को नहीं मिलती है। नहीं तो रजऊ को मीरा से क्यों नहीं जोड़ा गया ? ईसुरी कृष्ण भगवान नहीं थे जो विष को अमृत में बदल देते। वे हाड़ माँस की पुतली अपनी रजऊ से पूजा नहीं, प्रीति की चाहना करते थे । भगवान की तरह दूरी बनाकर जिंदा नहीं रहना चाहते थे।

मैत्रेयी पुष्पा ने वर्तमान और अतीत में एक साथ गति करने वाली इस सर्पिल कथा के माध्यम से कल और आज के समाज में स्त्री जीवन की त्रासदी को आमने-सामने रखने में बखूबी सफलता पाई है। रजऊ की संघर्ष गाथा तब और अधिक प्रबल हो उठती है जब वह 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से सक्रिय रुप से जुड़ती है। ईसुरी का प्रेम जहाँ उसे कभी राधा बनाता है और कभी मीरा | वहीं वह प्रताप की मृत्यु पर जोगन की तरह विलाप करती है और अंततः देश के लिए एक साधारण सैनिक बनकर शहीद होते हुए लोकनायिका बन जाती है । ईसुरी पर शोध कर रही ऋतु एंव उसके प्रेमी माधव के बहाने मैत्रेयी पुष्पा ने शिक्षा और शोध तंत्र में व्याप्त जड़ता पर भी प्रहार किया है। ऋतु और माधव के जरिए लेखिका ने एक बार फिर रजऊ और ईसुरी की प्रेमकथा को जीवंत किया है।

"वहीं ’प्रेम’और ’अर्थ’ में एक विकल्प के चुनाव पर माधव अर्थ के पक्ष में हथियार डाल देता है।" (प्रो.ऋषभदेव शर्मा , स्वतंत्रवार्ता, 06 फरवरी ,2005)

और रजऊ की भाँति ऋतु भी अकेली रह जाती है। इस प्रकार मैत्रेयी पुष्पा रजऊ से लेकर ऋतु तक अपने सभी स्त्री पात्रों को संपूर्ण मानवी का व्यक्तित्व प्रदान करती हैं। ’कही ईसुरी फाग’ की जो बात सबसे ज्यादा आकर्षित करती है वह यह है कि रजऊ और ऋतु दोनों ही अबला नहीं हैं, वे भावनात्मक स्तर पर क्रमशः परिपक्वता प्राप्त करती हैं और उनके निकट प्रेम का अर्थ पुरुष पर निर्भरता नहीं है।
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