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शुक्रवार, 27 मई 2016

नवगीत

एक रचना
*
सभ्य-श्रेष्ठ
खुद को कहता नर 
करता अत्याचार।
पालन-पोसें वृक्ष
उन्हीं को क्यों 
काटे? धिक्कार।
*
बोये बीज, लगाईं कलमें
पानी सींच बढ़ाया। 
पत्ते, काली, पुष्प, फल पाकर
मनुज अधिक ललचाया।
सोने के
अंडे पाने
मुर्गी को डाला मार।
पालन-पोसें वृक्ष
उन्हीं को नित  
काटें? धिक्कार।
*
शाखा तोड़ी, तना काटकर
जड़ भी दी है खोद।
हरी-भरी भू मरुस्थली कर
बोनसाई ले गोद।
स्वार्थ साधता क्रूर दनुज सम
मानव बारम्बार।
पालन-पोसें वृक्ष
उन्हीं को क्यों 
काटें? धिक्कार।
*
ताप बढ़ा, बरसात घट रही
सूखे नदी-सरोवर।
गलती पर गलती, फिर गलती
करता मानव जोकर।
दण्ड दे रही कुदरत क्रोधित
सम्हलो करो सुधार।
पालें-पोसें वृक्ष
उन्हीं को हम  
काटें? धिक्कार।
*

नवगीत

एक रचना
*
कहते बड़ा हमारा देश
किंतु न कोई आशा शेष
*
पैर तले से भूमि छिन गयी,
हाथों में आकाश नहीं।
किसे बताऊँ?, कौन कर रहा
मेरा सत्यानाश नहीं?
मानव-हाथ छला जाकर नित
नोंच रहा खुद अपने केश।
कहते बड़ा हमारा देश
किंतु न कोई आशा शेष।
*
छाँह, फूल, पत्ते लकड़ी ले
कभी नहीं आभार किया।
जड़ें खोद मेरे जीवन का
स्वार्थ हेतु व्यापार किया।
मुझको जीने नहीं दिया,
खुद मानव भी कर सका न ऐश।
कहते बड़ा हमारा देश
किंतु न कोई आशा शेष
*
मेरे आँसू की अनदेखी
करी, काट दी बोटी-बोटी।
निर्मम-निष्ठुर दानव बनकर
मानव जला सेंकता रोटी।
कोई नहीं अदालत जिसमें
'वृक्ष' करूँ मैं अर्जी पेश।
कहते बड़ा हमारा देश
किंतु न कोई आशा शेष।
*
१६-५-२०१६