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गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

संस्कृति चिन्तन: आइये! आर्य (श्रेष्ठ) बनें -सलिल

संस्कृति चिन्तन

॥ वृत्तेन आर्यो भवति ॥ आइये! आर्य (श्रेष्ठ) बनें

भारत की संस्कृति आदर्श प्रधान है. केवल भारत ही विश्व को आदर्शों को जीवंत और मूर्त करते हुए जीवन जीना सिखा सकता है. इस पुण्य भूमि पर हमेशा ही त्याग, बलिदान, निष्काम प्रेम, वैराग्य, समन्वय- सामंजस्य, ईश्वरानुराग, ज्ञान-विज्ञानं, तकनीक, धर्म एवं दर्शन का अध्ययन-अध्यापन और विविध प्रयोग होते रहे हैं

प्राणभूतञ्च यत्तत्त्वं सारभूतं तथैव च । संस्कृतौ भारतस्यास्य तन्मे यच्छतु संस्कृतम् ॥


"संस्कृत भारत भूमि की प्राणभूत व सारभूत भाषा है; संस्कृत के बिना भारत की भव्य संस्कृति, नीतिमूल्यों, और जीवनमूल्यों को यथास्वरुप समझना संभव नहीं ।


दुर्योगवश मानव सभ्यता का यह स्वर्णिम पृष्ठ देव भाषा संस्कृत में लिखा गया जिससे वर्तमान में जन सामान्य और विश्व लगभग अपरिचित है। वैदिक ऋचाओं, श्लोकों, सुभाषितों, बोध शास्त्रों, भाष्यों, पुराणों, उपनिषदों, नाट्य, इतिहास आदि श्रुति-स्मृति के सहारे संस्कृत वांग्मय (वेद, वेदांग, उपांग) अंततः अपने उद्गम ॐकार में विलीन हो जाता है. 'संस्कृत' रुपी राजमार्ग निसर्ग, विद्या, कला, धर्म, ईश्वर, और कर्मयोग ऐसे विविध स्वरुप लेते हुए अंतिमतः श्रुति (वेद, वेदांग और उपांग) और ॐकार में विलीन या व्याप्त हो जाता है. विश्व के अन्य भागों में सभ्यताओं के उदय से सदियों पूर्व भारत में ज्ञान-विज्ञानं के अद्वितीय साहित्य का सृजन हुआ. सुव्यवस्थित शासन प्रणाली के बिना यह कैसे संभव है? साहित्य साम्प्रत समाज का प्रतिबिम्ब ही नहीं मार्गदर्शक भी होता है किंतु समय के सत्य को न पहचानने, इतिहास से सीख न लेने, साहित्य के सनातन मूल्यों की अनदेखी कर निजी स्वार्थ को वरीयता देने से आगत अपने विनाश के बीज बोता है. त्रेता और द्वापर के समय और उसके बाद भारत में भी यही हुआ. मध्यकाल की पराजयों और सहस्र वर्षों की गुलामी से उपजी आत्म्हींत की मनोवृत्ति और वर्तमान भोग प्रधान क्षणजीवी जीवन पद्धति ने संस्कृति एवं संस्कृत की गरिमा को नष्ट:करने का प्रयत्न किया है किन्तु, भूतकाल में रौंदी गयी ज्ञान-भाषा को हमेशा दबाया या मिटाया नहीं जा सकता. 'संस्कृत' का सुसंस्कार हर भारतीय के हृदय में राख से ढँकी चिंगारी की तरह सुप्त होने से लुप्त होने का भ्रम पैदा करता है किंतु इस गुप्त चित्र के प्रगट होने में देर नहीं लगेगी यदि हम विवेकी जन संस्कृति और साहित्य का न केवल स्वयं अवगाहन करें अपितु अन्य जनों को भी प्रेरित कर सहायक बनें.

अग्रतः संस्कृतं मेऽस्तु पुरतो मेऽस्तु संस्कृतम् ।

संस्कृतं हृदये मेऽस्तु विश्वमध्येऽस्तु संस्कृतम् ॥

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सोमवार, 30 मार्च 2009

चिन्तन-सलिला

महात्मा सच्च्चे


डॉ. रामकृष्ण सराफ, भोपाल

एक जंगल में एक महात्मा रहा करते थे. जंगल में रहते हुए वे सदा त्यागमय जीवन व्यतीत करते थे. संसार की किसी भी वस्तु के प्रति उनके मन में कोई आकांक्षा नहीं थी. उनका सारा समय हरी नाम स्मरण तथा दूसरों के कल्याण कार्य में व्यतीत होता था.

महात्मा जे प्रतिदिन दिन में तीन बार प्रातः काल, मध्यान्ह तथा संध्या समय गंगा में स्नान करने जाते थे. मार्ग में एक गणिका का निवास स्थान पड़ता था. जब भी महात्मा जी वहां से निकलते, गणिका अपने घर से निकलती और महात्मा जी को प्रणाम करती. महात्मा जी उसे आशीर्वाद देते. उसके बाद गणिका उनसे एक ही प्रश्न किया करती थी- 'महात्मा जी सच्चे की झूठे?' महात्मा जी प्रतिदिन गणिका के इस प्रश्न को सुनते और बिना कुछ कहे आगे बढ़ जाते. यही क्रम बराबर चलता रहा.

कुछ समय बीता, महात्मा जी बीमार पड़े. उनका स्वास्थ्य निरंतर गिरता गया. वे मरणासन्न हो गए. तब उनहोंने भक्तों से गणिका को बुलाने के लिए कहा. गणिका आयी. उसने देखा की महात्मा जी अपने जीवन की अंतिम घडियां गिन रहे थे. वह स्तब्ध अवाक् रह गयी. उसने महात्मा जी को प्रणाम किया. इस बार गणिका ने कोई प्रश्न नहीं किया किन्तु महात्मा जी ने आज गणिका के दीर्घकालीन अनुत्त्ररित प्रश्न का उत्तर स्वयं दिया और कहा- 'महात्मा जी सच्चे'. इस उत्तर को सुनकर गणिका की आँखें खुलीं और महात्मा जी ने अपनी आँखें सदा के लिए मूँद लीं.

महात्मा जी और गणिका के इस वृत्त में सच्चाई जो भी हो किन्तु एक महत्त्वपूर्ण तथ्य निश्चित रूप से यहाँ उद्घाटित होता है. अपने चरित्र को यावज्जीवन निर्मल बनाये रखना वास्तव में एक महान और कठिन कार्य है.

कोई भी मनुष्य कितने ही प्रतिष्ठित , उच्च अथवा महत्त्वपूर्ण पद पर क्यों न हो, उसका उस पद पर विद्यमान होना मात्र, उसके चरित्र के विषय में कोई संकेत नहीं देता. उसका चरित्र निर्मल भी हो सकता है और अन्यथा भी हो सकता है. किसी भी व्यक्ति के चरित्र के विषय में बाहर से कोई भी निश्चित धरना नहीं बनाई जा सकती.

हमारा सारा जीवन चुनौतियों से भरा हुआ है. इन चुनौतियों के बीच चरित्र रक्षा एक बहुत बड़ा और कठिन कार्य है. पग-पग पर हमारे सामने विभिन्न प्रकार के आकर्षण और प्रलोभन हैं, जिनके बीच हमारे चरित्र की परीक्षा हो रही है. हमें अपने चरित्र से डिगने की परिस्थितियां हमारे चारों और विद्यमान हैं. इनसे अपने को बचाते हुए आगे बढ़ते जाना ही हमारे विवेक को चुनौती है. ऐसे उदाहरण हमारे सामने अनेक हैं जहाँ हमने बड़े-बड़े महर्षियों को नीचे गिरते और डूबते देखा है. उनके सारे जीवन की उपलब्धियों को धूल में मिलते देखा है.

अपने सारे जीवन को बिना किसी प्रकार की आँच आये निष्कलंक बचा ले जाना वास्तव में एक दुष्कर कार्य है. इस कार्य में हमारी सतत परीक्षा होती रहती है. कभी भी हम इधर-उधर गए कि सारे जीवन के सब किये कराये पर पानी फिर गया. इसीलिये इसके सम्बन्ध में हमें सतत सचेष्ट रहना पड़ता है. अपने चरित्र की परीक्षा में हम जीवन के प्रत्येक क्षण में सतत जागरूक रहकर ही उत्तीर्ण हो सकते हैं इसीलिये महात्मा जी ने अपने जीवन के अंतिम क्षण में ही गणिका के उस प्रश्न का उत्तर देना उचित समझा. भले ही इस प्रश्न का उत्तर देना उनके लिए कभी भी कोई कठिन कार्य नहीं था किन्तु अपने उत्तर को जीवन के अंतिम क्षण तक तलने के पीछे महात्मा जी का उद्देश्य संभवतः यही बताना था कि संसत यही समझ ले कि अपने चरित्र की जीवन भर मर्यादा में रहते हुए रक्षा करना सामान्य काम नहीं है.

ससार में विभिन्न आकर्षणों एवं चुनौतियों के बीच अपने चंचल मन को वश में रखते हुए अपने चरित्र कि जो रक्षा कर सके वही सच्चा महात्मा है, फिर चाहे वह वन में रहे या महल में.

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