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शनिवार, 29 नवंबर 2025

नवंबर २९, सॉनेट, बुंदेली, सरस्वती, मित्र, अपन्हुति, प्रतिवस्तूपमा, सहोक्ति, अलंकार, नाक, गीत, मुक्तिका

 सलिल सृजन नवंबर २९

*
सॉनेट
कविता
(इटैलियन शैली)
*
कविता खबर नहीं जो बासी हो जाए,
अगर सनातन सत्य कह रही है कविता,
अजर अमर हो जैसे सरिता या सविता,
अश्व समय का चारा समझ न खा पाए।
नहीं सियासत-सत्ता के मन को भाए,
शुभ कर राह दिखाए जैसे हो वनिता,
मारे-खाए चोट, न हारे, है विजिता,
कलकल करे, कूककर नित झूमे भाए।
कविता चेरी नहीं न स्वामिनी, सखी कहो,
दहो विरह में नहीं, साथ रह रहो सुखी,
सत्य-स्वप्न के ताने-बाने 'सलिल' बुनो।
बैठ नर्मदा-तीर रस-लहर सम प्रवहो,
सुधियों की चादर पर बैठो, उठा-तहो,
कौन आत्म-परमात्म मूँदकर नयन गुनो।
***
सॉनेट
कविता
(इंग्लिश शैली)
*
है अखबार नहीं; जो कविता हो बासी,
कहे समय का सत्य सनातन यदि कविता,
कालजयी; गाए संसारी-सन्यासी,
मल दलदल कर कमल उगाए हो शुचिता।
पुरा भूलकर कविता कहती रचो नया,
बहती धारा रहे निर्मला, याद रखो,
आगत देखो; विगत न जाने कहाँ गया,
मिले पराजय; बिसरा जय का स्वाद चखो।
कविता सविता सदृश तिमिर हर लेती है,
कविता शशि जैसे अमृत रस बरसाती,
कविता बढ़ा मनोबल जय वर देती है,
कविता गुरु गंभीर राह भी दिखलाती।
कविता करना नहीं, उसे जीना सीखो।
कविता कार कवि 'सलिल' कबीरा सम दीखो।
२९.११.२०२३
***
बुंदेली सॉनेट
सारद माँ
सारद माँ! परनाम हमाओ।
नैया पार लगा दे रे।।
मूढ़ मगज कछु सीख नें पाओ।
तन्नक सीख सिखा दे रे।।
माई! बिराजीं जा परबत पै।
मैं कैसउ चढ़ पाऊँ ना।।
माई! बिराजीं स्याम सिला मा।
मैं मूरत गढ़ पाऊँ ना।।
मैया आखर मा पधराई।
मैं पोथी पढ़ पाऊँ ना।
मन मंदिर मा पधराओ
तुम बिन आगे बढ़ पाऊँ ना।।
तन-मन तुमरो, तुम पे वारो।
सारद माँ! कर किरपा तारो।।
संजीव
२९-११-२०२२
जबलपुर
●●●
सॉनेट
आभार
आभार शारद की कृपा
सम्मान की वर्षा हुई
रखना बनाए माँ दया
व्यापे नहीं श्लाघा मुई
नतशिर करूँ वंदन उन्हें
जिनको गुणों की है परख
मुझ निर्गुणी में गुणों को
जो देख पाए हैं निरख
माँ! हर सकल अभिमान ले
कुछ रच सकूँ मति दान दे
जो हर हृदय को हर्ष दे
ऐसा कवित दे, गान दे
हो सफल किंचित साधना
माँ कर कृपा; कर थामना
२८-१२-२०२२
६-३१, मुड़वारा कटनी
ए१\२१ महाकौशल एक्सप्रेस
•••
मित्रों को समर्पित दोहे
विश्वंभर जब गौर हों, तब हो जगत अशोक।
ले कपूर कर आरती, ओमप्रकाश विलोक।।
राम किशोर अनूप हैं, प्रबल भारती धार।
नमन शारदा-रमा को, रम्य बसंत बहार।।
पुष्पा मीरा मन मधुर ,मिलन दीपिका संग।
करे भारती आरती, पवन सुमन शुभरंग।।
मीनाक्षी रजनीश ने, वरा सुनीता पंथ।
श्यामा गीत सुना कहें, छाया रहे बसंत।।
सलिल सुधा वसुधा विजय, संजीवित हो सृष्टि।
आत्माराम बता रहे, रहे विनीता दृष्टि।।
२७-११-२०२२, दिल्ली
•••
मुक्तिका
नमन
नमन हमने किया तुमको
नमन तुमने किया हमको
न मन का मन हुआ लेकिन
सुमिर मन ने लिया मन को
अमन चाहा चमन ने जब
वतनमय कर लिया तन को
स्वजन ने बन सुजन पल-पल
निहारा था सिर्फ धन को
२६-११-२०२२, दिल्ली
●●●
सॉनेट
सफर
*
भोर भई उठ सफर शुरू कर
अंधकार हर दे उजियारा
भर उड़ान हिलमिल कलरव कर
नील गगन ने तुझे पुकारा
गहन श्वास ले छोड़ निरंतर
बन संकल्पी, बुझे न पावक
हो कृतज्ञ हँस धरा-नमन कर;
भरे कुलाचें कोशिश शावक
सलिल स्नान कर, ईश गान कर
कदम बढ़ा, कर जो करना है
स्वेद-परिश्रम करे दोपहर
साँझ लौटकर घर चलना है
रात कहे ले मूँद आँख तू
प्रभु सुमिरन कर खत्म सफर कर
२६-११-२०२२, दिल्ली
•••
मुक्तक
पंछियों से चहचहाना सीख ले
निर्झरों से गुनगुनाना सीख ले
भुनभुना मर हारकर नाहक 'सलिल'
प्यार कर दिल जीत जाना सीख ले
मुक्तिका
शांत जी के लिए
शांत सुशांत प्रशांत नमन है
शोभित तुमसे काव्य चमन है
नूर नूर का कलम बिखेरे
कीर्ति छुए नित नीलगगन है
हिंदी सुत हो प्यारे न्यारे
शांत जहाँ है; वहीं अमन है
बुंदेली की थाम पताका
कविताई ज्यों किया हवन है
मऊरानीपुर का गौरव हो
ठेठ लखनवी काव्य जतन है
हिंदीभाषी हिंदीगौरव
हिंदी ने पा लिया रतन है
२५-११-२०२२
•••
मुक्तिका
*
मुख सुहाना सामने जब आ गया
दिल न काबू में रहा, झट आ गया
*
देख शशि का बिंब, लहरों में सलिल
घाट को भी मुस्कुराना आ गया
*
चाँदनी सिकता पे पसरी इस तरह
हवाओं को गीत गाना आ गया
*
अल्हड़ी खिलखिल हँसी बेसाख्ता
सुनी सन्नाटे को गाना आ गया
*
दिलवरों का दिल न काबू में रहा
दिलरुबा को दिल दुखाना आ गया
*
चाँद को तज चाँदनी संजीव से
हँस मिली मौसम सुहाना आ गया
***
प्रिय सुरेश तन्मय जी के लिए
तेरा तुझको अर्पण
*
मन ही तन की शक्ति है, तन मन का आधार
तन्मय तन मय कम हुआ, मन उसका विस्तार
*
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
तन्मय मनमय श्वास हर, हुई गीत की मीत
*
सुर सुरेश का है मधुर, श्वास-श्वास रस-खान
तन-मन मिल दें पराजय, कोविद को हठ ठान
*
व्याधि-रोग भी शक्ति के, रूप न करिए भीति
मातु शीतला सदृश ही, कोविद पूजें रीति
*
पूजा विधि औषधि नहीं, औषधि मान प्रसाद
पथ्य सहित विश्राम कर, गहें रहें आबाद
*
बाल न बाँका हो सके, सखे! रखें विश्वास
स्वास्थ्य लाभ कर आइए, सलिल न पाए त्रास
२९-११-२०२०
***
मुक्तक
*
हमारा टर्न तो हरदम नवीन हो जाता
तुम्हारा टर्न गया वक्त जो नहीं आता
न फिक्र और की करना हमें सुहाता है
हमारा टर्म द्रौपदी का चीर हो जाता
२८-११-२०१९
***
दोहा सलिला
दिया बाल मत सोचना, हुआ तिमिर का अंत.
तली बैठ मौका तके, तम न भूलिए कंत.
.
नारी के दो-दो जगत, वह दोनों की शान
पाती है वरदान वह, जब हो कन्यादान.
.
नारी को माँगे बिना, मिल जाता नर-दास.
कुल-वधु ले नर दान में, सहता जग-उपहास.
.
दल-बल सह जा दान ले, भिक्षुक नर हो दीन.
नारी बनती स्वामिनी, बजा चैन से बीन.
.
चीन्ह-चीन्ह आदेश दे, बीन-बीन ले हक.
समता कर सकता न नर, तज कोशिश नाहक.
.
दो-दो मात्रा अधिक है, नारी नर से जान.
कुशल चाहता तो कभी, बैर न उससे ठान.
.
यह उसका रहमान है, वह इसकी रसखान.
उसमें इसकी जान है, इसमें उसकी जान.
२८-११-२०१७
***
षट्पदी
लिखते-पढ़ते थक गया, बैठ गया हो मौन
पूछ रहा चलभाष से, बोलो मैं हूँ कौन?
बोलो मैं हूँ कौन मिला तब मुझको उत्तर
खुद को जान न पाए क्यों अब तक घनचक्कर?
तुम तुम हो, तुम नहीं अन्य जैसे हो दिखते
बेहतर होता भटक न यदि चुप कविता लिखते।
अलंकार सलिला: ३०
अपन्हुति अलंकार
*
प्रस्तुत का वारण जहाँ, वहीं अपन्हुति मीत।
कर निषेध उपमेय का, हो उपमान सप्रीत।।
'अपन्हुति' का अर्थ है वारण या निषेध करना, छिपाना, प्रगट न होने देना आदि. इसलिए इस अलंकार में प्रायः निषेध देखा जाता है। प्रकृत, प्रस्तुत या उपमेय का प्रतिषेध कर अन्य अप्रस्तुत या उपमान का आरोप या स्थापना किया जाए तो 'अपन्हुति अलंकार' होता है। जहाँ उपमेय का निषेध कर उसमें उपमान का आरोप किया जाये वहाँ 'अपन्हुति अलंकार' होता है।
प्रस्तुत या उपमेय का, लें निषेध यदि देख।
अलंकार तब अपन्हुति, पल में करिए लेख।।
प्रस्तुत का वारण जहाँ, वहीं अपन्हुति मीत।
आरोपित हो अप्रस्तुत, 'सलिल' मानिये रीत।।
१. हेम सुधा यह किन्तु है सुधा रूप सत्संग।
यहाँ सुधा पर सुधा का आरोप करना के लिए उसमें अमृत के गुण का निषेध किया गया है। अतः, अपन्हुति अलंकार है।
२.सत्य कहहूँ हौं दीनदयाला, बन्धु न होय मोर यह काला।
यहाँ प्रस्तुत उपमेय 'बन्धु' का निषेध कर अप्रस्तुत उपमान 'काल' की स्थापना किये जाने से अपन्हुति अलंकार है।
३. फूलों पत्तों सकल पर हैं वारि बूँदें लखातीं।
रोते हैं या निपट सब यों आँसुओं को दिखाके।।
प्रकृत उपमेय 'वारि बूँदे' का निषेधकर 'आँसुओं' की स्थापना किये जाने के कारण यहाँ ही अपन्हुति है।
४.अंग-अंग जारति अरि, तीछन ज्वाला-जाल।
सिन्धु उठी बडवाग्नि यह, नहीं इंदु भव-भाल।।
अत्यंत तीक्ष्ण ज्वालाओं के जाल में अंग-प्रत्यंग जलने का कारण सिन्धु की बडवाग्नि नहीं, शिव के शीश पर चन्द्र का स्थापित होना है. प्रस्तुत उपमेय 'बडवाग्नि' का प्रतिषेध कर अन्य उपमान 'शिव'-शीश' की स्थापना के कारण अपन्हुति है.
५.छग जल युक्त भजन मंडल को, अलकें श्यामन थीं घेरे।
ओस भरे पंकज ऊपर थे, मधुकर माला के डेरे।।
यहाँ भक्ति-भाव में लीन भक्तजनों के सजल नयनों को घेरे काली अलकों के स्थापित उपमेय का निषेध कर प्रातःकाल तुहिन कणों से सज्जित कमल पुष्पों को घेरे भँवरों के अप्रस्तुत उपमान को स्थापित किया गया है. अतः अपन्हुति अलंकार है.
६.हैं नहीं कुल-श्रेष्ठ, अंधे ही यहाँ हैं।
भक्तवत्सल साँवरे, बोलो कहाँ हैं? -सलिल
यहाँ द्रौपदी द्वारा प्रस्तुत उपमेय कुल-श्रेष्ठ का निषेध कर अप्रस्तुत उपमान अंधे की स्थापना की गयी है. अतः, अपन्हुति है.
७.संसद से जन-प्रतिनिधि गायब
बैठे कुछ मक्कार हैं। -सलिल
यहाँ उपमेय 'जनप्रतिनिधि' का निषेध कर उपमान 'मक्कार' की स्थापना किये जाने से अपन्हुति है.
८. अरी सखी! यह मुख नहीं, यह है अमल मयंक।
९. किरण नहीं, पावक के कण ये जगतीतल पर गिरते हैं।
१०. सुधा सुधा प्यारे! नहीं, सुधा अहै सतसंग।
११. यह न चाँदनी, चाँदनी शिला 'मरमरी श्वेत।
१२. चंद चंद आली! नहीं, राधा मुख है चंद।
१३. अरध रात वह आवै मौन
सुंदरता बरनै कहि कौन?
देखत ही मन होय अनंद
क्यों सखि! पियमुख? ना सखि चंद।
अपन्हुति अलंकार के प्रकार:
'यहाँ' नहीं 'वह' अपन्हुति', अलंकार लें जान।
छः प्रकार रोचक 'सलिल', रसानंद की खान।।
प्रस्तुत या उपमेय का निषेध कर अप्रस्तुत की स्थापना करने पर अपन्हुति अलंकार जन्मता है. इसके छः भेद हैं.
१. शुद्धापन्हुति:
जहाँ पर प्रकृत उपमेय को छिपाकर या उसका प्रतिषेध कर अन्य अप्रस्तुत का निषेधात्मक शब्दों में आरोप किया जाता है.
१. ऊधो यह सूधो सो संदेसो कहि दीजो भलो,
हरि सों हमारे ह्यां न फूले वन कुञ्ज हैं।
किंसुक गुलाब कचनार औ' अनारन की
डारन पै डोलत अन्गारन के पुंज हैं।।
२. ये न मग हैं तव चरण की रेखियाँ हैं।
बलि दिशा की ओर देखा-देखियाँ हैं।।
विश्व पर पद से लिखे कृति-लेख हैं ये।
धरा-तीर्थों की दिशा की मेख हैं ये।।
३. ये न न्यायाधीश हैं,
धृतराष्ट्र हैं ये।
न्याय ये देते नहीं हैं,
तोलते हैं।।
४. नहीं जनसेवक
महज सत्ता-पिपासु,
आज नेता बन
लूटते देश को हैं।
५. अब कहाँ कविता?
महज तुकबन्दियाँ हैं,
भावना बिन रचित
शाब्दिक-मंडियाँ हैं।
२. हेत्वापन्हुति:
जहाँ प्रस्तुत का प्रतिषेध कर अप्रस्तुत का आरोप करते समय हेतु या कारण स्पष्ट किया जाए वहाँ हेत्वापन्हुति अलंकार होता है.
१. रात माँझ रवि होत नहिं, ससि नहिं तीव्र सुलाग।
उठी लखन अवलोकिये, वारिधि सों बड़बाग।।
२. ये नहिं फूल गुलाब के, दाहत हियो अपार।
बिनु घनश्याम अराम में, लगी दुसह दवार।।
३. अंक नहीं है पयोधि के पंक को औ' वसि बंक कलंक न जागै।
छाहौं नहीं छिति की परसै अरु धूमौ नहीं बड़वागि को पागै।।
मैं मन वीचि कियो निह्चै रघुनाथ सुनो सुनतै भ्रम भागै।
ईठिन या के डिठौना दिया जेहि काहू वियोगी की डीठि न लागै।।
४. पहले आँखों में थे, मानस में कूद-मग्न प्रिय अब थे।
छींटे वहीं उड़े थे, बड़े-बड़े ये अश्रु कब थे.
५. गुरु नहीं, शिक्षक महज सेवक
साध्य विद्या नहीं निज देयक।
३. पर्यस्तापन्हुति:
जहाँ उपमेय या वास्तविक धर्मी में धर्म का निषेध कर अन्य में उसका आरोप जाता है वहाँ पर्यस्तापन्हुति अलंकार होता है।
१. आपने कर्म करि हौं हि निबहौंगो तौ तो हौं ही करतार करतार तुम काहे के?
२. मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है।
भेंट जहाँ मस्ती की मिलती वह मेरी मधुशाला है।।
३ . जहाँ दुःख-दर्द
जनता के सुने जाएँ
न वह संसद।
जहाँ स्वार्थों का
सौदा हो रहा
है देश की संसद।।
४. चमक न बाकी चन्द्र में
चमके चेहरा खूब।
५. डिग्रियाँ पाई,
न लेकिन ज्ञान पाया।
लगी जब ठोकर
तभी कुछ जान पाया।।
४. भ्रान्त्य अपन्हुति:
जहाँ किसी कारणवश भ्रम हो जाने पर सच्ची बात कहकर भ्रम का निवारण किया जाता है और उसमें कोई चमत्कार रहता है, वहाँ भ्रान्त्यापन्हुति अलंकार होता है।
१. खायो कै अमल कै हिये में छायो निरवेद जड़ता को मंत्र पढि नायो शीश काहू अरि।
कै लग्यो है प्रेत कै लग्यो है कहूँ नेह हेत सूखि रह्यो बदन नयन रहे आँसू भरि।।
बावरी की ऐसी दशा रावरी दिखाई देति रघुनाथ इ भयो जब मन में रो गयो डरि।
सखिन के टरै गरो भरे हाथ बाँसुरी देहरे कही-सुनी आजु बाँसुरी बजाई हरि।।
२. आली लाली लखि डरपि, जनु टेरहु नंदलाल।
फूले सघन पलास ये, नहिं दावानल ज्वाल।।
३. डहकु न है उजियरिया, निसि नहिं घाम।
जगत जरत अस लाग, मोहिं बिनु राम।।
४. सर्प जान सब डर भगे, डरें न व्यर्थ सुजान।
रस्सी है यह सर्प सी, किन्तु नहीं है जान।।
५. बिन बदरा बरसात?
न, सिर धो आयी गोरी।
टप-टप बूँदें टपकाती
फिरती है भोरी।।
५. छेकापन्हुति:
जहाँ गुप्त बात प्रगट होने की आशंका से चतुराईपूर्वक मिथ्या समाधान से निषेध कर उसे छिपाया जाता है वहाँ छेकापन्हुति अलंकार होता है।
१. अंग रंग साँवरो सुगंधन सो ल्प्तानो पीट पट पोषित पराग रूचि वरकी।
करे मधुपान मंद मंजुल करत गान रघुनाथ मिल्यो आन गली कुञ्ज घर की।।
देखत बिकानी छबि मो पै न बखानी जाति कहति ही सखी सों त्यों बोली और उरकी।
भली भईं तोही मिले कमलनयन परत नहीं सखी मैं तो कही बात मधुकर की।।
२. अर्धनिशा वह आयो भौन।
सुन्दरता वरनै कहि कौन?
निरखत ही मन भयो अनंद।
क्यों सखी साजन?
नहिं सखि चंद।।
३. श्यामल तन पीरो वसन मिलो सघन बन भोर।
देखो नंदकिशोर अलि? ना सखि अलि चितचोर।।
४. चाहें सत्ता?,
नहीं-नहीं,
जनसेवा है लक्ष्य।
५. करें चिकित्सा डॉक्टर
बिना रोग पहचान।
धोखा करें मरीज से?
नहीं, करें अनुमान।
६. कैतवापन्हुति:
जहाँ प्रस्तुत का प्रत्यक्ष निषेध न कर चतुराई से किसी व्याज (बहाने) से उसका निषेध किया जाता है वहाँ कैतवापन्हुति अलंकार होता है। कैटव में बहाने से, मिस, व्याज, कारण आदि शब्दों द्वारा उपमेय का निषेध कर उपमान का होना कहा जाता है।।
१. लालिमा श्री तरवारि के तेज में सारदा लौं सुखमा की निसेनी।
नूपुर नील मनीन जड़े जमुना जगै जौहर में सुखदेनी।।
यौं लछिराम छटा नखनौल तरंगिनी गंग प्रभा फल पैनी।
मैथिली के चरणाम्बुज व्याज लसै मिथिला मग मंजु त्रिवेनी।
२. मुख के मिस देखो उग्यो यह निकलंक मयंक।
३. नूतन पवन के मिस प्रकृति ने सांस ली जी खोल के।
यह नूतन पवन नहीं है,प्रकृति की सांस है।
४. निपट नीरव ही मिस ओस के
रजनि थी अश्रु गिरा रही
ओस नहीं, आँसू हैं।
५. जनसेवा के वास्ते
जनप्रतिनिधि वे बन गये,
हैं न प्रतिनिधि नेता हैं।
***
अलंकार सलिला ३५
विनोक्ति अलंकार
*
बिना वस्तु उपमेय को, जहाँ दिखाएँ हीन.
है 'विनोक्ति' मानें 'सलिल', सारे काव्य प्रवीण..
जहाँ उपमेय या प्रस्तुत को किसी वस्तु के बिना हीन या रम्य वर्णित किया जाता है वहाँ विनोक्ति अलंकार होता है.
१. देखि जिन्हें हँसि धावत हैं लरिकापन धूर के बीच बकैयां.
लै जिन्हें संग चरावत हैं रघुनाथ सयाने भए चहुँ बैयां.
कीन्हें बली बहुभाँतिन ते जिनको नित दूध पियाय कै मैया.
पैयाँ परों इतनी कहियो ते दुखी हैं गोपाल तुम्हें बिन गैयां.
२. है कै महाराज हय हाथी पै चढे तो कहा जो पै बाहुबल निज प्रजनि रखायो ना.
पढि-पढि पंडित प्रवीणहु भयो तो कहा विनय-विवेक युक्त जो पै ज्ञान गायो ना.
अम्बुज कहत धन धनिक भये तो कहा दान करि हाथ निज जाको यश छायो ना.
गरजि-गरजि घन घोरनि कियो तो कहा चातक के चोंच में जो रंच नीर नायो ना.
३. घन आये घनघोर पर, 'सलिल' न लाये नीर.
जनप्रतिनिधि हरते नहीं, ज्यों जनगण की पीर..
४. चंद्रमुखी है / किन्तु चाँदनी शुभ्र / नदारद है.
५. लछमीपति हैं नाम के / दान-धर्म जानें नहीं / नहीं किसी के काम के
६. समुद भरा जल से मगर, बुझा न सकता प्यास
मीठापन जल में नहीं, 'सलिल' न करना आस
७. जनसेवा की भावना, बिना सियासत कर रहे
मिटी न मन से वासना, जनप्रतिनिधि कैसे कहें?
***
अलंकार सलिला: ३४
प्रतिवस्तूपमा अलंकार
*
एक धर्म का शब्द दो, करते अगर बखान.
'प्रतिवस्तुपमा' हो 'सलिल', अलंकार रस-खान..
'प्रतिवस्तुपमा' में कहें, एक धर्म दो शब्द.
चमत्कार लख काव्य का, होते रसिक निशब्द..
जहाँ उपमेय और उपमान वाक्यों का विभिन्न शब्दों द्वारा एक ही धर्म कहा जाता है, वहाँ
प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता है.
जब उपमेय और उपमान वाक्यों का एक ही साधारण धर्म भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा कहा
जाय अथवा जब दो वाक्यों में वस्तु-प्रति वस्तु भाव हो तो वहाँ प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता
है.
प्रतिवस्तूपमा में दो वाक्य होते हैं- १) उपमेय वाक्य, २) उपमान वाक्य. इन दोनों वाक्यों का
एक ही साधारण धर्म होता है. यह साधारण धर्म दोनों वाक्यों में कहा जाता है पर अलग-
अलग शब्दों से अर्थात उपमेय वाक्य में जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है उपमान वाक्य
में उस शब्द का प्रयोग न कर किसी समानार्थी शब्द द्वारा समान साधारण धर्म की
अभिव्यक्ति की जाती है.
प्रतिवस्तूपमा अलंकार का प्रयोग करने के लिए प्रबल कल्पना शक्ति, सटीक बिम्ब-विधान
चयन-क्षमता तथा प्रचुर शब्द-ज्ञान की पूँजी कवि के पास होना अनिवार्य है किन्तु प्रयोग में
यह अलंकार कठिन नहीं है.
उदाहरण:
१. पिसुन बचन सज्जन चितै, सकै न फेरि न फारि.
कहा करै लगि तोय मैं, तुपक तीर तरवारि..
२. मानस में ही हंस किशोरी सुख पाती है.
चारु चाँदनी सदा चकोरी को भाती है.
सिंह-सुता क्या कभी स्यार से प्यार करेगी?
क्या पर नर का हाथ कुलस्त्री कभी धरेगी?
यहाँ प्रथम व चतुर्थ पंक्ति में उपमेय वाक्य और द्वितीय-तृतीय पंक्ति में उपमान वाक्य है.
३. मुख सोहत मुस्कान सों, लसत जुन्हैया चंद.
यहाँ 'मुख मुस्कान से सोहता है' यह उपमेय वाक्य है और 'चन्द्र जुन्हाई(चाँदनी) से लसता
(अच्छा लगता) है' यह उपमान वाक्य है. दोनों का साधारण धर्म है 'शोभा देता है'. यह
साधारण धर्म प्रथम वाक्य में 'सोहत' शब्द से तथा द्वितीय वाक्य में 'लसत' शब्द से कहा
गया है.
४. सोहत भानु-प्रताप सों, लसत सूर धनु-बान.
यहाँ प्रथम वाक्य उपमान वाक्य है जबकि द्वितीय वाक्य उपमेय वाक्य है.
५. तिन्हहि सुहाव न अवध-बधावा, चोरहिं चाँदनि रात न भावा.
यहाँ 'न सुहाना साधारण धर्म है जो उपमेय वाक्य में 'सुहाव न ' शब्दों से और उपमान वाक्य
में 'न भावा' शब्दों से व्यक्त किया गया है.
पाठकगण कारण सहित बताएँ कि निम्न में प्रतिवस्तूपमा अलंकार है या नहीं?
६. नेता झूठे हो गए, अफसर हुए लबार.
७. हम अनुशासन तोड़ते, वे लाँघे मर्याद.
८. पंकज पंक न छोड़ता, शशि ना ताजे कलंक.
९. ज्यों वर्षा में किनारा, तोड़े सलिला-धार.
त्यों लज्जा को छोड़ती, फिल्मों में जा नार..
१०. तेज चाल थी चोर की, गति न पुलिस की तेज
***
अलंकार सलिला: ३३
सहोक्ति अलंकार
*
कई क्रिया-व्यापार में, धर्म जहाँ हो एक।
मिले सहोक्ति वहीं 'सलिल', समझें सहित विवेक।।
एक धर्म, बहु क्रिया ही, है सहोक्ति- यह मान।
ले सहवाची शब्द से, अलंकार पहचान।।
सहोक्ति अपेक्षाकृत अल्प चर्चित अलंकार है। जब कार्य-कारण रहित सहवाची शब्दों द्वारा अनेक व्यापारों
अथवा स्थानों में एक धर्म का वर्णन किया जाता है तो वहाँ सहोक्ति अलंकार होता है।
जब दो विजातीय बातों को एक साथ या उसके किसी पर्याय शब्द द्वारा एक ही क्रिया या धर्म से अन्वित
किया जाए तो वहाँ सहोक्ति अलंकर होता है। इसके वाचक शब्द साथ अथवा पर्यायवाची संग, सहित, समेत, सह, संलग्न आदि होते हैं।
१. नाक पिनाकहिं संग सिधायी।
धनुष के साथ नाक (प्रतिष्ठा) भी चली गयी। यहाँ नाक तथा धनुष दो विजातीय वस्तुओं को एक ही शब्द
'साथ' से अन्वित कर उनका एक साथ जाना कहा गया है।
२. भृगुनाथ के गर्व के साथ अहो!, रघुनाथ ने संभु-सरासन तोरयो।
यहाँ परशुरराम का गर्व और शिव का धनुष दो विजातीय वस्तुओं को एक ही क्रिया 'तोरयो' से अन्वित
किया गया है।
३. दक्खिन को सूबा पाइ, दिल्ली के आमिर तजैं, उत्तर की आस, जीव-आस एक संग ही।।
यहाँ उत्तर दिशा में लौट आने की आशा तथा जीवन के आशा इन दो विजातीय बैटन को एक ही शब्द 'तजना' से अन्वित किया गया है।
४. राजाओं का गर्व राम ने तोड़ दिया हर-धनु के साथ।
५. शिखा-सूत्र के साथ हाय! उन बोली पंजाबी छोड़ी।
६. देह और जीवन की आशा साथ-साथ होती है क्षीण।
७. तिमिर के संग शोक-समूह । प्रबल था पल-ही-पल हो रहा।
८. ब्रज धरा जान की निशि साथ ही। विकलता परिवर्धित हो चली।
९. संका मिथिलेस की, सिया के उर हूल सबै, तोरि डारे रामचंद्र, साथ हर-धनु के।
१०. गहि करतल मुनि पुलक सहित कौतुकहिं उठाय लियौ।
नृप गन मुखन समेत नमित करि सजि सुख सबहिं दियौ।।
आकर्ष्यो सियमन समेत, अति हर्ष्यो जनक हियौ।
भंज्यो भृगुपति गरब सहित, तिहुँलोक बिसोक कियौ।।
११. छुटत मुठिन सँग ही छुटी, लोक-लाज कुल-चाल।
लगे दुहन एक बेर ही, चल चित नैन गुलाल।।
१२. निज पलक मेरी विकलता साथ ही, अवनि से उर से, मृगेक्षिणी ने उठा।
१३. एक पल निज शस्य श्यामल दृष्टि से, स्निग्ध कर दी दृष्टि मेरी दीप से।।
१४. तेरा-मेरा साथ रहे, हाथ में साथ रहे।
१५. ईद-दिवाली / नीरस-बतरस / साथ न होती।
१६. एक साथ कैसे निभे, केर-बेर का संग?
भारत कहता शांति हो, पाक कहे हो जंग।।
उक्त सभी उदाहरणों में अन्तर्निहित क्रिया से सम्बंधित कार्य या कारण के वर्णन बिना ही एक धर्म (साधारण धर्म) का वर्णन सहवाची शब्दों के माध्यम से किया गया है.
२८-११-२०१५
***
मुहावरेदार षट्पदी
नाक के बाल ने, नाक रगड़कर, नाक कटाने का काम किया है
नाकों चने चबवाए, घुसेड़ के नाक, न नाक का मान रखा है
नाक न ऊँची रखें अपनी, दम नाक में हो तो भी नाक दिखा लें
नाक पे मक्खी न बैठन दें, है सवाल ये नाक का, नाक बचा लें
नाक के नीचे अघट न घटे, जो घटे तो जुड़े कुछ राह निकालें
नाक नकेल भी डाल सखा जू, न कटे जंजाल तो बाँह चढ़ा लें
***
नवगीत:
*
कौन बताये
नाम खेल का?
.
तोल-तोल के बोल रहे हैं
इक-दूजे को तोल रहे हैं
कौन बताये पर्दे पीछे
किसके कितने मोल रहे हैं?
साध रहे संतुलन
मेल का
.
तुम इतने लो, हम इतने लें
जनता भौचक कब कितने ले?
जैसी की तैसी है हालत
आश्वासन चाहे जितने ले
मेल नीर के
साथ तेल का?
.
केर-बेर का साथ निराला
स्वार्थ साधने बदलें पाला
सत्ता खातिर खेल खेलते
सिद्धांतों पर डाला ताला
मौसम आया
धकापेल का
२८-११-२०१४
***
नवगीत:
कब रूठें
कब हाथ मिलायें?
नहीं, देव भी
कुछ कह पायें
.
ये जनगण-मन के नायक हैं
वे बमबारी के गायक हैं
इनकी चाह विकास कराना
उनकी राह विनाश बुलाना
लोकतंत्र ने
तोपतंत्र को
कब चाहा है
गले लगायें?
.
सारे कुनबाई बैठे हैं
ये अकड़े हैं, वे ऐंठे हैं
उनका जन आधार बड़ा पर
ये जन मन मंदिर पैठे हैं
आपस में
सहयोग बढ़ायें
इनको-उनको
सब समझायें
. . .
(सार्क सम्मेलन काठमांडू, २६.१.२०१४ )

मंगलवार, 25 नवंबर 2025

नवंबर २५, प्रेमा छंद, बुंदेली, सरस्वती, सड़गोड़ासनी, छंद, नवगीत, समीक्षा

सलिल सृजन नवंबर २५ 
बुंदेली
सरस्वती वंदना
*
छंद - सड़गोड़ासनी।
पद - ३, मात्राएँ - १५-१२-१५।
पहली पंक्ति - ४ मात्राओं के बाद गुरु-लघु अनिवार्य।
गायन - दादरा ताल ६ मात्रा।
*
मैया शारदे! पत रखियो
मोखों सद्बुधि दइयो
मैया शारदे! पत रखियो
जा मन मंदिर मैहरवारी
तुरतइ आन बिरजियो
मैया शारदे! पत रखियो
माया-मोह राच्छस घेरे
झट सें मार भगइयो
मैया शारदे! पत रखियो
अनहद नाद सुनइयो माता!
लागी नींद जगइयो
मैया शारदे! पत रखियो
भासा-आखर-कवित मोय दो
लय-रस-भाव लुटइयो
मैया शारदे! पत रखियो
मात्रा-वर्ण; प्रतीक बिम्ब नव
अलंकार झलकइयो
मैया शारदे! पत रखियो
२५-११-२०१९
०००
पुरोवाक
''कागज़ के अरमान'' - जमीन पर पैर जमकर आसमान में उड़ान
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
मानव सभ्यता और कविता का साथ चोली-दामन का सा है। चेतना के विकास के साथ मनुष्य ने अन्य जीवों की तुलना में प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण-पर्यवेक्षण कर, देखे हुए को स्मृति में संचित कर, एक-दूसरे को अवगत कराने और समान परिस्थितियों में उपयुक्त कदम उठाने में सजगता, तत्परता और एकजुटता का बेहतर प्रदर्शन किया। फलत:, उसका न केवल अनुभव संचित ज्ञान भंडार बढ़ता गया, वह परिस्थितियों से तालमेल बैठने, उन्हें जीतने और अपने से अधिक शक्तिशाली पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं पर भी विजय पाने और अपने लिए आवश्यक संसाधन जुटाने में सफल हो सका। उसने प्रकृति की शक्तियों को उपास्य देव मानकर उनकी कृपा से प्रकृति के उपादानों का प्रयोग किया। प्रकृति में व्याप्त विविध ध्वनियों से उसने परिस्थितियों का अनुमान करना सीखा। वायु प्रवाह की सनसन, जल प्रवाह की कलकल, पंछियों का कलरव, मेघों का गर्जन, विद्युतपात की तड़ितध्वनि आदि से उसे सिहरन, आनंद, प्रसन्नता, आशंका, भय आदि की प्रतीति हुई। इसी तरन सिंह-गर्जन सुनकर पेड़ पर चढ़ना, सर्प की फुंफकार सुनकर दूर भागना, खाद्य योग्य पशुओं को पकड़ना-मारना आदि क्रियाएँ करते हुए उसे अन्य मानव समूहों के अवगत करने के लिए इन ध्वनियों को उच्चरित करने, अंकित करने की आवश्यकता अनुभव हुई। इस तरह भाषा और लिपि का जन्म हुआ।
कोयल की कूक और कौए की काँव-काँव का अंतर समझकर मनुष्य ने ध्वनि के आरोह-अवरोह, ध्वनि खण्डों के दुहराव और मिश्रण से नयी ध्वनियाँ बनाकर-लिखकर वर्णमाला का विकास किया, कागज़, स्याही और कलम का प्रयोगकर लिखना आरंभ किया। इनमें से हर चरण के विकास में सदियाँ लगीं। भाषा और लिपि के विकास में नारी की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। प्रकृति प्रदत्त प्रजनन शक्ति और संतान को जन्मते ही शांत करने के लिए नारी ने गुनगुनाना आरम्भ कर प्रणयनुभूतियों और लाड़ की अभिव्यक्ति के लिए रूप में प्रथम कविता को जन्म दिया। आदि मानव ने ध्वनि का मूल नारी को मानकर नाद, संगीत, कला और शिल्प की अधिष्ठात्री आदि शक्ति पुरुष नहीं नारी को मान जिसे कालान्तर में 'सरस्वती (थाइलैण्ड में सुरसवदी बर्मा में सूरस्सती, थुरथदी व तिपिटक मेदा, जापान में बेंज़ाइतेन, चीन में बियानचाइत्यान, ग्रीक सभ्यता में मिनर्वा, रोमन सभ्यता में एथेना) कहा गया। बोलने, लिखने, पढ़ने और समझने ने मनुष्य को सृष्टि का स्वामी बन दिया। अनुभव करना और अभिव्यक्त करना इन दो क्रियाओं में निपुणता ने मनुष्य को अद्वितीय बना दिया।
भाषा मनुष्य की अनुभूति को अभिव्यक्त करने के साथ मनन, चिंतन और अभिकल्पन का माध्यम भी बनी। गद्य चिंतन और तर्क तथा पद्य मनन और भावना के सहारे उन्नत हुए। हर देश, काल, परिस्थिति में कविता मानव-मन की अभिव्यक्ति का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम रही। इस पृष्ठभूमि में डॉ. अग्निभ मुखर्जी 'नीरव' की कविताओं को पढ़ना एक आनंददायी अनुभव है। सनातन सामाजिक मूल्यों को जीवनाधार मानते हुए सनातन सलिला नर्मदा के तट पर भारत के मध्यम श्रेणी के संस्कारधानी विशेषण से अलंकृत शहर जबलपुर में संस्कारशील बंगाली परिवार में जन्म व शालेय शिक्षाके पश्चात साम्यवाद के ग्रह, विश्व की महाशक्ति रूस में उच्च अध्ययन और अब जर्मनी में प्रवास ने अग्निभ को विविध मानव सभ्यताओं, जीवन शैलियों और अनुभवों की वह पूंजी दी, जो सामान्य रचनाकर्मी को नहीं मिलती है। इन अनुभवों ने नीरव को समय से पूर्व परिपक्व बनाकर कविताओं में विचार तत्व को प्रमुखता दी है तो दूसरी और शिल्प और संवेदना के निकष पर सामान्य से हटकर अपनी राह आप बनाने की चुनौती भी प्रस्तुत की है। मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता है कि अग्निभ की सृजन क्षमता न तो कुंठित हुई, न नियंत्रणहीन अपितु वह अपने मूल से सतत जुड़ी रहकर नूतन आयामों में विकसित हुई है।
अग्निभ के प्रथम काव्य संग्रह 'नीरव का संगीत' की रचनाओं को संपादित-प्रकाशित करने और पुरोवाक लिखने का अवसर मुझे वर्ष २००८ में प्राप्त हुआ। ग्यारह वर्षों के अंतराल के पश्चात् यह दूसरा संग्रह 'कागज़ के अरमान' पढ़ते हुए इस युवा प्रतिभा के विकास की प्रतीति हुई है। गुरुवर श्री मुकुल शर्मा जी को समर्पण से इंगित होता है की अग्निभ गुरु को ब्रह्मा-विष्णु-महेश से उच्चतर परब्रह्म मानने की वैदिक, 'बलिहारी गुरु आपकी जिन गोविंद दियो बताय' की कबीरी और 'बिन गुरु ज्ञान कहाँ से पाऊँ?' की समकालिक विरासत भूले नहीं हैं। संकलन का पहला गीत ही उनके कवि के पुष्ट होने की पुष्टि करता है। 'सीना' के दो अर्थों सिलना तथा छाती में यमक अलंकार का सुन्दर प्रयोग कर अग्निभ की सामर्थ्य का संकेत करता है।
जिस दिन मैंने उजड़े उपवन में
अमृत रस पीना चाहा,
उस दिन मैंने जीना चाहा!
काँटों से ही उन घावों को
जिस दिन मैंने सीना चाहा
उस दिन मैंने जीना चाहा!
जिस दिन मैंने उत्तोलित सागर
सम करना सीना चाहा
उस दिन मैंने जीना चाहा!
पुनरावृत्ति अलंकार का इतना सटीक प्रयोग काम ही देखने मिलता है -
एक न हो हालात सभी के
एक हौसला पाया है,
एक एक कर एक गँवाता,
एक ने उसे बढ़ाया है।
कहा जाता है कि एक बार चली गोली दुबारा नहीं चलती पर अग्निभ इस प्रयोग को चाहते और दुहराते हैं बोतल में -
महफ़िल में बोतलों की
बोतल से बोतलों ने
बोतल में बंद कितने
बोतल के राज़ खोले।
पर सभी बोतलों का
सच एक सा ही पाया-
शीशे से तन ढका है,
अंदर है रूह जलती,
सबकी अलग महक हो
पर एक सा नशा है।
बोतल से बोतलें भी
टूटी कहीं है कितनी।
बोतल से चूर बोतल
पर क्या कभी जुड़ी है?
दिलदार खुद को कहती
गुज़री कई यहाँ से,
बोतल से टूटने को
आज़ाद थी जो बोतल।
हर बार टूटने पर
एक हँसी भी थी टूटी।
किसके नसीब पर थी
अब समझ आ रहा है।
बोतल में बोतलों की
तकदीर लिख गयी है।
बोतल का दर्द पी लो,
चाहे उसे सम्हालो।
पर और अब न यूँ तुम
भर ज़हर ही सकोगे।
हद से गुज़र गए तो
जितना भी और डालो
वो छलक ही उठेगा,
रोको, मगर बहेगा।
उस दिन जो बोतलों से
कुछ अश्क भी थे छलके
वे अश्क क्यों थे छलके
अब समझ आ रहा है।
नर्मदा को 'सौंदर्य की नदी' कहा जाता है। उसके नाम ('नर्मदा' का अर्थ 'नर्मंम ददाति इति नर्मदा' अर्थात जो आनंद दे वह नर्मदा है), से ही आनंदानुभूति होती है। गंगा-स्नान से मिलनेवाला पुण्य नर्मदा के
दर्शन मात्र से मिल जाता है। अग्निभ सात समुन्दर पार भी नर्मदा के अलौकिक सौंदर्य को विस्मृत न कर सके, यह स्वाभाविक है -
सुन ले जीवन एक बार ज़रा तू नीरव का संगीत।
महाघोष सुनाती बह चलती
नर्मदा तीर पर आज मिला,
चिर तर्ष, हर्ष ले नाच रही
जो पाषाणों में प्राण खिला ।
पाषाण ये मुखरित लगते हैं,
सोये हों फिर भी जगते हैं,
सरिता अधरों में भरती उनके आज नवल यह गीत ।
सुन ले जीवन एक बार ज़रा तू नीरव का संगीत ।।
अग्निभ के काव्य संसार में गीत और कविता अनुभूति की कोख से जन्मे सहोदर हैं।वे गीत, नवगीत और कविता सम्मिश्रण हैं। अग्निभ की गीति रचनाओं में छान्दसिकता है किन्तु छंद-विधान का कठोरता से पालन नहीं है। वे अपनी शैली और शिल्प को शब्दित लिए यथावश्यक छूट लेते हुए स्वाभाविकता को छन्दानुशासन पर वरीयता देते है। अन्त्यानुप्रास उन्हें सहज साध्य है।
लंबे विदेश प्रवास के बाद भी भाषिक लालित्य और चारुत्व अग्निभ की रचनाओं में भरपूर है। हिंदी, बांग्ला, अंग्रेजी, रूसी और जर्मनी जानने के बाद भी शाब्दिक अपमिश्रण से बचे रहना और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के नाम पर व्याकरणिक अनाचार न करने की प्रवृत्ति ने इन रचनाओं को पठनीय बनाया है। भारत में हिंगलिश बोलकर खुद को प्रगत समझनेवाले दिशाहीन रचनाकारों को अभिनव से निज भाषा पर गर्व करना सीखना चाहिए।
अग्निभ ने अपने प्रिय कवि रवींद्र नाथ ठाकुर की कविताओं का अनुवाद भी किया है। संकलन में गुरुदेव रचित विश्व विख्यात प्रार्थना अग्निभ कृत देखिये-
निर्भय मन जहाँ, जहाँ रहे उच्च भाल,
ज्ञान जहाँ मुक्त रहे, न ही विशाल
वसुधा के आँगन का टुकड़ों में खण्डन
हो आपस के अन्तर, भेदों से अगणन ।
जहाँ वाक्य हृदय के गर्भ से उच्चल
उठते, जहाँ बहे सरिता सम कल कल
देशों में, दिशाओं में पुण्य कर्मधार
करता संतुष्ट उन्हें सैकड़ों प्रकार।
कुरीति, आडम्बरों के मरू का वह पाश
जहाँ विचारों का न कर सका विनाश-
या हुआ पुरुषार्थ ही खण्डों में विभाजित,
जहाँ तुम आनंद, कर्म, चिंता में नित,
हे प्रभु! करो स्वयं निर्दय आघात,
भारत जग उठे, देखे स्वर्गिक वह प्रात ।
''कागज़ के अरमान'' की कविताएँ अग्निभ के युवा मन में उठती-मचलती भावनाओं का सागर हैं जिनमें तट को चूमती साथ लहरों के साथ क्रोध से सर पटकती अगाध जल राशि भी है, इनमें सुन्दर सीपिकाएँ, जयघोष करने में सक्षम शङख, छोटी-छोटी मछलियाँ और दानवाकार व्हेल भी हैं। वैषयिक और शैल्पिक विविधता इन सहज ग्राह्य कविताओं को पठनीय बनाती है। अग्निभ के संकलन से आगामी संकलनों की उत्तमता के प्रति आशान्वित हुआ जा सकता है।
२५.११.२०१९
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, भारत
चलभाष - ९४२५१८३२४४, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com
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दोहा मुक्तिका
*
स्नेह भारती से करें, भारत माँ से प्यार।
छंद-छंद को साधिये, शब्द-ब्रम्ह मनुहार।।
*
कर सारस्वत साधना, तनहा रहें न यार।
जीव अगर संजीव हों, होगा तब उद्धार।।
*
मंदिर-मस्जिद बन गए, सत्ता हित हथियार।।
मन बैठे श्री राम जी, कर दर्शन सौ बार।।
*
हर नेता-दल चाहता, उसकी हो सरकार।।
नित मनमानी कर सके, औरों को दुत्कार।।
*
सलिला दोहा मुक्तिका, नेह-नर्मदा धार।
जो अवगाहे हो सके, भव-सागर से पार।।
२५.११.२०१८
०००
द्विपदी
यायावर मन दर-दर भटके,
पर माया मृग हाथ न आए,
नर नारायण तन नारद को,
कर वानर शापित हो जाए.
*
क्षणिका
गीत क्या?,
नवगीत क्या?
बोलें, निर्मल बोलें
बात मन की करें
दिल के द्वार खोलें.
*
एक दोहा निर्मल है नवगीत का, त्रिलोचनी संसार.
निहित कल्पना मनोरम, ज्यों संध्या आगार.
२५.११.२०१७
***
नवगीत महोत्सव लखनऊ के पूर्ण होने पर
एक रचना:
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
दूर डाल पर बैठे पंछी
नीड़ छोड़ मिलने आये हैं
कलरव, चें-चें, टें-टें, कुहू
गीत नये फिर गुंजाये हैं
कुछ परंपरा,कुछ नवीनता
कुछ अनगढ़पन,कुछ प्रवीणता
कुछ मीठा,कुछ खट्टा-तीता
शीत-गरम, अब-भावी-बीता
ॐ-व्योम का योग सनातन
खूब सुहाना मीत पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
सुख-दुःख, राग-द्वेष बिसराकर
नव आशा-दाने बिखराकर
बोयें-काटें नेह-फसल मिल
ह्रदय-कमल भी जाएँ कुछ खिल
आखर-सबद, अंतरा-मुखड़ा
सुख थोड़ा सा, थोड़ा दुखड़ा
अपनी-अपनी राम कहानी
समय-परिस्थिति में अनुमानी
कलम-सिपाही ह्रदय बसायें
चिर समृद्ध हो रीत, पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
मैं-तुम आकर हम बन पायें
मतभेदों को विहँस पचायें
कथ्य शिल्प रस भाव शैलियाँ
चिंतन-मणि से भरी थैलियाँ
नव कोंपल, नव पल्लव सरसे
नव-रस मेघा गरजे-बरसे
आत्म-प्रशंसा-मोह छोड़कर
परनिंदा को पीठ दिखाकर
नये-नये आयाम छू रहे
मना रहे हैं प्रीत-पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
२५.११.२०१५
***
नवगीत:
*
वैलेंटाइन
चक्रवात में
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
*
हम-तुम
देख रहे खिड़की के
बजते पल्ले
मगर चुप्प हैं.
दरवाज़ों के बाहर
जाते डरते
छाये तिमिर घुप्प हैं.
अन्तर्जाली
सेंध लग गयी
शयनकक्ष
शिशुगृह में आया.
जसुदा-लोरी
रुचे न किंचित
पूजागृह में
पैग बनाया.
इसे रोज
उसको दे टॉफी
कर प्रपोज़ नित
किसी और को,
संबंधों के
अनुबंधों को
भुला रही सीत्कारें जब-तब.
वैलेंटाइन
चक्रवात में
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
*
पशुपति व्यथित
देख पशुओं से
व्यवहारों की
जय-जय होती.
जन-आस्था
जन-प्रतिनिधियों को
भटका देख
सिया सी रोती.
मन 'मॉनीटर'
पर तन 'माउस'
जाने क्या-क्या
दिखा रहा है?
हर 'सीपीयू'
है आयातित
गत को गर्हित
बता रहा है.
कर उपयोग
फेंक दो तत्क्षण
कहे पूर्व से
पश्चिम वर तम
भटकावों को
अटकावों को
भुना रही चीत्कारें जब-तब.
वैलेंटाइन
चक्रवात में
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
२५.११.२०१५
०००
कृति चर्चा-
जीवन मनोविज्ञान : एक वरदान
[कृति विवरण: जीवन मनोविज्ञान, डॉ. कृष्ण दत्त, आकार क्राउन, पृष्ठ ७४,आवरण दुरंगा, पेपरबैक, त्र्यंबक प्रकाशन नेहरू नगर, कानपूर]
वर्तमान मानव जीवन जटिलताओं, महत्वाकांक्षाओं और समयाभाव के चक्रव्यूह में दम तोड़ते आनंद की त्रासदी न बन जाए इस हेतु चिंतित डॉ. कृष्ण दत्त ने इस लोकोपयीगी कृति का सृजन - प्रकाशन किया है. लेखन सेवानिवृत्त चिकित्सा मनोवैज्ञानिक हैं.
असामान्यता क्या है?, मानव मन का वैज्ञानिक विश्लेषण, अहम सुरक्षा तकनीक, हम स्वप्न क्यों देखते हैं?, मन एक विवेचन एवं आत्म सुझाव, मां पेशीय तनावमुक्तता एवं मन: शांति, जीवन में तनाव- कारण एवं निवारण,समय प्रबंधन, समस्या समाधान, मनोवैज्ञानिक परामर्शदाता के शीलगुण, बुद्धि ही नहीं भावना भी महत्वपूर्ण, संवाद कौशल, संवादहीनता: एक समस्या, वाणी: एक अमोघ अस्त्र, बच्चे आपकी जागीर नहीं हैं, मांसक स्वास्थ्य के ३ प्रमुख अंग, मन स्वस्थ तो तन स्वस्थ, संसार में समायोजन का मनोविज्ञान,जीवन में त्याग नहीं विवेकपूर्ण चयन जरूरी, चेतना का विस्तार ही जीवन, जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि, क्रोध क्यों होता है?, ईर्ष्या कहाँ से उपजती है?, संबंधों का मनोविज्ञान, संबंधों को कैसे संवारें?, सुखी दांपत्य जीवन का राज, अवांछित संस्कारों से कैसे उबरें?, अच्छे नागरिक कैसे बनें? तथा प्रेम: जीवन ऊर्जा का प्राण तत्व २९ अध्यायों में जीवनोपयोगी सूत्र लेखन ने पिरोये हैं.
निस्संदेह गागर में सागर की तरह महत्वपूर्ण यह कृति न केवल पाठकों के समय का सदुपयोग करती है अपितु आजीवन साथ देनेवाले ऐसे सूत्र थमती है जिनसे पाठक, उसके परिवार और साथियों का जीवन दिशा प्राप्त कर सकता है.
स्वायत्तशासी परोपकारी संगठन 'अस्मिता' मंदगति प्रशिक्षण एवं मानसिक स्वास्थ्य केंद्र, इंदिरानगर,लखनऊ १९९५ से मंदमति बच्चों को समाज की मुख्यधारा में संयोजित करने हेतु मानसोपचार (साइकोथोरैपी) शिविरों का आयोजन करती है. यह कृति इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है जिससे दूरस्थ जान भी लाभ ले सकते हैं. इस मानवोपयोगी कृति के लिए लेखक साधुवाद के पात्र हैं.
२५.११.२०१४
***
छंद सलिला
प्रेमा छंद
*
यह दो पदों, चार चरणों, ४४ वर्णों, ६९ मात्राओं का छंद है. इसका पहला, दूसरा और चौथा चरण उपेन्द्रवज्रा तथा दूसरा चरण इंद्रवज्रा छंद होता है.
१. मिले-जुले तो हमको तुम्हारे हसीं वादे कसमें लुभायें
देखो नज़ारे चुप हो सितारों हमें बहारें नगमे सुनाये
*
२. कहो कहानी कविता रुबाई लिखो वही जो दिल से कहा हो
देना हमेशा प्रिय को सलाहें सदा वही जो खुद भी सहा हो
*
३. खिला कचौड़ी चटनी मिठाई मुझे दिला दे कुछ तो खिलौने
मेला लगा है चल घूम आयें बना न बातें भरमा रे!
२५.११.२०१३
***
मुक्तिका:
सबब क्या ?
*
सबब क्या दर्द का है?, क्यों बताओ?
छिपा सीने में कुछ नगमे सुनाओ..

न बाँटा जा सकेगा दर्द किंचित.
लुटाओ हर्ष, सब जग को बुलाओ..

हसीं अधरों पे जब तुम हँसी देखो.
बिना पल गँवाये, खुद को लुटाओ..

न दामन थामना, ना दिल थमाना.
किसी आँचल में क्यों खुद को छिपाओ?

न जाओ, जा के फिर आना अगर हो.
इस तरह जाओ कि वापिस न आओ..

खलिश का खज़ाना कोई न देखे.
'सलिल' को भी 'सलिल' ठेंगा दिखाओ..
२५.११.२०१० 
***