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शुक्रवार, 28 नवंबर 2025

नवंबर २८, मैथिली, राजस्थानी, पूर्णिका, कनेर, माहिया, पंजाब, व्यंग्य गीत, संविधान, लघुकथा, घनाक्षरी,

सलिल सृजन नवंबर २८
*
शे'र
दोस्ती का दोस्त दे उपहार दोस्त को। दुनिया-ए-दिल में दौलतों की कुछ कदर नहीं।
० 
दोस्त को देखा तो बढ़ा खून दोस्त का
विटामिन डी की दवाई अब न दीजिए।।
दोस्त धूप-छाँव में न साथ छोड़ता।
दोस्त साथ तो फकीर बादशाह है।।
दोस्त था 'अर्जुन' चलाया तीर धरा पर।
घन श्याम दोस्त ने बहाई 'सलिल' धार भी।।  
००० 
पूर्णिका ० लाख छुपाओ, छुपे न भाई बात पेट की जाने दाई ० काय लुगाई जो गरीब की गाँव भरे की हो भौजाई? ० हो गिरि शिखर अगर तुम ऊँचे पाट न पाते काहे खाई? ० औसर पाकर आँधर हो गै खुद ही गटके जात मलाई? ० चाँद चाँद सी केकर काटूँ? हैरां पूछ रहो रे नाई ० जीव सबई जिंदा हैं जीसे 'सलिल' न काहे महिमा गाई? २८.११.२०२५ ०
मैथिली पूर्णिका
*
बाँटबो साहित्य
नहिं किओ पढ़ल
गुटबाजी खूम
असरदार रहल
चमचा बनि गेल
जे ओही बढ़ल
कविताक उद्देश्य
अर्थ नहिं रखल
बेतुका रिवाज
स्वार्थ-सिद्धि पुजल
समाजक विनाश
राजनीति करल
धरातल प' आउ
'सलिल' सत्य कहल
***
कनेर पर दोहे
हों प्रसन्न श्री लक्ष्मी, घर में देख कनेर।
पीला-श्वेत लगाइए, बाहर लाल अबेर।।
*
जहरीला पर कर रहा, खुद मिट जगत निरोग।
जय कनेर की कीजिए, भोग न ज्यादा भोग।।
*
बारह मास हरा रहे, धूप-छाँव हँस झेल।
करे आचरण तज गिले, संत सदृश रख मेल।।
***
एक सोरठा
सोलह करिए दान, सोलह करिए कार्य अरु।
सात वचन लें मान, सत चिरजीवी जानिए।।
सोलह संस्कार: गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, कर्णभेद, उपनयन, वेदारम्भ, विवाह. समावर्तन, वानप्रस्थ, संन्यास तथा अंत्येष्टि।
सोलह दान: छत्र, सेज, फल, पान, स्वर्ण, रजत, गौ, पुष्प, भू।
दीप, गंध, कुश, दान अन्न, वस्त्र, जल, पादुका।।
सात चिरंजीवी: बलि, व्यास, विभीषण, हनुमान, कृपाचार्य, परशुराम और अश्वत्थामा।
सात वचन: साथ यात्रा, संबंधी सम्मान, आजीवन साथ, पारिवारिक दायित्व, सहमति, व्यसन त्याग, संयम।
२८.११.२०१४
***
माहिया
भारत को जानें हम
मातृ भूमि अपनी
गुण गा पहचानें हम।
*
पंजाब अनोखा है।
पाँच नदी; गिद्धा
भंगड़ा भी चोखा है।।
*
गुरु नानक की बानी
सुन अमरित चखिए
है यह शुभ कल्याणी।।
*
जिंदादिल पंजाबी
मुश्किल से लड़ते
किंचित न कभी डरते।।
***
पंजाब परिचय
*
हंसवाहिनी मातु कर, कृपा मिले वरदान।
बुद्धि ज्ञान मति कला ध्वनि, नाद ताल विज्ञान।
भारत के गुण गा सकूँ, मैया देना शक्ति।
हिंदी में कह-कर सकूँ, मैया भारत-भक्ति।।
भारत को जानें वही, जो ममता से युक्त।
पानी पी पंजाब का, करें भाँगड़ा मुक्त।।
गुरु नानक की वाणी अनुपम। वाहे गुरु फहराया परचम।।
'सत श्री काल' करें अभिवादन। बलिदानी हों फागुन-सावन।।
हरमंदिर साहिब अमृतसर। पंथ खालसा सबसे बढ़कर।
गुरु गोबिंदसिंह अजरामर। सिंह रणजीत वीर नर नाहर।।
वीणा पर ओंकार गूँजता। शिव-श्री; वास्तव जगत पूजता।।
कृषि; धनेश्वरी धारा घर घर। चंचल रेखा गिद्धा सस्वर।।
है अनुपम मिठास गन्ने में। तनिक न कम माहिये सुनने में।।
ले मन जीत गोगिआ कैनी। ईद गले मिल खा ले फैनी।।
बैसाखी पुष्पा बसंत है। सिक्खी-साखी दिग-दिगंत है।।
अंजलि में अनुराधा खुशियाँ। श्वास सुनीता ले गलबहियाँ।।
सतलज रावी व्यास जल, शक्ति न राज्य विपन्न।
झेलम और चिनाब तट, रहे सलिल संपन्न।।
२८.११.२०२१
***
मुक्तक
*
रात गई है छोड़कर यादों की बारात
रात साथ ले गई है साँसों के नग्मात
रात प्रसव पीड़ा से रह एकाकी मौन
रात न हो तो किस तरह कहिए आए प्रात
*
कोशिश पति को रात भर रात सुलाती थाम
श्रांत-क्लांत श्रम-शिशु को दे जी भर आराम
काट आँख ही आँख में रात उनींदी रात
सहे उपेक्षा मौन रह ऊषा ननदी वाम
२८-११-२०२०
*
एक व्यंग्य गीत
*
ऊधौ! का सरकारै सब कछु?
*
'विथ डिफ़रेंस' पार्टी अद्भुत, महबूबा से पेंग लड़ावै
बात न मन की हो पाए तो, पलक झपकते जेल पठावै
मनमाना किरदारै सब कछु?
ऊधौ! का सरकारै सब कछु?
*
कम जनमत पा येन-केन भी, लपक-लपक सरकार बनावै
'गो-आ' खेल आँख में धूला, झोंक-झोंककर वक्ष फुलावै
सत्ता पा फुँफकारै सब कछु?
ऊधौ! का सरकारै सब कछु?
*
मिले पटकनी तो रो-रोकर, नाहक नंगा नाच दिखावै
रातों रात शपथ लै छाती, फुला-फुला धरती थर्रावै
कैसऊ करो, जुगारै सब कछु
ऊधौ! का सरकारै सब कछु?
*
जोड़ी पूँजी लुटा-खर्चकर, धनपतियों को शीश चढ़ावै
रोजगार पर डाका डाले, भूखों को कानून पढ़ावै
अफरा पेट, डकारै सब कछु?
ऊधौ! का सरकारै सब कछु?
*
सरकारी जमीनसेठों को दै दै पार्टी फंड जुटावै
असफलता औरों पर थोपे, दिशाहीन हर कदम उठावै
गुंडा बन दुत्कारै सब कछु?
ऊधौ! का सरकारै सब कछु?
*
दै अनुदान खरीद वोट लै, भ्रष्ट विरोधी को बतलावै
हिंदी बोले पै ठुकाई कर, जमकर हिंदी दिवस मनावै
गिरगिट सम व्यवहारै सब कछु?
ऊधौ! का सरकारै सब कछु?
*
२८.११.२०१९
***
नवगीत
कहता मैं स्वाधीन
*
संविधान
इक हाथ दे,
दूजे से ले छीन।
*
जन ही जनप्रतिनिधि चुने,
देता है अधिकार।
लाद रहा जन पर मगर,
पद का दावेदार।।
शूल बिछाकर
राह में, कहे
फूल लो बीन।
*
समता का वादा करे,
लगा विषमता बाग।
चीन्ह-चीन्ह कर बाँटता,
रेवड़ी, दूषित राग।।
दो दूनी
बतला रहा हाय!
पाँच या तीन।
*
शिक्षा मिले न एक सी,
अवसर नहीं समान।
जनभाषा ठुकरा रह,
न्यायालय मतिमान।।
नीलामी है
न्याय की
काले कोटाधीन।
*
तब गोरे थे, अब हुए,
शोषक काले लोग।
खुर्द-बुर्द का लग गया,
इनको घातक रोग।।
बजा रहा है
भैंस के, सम्मुख
जनगण बीन।
*
इंग्लिश को तरजीह दे,
हिंदी माँ को भूल।
चंदन फेंका गटर में,
माथे मलता धूल।।
भारत को लिख
इंडिया, कहता
मैं स्वाधीन।
***
घनाक्षरी
*
नागनाथ साँपनाथ, जोड़ते मिले हों हाथ, मतदान का दिवस, फिर निकट है मानिए।
चुप रहे आज तक, अब न रहें आप चुप, ई वी एम से जवाब, दें न बैर ठानिए।।
सारी गंदगी की जड़, दलवाद है 'सलिल', नोटा का बटन चुन, निज मत बताइए-
लोकतंत्र जनतंत्र, प्रजातंत्र गणतंत्र, कैदी न दलों का रहे, नव आजादी लाइए।।
***
२८-११-२०१८
***
लघुकथा-
विकल्प
पहली बार मतदान का अवसर पाकर वह खुद को गौरवान्वित अनुभव कर रहा था। एक प्रश्न परेशान कर रहा था कि किसके पक्ष में मतदान करे? दल की नीति को प्राथमिकता दे या उम्मीदवार के चरित्र को? उसने प्रमुख दलों का घोषणापत्र पढ़े, दूरदर्शन पर प्रवक्ताओं के वक्तव्य सुने, उम्मीदवीरों की शिक्षा, व्यवसाय, संपत्ति और कर-विवरण की जानकारी ली। उसकी जानकारी और निराशा लगातार बढ़ती गई।
सब दलों ने धन और बाहुबल को सच्चरित्रता और योग्यता पर वरीयता दी थी। अधिकांश उम्मीदवारों पर आपराधिक प्रकरण थे और असाधारण संपत्ति वृद्धि हुई थी। किसी उम्मीदवार का जीवनस्तर और जीवनशैली सामान्य मतदाता की तरह नहीं थी।
गहन मन-मंथन के बाद उसने तय कर लिया था कि देश को दिशाहीन उम्मीदवारों के चंगुल से बचाने और राजनैतिक अवसरवादी दलों के शिकंजे से मुक्त रखने का एक ही उपाय है। मात्रों से विमर्श किया तो उनके विचार एक जैसे मिले। उन सबने परिवर्तन के लिए चुन लिया 'नोटा' अर्थात 'कोई नहीं' का विकल्प।
२८-११-२०१८
***
दोहा सलिला
*
तज कर वाद-विवाद कर, आँसू का अनुवाद.
राग-विराग भुला "सलिल", सुख पा कर अनुराग.
.
भट का शौर्य न हारता, नागर धरता धीर.
हरि से हारे आपदा, बौनी होती पीर.
.
प्राची से आ अरुणिमा, देती है संदेश.
हो निरोग ले तूलिका, रच कुछ नया विशेष.
.
साँस पटरियों पर रही, जीवन-गाड़ी दौड़.
ईधन आस न कम पड़े, प्यास-प्रयास ने छोड़.
.
इसको भारी जिलहरी, भक्ति कर रहा नित्य.
उसे रुची है तिलहरी, लिखता सत्य अनित्य.
.
यह प्रशांत तर्रार वह, माया खेले मौन.
अजय रमेश रमा सहित, वर्ना पूछे कौन?
.
सत्या निष्ठा सिंह सदृश, भूली आत्म प्रताप.
स्वार्थ न वर सर्वार्थ तज, मिले आप से आप.
.
नेह नर्मदा में नहा, कलकल करें निनाद.
किलकिल करे नहीं लहर, रहे सदा आबाद.
२८.११.२०१७
.
मुक्तक
आइये मिलकर गले मुक्तक कहें
गले शिकवे गिले, हँस मुक्तक कहें
महाकाव्यों को न पढ़ते हैं युवा
युवा मन को पढ़ सके, मुक्तक कहें
*
बहुत सुन्दर प्रेरणा है
सत्य ही यह धारणा है
यदि न प्रेरित हो सका मन
तो मिली बहु तारणा है
*
कार्यशाला में न आये, वाह सर!
आये तो कुछ लिख न लाये, वाह सर!
आप ही लिखते रहें, पढ़ते रहें
कौन इसमें सर खपाए वाह सर!
*
जगाते रहते गुरूजी मगर सोना है
जागता है नहीं है जग यही रोना है
कह रहे हम पा सकें सब इसी जीवन में
जबकि हम यह जानते सब यहीं खोना है
२८.११.१०१६
***
मुक्तिका:
[इस रचना में हिंदी की राजस्थानी भंगिमा के उपयोग का प्रयास है. अनजानी त्रुटियों हेतु अग्रिम क्षमा प्रार्थना]
*
म्हारे आँगण चंदा उतरे, आस करूँ हूँ
नाचूँ-गाऊँ, हाथाँ माँ आकास भरूँ हूँ
.
म्हारी दोनों फूटें, थारी एक फोड़ दूँ
पड़यो अकल पे पत्थर, सत्यानास करूँ हूँ
.
लाग्या छूट्या नहीं, प्रीत-रँग चढ़यो शीश पै
किसन नहीं हूँ, पर राधा सूँ रास करूँ हूँ
.
दिवलै काणी दीठ धरूँला, कपड़ छाणकर
अबकालै सब सुपना बेचूँ, हास करूँ हूँ
.
आमू-सामू बात करैलो रामू भैया!
सुपना हाली, सगली बाताँ खास करूँ हूँ
.
उणियारे रै बसणों चावूँ चित्त-च्यानणै
रचणों चावूँ म्है खुद नै परिहास करूँ हूँ
.
जूझल रै ताराँ नै तोड़र रात-रात भर
मुलकण खातर नाहक 'सलिल' प्रयास करूँ हूँ
***
मुक्तिका (राजस्थानी)
लोग
*
कोरा सुपणां बुणताँ लोग
क्यूँ बैठा सिर धुणतां लोग
.
गैर घराणी को तकतां
गेल बुरी ही चुणतां लोग।
.
ठकुरसुहाती भली लगै
बातां भली न सुणतां लोग
.
दोष छुपाया बग्लयाँ में
गेहूँ जैसा घुणतां लोग
.
कुण निर्दोष पखेरू रा
मारूँ-खाऊँ गुणतां लोग
***
मुक्तिका :
रूप की धूप
*
रूप की धूप बिखर जाए तो अच्छा होगा
रूप का रूप निखर आए तो अच्छा होगा
*
दिल में छाया है अँधेरा सा सिमट जाएगा
धूप का भूप प्रखर आए तो अच्छा होगा
*
मन हिरनिया की तरह खूब कुलाचें भरना
पीर की पीर निथर आए तो अच्छा होगा
*
आँख में झाँक मिले नैन से नैना जबसे
झुक उठे लड़ के मिले नैन तो अच्छा होगा
*
भरो अँजुरी में 'सलिल' रूप जो उसका देखो
बिको बिन मोल हो अनमोल तो अच्छा होगा
२८.११.२०१५
***
नवगीत:
गीत पुराने छायावादी
मरे नहीं
अब भी जीवित हैं.
तब अमूर्त
अब मूर्त हुई हैं
संकल्पना अल्पनाओं की
कोमल-रेशम सी रचना की
छुई-अनछुई वनिताओं सी
गेहूँ, आटा, रोटी है परिवर्तन यात्रा
लेकिन सच भी
संभावनाऐं शेष जीवन की
चाहे थोड़ी पर जीवित हैं.
बिम्ब-प्रतीक
वसन बदले हैं
अलंकार भी बदल गए हैं.
लय, रस, भाव अभी भी जीवित
रचनाएँ हैं कविताओं सी
लज्जा, हया, शर्म की मात्रा
घटी भले ही
संभावनाऐं प्रणय-मिलन की
चाहे थोड़ी पर जीवित हैं.
कहे कुंडली
गृह नौ के नौ
किन्तु दशाएँ वही नहीं हैं
इस पर उसकी दृष्टि जब पडी
मुदित मग्न कामना अनछुई
कौन कहे है कितनी पात्रा
याकि अपात्रा?
मर्यादाएँ शेष जीवन की
चाहे थोड़ी पर जीवित हैं.
***
त्रिपदियाँ
प्राण फूँक निष्प्राण में, गुंजित करता नाद
जो- उससे करिये 'सलिल', आजीवन संवाद
सुख-दुःख जो वह दे गहें, हँस- न करें फ़रियाद।
*
शर्मा मत गलती हुई, कर सुधार फिर झूम
चल गिर उठ फिर पग बढ़ा, अपनी मंज़िल चूम
फल की आस किये बिना, काम करे हो धूम।
*
करी देश की तिजोरी, हमने अब तक साफ़
लें अब भूल सुधार तो, खुदा करेगा माफ़?
भष्टाचार न कर- रहें, साफ़ यही इन्साफ।
२८.११.२०१४

*** 

बुधवार, 5 नवंबर 2025

नवंबर ५, पूर्णिका, बारहमासा, मधुकामिनी, लघुकथा, भूगोलीय मुक्तक, गीत, सरस्वती

सलिल सृजन नवंबर ५ 
पूर्णिका
.
आज तन्हा शोर है बातें करो
लगावट पुरजोर है बातें करो
.
दिल गरेबां चाक दिल का कर रहा
बनावट शहजोर है बातें करो
.
दोस्ती भी फेसबुक पर हो रही
नसीहत भरपूर है बातें करो
.
मुरझ नीलोफर न जाए ध्यान दो
फजीहत घनघोर है बातें करो
.
वर्ल्ड कप ले आईं हैं लड़ बेटियाँ
बगावत की भोर है बातें करो
.
कान हैं दीवार के कुछ मत कहो
सखावत कमजोर हैं बातें करो
.
कौन है संजीव मुर्दे पुरस्कृत
इनायत सरकार की बातें करो
५.११.२०२५
०००
बारहमासा : सांसारिक और आध्यात्मिक मिलन-विरह का काव्य 
वस्तुतः मानव का प्रकृति के साथ बुनियादी सम्बन्ध का भारतीय दृष्टिकोण विश्व- प्रसिद्ध है। यही सम्बन्ध हमारे देश की काव्यकला, चित्रकला, मूर्तिकला और संगीत आदि ललित कलाओं में परिलक्षित होता है। प्रकृति के नैसर्गिक वातावरण में रहते हुए हमारे भविष्यदर्शी ऋषि-मुनियों ने प्रतिदिन होने वाले उषाः काल, संध्या, रात्रि, प्रकाश और अंधकार आदि प्राकृतिक उपादानों की शाश्वत लय का गहन अध्ययन किया। सतत चिंतन, मनन और सूक्ष्म निरीक्षण द्वारा उन्होंने जाना कि धरती- आकाश, सूर्य-चन्द्रमा, ग्रह-नक्षत्र, प्रकृति- वनस्पति आदि सभी का आपसी तारतम्य है और ये सभी एक लय से बंधे हुए हैं। इस तरह हमारे जागरूक और सूक्ष्मदर्शी मनीषियों ने कुदरत की दैनिक लय और ऋतु परिवर्तन को वार्षिक चक्र में परिवर्तित कर दिया । धीरे-धीरे निश्चित व शुद्ध रूप में ऋतुओं का आध्यात्मिक व दार्शनिक महत्त्व और कार्यप्रणाली की भौतिक स्थितिके लक्षण और आध्यात्मिक दर्शन की जानकारी विदित हुई । वर्ष के बारह महीनों में सभी ऋतुएँ नियमित बारी-बारी से आ जाती हैं। इन सभी ऋतुओं का अपनी-अपनी जगह महत्त्व है। इन सभी ऋतुओं का वर्णन कविता, साहित्य व ललित कलाओं में कितने प्राचीन काल से हो रहा है।

बारहमासा (पंजाबी में बारहमाहा) मूलतः विरह प्रधान लोकसंगीत है। वह पद्य या गीत जिसमें बारह महीनों की प्राकृतिक विशेषताओं का वर्णन किसी विरही या विरहनी के मुँह से कराया गया हो। मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित पद्मावत तथा बीसल देव रासो में सबसे पहले बारहमासा मिलता है। वर्ष भर के बारह माहों में नायक-नायिका की शृंगारिक विरह एवं मिलन की क्रियाओं के चित्रण को बारहमासा कहा जाता है। श्रावण मास में हरे-भरे वातावरण में नायक-नायिका के काम-भावों को वर्षा के भींगते हुए रूपों में, ग्रीष्म के वैशाख एवं ज्येष्ठ मास की गर्मी में पंखों से नायिका को हवा करते हुए नायक-नायिकाओं के स्वरूप आदि उल्लेखनीय है। जब किसी स्त्री का पति परदेश चला जाता है और वह दुखी मन से अपने सखी को बारह महीने की चर्चा करती हुई कहती है कि पति के बिना हर मौसम व्यर्थ है। इस गीत में वह अपनी दशा को हर महीने की विशेषता के साथ पिरोकर रखती है। ऐतिहासिक दृष्टि से बारहमासा, संस्कृत साहित्य के षडऋतु वर्णन की राह का काव्य है।कालिदास का ऋतुसंहार षडऋतुवर्णन ही है। हिन्दी में मलिक मोहम्मद जायसी कृत पद्मावत में 'नागमती वियोग-वर्णन' बारहमासा का प्रसिद्ध उदाहरण है।

अगहन दिवस घटा निसि बाढ़ी। दूभर रैनि जाइ किमि काढ़ी॥
अब यहि बिरह दिवस भा राती। जरौं बिरह जस दीपक बाती॥
काँपै हिया जनावै सीऊ। तो पै जाइ होइ सँग पीऊ॥
घर-घर चीर रचे सब का। मोर रूप रंग लेइगा ना॥
पलटि न बहुरा गा जो बिछाई। अबँ फिरै फिरै रँग सोई॥
बज्र-अगिनि बिरहिनि हिय जारा। सुलुगि-सुलुगि दगधै होइ छारा॥
यह दु:ख-दगध न जानै कंतू। जोबन जनम करै भसमंतू॥
पिउ सों कहेहु संदेसडा हे भौरा! हे काग!
जो घनि बिरहै जरि मुई तेहिक धुवाँ हम्ह लाग॥

पूस जाड थर-थर तन काँपा। सूरुज जाइ लंकदिसि चाँपा॥
बिरह बाढ दारुन भा सीऊ। कँपि-कँपि मरौं लेइ-हरि जीऊ ॥
कंत कहा लागौ ओहि हियरे। पंथ अपार सूझ नहिं नियरे॥
सौंर सपेती आवै जूडी। जानहु सेज हिवंचल बूडी॥
चकई निसि बिछुरै दिन मिला। हौं दिन रात बिरह कोकिला॥
रैनि अकेलि साथ नहिं सखी। कैसे जियै बिछोही पँखी॥
बिरह सचान भयउ तन जाडा। जियत खाइ और मुए न छाँडा॥
रकत ढुरा माँसू गरा हाड भएउ सब संख।
धनि सारस होइ ररि मुई आई समेटहु पंख॥

लागेउ माघ परै अब पाला। बिरहा काल भएउ जड काला॥
पहल-पहल तन रुई जो झाँपै। हहरि-हहरि अधिकौ हिय काँपै॥
नैन चुवहिं जस माहुटनीरू। तेहि जल अंग लाग सर-चीरू॥
टप-टप बूँद परहिं जस ओला। बिरह पवन होई मारै झोला॥
केहिक सिंगार को पहिरु पटोरा? गीउ न हार रही होई होरा॥
तुम बिनु काँपौ धनि हिया तन तिनउर-भा डोल।
तेहि पर बिरह जराई कै चहै उडावा झोल॥

फागुन पवन झकोरा बहा। चौगुन सीउ जाई नहिं सहा॥
तन जस पियर पात भा मोरा। तेहि पर बिरह देइ झझकोरा॥
परिवर झरहि झरहिं बन ढाँखा। भई ओनंत फूलि फरि साखा॥
करहिं बनसपति हिये हुलासू। मो कह भा जग दून उदासू।
फागु करहिं सब चाँचरि जोरी। मोहि तन लाइ दीन्हि जस होरी॥
जौ पै पीउ जरत अस पावा। जरत मरत मोहिं रोष न आवा॥
राति-दिवस बस यह जिउ मोरे। लगौं निहोर कंत अब तोरे॥
यह तन जारौं छार कै कहौ कि "पवन उडाउ।
मकु तेहि मारग उडि पैरों कंत धरैं जहँ पाँउ॥
*
बारहमासा- तुलसी साहब 

सत सावन बरषा भई, सुरत बही गंगधार।
गगन गली गरजत चली, उतरी भौजल पार॥

भादौं भजन बिचारिया, शब्दहि सुरत मिलाप।
आप अपनपौ लख पड़े, छूटे छल बल पाप॥

कुसल क्वार सतसंग में, रंग रँगो सतनाम।
और काम आवें नहीं, तिरिया सुत धन धाम॥

कातिक करतब जब बने, मन इन्द्री सुख त्याग।
भोग भरम भवरस तजै, छूटै तब लव लाग॥

अगहन अमी रस बस रहौ, अमृत चुवत अपार।
पाँइ परसि गुरु को लखौ, होय परम पद पार॥

पूस ओस जल बुंद ज्यों, बिनसत बदन विचार।
तन बिनसे पावे नहीं, नर तन दुर्लभ छार॥

माह महल पिया को लखो, चखो अमर रस सार।
वार पार पद पेखिया, सत्त सुरत की लार॥

फिर फागुन सुन में तको, शब्दा होत रसाल।
निरख लखौ दुरबीन से, ज्यों मत मीन निहाल॥

चैत चेत जग झूठ है, मत भरमो भव जाल।
काल हाल सिर पर खड़ा, छूटे तन धन माल॥

सुनो साख बैसाख की, भाषि गुरुन गति गाय।
सब संतन मत की कहूँ, बूझें सत मत पाय॥

जबर जेठ जग रीति है, प्रीति परस रस जान।
आन बात बस ना रहौ, सब मति गति पहिचान॥

जो असाढ़ अरजी करौ, धरो संत श्रुति ध्यान।
ज्ञान मान मति छांड़ के, बूझौ अकथ अनाम॥

बारह मास मत भापिया, जानें संत सुजान।
तुलसिदास विधि सब कही, छूटै चारौ खान॥

सत्त यानी सत साहेब (तुलसी साहब) फ़रमाते हैं कि सावन में वर्षा होती है और सुरत की धार गंगा की धार की तरह गरजती हुई गगन की गली की ओर चलती है और भव जल के पार पहुँचती है। भादों का महीना भजन में लगने का जिससे सुरत अपने पिया से मिलती है और अपने रूप को लखती है। सब छल बल और पाप नष्ट हो जाते हैं। अश्विन के महीने में जीव का भला इसी में है कि सतसंग करे और सत्तनाम के रंग में रंग जावे। सत्तनाम के अलावा और कोई जैसे तिरिया, सुत, धन-धाम इत्यादि काम नहीं आएगा। इनमें नहीं फँसना चाहिए। कार्तिक के महीने में इसका काम पूरा होगा, जब यह मन और इंद्रियों के सुखों का परित्याग कर देगा। जब यह दुनिया के भरम और रस को छोड़ेगा तब इसकी संसार की लाग छूटेगी। अगहन में अमृत की अपार धार टपक रही है। उसके आनंद में मगन रहो। गुरु के दर्शन पाकर और चरण स्पर्श कर भवसागर के पार परम पद में पहुँचोगे। पूस मास में इस बात को समझो कि शरीर पानी के ओले की तरह नाश होने वाला है। जब तन नाश हो जाएगा तो अपना उद्देश्य कैसे पाओगे? यह नर शरीर जो अति दुर्लभ है, वृथा बरबाद जाएगा। माघ में पिया के महल को लखो और सच्चा अमर आनंद प्राप्त करो। तब तुम्हें सुरत से वह देश जो भवसागर के पार है, दिखलाई पड़ेगा। फिर फागुन मास में सुन्न में पहुँचकर उसे लखो जहाँ मधुर शब्द हो रहा है। दूरबीन से उसको निरखो और जैसे मछली पानी में मगन होती है उस तरह मगन होओ। चैत के महीने में चेतो और समझो कि यह जगत झूठा है। इसके जाल में मत फँसो और मत भरमो। काल तुम्हारे सिर पर घात करने को खड़ा है और एक दिन तुम्हारा तन और धन माल सब छूट जाएगा। बैसाख में जीवों की साख का हाल सुनो जो संत दया करके फ़रमाते हैं। मैं सब संतों के मत का वर्णन करता हूँ। अगर कोई संत मत को धारण करे तो वह मेरी बात समझ सकता है। जगत का हाल जेठ महीने की तरह तपन देने वाला और दुखदाई है। तुम इस बात को जानो कि शब्द के परस से प्रेम का सुख प्राप्त होता है। अन्य बातों के वशीभूत मत होओ और सत्त मत की गति को पहचानो यानी संत मत को बूझो। असाढ़ महीने में प्रार्थना करो और सुरत से संतों का ध्यान करो। वाचक ज्ञान में अहंकार की मति छोड़कर अकथ और अनाम मालिक को बूझो। मैंने जो कुछ बारहमास का वर्णन किया है उसे संत जानते हैं। तुलसी साहब फ़रमाते हैं कि मैंने सब विधि बयान की है। उसके अनुसार जो चले, उसका चारों खान में भरमना छूट जाएगा।
***
रुकें और दूसरों के बारे में सोचें 

"कौन बनेगा करोड़पति" के एक एपिसोड में, "फास्टेस्ट फिंगर" राउंड में सबसे तेज जवाब देकर नीरज सक्सेना ने हॉट सीट पर जगह बनाई। वह बहुत शांति से बैठे रहे, न चिल्लाए, न नाचे, न रोए, न हाथ उठाए और न ही अमिताभ को गले लगाया। नीरज एक वैज्ञानिक, पी-एच. डी., कोलकाता में एक विश्वविद्यालय के कुलपति हैं। उनका व्यक्तित्व सरल और सौम्य है। उन्होंने खुद को सौभाग्यशाली माना कि उन्हें डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम के साथ काम करने का अवसर मिला। उन्होंने बताया कि शुरू में वे केवल खुद के बारे में सोचते थे, लेकिन कलाम के प्रभाव में उन्होंने दूसरों और राष्ट्र के बारे में भी सोचना शुरू किया।

नीरज ने खेलते हुए एक बार ऑडियंस पोल का उपयोग किया, लेकिन उनके पास "डबल डिप" लाइफलाइन होने के कारण उसे दोबारा इस्तेमाल करने का मौका मिला। उन्होंने सभी सवालों का आसानी से जवाब दिया।  उनकी बुद्धिमत्ता प्रभावित करने वाली थी। उन्होंने ₹ ३,२०,००० और इसके बराबर बोनस राशि जीती, फिर एक ब्रेक हुआ। ब्रेक के बाद, अमिताभ ने घोषणा की, "आइए आगे बढ़ते हैं, डॉक्टर साहब। यह रहा ग्यारहवाँ सवाल..." तभी नीरज ने कहा, "सर, मैं क्विट करना चाहूँगा।" अमिताभ चौंक गए। इतना अच्छा खेल, तीन लाइफलाइन बची हुईं, एक करोड़ रुपए जीतने का अच्छा मौका , फिर भी नीरज खेल छोड़ रहे थे? अमिताभ ने कारण पूछते हुए कहा- ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।  

नीरज ने शांतिपूर्वक उत्तर दिया, "अन्य खिलाड़ी इंतजार कर रहे हैं और वे मुझसे छोटे हैं। उन्हें भी एक मौका मिलना चाहिए। मैंने पहले ही काफी पैसा जीत लिया है। मुझे लगता है 'जो मेरे पास है, वह पर्याप्त है।' मुझे और की चाह नहीं है।" अमिताभ स्तब्ध रह गए, और कुछ समय के लिए सन्नाटा छा गया। फिर सभी खड़े होकर उनके लिए लंबे समय तक तालियाँ बजाते रहे। अमिताभ ने कहा- "आज हमने बहुत कुछ सीखा। ऐसा व्यक्ति दुर्लभ होता है।'' सच कहूँ तो, पहली बार मैंने किसी को ऐसे मौके के सामने देखा है, जो दूसरों को मौका देने और जो उसके पास है उसे पर्याप्त मानने की सोच रखता है। मैंने उन्हें मन ही मन सलाम किया। 

आज के समय में लोग केवल पैसे के पीछे भाग रहे हैं। चाहे जितना भी कमा लें, संतोष नहीं मिलता और लालच कभी खत्म नहीं होता। वे पैसे के पीछे परिवार, नींद, खुशी, प्यार, और दोस्ती खो रहे हैं। ऐसे समय में, डॉ. नीरज सक्सेना जैसे लोग एक याद दिलानेवाले बनकर आते हैं। इस दौर में संतुष्ट और निस्वार्थ लोग मिलना कठिन है। नीरज के खेल छोड़ने के बाद, एक लड़की ने हॉट सीट पर जगह बनाई और अपनी कहानी साझा की: "मेरे पिता ने हमें, मेरी माँ सहित, सिर्फ इसलिए घर से निकाल दिया क्योंकि हम तीन बेटियाँ हैं। अब हम एक अनाथालय में रहते हैं..."

अगर नीरज ने खेल न छोड़ा होता, तो आखिरी दिन होने के कारण किसी और को मौका नहीं मिलता। उनके त्याग के कारण इस गरीब लड़की को कुछ पैसे कमाने का अवसर मिला। आज के समय में लोग अपनी विरासत में से एक पैसा भी छोड़ने को तैयार नहीं होते। हम संपत्ति के लिए झगड़े और यहां तक कि हत्याएं भी देखते हैं। स्वार्थ का बोलबाला है। लेकिन यह उदाहरण एक अपवाद है। भगवान नीरज जैसे लोगों में निवास करते हैं, जो दूसरों और देश के बारे में सोचते हैं। 
***

● मधुकामिनी के पौधे को ६-७ घंटे धूप की आवश्यकता होती है।

● मधुकामिनी को अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी में लगाए, पानी बिल्कुल एकत्र न हो। खेत की मिट्टी ५०%+ वर्मीकम्पोस्ट/ गोबर की खाद ३०% + बालू/ कोकोपीट २०%, एक मुट्ठी नीम खली, एक चम्मच बोनमील/राॅक फास्फेट और १-२ चम्मच जाइम (zyme) मिलाएँ।

● मधुकामिनी मार्च-अप्रैल से लेकर अक्टूबर-नवम्बर तक फूलती है। फूल खिलकर सूख जाए तो उसके टिप्स काट दें, इससे नई शाखाएँ और अधिक फूल निकलते हैं।

● फूल खिल चूकने के बाद मार्च-अप्रैल और बरसात में इसकी फुनगियाँ अलग (सेमी-हार्ड प्रूनिंग) कर दें, इससे पौधा सघन बनकर फूल ज्यादा आते हैं। दिसंबर-फरवरी तक डोरमेंसी पीरियड (सुप्तावस्था) में मधुकामिनी की प्रूनिंग न करें, न ही खाद दें।

● मधुकामिनी फूलने के लिए पोटैशियम रिच फर्टिलाइजर (आर्गेनिक फर्टिलाइजर: केले के छिलके, प्याज के छिलके और उपयोग के बाद धोई हुई चायपत्ती को एक लीटर पानी में डालकर ३-४ दिन तक सड़ने (डिकम्पोस्ट होने) के बाद छानकर २ लीटर पानी मिलाकर, हर १५ दिन बाद पौधों में डालें) या केमिकल फर्टिलाइजर( पोटेशियम नाइट्रेट, म्यूरेट ऑफ़ पोटाश या N:P:K ०:५२:३४ की २ ग्राम/ लीटर मात्रा पानी में मिलाकर पौधे की पत्तियों पर छिड़कें। कुछ समय बाद आपके मधुकामिनी में फूल आना शुरू हो जाएंगे।

● साल में दो बार मार्च-अप्रैल और सितंबर-अक्टूबर में सरसों की खली का लिक्विड फर्टिलाइजर (१०० ग्राम सरसों की खली १ लीटर पानी में अच्छे से मिलाकर ४-५ दिन सड़ने दें, तैयार घोल को १० लीटर पानी में मिलाकर पौधे की मिट्टी में डालें। ८-१० दिनों में आपके पौधे में कोंपलें और कलियाँ आने लगेंगी।
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मुक्तक 
हो जिनका कुल श्रेष्ठ, बाँधते संबंधों के बंध
हिलमिल रहते साथ, निभाते नातों के अनुबंध 
सत्य सनातन प्रीति पुरातन, सदा साध्य हो उनको-
राज करें राजेन्द्र सदृश,  तोड़ें कुरीति-तटबंध 
५.११.२०२४ 
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हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी, अम्ब विमल मति दे......
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।
अम्ब विमल मति दे ।।
जग सिरमौर बनाएँ भारत,
वह बल विक्रम दे।
वह बल विक्रम दे ।।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे। अम्ब विमल मति दे ।।१।।
साहस शील हृदय में भर दे,
जीवन त्याग-तपोमय कर दे,
संयम सत्य स्नेह का वर दे,
स्वाभिमान भर दे।
स्वाभिमान भर दे ।।२।।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।
अम्ब विमल मति दे ।।
लव, कुश, ध्रुव, प्रहलाद बनें हम
मानवता का त्रास हरें हम,
सीता, सावित्री, दुर्गा माँ,
फिर घर-घर भर दे।
फिर घर-घर भर दे ।।३।।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।
अम्ब विमल मति दे ।।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
***
लघुकथा
मुस्कुराहट
*
साहित्यकारों की गोष्ठी में अखबारों तथा अंतर्जाल पर नकारात्मक समाचारों के बाहुल्य पर चिंता व्यक्त की गई। हर अखबार और चैनल की वैचारिक प्रतिबद्धता को स्वतंत्र चेतना हेतु घातक बताते हुए सभी विचारधाराओं और असहमत जनों के प्रति सहिष्णुता पर बल दिया गया।
नेताओं पर अपने विचारों के पिंजरे में कैद रहने की प्रवृत्ति की कटु आलोचना करते हुए, विविध विचारों के समन्वय पर बल दिया गया।
एक साहित्यकार ने पटल पर कुछ अन्य साहित्यकारों द्वारा भिन्न विधा संबंधी शंका-समाधान पर प्रश्न उठाते हुए निंदा प्रस्ताव प्रस्तुत कर दिया। प्रश्नकर्ता कहता ही रह गया कि एक विधा मुख्य होते हुए भी भिन्न विधाओं की चर्चा करना, जानकारी लेना-देना अपराध नहीं है। सब विधाएँ एक-दूसरे की पूरक हैं किंतु आपत्तिकर्ता शांत होने के स्थान पर अधिकाधिक उग्र होते गए। विवश संयोजक ने शांति स्थापित करने हेतु एक को छोड़कर अन्य विधाओं को प्रतिबंधित कर दिया।
कोने में रखी, मकड़जाल में कैद सरस्वती प्रतिमा के अधरों पर विचार और आचार के विरोधाभास को देख, झलक रही थी व्यंग्यपरक मुस्कुराहट।
५-११-२०१९
***
भूगोलीय मुक्तक
*
धरती गोल-गोल हैं, बातें धत्तेरे की।
वादे-पर्वत पोले, घातें धत्तेरे की।।
लोकहितों की नदिया, करे सियासत गंदी
अमावसी पूनम की रातें धत्तेरे की।।
*
आसमान में ग्रह-उपग्रह करते हैं दंगा।
बने नवग्रह-पति जो नाचे होकर नंगा।।
दावानल-बड़वानल पक्ष-विपक्ष बने हैं-
भाटा-ज्वार समुद-संसद में लेते पंगा।।
*
पत्रकारिता भूकंपी सनसनी बन गई।
ज्वालामुखी सियासत जनता झुलस-भुन गई।।
धूमकेतु बोफोर्स-रफाल न पिंड छूटता-
धर्म-ध्वजा झुक काम-लोभ के पंक सन गई।।
*
महासागरी तूफानों सा जनाक्रोश है।
आइसबर्गों सम पिघलेगा किसे होश है?
दिग-दिगंत काँपेंगे, जब प्रकृति रौंदेगी-
तिनके सम मिट जाएगा जो उठा जोश है।।
*
सूर्य-चंद्र नैतिक मूल्यों पर लगा ग्रहण है।
आय और आवश्यकता में भीषण रण है।।
सच अभिमन्यु शहीद, स्वार्थ-संशप्तक विजयी-
तंत्र-प्रशासन दांव सम्मुख मानव तृण है।।
५.११.२०१८
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एक रचना:
जमींदार
*
जमींदार नवगीत के
ठोंको इन्हें सलाम
.
इन्हें किया था नामजद
किसी शाह ने रीझ.
बख्शी थी जागीर कह
'कर मनमानी खूब.
पाल-पोस चेले बढ़ा
कह औरों को दूब.
बदल समय के साथ मत
खुद पर खुद ही खीझ.
लँगड़ा करता है सफर
खुद की बाजू थाम.
जमींदार नवगीत के
ठोंको इन्हें सलाम
.
बँधवाया, अब बाँधना
तू गंडा-ताबीज़.
शब्द न समझें लोग जो
लिखना खोज अजूब.
गलत और का सही भी
कहना मद में डूब.
निज पीड़ा संवेदना
दर्द अन्य का चीज.
दाम-नाम के लिये कर
शब्दों का व्यायाम.
जमींदार नवगीत के
ठोंको इन्हें सलाम
*
पंक्ति एक की तीन कर
तुक को मान कनीज़
तोड़ छंद को, सुनाते
निज प्रशस्ति बिन ऊब.
खामी को खूबी कहें
मठाधीश मंसूब।
पेट पूज कोई करे
जैसे पूजन तीज.
श्रेष्ठ बताते आप को
आप, अन्य बेनाम
जमींदार नवगीत के
ठोंको इन्हें सलाम
***
मुक्तिका:
*
ज़िंदगी जीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
होंठ हँस सीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
.
क्या कहे? कैसे कहें? किससे कहें? बहरा समय
अश्रु चुप पीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
.
तुहिन, ओले, आग, बरखा, ठंड, गर्मी या तुषार
झेलते रीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
.
मिल तो अंगूर मीठे, ना मिले खट्टे हुए
फेंकते तीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
.
सत्य से साक्षात् कर ये ज़िंदगी दूभर हुई
राम तज सीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
.
नहीं अबला, ना बला, सबला लगाते पार हम
पल नहीं बीते रहे हम पुस्तकों के बीच में?
.
माँगकर जिनको लिया, लौटा रहे नाहक ईनाम
जीत को जीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
५-११-२०१५
***
द्विपदियाँ :
मैं नर्मदा तुम्हारी मैया, चाहूँ साफ़ सफाई
माँ का आँचल करते गंदा, तुम्हें लाज ना आई?
भरो बाल्टी में जल- जाकर, दूर नहाओ खूब
देख मलिन जल और किनारे, जाओ शर्म से डूब
कपड़े, पशु, वाहन नहलाना, बंद करो तत्काल
मूर्ति सिराना बंद करो, तब ही होगे खुशहाल
पौध लगाकर पेड़ बनाओ, वंश वृद्धि तब होगी
पॉलीथीन बहाया तो, संतानें होंगी रोगी
दीपदान तर्पण पूजन, जलधारा में मत करना
मन में सुमिरन कर, मेरा आशीष सदा तुम वरना
जो नाले मुझमें मिलते हैं, उनको साफ़ कराओ
कीर्ति-सफलता पाकर, तुम मेरे सपूत कहलाओ
जो संतानें दीन उन्हें जब, लँहगा-चुनरी दोगे
ग्रहण करूँगी मैं, तुमको आशीष अपरिमित दूँगी
वृद्ध अपंग भिक्षुकों को जब, भोजन करवाओगे
तृप्ति मिलेगी मुझको, सेवा सुत से तुम पाओगे
पढ़ाई-इलाज कराओ किसी का, या करवाओ शादी
निश्चय संकट टल जाये, रुक जाएगी बर्बादी
पथवारी मैया खुश हो यदि रखो रास्ते साफ़
भारत माता, धरती माता, पाप करेंगी माफ़
हिंदी माता की सेवा से, पुण्य यज्ञ का मिलता
मात-पिता की सेवा कर सुत, भाव सागर से तरता
***
मुक्तिका:
अवगुन चित न धरो
*
सुन भक्तों की प्रार्थना, प्रभुजी हैं लाचार
भक्तों के बस में रहें, करें गैर-उद्धार
कोई न चुने चुनाव में, करें नहीं तकरार
संसद टीवी से हुए, बाहर बहसें हार
मना जन्म उत्सव रहे, भक्त चढ़ा-खा भोग
टुकुर-टुकुर ताकें प्रभो,हो बेबस-लाचार
सब मतलब से पूजते, सब चाहें वरदान
कोई न कन्यादान ले, दुनिया है मक्कार
ब्याह गयी पर माँगती, है फिर-फिर वर दान
प्रभु की मति चकरा रही, बोले:' है धिक्कार'
वर माँगे वर-दान- दें कैसे? हरि हैरान
भला बनाया था हुआ, है विचित्र संसार
अवगुन चित धरकर कहे, 'अवगुन चित न धरो
प्रभु के विस्मय का रहा, कोई न पारावार
***
नवगीत:
धैर्य की पूँजी
न कम हो
मनोबल
घटने न देना
जंग जीवट- जिजीविषा की
मौत के आतंक से है
आस्था की कली कोमल
भेंटती शक-डंक से है
नाव निज
आरोग्य की
तूफ़ान में
डिगने न देना
मूल है किंजल्क का
वह पंक जिससे भागते हम
कमल-कमला को हमेशा
मग्न हो अनुरागते हम
देह ही है
गेह मन का
देह को
मिटने न देना
चिकित्सा सेवा अधिक
व्यवसाय कम है ध्यान रखना
मौत के पंजे से जीवन
बचाये बिन नहीं रुकना
लोभ को,
संदेह को
मन में तनिक
टिकने न देना
___
***
मुक्तिका:
हाथ मिले
माथ उठे
मन अनाम
देह बिके
कौन कहाँ
पत्र लिखे?
कदम बढ़े
बाल दिये
वसन न्यून
आँख सिके
द्रुपद सुता
सती रहे
सत्य कहे
आप दहे
_____
***
बाल कविता
हम बच्चे हैं मन के सच्चे सबने हमें दुलारा है
देश और परिवार हमें भी सचमुच लगता प्यारा है
अ आ इ ई, क ख ग संग ए बी सी हम सीखेंगे
भरा संस्कृत में पुरखों ने ज्ञान हमें उपकारा है
वीणापाणी की उपासना श्री गणेश का ध्यान करें
भारत माँ की करें आरती, यह सौभाग्य हमारा है
साफ-सफाई, पौधरोपण करें, घटायें शोर-धुआं
सच्चाई के पथ पग रख बढ़ना हमने स्वीकारा है
सद्गुण शिक्षा कला समझदारी का सतत विकास करें
गढ़ना है भविष्य मिल-जुलकर यही हमारा नारा है
५-११-२०१४
***
एक दोहा
लोकतंत्र में लोभ तंत्र की, मची हुई है धूम
कोकतंत्र से शोकतंत्र तक, बम बम बम बम बूम
५.११.२०१३
***
नवगीत:
महका-महका :
*
महका-महका
मन-मंदिर रख सुगढ़-सलौना
चहका-चहका
*
आशाओं के मेघ न बरसे
कोशिश तरसे
फटी बिमाई, मैली धोती
निकली घर से
बासन माँजे, कपड़े धोए
काँख-काँखकर
समझ न आए पर-सुख से
हरसे या तरसे
दहका-दहका
बुझा हौसलों का अंगारा
लहका-लहका
*
एक महल, सौ यहाँ झोपड़ी
कौन बनाए
ऊँच-नीच यह, कहो खोपड़ी
कौन बताए
मेहनत भूखी, चमड़ी सूखी
आँखें चमकें
कहाँ जाएगी मंजिल
सपने हों न पराए
बहका-बहका
सम्हल गया पग, बढ़ा राह पर
ठिठका-ठहका
*
लख मयंक की छटा अनूठी
तारे हरषे.
नेह नर्मदा नहा चन्द्रिका
चाँदी परसे.
नर-नरेंद्र अंतर से अंतर
बिसर हँस रहे.
हास-रास मधुमास न जाए-
घर से, दर से.
दहका-दहका
सूर्य सिंदूरी, उषा-साँझ संग
धधका-दहका...
५.११.२०१० 
***