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शनिवार, 19 जुलाई 2025

जुलाई १९, आर्द्रा, त्रिभंगी, अंगिका, बुन्देली, दोहा, मुक्तिका, हास्य, विसर्ग, उल्लाला गीत, चन्द्रमणि, लघुकथा

सलिल सृजन जुलाई १९
काराओके दिवस
*
मुक्तिका:
क्या कहूँ...
*
क्या कहूँ कुछ कहा नहीं जाता.
बिन कहे भी रहा नहीं जाता..
काट गर्दन कभी सियासत की
मौन हो अब दहा नहीं जाता..
ऐ ख़ुदा! अश्क ये पत्थर कर दे,
ऐसे बेबस बहा नहीं जाता.
सब्र की चादरें जला दो सब.
ज़ुल्म को अब तहा नहीं जाता..
हाय! मुँह में जुबान रखता हूँ.
सत्य फिर भी कहा नहीं जाता..
देख नापाक हरकतें जड़ हूँ.
कैसे कह दूं ढहा नहीं जाता??
सर न हद से अधिक उठाना तुम
मुझसे हद में रहा नहीं जाता..
१९.७.२०२३
***
लघुकथा
साथ
*
दो विरागी, गुरु और एक शिष्य कहीं जा रहे थे। मार्ग में एक सुन्दर तरुणी मिली, पैर में चोट के कारण वह चल नहीं पा रही थी। उसके अनुरोध पर गुरु जी ने उसे सहारा देकर, चिकित्सक के पास तक पहुँचा दिया।
शिष्य पीछे पीछे चलता रहा पर उसके मन में प्रश्न उठा कल तो गुरु जी उपदेश दे रहे थे कि कामिनी और कंचन से दूर रहना चाहिए, इनका सामीप्य वैराग्य पथ में बाधक है और आज अवसर मिलते ही गुरु जी ने खुद अपनी बात भुला दी। एक बार मना तक नहीं किया, न ही मुझसे कहा जबकि मैं अधिक शक्तिवान हूँ।
शिष्य बार-बार प्रश्न पूछ्ना चाहता था पर गुरु जी कहीं नाराज न हो जाएँ, सोचकर साहस न जुटा पाता। गुरु जी ने उसके चेहरे पर प्रसन्नता के स्थान पर उलझना के चिन्ह देखकर पूछा कि किस उलझन में पड़े हो? क्या जानना है?
अब शिष्य ने अपनी शंका सामने रखी। गुरु जी पहले तो ठहाका लगाकर हँसे फिर बोले 'मुझे तो घायल इंसान दिखा और उसे सहारा देने के बाद भी सही स्थान पर पहुँचाकर, उसके संपर्क से मुक्त हो गया पर तू तो बिना उसे स्पर्श किये अब तक उसी के साथ है।
इसीलिये तो कामिनी कंचन के संपर्क दे दूर रहने को कहा था पर तू कहाँ दूर रह पाया? अब भी है उसी के साथ।
१९-७-२०२०
***
छंद सलिला:
उल्लाला (चन्द्रमणि)
*
उल्लाला हिंदी छंद शास्त्र का पुरातन छंद है। वीर गाथा काल में उल्लाला तथा रोला को मिलकर छप्पय छंद की रचना की जाने से इसकी प्राचीनता प्रमाणित है। उल्लाला छंद को स्वतंत्र रूप से कम ही रचा गया है। अधिकांशतः छप्पय में रोला के 4 चरणों के पश्चात् उल्लाला के 2 दल (पद या पंक्ति) रचे जाते हैं। प्राकृत पैन्गलम तथा अन्य ग्रंथों में उल्लाला का उल्लेख छप्पय के अंतर्गत ही है।
जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' रचित छंद प्रभाकर तथा ॐप्रकाश 'ॐकार' रचित छंद क्षीरधि के अनुसार उल्लाल तथा उल्लाला दो अलग-अलग छंद हैं। नारायण दास लिखित हिंदी छन्दोलक्षण में इन्हें उल्लाला के 2 रूप कहा गया है। उल्लाला 13-13 मात्राओं के 2 सम चरणों का छंद है। भानु जी ने इसका अन्य नाम 'चन्द्रमणि' बताया है। उल्लाल 15-13 मात्राओं का विषम चरणी छंद है जिसे हेमचंद्राचार्य ने 'कर्पूर' नाम से वर्णित किया है। डॉ. पुत्तूलाल शुक्ल इन्हें एक छंद के दो भेद मानते हैं। हम इनका अध्ययन अलग-अलग ही करेंगे। भानु' के अनुसार:
उल्लाला तेरा कला, दश्नंतर इक लघु भला।
सेवहु नित हरि हर चरण, गुण गण गावहु हो शरण।।
अर्थात उल्लाला में 13 कलाएं (मात्राएँ) होती हैं दस मात्राओं के अंतर पर (11 वीं मात्रा) एक लघु होना अच्छा है। दोहा के 4 विषम चरणों से उल्लाला छंद बनता है। यह 13-13 मात्राओं का सम पाद मात्रिक छन्द है जिसके चरणान्त में यति है। सम चरणान्त में सम तुकांतता आवश्यक है। विषम चरण के अंत में ऐसा बंधन नहीं है। शेष नियम दोहा के समान हैं। इसका मात्रा विभाजन 8+3+2 है अंत में 1 गुरु या 2 लघु का विधान है।
सारतः उल्लाला के लक्षण निम्न हैं-
1. 2 पदों में तेरह-तेरह मात्राओं के 4 चरण
2. सभी चरणों में ग्यारहवीं मात्रा लघु
3. चरण के अंत में यति (विराम) अर्थात सम तथा विषम चरण को एक शब्द से न जोड़ा जाए।
4. चरणान्त में एक गुरु मात्रा या दो लघु मात्राएँ हों।
5. सम चरणों (2, 4) के अंत में समान तुक हो।
6. सामान्यतः सम चरणों के अंत एक जैसी मात्रा तथा विषम चरणों के अंत में एक सी मात्रा हो। अपवाद स्वरूप प्रथम पद के दोनों चरणों में एक जैसी तथा दूसरे पद के दोनों चरणों में एक सी मात्राएँ देखी गयी हैं।
उदाहरण :
1.नारायण दास वैष्णव (तुक समानता: सम पद)
रे मन हरि भज विषय तजि, सजि सत संगति रैन दिनु।
काटत भव के फन्द को, और न कोऊ राम बिनु।।
2. घनानंद (तुक समानता: सम पद)
प्रेम नेम हित चतुरई, जे न बिचारतु नेकु मन।
सपनेहू न विलम्बियै, छिन तिन ढिग आनंदघन।
3. ॐ प्रकाश बरसैंया 'ॐकार' छंद क्षीरधि (तुक समानता: सम पद)
राष्ट्र हितैषी धन्य हैं, निर्वाहा औचित्य को।
नमन करूँ उनको सदा, उनके शुचि साहित्य को।।
प्रथम चरण 14 मात्राएँ,
4.जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' छंद प्रभाकर (तुक समानता: प्रथम पद के दोनों
चरण, दूसरे पद के दोनों चरण)
काव्य कहा बिन रुचिर मति, मति सो कहा बिनही बिरति।
बिरतिउ लाल गुपाल भल, चरणनि होय जू रति अचल।।
5. रामदेव लाल विभोर, छंद विधान (तुक समानता: चारों चरण, गुरु मात्रा)
सुमति नहीं मन में रहे, कुमति सदा घर में रहे।
ऊधो-ऊधो सुगना कहे, विडंबना ममता सहे।।
6. अज्ञात कवि (प्रभात शास्त्री कृत काव्यांग कल्पद्रुम)
झगड़े झाँसे उड़ गए, अन्धकार का युग गया।
उदित भानु अब हो गए, मार्ग सभी को दिख गया।।
7. डॉ. मिर्ज़ा हसन नासिर (नासिर छन्दावली)
बुरा धर्म का हाल है, सत्य हुआ पामाल है।
सुख का पड़ा अकाल है, जीवन क्या जंजाल है।।
8. संजीव 'सलिल'
दस दिश खिली बहार है, अद्भुत रूप निखार है।
हर सुर-नर बलिहार है, प्रकृति किये सिंगार है।।
9.संजीव 'सलिल'
हिंदी की महिमा अमित, छंद-कोष है अपरिमित।
हाय! देश में उपेक्षित, राजनीति से पद-दलित।।
10. संजीव 'सलिल'
मौनी बाबा बोलिए, तनिक जुबां तो खोलिए।
शीश सिपाही का कटा, गुमसुम हो मत डोलिए।।
11. संजीव 'सलिल'
'सलिल' साधना छंद की, तनिक नहीं आसान है।
सत-शिव-सुन्दर दृष्टि ही, साधक की पहचान है।।
***
अभिनव प्रयोग-
उल्लाला गीत:
जीवन सुख का धाम है
*
जीवन सुख का धाम है,
ऊषा-साँझ ललाम है.
कभी छाँह शीतल रहा-
कभी धूप अविराम है...*
दर्पण निर्मल नीर सा,
वारिद, गगन, समीर सा,
प्रेमी युवा अधीर सा-
हर्ष, उदासी, पीर सा.
हरी का नाम अनाम है
जीवन सुख का धाम है...
*
बाँका राँझा-हीर सा,
बुद्ध-सुजाता-खीर सा,
हर उर-वेधी तीर सा-
बृज के चपल अहीर सा.
अनुरागी निष्काम है
जीवन सुख का धाम है...
*
वागी आलमगीर सा,
तुलसी की मंजीर सा,
संयम की प्राचीर सा-
राई, फाग, कबीर सा.
स्नेह-'सलिल' गुमनाम है
जीवन सुख का धाम है...
१९.७.२०२०
***
लघुकथा
धर्म संकट
*
वे महाविद्यालय में प्रवेश कराकर बेटे को अपनी सखी विभागाध्यक्ष से मिलवाने ले गयीं। जब भी सहायता चाहिए हो, निस्संकोच आ जाना सखी ने कहा तो उन्होंने खुद को आश्वस्त पाया।
वह कठिनाई हल करने, पुस्तकालय से अतिरिक्त पुस्तक लेने, परीक्षा के पूर्व महत्वपूर्ण प्रश्न पूछने विभागाध्यक्ष के पास जाता रहा। पहले तो उन्होंने कोई विशेष रुचि नहीं ली किन्तु क्रमश:उसकी प्रशंसा करते हुए सहायता करने लगीं। उसे कहा कि महाविद्यालय में 'आंटी' नहीं 'मैडम' कहना उपयुक्त है।
प्रयोगशाला में वे अधिक समय तक रूककर प्रयोग करातीं, अपने शोधपत्रों के साथ उसका नाम जोड़कर छपवाया। वह आभारी होता रहा।
उसे पता ही नहीं चला कब गलियारों में उनके सम्बन्धों को अंतरंग कहती कानाफूसियाँ फ़ैलने लगीं।
एक शाम जब वह प्रयोग कर रहा था, वे आकर हाथ बँटाने लगीं। हाथ स्पर्श होने पर उसने संकोच और भय से खुद में सिमट, खेद व्यक्त किया पर उन्होंने पूर्ववतकार्य जारी रखा मानो कुछ हुआ ही न हो। अचानक वे लड़खड़ाती लगीं तो उसने लपक कर सम्हाला, अपने कंधे पर से उनका सर और उनकी कमर में से अपने हाथ हटाने के पूर्व ही उसकी श्वासों में घुलने लगी परफ्यूम और देह की गंध। पलक झपकते दूरियाँ दूर हो गयीं।
कुछ दिन वे एक दूसरे से बचते रहे किन्तु धीरे-धीरे वातावरण सहज होने लगा। आज कक्षा के सब विद्यार्थी विभागाध्यक्ष को शुभकामनायें देकर चरण-स्पर्श कर रहे हैं। वह क्या करे? धर्मसंकट में पड़ा है चरण छुए तो कैसे?, न छुए तो साथी क्या कहेंगे? यही धर्म संकट उनके मन में भी है। दोनों की आँखें मिलीं, कठिन परिस्थिति से उबार लिया चलभाष ने, 'गुरु जी! प्रणाम। आप कार्यालय में विराजें, मैं तुरंत आती हूँ' कहते हुए, शेष विद्यार्थियों को रोककर वे चल पड़ीं कार्यालय की ओर। इस क्षण तो गुरु ने उबार लिया, टल गया था धर्म संकट।
१९.७.२०१६
***
हास्य सलिला:
याद
संजीव 'सलिल'
*
कालू से लालू कहें, 'दोस्त! हुआ हैरान.
घरवाली धमका रही, रोज खा रही जान.
पीना-खाना छोड़ दो, वरना दूँगी छोड़.
जाऊंगी मैं मायके, रिश्ता तुमसे तोड़'
कालू बोला: 'यार! हो, किस्मतवाले खूब.
पिया करोगे याद में, भाभी जी की डूब..
बहुत भली हैं जा रहीं, कर तुमको आजाद.
मेरी भी जाए कभी प्रभु से है फरियाद..
१९.७.२०१४
***
हास्य रचना
बतलायेगा कौन?
*
मैं जाता था ट्रेन में, लड़ा मुसाफिर एक.
पिटकर मैंने तुरत दी, धमकी रखा विवेक।।
मुझको मारा भाई को, नहीं लगाना हाथ।
पल में रख दे फोड़कर, हाथ पैर सर माथ ।।
भाई पिटा तो दोस्त का, उच्चारा था नाम।
दोस्त और फिर पुत्र को, मारा उसने थाम।।
रहा न कोई तो किया, उसने एक सवाल।
आप पिटे तो मौन रह, टाला क्यों न बवाल?
क्यों पिटवाया सभी को, क्या पाया श्रीमान?
मैं बोला यह राज है, किन्तु लीजिये जान।।
अब घर जाकर सभी को रखना होगा मौन.
पीटा मुझको किसी ने, बतलायेगा कौन??
+++
छंद सलिला
आर्द्रा छंद
*
द्विपदीय, चतुश्चरणी, मात्रिक आर्द्रा छंद के दोनों पदों पदों में समान २२-२२ वर्ण तथा ३५-३५ मात्राएँ होती हैं. प्रथम पद के २ चरण उपेन्द्र वज्रा-इंद्र वज्रा (जगण तगण तगण २ गुरु-तगण तगण जगण २ गुरु = १७ + १८ = ३५ मात्राएँ) तथा द्वितीय पद के २ चरण इंद्र वज्रा-उपेन्द्र वज्रा (तगण तगण जगण २ गुरु-जगण तगण तगण २ गुरु = १८ + १७ = ३५ मात्राएँ) छंदों के सम्मिलन से बनते हैं.
उपेन्द्र वज्रा फिर इंद्र वज्रा, प्रथम पंक्ति में रखें सजाकर
द्वितीय पद में सह इंद्र वज्रा, उपेन्द्र वज्रा कहे हँसाकर
उदाहरण:
१. कहें सदा ही सच ज़िंदगी में, पूजा यही है प्रभु जी! हमारी
रहें हमेशा रत बंदगी में, हे भारती माँ! हम भी तुम्हारी
२. बसंत फूलों कलियों बगीचों, में झूम नाचा महका सवेरा
सुवास फ़ैली वधु ज्यों नवेली, बोले अबोले- बस में चितेरा
३. स्वराज पाया अब भारतीयों, सुराज पाने बलिदान दोगे?
पालो निभाओ नित नेह-नाते, पड़ोसियों से निज भूमि लोगे?
कहो करोगे मिल देश-सेवा, सियासतों से मिल पार होगे?
नेता न चाहें फिर भी दलों में, सुधार लाने फटकार दोगे?
***
त्रिभंगी सलिला:
हम हैं अभियंता
संजीव
*
(छंद विधान: १० ८ ८ ६ = ३२ x ४)
*
हम हैं अभियंता नीति नियंता, अपना देश सँवारेंगे
हर संकट हर हर मंज़िल वर, सबका भाग्य निखारेंगे
पथ की बाधाएँ दूर हटाएँ, खुद को सब पर वारेंगे
भारत माँ पावन जन मन भावन, श्रम-सीकर चरण पखारेंगे
*
अभियंता मिलकर आगे चलकर, पथ दिखलायें जग देखे
कंकर को शंकर कर दें हँसकर मंज़िल पाएं कर लेखे
शशि-मंगल छूलें, धरा न भूलें, दर्द दीन का हरना है
आँसू न बहायें , जन-गण गाये, पंथ वही तो वरना है
*
श्रम-स्वेद बहाकर, लगन लगाकर, स्वप्न सभी साकार करें
गणना कर परखें, पुनि-पुनि निरखें, त्रुटि न तनिक भी कहीं वरें
उपकरण जुटाएं, यंत्र बनायें, नव तकनीक चुनें न रुकें
आधुनिक प्रविधियाँ, मनहर छवियाँ, उन्नत देश करें
*
नव कथा लिखेंगे, पग न थकेंगे, हाथ करेंगे काम काम सदा
किस्मत बदलेंगे, नभ छू लेंगे, पर न कहेंगे 'यही बदा'
प्रभु भू पर आयें, हाथ बटायें, अभियंता संग-साथ रहें
श्रम की जयगाथा, उन्नत माथा, सत नारायण कथा कहें
***
दोहा गाथा ४-
शब्द ब्रह्म उच्चार
*
अजर अमर अक्षर अजित, निराकार साकार
अगम अनाहद नाद है, शब्द ब्रह्म उच्चार
*
सकल सुरासुर सामिनी, सुणि माता सरसत्ति
विनय करीन इ वीनवुँ, मुझ तउ अविरल मत्ति
सुरासुरों की स्वामिनी, सुनिए माँ सरस्वति
विनय करूँ सर नवाकर, निर्मल दीजिए मति
संवत् १६७७ में रचित ढोला मारू दा दूहा से उद्धृत माँ सरस्वती की वंदना के उक्त दोहे से इस पाठ का श्रीगणेश करते हुए विसर्ग का उच्चारण करने संबंधी नियमों की चर्चा करने के पूर्व यह जान लें कि विसर्ग स्वतंत्र व्यंजन नहीं है, वह स्वराश्रित है। विसर्ग का उच्चार विशिष्ट होने के कारण वह पूर्णतः शुद्ध नहीं लिखा जा सकता। विसर्ग उच्चार संबंधी नियम निम्नानुसार हैं-
१. विसर्ग के पहले का स्वर व्यंजन ह्रस्व हो तो उच्चार त्वरित "ह" जैसा तथा दीर्घ हो तो त्वरित "हा" जैसा करें।
२. विसर्ग के पूर्व "अ", "आ", "इ", "उ", "ए" "ऐ", या "ओ" हो तो उच्चार क्रमशः "ह", "हा", "हि", "हु", "हि", "हि" या "हो" करें।
यथा केशवः =केशवह, बालाः = बालाह, मतिः = मतिहि, चक्षुः = चक्षुहु, भूमेः = भूमेहि, देवैः = देवैहि, भोः = भोहो आदि।
३. पंक्ति के मध्य में विसर्ग हो तो उच्चार आघात देकर "ह" जैसा करें।
यथा- गुरुर्ब्रम्हा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः.
४. विसर्ग के बाद कठोर या अघोष व्यंजन हो तो उच्चार आघात देकर "ह" जैसा करें।
यथा- प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः.
५. विसर्ग पश्चात् श, ष, स हो तो विसर्ग का उच्चार क्रमशः श्, ष्, स् करें।
यथा- श्वेतः शंखः = श्वेतश्शंखः, गंधर्वाःषट् = गंधर्वाष्षट् तथा
यज्ञशिष्टाशिनः संतो = यज्ञशिष्टाशिनस्संतो आदि।
६. "सः" के बाद "अ" आने पर दोनों मिलकर "सोऽ" हो जाते हैं।
यथा- सः अस्ति = सोऽस्ति, सः अवदत् = सोऽवदत्.
७. "सः" के बाद "अ" के अलावा अन्य वर्ण हो तो "सः" का विसर्ग लुप्त हो जाता है।
८. विसर्ग के पूर्व अकार तथा बाद में स्वर या मृदु व्यंजन हो तो अकार व विसर्ग मिलकर "ओ" बनता है।
यथा- पुत्रः गतः = पुत्रोगतः.
९. विसर्ग के पूर्व आकार तथा बाद में स्वर या मृदु व्यंजन हो तो विसर्ग लुप्त हो जाता है।
यथा- असुराःनष्टा = असुरानष्टा .
१०. विसर्ग के पूर्व "अ" या "आ" के अलावा अन्य स्वर तथा ुसके बाद स्वर या मृदु व्यंजन हो तो विसर्ग के स्थान पर "र" होगा।
यथा- भानुःउदेति = भानुरुदेति, दैवैःदत्तम् = दैवैर्दतम्.
११. विसर्ग के पूर्व "अ" या "आ" को छोड़कर अन्य स्वर और उसके बाद "र" हो तो विसर्ग के पूर्व आनेवाला स्वर दीर्घ हो जाता है।
यथा- ॠषिभिःरचितम् = ॠषिभी रचितम्, भानुःराधते = भानूराधते, शस्त्रैःरक्षितम् = शस्त्रै रक्षितम्।
उच्चार चर्चा को यहाँ विराम देते हुए यह संकेत करना उचित होगा कि उच्चार नियमों के आधार पर ही स्वर, व्यंजन, अक्षर व शब्द का मेल या संधि होकर नये शब्द बनते हैं। दोहाकार को उच्चार नियमों की जितनी जानकारी होगी वह उतनी निपुणता से निर्धारित पदभार में शब्दों का प्रयोग कर अभिनव अर्थ की प्रतीति करा सकेगा। उच्चार की आधारशिला पर हम दोहा का भवन खड़ा करेंगे।
दोहा का आधार है, ध्वनियों का उच्चार ‌
बढ़ा शब्द भंडार दे, भाषा शिल्प सँवार ‌ ‌
शब्दाक्षर के मेल से, प्रगटें अभिनव अर्थ ‌
जिन्हें न ज्ञात रहस्य यह, वे कर रहे अनर्थ ‌ ‌
गद्य, पद्य, पिंगल, व्याकरण और छंद
गद्य पद्य अभिव्यक्ति की, दो शैलियाँ सुरम्य ‌
बिंब भाव रस नर्मदा, सलिला सलिल अदम्य ‌ ‌
जो कवि पिंगल व्याकरण, पढ़े समझ हो दक्ष ‌
बिरले ही कवि पा सकें, यश उसके समकक्ष ‌ ‌
कविता रच रसखान सी, दे सबको आनंद ‌
रसनिधि बन रसलीन कर, हुलस सरस गा छंद ‌ ‌
भाषा द्वारा भावों और विचारों की अभिव्यक्ति की दो शैलियाँ गद्य तथा पद्य हैं। गद्य में वाक्यों का प्रयोग किया जाता है जिन पर नियंत्रण व्याकरण करता है। पद्य में पद या छंद का प्रयोग किया जाता है जिस पर नियंत्रण पिंगल करता है।
कविता या पद्य को गद्य से अलग तथा व्यवस्थित करने के लिये कुछ नियम बनाये गये हैं जिनका समुच्चय "पिंगल" कहलाता है। गद्य पर व्याकरण का नियंत्रण होता है किंतु पद्य पर व्याकरण के साथ पिंगल का भी नियंत्रण होता है।
छंद वह सांचा है जिसके अनुसार कविता ढलती है। छंद वह पैमाना है जिस पर कविता नापी जाती है। छंद वह कसौटी है जिस पर कसकर कविता को खरा या खोटा कहा जाता है। पिंगल द्वारा तय किये गये नियमों के अनुसार लिखी गयी कविता "छंद" कहलाती है। वर्णों की संख्या एवं क्रम, मात्रा, गति, यति आदि के आधार पर की गयी रचना को छंद कहते हैं। छंद के तीन प्रकार मात्रिक, वर्णिक तथा मुक्त हैं। मात्रिक व वर्णिक छंदों के उपविभाग सममात्रिक, अर्ध सममात्रिक तथा विषम मात्रिक हैं।
दोहा अर्ध सम मात्रिक छंद है। मुक्त छंद में रची गयी कविता भी छंदमुक्त या छंदहीन नहीं होती।
छंद के अंग
छंद की रचना में वर्ण, मात्रा, पाद, चरण, गति, यति, तुक तथा गण का विशेष योगदान होता है।
वर्ण- किसी मूलध्वनि को व्यक्त करने हेतु प्रयुक्त चिन्हों को वर्ण या अक्षर कहते हैं, इन्हें और विभाजित नहीं किया जा सकता।
मात्रा- वर्ण के उच्चारण में लगे कम या अधिक समय के आधार पर उन्हें ह्रस्व, लघु या छोटा‌ तथा दीर्घ या बड़ा ऽ कहा जाता है।
इनकी मात्राएँ क्रमशः एक व दो गिनी जाती हैं।
उदाहरण- गगन = ।‌+। ‌+। ‌ = ३, भाषा = ऽ + ऽ = ४.
पाद- पद, पाद तथा चरण इन शब्दों का प्रयोग कभी समान तथा कभी असमान अर्थ में होता है। दोहा के संदर्भ में पद का अर्थ पंक्ति से है। दो पंक्तियों के कारण दोहा को दो पदी, द्विपदी, दोहयं, दोहड़ा, दूहड़ा, दोग्धक आदि कहा गया। दोहा के हर पद में दो, इस तरह कुल चार चरण होते हैं। प्रथम व तृतीय चरण विषम तथा द्वितीय व चतुर्थ चरण सम कहलाते हैं।
गति- छंद पठन के समय शब्द ध्वनियों के आरोह व अवरोह से उत्पन्न लय या प्रवाह को गति कहते हैं। गति का अर्थ काव्य के प्रवाह से है। जल तरंगों के उठाव-गिराव की तरह शब्द की संरचना तथा भाव के अनुरूप ध्वनि के उतार चढ़ाव को गति या लय कहते हैं। हर छंद की लय अलग अलग होती है। एक छंद की लय से अन्य छंद का पाठ नहीं किया जा सकता।
यति- छंद पाठ के समय पूर्व निर्धारित नियमित स्थलों पर ठहरने या रुकने के स्थान को यति कहा जाता है। दोहा के दोनों चरणों में १३ व ११ मात्राओं पर अनिवार्यतः यति होती है। नियमित यति के अलावा भाव या शब्दों की आवश्यकता अनुसार चजण के बीच में भी यति हो सकती है। अल्प या अर्ध विराम यति की सूचना देते है।
तुक- दो या अनेक चरणों की समानता को तुक कहा जाता है। तुक से काव्य सौंदर्य व मधुरता में वृद्धि होती है। दोहा में सम चरण अर्थात् दूसरा व चौथा चरण सम तुकांती होते हैं।
गण- तीन वर्णों के समूह को गण कहते हैं। गण आठ प्रकार के हैं। गणों की मात्रा गणना के लिये निम्न सूत्र में से गण के पहले अक्षर तथा उसके आगे के दो अक्षरों की मात्राएँ गिनी जाती हैं। गणसूत्र- यमाताराजभानसलगा।
क्रम गण का नाम अक्षर मात्राएँ
१. यगण यमाता ‌ ऽऽ = ५
२. मगण मातारा ऽऽऽ = ६
३. तगण ताराज ऽऽ ‌ = ५
४. रगण राजभा ऽ ‌ ऽ = ५
५. जगण जभान ‌ ऽ ‌ = ४
६. भगण भानस ऽ ‌ ‌ = ४
७. नगण नसल ‌ ‌ ‌ = ३
८. सगण सलगा ‌ ‌ ऽ = ४
उदित उदय गिरि मंच पर , रघुवर बाल पतंग । ‌ - प्रथम पद
प्रथम विषम चरण यति द्वितीय सम चरण यति
विकसे संत सरोज सब , हरषे लोचन भ्रंग ‌‌‌ ‌ । - द्वितीय पद
तृतीय विषम चरण यति चतुर्थ सम चरण यति
९.५.२०१३
***
गीत:
चाहता हूँ ...
*
काव्यधारा जगा निद्रा से कराता सृजन हमसे.
भाव-रस-राकेश का स्पर्श देता मुक्ति तम से
कथ्य से परिक्रमित होती कलम ऊर्जस्वित स्वयं हो
हैं न कर्ता, किन्तु कर्ता बनाते खुद को लगन से
ह्रदय में जो सुप्त, वह झंकार बनना चाहता हूँ
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
*
गति-प्रगति मेरी नियति है, मनस में विस्फोट होते
व्यक्त होते काव्य में जो, बिम्ब खोकर भी न खोते
अणु प्रतीकों में उतर परिक्रमित होते परिवलय में
रुद्ध द्वारों से अबाधित चेतना-कण तिमिर धोते
अहंकारों के परे हंकार होना चाहता हूँ
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
*
लय विलय होती प्रलय में, मलय नभ में हो समाहित
अनल का पावन परस, पा धरा अधरा हो निनादित
पञ्च प्यारे दस रथों का, सारथी नश्वर-अनश्वर
आये-जाये वसन तजकर सलिल-धारा हो प्रवाहित
गढ़ रहा आकर, खो निर-आकार होना चाहता हूँ
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
*
टीप: पञ्च प्यारे= पञ्च तत्व, दस रथों = ५ ज्ञानेन्द्रिय
***
बुन्देली मुक्तिका:
मंजिल की सौं...
*
मंजिल की सौं, जी भर खेल
ऊँच-नीच, सुख-दुःख. हँस झेल
रूठें तो सें यार अगर
करो खुसामद मल कहें तेल
यादों की बारात चली
नाते भए हैं नाक-नकेल
आस-प्यास के दो कैदी
कार रए साँसों की जेल
मेहनतकश खों सोभा दें
बहा पसीना रेलमपेल
***
अंगिका दोहा मुक्तिका
*
काल बुलैले केकर, होतै कौन हलाल?
मौन अराधें दैव कै, एतै प्रातःकाल..
*
मौज मनैतै रात-दिन, हो लै की कंगाल.
संग न आवै छाँह भी, आगे कौन हवाल?
*
एक-एक कै खींचतै, बाल- पकड़ लै खाल.
नींन नै आवै रात भर, पलकें करैं सवाल..
*
कौन हमर रच्छा करै, मन में 'सलिल' मलाल.
केकरा से बिनती करभ, सब्भै हवै दलाल..
*
धूल झौंक दैं आँख में, कज्जर लेंय निकाल.
जनहित कै नाक रचैं, नेता निगलैं माल..
*
मत शंका कै नजर सें, देख न मचा बवाल.
गुप-चुप हींसा बाँट लै, 'सलिल' बजा नैं गाल..
*
ओकर कोय जवाब नै, जेकर सही सवाल.
लै-दै कै मूँ बंद कर, ठंडा होय उबाल..
===
टीप: अंगिका से अधिक परिचय न होने पर भी प्रयास किया है. जानकार बंधु त्रुटि इंगित करें तो सुधार सकूँगा.

रविवार, 25 मई 2025

मई २५, बिटिया, दुर्गा भाभी, हिंदी, जाति, विवाह, स्वरबद्ध दोहे, हाइकु, अंगिका,

 सलिल सृजन मई २५

*
एक रचना
बिटिया!
कोशिश करी बधाई।
*
पहला पैर रखा धरती पर
खड़े न रहकर
गिरे धम्म से।
कदम बढ़ाया चल न सके थे
बार बार
कोशिश की हमने।
'इकनी एक' न एक बार में
लिख पाए हम
तो न करें गम।
'अ अनार का' बार बार
लिख गलत
सही सीखा था हमने।
नहीं विफलता से घबराया
जो उसने ही
मंजिल पाई।
बिटिया!
कोशिश करी बधाई।
*
उड़ा न पाता जो पतंग वह
कर अभ्यास
उड़ाने लगता।
गोल न रोटी बनती गर तो
आंटा बेलन
तवा न थकता।
बार बार गिरती मकड़ी पर
जाल बनाए बिना
न रुकती।
अगिन बार तिनके गिरते पर
नीड़ बिना
पाखी कब रुकता।
दुखी न हो, संकल्प न छोड़ो
अश्रु न मीत
न सखी रुलाई।
बिटिया!
कोशिश करी बधाई।
*
कुंडी बार बार खटकाओ
तब दरवाजा
खुल पाता है।
अगणित गीत निरंतर गाओ
तभी कंठ-स्वर
सध पाता है।
श्वास ट्रेन पर आस मुसाफिर
थके-चुके बिन
चलते रहता।
प्रभु सुन ले या करें अनसुनी
भक्त सतत
भजता जाता है।
रुके न थक जो
वह तरुणाई।
बिटिया!
कोशिश करी बधाई।
२५-५-२०२३
***
दुर्गा भाभी और हम
*
विधि की विडंबना किअंग्रेजो से माफी माँगनेवाले स्वातंत्र्य वीर और प्रधान मंत्री हो गए किन्तु जान हथेली पर रखकर अंग्रेजों की नाक में दम करनेवाले किसी को याद तक नहीं आते।
एक वो भी थे जो देश हित कुर्बान हो गए।
एक हम हैं जो उनको याद तक नहीं करते।।
दुर्गा भाभी साण्डर्स वध के बाद राजगुरू और भगतसिंह को लाहौर से अंग्रेजो की नाक के नीचे से निकालकर कोलकत्ता ले गई थीं। इनके पति क्रांतिकारी भगवती चरण वोहरा थे। ये भी कहा जाता है किचंद्रशेखर आजाद के पास आखिरी वक्त में दुर्गा भाभी द्वारा दी गई माउजर पिस्तौल थी।
१४ अक्टूबर १९९९ में वो इस दुनिया से चुपचाप ही विदा हो गईं।
आज तक उस वीरांगना को इतिहास के पन्नों में वो जगह मिली जिसकी वो हकदार थीं और न ही वो किसी को याद रही चाहे वो सरकार हो या जनता।
एक स्मारक तक उनके नाम पर नहीं है, कहीं कोई मूर्ति नहीं है उनकी। सरकार, पत्रकार और जनता किसी को नहीं आती उनकी याद। कितने कृतघ्न हैं हम?
***
दोहा दुनिया
कर उपासना सिंह की, वन में हो तव धाक
सिर नीचा पर समझ ले, तेरी ऊँची नाक
*
दोहा प्रगटे आप ही, मेरा नहीं प्रयास
मातु शारदा की कृपा, अनायास सायास
*
शब्द निशब्द अशब्द हो, तभी प्रगट हो सत्य
बाकी मायाजाल है, है असत्य भी सत्य
*चाह चाहकर हो चली, जर्जर देह विदेह
वाह वाह कर ले तनिक, हो संजीव अगेह
***
मुक्तिका
*
परिंदे मिल कह रहे हैं ईद मुबारक
सेठ दौलत तह रहे हैं ईद मुबारक
कामगर बेकाम भूखे पेट मर रहा
दे रहे हैं कर्ज बैंक ईद मुबारक
खेत की छाती पे राजमार्ग बन गया
है नहीं दरख्त-कुआँ ईद मुबारक
इंजीनियर मजदूर की है कद्र कुछ नहीं
नेता पुलिस की बोलिए जय ईद मुबारक
जा आइने के सामने मिलिए गले खुद से
आँखों नें आँख डाल कहें ईद मुबारक
***
हिंदी के सोरठे
*
हिंदी मोतीचूर, मुँह में लड्डू सी घुले
जो पहले था दूर, मन से मन खुश हो मिले
हिंदी कोयल कूक, कानों को लगती भली
जी में उठती हूक, शब्द-शब्द मिसरी डली
हिंदी बाँधे सेतु, मन से मन के बीच में
साधे सबका हेतु, स्नेह पौध को सींच के
मात्रिक-वर्णिक छंद, हिंदी की हैं खासियत
ज्योतित सूरज-चंद, बिसरा कर खो मान मत
अलंकार है शान, कविता की यह भूल मत
छंद हीन अज्ञान, चुभा पेअर में शूल मत
हिंदी रोटी-दाल, कभी न कोई ऊबता
ऐसा सूरज जान, जो न कभी भी डूबता
हिंदी निश-दिन बोल, खुश होगी भारत मही
नहीं स्वार्थ से तोल, कर केवल वह जो सही
२२-५-२०२०
***
अनुलोम-विलोम
गिरेन्द्रसिंह भदौरिया प्राण
*
अनुलोम अर्थात रचना की किसी पँक्ति को सीधा पढ़ने पर भी अर्थ निकले और विलोम अर्थात् उल्टा (पीछे से ) पढ़ने पर भी अर्थ दे ।
संस्कृत के कई कवियों तथा रीतिकालीन हिन्दी के आचार्य कवि केशव दास ने भी ऐसी रचनाएँ की हैं ।
नीचे लिखी रचना में अनुलोम लावणी में और विलोम ताटंक छन्द में बन पड़ा है।
अनुलोम
=======
क्यों दी रोक सार कह नारी गोधारा नीलिमा नदी ।
क्यों दी मोको तालि लय जया माता मम कालिमा पदी ।।
विलोम
=====
दीन मालिनी राधा गोरी नाहक रसा करोदी क्यों ?
दीप मालिका ममता माया जयललिता को मोदी क्यों ?
अनुलोम का अर्थ
===
हे नारी तूने नीलिमा ( यमुना ) नदी की बहती हुई गो धारा क्यों रोक दी ।ऐसा ही करना था तो उस काले पैरों वाली ( कालिमापदी) मेरी जया माता ने मुझे लय और ताल क्यों दी ? यह बता ।
विलोम का अर्थ
====
दीन गरीब मालिनी ने राधा गोरी से पूछा कि तू नाहक धरती क्यों कुरेद रही है पता लगा कि तेरे होते हुए आजकल ये दीप मालिका सी ममता माया व जयललिता को मोदी क्यों चाहिए ?
***
चिंतन:
जाति, विवाह और कर्मकांड
*
जात कर्म = जन्म देने की क्रिया, जातक = नज्म हुआ बच्चा, जातक कथा = विविध योनियों में अवतार लिए बुद्ध की कथाएं.
विविध योनियों में बुद्ध कौन थे यह पहचान उनकी जाति से हुई. जाति = गुण-धर्म.
'जन्मना जायते शूद्रो' के अनुसार हर जातक जन्मा शूद्र होता है.
कर्म के अनुसार वर्ण होता है. 'चातुर्वण्य मया सृष्टम गुण कर्म विभागश:' कृष्ण गीता में.
सनातन धर्म में एक गोत्र, एक कुल, पिता की सात पीढ़ी और माँ की सात पीढ़ी में, एक गुरु के शिष्यों में, एक स्थान के निवासियों में विवाह वर्जित है. यह 'जेनेटिक मिक्सिंग' का भारतीय रूप ही है.
इनमें से हर आधार के पीछे एक वैज्ञानिक कारण है.
जो अव्यक्त है, वह निराकार है. जो निराकार है उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता अर्थात चित्र गुप्त है. यह चित्रगुप्त कौन है?
चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्वदेहिनाम' चित्रगुप्त सर्व प्रथम प्रणाम के योग्य हैं जो सर्व देहधारियों में आत्मा के रूप में विराजमान हैं'
'कायास्थिते स: कायस्थ:' वह (चित्रगुप्त या परमात्मा) जब किसी काया का निर्माण कर उसमें स्थित (आत्मा रूप में) होता है तो कायस्थ कहलाता है.
जैसे कुँए में जल, बाल्टी में निकाला तो जल, लोटे में भरा तो जल, चुल्लू से पिया तो जल, उसी प्रकार परमात्मा का अंश हर आत्मा भी काया धारण कर कायस्थ है.इसीलिये कायस्थ किसी एक वर्ण में नहीं है.
तात्पर्य यह कि सनातन चिंतन में वह है ही नहीं जो समाज में प्रचलन में है. आवश्यकता चिंतन को छोड़ने की नहीं सामाजिक आचार को बदलने की है. जो परिवर्तन की दिशा में सबसे आगे चले वह अग्रवाल, जिसके पास वास्तव में श्री हो वह श्रीवास्तव. जब दोनों का मेल हो तो सत्य और श्रेष्ठ ही बढ़ेगा.
विवाह दो जातकों का होता है, उनके रिश्तेदारों, परिवारों, प्रतिष्ठा या व्यवसाय का नहीं होता. पारस्परिक ताल-मेल, समायोजन, सहिष्णुता और संवेदनशीलता हो तो विवाह करना चाहिए अन्यथा विग्रह होना ही है.
पंडा, पुजारी, मुल्ला, मौलवी, ग्रंथी, पादरी होना धंधा है. जब कोई दूकानदार, कोई मिल मालिक हमें नियंत्रित नहीं करता करे तो हम स्वीकारेंगे नहीं तो कर्मकांड का व्यवसाय करनेवालों की दखलंदाजी हम क्यों मानते हैं? कमजोरी हमारी है, दूर भी हमें ही करना है.
२५-५-२०१७
***
स्वरबद्ध दोहे :
*
अक्षर अजर अमर असित, अजित अतुल अमिताभ
अकत अकल अकलक अकथ, अकृत अगम अजिताभ
*
आप आब आनंदमय, आकाशी आल्हाद
आक़ा आक़िल अजगबी, आज्ञापक आबाद
*
इश्वाकु इच्छुक इरा, इर्दब इलय इमाम
इड़ा इदंतन इदंता, इन इब्दिता इल्हाम
*
ईक्षा ईक्षित ईक्षिता, ई ईड़ा ईजान
ईशा ईशी ईश्वरी, ईश ईष्म ईशान
*
उत्तम उत्तर उँजेरा, उँजियारी उँजियार
उच्छ्वासित उज्जवल उतरु, उजला उत्थ उकार
*
ऊजन ऊँचा ऊजरा, ऊ ऊतर ऊदाभ
ऊष्मा ऊर्जा ऊर्मिदा, ऊर्जस्वी ऊ-आभ
*
एकाकी एकाकिनी, एकादश एतबार
एषा एषी एषणा, एषित एकाकार
*
ऐश्वर्यी ऐरावती, ऐकार्थ्यी ऐकात्म्य
ऐतरेय ऐतिह्यदा, ऐणिक ऐंद्राध्यात्म
*
ओजस्वी ओजुतरहित, ओंकारित ओंकार
ओल ओलदा ओबरी, ओर ओट ओसार
*
औगत औघड़ औजसिक, औत्सर्गिक औचिंत्य
औंगा औंगी औघड़ी, औषधीश औचित्य
*
अंक अंकिकी आंकिकी, अंबरीश अंबंश
अंहि अंशु अंगाधिपी, अंशुल अंशी अंश
*
हवा आग धरती गगन, रोटी वस्त्र किताब
'सलिल' कलम जिसको मिले, वह हो मनुज जनाब
२५-५-२०१६
***
एक दोहा
हवा आग धरती गगन, रोटी वस्त्र किताब
'सलिल' कलम जिसको मिले, वह हो मनुज जनाब
***
मुक्तिका:
*
सुरभि फ़ैली, आ गयीं
कमल-दल सम, भा गयीं
*
ज़िन्दगी के मंच पर
बन्दगी बन छा गयीं
*
विरह-गीतों में विहँस
मिलन-रस बिखरा गयीं
*
सियासत में सत्य सम
सिकुड़कर संकुचा गयीं
*
हर कहानी अनकही
बिन कहे फरमा गयीं
***
मुक्तिका:
*
हुआ जन दाना अधिक या अब अधिक नादान है
अब न करता अन्य का, खुद का करे गुणगान है
*
जब तलक आदम रहा दम आदमी में खूब था
आदमी जब से हुआ मच्छर से भी हैरान है.
*
जान की थी जान मुझमें अमन जीवन में रहा
जान मेरी जान में जबसे बसी, वीरान है.
*
भूलते ही नहीं वो दिन जब हमारा देश था
देश से ज्यादा हुआ प्रिय स्वार्थ सत्ता मान है
*
भेद लाखों, एकता का एक मुद्दा शेष है
मिले कैसे भी मगर मिल जाए कुछ अनुदान है
***
नवगीत:
*
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
जिंदगी नवगीत बनकर
सर उठाने जब लगी
भाव रंगित कथ्य की
मुद्रा लुभाने तब लगी
गुनगुनाकर छंद ने लय
कहा: 'बन जा संत रे!'
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
बिम्ब ने प्रतिबिम्ब को
हँसकर लगाया जब गले
अलंकारों ने कहा:
रस सँग ललित सपने पले
खिलखिलाकर लहर ने उठ
कहा: 'जग में तंत रे!'
*
बन्दगी इंसान की
भगवान ने जब-जब करी
स्वेद-सलिला में नहाकर
सृष्टि खुद तब-तब तरी
झिलमिलाकर रौशनी ने
अंधेरों को कस कहा:
भास्कर है कंत रे!
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
२५-५-२०१५
***
हाइकु चर्चा : १.
*
हाइकु (Haiku 俳句 high-koo) ऐसी लघु कवितायेँ हैं जो एक अनुभूति या छवि को व्यक्त करने के लिए संवेदी भाषा प्रयोग करती है. हाइकु बहुधा प्रकृति के तत्व, सौंदर्य के पल या मार्मिक अनुभव से प्रेरित होते हैं. मूलतः जापानी कवियों द्वारा विकसित हाइकु काव्यविधा अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओँ द्वारा ग्रहण की गयी.
पाश्चात्य काव्य से भिन्न हाइकु में सामान्यतः तुकसाम्य, छंद बद्धता या काफ़िया नहीं होता।
हाइकु को असमाप्त काव्य चूँकि हर हाइकु में पाठक / श्रोता के मनोभावों के अनुसार पूर्ण किये जाने की अपेक्षा होती है.
हाइकु का उद्भव 'रेंगा नहीं हाइकाइ haikai no renga सहयोगी काव्य समूह' जिसमें शताधिक छंद होते हैं से हुआ है. 'रेंगा' समूह का प्रारंभिक छंद 'होक्कु' मौसम तथा अंतिम शब्द का संकेत करता है. हाइकु अपने काव्य-शिल्प से परंपरा के नैरन्तर्य बनाये रखता है.
समकालिक हाइकुकार कम शब्दों से लघु काव्य रचनाएँ करते हैं. ३-५-३ सिलेबल के लघु हाइकु भी रचे जाते हैं.
हाइकु का वैशिष्ट्य
१. ध्वन्यात्मक संरचना:
Write a Haiku Poem Step 2.jpgपारम्परिक जापानी हाइकु १७ ध्वनियों का समुच्चय है जो ५-७-५ ध्वनियों की ३ पदावलियों में विभक्त होते हैं. अंग्रेजी के कवि इन्हें सिलेबल (लघुतम उच्चरित ध्वनि) कहते हैं. समय के साथ विकसित हाइकु काव्य के अधिकांश हाइकुकार अब इस संरचना का अनुसरण नहीं करते। जापानी या अंग्रेजी के आधुनिक हाइकु न्यूनतम एक से लेकर सत्रह से अधिक ध्वनियों तक के होते हैं. अंग्रेजी सिलेबल लम्बाई में बहुत परिवर्तनशील होते है जबकि जापानी सिलेबल एकरूपेण लघु होते हैं. इसलिए 'हाइकु चंद ध्वनियों का उपयोग कर एक छवि निखारना है' की पारम्परिक धारणा से हटकर १७ सिलेबल का अंग्रेजी हाइकु १७ सिलेबल के जापानी हाइकु की तुलना में बहुत लंबा होता है. ५-७-५ सिलेबल का बंधन बच्चों को विद्यालयों में पढाये जाने के बावजूद अंग्रेजी हाइकू लेखन में प्रभावशील नहीं है. हाइकु लेखन में सिलेबल निर्धारण के लिये जापानी अवधारणा "हाइकु एक श्वास में अभिव्यक्त कर सके" उपयुक्त है. अंग्रेजी में सामान्यतः इसका आशय १० से १४ सिलेबल लंबी पद्य रचना से है. अमेरिकन उपन्यासकार जैक कैरोक का एक हाइकू देखें:
Snow in my shoe मेरे जूते में बर्फ
Abandoned परित्यक्त
२५-५-२०१४
Sparrow's nest गौरैया-नीड़
***
कृति चर्चा:
सर्वमंगल: संग्रहणीय सचित्र पर्व-कथा संग्रह
आचार्य संजीव
*
[कृति विवरण: सर्वमंगल, सचित्र पर्व-कथा संग्रह, श्रीमती शकुन्तला खरे, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ संख्या १८६, मूल्य १५० रु., लेखिका संपर्क: योजना क्रमांक ११४/१, माकन क्रमांक ८७३ विजय नगर, इंदौर. म. प्र. भारत]
*
विश्व की प्राचीनतम भारतीय संस्कृति का विकास सदियों की समयावधि में असंख्य ग्राम्यांचलों में हुआ है. लोकजीवन में शुभाशुभ की आवृत्ति, ऋतु परिवर्तन, कृषि संबंधी क्रिया-कलापों (बुआई, कटाई आदि), महापुरुषों की जन्म-निधन तिथियों आदि को स्मरणीय बनाकर उनसे प्रेरणा लेने हेतु लोक पर्वों का प्रावधान किया गया है. इन लोक-पर्वों की जन-मन में व्यापक स्वीकृति के कारण इन्हें सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यता प्राप्त है. वास्तव में इन पर्वों के माध्यम से वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक जीवन में सामंजस्य-संतुलन स्थापित कर, सार्वजनिक अनुशासन, सहिष्णुता, स्नेह-सौख्य वर्धन, आर्थिक संतुलन, नैतिक मूल्य पालन, पर्यावरण सुधार आदि को मूर्त रूप देकर समग्र जीवन को सुखी बनाने का उपाय किया गया है. उत्सवधर्मी भारतीय समाज ने इन लोक-पर्वों के माध्यम से दुर्दिनों में अभूतपूर्व संघर्ष क्षमता और सामर्थ्य भी अर्जित की है.
आधुनिक जीवन में आर्थिक गतिविधियों को प्रमुखता मिलने के फलस्वरूप पैतृक स्थान व् व्यवसाय छोड़कर अन्यत्र जाने की विवशता, अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के कारण तर्क-बुद्धि का परम्पराओं के प्रति अविश्वासी होने की मनोवृत्ति, नगरों में स्थान, धन, साधन तथा सामग्री की अनुपलब्धता ने इन लोक पर्वों के आयोजन पर परोक्षत: कुठाराघात किया है. फलत:, नयी पीढ़ी अपनी सहस्त्रों वर्षों की परंपरा, जीवन शैली, सनातन जीवन-मूल्यों से अपरिचित हो दिग्भ्रमित हो रही है. संयुक्त परिवारों के विघटन ने दादी-नानी के कध्यम से कही-सुनी जाती कहानियों के माध्यम से समझ बढ़ाती, जीवन मूल्यों और जानकारियों से परिपूर्ण कहानियों का क्रम समाप्त प्राय कर दिया है. फलत: नयी पीढ़ी में पारिवारिक स्नेह-सद्भाव का अभाव, अनुशासनहीनता, उच्छंखलता, संयमहीनता, नैतिक मूल्य ह्रास, भटकाव और कुंठा लक्षित हो रही है.
मूलतः बुंदेलखंड में जन्मी और अब मालवा निवासी विदुषी श्रीमती शाकुंताका खरे ने इस सामाजिक वैषम्य की खाई पर संस्कार सेतु का निर्माण कर नव पीढ़ी का पथ-प्रदर्शन करने की दृष्टि से ४ कृतियों मधुरला, नमामि, मिठास तथा सुहानो लागो अँगना के पश्चात विवेच्य कृति ' सर्वमंगल' का प्रकाशन कर पंच कलशों की स्थापना की है. शकुंतला जी इस हेतु साधुवाद की पात्र हैं. सर्वमंगल में चैत्र माह से प्रारंभ कर फागुन तह सकल वर्ष में मनाये जानेवाले लोक-पर्वों तथा त्योहारों से सम्बन्धी जानकारी (कथा, पूजन सामग्री सूचि, चित्र, आरती, भजन, चौक, अल्पना, रंगोली आदि ) सरस-सरल प्रसाद गुण संपन्न भाषा में प्रकाशित कर लोकोपकारी कार्य किया है.
संभ्रांत-सुशिक्षित कायस्थ परिवार की बेटी, बहु, गृहणी, माँ, और दादी-नानी होने के कारण शकुन्तला जी शैशव से ही इन लोक प्रवों के आयोजन की साक्षी रही हैं, उनके संवेदनशील मन ने प्रस्तुत कृति में समस्त सामग्री को बहुरंगी चित्रों के साथ सुबोध भाषा में प्रकाशित कर स्तुत्य प्रयास किया है. यह कृति भारत के हर घर-परिवार में न केवल रखे जाने अपितु पढ़ कर अनुकरण किये जाने योग्य है. यहाँ प्रस्तुत कथाएं तथा गीत आदि पारंपरिक हैं जिन्हें आम जन के ग्रहण करने की दृष्टि से रचा गया है अत: इनमें साहित्यिकता पर समाजीकर और पारम्परिकता का प्राधान्य होना स्वाभाविक है. संलग्न चित्र शकुंतला जी ने स्वयं बनाये हैं. चित्रों का चटख रंग आकर्षक, आकृतियाँ सुगढ़, जीवंत तथा अगढ़ता के समीप हैं. इस कारण इन्हें बनाना किसी गैर कलाकार के लिए भी सहज-संभव है.
भारत अनेकता में एकता का देश है. यहाँ अगणित बोलियाँ, लोक भाषाएँ, धर्म-संप्रदाय तथा रीति-रिवाज़ प्रचलित हैं. स्वाभाविक है कि पुस्तक में सहेजी गयी सामग्री उन परिवारों के कुलाचारों से जुडी हैं जहाँ लेखिका पली-बढ़ी-रही है. अन्य परिवारों में यत्किंचित परिवर्तन के साथ ये पर्व मनाये जाना अथवा इनके अतिरिक्त कुछ अन्य पर्व मनाये जाना स्वाभाविक है. ऐसे पाठक अपने से जुडी सामग्री मुझे या लेखिका को भेजें तो वह अगले संस्करण में जोड़ी जा सकेगी. सारत: यह पुस्तक हर घर, विद्यालय और पुस्तकालय में होना चाहिए ताकि इसके मध्याम से समाज में सामाजिक मूल्य स्थापन और सद्भावना सेतु निर्माण का कार्य होता रह सके.
२३-५-२०१५
***
नवगीत:
लौटना मत मन...
*
लौटना मत मन,
अमरकंटक पुनः
बहना नर्मदा बन...
*
पढ़ा, सुना जो वही गुना
हर काम करो निष्काम.
सधे एक सब सधता वरना
माया मिले न राम.
फल न चाह,
बस कर्म किये जा
लगा आत्मवंचन...
*
कर्म योग कहता:
'जो बोया निश्चय काटेगा'.
सगा न कोई आपद-
विपदा तेरी बाँटेगा.
आँख मूँद फिर भी
जग सारा
जोड़ रहा कंचन...
*
क्यों सोचूँ 'क्या पाया-खोया'?
होना है सो हो.
अंतर क्या हों एक या कि
माया-विरंची हों दो?
सहज पके सो मीठा
मान 'सलिल'
पावस-सावन...
२५.५.२०१४
***
अंगिका दोहा मुक्तिका
*
काल बुलैले केकर, होतै कौन हलाल?
मौन अराधें दैव कै, एतै प्रातःकाल..
*
मौज मनैतै रात-दिन, हो लै की कंगाल.
संग न आवै छाँह भी, आगे कौन हवाल?
*
एक-एक कै खींचतै, बाल- पकड़ लै खाल.
नींन नै आवै रात भर, पलकें करैं सवाल..
*
कौन हमर रच्छा करै, मन में 'सलिल' मलाल.
केकरा से बिनती करभ, सब्भै हवै दलाल..
*
धूल झौंक दैं आँख में, कज्जर लेंय निकाल.
जनहित कै नाक रचैं, नेता निगलैं माल..
*
मत शंका कै नजर सें, देख न मचा बवाल.
गुप-चुप हींसा बाँट लै, 'सलिल' बजा नैं गाल..
*
ओकर कोय जवाब नै, जेकर सही सवाल.
लै-दै कै मूँ बंद कर, ठंडा होय उबाल..
२१-५-२०१३
===
गीत:
संजीव 'सलिल'
*
साजों की कश्ती से
सुर का संगीत बहा
लहर-लहर चप्पू ले
ताल देते भँवर रे....
*
थापों की मछलियाँ,
नर्तित हो झूमतीं
नादों-आलापों को
सुन मचलतीं-लूमतीं.
दादुर टरटरा रहे
कच्छप की रास देख-
चक्रवाक चहक रहे
स्तुति सुन सिहर रे....
*
टन-टन-टन घंटे का
स्वर दिशाएँ नापता.
'नर्मदे हर' घोष गूँज
दस दिश में व्यापता. .
बहते-जलते चिराग
हार नहीं मानते.
ताकत भर तम को पी
डूब हुए अमर रे...
२५-५-२०१०
***

बुधवार, 24 जुलाई 2024

जुलाई २४, सॉनेट, अंगिका, दोहा, मुक्तिका, छत्तीसगढ़ी, घनाक्षरी, हास्य, दोहा, यमक, पैरोडी

सलिल सृजन जुलाई २४ 

*

सोनेट
अंबर में संसद बादल की,
हर बादल गरज गरज बोले,
चिंता न किसी को छागल की,
रोके न रुके जो मुँह खोले।
यह बादल मन की बात करे,
जुमलेबाजी वह करता है,
यह अंध भक्ति को शीश धरे,
ले-दे सरकार पलटता है।
कुछ आपस में टकराते हैं,
मुंँह की खाते हैं नाहक कुछ,
मंदिर-मस्जिद लड़वाते हैं,
आपाधापी के वाहक कुछ।
निज मुख निज कीर्ति पड़े छलकी।
पूजा करते छल-बल-खल की।।
२४-७-२०२३
•••
सॉनेट
डम डम डम डिम, डिम डिम डम डम,
है काल शीश पर बोल रहा,
मत कर विनाश बोलो विकास,
क्यों प्रलय द्वार मनु खोल रहा?
डम डम डम डिम, डिम डिम डम डम
जंगल काटे पर्वत खोदे,
नदियों का नाश किया तू ने,
किसका बूता फिर वन बो दे,
ग्लेशियर मिटे गरमी भूने।
डम डम डम डिम, डिम डिम डम डम
मैं ही नारी-नर, मैं किन्नर,
हो क्रुद्ध कर रहा मैं विनाश,
मैं ही शंकर मैं ही कंकर,
माया-काया मैं मोह-पाश।
डम डम डम डिम, डिम डिम डम डम
हूँ अर्ध नारी-नर-ईश्वर मैं।
तू क्षणभंगुर परमेश्वर मैं।।
डम डम डम डिम, डिम डिम डम डम
२४-७-२०२३
•••
सॉनेट
प्रभुजी
*
प्रभु जी! तुम मयूर, हम कागा
बाल कृष्ण के शीश मुकुट तुम
पुरखों के मुख, क्यों निकृष्ट हम?
तुम हो सुई, हम बेबस धागा
प्रभु जी! तुम सत्ता, हम वोटर
प्रभु जी तुम श्लोक, हम बानी
तुम हो ज्ञानी, हम अज्ञानी
मत पाते तुम, हम दे ठोकर
प्रभु जी! तुम सलिला, हम पानी
तुम धरती, हम पत्ते धानी
निरभिमान तुम, हम अभिमानी
प्रभु जी! पवन, मगर हम तिनका
तुम माला हम केवल मनका
तुम मन-मालिक दास मैं तन का
२४-७-२०२२
***
विमर्श : देवता
उत्तर-
देवता, 'दिव्' धातु से बना शब्द है, अर्थ 'प्रकाशमान होना' है। भावार्थ परालौकिक शक्ति जो अमर, पराप्राकृतिक है और पूजनीय है। देवता या देव इस तरह के पुरुष और देवी इस तरह की स्त्रियों को कहा गया है। देवता परमेश्वर (ब्रह्म) का लौकिक या सगुण रूप माने गए हैं।
बृहदारण्य उपनिषद के एक आख्यान में प्रश्न है कि कितने देव हैं? उत्तर - वास्तव में देव केवल एक है जिसके कई रूप हैं। पहला उत्तर है ३३ कोटि (प्रकार); और पूछने और पूछने पर ३ (विधि-हरि-हर या ब्रम्हा-विषय-महेश) फिर डेढ और फिर केवल एक (निराकार जिसका चित्र गुप्त है अर्थात नहीं है)। वेद मन्त्रों के विभिन्न देवता है। प्रत्येक मन्त्र का ऋषि, कीलक और देवता होता है।
देवताओं का वर्गीकरण- चार मुख्य प्रकार
१. स्थान क्रम से वर्णित देवता -- द्युस्थानीय यानी ऊपरी आकाश में निवास करने वाले देवता, मध्यस्थानीय यानी अन्तरिक्ष में निवास करने वाले देवता, और तीसरे पृथ्वीस्थानीय यानी पृथ्वी पर रहने वाले देवता माने जाते हैं।
२. परिवार क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में आदित्य, वसु, रुद्र आदि को गिना जाता है।
३. वर्ग क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में इन्द्रावरुण, मित्रावरुण आदि देवता आते हैं।
४. समूह क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में सर्व देवा (स्थान, वस्तु, राष्ट्र, विश्व
आदि) की गिनती की जाती है।
ऋग्वेद में स्तुतियों से देवताओं की पहचान की जाती है। ये देवता अग्नि, वायु, इंद्र, वरुण, मित्रावरुण, अश्विनीकुमार, विश्वदेवा, सरस्वती, ऋतु, मरुत, त्वष्टा, ब्रहस्पति, सोम, दक्षिणा इन्द्राणी, वरुणानी, द्यौ, पृथ्वी, पूषा आदि हैं। बहु देवता न माननेवाले सब नामों का अर्थ परब्रह्म परमात्मा वाचक करते है। बहुदेवतावादी परमात्मात्मक रूप में इनको मानते है। पुराणों में इन देवताओं का मानवीकरण अथवा लौकिकीकरण हुआ, फ़िर इनकी मूर्तियाँ, सम्प्रदाय, अलग अलग पूजा-पाठ बनाये गए।
धर्मशास्त्र में सबसे "तिस्त्रो देवता".(तीन देवता) ब्रह्मा, विष्णु और शिव का उदय हुआ। इनका कार्य सृष्टि का निर्माण, इसका पालन और संहार माना जाता है। काल-क्रम से देवों की संख्या बढ़ती गयी। निरुक्तकार यास्क के अनुसार," देवताऒ की उत्पत्ति आत्मा से है"। महाभारत के (शांति पर्व) में आदित्यगण क्षत्रिय देवता, मरुदगण वैश्य देवता, अश्विनी गण शूद्र देवता और अंगिरस ब्राहमण देवता माने गए हैं। शतपथ ब्राह्मण में भी इसी प्रकार से देवताओं को माना गया है।
आदित्या: क्षत्रियास्तेषां विशस्च मरुतस्तथा, अश्विनौ तु स्मृतौ शूद्रौ तपस्युग्रे समास्थितौ, स्मृतास्त्वन्गिरसौ देवा ब्राहमणा इति निश्चय:, इत्येतत सर्व देवानां चातुर्वर्नेयं प्रकीर्तितम
शुद्ध बहु ईश्वरवादी धर्मों में देवताओं को पूरी तरह स्वतन्त्र माना जाता है।प्रमुख वैदिक देवता गणेश (प्रथम पूज्य), सरस्वती, श्री देवी (लक्ष्मी), विष्णु, शक्ति (दुर्गा, पार्वती), शंकर, कृष्ण, इन्द्र, सूर्य, हनुमान, ब्रह्मा, राम, वायु, वरुण, अग्नि, शनि , कार्तिकेय, शेषनाग, कुबेर, धन्वंतरि, विश्वकर्मा आदि हैं।
२४-७-२०२०
***
मुक्तक
स्वप्न दिखा, लापता राम जी
कर बिसरा दें, ख़ता राम जी
देख मुसीबत, सीता पीछे
छिप जाते हैं, सता राम जी
*
कही सुनी हो माफ़ राम जी
बचा रहे इंसाफ़ राम जी
मिले मौत को मौत न क्यों अब?
हो न ज़िन्दगी भाप राम जी
*
जीत हार है भाग खेल का शुभ प्रभात
है विराग अनुराग ज़िन्दगी शुभ प्रभात
दीन बंधु बन करो बन्दगी शुभ प्रभात
देश हरा रख बोलो हिन्दी शुभ प्रभात
२४-७-२०१७
***
हास्य रचना
ई मित्रता पर पैरोडी:
संजीव 'सलिल'
*
(बतर्ज़: अजीब दास्तां है ये,
कहाँ शुरू कहाँ ख़तम...)
*
हवाई दोस्ती है ये,
निभाई जाए किस तरह?
मिलें तो किस तरह मिलें-
मिली नहीं हो जब वज़ह?
हवाई दोस्ती है ये...
*
सवाल इससे कीजिए?
जवाब उससे लीजिए.
नहीं है जिनसे वास्ता-
उन्हीं पे आप रीझिए.
हवाई दोस्ती है ये...
*
जमीं से आसमां मिले,
कली बिना ही गुल खिले.
न जिसका अंत है कहीं-
शुरू हुए हैं सिलसिले.
हवाई दोस्ती है ये...
*
दुआ-सलाम कीजिए,
अनाम नाम लीजिए.
न पाइए न खोइए-
'सलिल' न न ख्वाब देखिए.
हवाई दोस्ती है ये...
***
दोहा सलिला
गले मिले दोहा-यमक ३
*
गरज रहे बरसे नहीं, आवारा घन श्याम
नहीं अधर में अधर धर, वेणु बजाते श्याम
*
कृष्ण वेणु के स्वर सुने, गोप सराहें भाग
सुन न सके वे जो रहे, श्री के पीछे भाग
*
हल धर कर हलधर चले, हलधर कर थे रिक्त
चषक थाम कर अधर पर, हुए अधर द्वय सिक्त
*
बरस-बरस घन बरस कर, करें धरा को तृप्त
गगन मगन बादल नचे, पर नर रहा अतृप्त
*
असुर न सुर को समझते, अ-सुर न सुर के मीत
ससुर-सुता को स-सुर लख, बढ़ा रहे सुर प्रीत
*
पग तल पर रख दो बढें, उनके पग तल लक्ष्य
हिम्मत यदि हारे नहीं, सुलभ लगे दुर्लक्ष्य
*
ताल तरंगें पवन संग, लेतीं पुलक हिलोर
पत्ते देते ताल सुन, ऊषा भाव-विभोर
*
दिल कर रहा न संग दिल, जो वह है संगदिल
दिल का बिल देता नहीं, नाकाबिल बेदिल
*
हसीं लबों का तिल लगे, कितना कातिल यार
बरबस परबस दिल हुआ, लगा लुटाने प्यार
*
दिलवर दिल वर झूमता, लिए दिलरुबा हाथ
हर दिल हर दिल में बसा, वह अनाथ का नाथ
*
रीझा हर-सिंगार पर, पुष्पित हरसिंगार
आया हरसिंगार हँस, बनने हर-सिंगार
२४-७-२०१६
***
नवगीत:
*
गैर कहोगे जिनको
वे ही
मित्र-सगे होंगे
*
ना माँगेंगे पानी-राशन
ना चाहेंगे प्यार
नहीं लगायेंगे वे तुमको
अनचाहे फटकार
शिकवे-गिले-शिकायत
तुमसे?, होगी कभी नहीं
न ही जतायेंगे वे तुम पर
कभी तनिक अधिकार
काम पड़े पर नहीं
आचरण
प्रेम-पगे होंगे
गैर कहोगे जिनको
वे ही
मित्र-सगे होंगे
*
अगर न चाहो तो वे किंचित
निकट नहीं आते
काम पड़े तो अ
अपनापन दे
तनिक न भरमाते
लेन-देन साँसों के
आने-जाने सा व्यापार
कहो कभी क्या किंचित भी वे
तुमको तरसाते?
नाम न उनके, मन-
खूँटी पर
कभी टँगे होंगे
गैर कहोगे जिनको
वे ही
मित्र-सगे होंगे
*
सगा कह रहे जिनको वे ही
रहे निभाते बैर
सम्राटों की शहजादों से
कहो रही कब खैर?
जन्मा, गोद खिलाया-पाला
जिसको देता फूँक
बाप गधे को कहता, कहिए
जीते जी क्या गैर?
वे न जगेंगे,
जिनकी खातिर
आप जगे होंगे
गैर कहोगे जिनको
वे ही
मित्र-सगे होंगे
२४.७.२०१५
***
दोहा
नेह नर्मदा कलम बन, लिखे नया इतिहास
प्राची तम का अन्त कर, देती रहे उजास
*
प्राची पर आभा दिखी, हुआ तिमिर का अन्त
अंतर्मन जागृत करें, कंत बन सकें संत
*
हास्य षट्पदी
*
फिक्र न ज्यादा कीजिए, आसमान पर भाव
भेज उसे बाजार दें, जिसको आता ताव
जिसको आता ताव, शान्त वह हो जायेगा
थैले में पैसे ले खुश होकर जाएगा
सब्जी जेबों में लेकर रोता आएगा
'सलिल' अजायबघर में सब्जी देखें बच्चे
जियें फास्ट फुड खाकर, बनें नंबरी लुच्चे
२४-७-२०१४
***
छत्तीसगढ़ी घनाक्षरी
*
अँचरा मा भरे धान, टूरा गाँव का किसान, धरती मा फूँक प्राण, पसीना बहावथे.
बोबरा-फार बनाव, बासी-पसिया सुहाव, महुआ-अचार खाव, पंडवानी भावथे..
बारी-बिजुरी बनाय, उरदा के पीठी भाय, थोरको न ओतियाय, टूरी इठलावथे.
भारत के जय बोल, माटी मा करे किलोल, घोटुल मा रस घोल, मुटियारी भावथे..
*
नवी रीत बनन दे, नीक न्याब चलन दे, होसला ते बढ़न दे, कउवा काँव-काँव.
अगुवा के कोचिया, फगुवा के लोटिया, बिटिया के बोझिया, पिपल्या के छाँव..
अगोर पुरवईया, बटोर माछी भइया, अंजोर बैल-गइया, कुठरिया के ठाँव.
नमन माटी मइया, गले लगाये सइयां , बढ़ाव बैल-गइया, सुरग होथ गाँव....
*
देस के बिकास बर, सबन उजास बर, सुरसती दाई माई, दया बरसाय दे.
नव-नवा काम होथ, देस स्वर्ग धाम होथ, धरती म धान बोथ, फसल उगाय दे..
टूरा-टूरी गुणी होथ, मिहनती-धुनी होथ, हिरदा से नेह होथ, सलीका सिखाय दे.
डौका-डौकी चाह पाल, भाड़ मा दें डाह डाल, ऊँचा ही रखें कपाल, रीत नव बनाय दे..
२४-७-२०१४
रचना विधान: वार्निक छंद, चार पद, हर पद में चार चरण, हर चरण में ८-८-८-७ पर यति, चरणान्त दीर्घ,
***
अंगिका दोहा मुक्तिका
*
काल बुलैले केकर, होतै कौन हलाल?
मौन अराधें दैव कै, एतै प्रातःकाल..
*
मौज मनैतै रात-दिन, हो लै की कंगाल.
संग न आवै छाँह भी, आगे कौन हवाल?
*
एक-एक कै खींचतै, बाल- पकड़ लै खाल.
नींन नै आवै रात भर, पलकें करैं सवाल..
*
के हमरो रच्छा करै, मन में 'सलिल' मलाल.
केकरा से बिनती करभ, सब्भै हवै दलाल..
*
धूल झौंक दैं आँख में, कज्जर लेंय निकाल.
जनहित कै नाटक रचैं, नेता निगलैं माल..
*
मत शंका कै नजर सें, देख न मचा बवाल.
गुप-चुप हींसा बाँट लै, 'सलिल' बजा नैं गाल..
*
ओकर कोय जवाब नै, जेकर सही सवाल.
लै-दै कै मूँ बंद कर, ठंडा होय उबाल..
२५-५-२०१३
***

शुक्रवार, 19 जुलाई 2024

जुलाई १९, उल्लाला, चन्द्रमणि, लघुकथा, मुक्तिका, विसर्ग, बुन्देली, अंगिका

सलिल सृजन जुलाई १९ 

*

मुक्तिका:
क्या कहूँ...
*
क्या कहूँ कुछ कहा नहीं जाता.
बिन कहे भी रहा नहीं जाता..
काट गर्दन कभी सियासत की
मौन हो अब दहा नहीं जाता..
ऐ ख़ुदा! अश्क ये पत्थर कर दे,
ऐसे बेबस बहा नहीं जाता.
सब्र की चादरें जला दो सब.
ज़ुल्म को अब तहा नहीं जाता..
हाय! मुँह में जुबान रखता हूँ.
सत्य फिर भी कहा नहीं जाता..
देख नापाक हरकतें जड़ हूँ.
कैसे कह दूं ढहा नहीं जाता??
सर न हद से अधिक उठाना तुम
मुझसे हद में रहा नहीं जाता..
१९.७.२०२३
***
लघुकथा
साथ
*
दो विरागी, गुरु और एक शिष्य कहीं जा रहे थे। मार्ग में एक सुन्दर तरुणी मिली, पैर में चोट के कारण वह चल नहीं पा रही थी। उसके अनुरोध पर गुरु जी ने उसे सहारा देकर, चिकित्सक के पास तक पहुँचा दिया।
शिष्य पीछे पीछे चलता रहा पर उसके मन में प्रश्न उठा कल तो गुरु जी उपदेश दे रहे थे कि कामिनी और कंचन से दूर रहना चाहिए, इनका सामीप्य वैराग्य पथ में बाधक है और आज अवसर मिलते ही गुरु जी ने खुद अपनी बात भुला दी। एक बार मना तक नहीं किया, न ही मुझसे कहा जबकि मैं अधिक शक्तिवान हूँ।
शिष्य बार-बार प्रश्न पूछ्ना चाहता था पर गुरु जी कहीं नाराज न हो जाएँ, सोचकर साहस न जुटा पाता। गुरु जी ने उसके चेहरे पर प्रसन्नता के स्थान पर उलझना के चिन्ह देखकर पूछा कि किस उलझन में पड़े हो? क्या जानना है?
अब शिष्य ने अपनी शंका सामने रखी। गुरु जी पहले तो ठहाका लगाकर हँसे फिर बोले 'मुझे तो घायल इंसान दिखा और उसे सहारा देने के बाद भी सही स्थान पर पहुँचाकर, उसके संपर्क से मुक्त हो गया पर तू तो बिना उसे स्पर्श किये अब तक उसी के साथ है।
इसीलिये तो कामिनी कंचन के संपर्क दे दूर रहने को कहा था पर तू कहाँ दूर रह पाया? अब भी है उसी के साथ।
१९-७-२०२०
***
छंद सलिला:
उल्लाला (चन्द्रमणि)
*
उल्लाला हिंदी छंद शास्त्र का पुरातन छंद है। वीर गाथा काल में उल्लाला
तथा रोल को मिलकर छप्पय छंद की रचना की जाने से इसकी प्राचीनता प्रमाणित
है। उल्लाला छंद को स्वतंत्र रूप से कम ही रचा गया है। अधिकांशतः छप्पय
में रोला के 4 चरणों के पश्चात् उल्लाला के 2 दल (पद या पंक्ति) रचे
जाते हैं। प्राकृत पैन्गलम तथा अन्य ग्रंथों में उल्लाला का उल्लेख छप्पय
के अंतर्गत ही है।
जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' रचित छंद प्रभाकर तथा ॐप्रकाश 'ॐकार' रचित छंद
क्षीरधि के अनुसार उल्लाल तथा उल्लाला दो अलग-अलग छंद हैं। नारायण दास
लिखित हिंदी छन्दोलक्षण में इन्हें उल्लाला के 2 रूप कहा गया है। उल्लाला
13-13 मात्राओं के 2 सम चरणों का छंद है। भानु जी ने इसका अन्य नाम
'चन्द्रमणि' बताया है। उल्लाल 15-13 मात्राओं का विषम चरणी छंद है जिसे
हेमचंद्राचार्य ने 'कर्पूर' नाम से वर्णित किया है। डॉ. पुत्तूलाल शुक्ल
इन्हें एक छंद के दो भेद मानते हैं। हम इनका अध्ययन अलग-अलग ही करेंगे।
'भानु' के अनुसार:
उल्लाला तेरा कला, दश्नंतर इक लघु भला।
सेवहु नित हरि हर चरण, गुण गण गावहु हो शरण।।
अर्थात उल्लाला में 13 कलाएं (मात्राएँ) होती हैं दस मात्राओं के अंतर पर
( अर्थात 11 वीं मात्रा) एक लघु होना अच्छा है।
दोहा के 4 विषम चरणों से उल्लाला छंद बनता है। यह 13-13 मात्राओं का सम
पाद मात्रिक छन्द है जिसके चरणान्त में यति है। सम चरणान्त में सम
तुकांतता आवश्यक है। विषम चरण के अंत में ऐसा बंधन नहीं है। शेष नियम
दोहा के समान हैं। इसका मात्रा विभाजन 8+3+2 है अंत में 1 गुरु या 2 लघु
का विधान है।
सारतः उल्लाला के लक्षण निम्न हैं-
1. 2 पदों में तेरह-तेरह मात्राओं के 4 चरण
2. सभी चरणों में ग्यारहवीं मात्रा लघु
3. चरण के अंत में यति (विराम) अर्थात सम तथा विषम चरण को एक शब्द से न जोड़ा जाए।
4. चरणान्त में एक गुरु मात्रा या दो लघु मात्राएँ हों।
5. सम चरणों (2, 4) के अंत में समान तुक हो।
6. सामान्यतः सम चरणों के अंत एक जैसी मात्रा तथा विषम चरणों के अंत में
एक सी मात्रा हो। अपवाद स्वरूप प्रथम पद के दोनों चरणों में एक जैसी तथा
दूसरे पद के दोनों चरणों में एक सी मात्राएँ देखी गयी हैं।
उदाहरण :
1.नारायण दास वैष्णव (तुक समानता: सम पद)
रे मन हरि भज विषय तजि, सजि सत संगति रैन दिनु।
काटत भव के फन्द को, और न कोऊ राम बिनु।।
2. घनानंद (तुक समानता: सम पद)
प्रेम नेम हित चतुरई, जे न बिचारतु नेकु मन।
सपनेहू न विलम्बियै, छिन तिन ढिग आनंदघन।
3. ॐ प्रकाश बरसैंया 'ॐकार' छंद क्षीरधि (तुक समानता: सम पद)
राष्ट्र हितैषी धन्य हैं, निर्वाहा औचित्य को।
नमन करूँ उनको सदा, उनके शुचि साहित्य को।।
प्रथम चरण 14 मात्राएँ,
4.जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' छंद प्रभाकर (तुक समानता: प्रथम पद के दोनों
चरण, दूसरे पद के दोनों चरण)
काव्य कहा बिन रुचिर मति, मति सो कहा बिनही बिरति।
बिरतिउ लाल गुपाल भल, चरणनि होय जू रति अचल।।
5. रामदेव लाल विभोर, छंद विधान (तुक समानता: चारों चरण, गुरु मात्रा)
सुमति नहीं मन में रहे, कुमति सदा घर में रहे।
ऊधो-ऊधो सुगना कहे, विडंबना ममता सहे।।
6. अज्ञात कवि (प्रभात शास्त्री कृत काव्यांग कल्पद्रुम)
झगड़े झाँसे उड़ गए, अन्धकार का युग गया।
उदित भानु अब हो गए, मार्ग सभी को दिख गया।।
7. डॉ. मिर्ज़ा हसन नासिर (नासिर छन्दावली)
बुरा धर्म का हाल है, सत्य हुआ पामाल है।
सुख का पड़ा अकाल है, जीवन क्या जंजाल है।।
8. संजीव 'सलिल'
दस दिश खिली बहार है, अद्भुत रूप निखार है।
हर सुर-नर बलिहार है, प्रकृति किये सिंगार है।।
9.संजीव 'सलिल'
हिंदी की महिमा अमित, छंद-कोष है अपरिमित।
हाय! देश में उपेक्षित, राजनीति से पद-दलित।।
10. संजीव 'सलिल'
मौनी बाबा बोलिए, तनिक जुबां तो खोलिए।
शीश सिपाही का कटा, गुमसुम हो मत डोलिए।।
11. संजीव 'सलिल'
'सलिल' साधना छंद की, तनिक नहीं आसान है।
सत-शिव-सुन्दर दृष्टि ही, साधक की पहचान है।।
***
अभिनव प्रयोग-
उल्लाला गीत:
जीवन सुख का धाम है
*
जीवन सुख का धाम है,
ऊषा-साँझ ललाम है.
कभी छाँह शीतल रहा-
कभी धूप अविराम है...*
दर्पण निर्मल नीर सा,
वारिद, गगन, समीर सा,
प्रेमी युवा अधीर सा-
हर्ष, उदासी, पीर सा.
हरी का नाम अनाम है
जीवन सुख का धाम है...
*
बाँका राँझा-हीर सा,
बुद्ध-सुजाता-खीर सा,
हर उर-वेधी तीर सा-
बृज के चपल अहीर सा.
अनुरागी निष्काम है
जीवन सुख का धाम है...
*
वागी आलमगीर सा,
तुलसी की मंजीर सा,
संयम की प्राचीर सा-
राई, फाग, कबीर सा.
स्नेह-'सलिल' गुमनाम है
जीवन सुख का धाम है...
१९.७.२०२०
***
दोहा गाथा ४-
शब्द ब्रह्म उच्चार
*
अजर अमर अक्षर अजित, निराकार साकार
अगम अनाहद नाद है, शब्द ब्रह्म उच्चार
*
सकल सुरासुर सामिनी, सुणि माता सरसत्ति
विनय करीन इ वीनवुँ, मुझ तउ अविरल मत्ति
सुरासुरों की स्वामिनी, सुनिए माँ सरस्वति
विनय करूँ सर नवाकर, निर्मल दीजिए मति
संवत् १६७७ में रचित ढोला मारू दा दूहा से उद्धृत माँ सरस्वती की वंदना के उक्त दोहे से इस पाठ का श्रीगणेश करते हुए विसर्ग का उच्चारण करने संबंधी नियमों की चर्चा करने के पूर्व यह जान लें कि विसर्ग स्वतंत्र व्यंजन नहीं है, वह स्वराश्रित है। विसर्ग का उच्चार विशिष्ट होने के कारण वह पूर्णतः शुद्ध नहीं लिखा जा सकता। विसर्ग उच्चार संबंधी नियम निम्नानुसार हैं-
१. विसर्ग के पहले का स्वर व्यंजन ह्रस्व हो तो उच्चार त्वरित "ह" जैसा तथा दीर्घ हो तो त्वरित "हा" जैसा करें।
२. विसर्ग के पूर्व "अ", "आ", "इ", "उ", "ए" "ऐ", या "ओ" हो तो उच्चार क्रमशः "ह", "हा", "हि", "हु", "हि", "हि" या "हो" करें।
यथा केशवः =केशवह, बालाः = बालाह, मतिः = मतिहि, चक्षुः = चक्षुहु, भूमेः = भूमेहि, देवैः = देवैहि, भोः = भोहो आदि।
३. पंक्ति के मध्य में विसर्ग हो तो उच्चार आघात देकर "ह" जैसा करें।
यथा- गुरुर्ब्रम्हा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः.
४. विसर्ग के बाद कठोर या अघोष व्यंजन हो तो उच्चार आघात देकर "ह" जैसा करें।
यथा- प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः.
५. विसर्ग पश्चात् श, ष, स हो तो विसर्ग का उच्चार क्रमशः श्, ष्, स् करें।
यथा- श्वेतः शंखः = श्वेतश्शंखः, गंधर्वाःषट् = गंधर्वाष्षट् तथा
यज्ञशिष्टाशिनः संतो = यज्ञशिष्टाशिनस्संतो आदि।
६. "सः" के बाद "अ" आने पर दोनों मिलकर "सोऽ" हो जाते हैं।
यथा- सः अस्ति = सोऽस्ति, सः अवदत् = सोऽवदत्.
७. "सः" के बाद "अ" के अलावा अन्य वर्ण हो तो "सः" का विसर्ग लुप्त हो जाता है।
८. विसर्ग के पूर्व अकार तथा बाद में स्वर या मृदु व्यंजन हो तो अकार व विसर्ग मिलकर "ओ" बनता है।
यथा- पुत्रः गतः = पुत्रोगतः.
९. विसर्ग के पूर्व आकार तथा बाद में स्वर या मृदु व्यंजन हो तो विसर्ग लुप्त हो जाता है।
यथा- असुराःनष्टा = असुरानष्टा .
१०. विसर्ग के पूर्व "अ" या "आ" के अलावा अन्य स्वर तथा ुसके बाद स्वर या मृदु व्यंजन हो तो विसर्ग के स्थान पर "र" होगा।
यथा- भानुःउदेति = भानुरुदेति, दैवैःदत्तम् = दैवैर्दतम्.
११. विसर्ग के पूर्व "अ" या "आ" को छोड़कर अन्य स्वर और उसके बाद "र" हो तो विसर्ग के पूर्व आनेवाला स्वर दीर्घ हो जाता है।
यथा- ॠषिभिःरचितम् = ॠषिभी रचितम्, भानुःराधते = भानूराधते, शस्त्रैःरक्षितम् = शस्त्रै रक्षितम्।
उच्चार चर्चा को यहाँ विराम देते हुए यह संकेत करना उचित होगा कि उच्चार नियमों के आधार पर ही स्वर, व्यंजन, अक्षर व शब्द का मेल या संधि होकर नये शब्द बनते हैं। दोहाकार को उच्चार नियमों की जितनी जानकारी होगी वह उतनी निपुणता से निर्धारित पदभार में शब्दों का प्रयोग कर अभिनव अर्थ की प्रतीति करा सकेगा। उच्चार की आधारशिला पर हम दोहा का भवन खड़ा करेंगे।
दोहा का आधार है, ध्वनियों का उच्चार ‌
बढ़ा शब्द भंडार दे, भाषा शिल्प सँवार ‌ ‌
शब्दाक्षर के मेल से, प्रगटें अभिनव अर्थ ‌
जिन्हें न ज्ञात रहस्य यह, वे कर रहे अनर्थ ‌ ‌
गद्य, पद्य, पिंगल, व्याकरण और छंद
गद्य पद्य अभिव्यक्ति की, दो शैलियाँ सुरम्य ‌
बिंब भाव रस नर्मदा, सलिला सलिल अदम्य ‌ ‌
जो कवि पिंगल व्याकरण, पढ़े समझ हो दक्ष ‌
बिरले ही कवि पा सकें, यश उसके समकक्ष ‌ ‌
कविता रच रसखान सी, दे सबको आनंद ‌
रसनिधि बन रसलीन कर, हुलस सरस गा छंद ‌ ‌
भाषा द्वारा भावों और विचारों की अभिव्यक्ति की दो शैलियाँ गद्य तथा पद्य हैं। गद्य में वाक्यों का प्रयोग किया जाता है जिन पर नियंत्रण व्याकरण करता है। पद्य में पद या छंद का प्रयोग किया जाता है जिस पर नियंत्रण पिंगल करता है।
कविता या पद्य को गद्य से अलग तथा व्यवस्थित करने के लिये कुछ नियम बनाये गये हैं जिनका समुच्चय "पिंगल" कहलाता है। गद्य पर व्याकरण का नियंत्रण होता है किंतु पद्य पर व्याकरण के साथ पिंगल का भी नियंत्रण होता है।
छंद वह सांचा है जिसके अनुसार कविता ढलती है। छंद वह पैमाना है जिस पर कविता नापी जाती है। छंद वह कसौटी है जिस पर कसकर कविता को खरा या खोटा कहा जाता है। पिंगल द्वारा तय किये गये नियमों के अनुसार लिखी गयी कविता "छंद" कहलाती है। वर्णों की संख्या एवं क्रम, मात्रा, गति, यति आदि के आधार पर की गयी रचना को छंद कहते हैं। छंद के तीन प्रकार मात्रिक, वर्णिक तथा मुक्त हैं। मात्रिक व वर्णिक छंदों के उपविभाग सममात्रिक, अर्ध सममात्रिक तथा विषम मात्रिक हैं।
दोहा अर्ध सम मात्रिक छंद है। मुक्त छंद में रची गयी कविता भी छंदमुक्त या छंदहीन नहीं होती।
छंद के अंग
छंद की रचना में वर्ण, मात्रा, पाद, चरण, गति, यति, तुक तथा गण का विशेष योगदान होता है।
वर्ण- किसी मूलध्वनि को व्यक्त करने हेतु प्रयुक्त चिन्हों को वर्ण या अक्षर कहते हैं, इन्हें और विभाजित नहीं किया जा सकता।
मात्रा- वर्ण के उच्चारण में लगे कम या अधिक समय के आधार पर उन्हें ह्रस्व, लघु या छोटा‌ तथा दीर्घ या बड़ा ऽ कहा जाता है।
इनकी मात्राएँ क्रमशः एक व दो गिनी जाती हैं।
उदाहरण- गगन = ।‌+। ‌+। ‌ = ३, भाषा = ऽ + ऽ = ४.
पाद- पद, पाद तथा चरण इन शब्दों का प्रयोग कभी समान तथा कभी असमान अर्थ में होता है। दोहा के संदर्भ में पद का अर्थ पंक्ति से है। दो पंक्तियों के कारण दोहा को दो पदी, द्विपदी, दोहयं, दोहड़ा, दूहड़ा, दोग्धक आदि कहा गया। दोहा के हर पद में दो, इस तरह कुल चार चरण होते हैं। प्रथम व तृतीय चरण विषम तथा द्वितीय व चतुर्थ चरण सम कहलाते हैं।
गति- छंद पठन के समय शब्द ध्वनियों के आरोह व अवरोह से उत्पन्न लय या प्रवाह को गति कहते हैं। गति का अर्थ काव्य के प्रवाह से है। जल तरंगों के उठाव-गिराव की तरह शब्द की संरचना तथा भाव के अनुरूप ध्वनि के उतार चढ़ाव को गति या लय कहते हैं। हर छंद की लय अलग अलग होती है। एक छंद की लय से अन्य छंद का पाठ नहीं किया जा सकता।
यति- छंद पाठ के समय पूर्व निर्धारित नियमित स्थलों पर ठहरने या रुकने के स्थान को यति कहा जाता है। दोहा के दोनों चरणों में १३ व ११ मात्राओं पर अनिवार्यतः यति होती है। नियमित यति के अलावा भाव या शब्दों की आवश्यकता अनुसार चजण के बीच में भी यति हो सकती है। अल्प या अर्ध विराम यति की सूचना देते है।
तुक- दो या अनेक चरणों की समानता को तुक कहा जाता है। तुक से काव्य सौंदर्य व मधुरता में वृद्धि होती है। दोहा में सम चरण अर्थात् दूसरा व चौथा चरण सम तुकांती होते हैं।
गण- तीन वर्णों के समूह को गण कहते हैं। गण आठ प्रकार के हैं। गणों की मात्रा गणना के लिये निम्न सूत्र में से गण के पहले अक्षर तथा उसके आगे के दो अक्षरों की मात्राएँ गिनी जाती हैं। गणसूत्र- यमाताराजभानसलगा।
क्रम गण का नाम अक्षर मात्राएँ
१. यगण यमाता ‌ ऽऽ = ५
२. मगण मातारा ऽऽऽ = ६
३. तगण ताराज ऽऽ ‌ = ५
४. रगण राजभा ऽ ‌ ऽ = ५
५. जगण जभान ‌ ऽ ‌ = ४
६. भगण भानस ऽ ‌ ‌ = ४
७. नगण नसल ‌ ‌ ‌ = ३
८. सगण सलगा ‌ ‌ ऽ = ४
उदित उदय गिरि मंच पर , रघुवर बाल पतंग । ‌ - प्रथम पद
प्रथम विषम चरण यति द्वितीय सम चरण यति
विकसे संत सरोज सब , हरषे लोचन भ्रंग ‌‌‌ ‌ । - द्वितीय पद
तृतीय विषम चरण यति चतुर्थ सम चरण यति
९.५.२०१३
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गीत:
चाहता हूँ ...
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काव्यधारा जगा निद्रा से कराता सृजन हमसे.
भाव-रस-राकेश का स्पर्श देता मुक्ति तम से
कथ्य से परिक्रमित होती कलम ऊर्जस्वित स्वयं हो
हैं न कर्ता, किन्तु कर्ता बनाते खुद को लगन से
ह्रदय में जो सुप्त, वह झंकार बनना चाहता हूँ
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
*
गति-प्रगति मेरी नियति है, मनस में विस्फोट होते
व्यक्त होते काव्य में जो, बिम्ब खोकर भी न खोते
अणु प्रतीकों में उतर परिक्रमित होते परिवलय में
रुद्ध द्वारों से अबाधित चेतना-कण तिमिर धोते
अहंकारों के परे हंकार होना चाहता हूँ
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
*
लय विलय होती प्रलय में, मलय नभ में हो समाहित
अनल का पावन परस, पा धरा अधरा हो निनादित
पञ्च प्यारे दस रथों का, सारथी नश्वर-अनश्वर
आये-जाये वसन तजकर सलिल-धारा हो प्रवाहित
गढ़ रहा आकर, खो निर-आकार होना चाहता हूँ
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
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टीप: पञ्च प्यारे= पञ्च तत्व, दस रथों = ५ ज्ञानेन्द्रिय
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बुन्देली मुक्तिका:
मंजिल की सौं...
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मंजिल की सौं, जी भर खेल
ऊँच-नीच, सुख-दुःख. हँस झेल
रूठें तो सें यार अगर
करो खुसामद मल कहें तेल
यादों की बारात चली
नाते भए हैं नाक-नकेल
आस-प्यास के दो कैदी
कार रए साँसों की जेल
मेहनतकश खों सोभा दें
बहा पसीना रेलमपेल
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अंगिका दोहा मुक्तिका
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काल बुलैले केकर, होतै कौन हलाल?
मौन अराधें दैव कै, एतै प्रातःकाल..
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मौज मनैतै रात-दिन, हो लै की कंगाल.
संग न आवै छाँह भी, आगे कौन हवाल?
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एक-एक कै खींचतै, बाल- पकड़ लै खाल.
नींन नै आवै रात भर, पलकें करैं सवाल..
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कौन हमर रच्छा करै, मन में 'सलिल' मलाल.
केकरा से बिनती करभ, सब्भै हवै दलाल..
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धूल झौंक दैं आँख में, कज्जर लेंय निकाल.
जनहित कै नाक रचैं, नेता निगलैं माल..
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मत शंका कै नजर सें, देख न मचा बवाल.
गुप-चुप हींसा बाँट लै, 'सलिल' बजा नैं गाल..
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ओकर कोय जवाब नै, जेकर सही सवाल.
लै-दै कै मूँ बंद कर, ठंडा होय उबाल..
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टीप: अंगिका से अधिक परिचय न होने पर भी प्रयास किया है. जानकार बंधु त्रुटि इंगित करें तो सुधार सकूँगा.