कुल पेज दृश्य

वर्ण लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
वर्ण लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 22 नवंबर 2025

नव चित्रगुप्त चालीसा,कायस्थ, गोत्र, वर्ण, जाति, अल्ल, कुलनाम, सरनेम

।। ॐ परात्पर परब्रह्म श्री चित्रगुप्त चालीसा ।। 

दोहा
सुमिर परात्पर ब्रह्म को, विधि-हरि-हर के संग
मातृ त्रयी करिए कृपा, वश में रहे अनंग।०१।
ॐ अनाहद नाद को, श्वास-श्वास उच्चार।
आजीवन सुन सकें हम, मधुकर ध्वनि गुंजार।०२।
सदय वाग्देवी रहें, करें कृपा विघ्नेश। 
ऋद्धि-सिद्धि वरदान दें, हों प्रसन्न कर्मेश।०३।
हों कृपालु अवतार सब, गृह-नक्षत्र सुसंत। 
भू-गौ-भाषा-नर्मदा, छंद-व्याकरण-कंत।०४।
मानव के कल्याण हित, करें काम निष्काम। 
वेद-उपनिषद हृदय रख, पहुँचें प्रभु के धाम।०५।
चौपाई  
जयति-जय निराकार-साकार। तुम्हारी महिमा अपरंपार।०१।
हो अनंत अविनाशी भगवन। संत ॐ कह करते सुमिरन।०२।    
श्यामल अंतरिक्ष में व्याप्त। थे एकाकी ईश्वर आप्त।०३। 
सत न असत, नहिं जन्म-मरण था। तम ने तम का किया वरण था ।०४। 
की इच्छा तब प्रभु ने मन में। गुप्त प्रगट हों मरें न जनमें।०५। 
एक रहा, होना अनेक है। अनहद नादित मात्र एक है ।०६। 
कण-कण चित्रगुप्त अनुप्राणित। निराकार साकार सुभावित ।०७। 
चित्रगुप्त की आदि शक्तियाँ। परा व अपरा दिव्य पत्नियाँ।०८।  
इरावती-नंदिनी कहे जग। जन्म-मरण पथ पर रखकर पग।०९।     
ग्रह-उपग्रह, ब्रह्मांड बनाए। जड़-चेतन प्रभु ने उपजाए।१०।
तीन अंश तब निज प्रगटाए। विधि-हरि-हर त्रय देव कहाए।११।
शारद-उमा-रमा जब पाएँ। जनमें-पालें-नाश कराएँ। १२। 
देव त्रयी के कर्म सुनिश्चित। भूल-चूक हो तो हों शापित।१३।             
लें अवतार धर्म-पालन कर। जाते हैं निज लोक समय पर।१४।
नाद तरंगें अनगिन घूमें। मिलें-अलग हो टकरा झूमें।१५। 
बनतीं कण निर्भार न दिखतीं। मिले भार तब आप विकसतीं।१६।
कण-से कण जुड़ पंचतत्व हों, अंतर्निहित अनंत सत्व हों।१७। 
ऊर्जस्वित मायापति पल-पल। माया-मोह सुमन में परिमल।१८।   
अक्षय अजर अमर अविनाशी। ईश घोर तम दैव प्रकाशी।१९।  
चित्त-वृत्ति सुख-दुख की कारक। निराकार-साकार निवारक।२०। 
लय-गति-नाद तरंग-लहर-रस। कर निर्जीव सजीव रहें बस।२१।
सुप्त चेतना जाग्रत करते। गुप्त चित्त में 'चित्र' विचरते।२२।
अनिल अनल भू गगन सलिल मिल। लोक बनाए सृष्टि सके खिल।२३।
सूक्ष्म जीव फिर 'मत्स्य' हुए प्रभु। 'कच्छप' अरु 'वाराह' हुए विभु।२४।    
पाँच खंड में बाँटी धरती। बीच समुद में लगे तैरती।२५। 
ले 'नरसिंह'-'वामन' अवतार। हरा 'परशु' ने भू का भार।२६।
हुआ सृष्टि विस्तार अनवरत। ब्रह्म नहीं कर सके व्यवस्थित।२७।  
अंकपात तप कर फल पाया। असि-मसि, अक्षर-अंक सुहाया।२८।
बारह मास सदृश बारह सुत। बारह सुतवधु राशि धर्म युत।२९।     
सतयुग में सुखमय संसार। अपना कर वैदिक आचार।३०।
त्रेता सुर-नर्-असुर बढ़े जब। मनमानी की ओर बढ़े तब।३१। 
कर्म-दंड की नीति बनाई। जो बोए सो काटे भाई।३२।
लोभी नृप सौदास कुचाली। चरण-शरण आ शुभ गति पा ली।३३।
पूजन कर श्री राम अवध में। पूर्णकाम हो थके न मग में।३४। 
कान्हा अंकपात में आए। कायथ-धर्म सुशिक्षा पाए।३५।      
काम अकाम करे प्रभु अर्पण। मिले न फल, फिर हो नहिं तर्पण।३६।
काम सकाम भोगती काया। मर जनमे भोगे फल पाया।३७।
कर्म कुशलता योग प्रणेता। गुण-कर्मों से वर्ण विजेता।३८।
हो परमात्म आत्म काया बस। हो 'कायस्थ' जगत गाए जस।३९।    
कर पितु-माँ द्वय कृपा तारिए। भक्ति-मुक्ति दे भ्रम निवारिए।४०।
दोहा 
चित्रगुप्त जी की कृपा, सुर-नर-किन्नर चाह। 
कर्म कुशल हों जगत में, मिले सफलता वाह।०६। 
श्यामल-मनहर छवि-छटा, जहाँ वहीं हैं आप। 
गौर दिव्य ममतामयी, माँ हरतीं संताप।०७।
विष अणु को अमृत करें, हरि-शिव होकर नित्य।
अनल अनिल नभ भू 'सलिल', बसते इष्ट अनित्य।०८। 
चित्रगुप्त प्रभु हों सदय, दें निश-दिन आशीष। 
शीश उठा हम जी सकें, हो मतिमान मनीष।०९।
कर्म-धर्म को जानकर, करें सत्य स्वीकार। 
न्याय-नीति पथ पर चलें, पा-दें ममता-प्यार।१०।
कायथ कुल गौरव कथा, कहे सकल संसार। 
ज्ञान-परिश्रम-त्याग वर, हो भव से उद्धार।।  
।। इति श्री आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' रचित चित्रगुप्त चालीसा संपूर्ण ।।  
००० 


मानवता के काम आ, कर बुराई का अंत। 
श्री वास्तव में पा सकें, दें प्रभु भक्ति अनंत।७।
चित्रगुप्त     
    
  

चित्रगुप्त और कायस्थ कौन हैं?? 
*
            परात्पर परब्रह्म निराकार हैं। जो निराकार हो उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता अर्थात उसका चित्र प्रगट न होकर गुप्त रहता है। कायस्थों के इष्ट यही चित्रगुप्त (परब्रह्म) हैं जो सृष्टि के निर्माता और समस्त जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों का फल देते हैं। पुराणों में सृष्टि का वर्णन करते समय कोटि-कोटि ब्रह्मांड बताए गए हैं उनमें से हर एक का ब्रह्मा-विष्णु-महेश उसका निर्माण-पालन और नाश करता है अर्थात कर्म करता है। पुराणों में इन तीनों देवों को समय-समय पर शाप मिलने, भोगने और मुक्त होने की अवतार कथाएँ भी हैं। इन तीनों के कार्यों का विवेचन कर फल देनेवाला इनसे उच्चतर ही हो सकता है। इन तीनों के आकार वर्णित हैं, उच्चतर शक्ति ही निराकार हो सकती है। इसका अर्थ यह है कि देवाधिदेव चित्रगुप्त निराकार है त्रिदेवों सहित सृष्टि के सभी जीवों-जातकों के कर्म फल दाता हैं। बौद्ध और जैन धर्मों में गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी की जातक कथाएँ विविध योनियों में उनके जन्म और कर्म पर केंद्रित हैं। इससे यह स्पष्ट है कि कोई उच्चतर शक्ति उन्हें इन  योनियों में भेजती है।  

             कायस्थ की परिभाषा 'काया स्थित: स: कायस्थ' अर्थात 'जो काया में रहता है, वह कायस्थ है। इसके अनुसार सृष्टि के सभी अमूर्त-मूर्त, सूक्ष्म-विराट जीव/जातक कायस्थ हैं। 

            काया (शरीर) में कौन रहता है जिसके न रहने पर काया को मिट्टी कहा जाता है? उत्तर है आत्मा, शरीर में आत्मा न रहे तो उसे 'मिट्टी' कहा जाता है। आध्यात्म में सारी सृष्टि को भी मिट्टी कहा गया है। 

            आत्मा क्या है? आत्मा सो परमात्मा अर्थात आत्मा ही परमात्मा है। सार यह कि जब परमात्मा का अंश किसी काया का निर्माण कर आत्मा रूप में उसमें रहता है तब उसे 'कायस्थ' कहा जाता है। जैसे ही आत्मा शरीर छोड़ता है शरीर मिट्टी (नाशवान) हो जाता है, आत्मा अमर है। इस अर्थ में सकल सृष्टि और उसके सब जीव/जातक कण-कण, तृण-तृण, जीव-जन्तु, पेड़-पौधे, चर-अचर, स्थूल-सूक्ष्म, पशु-पक्षी, सुर-नर-असुर, ऋक्ष, गंधर्व, किन्नर, वानर आदि कायस्थ हैं। 

कायस्थ और वर्ण 

            मानव कायस्थों का उनकी योग्यता और कर्म के आधार चार वर्णों में विभाजन किया गया है। गीता में श्री कृष्ण कहते हैं- ''चातुर्वण्य मया सृष्टम् गुण-कर्म विभागश: अर्थात चारों वर्ण गुण-और कर्म के अनुसार मेरे द्वारा बनाए गए हैं। इसका अर्थ यह है कि कायस्थ ही अपनी बुद्धि, पराक्रम, व्यवहार बुद्धि और समर्पण के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण में  विभाजित किए गए हैं। इसलिए वे चारों वर्णों में विवाह संबंध स्थापित करते रहे हैं। पुराणों के अनुसार चित्रगुप्त जी के दो विवाह देव कन्या नंदिनी और नाग कन्या इरावती से होना भी यही दर्शाता है कि वे और उनके वंशज वर्ण व्यवस्था से परे, वर्ण व्यवस्था के नियामक हैं। एक बुंदेली कहावत है 'कायथ घर भोजन करे बचे न एकहु जात' इसका अर्थ यही है कि कायस्थ के घर भोजन करने का सौभाग्य मिलने का अर्थ है समस्त जातियों के घर भोजन करने का सम्मान मिल गया। जैसे देव नदी गंगा में नहाने से सब नदियों में नहाने का पुण्य मिलने की जनश्रुति गंगा को सब नदियों से श्रेष्ठ बताती है, वैसे ही यह कहावत 'कायस्थ' को सब वर्णों और जातियों से श्रेष्ठ बताती है। 

जाति 

            बुंदेली कहावत 'जात बता गया' का अर्थ है कि संबंधित व्यक्ति स्वांग अच्छाई का कर था था किंतु उसके किसी कार्य से उसकी असलियत सामने आ गई। यहाँ 'जात' का अर्थ व्यक्ति का असली गुण या चरित्र है। एक जैसे गुण या कर्म करने वाले व्यक्तियों का समूह 'जाति' कहलाता है। कायस्थ चारों वर्णों के नियत कार्य निपुणता से करने की सामर्थ्य रखने के कारण सभी जातियों में होते हैं। इसीलिए कायस्थों के गोत्र, अल्ल, कुलनाम, वंश नाम चारों वर्णों में मिलते हैं। संस्कृत की धातु 'जा' का अर्थ जन्म देना है। 'जा' से जाया (जग जननी का एक नाम, जन्म दिया), जच्चा (जन्म देनेवाली), जात (एक समान गुण वाले), जाति (एक समान कर्म करनेवाले) आदि शब्द बने हैं। स्पष्ट है कि जाति या वर्ण 'जन्मना' नहीं 'कर्मणा' निर्धारित होती हैं। सांस्कृतिक पराभव काल में विदेशी शक्तियों के अधीन हो जाने पर शिक्षा और ज्ञान की रह अवरुद्ध हो जाने के कारण जाति और वर्ण को जन्म आधारित माँ लिया गया। 

कुलनाम और अल्ल 

            प्रभु चित्रगुप्त जी के १२ पुत्र बताए गए हैं। उनके वंशजों ने अपनी अलग पहचान के लिए अपने-अपने मूल पुरुष के नाम को कुलनाम की तरह अपने नाम के साथ संयुक्त किया। तदनुसार कायस्थों के १२ कुल चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चित्रचारु अरुण,अतीन्द्रिय,भानु, विभानु, विश्वभानु और वीर्यवान हुए। ये कुलनाम संबंधित जातक की विशेषताएँ बताते हैं। नाम चारु = सुंदर, सुचारु = सुदर्शन, चित्र = मनोहर, मतिमान = बुद्धिमान, हिमवान = समृद्ध, चित्रचारु = दर्शनीय, अरुण = प्रतापी, अतीन्द्रिय = ध्यानी, भानु = तेजस्वी, विभानु = यश का प्रकाश फैलानेवाले, विश्वभानु = विश्व में सूर्य की तरह जगमगानेवाले तथा वीर्यवान = सबल, पराक्रमी, बहु संततिवान।

गोत्र 

            चित्रगुप्त जी के १२ पुत्र १२ महाविद्याओं का अध्ययन करने के लिए १२ गुरुओं के शिष्य हुए। गुरु का नाम शिष्यों का गोत्र तथा गुरु की इष्ट शक्ति (देव-देवी) शिष्यों की आराध्या शक्ति हुई। आरंभ में एक गोत्र के जातकों में विवाह संबंध वर्जित था। यह नियम पूरी तरह विज्ञान और तर्क सम्मत था। वर और वधु दो भिन्न कुल गुरुओं से दो भिन्न विषयों-विधाओं की शिक्षा प्राप्त कर विवाह करते तो उनके बच्चों को माता-पिता दोनों से उन विषयों का ज्ञान मिलता। बच्चे एक अन्य गुरु से अन्य विषय का ज्ञान पाते और उनका जीवन साथी नए विषय को सीखकर अगली पीढ़ी को अधिक ज्ञानवान बनाता। इस तरह हर पीढ़ी अपने से पूर्वजों से अधिक ज्ञानवान होती।    

            कालांतर में विदेश आक्रांताओं से पराजित होने पर सत्ता-सूत्र सम्हाले कायस्थों को स्थान परिवर्तन करना पड़ा। अपने योग्यता के बल पर नए स्थान पर उन्हें आजीविका तो मिल गई किंतु स्थानीय समाज की वर-कन्या न मिलने पर कायस्थों को विवशता वश एक गोत्र में अथवा अहिन्दुओं से विवाह करना पड़ा।   

आधा मुसलमान/आधा अंग्रेज

            फारसी/उर्दू सीखकर शासन सूत्र सम्हालने के लिए कायस्थों को क्रमश: मुगल / अंग्रेज शासकों की भाषा, रहन-सहन और खान-पान अपनाना पड़ा। जिन्हें यह अवसर नहीं मिल सका वे कायस्थों के निंदक हो गए और उन्होंने कायस्थों को 'आधा मुसलमान' कहा। बाद अंग्रेज शासन होने पर कायस्थों ने अंग्रेजी सीखकर शासन-प्रशासन में स्थान बनाया तो उन्हें 'आधा अंग्रेज' कहा गया। स्पष्ट है कि कायस्थों ने देश-काल की परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढाला आउए 'जैसा देश, वैसा वेश' के सिद्धांत को अपनाकर सफलता पाई।   

अल्ल 

               एक गोत्र में विवाह की मजबूरी होने पर कायस्थों ने आनुवंशिक शुद्धता के लिए एक नई राह अपनाई। कायस्थों ने एक 'अल्ल' में विवाह न करने की परंपरा को जन्म दिया। कुल के पराक्रमी व्यक्ति, मूल निवास स्थान, गुरु अथवा आराध्य देव के नाम अथवा उनसे संबंधित गुप्त शब्द को अपनाने वाले समूह के सदस्य उसे अपनी 'अल्ल' (पहचान चिन्ह) मानते हैं। यह एक महापरिवार के सदस्यों का कूट शब्द (कोड वर्ड) है जिससे वे एक दूसरे को पहचान सकें। एक अल्ल के दो जातकों का आपस में विवाह वर्जित है। ऐसी ही परिस्थितियों में गहोई वैश्यों ने अल्ल-प्रथा को 'आँकने' नाम देकर अपनाया और समान आँकने वाले जातकों में विवाह निषिद्ध किया।  

वर्तमान में नई पीढ़ी अपने इतिहास, गोत्र, अल्ल आदि से अनभिज्ञ होने के कारण वर्जनाओं का पालन नहीं कर पा रही। एक अल्ल या गोत्र में विवाह वैज्ञानिक दृष्टि से भावी पीढ़ी में आनुवंशिक रोगों की संभावना बढ़ाता है। इससे बचने का उपाय अन्य जाति, धर्म या देश में विवाह करना भी है। कायस्थों में भिन्न मत, वाद, धर्म, पंथ के जातकों के साथ विवाह करने की परंपरा चिरकाल से रही है। इष्टदेव चित्रगुप्त जी के दो विवाह दो भिन्न संस्कृतियों की कन्याओं से होना विश्व मानवता की एकता की द्रक्षति से महत्वपूर्ण विरासत है।         
    
कायस्थों के कुलनाम (सरनेम), अल्ल (वंश नाम)  और उनके अर्थ 

            कायस्थों को बुद्धिजीवी, मसिजीवी, कलम का सिपाही आदि विशेषण दिए जाते रहे हैं। भारत के धर्म-अध्यात्म, शासन-प्रशासन, शिक्षा-समाज हर क्षेत्र में कायस्थों का योगदान सर्वोच्च और अविस्मरणीय है। कायस्थों के कुलनाम व उपनाम उनके कार्य से जुड़े रहे हैं। पुराण कथाओं में भगवान चित्रगुप्त के १२ पुत्र चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चित्रचारु अरुण,अतीन्द्रिय,भानु, विभानु, विश्वभानु और वीर्यवान कहे गए हैं। ये सब  

            गुणाधारित उपनाम विविध विविध जातियों के गुणवानों द्वारा प्रयोग किए जाने के कारण अग्निहोत्री व फड़नवीस ब्राह्मणों, वर्मा जाटों, माथुर वैश्यों, सिंह बहादुर आदि राजपूतों में भी प्रयोग किए जाते हैं। कायस्थ यह सत्य जानने के कारण अन्तर्जातीय विवाह से परहेज नहीं करते। समय के साथ चलते हुए ज्ञान-विज्ञान, शासन-प्रशासन के यंग होते हैं। इसीलिए वे आधे मुसलमान और आधे अंग्रेज भी कहे गए। लोकोक्ति 'कायथ घर भोजन करे बचे न एकहु जात' का भावार्थ यही है कि कायस्थ के संबंधी हर जाति में होते हैं, कायस्थ के घर खाया तो उसके सब संबंधियों के घर भी खा लिया। 

            कायस्थों के अवदान को देखते हुए उन्हें समय-समय पर उपनाम या उपाधियाँ दी गईं। कुछ कुलनाम और उनके अर्थ निम्न हैं-

अंबष्ट/हिमवान- अंबा (दुर्गा) को इष्ट (आराध्य) माननेवाले, हिम/बर्फ वाले हिमालय (पार्वती का जन्मस्थल) में जन्मे पार्वती भक्त । 
अग्निहोत्री- नित्य अग्निहोत्र करनेवाले। 
अष्ठाना/अस्थाना- बाहुबल से स्थान (क्षेत्र) जीतकर राज्य स्थापित करनेवाले। 
आडवाणी- सिन्धी कायस्थ। 
करंजीकर- करंज क्षेत्र निवासी, जिनके हाथ में उच्च अधिकार होता था।  कायस्थ/ब्राह्मण  उच्च शिक्षित थे, वे कर (हाथ) की कलम से फैसले करते थे। वे उपनाम के अंत में 'कर' लगाते थे।  
कर्ण/चारुण- महाभारत काल में राजा कर्ण के विश्वासपात्र तथा उनके प्रतिनिधि के नाते शासन करनेवाले।
कानूनगो- कानूनों का ज्ञान रखनेवाले, कानून बनानेवाले।
कुलश्रेष्ठ/अतीन्द्रिय- इंद्रियों पर विजय पाकर उच्च/कुलीन वंशवाले।
कुलीन- बंगाल-उड़ीसा निवासी उच्च कुल के कायस्थ।  
खरे- खरा (शुद्ध) आचार-व्यवहार रखनेवाले।
गौर- हर काम पर गौर (ध्यान) पूर्वक करनेवाले। 
घोष- श्रेष्ठ कार्यों हेतु जिनका  जयघोष किया जाता रहा।
चंद्रसेनी- महाराष्ट्र-गुजरात निवासी चंद्रवंशी कायस्थ।  
चिटनवीस- उच्च अधिकार प्राप्त जन जिनकी लिखी चिट (कागज की पर्ची) का पालन राजाज्ञा के तरह होता था। ये अधिकतर कायस्थ व ब्राह्मण होते थे। 
ठाकरे/ठक्कर/ठाकुर/ठकराल- ठाकुर जी (साकार ईश्वर) को इष्ट माननेवाले, उदड़हों के करण देश के अलग-अलग हिस्सों में बस गए और नाम भेद हो गया। 
दत्त- ईश्वर द्वारा दिया गया, प्रभु कृपया से प्राप्त।    
दयाल- दूसरों के प्रति दया भाव से युक्त।
दास- ईश्वर भक्त, सेवा वृत्ति (नौकरी) करनेवाले।
नारायण- विष्णु भक्त। 
निगम/चित्रचारु- आगम-निगम ग्रंथों के जानकार, उच्च आध्यात्मिक वृत्ति के करण गम (दुख) न करनेवाले। सुंदर काया वाले।  
प्रसाद- ईश्वरीय कृपया से प्राप्त, पवित्र, श्रेष्ठ।। 
फड़नवीस- फड़ = सपाट सतह, नवीस = बनानेवाला, राज्य की समस्याएँ हल कार राजा का काम आसान बनाते थे । ये अधिकतर कायस्थ व ब्राह्मण होते थे। 
बख्शी- जिन्हें बहुमूल्य योगदान के फलस्वरूप शासकों द्वारा जागीरें बख्शीश (ईनाम) के रूप में दी गईं।
ब्योहार- सद व्यवहार वृत्ति से युक्त।
बसु/बोस- बसु की उत्पत्ति वसु अर्थात समृद्ध व तेजस्वी होने से है। 
बहादुर- पराक्रमी।
बिसारिया- यह सक्सेना (शक/संदेहों की सेना/समूह का नाश करनेवाले) मूल नाम (मतिमान = बुद्धिमान) कायस्थों की एक अल्ल (वंशनाम) है। एक बुंदेली कहावत है 'बीती ताहि बिसार दे' अर्थात अतीत के सुख-दुख पर गर्वीय शोक न कर पर्यटन कार आगे बढ़ना चाहिए। जिन्होंने इस नीति वाक्य पर अमल किया उन्हें 'बिसारिया' कहा गया।  
भटनागर/चित्र- सभ्य सुंदर जुझारु योद्धा, देश-समाज के लिए युद्ध करनेवाले। 
महालनोबीस- महाल = महल, नौविस/नौबिस = लेखा-जोखा खने वाला, राजमहल के नियंत्रक लेखाधिकारी। 
माथुर/चारु- मथुरा निवासी, गौरवर्णी सुंदर।
मित्र- विश्वामित्र गोत्रीय कायस्थ जो निष्ठावान मित्र होते हैं। 
मौलिक- बंगाल/उड़ीसावासी कायस्थ जो अपनी मिसाल आप (श्रेष्ठ) थे। 
रंजन - कला निष्णात।
राय- शासकों को राय-मशविरा देनेवाले।
राढ़ी- राढ़ी नदी पार कर बंगाल-उड़ीसा आदि में शासन व्यवस्था स्थापित करनेवाले।
रायजादा- शासकों को बुद्धिमत्तापूर्णराय देनेवाले।
वर्मा- अपने देश-समाज की रक्षा करनेवाले।
वाल्मीकि- महर्षि वाल्मीकि के शिष्य। वाल्मीकि (वल्मीकि, वाल्मीकि) = चींटी/दीमक की बाँबी भावार्थ दीमक की तरह शत्रु का नाश तथा चीटी की तरह एक साथ मिलकर सफल होनेवाले। 
श्रीवास्तव/भानु- वास्तव में श्री (लक्ष्मी) सम्पन्न, सूर्य की तरह ऐश्वर्यवान।
सक्सेना (मतिमान = बुद्धिमान)- शक आक्रमणकारियों की सेनाओं को परास्त करनेवाले पराक्रमी, शक (संदेहों) क सेना/समूह का समाधान कर नाश करने वाले बुद्धिमान।
सहाय- सबकी सहायता हेतु तत्पर रहने वाले।
सारंग- समर्पित प्रेमी, सारंग पक्षी अपने साथी का निधन होने पर खुद भी जान दे देता है।
सूर्यध्वज/विभानु- सूर्यभक्त राजा जिनके ध्वज पर सूर्य अंकित होता था। सूर्य की तरह अँधेरा दूर करनेवाले।  
सेन/सैन- संत अर्थात आध्यात्मिक तथा सैन्य अर्थात शौर्य की पृष्ठभूमिवाले। आन-बयान-शान की तरह नैन-बैन-सैन का प्रयोग होता है।  
शाह/साहा- राजसत्ता युक्त।
***
महासरस्वती ब्रह्मा पाएँ। विष्णु महालक्ष्मी अपनाएँ।१३।
शक्ति वरें शिव, महाकाल हों। यम पूजन करते निहाल हों।१४।

जय-जय चित्रगुप्त परमेश । परमब्रह्म ।।अज सहाय अवतरेउ गुसांई । कीन्हेउ काज ब्रम्ह कीनाई ।।श्रृष्टि सृजनहित अजमन जांचा। भांति-भांति के जीवन राचा ।।अज की रचना मानव संदर । मानव मति अज होइ निरूत्तर ।।भए प्रकट चित्रगुप्त सहाई । धर्माधर्म गुण ज्ञान कराई ।।राचेउ धरम धरम जग मांही । धर्म अवतार लेत तुम पांही ।।अहम विवेकइ तुमहि विधाता । निज सत्ता पा करहिं कुघाता।।श्रष्टि संतुलन के तुम स्वामी । त्रय देवन कर शक्ति समानी ।।पाप मृत्यु जग में तुम लाए। भयका भूत सकल जग छाए ।।महाकाल के तुम हो साक्षी । ब्रम्हउ मरन न जान मीनाक्षी ।।धर्म कृष्ण तुम जग उपजायो । कर्म क्षेत्र गुण ज्ञान करायो ।।राम धर्म हित जग पगु धारे । मानवगुण सदगुण अति प्यारे ।।विष्णु चक्र पर तुमहि विराजें । पालन धर्म करम शुचि साजे ।।महादेव के तुम त्रय लोचन । प्रेरकशिव अस ताण्डव नर्तन ।।सावित्री पर कृपा निराली । विद्यानिधि माँ सब जग आली।।रमा भाल पर कर अति दाया। श्रीनिधि अगम अकूत अगाया ।।ऊमा विच शक्ति शुचि राच्यो। जाकेबिन शिव शव जग बाच्यो ।।गुरू बृहस्पति सुर पति नाथा। जाके कर्म गहइ तव हाथा ।।रावण कंस सकल मतवारे । तव प्रताप सब सरग सिधारे ।।प्रथम् पूज्य गणपति महदेवा । सोउ करत तुम्हारी सेवा ।।रिद्धि सिद्धि पाय द्वैनारी । विघ्न हरण शुभ काज संवारी ।।व्यास चहइ रच वेद पुराना। गणपति लिपिबध हितमन ठाना।।पोथी मसि शुचि लेखनी दीन्हा। असवर देय जगत कृत कीन्हा।।लेखनि मसि सह कागद कोरा। तव प्रताप अजु जगत मझोरा।।विद्या विनय पराक्रम भारी। तुम आधार जगत आभारी।।द्वादस पूत जगत अस लाए। राशी चक्र आधार सुहाए ।।जस पूता तस राशि रचाना । ज्योतिष केतुम जनक महाना ।।तिथी लगन होरा दिग्दर्शन । चारि अष्ट चित्रांश सुदर्शन ।।राशी नखत जो जातक धारे । धरम करम फल तुमहि अधारे।।राम कृष्ण गुरूवर गृह जाई । प्रथम गुरू महिमा गुण गाई ।।श्री गणेश तव बंदन कीना । कर्म अकर्म तुमहि आधीना।।देववृत जप तप वृत कीन्हा । इच्छा मृत्यु परम वर दीन्हा ।।धर्महीन सौदास कुराजा । तप तुम्हार बैकुण्ठ विराजा ।।हरि पद दीन्ह धर्म हरि नामा । कायथ परिजन परम पितामा।।शुर शुयशमा बन जामाता । क्षत्रिय विप्र सकल आदाता ।।जय जय चित्रगुप्त गुसांई। गुरूवर गुरू पद पाय सहाई ।।जो शत पाठ करइ चालीसा। जन्ममरण दुःख कटइ कलेसा।।विनय करैं कुलदीप शुवेशा। राख पिता सम नेह हमेशा ।।दोहाज्ञान कलम, मसि सरस्वती, अंबर है मसिपात्र।कालचक्र की पुस्तिका, सदा रखे दंडास्त्र।।
पाप पुन्य लेखा करन, धार्यो चित्र स्वरूप।श्रृष्टिसंतुलन स्वामीसदा, सरग नरक कर भूप।।

मंगलवार, 9 जनवरी 2024

हिंदी, स्वर, व्यंजन, वर्ण, लघु, गुरु, प्लुत, अनुस्वार, अनुनासिक,

विश्ववाणी हिंदी में स्वर-व्यंजन 
*

हिंदी भाषा में ५२ वर्ण और १६ स्वर हैं, जबकि अंग्रेजी में इंग्लिश में केवल २६ वर्ण  हैं जिनमें ७ स्वर हैं। हिंदी में लिंग केवल दो हैं स्त्रीलिंग और पुल्लिंग, संस्कृत में ३ लिंग हैं स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और नपुंसक लिंग जबकि अंग्रेजी में ४ लिंग हैं फेमिनिन जेंडर, मैसक्यूलाइन जेंडर, कॉमन जेंडर और न्यूट्रल जेंडर (स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, उभय लिंग और नपुंसकलिंग)।  हिंदी में दो वचन (एक वचन और बहु वचन), संस्कृत में ३ वचन (एक वचन, द्वि वचन और बहु वचन) तथा अंग्रेजी में दो वचन (सिंगुलर और प्लूरल) होते हैं। हर भाषा की सुदीर्घ परंपरा, विशेषता और कमियाँ होती हैं जो उसे बोले जाने वाले क्षेत्र के लोगों की आवश्यकता, सभ्यता, संस्कृति, मौसम, प्रकृति, पर्यावरण, वनस्पति, पशु-पक्षी आदि से विकसित होती है। हर भाषा में उसका श्रेष्ठ साहित्य होता है। इसलिए किसी भाषा को हेय नहीं माना जाना चाहिए। हिंदी भाषा के तत्वों को समझें- 

वर्ण - वर्ण उस मूल ध्वनि को कहते हैं, जिसके खंड या टुकड़े नहीं किये जा सकते। जैसे- अ, ई, व, च, क, ख् इत्यादि। वर्ण भाषा की सबसे छोटी इकाई है, इसके और खंड नहीं किये जा सकते। उदाहरण द्वारा मूल ध्वनियों को यहाँ स्पष्ट किया जा सकता है। 'राम' और 'गया' में चार-चार मूल ध्वनियाँ हैं, जिनके खंड नहीं किये जा सकते- र + आ + म + अ = राम, ग + अ + य + आ = गया। इन्हीं अखंड मूल ध्वनियों को वर्ण कहते हैं। हर वर्ण की अपनी लिपि होती है। लिपि को वर्ण-संकेत भी कहते हैं। हिन्दी में ५२ वर्ण हैं।

वर्णमाला- किसी भाषा के समस्त वर्णो के समूह को वर्णमाला कहते हैै। प्रत्येक भाषा की अपनी वर्णमाला होती है। हिंदी व संस्कृत - अ, आ, क, ख, ग आदि, अंग्रेजी- A, B, C, D, E आदि, फारसी व उर्दू अलिफ़ बे पे ते टे से जीम दाल सीम काफ नून आदि ।  

वर्ण के भेद- हिंदी भाषा में वर्ण दो प्रकार के होते है।- (१) स्वर (vowel) (२) व्यंजन (Consonant)

(१) स्वर (vowel) :- वे वर्ण जिनके उच्चारण में किसी अन्य वर्ण की सहायता की आवश्यकता नहीं होती, स्वर कहलाता है। इसके उच्चारण में कंठ, तालु का उपयोग होता है, जीभ, होठ का नहीं। हिंदी वर्णमाला में १६ स्वर हैं। जैसे- अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः ऋ ॠ ऌ ॡ।

स्वर के भेद-  स्वर के दो भेद होते है- (१) मूल स्वर- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ (२) संयुक्त स्वर- ऐ (अ +ए) और औ (अ +ओ)

मूल स्वर के भेद- मूल स्वर के तीन भेद होते हैं- (१) ह्स्व स्वर (२) दीर्घ स्वर तथा (३) प्लुत स्वर। 

(१) ह्रस्व, लघु या छोटा स्वर :- जिन स्वरों के उच्चारण में कम समय लगता है उन्हें ह्स्व स्वर कहते है। ह्स्व स्वर पाँच होते है- अ इ उ ऋ। इनकी एक मात्रा गिनी जाती है। 'ऋ' की मात्रा (ृ) के रूप में लगाई जाती है तथा उच्चारण 'रि' की तरह होता है।

(२) दीर्घ, गुरु या बड़ा स्वर :-वे स्वर जिनके उच्चारण में ह्रस्व स्वर से दोगुना समय लगता है, वे दीर्घ स्वर कहलाते हैं। जिन स्वरों केउच्चारण में अधिक समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं। इनकी २ मात्रा गिनी जाती हैं। हिंदी में दीर्घ स्वर सात हैं- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ। दीर्घ स्वर दो शब्दों के योग से बनते हैं। जैसे- आ =(अ +अ ), ई =(इ +इ ), ऊ =(उ +उ ), ए =(अ +इ ), ऐ =(अ +ए ), ओ =(अ +उ ), औ =(अ +ओ)।

(३) प्लुत स्वर :-वे स्वर जिनके उच्चारण में दीर्घ स्वर से भी अधिक समय यानी तीन मात्राओं का समय लगता है, प्लुत स्वर कहलाते हैं। सरल शब्दों में- जिस स्वर के उच्चारण में तिगुना समय लगे, उसे 'प्लुत' कहते हैं। इसका चिह्न (ऽ) है। इसका प्रयोग अकसर पुकारते समय किया जाता है। जैसे- सुनोऽऽ, राऽऽम, ओऽऽम्। हिन्दी में साधारणतः प्लुत का प्रयोग नहीं होता। वैदिक संस्कृत, निमाड़ी -मलवी बोलियों आदि में प्लुत स्वर का प्रयोग अधिक हुआ है। इसे 'त्रिमात्रिक' स्वर भी कहते हैं। हिंदी में ॐ/ओम्  त्रिमात्रिक है। 

अनुस्वार-विसर्ग- अं, अः अयोगवाह कहलाते हैं। वर्णमाला में इनका स्थान स्वरों के बाद और व्यंजनों से पहले होता है। अं को अनुस्वार तथा अः को विसर्ग कहा जाता है।

अनुनासिक, निरनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग

अनुनासिक, निरनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग- हिन्दी में स्वरों का उच्चारण अनुनासिक और निरनुनासिक होता हैं। अनुस्वार और विसर्ग व्यंजन हैं, जो स्वर के बाद, स्वर से स्वतंत्र आते हैं। 

अनुनासिक (ँ)- ऐसे स्वरों का उच्चारण नाक और मुँह से होता है और उच्चारण में लघुता रहती है। जैसे- गाँव, दाँत, आँगन, साँचा इत्यादि।

अनुस्वार ( ं)- यह स्वर के बाद आनेवाला व्यंजन है, जिसकी ध्वनि नाक से निकलती है। जैसे- अंगूर, अंगद, कंकन।

निरनुनासिक- केवल मुँह से बोले जानेवाला सस्वर वर्णों को निरनुनासिक कहते हैं। जैसे- इधर, उधर, आप, अपना, घर इत्यादि।

विसर्ग( ः)- अनुस्वार की तरह विसर्ग भी स्वर के बाद आता है। यह व्यंजन है और इसका उच्चारण 'ह' की तरह होता है। संस्कृत में इसका काफी व्यवहार है। हिन्दी में अब इसका अभाव होता जा रहा है; किन्तु तत्सम शब्दों के प्रयोग में इसका आज भी उपयोग होता है। जैसे- मनःकामना, पयःपान, अतः, स्वतः, दुःख इत्यादि।

टिप्पणी- अनुस्वार और विसर्ग न तो स्वर हैं, न व्यंजन; किन्तु ये स्वरों के सहारे चलते हैं। स्वर और व्यंजन दोनों में इनका उपयोग होता है। जैसे- अंगद, रंग। इस सम्बन्ध में आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का कथन है कि ''ये स्वर नहीं हैं और व्यंजनों की तरह ये स्वरों के पूर्व नहीं पश्र्चात आते हैं, ''इसलिए व्यंजन नहीं। इसलिए इन दोनों ध्वनियों को 'अयोगवाह' कहते हैं।'' अयोगवाह का अर्थ है- योग न होने पर भी जो साथ रहे।

अनुस्वार और अनुनासिक में अन्तर

अनुनासिक के उच्चारण में नाक से बहुत कम साँस निकलती है और मुँह से अधिक, जैसे- आँसू, आँत, गाँव, चिड़ियाँ इत्यादि। अनुनासिक स्वर की विशेषता है, अर्थात अनुनासिक स्वरों पर चन्द्रबिन्दु लगता है। लेकिन, अनुस्वार एक व्यंजन ध्वनि है।
अनुस्वार की ध्वनि प्रकट करने के लिए वर्ण पर बिन्दु लगाया जाता है। तत्सम शब्दों में अनुस्वार लगता है और उनके तद्भव रूपों में चन्द्रबिन्दु लगता है ; जैसे- अंगुष्ठ से अँगूठा, दन्त से दाँत, अन्त्र से आँत। इसकी एक मात्रा गिनी जाती है। 

अनुस्वार के उच्चारण में नाक से अधिक साँस निकलती है और मुख से कम, जैसे- अंक, अंश, पंच, अंग इत्यादि। इसकी २ मात्रा गिनी जाती हैं 

(2) व्यंजन (Consonant):- जिन वर्णो को बोलने के लिए स्वर की सहायता लेनी पड़ती है उन्हें व्यंजन कहते हैं। व्यंजन उन वर्णों को कहते हैं, जिनके उच्चारण में स्वर वर्णों की सहायता ली जाती है। 'क' से विसर्ग ( : ) तक सभी वर्ण व्यंजन हैं। प्रत्येक व्यंजन के उच्चारण में 'अ' की ध्वनि छिपी रहती है। 'अ' के बिना व्यंजन का उच्चारण सम्भव नहीं। जैसे- क् + अ = क,  ख्+अ=ख, प्+अ =प आदि। व्यंजन वह ध्वनि है, जिसके उच्चारण में भीतर से आती हुई वायु मुख में कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में, बाधित होती है। स्वर वर्ण स्वतंत्र और व्यंजन वर्ण स्वर पर आश्रित है। हिन्दी में व्यंजन वर्णो की संख्या ३३ है।

व्यंजनों के प्रकार - व्यंजन तीन प्रकार के होते है- (1)स्पर्श व्यंजन, (2)अन्तःस्थ व्यंजन तथा (3)उष्म व्यंजन । 

(1)स्पर्श व्यंजन :- स्पर्श का अर्थ होता है -छूना। जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय जीभ मुँह के किसी भाग जैसे- कण्ठ, तालु, मूर्धा, दाँत, अथवा होठ का स्पर्श करती है, उन्हें स्पर्श व्यंजन कहते है। ये कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दन्त और ओष्ठ स्थानों के स्पर्श से बोले जाते हैं। इसी से इन्हें स्पर्श व्यंजन या 'वर्गीय व्यंजन' कहते हैं; क्योंकि ये उच्चारण-स्थान की अलग-अलग एकता लिए हुए वर्गों में विभक्त हैं। इनकी संख्या २५ है। 
***

बुधवार, 8 नवंबर 2017

hindi salila 1

हिंदी सलिला : १. 
पाठ १
भाषा, ध्वनि, व्याकरण,वर्ण, अक्षर, स्वर, व्यंजन  
***
औचित्य :

भारत-भाषा हिन्दी भविष्य में विश्व-वाणी बनने के पथ पर अग्रसर है।  हिन्दी की शब्द सामर्थ्य पर प्रायः अकारण तथा जानकारी के अभाव में प्रश्न चिन्ह लगाये जाते हैं।  भाषा सदानीरा सलिला की तरह सतत प्रवाहिनी होती है।  उसमें से कुछ शब्द काल-बाह्य होकर बाहर हो जाते हैं तो अनेक शब्द उसमें प्रविष्ट भी होते हैं।

'हिन्दी सलिला' वर्त्तमान आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर हिन्दी का शुद्ध रूप जानने की दिशा में एक कदम है। यहाँ न कोई सिखानेवाला है, न कोई सीखनेवाला, हम सब जितना जानते हैं उससे कुछ अधिक जान सकें मात्र यह उद्देश्य है। व्यवस्थित विधि से आगे बढ़ने की दृष्टि से संचालक कुछ सामग्री प्रस्तुत करेंगे। उसमें कुछ कमी या त्रुटि हो तो आप टिप्पणी कर न केवल अवगत कराएँ अपितु शेष और सही सामग्री उपलब्ध हो तो भेजें।  मतान्तर होने पर संचालक का प्रयास होगा कि मानकों पर खरी, शुद्ध भाषा सामंजस्य, समन्वय तथा सहमति पा सके। 

हिंदी के अनेक रूप देश में आंचलिक/स्थानीय भाषाओँ और बोलिओं के रूप में प्रचलित हैं।  इस कारण भाषिक नियमों, क्रिया-कारक के रूपों, कहीं-कहीं शब्दों के अर्थों में अंतर स्वाभाविक है किंतु हिंदी को विश्व भाषा बनने के लिये इस अंतर को पाटकर क्रमशः मानक रूप लेना ही होगा।अनेक क्षेत्रों में हिन्दी की मानक शब्दावली है। जहाँ नहीं है, वहाँ क्रमशः आकार ले रही है। हम भाषिक तत्वों के साथ साहित्यिक विधाओं तथा शब्द क्षमता विस्तार की दृष्टि से भी सामग्री चयन करेंगे। आपकी रूचि होगी तो प्रश्न-उत्तर या टिप्पणी के माध्यम से भी आपकी सहभागिता हो सकती है।

जन सामान्य भाषा के जिस देशज रूप का प्रयोग करता है वह कही गयी बात का आशय संप्रेषित करता है किंतु वह पूरी तरह शुद्ध नहीं होता। ज्ञान-विज्ञान में भाषा का उपयोग तभी संभव है जब शब्द से एक सुनिश्चित अर्थ की प्रतीति हो। इस दिशा में हिंदी का प्रयोग न होने को दो कारण इच्छाशक्ति की कमी तथा भाषिक एवं शाब्दिक नियमों और उनके अर्थ की स्पष्टता न होना है।

श्री गणेश करते हुए हमारा प्रयास है कि हम एक साथ मिलकर सबसे पहले कुछ मूल बातों को जानें। भाषा, वर्ण या अक्षर, शब्द, ध्वनि, व्याकरण, स्वर, व्यंजन जैसी मूल अवधारणाओं को समझने का प्रयास करें।

भाषा :

अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है। भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ। ध्वनि से भाषा, लेखन, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ।

चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप
भाषा-सलिला निरंतर, करे अनाहद जाप 


भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार ग्रहण कर पाते हैं। यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक), तूलिका के माध्यम से अंकित, लेखनी के द्वारा लिखित, टंकण यंत्र या संगणक द्वारा टंकित तथा मुद्रण यंत्रों द्वारा मुद्रित रूप में होता है।

निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द.


व्याकरण ( ग्रामर ) -

व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भाँति समझना है. व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है. भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि , शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेषण को जानना आवश्यक है.


वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार.
तभी पा सकें वे 'सलिल',  
भाषा पर अधिकार.
वर्ण / अक्षर :

हिंदी में वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं.

अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण

अक्षर अर्थात वह जिसका क्षरण (ह्रास, घटाव, पतन) न हो, इस अर्थ में ईश्वर का एक विशेषण उसका अक्षर होना है। ध्वनि और भाषा विज्ञान में मूल ध्वनि जिसे उच्चारित / या लिखा जाता है, को अक्षर कहते हैं।शब्दांश या ध्वनियों की इकाई ही अक्षर है। किसी भी शब्द को अंशों में तोड़कर बोला जा सकता है।  शब्दांश शब्द के वह अंश होते हैं जिन्हें और अधिक छोटा नहीं किया जा सकता।  अक्षर को अंग्रेजी में 'सिलेबल' कहते हैं। इसमें स्वर तथा व्यंजन (अनुस्वार रहित/सहित) ध्वनियाँ सम्मिलित हैं। क आघात या बल में बोली जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई अक्षर है। इकाई की पृथकता का आधार स्वर या स्वररत्‌ (वोक्वॉयड) व्यंजन होता है। व्यंजन ध्वनि किसी उच्चारण में स्वर का पूर्व (पहले) या पर (बाद में) अंग बनकर ही आती है।अक्षर में स्वर ही मेरुदंड है। अक्षर से स्वर को पृथक्‌ नहीं किया जा सकता, न बिना स्वर या स्वररत्‌ व्यंजन के अक्षर का अस्तित्व संभव है। उच्चारण में व्यंजन मोती है तो स्वर धागा। कुछ भाषाओं में व्यंजन ध्वनियाँ भी अक्षर निर्माण में सहायक होती हैं। अंग्रेजी भाषा में न, र, ल्‌ जैसी व्यंजन ध्वनियाँ स्वररत्‌ भी उच्चरित होती हैं एवं स्वरध्वनि के समान अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं। डॉ॰ रामविलास शर्मा ने सिलेबल के लिए 'स्वरिक' शब्द का प्रयोग किया है। (भाषा और समाज, पृ. ५९)। 'अक्षर' शब्द का भाषा और व्याकरण 'में एकाधिक अर्थच्छाया के लिए प्रयोग किया जाता है, अत: 'सिलेबल' के अर्थ में इसके प्रयोग से भ्रम संभव है।
शब्द के उच्चारण में जिस ध्वनि पर जोर (उच्चता) हो वही अक्षर या सिलेबल होता है।  जैसे हाथ में आ ध्वनि पर जोर है। हाथ शब्द में एक अक्षर है। 'अकल्पित' शब्द में तीन अक्षर हैं - अ, कल्‌, पित्‌ ; आजादी में तीन - आ जा दी; अर्थात्‌ शब्द में जहाँ-जहाँ स्वर के उच्चारण की पृथकता हो वहाँ-वहाँ अक्षर की पृथकता होती है।
ध्वनि उत्पादन की दृष्टि से फुफ्फुस संचलन की इकाई अक्षर या स्वरिक (सिलेबल) है, जिसमें एक शीर्षध्वनि होती है। शरीर रचना की दृष्टि से अक्षर या स्वरिक को फुफ्फुस स्पंदन कह सकते हैं, जिसका उच्चारण ध्वनि तंत्र में अवरोधन होता है। जब ध्वनि खंड या अल्पतम ध्वनि समूह के उच्चारण के समय अवयव संचलन अक्षर में उच्चतम हो तो वह ध्वनि अक्षरवत्‌ होती है। स्वर ध्वनियाँ बहुधा अक्षरवत्‌ बोली जाती हैं जबकि व्यंजन ध्वनियाँ क्वचित्‌। शब्दगत उच्चारण की पूरी तरह पृथक्‌ इकाई अक्षर है।   
१. एक अक्षर के शब्द : आ, 
२. दो अक्षर के शब्द : भारतीय, 
३. तीन अक्षर के शब्द : बोलिए, जमानत, 
४. चार अक्षर के शब्द : अधुनातन, कठिनाई, 
५. पाँच अक्षर के शब्द : अव्यावहारिकता, अमानुषिकता
शब्द में अक्षर-संख्या ध्वनियों की गिनती नहीं, शब्द-उच्चारण में लगी आघात संख्या (ध्वनि इकाइयाँ)  होती हैं। अक्षर में प्रयुक्त शीर्ष ध्वनि के अतिरिक्त शेष ध्वनियों को 'अक्षरांग' या 'गह्वर ध्वनि' कहा जाता है। उदाहरण के लिए 'तीन' में एक अक्षर (सिलेबल) है जिसमें 'ई' शीर्ष ध्वनि तथा 'त' एवं 'न'  गह्वर ध्वनियाँ हैं।
शब्दांश में एक 'शब्दांश केंद्र' स्वर वर्ण  होता है जिसके इर्द-गिर्द अन्य वर्ण ( स्वर-व्यंजन दोनों) मिलते हैं।  'मीत' शब्द का शब्दांश केंद्र 'ई' का स्वर है जिससे पहले 'म' और बाद में 'त' वर्ण आते हैं। 
स्वर ( वोवेल्स ) :

स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है जिसका अधिक क्षरण, विभाजन या ह्रास नहीं हो सकता. स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:, ऋ,

स्वर के दो प्रकार:

१. हृस्व : लघु या छोटा ( अ, इ, उ, ऋ, ऌ ) तथा
२. दीर्घ : गुरु या बड़ा ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं.

अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान.


व्यंजन (कांसोनेंट्स) :

व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते. व्यंजनों के चार प्रकार हैं.

१. स्पर्श व्यंजन (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म).
२. अन्तस्थ व्यंजन (य वर्ग - य, र, ल, व्, श).
३. ऊष्म व्यंजन ( श, ष, स ह) तथा
४. संयुक्त व्यंजन ( क्ष, त्र, ज्ञ) हैं. अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं.

भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव.
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव.
सारत: अक्षर वर्णमाला की एक इकाई है। देवनागरी में ११ स्वर तथा ३३ व्यंजन मिलकर ४४ अक्षर हैं। हिंदी में ह्रस्व (मूल,उच्चारण समय अल्प, १ मात्रा) स्वर ४ अ, इ, उ, ऋ, दीर्घ (उच्चारण समय ह्रस्व से अधिक,२ मात्रा) स्वर ७ आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ तथा प्लुत (उच्चारण समय  अधिक, ३ मात्रा) स्वर ३ ॐ आदि हैं। स्वरों का वर्गीकरण उनके उच्चारण में लगनेवाले समय के आधार पर किया गया है। प्लुत स्वर का प्रयोग पुकारने हेतु किया जाता है। 'अ' स्वर (हलन्त सहित) की कोई मात्रा नहीं होती, वह किसी व्यंजन के साथ मिलकर उसे १ मात्रिक बनाता है। 'अ' व्यंजन (हलन्त रहित) की १ मात्रा होती है। व्यंजनों का अपना स्वरूप क् च् छ् ज् झ् त् थ् ध् आदि है। अ लगने पर व्यंजनों के नीचे का (हल) चिह्न हट जाता है, तब ये इस प्रकार लिखे जाते हैं: क च छ ज झ त थ ध आदि।। स्वरों की मात्राएँ तथा स्वर-व्यंजन मिलने से शब्द निम्न अनुसार बनते हैं:
स्वर:       अ        आ        इ         ई         उ         ऊ          ए          ऐ         ओ         औ        ऋ   
मात्रा:       -          ा        ि        ी        ु        ू          े          ै        ो          ौ          ृ 
शब्द:      कम      काम     किस    कीस      कुल      कूक     केसर     कैथा    कोयल     कौआ     कृश 
जिन वर्णों के पूर्ण उच्चारण के लिए स्वरों की सहायता ली जाती है वे व्यंजन कहलाते हैं। बिना स्वरों की सहायता के बोले ही नहीं जा सकते। ये संख्या में ३३ हैं। इसके तीन भेद १. स्पर्श, २. अंतःस्थ, ३. ऊष्म हैं।स्पर्श: स्पर्श व्यंजन पाँच वर्गों में विभक्त हैं।  हर वर्ग में पाँच-पाँच व्यंजन हैं। हर वर्ग का नाम पहले वर्ण पर है। क वर्ग- क् ख् ग् घ् ड़्। च वर्ग- च् छ् ज् झ् ञ्। ट वर्ग- ट् ठ् ड् ढ् ण् ।त वर्ग- त् थ् द् ध् न्। प वर्ग- प् फ् ब् भ् म्।अंतःस्थ: अन्तस्थ व्यंजन ४  हैं: य् र् ल् व्।                                                                    ऊष्म ऊष्म व्यंजन ४ चार हैं- श् ष् स् ह्।                                                                                          संयुक्त व्यंजनदो अथवा दो से अधिक व्यंजन मिलकर संयुक्त व्यंजन कहलाते हैं।  देवनागरी लिपि में संयोग के बाद रूप-परिवर्तन होने के कारण क्ष (क्+ष) क्षरण, ज्ञ (ज्+ञ) ज्ञान, तथा त्र (त्+र) त्रिशूल को कुछ विद्वान् हिंदी वर्णमाला में गिनते हैं कुछ नहीं गिनते।                                                                        अनुस्वार: इसका प्रयोग पंचम वर्ण के स्थान पर होता है। इसका चिन्ह (ं) है। जैसे: सम्भव=संभव, सञ्जीव  = संजीव, सड़्गम=संगम।                                                                                                    विसर्ग: इसका उच्चारण ह् के समान तथा चिह्न (ः) है। जैसे: अतः, प्रातः।                                  अनुनासिक/चंद्रबिंदु: जब किसी स्वर का उच्चारण नासिका और मुख दोनों से किया जाता है तब उसके ऊपर चंद्रबिंदु (ँ) लगाते है। यह अनुनासिक कहलाता है। जैसे: हँसना, आँख। हिंदी वर्णमाला में ११ स्वर तथा ३३ व्यंजन हैं। इनमें गृहित वर्ण (चार) ड़्, ढ़् अं तथा अः जोड़ने पर हिन्दी के वर्णों की कुल संख्या ४८ हो जाती है।हलन्त: जब कभी व्यंजन का प्रयोग स्वर से रहित किया जाता है तब उसके नीचे एक तिरछी रेखा (्) लगा दी जाती है। यह रेखा हल कहलाती है। हलयुक्त व्यंजन हलंत वर्ण कहलाता है। जैसे-विद्यां = विद्याम्
वर्ण तथा उच्चारण स्थल:
क्रमवर्णउच्चारण स्थल श्रेणी
१.अ आ क् ख् ग् घ् ड़् ह्विसर्ग कंठ और जीभ का निचला भागकंठस्थ
२.इ ई च् छ् ज् झ् ञ् य् शतालु और जीभतालव्य
३.ऋ ट् ठ् ड् ढ् ण् ड़् ढ़् र् ष्मूर्धा और जीभमूर्धन्य
४.त् थ् द् ध् न् ल् स्दाँत और जीभदंत्य
५.उ ऊ प् फ् ब् भ् म्दोनों होंठओष्ठ्य
६.ए ऐकंठ तालु और जीभकंठतालव्य
७.ओ औकंठ जीभ और होंठकंठोष्ठ्य
८.व्दाँत जीभ और होंठदंतोष्ठ्य

टीप: अक्षर = अ+क्षर जिसका क्षरण न हो, अविनाशी, अनश्वर, स्थिर, दृढ़, -विक्रमोर्वशीयम्, भगवद्गीता १५/१६,  अक्षराणांकारsस्मि -भगवद्गीता 10/33 त्र्यक्षर, एकाक्षरंपरंब्रह्म मनुस्मृति २/८३, प्रतिषेधाक्षरविक्लवाभिरामम् -शकुंतला नाटक ३/२५। 

अक्षर:

भाषाअसमियाउड़ियाउर्दूकन्नड़कश्मीरीकोंकणीगुजराती
शब्दबर्ण, आखर, अक्षरबर्ण (अख्यर)हर्फ़अक्षरअछुर, हरूफअक्षर, वर्ण
भाषाडोगरीतमिलतेलुगुनेपालीपंजाबीबांग्लाबोडो
शब्दएलुत्तुअक्षरमुअक्खरवर्ण (र्न), अक्षर (क्ख)
भाषामणिपुरीमराठीमलयालममैथिलीसंथालीसिंधीअंग्रेज़ी
वर्ड 
शब्दस्वर, वर्ण, शब्दअक्षरंअखर 

अंग्रेजी वर्णमाला में २१ स्वर और ५ व्यंजन मिलकर २६ वर्ण हैं। 

वर्ण, अक्षर और ध्वनि
"वर्ण उस मूल ध्वनि को कहते हैं जिसके खंड न हो सकें।" जैसे - अ इ क् ख् । वर्ण या अक्षर रचना की दृष्टि से भाषा की लघुतम इकाई है।
वर्ण, अक्षर तथा ध्वनि इन तीनों में भी अंतर हैं।
मुँह से उच्चरित अ, आ, क्, ख् आदि ध्वनियाँ हैं ।
ध्वनियों के लिखित रूप को वर्ण कहते हैं।
किसी एक ध्वनि या ध्वनि समूह की उच्चरित इकाई को अक्षर कहते हैं अथवा छोटी से छोटी इकाई अक्षर है जिसका उच्चारण वायु के एक झटके से होता है।
जैसे - आ ,जी ,क्या आदि।
**********
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर 
salil.sanjiv@gmail.com, 7999559618
www.divyanarmada.in, #हिंदी_ब्लॉगर

मंगलवार, 24 अक्टूबर 2017

doha

दोहा सलिला 

परमब्रम्ह ओंकार है, निराकार-साकार 
चित्रगुप्त कहते उसे, जपता सब संसार 
*
गणपति-शारद देह-मन, पिंगल ध्वनि फूत्कार
लघु-गुरु द्वैताद्वैत सम, जुड़-घट छंद अपार 
वेद-पाद बिन किस तरह, करें वेद-अभ्यास 
सुख-सागर वेदांग यह, पढ़-समझें सायास 
*
नेह नर्मदा की लहर, सम अवरोहारोह 
गति-यति, लय का संतुलन, सार्थक मन ले मोह 
*
लिपि-अक्षर मिल शब्द हो, देते अर्थ प्रतीति 
सार्थक शब्दों में निहित, सबके हित की नीति 
*
वर्ण-मात्रा-समुच्चय, गद्य-पद्य का मूल
वाक्य गद्य, पद पद्य बन, महके जैसे फूल 
*
सबका हित साहित्य में, भर देता है जान   
कथ्य रुचे यदि समाहित, भाव-बिम्ब-रसवान  
*
वर्ण मात्रा भाव मिल, रच देते हैं छंद 
गति-यति-लय की त्रिवेणी, लुटा सके आनंद 
*
दृश्य-प्रतीकों से बने, छंद सरस गुणवान 
कथन सारगर्भित रहे, कहन सरस रसखान 
*


रविवार, 11 नवंबर 2012

कायस्थ सिर्फ जाति नहीं बल्कि पांचवा वर्ण

कायस्थ सिर्फ जाति नहीं बल्कि पांचवा वर्ण है!

कायस्थ समाज की जाति व्यवस्था पर एस ए अस्थाना ने एक अध्ययन किया है. अपने अध्ययन की भूमिका में वे लिखते हैं कि “स्मरण करो एक समय था जब आधे से अधिक भारत पर कायस्थों का शासन था। कश्मीर में दुर्लभ बर्धन कायस्थ वंश, काबुल और पंजाब में जयपाल कायस्थ वंश, गुजरात में बल्लभी कायस्थ राजवंश, दक्षिण में चालुक्य कायस्थ राजवंश, उत्तर भारत में देवपाल गौड़ कायस्थ राजवंश

तथा मध्य भारत में सतवाहन और परिहार कायस्थ राजवंश सत्ता में रहे हैं। अतः हम सब उन राजवंशों की संतानें हैं, हम बाबू नने के लिए नहीं, हिन्दुस्तान पर प्रेम, ज्ञान और शौर्य से परिपूर्ण उस हिन्दू संस्कृति की स्थापना के लिए पैदा हुए हैं जिन्होंने हमें जन्म दिया है।”
एक घटना का जिक्र करते हुए अस्थाना अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि एक बार स्वामी विवेकानन्द से भी एक सभा में उनसे उनकी जाति पूछी गयी थी. अपनी जाति अथवा वर्ण के बारे में बोलते हुए विवेकानंद ने कहा था “मैं उस महापुरुष का वंशधर हूँ, जिनके चरण कमलों पर प्रत्येक ब्राह्मण ‘‘यमाय धर्मराजाय चित्रगुप्ताय वै नमः’’ का उच्चारण करते हुए पुष्पांजलि प्रदान करता है और जिनके वंशज विशुद्ध रूप से क्षत्रिय हैं। यदि अपनें पुराणों पर विश्वास हो तो, इन समाज सुधारको को जान लेना चाहिए कि मेरी जाति ने पुराने जमानें में अन्य सेवाओं के अतिरिक्त कई शताब्दियों तक आधे भारत पर शासन किया था। यदि मेरी जाति की गणना छोड़ दी जाये, तो भारत की वर्तमान सभ्यता का शेष क्या रहेगा ? अकेले बंगाल में ही मेरी जाति में सबसे बड़े कवि, सबसे बड़े इतिहास वेत्ता, सबसे बड़े दार्शनिक, सबसे बड़े लेखक और सबसे बड़े धर्म प्रचारक हुए हैं। मेरी ही जाति ने वर्तमान समय के सबसे बड़े वैज्ञानिक से भारत वर्ष को विभूषित किया है।’’
वर्ण व्यवस्था में कायस्थों के स्थान के बारे में विवरण देते हुए वे खुद स्पष्टीकरण देते हुए लिखते हैं कि “अक्सर यह प्रश्न उठता रहता है कि चार वर्णों में क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र में कायस्थ किस वर्ण से संबंधित है। स्पष्ट है कि उपरोक्त चारों वर्णों के खाँचे में, कायस्थ कहीं भी फिट नहीं बैठता है। अतः इस पर तरह-तरह की किंवदंतियां उछलती चली आ रही है। उपरोक्त यक्ष प्रश्न “किस वर्ण के कायस्थ” का माकूल जबाब देने का आज समय आ गया है कि सभी चित्रांश बन्धुओं को अपने समाज के बारे में सोचने का अपनी वास्तविक पहचान का ज्ञान होना परम आवश्यक है।”
शिव आसरे अस्थाना ने इस संबंध में जो तथ्य जुटाएं है और अध्ययन किया है वे महत्वपूर्ण हैं. अहिल्या कामधेनु संहिता और पद्मपुराण पाताल खण्ड के श्लोकों और साक्ष्यों से वे साबित करते हैं कि कायस्थ सिर्फ जाति नहीं बल्कि पांचवा वर्ण है. नीचे दिये गये उदाहरण देखिए-

ब्राहस्य मुख मसीद बाहु राजन्यः कृतः।
उरुतदस्य वैश्य, पद्यायागू शूद्रो अजायतः।। (अहिल्या कामधेनु संहिता)
अर्थात् नव निर्मित सृष्टि के उचित प्रबन्ध तथा समाज की सुव्यवस्था के लिए श्री ब्रह्मा जी ने अपनें मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य तथा चरणों से शूद्र उत्पन्न कर वर्ण ‘‘चतुष्टय’’ (चार वर्णों) की स्थापना की। सम्पूर्ण प्राणियों के शुभ-अशुभ कार्यों का लेखा-जोखा रखनें व पाप-पुण्य के अनुसार उनके लिये दण्ड या पुरस्कार निश्चित करने का दायित्ंव श्री ब्रह्मा जी ने श्री धर्मराज को सौंपा। कुछ समय उपरान्त श्री धर्मराज जी ने देखा कि प्रजापति के द्वारा निर्मित विश्व के समस्त प्राणियों का लेखा-जोखा रखना अकेले उनके द्वारा सम्भव नहीं है। अतः धर्मराज जी ने श्री ब्रह्मा जी से निवेदन किया कि ‘हे देव! आपके द्वारा उत्पन्न प्राणियों का विस्तार दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। अतः मुझे एक सहायक की आवश्यकता है। जिसे प्रदान करनें की कृपा करें।

‘‘अधिकारेषु लोका नां, नियुक्तोहत्व प्रभो।
सहयेन बिना तंत्र स्याम, शक्तः कथत्वहम्।।’’ (अहिल्या कामधेनु संहिता)
श्री धर्मराज जी के निवेदन पर विचार हेतु श्री ब्रह्मा जी पुनः ध्यानस्त हो गये। श्री ब्रह्मा जी एक कल्प तक ध्यान मुद्रा में रहे, योगनिद्रा के अवसान पर कार्तिक शुल्क द्वितीया के शुभ क्षणों में श्री ब्रह्मा जी ने अपने सन्मुख एक श्याम वर्ण, कमल नयन एक पुरूष को देखा, जिसके दाहिने हाथ में लेखनी व पट्टिका तथा बायें हाथ में दवात थी। यही था श्री चित्रगुप्त जी का अवतरण।

‘‘सन्निधौ पुरुषं दृष्टवा, श्याम कमल लोचनम्।
लेखनी पट्टिका हस्त, मसी भाजन संयुक्तम्।।’’ (पद्मपुराण-पाताल खण्ड)
इस दिव्य पुरूष का श्याम वर्णी काया, रत्न जटित मुकुटधारी, चमकीले कमल नयन, तीखी भृकुटी, सिर के पीछे तेजोमय प्रभामंडल, घुघराले बाल, प्रशस्त भाल, चन्द्रमा सदृश्य आभा, शंखाकार ग्रीवा, विशाल भुजाएं व उभरी जांघे तथा व्यक्तित्व में अदम्य साहस व पौरूष झलक रहा था। इस तेजस्वी पुरूष को अपने सन्मुख देख ब्रह्मा जी ने पूछा कि आप कौन है? दिव्य पुरूष ने विनम्रतापूर्वक करबद्ध प्रणाम कर कहा कि आपने समाधि में ध्यानस्त होकर मेरा आह्नवान चिन्तन किया, अतः मैं प्रकट हो गया हूँ। मैं आपका ही मानस पुत्र हूँ। आप स्वयं ही बताये कि मैं कौन हूँ ? कृपया मेरा वर्ण- निरूपण करें तथा स्पष्ट करें कि किस कार्य हेतु आपने मेरा स्मरण किया। इस प्रकार ब्रह्माजी अपने मानस पुत्र को देख कर बहुत हर्षित हुये और कहा कि हे तात! मानव समाज के चारों वर्णों की उत्पत्ति मेरे शरीर के पृथक-पृथक भागों से हुई है, परन्तु तुम्हारी उत्पत्ति मेरी समस्त काया से हुई है इस कारण तुम्हारी जाति ‘‘कायस्थ’’ होगी।

मम् कायात्स मुत्पन्न, स्थितौ कायोऽभवत्त।
कायस्थ इति तस्याथ, नाम चक्रे पितामहा।। (पद्म पुराण पाताल खण्ड)

काया से प्रकट होनें का तात्पर्य यह है कि समस्त ब्रह्म-सृष्टि में श्री चित्रगुप्त जी की अभिव्यक्ति। अपनें कुशल दिव्य कर्मों से तुम ‘‘कायस्थ वंश’’ के संस्थापक होंगे। तुम्हें समस्त प्राणि मात्र की देह में अर्न्तयामी रूप से स्थित रहना होगा। जिससे उनकी आंतरिक मनोभावनाएं, विचार व कर्म को समझने में सुविधा हो।
‘‘कायेषु तिष्ठतति-कायेषु सर्वभूत शरीरेषु।
अन्तर्यामी यथा निष्ठतीत।।’’ (पद्य पुराण पाताल खण्ड)

ब्रह्माजी ने नवजात पुत्र को यह भी स्पष्ट किया कि ‘‘आप की उत्पत्ति हेतु मैने अपने चित्त को एकाग्र कर पूर्ण ध्यान में गुप्त किया था अतः आपका नाम ‘‘चित्रगुप्त’’ ही उपयुक्त होगा। आपका वास नगर कोट में रहेगा और आप चण्डी के उपासक होंगे।
‘‘चित्रं वचो मायागत्यं, चित्रगुप्त स्मृतो गुरूवेः।
सगत्वा कोट नगर, चण्डी भजन तत्परः।।’’ (पद्य पुराण पाताल खण्ड)
अपने इन उदाहरणों के जरिए वे साबित करते हैं कि कायस्थ पांचवा वर्ण है. अगर यह सच है तो कम से कम यह किताब भारत की वर्ण व्यवस्था को बड़ी चुनौती देती है. अभी तक की स्थापित मान्यताओं के उलट यह एक पांचवे वर्ण को सामने लाती है जिसका उल्लेख खुद स्वामी विवेकानन्द ने भी किया है. शिव आसरे अस्थाना मानते हैं कि वे खुद जाति व्यवस्था में विश्वास नहीं करते हैं लेकिन इसकी उपस्थिति और प्रभाव को खारिज नहीं किया जा सकता.
लेकिन उनके इस अध्ययन से वह सवाल और जटिल हो जाता है जो वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था में घालमेल करता है. कायस्थ वर्ण का अस्तित्व कोई आज का नहीं है. यह हजारों साल पुराना है. उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार से लेकर कश्मीर तक किसी न किसी काल में कायस्थ राजा रहे हैं. ऐसा भी कहा जाता है कि अयोध्या में रघुवंश से पहले कायस्थों का ही शासन था. अगर पुरातन भारत में इस जाति/वर्ण का स्वर्णिम इतिहास रहा है तो आधुनिक भारत में डॉ राजेन्द्र प्रसाद, लाल बहादुर शास्त्री, सुभाष चंद्र बोस और विवेकानंद इसी वर्ण या जाति व्यवस्था से आते हैं. लेकिन यहां सवाल इन महापुरुषों का जाति निर्धारण करना नहीं है बल्कि उस चुनौती को समझना है जो जाति और वर्ण का घालमेल करता है. जाति के नाम पर नाक भौं सिकोड़नेवाले लोग भले ही तात्विक विवेचन से पहले ही अपना निर्णय कर लें लेकिन शिव आसरे अस्थाना का यह काम निश्चित रूप से भारतीय जाति व्यवस्था को समझने के लिए लिहाज से एक बेहतरीन प्रयास है....

क्या बात कही है........
http://www.facebook.com/KaYasthaAreBestinEvEryFieLd
जिन साथियों ने अभी तक मंच के पेज को लाइक नहीं किया है वो कृपा करके निम्न लिंक को क्लिक करे ओर पेज खुलने पर लाइक करके मंच से जुड़े – ये मेरा विनम्र अनुरोध है@!
http://www.facebook.com/KaYasthaAreBestinEvEryFieLd