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सोमवार, 27 जनवरी 2014

kriti charcha: khamma-ashok jamnani -sanjiv

कृति चर्चा: 
मरुभूमि के लोकजीवन की जीवंत गाथा "खम्मा"
चर्चाकार: संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण: खम्मा, उपन्यास, अशोक जमनानी, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द, पृष्ठ १३७, मूल्य ३०० रु., श्री रंग प्रकाशन होशंगाबाद]  
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                राजस्थान की मरुभूमि से सन्नाटे को चीरकर दिगंत तक लोकजीवन की अनुभूतियों को अपने हृदवेधी स्वरों से पहुँचाते माँगणियारों के संघर्ष, लुप्त होती विरासत को बचाये रखने की जिजीविषा, छले जाने के बाद भी न छलने का जीवट जैसे  जीवनमूल्यों पर केंद्रित "खम्मा" युवा तथा चर्चित उपन्यासकार अशोक जमनानी की पाँचवी कृति है. को अहम्, बूढ़ी डायरी, व्यासगादी तथा छपाक से हिंदी साहत्य जगत में परिचित ही नहीं प्रतिष्ठित भी हो चुके अशोक जमनानी खम्मा में माँगणियार बींझा के आत्म सम्मान, कलाप्रेम, अनगढ़ प्रतिभा, भटकाव, कलाकारों के पारस्परिक लगाव-सहयोग, तथाकथित सभ्य पर्यटकों द्वारा शोषण, पारिवारिक ताने-बाने और जमीन के प्रति समर्पण की सनातनता को शब्दांकित कर सके हैं. 

                "जो कलाकार की बनी लुगाई, उसने पूरी उम्र अकेले बिताई" जैसे संवाद के माध्यम से कथा-प्रवाह को संकेतित करता उपन्यासकार ढोला-मारू की धरती में अन्तर्व्याप्त कमायचे और खड़ताल के मंद्र सप्तकी स्वरों के साथ 'घणी खम्मा हुकुम' की परंपरा के आगे सर झुकाने से इंकार कर सर उठाकर जीने की ललक पालनेवाले कथानायक बींझा की तड़प का साक्षी बनता-बनाता है. 

अकथ कहानी प्रेम की, किणसूं कही न जाय 
गूंगा को सुपना भया, सुमर-सुमर पछताय 

                मोहब्बत की अकथ कहानी को शब्दों में पिरोते अशोक, राहुल सांकृत्यायन और विजय दान देथा के पाठकों गाम्भीर्य और गहनता की दुनिया से गति और विस्तार के आयाम में ले जाते हैं. उपन्यास के कथासूत्र में काव्य पंक्तियाँ गेंदे के हार में गुलाब पुष्पों की तरह गूँथी गयी हैं. 

                बेकलू (विकल रेत) की तरह अपने वज़ूद की वज़ह तलाशता बींझा अपने मित्र सूरज और अपनी  संघर्षरत सुरंगी का सहारा पाकर अपने मधुर गायन से पर्यटकों को रिझाकर आजीविका कमाने की राह पर चल पड़ता है. पर्यटकों के साथ धन के सामानांतर उन्मुक्त अमर्यादित जीवनमूल्यों के तूफ़ान (क्रिस्टीना के मोहपाश में) बींझा का फँसना, क्रिस्टीना का अपने पति-बच्चों के पास लौटना, भींजा की पत्नी सोरठ द्वारा कुछ न कहेजाने पर भी बींझा की भटकन को जान जाना और उसे अनदेखा करते हुए भी क्षमा न कर कहना " आपने इन दिनों मुझे मारा नहीं पर घाव देते रहे… अब मेरी रूह सूख गयी है…  आप कुछ भी कहो लेकिन मैं आपको माफ़ नहीं कर पा रही हूँ… क्यों माफ़ करूँ आपको?' यह स्वर नगरीय स्त्री विमर्श की मरीचिका से दूर ग्रामीण भारत के उस नारी का है जो अपने परिवार की धुरी है. इस सचेत नारी को पति द्वारा पीटेजाने पर भी उसके प्यार की अनुभूति होती है, उसे शिकायत तब होती है जब पति उसकी अनदेखी कर अन्य स्त्री के बाहुपाश में जाता है. तब भी वह अपने कर्तव्य की अनदेखी नहीं करती और गृहस्वामिनी बनी रहकर अंततः पति को अपने निकट आने के लिये विवश कर पाती है. 

                उपन्यास के घटनाक्रम में परिवेशानुसार राजस्थानी शब्दों, मुहावरों, उद्धरणों और काव्यांशों का बखूबी प्रयोग कथावस्तु को रोचकता ही नहीं पूर्णता भी प्रदान करता है किन्तु बींझा-सोरठ संवादों की शैली, लहजा और शब्द देशज न होकर शहरी होना खटकता है. सम्भवतः ऐसा पाठकों की सुविधा हेतु किया गया हो किन्तु इससे प्रसंगों की जीवंतता और स्वाभाविकता प्रभावित हुई है. 

                कथांत में सुखांती चलचित्र की तरह हुकुम का अपनी साली से विवाह, उनके बेटे सुरह का प्रेमिका प्राची की मृत्यु को भुलाकर प्रतीची से जुड़ना और बींझा को विदेश यात्रा  का सुयोग पा जाना 'शो मस्त गो ऑन' या 'जीवन चलने का नाम' की उक्ति अनुसार तो ठीक है किन्तु पारम्परिक भारतीय जीवन मूल्यों के विपरीत है. विवाहयोग्य पुत्र के विवाह के पूर्व हुकुम द्वारा साली से विवाह अस्वाभाविक प्रतीत होता है. 

                सारतः, कथावस्तु, शिल्प, भाषा, शैली, कहन और चरित्र-चित्रण के निकष पर अशोक जमनानी की यह कृति पाठक को बाँधती है. राजस्थानी परिवेश और संस्कृति से अनभिज्ञ पाठक के लिये यह कृति औत्सुक्य का द्वार खोलती है तो जानकार के लिये स्मृतियों का दरीचा.... यह उपन्यास पाठक में अशोक के अगले उपन्यास की प्रतीक्षा करने का भाव भी जगाता है. 
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- salil.sanjiv@gmail.com / divyanarmada.blogspot.in / 94251 83244 -

रविवार, 27 अक्टूबर 2013

rook review: bujurgon ki apni duniya -sanjiv

कृति चर्चा:
जतन से ओढ़ी चदरिया: बुजुर्गों की अपनी दुनिया
चर्चाकार: संजीव
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[कृति विवरण: जतन से ओढ़ी चदरिया, लोकोपयोगी, कृतिकार डॉ. ए. कीर्तिवर्धन, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी-सजिल्द, पृष्ठ २५६, मूल्य ३०० रु., मीनाक्षी प्रकाशन दिल्ली]
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साहित्य का निकष सबके लिए हितकारी होना है. साहित्य की सर्व हितैषी किरणें वहाँ पहुँच कर प्रकाश बिखेरती हैं जहाँ स्वयं रवि-रश्मियाँ भी नहीं पहुँच पातीं. लोकोक्ति है की उगते सूरज को सभी नमन करते हैं किन्तु डूबते सूर्य से आँख चुराते हैं. संवेदनशील साहित्यकार ए. कीर्तिवर्धन ने सामान्यतः अनुपयोगी - अशक्त  मानकर  उपेक्षित किये जाने वाले वृद्ध जनों के भाव संसार में प्रवेश कर उनकी व्यथा कथा को न केवल समझा अपितु वृद्धों के प्रति सहानुभूति और संवेदना की भाव सलिला प्रवाहित कर अनेक रचनाकारों को उसमें अवगाहन करने के लिए प्रेरित किया. इस आलोडन से प्राप्त रचना-मणियों की भाव-माला माँ सरस्वती के श्री चरणों में अर्पित कर कृतिकार ने वार्धक्य के प्रति समूचे समाज की भावांजलि निवेदित की है.
भारत में लगभग १५ करोड़ वृद्ध जन निवास करते हैं. संयुक्त परिवार-प्रणाली का विघटन, नगरों में पलायन के फलस्वरूप आय तथा आवासीय स्थान की न्यूनता के कारण बढ़ते एकल परिवार, सुरसा के मुख की तरह बढ़ती मँहगाई के कारण कम पडती आय, खर्चीली शिक्षा तथा जीवन पद्धति, माता-पिता की वैचारिक संकीर्णता, नव पीढ़ी की संस्कारहीनता न उत्तरदायित्व से पलायन आदि कारणों ने वृद्धों के अस्ताचलगामी जीवन को अधिक कालिमामय कर दिया है. शासन- प्रशासन भी वृद्धों के प्रति अपने उत्तरदायित्व से विमुख है. अपराधियों के लिए वृद्ध सहज-सुलभ लक्ष्य हैं जिन्हें आसानी से शिकार बनाया जा सकता है. वृद्धों की असहायता तथा पीड़ा ने श्री कीर्तिवर्धन को इस सारस्वत अनुष्ठान के माध्यम से इस संवर्ग की समस्याओं को न केवल प्रकाश में लेन, उनका समाधान खोजने अपितु लेखन शक्ति के धनी साहित्यकारों को समस्या के विविध पक्षों पर सोचने-लिखने के लिए उन्मुख करने को प्रेरित किया।
विवेच्य कृति में २० पद्य रचनाएँ, ३६ गद्य रचनाएँ, कीर्तिवर्धन जी की १२ कवितायेँ तथा कई बहुमूल्य उद्धरण संकलित हैं. डॉ. कृष्णगोपाल श्रीवास्तव, डॉ. रामसेवक शुक्ल. कुंवर प्रेमिल, रमेश नीलकमल, रामसहाय वर्मा, डॉ. नीलम खरे, सूर्यदेव पाठक 'पराग', जगत नन्दन सहाय, पुष्प रघु, डॉ. शरद नारायण खरे, डॉ. कौशलेन्द्र पाण्डेय, ओमप्रकाश दार्शनिक, राना लिघौरी आदि की कलमों ने इस कृति को समृद्ध किया है.
प्रसिद्द आङ्ग्ल साहित्यकार लार्ड रोबर्ट ब्राडमिग के अनुसार 'द डार्केस्ट क्लाउड विल ब्रेक व्ही फाल टु राइज, व्ही स्लीप टु वेक'. डॉ. कीर्तिवर्धन लिखते है ' जिंदगी में अनेक मुकाम आयेंगे / हँसते-हँसते पार करना / जितने भी व्यवधान आयेंगे'. कृति के हर पृष्ठ पर पाद पंक्तियों में दिए गए प्रेरक उद्धरण पाठक को मनन-चिंतन हेतु प्रेरित करते हैं.
रचनाकारों ने छन्दमुक्त कविता, गीत, मुक्तिका, त्रिपदी (हाइकु), मुक्तक, क्षणिका, लेख, संस्मरण, कहानी, लघुकथा आदि विधाओं के माध्यम से वृद्धों की समस्याओं के उद्भव, विवेचन, उपेक्षा, निदान आदि पहलुओं की पड़ताल तथा विवेचना कर समाधान सुझाये हैं. इस कृति की सार्थकता तथा उपयोगिता वृद्ध-समस्याओं के निदान हेतु नीति-निर्धारित करनेवाले विभागों, अधिकारियों, समाजशास्त्र के प्राध्यापकों, विद्यार्थियों के साथ उन वृद्ध जनों तथा उनकी संतानों के लिए भी है. इस जनोपयोगी कृति की अस्माग्री जुटाने के लिए कृतिकार तथा इसे प्रस्तुत करने के लिए प्रकाशक धन्यवाद के पात्र हैं.
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facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'

शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2013

kriti charcha: o geet ke garud-virat -sanjiv


कृति चर्चा:
गीत का विराटी चरण : ओ गीत के गरुड़
चर्चाकार : संजीव वर्मा 'सलिल'
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(कृति विवरण : ओ गीत के गरुण, गीत संग्रह, चंद्रसेन विराट, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, सजिल्द, पृष्ठ १६०, मूल्य २५० रु., समान्तर प्रकाशन, तराना, उज्जैन, मध्य प्रदेश, भारत )
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''मूलतः छंद में ही लिखनेवाली उन सभी सृजनधर्मा सामवेदी सामगान के संस्कार ग्रहण कर चुकीं गीत लेखनियों को जो मात्रिक एवं वर्णिक छंदों में भाषा की परिनिष्ठता, शुद्ध लय  एवं संगीतिकता को साधते हुए, रसदशा में रमते हुए अधुनातन मनुष्य के मन के लालित्य एवं राग का रक्षण करते हुए आज भी रचनारत हैं.'' ये समर्पण पंक्तियाँ विश्व वाणी हिंदी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ रचनाकार गीत, गजल, मुक्तक, दोहा आदि विधाओं के निपुण-ख्यात कवि अभियंता चंद्रसेन विराट की ३२ वीं काव्यकृति / चौदहवें गीत संग्रह 'ओ गीत के गरुड़' से उद्धृत हैं. उक्त पंक्तियाँ और कृति-शीर्षक कृतिकार पर भी शत-प्रतिशत खरी उतरती हैं.




विराट जी सनातन सामवेदी सामगानी सम्प्रदाय के सशक्ततम सामयिक हस्ताक्षरों में सम्मिलित हैं. छंद की वर्निंक तथा मात्रिक दोनों पद्धतियों में समान सहजता, सरलता, सरसता। मौलिकता तथा दक्षता के प्रणयन कर्म में समर्थ होने पर भी उन्हें मात्रिक छंद अधिक भाते हैं. समर्पित उपासक की तरह एकाग्रचित्त होकर विराट जी छंद एवं गीत के प्रति अपनी निष्ठा एवं पक्षधरता, विश्व वाणी हिंदी के भाषिक-व्याकरणिक-पिन्गलीय संस्कारों व शुचिता के प्रति आग्रही ही नहीं ध्वजवाहक भी रहे हैं. निस्संदेह गीतकार, गीतों के राजकुमार, गीत सम्राट आदि सोपानों से होते हुए आज वे गीतर्षि कहलाने के हकदार हैं.
'ओ गीत के गरुड़' की गीति रचनाएँ नव-गीतकारों के लिए गीत-शास्त्र की संहिता की तरह पठनीय-माननीय-संग्रहनीय तथा स्मरणीय है. विषय-वैविध्य, छंद वैविध्य, बिम्बों का अछूतापन, प्रतीकों का टटकापन, अलंकारों की लावण्यता, भावों की सरसता, लय की सहजता, भाषा की प्रकृति, शब्द-चयन की सजगता, शब्द-शक्तियों का समीचीन प्रयोग पंक्ति-पंक्ति को सारगर्भित और पठनीय बनाता है. रस, भाव और अलंकार की त्रिवेणी में अवगाहन कर विराट की काव्य-पंक्तियाँ यत्र-तत्र ऋचाओं की तरह आम काव्य-प्रेमी के कंठों में रमने योग्य हैं. छंद का जयघोष विराट की हर कृति की तरह यहाँ भी है. गीत की मृत्यु की घ्शाना करने तथाकथित प्रगतिवादियों द्वारा महाप्राण निराला के नाम की दुहाई देने पर वे करार उत्तर देते हैं- 'मुक्त छंद दे गए निराला / छंद मुक्त तो नहीं किया था' :

विराट का पूरी तन्मयता से गीत की जय बोलते हैं :
हम इसी छंद की जय बोलेंगे / आज आनंद की जय बोलेंगे
गीत विराट की श्वासों का स्पंदन है:
गीत निषेधित जहाँ वहीं पर / स्थापित कर जाने का मन है
गीत-कंठ में नए आठवें / स्वर को भर जाने का मन है
विराट के गीतों में अलंकार वैविध्य दीपावली क दीपों की तरह रमणीय है. वे अलंकारों की प्रदर्शनी नहीं लगाते, उपवन में खिले जूही-मोगरा-चंपा-चमेली की तरह अलंकारों से गीत को सुवासित करते हैं. अनुप्रास, उपमा, विरोधाभास, श्लेष, यमक, रूपक, उल्लेख, स्मरण, दृष्टान्त, व्यंगोक्ति, लोकोक्ति आदि की मोहिनी छटा यत्र-तत्र दृष्टव्य हैं.

ओ कमरे के कैदी कवि मन', समय सधे तो सब सध जाता / यही समय की  सार्थकता है, कटे शीश के श्वेत कबूतर, मैं ही हूँ वह आम आदमी, जो उजियारे में था थोपा, प्रजाजनों के दुःख-दर्दों से, प्रेरक अनल प्रताप नहीं है, दैहिक-दैविक संतापों से,कैकेयी सी कोप भवन में, अनिर्वाच्य आनंद बरसता आदि में छेकानुप्रास-वृत्यानुप्रास गलबहियां डाले मिलते हैं. अन्त्यानुप्रास तो गीतों का अनिवार्य तत्व ही है. अनिप्रास विराट जी को सर्वाधिक प्रिय है. अनुप्रास के विविध रूप नर्मदा-तरंगों की तरह अठखेलियाँ करते हैं-  समय सधे तो सब सध जाता (वृत्यानुप्रास, लाटानुप्रास), प्रेम नहीं वह प्रेम की जिसको / प्राप्त प्रेम-प्रतिसाद नहीं हो (वृत्यानुप्रास, लाटानुप्रास), कैकेयी सी कोप में (छेकानुप्रास, उपमा), बारह मासों क्यों आँसू का सावन मास रहा करती है (अन्त्यानुप्रास, लाटानुप्रास), अब भी भूल सुधर सकती है / वापिस घर जाने का मन है (छेकानुप्रास, अन्त्यानुप्रास), न हीन मोल कर पता इसका / बिना मोल जिसको मिलता है (छेकानुप्रास, लाटानुप्रास, अन्त्यानुप्रास) इत्यादि.
भाव-लय-रस की त्रिवेणी बहते हुए विरोधाभास अलंकार का यह उदाहरण गीतकार की विराट सामर्थ्य की बानगी मात्र है- है कौन रसायन घुला ज़िन्दगी में / मीठी होकर अमचूरी लगती है. विरोधाभास की कुछ और भंगिमाएँ  देखिये- अल्प आयु का सार्थक जीवन / कम होकर भी वह ज्यादा है, अल्प अवधी का दिया मौत है / इतना भी अवकाश न कम है, रोते में अच्छी लगती हो, भरी-पूरी युवती हो भोली / छुई-मुई बच्ची लगती हो आदि.
विराट का चिंतक मन सिर्फ सौन्दर्य नहीं विसंगतियां और विडंबनाओं के प्रति भी संवेदनशील है. बकौल ग़ालिब आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सां होना, विराट के अनुसार 'आदमी ज्यादा जगत में / खेद है इंसान कम है. ग़ालिब से विराट के मध्य  में भी इस अप्रिय सत्यानुभूति का न बदलना विचारणीय ही नहीं चिंतनीय  भी है.
विराट जी का गीतकार भद्रजन की शिष्ट-शालीन भाषा में आम आदमी के अंतर्मन की व्यथा-कथा कहता नहीं थकता- भीड़ में दुर्जन अधिक हैं / भद्रजन श्रीमान कम हैं, वज्र न निर्णय को मानेगा / जो करना है वही करेगा (श्लेष), पजतंत्र के दुःख-दर्दों से / कोई तानाशाह व्यथित है, चार पेग भीतर पहुँचे तो / हम शेरों के शेर हो गए, भर पाए आजाद हो गए / दूर सभी अवसाद हो गए (व्यंग्य), पीड़ा घनी हुई है / मुट्ठी तनी हुई है (आक्रोश), तुम देखना गरीबी / बाज़ार लूट लेगी (चेतावनी), आतंक में रहेंगे / कितने बरस सहेंगे (विवशता), चोर-चोर क्या / साहू-साहू अब मौसेरे भाई है (कटूक्ति), इअ देश का गरुड़ अब / ऊंची उड़ान पर है ( शेष,आशावादिता) आदि-आदि.
श्रृंगार जीवन का उत्स है जिसकी आराधना हर गीतकार करता है. विराट जी मांसल सौन्दर्य के उपासक नहीं हैं, वे आत्मिक सौदर्य के निर्मल सरोवर में शतदल की तरह खिलते श्रृंगार की शोभा को निरखते-परखते-सराहते आत्मानंद से परमात्मानंद तक की यात्रा कई-कई बार करते हुए सत-शिव-सुन्दर को सृजन-पथ का पाथेय बनाते हैं.
तू ही रदीफ़ इसकी / तू ही तो काफिया है
तुझसे गजल गजल है / वरना तो मर्सिया है
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साहित्य का चरित है / सुन्दर स्वयं वरित है
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लास्य-लगाव नहीं बदलेगा / मूल स्वभाव नहीं बदलेगा
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मृदु वर्ण का समन्वय / आनंद आर्य अन्वय
है चित्त चारु चिन्मय / स्थिति है तुरीत तन्मय
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इस संग्रह में विराट जी ने मुहावरों के साथ क्रीडा का सुख पाया-बाँटा है- भर पाए आजाद हो गए, तुम मिट्टी में मिले, पीढ़ी के हित खाद हो गए, घर की देहरी छू लेने को, तबियत हरी-हरी है आदि प्रयोग पाठक को अर्थ में अर्थ की प्रतीति कराते हैं.
राष्ट्रीय भावधारा के गीत मेरे देश सजा दे मुझको, हिमालय बुला रहा है, राष्ट्र की भाषा जिंदाबाद, बने राष्ट्र लिपि देवनागरी, वन्दे मातरम, हिंदी एक राष्ट्र भाषा, हिंदी की जय हो आदि पूर्व संग्रहों की अपेक्षा अधिक मुखरता-प्रखरता से इस संग्रह को समृद्ध कर रहे हैं.
अनंत विसंगतियों, विद्रूपताओं, विडम्बनाओं, अंतर्विरोधों तथा पाखंडों को देखने-सहने और मिटने की कामना करते विराट जी की जिजीविषा तनिक श्रांत-क्लांत, कुंठित नहीं होती। वह आशा के नए सूरज की उपासना कर विअज्य पथ को अभिषिक्त करती है- कल की चिंता का चलन बंद करो / आज आनंद है आनंद करो कहते हुए भी  चार्वाक  दर्शन सा पक्ष धर नहीं होतेैं.  चलना निरंतर जिन्दगी/ रुकना यहाँ मौत है/ चलते रहो -चलते रहो.कहकर वे 'चरवैती ' के वैदिक आदर्श की जय बोलते है. ' रे मनन कर परिवाद तू / जो कुछ मिला पर्याप्त है ' कहने के बाद भी हाथ पर हाथ धरकर बैठा उचित नहीं मानते. विराट का जीवन दर्शन निराशा पर आशा की ध्वजा फहराता है- 'मन ! यंत्रों का दास नहीं हो/ कुंठा का आवास नहीं हो/ रह स्वतंत्र संज्ञा तू सुख की/ दुःख का द्वन्द समास नहीं हो.' ' दुविधा न रही हो, निर्णय / बस एक मात्र रण है/ मैं शक्ति भर लडूंगा/ मेरा अखंड प्रण है / संघर्ष कर रहा हूँ/ संघर्ष ही करूँगा / विश्वाश सफलता को मैं एक दिन वरूँगा "-विराट  के इस संघर्ष में जीवन की धूप - छांव का हर रंग संतुलित है किन्तु निराशा  पर आशा का स्वर मुखेर हुआ है. वैदिक -पौराणिक -सामायिक मिथकों/ प्रतीकों  के माध्यम से विराट जीवट और जिजीविषा की जय बोल सकते है.


facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'

बुधवार, 10 जुलाई 2013

kriti charcha: kabhee sochen -sanjiv

कृति चर्चा:
कभी सोचें -  तलस्पर्शी चिंतन सलिला

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

कृति विवरणः कभी सोचें, चिंतनपरक लेख संग्रह, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी-पेपरबैक, पृष्ठ 143, मूल्य 180 रु., पाथेय प्रकाशन जबलपुर

सुदर्शन व्यक्तित्व, सूक्ष्मदृष्टि तथा उन्मुक्त चिंतन-सामर्थ्य संपन्न वरिष्ठ साहित्यकार पत्रकार डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ को तत्व-प्रेम विरासत में प्राप्त है। पत्रकारिता काल के संघर्ष ने उन्हें मूल-शोधक दृष्टि, व्यापक धरातल, सुधारोन्मुखी चिंतन तथा समन्वयपरक सृजनशील लेखन की ओर उन्मुख किया है। सतत सृजनकर्म की साधना ने उन्हें शिखर स्पर्श की पात्रता दी है। सनातन जीवनमूल्यों की समझ और सटीक पारिस्थितिक विश्लेषण की सामर्थ्य ने उन्हें सर्वहितकारी निष्कर्षपरक आकलन-क्षमता से संपन्न किया है। विवेच्य कृति ‘कभी सोचें’ सुमित्र जी द्वारा लिखित 98 चिंतनपरक लेखों का संकलन है।

चिंतन जीवनानुभवों के गिरि शिखर से नि:सृत निर्झरिणी के निर्मल सलिल की फुहारों की तरह झंकृत-तरंगित-स्फुरित करने में समर्थ हैं। सामान्य से हटकर इन लेखों में दार्शनिक बोझिलता, क्लिष्ट शब्दचयन, परदोष-दर्शन तथा परोपदेशन मात्र नहीं है। ये लेख आत्मावलोकन के दधि को आत्मोन्नति की अरणि से मथकर आत्मोन्नति का नवनीत पाने-देने की प्रक्रिया से व्युत्पन्न है। सामाजिक वैषम्य, पारिस्थितिक विडंबनाओं तथ दैविक-अबूझ आपदाओं की त्रासदी को सुलझाते सुमित्र जी शब्दों का प्रयोग पीडित की पीठ सहलाते हाथ की तरह इस प्रकार करते हैं कि पाठक को हर लेख अपने आपसे जुड़ा हुआ प्रतीत होता है।

अपने तारुण्य में कविर्मनीषी रामानुजलाल श्रीवास्तव ‘उंट बिलहरीवी’ तथा सरस गीतकार नर्मदाप्रसाद खरे का स्नेहाशीष पाये सुमित्र सतत प्रयासजनित प्रगति के जीवंत पर्याय हैं। वे इन लेखों में वैयक्तिक उत्तरदायित्व को सामाजिक असंतोष की निवृत्ति का उपकरण बनाने की परोक्ष प्रेरणा दे सके है। प्राप्त का आदर करो, सामर्थ्यवान हैं आप, सच्चा समर्पण, अहं के पहाड़, स्वतंत्रता का अर्थ, दुख का स्याहीसोख, स्वागत का औचित्य, भाषा की शक्ति, भाव का अभाव, भय से अभय की ओर, शब्दों का प्रभाव, अप्राप्ति की भूमिका है, हम हिंदीवाले, जो दिल खोजा आपना, यादों का बसेरा, लघुता और प्रभुता, सत्य का स्वरूप, पशु-पक्षियों से बदतर, मन का लावा, आज सब अकेले हैं, विसर्जन बोध आदि चिंतन-लेखों में सुमित्र जी की मित्र-दृष्टि विद्रूपता के गरल को नीलकण्ठ की तरह कण्ठसात् कर अमिय वर्षण की प्रेरणा सहज ही दे पाते हैं। एक बानगी देखें-   
      
‘‘सामर्थ्यवान हैं आप

विभिन्न क्षेत्रों में सफलता और श्रेय की सीढि़याँ चढ़ते लोगों को देख सामान्य व्यक्ति को लगता है कि यह सब सामर्थ्य का प्रतिफल है और इतनी सामर्थ्य उसमें है नहीं।

अपने में छिपी सामर्थ्य को जानने, प्रगट करने का एक मार्ग है अध्यात्म। ‘सोहम्’ अर्थात् मैं आत्मा हूँ। अपने को आत्मा मानने से विशिष्ट ज्ञान उपलब्ध होता है। अंधकार में प्रकाश की किरण फूटती है।

आध्यात्मिक दृष्टि मनुप्य को आचरण से ऊपर उठने में मदद करती है। जब उस पर रजस और तमस का वेग आता है जब भी वह भयभीत, चिंतित या हताश नहीं होता। उसके भीतर से उसे शक्ति मिलती रहती है।

हममें सत्य, प्रेम, न्याय, शांति, अहिंसा की दिव्य शक्तियाँ स्थित हैं। इन दिव्य शक्तियों को जानने और उनके जागरण का सतत प्रयत्न होना चाहिए।

इनका विकास ही हमें पशुओं और सामान्य मनुष्य से ऊपर उठा सकता है। विश्वास करें कि आप सामर्थ्यवान हैं। आपका सामर्थ्य आपके भीतर है। दृष्टि परिवर्तित करें और सामर्थ्य पायें। ’’

सुमित्र जी अध्यात्म पथ की दुप्करता से परिचित होते हुए भी सांसारिक बाधाओं और वैयक्तिक सीमाओं के मद्देनजर कबीरी वीतरागिता असाध्य होने पर भी सामान्य जन को उसके स्तर से ऊपर उठकर सोचने-करने की प्रेरणा दे पाते हैं। यही उनके चिंतन और लेखन की उपलब्धि है। अधिकांश लेख ‘कभी सोचें’ या ‘सोचकर तो देखें’ जैसे आव्हान के साथ पूर्ण होते हैं और पूर्ण होने के पूर्व पाठक को सोचने की राह पर ले आते हैं। ये लेख मूलतः दैनिक जयलोक जबलपुर में दैनिक स्तंभ के रूप में प्रकाशित-चर्चित हो चुके हैं। आरंभ में डॉ. हरिशंकर दुबे लिखित गुरु-गंभीर पुरोवाक् सुमित्र की लेखन कला की सम्यक्-सटीक विवेचना कर कृति की गरिमा वृद्वि करता है।  
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salil.sanjiv@gmail.com
divyanarmada.blogspot.in

मंगलवार, 9 जुलाई 2013

kriti salila: vyangya ka lok hitaishee pravah batkahaav ---sanjiv

कृति  सलिला :
व्यंग्य का लोकहितैषी प्रवाह : "बतकहाव"
चर्चाकार : आचार्य संजीव 'वर्मा सलिल' 
[कृति विवरण: बातकहाव, व्यंग्य लेख संग्रह, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १६०, मूल्य २५०रु., पाथेय प्रकाशन जबलपुर]
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भारत के स्वातंत्र्योत्तर कला में सतत बढ़ाती सामाजिक विद्रूपता, राजनैतिक मूल्यहीनता, वैयक्तिक पाखंडों तथा आर्थिक प्रलोभनों ने व्यंग्य को वामन से विराट बनाने में महती भूमिका अदा की है। फिसलन की डगर पर सहारों की प्रासंगिकता ही नहीं उपादेयता भी होती है। वर्तमान परिदृश्य और परिवेश में व्याप्त विसंगतियों और विडम्बनाओं में किसी भी मूल्यधर्मी रचनाकार के लिए व्यन्य-लेखन अनिवार्य सा हो गया है। गद्य-पद्य की सभी विधाओं में व्यंग्य की लोकप्रियता का आलम यह है कि कोई पत्र-पत्रिका व्यंग्य की रचनाओं को हाशिये पर नहीं रख पा रही है। संस्कारधानी जबलपुर में हिंदी व्यंग्य लेखन के शिखर पुरुष हरिशंकर परसाई की प्रेरणा से व्यंग्य लेखन की परंपरा सतत पुष्ट हुई और डॉ. श्री राम ठाकुर 'दादा', डॉ. सुमुत्र आदि ने व्यंग्य को नए आयाम दिए। 

साहित्य-सृजन तथा पत्रकारिता लोकहित साधना के सार्वजनिक प्रभावी औजार होने के बावजूद इनके माध्यम से परिवर्तन का प्रयास सहज नहीं है। सुमित्र जी दैनिक जयलोक में कभी सोचें, बतकहाव तथा चारू-चिंतन आदि स्तंभों में इस दिशा में सतत सक्रिय रहे हैं। इन स्तंभों के चयनित लेखों का पुस्तकाकार में प्रकाशित होना इन्हें नए और वृहत्तर पाठक वर्ग तक पहुँचा सकेगा। सुमित्र जी के व्यंग्य लेखों का वैशिष्ट्य इनका लघ्वाकारी होना है। दैनिक अखबार के व्यंग्य स्तम्भ के सीमित कलेवर में स्थानीय और वैयक्तिक विसंगतियों से लेकर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समस्याओं तक, वैयक्तिक पाखंडों से लेकर समजिन कुरीतियों तक की किसी कुशल शल्यज्ञ  की तरह चीरफाड़ करने में सुमित्र जी शब्दों के पैनेपन को चिकोटी काटने से उपजी मीठी चुभन तक नियंत्रित रखते हैं, दिल को चुभनेवाली-तिलमिला देनेवाली पीड़ा तक नहीं ले जाते। अपने कथ्य को लोकग्राह्य बनाने के लिए तथा निस्संगता और तटस्थता से कहने के लिए सुमित्र जी ने भरोसे लाल नामक काल्पनिक पात्र गढ़ लिया है। यह भरोसेलाल गरजते-बरसते, मिमियाते-हिनहिनाते अंततः निरुत्तर होने पर ''भैया की बातें'' कहकर चुप्पी लगा लेने में माहिर हैं।

बतकहाव के व्यंग्य लेखों का शिल्प अपनी मिसाल आप है। बाबू भरोसेलाल किसी   प्रसंग में कुछ कहते हैं और फिर  उनमें तथा भैया जी में हुई बातचीत विसंगति पर कटाक्ष कर बतरस की ओर मुड़ जाती है। कटाक्ष की च्भन और बतरस की मिठास पाठक को बचपन में खाई खटमिट्ठी गोली की तरह देर तक आनंदित करती है जबकि भरोसेलाल भैया जी के सामने निरुत्तर होकर अपना तकिया कलाम दुहराते हुए मौन साधना में लीन हो जाते हैं। जयलोक के प्रधान संपादक अजित वर्मा के अनुसार ''सुमित्र जी का अपना रचना संसार है जिसमें प्रचुर वैविध्य और विराटत्व है। उनका अन्तरंग और बहिरंग एकाकार है। हिंदी साहित्य के इतिहास, उसकी धाराओं के प्रवाह और अंतर्प्रवाह, अवरोध और प्रतिरोध के वे अध्येता हैं। गद्य - पद्य की विविध विधाओं और शैलियों के विकास क्रम, विचलन, खंडन - मंडन की सूक्ष्म अनुभूतियाँ उनकी धारणाओं, अवधारणाओं और चिंतन को इतना विकसित करती हैं की वे साधिकार आलोचना-समालोचना करते हैं। अध्यवसाय और अनुशीलन ने उन्हेंशोध परक सृजन की क्षमता से संपन्न बनाया है। 

सहिष्णुता और सात्विकता की पारिवारिक विरासत, व्यंग्य कवि-समीक्षक रामानुजलाल श्रीवास्तव तथा मधुर गीतकार नर्मदा प्रसाद खरे का नैकट्य, सोचने की आदत, पढ़ने का शौक और लिखने का पेशा इन चार संयोगों ने 'संभावनाओं की फसल' उगा रहे तरुण सुमित्र को एक दर्जन से अधिक कृतियों के गंभीर चिन्तक - सर्जक के रूप में सहज ही प्रतिष्ठित कर दिया है। सुमित्र जी के अखबारी स्तम्भ अपनी सामयिकता, चुटीलेपन, सरसता सहजता, देशजता तथा व्यापकता के लिए कॉफ़ी हाउस की मेजों से लेकर नुक्कड़ पर पान के टपरों तक, विद्वानों की बैठकों से लेकर श्रमजीवियों तक बरसों-बरस पढ़े और सराहे जाते रहे हैं। सुमित्र जी बड़ी से बड़ी गंभीर से गंभीर बात बेइन्तिहा सादगी से कह जाते हैं। सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे की उक्ति इन लेखों के के सन्दर्भ में खरी उतरती है। प्रसिद्द व्यंग्यकार डॉ. श्रीरामठाकुर 'दादा' इन रचनाओं को सामाजिक, कार्यालयीन तथा राजनैतिक इन तीन वर्गों में विभक्त करते हुए उनका वैशिष्ट्य क्रमशः सामाजिक स्थितियों का उद्घाटन, चरमराती व्यवस्था से उपजा आक्रोश तथा विडम्बनाओं पर व्यंग्य मानते हैं किन्तु मेरी अपनी दृष्टि में इन सभी व्यंग्य लेखों का उत्स सुमित्र जी की सामाजिक सहभागिता तथा सांस्कृतिक साहचर्य से उपजी सहकारिता है।

विख्यात  हिंदीविद डॉ. कांतिकुमार जैन सुमित्र जी के सृजन को साहित्य और पत्रकारिता के मध्य सेतु मानते हैं। सुमित्र जी किसी प्रसंग पर कलम उठाते समय आम आदमी के नजरिये से यथसंभव तटस्थ-निरपेक्ष भाव से विक्रम -बैताल की तर्ज़ पर संवाद-शैली में घटित का संकेत, अन्तर्निहित विसंगति को इंगित करती फैंटेसी तथा नत में समाधान या प्रेरणा के रूप में कथन-समापन करते हैं किन्तु तब तक वे प्रायः पाठक को अपने रंग में रंग चुके होते हैं। 
 
हम  भारतीयों में जाने-अनजाने सलाह-मशविरा देने को अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानने की आदत है। कभी बल्ला न पकड़ने पर भी सचिन की बल्लेबाजी पर टिप्पणी, यांत्रिकी न जानने पर भी निर्माणों और योजनाओं को ख़ारिज करना, अर्थशास्त्र न जानने पर भी बजट के प्रावधानों का उपहास करते हमें पल भर भी नहीं लगता। सुमित्र अपने व्यंग्य लेखों की जमीन इसी मानसिकता के बीच तलाशते हैं। घतुर्दिक घटती घटनाओं की सूक्ष्मता से अवलोकन करता उनका मन, माथे पर पड़े बल और पल भर को मुंदी ऑंखें उनकी सोच को धार देती हैं, मुंह में पान धर जेब से कलम निकलता हाथ चल पड़ता है न्यूनतम समय में, लघुत्तम कलेवर में महत्तम को अभिव्यक्त करने के शारदेय हवं में समिधा समर्पण के लिए और उसे पूर्ण कर चैन की सांस ले फिर अपने सामने बैठे किसी भरोसे लाल से गप्पाष्टक में जुट जाता है।

सारतः, बतकहाव में भारतीय संस्कृति, बुन्देलखंडी परिवेश, नर्मदाई अपनत्व, 'सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है' को जीते बाबू  भरोसे लाल और उनकी लात्रानियों पर मुस्कुराते, चुटकी लेते, मिठास के साथ तंज करते, सकल चर्चा को पुराण न बनाकर निष्कर्ष तक ले जाते भैया जी आम आदमी को वह सन्देश दे जाते हैं जो उसकी सुप्त चेतन को लुप्त होने से बचाते हुए सार्थक उद्देश्य तक ले जाता है। विवेच्य कृति अगली कृति की प्रतीक्षा का भाव जगाने में समर्थ है।
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शुक्रवार, 28 जून 2013

kriti charcha / book review : BIJLI KA BADLATA PARIDRISHYA --sanjiv


कृति चर्चा:
बिजली का बदलता परिदृश्य : कमी कैसे हो अदृश्य?
चर्चाकार : संजीव
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[कृति विवरण : बिजली का बदलता परिदृश्य, तकनीकी जनोपयोगी, इंजी. विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगा पेपरबैक, पृष्ठ १००, मूल्य १५० रु., जी नाइन पब्लिकेशन्स रायपुर छतीसगढ़ ]
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भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् भी मानसिक गुलामी समाप्त नहीं हुई। फलतः राजनैतिक आज़ादी दलीय द्वेष तथा सत्ता प्रतिष्ठान के स्वार्थों की हथकड़ी-बेदी में क़ैद होकर रह गयी। जनमत के साथ-साथ जनभाषा हिंदी भी ऊंचे पदों की लालसा पाले बौने नेताओं की दोषपूर्ण नीतियों के कारण दिनों-दिन अधिकाधिक उपेक्षित होती गयी। वर्तान समय में जब विदेशी भाषा अंग्रेजी में माँ के आँचल की छाया में खेलते शिशुओं का अक्षरारंभ और विद्यारम्भ हो रहा है तब मध्य प्रदेश पूर्वी क्षेत्र विद्युत् वितरण कम्पनी जबलपुर में अधीक्षण यंत्री व जनसंपर्क अधिकारी के पद पर कार्यरत इंजी. विवेकरंजन श्रीवास्तव 'विनम्र' ने बिजली उत्पादन-वितरण संबंधी नीतियों, विधियों, वितरण के तरीकों, बिजली ग्रिड की क्षतिग्रस्तता, विद्युत्-बचत, परमाणु बिजली घरों के खतरे और उनका निराकरण, सूचना प्रौद्योगिकी, बिजली देयक भुगतान की अधुनातन प्रणाली, विद्युत् उत्पादन में जन भागीदारी, ग्रामीण आपूर्ति विभक्तिकरण योजना,विद्युत् चोरी और जनजागरण, आदि तकनीकी-सामाजिक विषयों पर हिंदी में पुस्तक लिखकर सराहनीय कार्य किया है। इन विषयों पर जनोपयोगी साहित्य अभी अंग्रेजी में लगभग अप्राप्य है।
विवेच्य कृति 'देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर' की तरह तकनीकी और दुरूह विषयों पर सामान्य जनों के ग्रहणीय सरल-सहज भाषा में सरसता के साथ प्रस्तुत करने की चुनौती को विनम्र ने पूरी विनम्रता सहित न केवल स्वीकारा है अपितु सफलतापूर्वक जीता भी है। तकनीकी विषयों पर हिंदी में लेखन कार्य की कठिनाई का कारण हिंदी में तकनीकी पारिभाषिक शब्दों का अभाव तथा उपलब्ध शब्दों का अप्रचलित होना है। विनम्र ने इस समस्या का व्यवहारिक निदान खोज लिया है। उन्होंने रिएक्टर,ब्लैक आउट, पॉवरग्रिड फेल, फीडर, ई-पेमेंट, ए.टी.पी., कंप्यूटर, टैकनोलोजी, ट्रांसफोर्मर, मीटर रीडिंग जैसे लोकप्रिय-प्रचलित शब्दों का हिंदी शब्दों की ही तरह निस्संकोच प्रयोगकर व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया है।
इस कृति का वैशिष्टय  भारतीय वांग्मय की अगस्त्य संहिता में दिए गए विद्युत् उत्पादन संबंधी सूत्र, ऑक्सीजन को नाइट्रोजन में परिवर्तित करने की विधि, विविध प्राकृतिक उपादानों से विदुत उत्पादन, इलेक्ट्रोप्लेटिंग आदि संबंधी श्लोक दिया जाना है।
बैंकाक, कनाडा आदि देशों की बिजली व्यवस्था पर लेखों ने भारतीय विद्युत् व्यवस्था के तुलनात्मक अध्ययन का अवसर सुलभ कराया है।
सम सामयिक विषयों में ऊर्जा की बचत, विद्युत् चोरी रोकने, बिजली देयकों के भुगतान में  रोकने  ई-प्रणाली, ए.टी.पी. से भुगतान, विद्युत् उत्पादन में जन भागीदारी आदि महत्वपूर्ण हैं। जबलपुर के समीप चुटका में प्रस्तावित परमाणु बिजली घर के बारे में तथाकथित पर्यावरणवादियों द्वारा फैलाये जा रहे भय, हानि संबंधी दुष्प्रचार, तथा भ्रमित जनांदोलनों के परिप्रेक्ष्य में विनम्र ने संतुलित ढंग से तथ्यपरक जानकारी देते हुए इस परियोजना को निष्पादित किये जाने का औचित्य प्रमाणित किया है।
आलोच्य पुस्तक के अंतिम अध्यायों में विद्युत् मंडल के विखंडन तथा विद्युत् अधिनियम २००३ जन जानकारी की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। भविष्य तथा युवाओं की दृष्टि से विद्यत संबंधी नवोन्मेषी प्रयोगों पर लेखन ने एक स्वतंत्र अध्याय में जानकारी दी है। तिरुमला मंदिर में सौर बिजली, गाँवों के लिए धन की भूसी (हस्क) से विद्युत् उत्पादन, चरखे से सूत कातने के साथ-साथ बिजली बनाना, कुल्हड़ों में गोबर के घोल से बिजली बनाना, पन बिजली उत्पादन, नाले के गंदे पानी और बैक्टीरिया से बिजली बनाना, कोल्हू से तेल पिराई के साथ-साथ बिजली बनाना, कम लगत के ट्रांसफोर्मर, भूमिगत विद्युत् स्टेशन आदि जानकारियाँ आँखें खोल देनेवाली हैं. इन विधियों के प्रोटोटाइप या व्यावहारिक क्रियान्वयन संबंधी सामग्री व् तकनीक विवरण, परियोजना विवरण, प्रक्रिया संविधि, सावधानियां, लागत, हानि-लाभ आदि व्यावहारिक क्रियान्वयन की दृष्टि से दिया जाता तो सोने में सुहागा होता।
इंजी. विवेकरंजन श्रीवास्तव 'विनम्र' की इस स्वागतेय तथा जनोपयोगी कृति को हर घर तथा शिक्षा संस्था में विद्यार्थियों तक पहुँचाया जाना चाहिए।

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बुधवार, 10 अप्रैल 2013

kriti charcha: O geet ke garun -sanjiv verma 'salil'




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