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मंगलवार, 30 अप्रैल 2019

बुंदेली कहानी स्वयंसिद्धा डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव

बुंदेली कहानी
स्वयंसिद्धा
डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव
*
पंडत कपिलनरायन मिसरा कोंरजा में संसकिरित बिद्यालय के अध्यापक हते। सूदो सरल गउ सुभाव। सदा सरबदा पान की लाली सें रचौ, हँसत मुस्कात मुँह। एकइ बिटिया, निरमला, देखबे दिखाबे में और बोलचाल में बिलकुल ‘निर्मला’। मिसराजी मोड़ी के मताई-दद्दा दोइ। मिसराजी की पहली ब्याहीं तो गौना होकें आईं आईं हतीं, कै मोतीझिरा बब्बा लै गए और दूसरी निरमला की माता एक बालक खों जनम देत में ओइ के संगे सिधार गईं तीं। ईके बाद तीसरी बार हल्दी चढ़वाबे सें नाहीं कर दई मिसराजी ने।
निरमला ब्याह जोग भईं, तो बताबे बारे ने खजरा के पंडत अजुद्धा परसाद पुरोहित के इतै बात चलाबे की सलाय दइ। जानत ते मिसराजी उनें। अपनेइं गाँव में नईं, बीस कोस तक के गांवों में बड़ो मान हतो पुरोहिज्जी को। जे बखत तिरपुण्ड लगाएं गैल में निकर परैं, सो आबे-जाबे बारे नोहर-नोहर के ‘पाय लागौं पंडज्जी’ कहत भए किनारे ठांड़े हो जाएं। बे पंचों में भी सामिल हते। देख भर लेबें कौनउ अन्नाय, दलांक परैं। मों बन्द कर देबैं सबके। चाय कौनउ नेता आए, चाय कौनउ आफीसर, बिना पुरोहिज्जी की मत लयं बात नइं बढ़ सकै।
ऊँचो ग्यान हतो उनको। जित्ते पोथी-पत्तर पढ़े ते, उत्तइ बेद-पुरान। मनों, बोलत ते बुंदेली। जब मौज में आ जायं, तो खूब सैरा-तैया, ईसुरी की फागें छेड़ देबैं। कहैं कै अपनी बुंदेली में बीररस के गीत फबत हैं और सिंगार रस के भी। बुंदेली के हिज्जे में जोन ऊपर बुंदी लगी है, बइ है सिंगार के लयं। मिसराजी ने पुरोहिज्जी खों सागर जिले के ‘बुंदेलखण्डी समारोह’ में देखो हतो। मंच पै जब उनें माला-आला डर गई, तो ठांड़े होकें पैलें उनने संचालकों खोंइ दो सुना दईं। अरे, बातें बुंदेलखंड की करबे आए हो, मनों बता रय हो खड़ी बोली में। बुंदेली कौ उद्धार चाहत हो, तो बोल-चाल में लाओ। जित्ती मिठास और जित्तो अपनोपन ई बोली में मिलहै, कहुँ नें मिलहै। किताब में लिख देबै सें बोली कौ रस नइ समज में आत। हर बोली बोलबे कौ अलग ढंग होत है। अलग भांस होत है हर भासा की, अलग लटका। कब ‘अे’ कहनें है, कब ‘अै’, कब ‘ओ’ कब ‘औ’। जा बात बिना बोलें, नइंर् समजाइ जा सकत। फिर नैं कहियो के नई पीढ़ी सीख नईं रइ, अरे तुम सिखाओ तो। और नइं तो तुमाय जे सब समारोह बेकार हैं। उनके हते तीन लड़का- राधाबल्लभ, स्यामबल्लभ और रमाबल्लभ। राधाबल्लभ के ब्याह के बाद
स्यामबल्लभ के लयं संबंध आन लगे ते। मजे की बात एेंसी भई; कै पुरोहिज्जी खों कोंरजइ बुलाओ गऔ भागवत बांचबे। बे भागवत भी बांचत हते और रामान भी। चाए किसन भगवान को द्वारकापिरस्तान होय, चाय सीतामैया की अग्निपरिच्छा, सुनबे बारों के अंसुआ ढरकन लगें। सत्तनारान की कथा तो ऐंसी, कै लगै मानों लीलाबती कलाबती अपनी महतारी-बिटियें होयं।
मिसराजी प्रबचन के बाद पुरोहिज्जी खों अपने घरै लै गए। घर की देख-संभार तौ निरमलइ करत ती। घिनौची तो, बासन तो, उन्ना-लत्ता तो, सब नीचट मांज-चमका कें, धो-धोधा कैं रखत ती। छुइ की ढिग सुंदा उम्दा गोबर से लिपौ आंगन देखकें पुरोहिज्जी की आत्मा पिरसन्न हो गई। दोइ पंडत बैठकें बतयान लगे कै बालमीकी की रामान और तुलसी की रामान में का-कित्तो फरक है। मौका देखकें मिसराजी बात छेडबे की बिचारइ रय ते; कै ओइ समै निरमला छुइ-गेरु सें जगमग तुलसी-चौरा में दिया बारबे आई। दीपक के उजयारे में बिन्नाबाई को मुँह चंदा-सो दमक उठौ। पुरोहिज्जी ने ‘संध्याबन्दन’ में हांत जोरे और निरमला खों अपने घर की बहू बनाबे को निस्चै कर लओ। कुंडलीमिलान के चक्कर में सोनचिरैया सी कन्या नें हांत से निकर जाय, सो कुंडली की बातइ नइं करी और पंचांग देखकें निरमला सें स्यामबल्लभ को ब्याओ करा दओ।
मंजले स्यामबल्लभ खों पुरोहिज्जी ने अपनो चेला बनाकें अपनेइ पास रक्खौ हतौ। एकदम गोरौ रंग, ऊँचो माथो, घुंघरारे बाल और बड़ी-बड़ी आँखें। गोल-मटोल धरे ते, जैंसे मताइ ने खूब माखन-मिसरी खबाइ होय। जब पुरोहिज्जी भागवत सुनांय, तो स्यामबल्लभ बीच-बीच में तान छेड़ देबैं। मीठो गरो, नइ-नइ रागें।
हरमुनियां पै ऐंसे-ऐंसे लहरा छेड़ें कै लगै करेजौ निकर परहै। सोइ रामान में एक सें एक धुनों में चौपाइएं। जब नारज्जी बन्दर बन गए, तो अलग लै-राग-ताल, कै पेट में हँसी कुलबुलान लगै और जब राम बनबास खों निकरन लगे, तो अलग कै रुहाइ छूट जाए।
बड़े राधाबल्लभ ने धुप्पल में रेलबइ को फारम भर दऔ और नौकरी पा गए। अपने बाल-बच्चा समेट कें, पेटी दबाकें निकर गए भुसावल। एकाद साल बाद लौटे, तो हुलिया बदल गई हती, बोली बदल गई हती। सो कछु नईं। मनों जब पुरोहिज्जी ने सुनी के बे खात-खोआत हैं, बस बिगर गए। बात जादई बढ़ गई, पिता ने चार जनों के सामनें थुक्का-फजीहत कर दई, सो राधाबल्लभ ने घरइ आबो छोड़ दओ।
छोटे रमाबल्लभ की अंगरेजी की समज ठीक हती, सो उनइं खों जमीन-जायदाद, खेती-बाड़ी, ढोर-जनावर, अनाज-पानी, कोर्ट-कचैरी की जिम्मेदारी दइ गई। रमाबल्लभ भी राजी हते, कायसें के ई बहाने, कछु रुपैया-पैसा उनके हांत में रैन लगौ तो।
निरमला खों तो सास के दरसनइ नईं मिले। बउ तो तीनइ चार दिनां के बुखार में चट्ट-पट्ट हो गईं तीं। बड़ी बहू घर की मालकन हती। मनों, जब बे बाहरी हो गईं, तो एइ ने हुसियारी सें घर सम्हार लओ। सुघर तौ हती; ऊपर सें भगवान नैं रूप ऐंसो दओ तो कै सेंदुर भरी मांग, लाल बड़ी टिबकी, सुन्ने के झुमकी, नाक की पुंगरिया, चुड़ियों भरे हांत, पांवों में झमझमात तोड़ल-बिछिया और सूदे पल्ले को घुंघटा देखकें लगै कै बैभोलच्छमी माता की खास किरपा ऐइ पै परी है। पुरोहिज्जी ने बहुओं खों खूब चाँदी-सोना चढ़ाओ हतौ।
छोटे रमाबल्लभ की बहू सुसमा सो निरमला केइ पीछें-पीछें लगी रहै और छोटी बहन घाईं दबी रहै। ओकी तीसरी जचकी निरमला नेंइं संभारीं, हरीरा सें, लड़ुअन सें, घी-हल्दी सें, मालिस-सिंकाई सें, कहूं कमी नैं रैन दइ। हाली-फूली निरमला ने खुदइ चरुआ चढ़ा लओ, खुदइ छठमाता पूज लइं, खुदइ सतिया बना लय, खुदइ दस्टौन, कुआपुजाइ, मातापूजा, झूला, पसनी सब कर लओ। कच्छु नैं छोड़ो। अपने दोइ लड़कों, माधवकान्त और केसवकान्त खों बिठार दओ कै पीले और गुलाबी झिलमिल कागज के चौखुट्टे टुकड़ों में दो-दो बड़े बतासा ध्ा रत जावें और धागा बांध कें पुड़ियें बनावें। निरमला ने खूब बुलौआ करे, बतासा बांटे, न्यौछावरें करीं। ढुलकिया तो ऐंसी ठनकी के चार गांव सुनाइ दइ -‘मोरी ढोलक लाल गुलाल, चतुर गावनहारी।’ एक सें एक हंसी-मजाक कीं, खुसयाली कीं, दुनियांदारी कीं, नेग-दस्तूर कीं जच्चा, सोहर, बधाईं। दाइ-खबासन सब खुस। निरमला-सुसमा दोइ के पैले जापे तो जिठानी ने जस-तस निबटा लय ते। एक बे तो फूहड़ हतीं, दूसरें भण्डारे की चाबी धोती के छुड्डा सें छूट नै सकत ती। मनों निरमला की देखादेखी सुसमा ने भी कभउँ उनकी सिकायत नें करी। बड़ी सबर बारी कहाईं। तबइ तो पुरोहिज्जी के घर में लच्छमी बरसत ती।
पुरोहिज्जी निरमला खों इत्ते मुकते काम एक संगे निबटात देख कें मनइ-मन सोचन लगें कै जा बहू तो अस्टभुजाधारी दुरगामैया को औतार है - नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः। गांव-बस्ती में भी खूब जस हो गओ निरमला को। कहूं सुहागलें होयं, कहूं सात सुहागलों के हातों ब्याओ के बरी-पापर बनन लगें, बर-बधू खों हल्दी-तेल चढ़न लगै, तो सगुन-सात के कामों में निरमला को हांत सबसे पहले लगवाओ जाए। एक तो बाम्हनों के घर कीं, फिर उनके गुन-ढंग लच्छमी से।
मनों का सब दिन एकइ से रहत हैं ? बिधि को बिधान। पुरोहिज्जी मों-अंधेरें खेतों की तरप जात हते। एक दिन लौटे नइं। निरमला खों फिकर मच गई। इत्ते बखत तक तो उनके इस्नान-ध्यान, पाठ-पूजा, आरती-परसाद सब हो जात तो, आज कितै अटक गए ? स्याम, रमा, माधव, केसव सब दौर परे। देखत का हैं के खेत की मेंड़ पे ओंधे मों डरे हैं, बदन नीलो पर गओ है, मुँह सें फसूकर निकर रओ है। तब लौं गांव के और आदमी भी उतइं पोंच गए। समज गए कै नागराज डस गए। पूरे दिन गुनिया, झरैया, फुंकैया सब लगे रहे कै नागदेवता आएं और अपनौ जहर लौटार लयं। गांव भर में चूल्हो नइं जरौ उदिना। सब हाहाकार करें, मनों आहाँं; कुजाने कौन से बिल में बिला गओ बो नांग। संझा लौं एक जनो तहसील सें डाक्टर खों बुला लै आओ, मनों ऊने आतइं इसारा कर दओ कै अब देर हो गई।
पुरोहिज्जी के जाबे सें अंधयारो सो छा गओ। पूजा-रचा, उपास-तिरास, जग्ग-हबन को बो आनन्द खतम हो गओ। सबने स्यामबल्लभ खोंइ समजाओ कै बेइ पुरोहताई संभारें। निरमला नें बाम्हनों के नेम-धरम और घर की मान-मर्जादा की बातें समजाईं। सो उनने बांध लई हिम्मत। अब बेइ पूजन-पुजन लगे। निरमला को नाम पर गओ, पंडतान बाई।
निरमला पंडतान को पूरो खेयाल ए बात पै रहत हतो कै ओके लड़का का पढ़ रय, का लिख रय, किते जात हैं, कौन के संगे खेलत-फिरत हैं, बड़ों के सांमने कैंसो आचरन करत हैं। तनक इतै उतै होयं, तो साम दाम दंड भेद सब बिध से रस्ता पे लै आय। निरमला ने अपने पिता के घर में सीखे नर्मदाष्टक, गोविन्दाष्टक, शिवताण्डवस्तोत्र, दुर्गाकवच, रामरक्षास्तोत्र, गीता के इस्लोक सबइ कछु बिल्लकुल किताब घाईं मुखाग्र करवा दय लड़कों खों। बड़े तेज हते बालक। स्यामबल्लभ ने बच्चों की कभउँ सुर्त नैं लइ। अपनी बन-ठन, तिलक-चन्दन मेंइं घंटाक निकार देबैं। नैं लड़कों खो उनसें मतलब, नैं उनें लड़कों सें। हाँ घर लौटें, सो जरूर लड़कों में आरती-दच्छना की चिल्लर गिनबे की होड़ लग जाए। निरमला भोग के फल-मिठाई संभार कें रख लेबै और सबखों परस कें ख्वा देबै। ओके मन में अपने लड़कों और सुसमा के बाल-बच्चों में भेद नैं हतो।
होत-होत, कहुँ सें साधुओं कौ एक दल गाँव में आ गऔ। गांवबारों नै खूब आव-भगत करी, प्रबचन सुने, दान-दच्छना दइ। खूब धूनी रमत ती। स्यामबल्लभ उनके संगे बैठें, तो बड़ो अच्छौ लगै। मंडली खों हती गांजा-चरस की लत। सो बइ लत लगा दइ स्यामबल्लभ खों। अब बे सग्गे लगन लगे और घर-संसार मोहमाया। निरमला ने ताड़ लओ, मनों स्यामबल्लभ नें घरबारी की बात नैं सुनीं। हटकत-हटकत उनइं के महन्त के सामनें भभूत लपेट कें गंगाजली उठा लइ और हो गए साधू। गाँव बारों ने खूब जैकारो करौ। धन्न-धन्न मच गई। गतकौ सो लगौ निरमला खों। कछू नैं समज परौ। तकदीर खों कोस कें रै गई। साधुओं कौ दल स्यामबल्लभानन्द महाराज खों लैकें आंगें निकर गओ। गांव में निरमला कौ मान और बढ़ गओ। जा कौ पति साधु-सन्त हो जाए, तो बा भी सन्तां से कम नइं। ठकरान, ललयान, बबयान, मिसरान सब पाँव परन लगीं। मनों निरमला के मन पै का बीत रइ हती ? लड़काबारे छोटे-छोटे, कमैया छोडकें चलौ गओ। कछू दिनां तो धरे-धराय सें काम चलत रहौ, मनों बैठ के खाओ तौ कुबेर कौ धन सुइ ओंछ जाय। एक-एक करकें चीजें-बसत बिकन लगीं। आठ-दस बासन भी निकार दय। उतै रमाकान्त ने पटवारी सें मिलीभगत करकें जमीन और घर अपने नाम करवा लओ। कोइ हतौ नइं देखबे बारौ, सो कर लइ मनमरजी। कहबै खों तो निरमला और बच्चों की मूड़ पै छत्त नैं रइ ती, मनों सुसमा अड़ गई कै जिज्जी एइ घर में रैहें, भलें तुम और जो चाहे मनमानी कर लो।
चलो, एक कुठरिया तौ मिल गई, मनों खरचा-पानी कैंसें चलत ? रमाबल्लभ ने पूंछो भी नइं और पूंछते तो का इत्ते छल-कपट के बाद निरमला उनको एसान लेती ? लड़का बोले, माइ! अब हम इस्कूल नैं जैहैं।
बस, निरमला पंडतान की इत्ते दिनों की भड़ास निकर परी - काय, तौ का बाप घाईं भभूत चुपर कें साधू बन जैहौ ? दुआर-दुआर जाकें मांगे की खैहौ ? दूसरों के दया पै पलहौ ? अरे हौ, सो तुमइं भांग में डूबे रइयो, गांजा-चरस के सुट्टा लगइयो, गैरहोस होकें परे रइयो, कै जनता समजे महात्माजी समादी में हैं। झूंठो छल, झूंठो पिरपंच। अपने आलसीपने खों, निकम्मेपने खों धरम को नाम दै दऔ; सो मुफत की खा रय और गर्रा रय।
सब ठठकरम, सब ढकोसला। साधुओं की जमात में भगत हैं, भगतनें हैं, कमी कौन बात की उनें ? नें बे देस के काम आ रय, नें समाज के, नें परिबार के। अपनौ पेट भर रय और जनता खों उल्लू बना रय। ऊँसइ बेअकल बे भक्त, अंधरया कें कौनउ खों भी पूजन लगत हैं। और सच्ची पूंछो तो, कइयक तो अपनी उल्टी-सूदी कमाई लुकाबे के लानें धरम को खाता खोल लेत हैं और धरमात्मा कहान लगत हैं।
कान खोल कें सुन लो, माधोकान्त और केसोकान्त! तुमें जनम देबै बारो तो अपनी जिम्मेबारियों सें भग गओ कै उनकी औलाद खों हम पालैं, कायसें के हमाए पेट सें निकरे हो। मनों बे हमें कम नैं समजें। अबे समै खराब है, सो चलन दो। कल्ल खों हम अपने हीरा-से लड़कों खों एैसो बना दैहें के फिर पुरोहिज्जी की इज्जत इ घर में लौट्याये। अपन मेहनत मजूरी कर लैहें, बेटा। मनों, लाल हमाय ! तुम दोइ जनें पढ़बो लिखबो नें छोड़ियो। तुम दोइ जनों खों अपने नाना की सूद पकर कें सिक्छक बनने है।’ निरमला दोइ कुल को मान बढ़ाबो चहत ती।
निरमला ने ठाकुरों के घरों में दोइ बखत की रोटी को काम पकर लओ। कभउँ सेठों के घरों के पापर बेल देबै। हलवाइयों के समोसा बनवा देबै। कहुँ पे बुलाओ जाय, तो तीज-त्यौहार के पकवान बनवा देबै।
कभउँ घरइ में गुजिया, पपरिया बनाकें बेंच देबै। कहूँ बीनबे-पीसबे, छानबे-फटकबे खों चली जाय। एक घड़ी की फुरसत नइं, आराम नइं। बस, मन में संकल्प कर लओ हतो कै लड़कों खों मास्टर बनानै है और बो भी कालेज को। गर्मियों में माधोकान्त और केसोकान्त लग जायं मालगुजार साहब खों पंखा डुलाबे के काम में। मालगुजारी तौ नें रही हती, मनों ठाठ बेइ। उनें बिजली के पंखा की हवा तेज लगत ती। अपनी बैठक की छत्त सें एक बल्ली में दो थान कपड़ा को पंखा झुलवाएं हते, ओइ खों पूरे-पूरे दिन रस्सी सें डुलाने परत हतो। जित्ते पैसा मिलें, सो माधव केसव किताब-कापियों के लानें अलग धर लेबैं। इतै-उतै की उसार कर देबैं, सो बो पैसा अलग मिल जाय। बाकी दिनों में बनिया की अनाज-गल्ले की दुकान पे लग जायं। इस्कूल के लयं सात-सात कोस को पैदल आबो-जाबो अलग। उनकी मताइ हती उनकी गुरु। जैंसी कहै, सो बे राम लछमन मानत जायं। दोइ भइयों ने महतारी की लाज रक्खी। माधव कान्त पुरोहित दसमीं के बोर्ड में और केशव कान्त पुरोहित आठमीं के बोर्ड में प्रथम स्रेनी में आ गए। मैडल मिले। कलेक्टर ने खुद बुलवा कें उनकी इस्कालरशिप बँधवा दइ। पेपरों में नाम छपो, फोटो निकरी। सब कहैं, साधु महात्मा की संतान है। काय नें नाम करहैं ?
स्यामबल्लभ महाराज को पुन्न-परताप है के ऐंसे नोंने लड़का भए। सुई के छेद सें निकर जायं, इत्तो साफ-सुथरौ चाल-चलन। धन्य हैं स्यामबल्लभ! निरमला जब सुनै कै पूरी बाहबाही तौ स्यामबल्लभ खों दइ जा रइ है, सो आग लग जाए ओ के बदन में। हम जो हाड़ घिसत रय, सो कछु नइं ? सीत गरमी बरसात नैं देखी, सो कछु नइं? गहना-गुरिया बेंच डारे, सो कछु नइं। दो कपड़ों में जिन्दगी काट रय, सो कछु नइं ? भूंके रह कें खरचा चलाओ हमनें, पेट काटो हमनें, लालटेन में गुजारा करौ हमनें, और नाम हो रओ उनको ! जित्तो सोचै, उत्तोइ जी कलपै। स्यामबल्लभ के नाम सें चेंहेक जाय। नफरत भर गई। का दुनियां है, औरतों की गत-गंगा होत रैहै, बोलबाला आदमियों को हूहै।
कहत कछु नैं हती। अपने पति की का बुराई करनै ? संस्कार इजाजत नइं देत ते। मन मार कैं रह जाय। इज्जत जित्ती ढंकी-मुंदी रहै, अच्छी। देखत-देखत लड़का कालेज पोंच गए। उतै भी अब्बल। सौ में सें सौ के लिघां नम्बर। कालेज को नाम पूरे प्रदेस में हो गओ। कालेज बारों ने सब फीसें माफ कर दइं। कालेज पधार कें मुख्यमंत्री ने घोसना कर दई कै इन होनहार छात्रों की ऊँची सें ऊँची पढ़ाई कौ खरचा सरकार उठैहै। उनने खुद निरमला पंडतान को स्वागत करौ -
‘हम इन स्वयंसिद्धा महिला श्रीमती निर्मला देवी पुरोहित का अभिनन्दन करते हैं, जिन्होंने नाना कष्टों को उठाकर अपने पुत्रों को योग्य विद्यार्थी एवं योग्य नागरिक बनाने का संकल्प लिया है।’ अब निरमला के कानों में बेर-बेर गूँजै, ‘स्वयंसिद्धा’ और मन के तार झनझना जायं। देबीमैया के सामने हांत जोड़ै, हे भगवती! तुमाइ किरपा नै होती, तो मैं अबला का कर लेती ?
एंसइ में एक दिना सिपाही ने आकें खबर दइ कै ‘स्यामबल्लभानन्द खों कतल के जुर्म में फांसी होबे बारी है। नसे की झोंक में रुपैयों के ऊपर सें अपनेइ साथी से लठा-लठी कर लई हती। इनने ऐंसो घनघना कें लट्ठ हन दओ ओकी मूड़ पे, कै बो तुरतइं बिल्ट गओ। उनने अपने घर को पतो जोइ दओ है। आप औरें उनकी ल्हास लै सकत हो।’ निरमला ने आव देखो नैं ताव। दस्खत करकें चिट्ठी तो लै लइ, मनों फाड़ कें मेंक दइ और कह दइ - ‘हम नइं जानत, कौन स्यामबल्लभानन्द ?’
दो-तीन दिना बाद माधवकान्त ने महतारी कौ सूनो माथो देखकें टोक दओ - ‘काय माइ, आज बूंदा नइं लगाओ ?’ निरमला सकपका गई, मनो कर्री आवाज में बोली - ‘बेटा, सपरत-खोरत में निकर-निकर जात है। अब रहन तो दो। को लगाय ?’
साभार- जिजीविषा कहानी संग्रह
-इति-
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गुरुवार, 25 अप्रैल 2019

बुंदेली कथा

बुंदेली कथा ४
बाप भलो नें भैया
*
एक जागीर खों जागीरदार भौतई परतापी, बहादुर, धर्मात्मा और दयालु हतो।
बा धन-दौलत-जायदाद की देख-रेख जा समज कें करता हतो के जे सब जनता के काजे है।
रोज सकारे उठ खें नहाबे-धोबे, पूजा-पाठ करबे और खेतें में जा खें काम-काज करबे में लगो रैत तो।
बा की घरवाली सोई सती-सावित्री हती।
दोउ जनें सुद्ध सात्विक भोजन कर खें, एक-दूसरे के सुख-सुबिधा को ध्यान धरत ते।
बिनकी परजा सोई उनैं माई-बाप घाई समजत ती।
सगरी परजा बिनके एक इसारे पे जान देबे खों तैयार हो जात ती ।
बे दोउ सोई परजा के हर सुख-दुख में बराबरी से सामिल होत ते।
धीरे-धीरे समै निकरत जा रओ हतो।
बे दोउ जनें चात हते के घर में किलकारी गूँजे।
मनो अपने मन कछु और है, करता के कछु और।
दोउ प्रानी बिधना खें बिधान खों स्वीकार खें अपनी परजा पर संतान घाई लाड़ बरसात ते।
कैत हैं सब दिन जात नें एक समान।
समै पे घूरे के दिन सोई बदलत है, फिर बे दोऊ तो भले मानुस हते।
भगवान् के घरे देर भले हैं अंधेर नईया।
एक दिना ठकुरानी के पैर भारी भए।
ठाकुर जा खबर सुन खें खूबई खुस भए।
नौकर-चाकरन खों मूं माँगा ईनाम दौ।
सबई जनें भगबान सें मनात रए के ठकुराइन मोंड़ा खें जनम दे।
खानदान को चराग जरत रए, जा जरूरी हतो।
ओई समै ठाकुर साब के गुरु महाराज पधारे।
उनई खों खुसखबरी मिली तो बे पोथा-पत्रा लै खें बैठ गए।
दिन भरे कागज कारे कर खें संझा खें उठे तो माथे पे चिंता की लकीरें हतीं।
ठाकुर सांब नें खूब पूछी मनो बे इत्त्तई बोले प्रभु सब भलो करहे।
ठकुराइन नें समै पर एक फूल जैसे कुँवर खों जनम दओ।
ठाकुर साब और परजा जनों नें खूबई स्वागत करो।
मनो गुरुदेव आशीर्बाद देबे नई पधारे।
ठकुराइन नें पतासाजी की तो बताओ गओ के बे तो आश्रम चले गै हैं।
दोऊ जनें दुखी भए कि कुँवर खों गुरुदेव खों आसिरबाद नै मिलो।
धीरे-धीरे बच्चा बड़ो होत गओ।
संगे-सँग ठाकुर खों बदन सिथिल पडत गओ।
ठकुराइन नें मन-प्राण सें खूब सबा करी, मनो अकारथ।
एक दिना ठाकुर साब की हालत अब जांय के तब जांय की सी भई।
ठकुअराइन नें कारिन्दा गुरुदेव लिंगे दौड़ा दओ।
कारिन्दा के संगे गुरु महाराज पधारे मनो ठैरे नईं।
ठकुराइन खों समझाइस दई के घबरइयो नै।
जा तुमरी कठिन परिच्छा की घरी है।
जो कछू होनी है, बाहे कौउ नई रोक सकहे।
कैत आंय धीरज धरम मित्र अरु नारी, आपातकाल परखहहिं चारी।
हम जानत हैं, तुम अगनी परिच्छा सें खरो कुंदन घाईं तप खें निकरहो।
ठाकुर साब की तबियत बिगरत गई।
एक दिना ठकुराइन खों रोता-बिलखता छोर के वे चल दए ऊ राह पे, जितै सें कोऊ लौटत नईया।
ठाकुर के जाबे के बाद ठकुराइन बेसुध से हतीं।
कुँवर के सर पे से ठाकुर की छाया हट गई।
ठकुराइन को अपनोंई होस नई हतो।
दो दोस्त चार दुसमन तो सबई कोइ के होत आंय।
ठाकुर के दुसमनन नें औसर पाओ।
'मत चूके चौहान' की मिसल याद कर खें बे औरें कुँवर साब के कानें झूठी दिलासा देबे के बहाने जुट गए।
कुँवर सही-गलत का समझें? जैसी कई ऊँसई करत गए।
हबेली के वफादारों ने रोकबे-टोकबे की कोसिस की।
मनो कुँवर नें कछू ध्यान नें दऔ।
ठकुराइन दुःख में इत्ती डूब गई के खुदई के खाबे-पीबे को होस नई रओ।
मूं लगी दाई मन-पुटिया के कछू खबा दे ती।
ऊ नें पानी नाक सें ऊपर जात देखो तो हिम्मत जुटाई।
एक दिना ठकुराइन सें कई की कुँवर साब के पाँव गलत दिसा में मुड़ रए हैं।
ठकुराइन नें भरोसा नई करो, डपट दओ।
हवन करत हाथ जरन लगे तो बा सोई चुप्पी लगा गई।
कुँवर की सोहबत बिगरत गई।
बे जान, सराब और कोठन को सौक फरमान लगे।
दाई सें चुप रैत नई बनो।
बाने एक रात ठकुराइन खों अपने मूड की सौगंध दै दी।
ठकुराइन नें देर रात लौ जागकर नसे की हालत में लौटते कुंवर जू खें देखो।
बिन्खों काटो तो खून नई की सी हालत भई।
बे तो तुरतई कुँवर जू की खबर लओ चाहत तीं मनो दाई ने बरज दऔ।
जवान-जहान लरका आय, सबखें सामनू कछू कहबो ठीक नईया।
दाई नें जा बी कई सीधूं-सीधूं नें टोकियो।
जो कैनें होय, इशारों-इशारों में कै दइयो ।
मनो सांप सोई मर जाए औ लाठी सोई नै टूटे।
उन्हें सयानी दाई की बात ठीकई लगी।
सो कुँवर के सो जाबै खें बाद चुप्पै-चाप कमरे माँ जा खें पर रईं।
नींद मनो रात भरे नै आई।
पौ फटे पे तनक झपकी लगी तो ठाकुर साब ठांड़े दिखाई दए।
बिन्सें कैत ते, "ठकुराइन! हम सब जानत आंय।
तुमई सम्हार सकत हो, हार नें मानियो।"
कछू देर माँ आँख खुल गई तो बे बिस्तर छोड़ खें चल पडीं।
सपरबे खें बाद पूजा-पाठ करो और दाई खों भेज खें कुँवर साब को कलेवा करबे खों बुला लओ।
कुँवर जू जैसे-तैसे उठे, दाई ने ठकुराइन को संदेस कह दौ।
बे समझत ते ठकुराइन खों कच्छू नें मालुम ।
चाहत हते कच्छू मालून ने परे सो दाई सें कई अब्बई रा रए।
और झटपट तैयार को खें नीचे पोंच गई, मनो रात की खुमारी बाकी हती।
बे समझत हते सच छिपा लओ, ठकुराइन जान-बूझ खें अनजान बनीं हतीं।
कलेवा के बाद ठकुराइन नें रियासत की समस्याओं की चर्चा कर कुँवर जू की राय मंगी।
बे कछू जानत ना हते तो का कैते? मनो कई आप जैसो कैहो ऊँसई हो जैहे।
ठकुराइन नें कई तीन-चार काम तुरतई करन परहें।
नई तें भौतई ज्यादा नुक्सान हो जैहे। 
कौनौ एक आदमी तो सब कुछ कर नई सकें।
तुमाए दोस्त तो भौत काबिल आंय, का बे दोस्ती नई निबाहें?
कुँवर जू टेस में आ खें बोले काय न निबाहें, जो कछु काम दैहें जी-जान सें करहें।
ठकुराइन नें झट से २-३ काम बता दए।
कुँवर जू नें दस दिन खों समै चाओ, सो बाकी हामी भर दई।
ठाकुर साब के भरोसे के आदमियां खों बाकी के २-३ काम की जिम्मेवारी सौंप दई गई। 
ठकुराइन ने एक काम और करो ।
कुँवर जू सें कई ठाकुर साब की आत्मा की सांति खें काजे अनुष्ठान करबो जरूरी है।
सो बे कुँवर जू खों के खें गुरु जी के लिंगे चल परीं और दस दिन बाद वापिस भईं।
जा बे खें पैले जा सुनिस्चित कर लाओ हतो के ठाकुर साब के आदमियों को दए काम पूरे हो जाएँ।
जा ब्यबस्था सोई कर दई हती के कुँवर जु के दोस्त मौज-मस्ती में रए आयें और काम ने कर पाएँ।
बापिस आबे के एक दिन बाद ठकुराइन नें कुँवर जू सें कई बेटा! टमें जो का दए थे उनखों का भओ? 
जा बीच कुँवर जू नसा-पत्ती सें दूर रए हते।
गुरु जी नें उनैं कथा-कहानियां और बार्ताओं में लगा खें भौत-कछू समझा दौ हतो।
अब उनके यार चाहत थे के कुंअर जू फिर से रा-रंग में लग जाएं।
कुँवर जू कें संगे उनके सोई मजे हो जात ते।
हर्रा लगे ने फिटकरी रंग सोई चोखो आय।
ठकुराइन जानत हतीं के का होने है?
सो उन्ने बात सीधू सीधू नें कै। 
कुँवर कू सें कई तुमाए साथ ओरें ने तो काम कर लए हूहें।
ठाकुर साब के कारिंदे निकम्मे हैं, बे काम नें कर पायें हुइहें।
पैले उनसें सब काम करा लइयो, तब इते-उते जइओ। 
कुंवर मना नें कर सकत ते काये कि सब कारिंदे सुन रए ते।
सो बे तुरतई कारिंदों संगे चले गए। 
कारिंदे उनें कछू नें कछू बहनों बनाखें देर करा देत ते।
कुँवर जू के यार-दोस्तों खें लौतबे खें बाद कारिंदे उनें सब कागजात दिखात ते।
कुँवर जू यारों के संगे जाबे खों मन होत भए भी जा नें पात ते।
काम पूरो हो जाबे के कारन कारिंदों से कछू कै सोई नें सकत ते।
दबी आवाज़ में थकुराइअन सें सिकायत जरूर की।
ठकुराइन नें समझाइस दे दई, अब ठाकुर साब हैं नईंया।
हम मेहरारू जा सब काम जानत नई।
तुमै सोई धीरे-धीरे समझने-सीखने में समै चाने।
देर-अबेर होत बी है तो का भई?, काम तो भओ जा रओ है। 
तुमें और कौन सो काम करने है? 
कुंअर जू मन मसोस खें रए जात हते।
अब ठकुराइन सें तो नई कए सकत ते की दोस्तन के सात का-का करने है?
दो-तीन दिना ऐंसई निकर गए। 
एक दिना ठकुराइन नें कई तुमाए दोस्तन ने काम करई लए हूहें।
मनो कागजात लें खें बस्ता में धार दइयो।
कुँवर नें सोची साँझा खों दोस्त आहें तो कागज़ ले लैहें और फिर मौज करहें।
सो कुँवर जू नें झट सें हामी भर दई।
संझा को दोस्त हवेली में आये तो कुँवर जू नें काम के बारे में पूछो।
कौनऊ नें कछू करो होय ते बताए?
बे एक-दूसरे को मूं ताकत भए, बगलें झांकन लगे।
एक नें झूठोबहानों बनाओ के अफसर नई आओ हतो।
मनो एक कारिंदे ने तुरतई बता दओ के ओ दिना तो बा अफसर बैठो हतो।
कुँवर जू सारी बात कोऊ के बताए बिना समझ गै।
करिन्दन के सामने दोस्तन सें तो कछू नें कई।
मनो बदमजगी के मारे उन औरों के संगे बी नई गै।
ठकुरानी नें दोस्तों के लानें एकऊ बात नें बोली।
जाईकई कौनौ बात नईयाँ बचो काम तुम खुदई कर सकत हो।
कौनऊ मुस्किल होय तो कारिंदे मदद करहें। 
कुँवर समझ गए हते के दोस्त मतलब के यार हते। 
धीरे-धीरे बिन नें दोस्तन की तरफ धान देना बंद कर दौ।
ठकुराइन नें चैन की सांस लई।
***

रविवार, 30 अप्रैल 2017

बुंदेली कहानी, सुमनलता श्रीवास्तव


बुंदेली कहानी
कचोंट 
डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव 
*
                         सत्तनारान तिबारीजी बराण्डा में बैठे मिसराजी के घर की तरपीं देख रअे ते और उनें कल्ल की खुसयाली सिनेमा की रील घाईं दिखा रईं तीं। मिसराजी के इंजीनियर लड़का रघबंस को ब्याओ आपीसर कालोनी के अवस्थी तैसीलदार की बिटिया के संगें तै हो गओ तो। कल्ल ओली-मुंदरी के लयं लड़का के ममआओरे-ददयाओरे सब कहुँ सें नाते-रिस्तेदारों को आबो-जाबो लगो रओ। बे ओंरें तिबारीजी खों भी आंगें करकें समद्याने लै गअे ते। लहंगा-फरिया में सजी मोड़ी पूजा पुतरिया सी लग रई ती। जी जुड़ा गओ। आज मिसराजी कें सूनर मची ती। खबास ने बंदनबार बाँदे हते, सो बेई उतरत दुफैरी की ब्यार में झरझरा रअे ते।

                         इत्ते में भरभरा कें एक मोटर-साइकल मिसराजी के घर के सामनें रुकी। मिसराजी अपनी दिल्लान में बाहर खों निकर कें आय, के, को आय ? तबई्र एक लड़किनी जीन्स-सर्ट-जूतों में उतरी और एक हांत में चाबी घुमात भई मिसराजी के पाँव-से परबे खों तनक-मनक झुकी और कहन लगी - ‘पापाजी, रघुवंश है ?’ मिसराजी तो ऐंसे हक्के-बक्के रै गअे के उनको बकइ नैं फूटो। मों बांयं, आँखें फाड़ें बिन्नो बाई खों देखत रै गये। इत्ते में रघबंस खुदई कमीज की बटनें लगात भीतर सें निकरे और बोले - ‘पापा, मैं पूजा के साथ जा रहा हूँ। हम बाहर ही खा लेंगे। लौटने में देर होगी।’ मिसराजी तो जैंसई पत्थर की मूरत से ठांड़े हते, ऊँसई ठांडे़ के ठांड़े रै गय। मोटरसाइकल हबा हो गई। तब लौं मिसराइन घुंघटा सम्हारत बाहरै आ गईं - काय, को हतो ? अब मिसराजी की सुर्त लौटी - अरे, कोउ नईं, तुम तो भीतरै चलो। कहकैं मिसराइन खों ढकेलत-से भीतरैं लोआ लै गअे। तिबारी जी चीन्ह गअे के जा तो बई कन्या हती, जीके सगुन-सात के लयं गअे हते। तिबारी जी जमाने को चलन देखकैं मनइं मन मुस्कान लगे। नांय-मांय देखो, कोउ नैं हतौ कै बतया लेते। आज की मरयादा तो देखो। कैंसी बेह्याई है ? फिर कुजाने का खेयाल आ गओ के तिलबिला-से गअे। उनकें सामनें सत्तर साल पैलें की बातें घूम गईं। आज भलेंईं तिबारीजी को भरौ-पूरौ परिबार हतो, बेटा-बेटी-नाती-पोता हते, उनईं की सूद पै चलबे बारीं गोरी-नारी तिबारन हतीं, मनां बा कचोंट आज लौं कसकत ती।

                         सत्तनारान तिबारी जी को पैलो ब्याओ हो गओ तो, जब बे हते पन्दरा साल के। दसमीं में पड़त ते। आजी की जिद्द हती, जीके मारें; मनों दद्दा ने कड़क कें कै दइ ती कै हमाये सत्तू पुरोहितयाई नैं करहैं। जब लौं बकालत की पड़ाई नैं कर लैंहैं, बहू कौ मों नैं देखहैं। आज ब्याओ भलेंईं कल्लो, मनों गौनौ हूहै, जब सही समौ आहै। सो, ब्याओ तो हो गओ। खूब ढपला बजे, खूब पंगतें भईं। मनों बहू की बिदा नैं कराई गई। सत्तू तिबारी मेटरिक करकें गंजबसौदा सें इन्दौर चले गअे और कमरा लें कें कालेज की पड़ाई में लग गअे। उनके संग के और भी हते दो चार गाँव-खेड़े के लड़का, जिनके ब्याओ हो गअे हते, कइअक तो बाप सुंदां बन गअे हते। सत्तू तो बहू की मायाजाल में नैं परे ते, मनो समजदार तो हो गय ते। कभउँ-कभउँ सोच जरूर लेबें कै कैंसो रूप-सरूप हुइये देबासबारी को, हमाय लयं का सोचत हुइये, अब तो चाय स्यानी हो गई हुइये।

                         खबर परी कै देबास बारी खूबइ बीमार है और इन्दौर की बड़ी अस्पताल में भरती है। अब जौन भी आय, चाय देबास सें, चाय गंजबसौदा सें, सत्तू केइ कमरा पै ठैरै। सत्तू सुनत रैबें के तबीअत दिन पै दिन गिरतइ जा रइ है, सेबा-सम्हार सब बिरथां जा रइ है। सत्तू फड़फड़ायं कै हमइ देख आबें, मनों कौनउ नें उनसें नईं कई, कै तुमइ चलो। दद्दा आय, कक्का आय, बड़े भैया आय मनों आहाँ। जे सकोच में रय आय और महिना-दो महिना में सुनी कै डाकटरों ने सबखां लौटार दओ। फिर महीना खाँड़ में देबास सें जा भी खबर आ गई कै दुलहन नईं रई। जे गतको-सो खाकैं रै गअे।

                         एइ बात की कचोंट आज तलक रै गई कै जीखौं अरधांगनी बनाओ, फेरे डारे, सात-पाँच बचन कहे-सुने, ऊ ब्याहता को हम मों तक नैं देख पाय। बा सुइ पति के दरसनों खों तरसत चली गई और हम पोंचे लौं नईं, नैं दो बोल बोल पाय। हम सांगरे मरयादइ पालत रै गअे। ईसें तो आजइ को जमानो अच्छो है। संग-साथ क बचन तो निभा रय। हमें तो बस, बारा-तेरा साल की बहू को हांत छूबो याद रै गओ जिन्दगी-भर के लयं, जब पानीग्रहन में देबास बारी को हाथ छुओ तो।,,,,,,और बोइ आज लौं कचोंट रओ। 
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बुंदेली कहानी, सुमनलता श्रीवास्तव

बुंदेली कहानी
स्वयंसिद्धा 
डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव श्रीवास्तव 
*

                         पंडत कपिलनरायन मिसरा कोंरजा में संसकिरित बिद्यालय के अध्यापक हते। सूदो सरल गउ सुभाव। सदा सरबदा पान की लाली सें रचौ, हँसत मुस्कात मुँह। एकइ बिटिया, निरमला, देखबे दिखाबे में और बोलचाल में बिलकुल ‘निर्मला’। मिसराजी मोड़ी के मताई-दद्दा दोइ। मिसराजी की पहली ब्याहीं तो गौना होकें आईं आईं हतीं, कै मोतीझिरा बब्बा लै गए और दूसरी निरमला की माता एक बालक खों जनम देत में ओइ के संगे सिधार गईं तीं। ईके बाद तीसरी बार हल्दी चढ़वाबे सें नाहीं कर दई मिसराजी ने।

                         निरमला ब्याह जोग भईं, तो बताबे बारे ने खजरा के पंडत अजुद्धा परसाद पुरोहित के इतै बात चलाबे की सलाय दइ। जानत ते मिसराजी उनें। अपनेइं गाँव में नईं, बीस कोस तक के गांवों में बड़ो मान हतो पुरोहिज्जी को। जे बखत तिरपुण्ड लगाएं गैल में निकर परैं, सो आबे-जाबे बारे नोहर-नोहर के ‘पाय लागौं पंडज्जी’ कहत भए किनारे ठांड़े हो जाएं। बे पंचों में भी सामिल हते। देख भर लेबें कौनउ अन्नाय, दलांक परैं। मों बन्द कर देबैं सबके। चाय कौनउ नेता आए, चाय कौनउ आफीसर, बिना पुरोहिज्जी की मत लयं बात नइं बढ़ सकै।

                         ऊँचो ग्यान हतो उनको। जित्ते पोथी-पत्तर पढ़े ते, उत्तइ बेद-पुरान। मनों, बोलत ते बुंदेली। जब मौज में आ जायं, तो खूब सैरा-तैया, ईसुरी की फागें छेड़ देबैं। कहैं कै अपनी बुंदेली में बीररस के गीत फबत हैं और सिंगार रस के भी। बुंदेली के हिज्जे में जोन ऊपर बुंदी लगी है, बइ है सिंगार के लयं। मिसराजी ने पुरोहिज्जी खों सागर जिले के ‘बुंदेलखण्डी समारोह’ में देखो हतो। मंच पै जब उनें माला-आला डर गई, तो ठांड़े होकें पैलें उनने संचालकों खोंइ दो सुना दईं। अरे, बातें बुंदेलखंड की करबे आए हो, मनों बता रय हो खड़ी बोली में। बुंदेली कौ उद्धार चाहत हो, तो बोल-चाल में लाओ। जित्ती मिठास और जित्तो अपनोपन ई बोली में मिलहै, कहुँ नें मिलहै। किताब में लिख देबै सें बोली कौ रस नइ समज में आत। हर बोली बोलबे कौ अलग ढंग होत है। अलग भांस होत है हर भासा की, अलग लटका। कब ‘अे’ कहनें है, कब ‘अै’, कब ‘ओ’ कब ‘औ’। जा बात बिना बोलें, नइंर् समजाइ जा सकत। फिर नैं कहियो के नई पीढ़ी सीख नईं रइ, अरे तुम सिखाओ तो। और नइं तो तुमाय जे सब समारोह बेकार हैं। उनके हते तीन लड़का- राधाबल्लभ, स्यामबल्लभ और रमाबल्लभ। राधाबल्लभ के ब्याह के बाद

                         स्यामबल्लभ के लयं संबंध आन लगे ते। मजे की बात एेंसी भई; कै पुरोहिज्जी खों कोंरजइ बुलाओ गऔ भागवत बांचबे। बे भागवत भी बांचत हते और रामान भी। चाए किसन भगवान को द्वारकापिरस्तान होय, चाय सीतामैया की अग्निपरिच्छा, सुनबे बारों के अंसुआ ढरकन लगें। सत्तनारान की कथा तो ऐंसी, कै लगै मानों लीलाबती कलाबती अपनी महतारी-बिटियें होयं।

                         मिसराजी प्रबचन के बाद पुरोहिज्जी खों अपने घरै लै गए। घर की देख-संभार तौ निरमलइ करत ती। घिनौची तो, बासन तो, उन्ना-लत्ता तो, सब नीचट मांज-चमका कें, धो-धोधा कैं रखत ती। छुइ की ढिग सुंदा उम्दा गोबर से लिपौ आंगन देखकें पुरोहिज्जी की आत्मा पिरसन्न हो गई। दोइ पंडत बैठकें बतयान लगे कै बालमीकी की रामान और तुलसी की रामान में का-कित्तो फरक है। मौका देखकें मिसराजी बात छेडबे की बिचारइ रय ते; कै ओइ समै निरमला छुइ-गेरु सें जगमग तुलसी-चौरा में दिया बारबे आई। दीपक के उजयारे में बिन्नाबाई को मुँह चंदा-सो दमक उठौ। पुरोहिज्जी ने ‘संध्याबन्दन’ में हांत जोरे और निरमला खों अपने घर की बहू बनाबे को निस्चै कर लओ। कुंडलीमिलान के चक्कर में सोनचिरैया सी कन्या नें हांत से निकर जाय, सो कुंडली की बातइ नइं करी और पंचांग देखकें निरमला सें स्यामबल्लभ को ब्याओ करा दओ।

                         मंजले स्यामबल्लभ खों पुरोहिज्जी ने अपनो चेला बनाकें अपनेइ पास रक्खौ हतौ। एकदम गोरौ रंग, ऊँचो माथो, घुंघरारे बाल और बड़ी-बड़ी आँखें। गोल-मटोल धरे ते, जैंसे मताइ ने खूब माखन-मिसरी खबाइ होय। जब पुरोहिज्जी भागवत सुनांय, तो स्यामबल्लभ बीच-बीच में तान छेड़ देबैं। मीठो गरो, नइ-नइ रागें।

                         हरमुनियां पै ऐंसे-ऐंसे लहरा छेड़ें कै लगै करेजौ निकर परहै। सोइ रामान में एक सें एक धुनों में चौपाइएं। जब नारज्जी बन्दर बन गए, तो अलग लै-राग-ताल, कै पेट में हँसी कुलबुलान लगै और जब राम बनबास खों निकरन लगे, तो अलग कै रुहाइ छूट जाए।

                         बड़े राधाबल्लभ ने धुप्पल में रेलबइ को फारम भर दऔ और नौकरी पा गए। अपने बाल-बच्चा समेट कें, पेटी दबाकें निकर गए भुसावल। एकाद साल बाद लौटे, तो हुलिया बदल गई हती, बोली बदल गई हती। सो कछु नईं। मनों जब पुरोहिज्जी ने सुनी के बे खात-खोआत हैं, बस बिगर गए। बात जादई बढ़ गई, पिता ने चार जनों के सामनें थुक्का-फजीहत कर दई, सो राधाबल्लभ ने घरइ आबो छोड़ दओ।

                         छोटे रमाबल्लभ की अंगरेजी की समज ठीक हती, सो उनइं खों जमीन-जायदाद, खेती-बाड़ी, ढोर-जनावर, अनाज-पानी, कोर्ट-कचैरी की जिम्मेदारी दइ गई। रमाबल्लभ भी राजी हते, कायसें के ई बहाने, कछु रुपैया-पैसा उनके हांत में रैन लगौ तो।

                         निरमला खों तो सास के दरसनइ नईं मिले। बउ तो तीनइ चार दिनां के बुखार में चट्ट-पट्ट हो गईं तीं। बड़ी बहू घर की मालकन हती। मनों, जब बे बाहरी हो गईं, तो एइ ने हुसियारी सें घर सम्हार लओ। सुघर तौ हती; ऊपर सें भगवान नैं रूप ऐंसो दओ तो कै सेंदुर भरी मांग, लाल बड़ी टिबकी, सुन्ने के झुमकी, नाक की पुंगरिया, चुड़ियों भरे हांत, पांवों में झमझमात तोड़ल-बिछिया और सूदे पल्ले को घुंघटा देखकें लगै कै बैभोलच्छमी माता की खास किरपा ऐइ पै परी है। पुरोहिज्जी ने बहुओं खों खूब चाँदी-सोना चढ़ाओ हतौ।

                         छोटे रमाबल्लभ की बहू सुसमा सो निरमला केइ पीछें-पीछें लगी रहै और छोटी बहन घाईं दबी रहै। ओकी तीसरी जचकी निरमला नेंइं संभारीं, हरीरा सें, लड़ुअन सें, घी-हल्दी सें, मालिस-सिंकाई सें, कहूं कमी नैं रैन दइ। हाली-फूली निरमला ने खुदइ चरुआ चढ़ा लओ, खुदइ छठमाता पूज लइं, खुदइ सतिया बना लय, खुदइ दस्टौन, कुआपुजाइ, मातापूजा, झूला, पसनी सब कर लओ। कच्छु नैं छोड़ो। अपने दोइ लड़कों, माधवकान्त और केसवकान्त खों बिठार दओ कै पीले और गुलाबी झिलमिल कागज के चौखुट्टे टुकड़ों में दो-दो बड़े बतासा ध्ा रत जावें और धागा बांध कें पुड़ियें बनावें। निरमला ने खूब बुलौआ करे, बतासा बांटे, न्यौछावरें करीं। ढुलकिया तो ऐंसी ठनकी के चार गांव सुनाइ दइ -‘मोरी ढोलक लाल गुलाल, चतुर गावनहारी।’ एक सें एक हंसी-मजाक कीं, खुसयाली कीं, दुनियांदारी कीं, नेग-दस्तूर कीं जच्चा, सोहर, बधाईं। दाइ-खबासन सब खुस। निरमला-सुसमा दोइ के पैले जापे तो जिठानी ने जस-तस निबटा लय ते। एक बे तो फूहड़ हतीं, दूसरें भण्डारे की चाबी धोती के छुड्डा सें छूट नै सकत ती। मनों निरमला की देखादेखी सुसमा ने भी कभउँ उनकी सिकायत नें करी। बड़ी सबर बारी कहाईं। तबइ तो पुरोहिज्जी के घर में लच्छमी बरसत ती।

                         पुरोहिज्जी निरमला खों इत्ते मुकते काम एक संगे निबटात देख कें मनइ-मन सोचन लगें कै जा बहू तो अस्टभुजाधारी दुरगामैया को औतार है - नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः। गांव-बस्ती में भी खूब जस हो गओ निरमला को। कहूं सुहागलें होयं, कहूं सात सुहागलों के हातों ब्याओ के बरी-पापर बनन लगें, बर-बधू खों हल्दी-तेल चढ़न लगै, तो सगुन-सात के कामों में निरमला को हांत सबसे पहले लगवाओ जाए। एक तो बाम्हनों के घर कीं, फिर उनके गुन-ढंग लच्छमी से।

                         मनों का सब दिन एकइ से रहत हैं ? बिधि को बिधान। पुरोहिज्जी मों-अंधेरें खेतों की तरप जात हते। एक दिन लौटे नइं। निरमला खों फिकर मच गई। इत्ते बखत तक तो उनके इस्नान-ध्यान, पाठ-पूजा, आरती-परसाद सब हो जात तो, आज कितै अटक गए ? स्याम, रमा, माधव, केसव सब दौर परे। देखत का हैं के खेत की मेंड़ पे ओंधे मों डरे हैं, बदन नीलो पर गओ है, मुँह सें फसूकर निकर रओ है। तब लौं गांव के और आदमी भी उतइं पोंच गए। समज गए कै नागराज डस गए। पूरे दिन गुनिया, झरैया, फुंकैया सब लगे रहे कै नागदेवता आएं और अपनौ जहर लौटार लयं। गांव भर में चूल्हो नइं जरौ उदिना। सब हाहाकार करें, मनों आहाँं; कुजाने कौन से बिल में बिला गओ बो नांग। संझा लौं एक जनो तहसील सें डाक्टर खों बुला लै आओ, मनों ऊने आतइं इसारा कर दओ कै अब देर हो गई।

                         पुरोहिज्जी के जाबे सें अंधयारो सो छा गओ। पूजा-रचा, उपास-तिरास, जग्ग-हबन को बो आनन्द खतम हो गओ। सबने स्यामबल्लभ खोंइ समजाओ कै बेइ पुरोहताई संभारें। निरमला नें बाम्हनों के नेम-धरम और घर की मान-मर्जादा की बातें समजाईं। सो उनने बांध लई हिम्मत। अब बेइ पूजन-पुजन लगे। निरमला को नाम पर गओ, पंडतान बाई।

                         निरमला पंडतान को पूरो खेयाल ए बात पै रहत हतो कै ओके लड़का का पढ़ रय, का लिख रय, किते जात हैं, कौन के संगे खेलत-फिरत हैं, बड़ों के सांमने कैंसो आचरन करत हैं। तनक इतै उतै होयं, तो साम दाम दंड भेद सब बिध से रस्ता पे लै आय। निरमला ने अपने पिता के घर में सीखे नर्मदाष्टक, गोविन्दाष्टक, शिवताण्डवस्तोत्र, दुर्गाकवच, रामरक्षास्तोत्र, गीता के इस्लोक सबइ कछु बिल्लकुल किताब घाईं मुखाग्र करवा दय लड़कों खों। बड़े तेज हते बालक। स्यामबल्लभ ने बच्चों की कभउँ सुर्त नैं लइ। अपनी बन-ठन, तिलक-चन्दन मेंइं घंटाक निकार देबैं। नैं लड़कों खो उनसें मतलब, नैं उनें लड़कों सें। हाँ घर लौटें, सो जरूर लड़कों में आरती-दच्छना की चिल्लर गिनबे की होड़ लग जाए। निरमला भोग के फल-मिठाई संभार कें रख लेबै और सबखों परस कें ख्वा देबै। ओके मन में अपने लड़कों और सुसमा के बाल-बच्चों में भेद नैं हतो।

                         होत-होत, कहुँ सें साधुओं कौ एक दल गाँव में आ गऔ। गांवबारों नै खूब आव-भगत करी, प्रबचन सुने, दान-दच्छना दइ। खूब धूनी रमत ती। स्यामबल्लभ उनके संगे बैठें, तो बड़ो अच्छौ लगै। मंडली खों हती गांजा-चरस की लत। सो बइ लत लगा दइ स्यामबल्लभ खों। अब बे सग्गे लगन लगे और घर-संसार मोहमाया। निरमला ने ताड़ लओ, मनों स्यामबल्लभ नें घरबारी की बात नैं सुनीं। हटकत-हटकत उनइं के महन्त के सामनें भभूत लपेट कें गंगाजली उठा लइ और हो गए साधू। गाँव बारों ने खूब जैकारो करौ। धन्न-धन्न मच गई। गतकौ सो लगौ निरमला खों। कछू नैं समज परौ। तकदीर खों कोस कें रै गई। साधुओं कौ दल स्यामबल्लभानन्द महाराज खों लैकें आंगें निकर गओ। गांव में निरमला कौ मान और बढ़ गओ। जा कौ पति साधु-सन्त हो जाए, तो बा भी सन्तां से कम नइं। ठकरान, ललयान, बबयान, मिसरान सब पाँव परन लगीं। मनों निरमला के मन पै का बीत रइ हती ? लड़काबारे छोटे-छोटे, कमैया छोडकें चलौ गओ। कछू दिनां तो धरे-धराय सें काम चलत रहौ, मनों बैठ के खाओ तौ कुबेर कौ धन सुइ ओंछ जाय। एक-एक करकें चीजें-बसत बिकन लगीं। आठ-दस बासन भी निकार दय। उतै रमाकान्त ने पटवारी सें मिलीभगत करकें जमीन और घर अपने नाम करवा लओ। कोइ हतौ नइं देखबे बारौ, सो कर लइ मनमरजी। कहबै खों तो निरमला और बच्चों की मूड़ पै छत्त नैं रइ ती, मनों सुसमा अड़ गई कै जिज्जी एइ घर में रैहें, भलें तुम और जो चाहे मनमानी कर लो।

                         चलो, एक कुठरिया तौ मिल गई, मनों खरचा-पानी कैंसें चलत ? रमाबल्लभ ने पूंछो भी नइं और पूंछते तो का इत्ते छल-कपट के बाद निरमला उनको एसान लेती ? लड़का बोले, माइ! अब हम इस्कूल नैं जैहैं।

                         बस, निरमला पंडतान की इत्ते दिनों की भड़ास निकर परी - काय, तौ का बाप घाईं भभूत चुपर कें साधू बन जैहौ ? दुआर-दुआर जाकें मांगे की खैहौ ? दूसरों के दया पै पलहौ ? अरे हौ, सो तुमइं भांग में डूबे रइयो, गांजा-चरस के सुट्टा लगइयो, गैरहोस होकें परे रइयो, कै जनता समजे महात्माजी समादी में हैं। झूंठो छल, झूंठो पिरपंच। अपने आलसीपने खों, निकम्मेपने खों धरम को नाम दै दऔ; सो मुफत की खा रय और गर्रा रय।

                         सब ठठकरम, सब ढकोसला। साधुओं की जमात में भगत हैं, भगतनें हैं, कमी कौन बात की उनें ? नें बे देस के काम आ रय, नें समाज के, नें परिबार के। अपनौ पेट भर रय और जनता खों उल्लू बना रय। ऊँसइ बेअकल बे भक्त, अंधरया कें कौनउ खों भी पूजन लगत हैं। और सच्ची पूंछो तो, कइयक तो अपनी उल्टी-सूदी कमाई लुकाबे के लानें धरम को खाता खोल लेत हैं और धरमात्मा कहान लगत हैं।

                         कान खोल कें सुन लो, माधोकान्त और केसोकान्त! तुमें जनम देबै बारो तो अपनी जिम्मेबारियों सें भग गओ कै उनकी औलाद खों हम पालैं, कायसें के हमाए पेट सें निकरे हो। मनों बे हमें कम नैं समजें। अबे समै खराब है, सो चलन दो। कल्ल खों हम अपने हीरा-से लड़कों खों एैसो बना दैहें के फिर पुरोहिज्जी की इज्जत इ घर में लौट्याये। अपन मेहनत मजूरी कर लैहें, बेटा। मनों, लाल हमाय ! तुम दोइ जनें पढ़बो लिखबो नें छोड़ियो। तुम दोइ जनों खों अपने नाना की सूद पकर कें सिक्छक बनने है।’ निरमला दोइ कुल को मान बढ़ाबो चहत ती।

                         निरमला ने ठाकुरों के घरों में दोइ बखत की रोटी को काम पकर लओ। कभउँ सेठों के घरों के पापर बेल देबै। हलवाइयों के समोसा बनवा देबै। कहुँ पे बुलाओ जाय, तो तीज-त्यौहार के पकवान बनवा देबै।

                         कभउँ घरइ में गुजिया, पपरिया बनाकें बेंच देबै। कहूँ बीनबे-पीसबे, छानबे-फटकबे खों चली जाय। एक घड़ी की फुरसत नइं, आराम नइं। बस, मन में संकल्प कर लओ हतो कै लड़कों खों मास्टर बनानै है और बो भी कालेज को। गर्मियों में माधोकान्त और केसोकान्त लग जायं मालगुजार साहब खों पंखा डुलाबे के काम में। मालगुजारी तौ नें रही हती, मनों ठाठ बेइ। उनें बिजली के पंखा की हवा तेज लगत ती। अपनी बैठक की छत्त सें एक बल्ली में दो थान कपड़ा को पंखा झुलवाएं हते, ओइ खों पूरे-पूरे दिन रस्सी सें डुलाने परत हतो। जित्ते पैसा मिलें, सो माधव केसव किताब-कापियों के लानें अलग धर लेबैं। इतै-उतै की उसार कर देबैं, सो बो पैसा अलग मिल जाय। बाकी दिनों में बनिया की अनाज-गल्ले की दुकान पे लग जायं। इस्कूल के लयं सात-सात कोस को पैदल आबो-जाबो अलग। उनकी मताइ हती उनकी गुरु। जैंसी कहै, सो बे राम लछमन मानत जायं। दोइ भइयों ने महतारी की लाज रक्खी। माधव कान्त पुरोहित दसमीं के बोर्ड में और केशव कान्त पुरोहित आठमीं के बोर्ड में प्रथम स्रेनी में आ गए। मैडल मिले। कलेक्टर ने खुद बुलवा कें उनकी इस्कालरशिप बँधवा दइ। पेपरों में नाम छपो, फोटो निकरी। सब कहैं, साधु महात्मा की संतान है। काय नें नाम करहैं ?

                         स्यामबल्लभ महाराज को पुन्न-परताप है के ऐंसे नोंने लड़का भए। सुई के छेद सें निकर जायं, इत्तो साफ-सुथरौ चाल-चलन। धन्य हैं स्यामबल्लभ! निरमला जब सुनै कै पूरी बाहबाही तौ स्यामबल्लभ खों दइ जा रइ है, सो आग लग जाए ओ के बदन में। हम जो हाड़ घिसत रय, सो कछु नइं ? सीत गरमी बरसात नैं देखी, सो कछु नइं? गहना-गुरिया बेंच डारे, सो कछु नइं। दो कपड़ों में जिन्दगी काट रय, सो कछु नइं ? भूंके रह कें खरचा चलाओ हमनें, पेट काटो हमनें, लालटेन में गुजारा करौ हमनें, और नाम हो रओ उनको ! जित्तो सोचै, उत्तोइ जी कलपै। स्यामबल्लभ के नाम सें चेंहेक जाय। नफरत भर गई। का दुनियां है, औरतों की गत-गंगा होत रैहै, बोलबाला आदमियों को हूहै।

                         कहत कछु नैं हती। अपने पति की का बुराई करनै ? संस्कार इजाजत नइं देत ते। मन मार कैं रह जाय। इज्जत जित्ती ढंकी-मुंदी रहै, अच्छी। देखत-देखत लड़का कालेज पोंच गए। उतै भी अब्बल। सौ में सें सौ के लिघां नम्बर। कालेज को नाम पूरे प्रदेस में हो गओ। कालेज बारों ने सब फीसें माफ कर दइं। कालेज पधार कें मुख्यमंत्री ने घोसना कर दई कै इन होनहार छात्रों की ऊँची सें ऊँची पढ़ाई कौ खरचा सरकार उठैहै। उनने खुद निरमला पंडतान को स्वागत करौ -

                         ‘हम इन स्वयंसिद्धा महिला श्रीमती निर्मला देवी पुरोहित का अभिनन्दन करते हैं, जिन्होंने नाना कष्टों को उठाकर अपने पुत्रों को योग्य विद्यार्थी एवं योग्य नागरिक बनाने का संकल्प लिया है।’ अब निरमला के कानों में बेर-बेर गूँजै, ‘स्वयंसिद्धा’ और मन के तार झनझना जायं। देबीमैया के सामने हांत जोड़ै, हे भगवती! तुमाइ किरपा नै होती, तो मैं अबला का कर लेती ?

                         एंसइ में एक दिना सिपाही ने आकें खबर दइ कै ‘स्यामबल्लभानन्द खों कतल के जुर्म में फांसी होबे बारी है। नसे की झोंक में रुपैयों के ऊपर सें अपनेइ साथी से लठा-लठी कर लई हती। इनने ऐंसो घनघना कें लट्ठ हन दओ ओकी मूड़ पे, कै बो तुरतइं बिल्ट गओ। उनने अपने घर को पतो जोइ दओ है। आप औरें उनकी ल्हास लै सकत हो।’ निरमला ने आव देखो नैं ताव। दस्खत करकें चिट्ठी तो लै लइ, मनों फाड़ कें मेंक दइ और कह दइ - ‘हम नइं जानत, कौन स्यामबल्लभानन्द ?’

                         दो-तीन दिना बाद माधवकान्त ने महतारी कौ सूनो माथो देखकें टोक दओ - ‘काय माइ, आज बूंदा नइं लगाओ ?’ निरमला सकपका गई, मनो कर्री आवाज में बोली - ‘बेटा, सपरत-खोरत में निकर-निकर जात है। अब रहन तो दो। को लगाय ?’
साभार- जिजीविषा कहानी संग्रह 

-इति-
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मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

bundeli kahani

बुंदेली कथा ४
मतलब के यार
*
एक जागीर खों जागीरदार भौतई परतापी, बहादुर, धर्मात्मा और दयालु हतो।
बा धन-दौलत-जायदाद की देख-रेख जा समज कें करता हतो के जे सब जनता के काजे है।
रोज सकारे उठ खें नहाबे-धोबे, पूजा-पाठ करबे और खेतें में जा खें काम-काज करबे में लगो रैत तो।
बा की घरवाली सोई सती-सावित्री हती।
दोउ जनें सुद्ध सात्विक भोजन कर खें, एक-दूसरे के सुख-सुबिधा को ध्यान धरत ते।
बिनकी परजा सोई उनैं माई-बाप घाई समजत ती।
सगरी परजा बिनके एक इसारे पे जान देबे खों तैयार हो जात ती ।
बे दोउ सोई परजा के हर सुख-दुख में बराबरी से सामिल होत ते।
धीरे-धीरे समै निकरत जा रओ हतो।
बे दोउ जनें चात हते के घर में किलकारी गूँजे।
मनो अपने मन कछु और है, करता के कछु और।
दोउ प्रानी बिधना खें बिधान खों स्वीकार खें अपनी परजा पर संतान घाई लाड़ बरसात ते।
कैत हैं सब दिन जात नें एक समान।
समै पे घूरे के दिन सोई बदलत है, फिर बे दोऊ तो भले मानुस हते।
भगवान् के घरे देर भले हैं अंधेर नईया।
एक दिना ठकुरानी के पैर भारी भए।
ठाकुर जा खबर सुन खें खूबई खुस भए।
नौकर-चाकरन खों मूं माँगा ईनाम दौ।
सबई जनें भगबान सें मनात रए के ठकुराइन मोंड़ा खें जनम दे।
खानदान को चराग जरत रए, जा जरूरी हतो।
ओई समै ठाकुर साब के गुरु महाराज पधारे।
उनई खों खुसखबरी मिली तो बे पोथा-पत्रा लै खें बैठ गए।
दिन भरे कागज कारे कर खें संझा खें उठे तो माथे पे चिंता की लकीरें हतीं।
ठाकुर सांब  नें खूब पूछी मनो बे इत्त्तई बोले प्रभु सब भलो करहे।
ठकुराइन नें समै पर एक फूल जैसे कुँवर खों जनम दओ।
ठाकुर साब और परजा जनों नें खूबई स्वागत करो।
मनो गुरुदेव आशीर्बाद देबे नई पधारे।
ठकुराइन नें पतासाजी की तो बताओ गओ के बे तो आश्रम चले गै हैं।
दोऊ जनें दुखी भए कि कुँवर खों गुरुदेव खों आसिरबाद नै मिलो।
धीरे-धीरे बच्चा बड़ो होत गओ।
संगे-सँग ठाकुर खों बदन सिथिल पडत गओ।
ठकुराइन नें मन-प्राण सें खूब सबा करी, मनो अकारथ।
एक दिना ठाकुर साब की हालत अब जांय के तब जांय की सी भई।
ठकुअराइन नें कारिन्दा गुरुदेव लिंगे दौड़ा दओ।
कारिन्दा के संगे गुरु महाराज पधारे मनो ठैरे नईं।
ठकुराइन खों समझाइस दई के घबरइयो नै।
जा तुमरी कठिन परिच्छा की घरी है।
जो कछू होनी है, बाहे कौउ नई रोक सकहे।
कैत आंय धीरज धरम मित्र अरु नारी, आपातकाल परखहहिं चारी।
हम जानत हैं, तुम अगनी परिच्छा सें खरो कुंदन घाईं तप खें निकरहो।
ठाकुर साब की तबियत बिगरत गई।
एक दिना ठकुराइन खों रोता-बिलखता छोर के वे चल दए ऊ राह पे, जितै सें कोऊ लौटत नईया।
ठाकुर के जाबे के बाद ठकुराइन बेसुध से हतीं।
कुँवर के सर पे से ठाकुर की छाया हट गई।
ठकुराइन को अपनोंई होस नई हतो।
दो दोस्त चार दुसमन तो सबई कोइ के होत आंय।
ठाकुर के दुसमनन नें औसर पाओ।
'मत चूके चौहान' की मिसल याद कर खें बे औरें कुँवर साब के कानें झूठी दिलासा देबे के बहाने जुट गए।
कुँवर सही-गलत का समझें? जैसी कई ऊँसई करत गए।
हबेली के वफादारों ने रोकबे-टोकबे की कोसिस की।
मनो कुँवर नें कछू ध्यान नें दऔ।
ठकुराइन दुःख में इत्ती डूब गई के खुदई के खाबे-पीबे को होस नई रओ।
मूं लगी दाई मन-पुटिया के कछू खबा दे ती।
ऊ नें पानी नाक सें ऊपर जात देखो तो हिम्मत जुटाई।
एक दिना ठकुराइन सें कई की कुँवर साब के पाँव गलत दिसा में मुड़ रए हैं।
ठकुराइन नें भरोसा नई करो, डपट दओ।
हवन करत हाथ जरन लगे तो बा सोई चुप्पी लगा गई।
कुँवर की सोहबत बिगरत गई।
बे जान, सराब और कोठन को सौक फरमान लगे।
दाई सें चुप रैत नई बनो।
बाने एक रात ठकुराइन खों अपने मूड की सौगंध दै दी।
ठकुराइन नें देर रात लौ जागकर नसे की हालत में लौटते कुंवर जू खें देखो।
बिन्खों काटो तो खून नई की सी हालत भई।
बे तो तुरतई कुँवर जू की खबर लओ चाहत तीं मनो दाई ने बरज दऔ।
जवान-जहान लरका आय, सबखें सामनू  कछू कहबो ठीक नईया।
दाई नें जा बी कई सीधूं-सीधूं नें टोकियो।
जो कैनें होय, इशारों-इशारों में कै दइयो ।
मनो सांप सोई मर जाए औ लाठी सोई नै टूटे।
उन्हें सयानी दाई की बात ठीकई लगी।
सो कुँवर के सो जाबै खें बाद चुप्पै-चाप कमरे माँ जा खें पर रईं।
नींद मनो रात भरे नै आई।
पौ फटे पे तनक झपकी लगी तो ठाकुर साब ठांड़े दिखाई दए।
बिन्सें कैत ते, "ठकुराइन! हम सब जानत आंय।
तुमई सम्हार सकत हो, हार नें मानियो।"
कछू देर माँ आँख खुल गई तो बे बिस्तर छोड़ खें चल पडीं।
सपरबे खें बाद पूजा-पाठ करो और दाई खों भेज खें कुँवर साब को कलेवा करबे खों बुला लओ।
कुँवर जू जैसे-तैसे उठे, दाई ने ठकुराइन को संदेस कह दौ।
बे समझत ते ठकुराइन खों कच्छू नें मालुम ।
चाहत हते कच्छू मालून ने परे सो दाई सें कई अब्बई रा रए।
और झटपट तैयार को खें नीचे पोंच गई, मनो रात की खुमारी बाकी हती।
बे समझत हते सच छिपा लओ, ठकुराइन जान-बूझ खें अनजान बनीं हतीं।
कलेवा के बाद ठकुराइन नें रियासत की समस्याओं की चर्चा कर कुँवर जू की राय मंगी।
बे कछू जानत ना हते तो का कैते? मनो कई आप जैसो कैहो ऊँसई हो जैहे।
ठकुराइन नें कई तीन-चार काम तुरतई करन परहें।
नई तें भौतई ज्यादा नुक्सान हो जैहे।
कौनौ एक आदमी तो सब कुछ कर नई सकें।
तुमाए दोस्त तो भौत काबिल आंय, का बे दोस्ती नई निबाहें?
कुँवर जू टेस में आ खें बोले काय न निबाहें, जो कछु काम दैहें जी-जान सें करहें।
ठकुराइन नें झट से २-३ काम बता दए।
कुँवर जू नें दस दिन खों समै चाओ, सो बाकी हामी भर दई।
ठाकुर साब के भरोसे के आदमियां खों बाकी के २-३ काम की जिम्मेवारी सौंप दई गई।
ठकुराइन ने एक काम और करो ।
कुँवर जू सें कई ठाकुर साब की आत्मा की सांति खें काजे अनुष्ठान करबो जरूरी है।
सो बे कुँवर जू खों के खें गुरु जी के लिंगे चल परीं और दस दिन बाद वापिस भईं।
जा बे खें पैले जा सुनिस्चित कर लाओ हतो के ठाकुर साब के आदमियों को दए काम पूरे हो जाएँ।
जा ब्यबस्था सोई कर दई हती के कुँवर जु के दोस्त मौज-मस्ती में रए आयें और काम ने कर पाएँ।
बापिस आबे के एक दिन बाद ठकुराइन नें कुँवर जू सें कई बेटा! टमें जो का दए थे उनखों का भओ?
जा बीच कुँवर जू नसा-पत्ती सें दूर रए हते।
गुरु जी नें उनैं कथा-कहानियां और बार्ताओं में लगा खें भौत-कछू समझा दौ हतो।
अब उनके यार चाहत थे के कुंअर जू फिर से रा-रंग में लग जाएं।
कुँवर जू कें संगे उनके सोई मजे हो जात ते।
हर्रा लगे ने फिटकरी रंग सोई चोखो आय।
ठकुराइन जानत हतीं के का होने है?
सो उन्ने बात सीधू सीधू नें कै।
कुँवर कू सें कई तुमाए साथ ओरें ने तो काम कर लए हूहें।
ठाकुर साब के कारिंदे निकम्मे हैं, बे काम नें कर पायें हुइहें।
पैले उनसें सब काम करा लइयो, तब इते-उते जइओ।
कुंवर मना नें कर सकत ते काये कि सब कारिंदे सुन रए ते।
सो बे तुरतई कारिंदों संगे चले गए।
कारिंदे उनें कछू नें कछू बहनों बनाखें देर करा देत ते।
कुँवर जू के यार-दोस्तों खें लौतबे खें बाद कारिंदे उनें सब कागजात दिखात ते।
कुँवर जू यारों के संगे जाबे खों मन होत भए भी जा नें पात ते।
काम पूरो हो जाबे के कारन कारिंदों से कछू कै सोई नें सकत ते।
दबी आवाज़ में थकुराइअन सें सिकायत जरूर की।
ठकुराइन नें समझाइस दे दई, अब ठाकुर साब हैं नईंया।
हम मेहरारू जा सब काम जानत नई।
तुमै सोई धीरे-धीरे समझने-सीखने में समै चाने।
देर-अबेर होत बी है तो का भई?, काम तो भओ जा रओ है।
तुमें और कौन सो काम करने है?
कुंअर जू मन मसोस खें रए जात हते।
अब ठकुराइन सें तो नई कए सकत ते की दोस्तन के सात का-का करने है?
दो-तीन दिना ऐंसई निकर गए।
एक दिना ठकुराइन नें कई तुमाए दोस्तन ने काम करई लए हूहें।
मनो कागजात लें खें बस्ता में धार दइयो।
कुँवर नें सोची साँझा खों दोस्त आहें तो कागज़ ले लैहें और फिर मौज करहें।
सो कुँवर जू नें झट सें हामी भर दई।
संझा को दोस्त हवेली में आये तो कुँवर जू नें काम के बारे में पूछो।
कौनऊ नें कछू करो होय ते बताए?
बे एक-दूसरे को मूं ताकत भए, बगलें झांकन लगे।
एक नें झूठोबहानों बनाओ के अफसर नई आओ हतो।
मनो एक कारिंदे ने तुरतई बता दओ के ओ दिना तो बा अफसर बैठो हतो।
कुँवर जू सारी बात कोऊ के बताए बिना समझ गै।
करिन्दन के सामने दोस्तन सें तो कछू नें कई।
मनो बदमजगी के मारे उन औरों के संगे बी नई गै।
ठकुरानी नें दोस्तों के लानें एकऊ बात नें बोली।
जाईकई कौनौ बात नईयाँ बचो काम तुम खुदई कर सकत हो।
कौनऊ मुस्किल होय तो कारिंदे मदद करहें।
कुँवर समझ गए हते के दोस्त मतलब के यार हते।
धीरे-धीरे बिन नें दोस्तन की तरफ ध्यान दैबो बंद कर दौ।
बे समझ गए हते जे दोस्त काम के नें काज के, दुसमन अनाज के हते।
आगे के लाने कुँवर जू सजग हो गए, फिर नजीक नें आ पाए मतलब के यार।
ठकुराइन नें चैन की सांस लई।

***
१४२

शनिवार, 22 अप्रैल 2017

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बुंदेली कहानी
मस्त रओ मस्ती में
*
मुतके दिना की बात है।  कहूँ दूर-दराज एक गाँव में एक ठो धुनका हतो।
का कई ? धुनका का होत है, नई मालुम?
कैंसें मालूम हुउहै? तुम औरें तो बजार सें बनें-बनायें गद्दा, तकिया ले लेत हो।  
मनो पुराने समै में जे गद्दा-तकिया कारखानों में नें बनत हते।
किसान खेत में कपास के पौधे लगात ते।
बे बड़े होंय तो बिनमें बोंड़ी निकरत हतीं।
फेर बोंड़ी  खिलत तीं तो फूल बनत तीं।
बिनमें सें बगुला के पर घाईं सुफेद-सुफेद कपास झाँकत ती।
तब खेतान की सोभा बहुतई नीकी हो जात ती।
का बताएँ, जैसे आसमान मा तारे बगर जात हैं अमावास की रात में, बिलकुल ऊंसई।
घरवाली मुतियन को हार पैंने हो और हार टूट जाए तो बगरते भए मोती जैसें लगत हैं, ऊंसई।
जा बी कै सकत हों जब घरवाली खुस हो खें खिलखिला देय तो मोतिन कैसें दांत झिलमिलात हैं, ऊंसई।
नें मानो तो कबू कौनऊ समै हमरे लिंगे चलियो जब खेत मा कपास हो।
देख खें खुदई मान जैहो के हम गलत नईं कहत हते।
तो जा कपास खेत सें चुन लई जात ती।
मेहरारू इकट्ठी होखें रुई चुनत जाबें और गीत सोई गात जात तीं।
बे पुरानी धुतिया फाड़ खें एक छोर कान्धा के ऊपर सें और दूसर छोर कान्धा के नीचें से निकार कर गठिया लेत तीं।
ऐंसे में पीठ पे थैलिया घाईं बन जात ती।
बे दोऊ हातन सें रुई चुनत जात तीं और पीठ पे थैलिया में रखत जात तीं।
हरे-हरे खेतन में लाल-पीरी धुतियाँ में मेहरारुओं के संगे सुफेद-सुफेद कपास बहुतई सुहात ती।
बाड़ी में रंग-बिरंगे फूलन घाईं  नीकी-नीकी।
बिन खों हेर खें तबियत सोई खिल जात ती।
तुम पूछत ते धुनका को कहात ते?
जे रुई इकट्ठी कर खें जुलाहे खों दै दई जात ती।
जुलाहा धुनक-धुनक खें रुई से बिनौला निकार देत तो।  
अब तुम औरें पूछिहो जा बिनौला का होत है?
जाई तो मुसकिल है तुम औरों के सँग।
कैत हो अंग्रेजी इस्कूल जात हो।
जातई भरे हो, कें कच्छू लिखत-पढ़त हो।
ऐंसी कैंसी पढ़ाई के तुमें कछू पतई नईया।
चलो, बता देत हैं, बिनौला कैत हैं रुई के बीजा खों।
बिनौला करिया-करिया, गोल-गोल होत है।
बिनौला ढोर-बछेरन खों खबाओ जात है।
गैया-भैंसिया बिनोरा खा खें मुताको दूद देत हैं, सो बी एकदम्म गाढ़ा-गाढ़ा।
हाँ तो का कहत हते?... हाँ याद आ गओ धुनका
रुई सें बिनौला निकार खें धुनका ओ खें धुनक-धुनक खें एक सार करत तो।
फेर दरजी सें पलंगा खे नाप को खोल सिला खें, जमीन पे बिछा देत तो।
जे खोल के ऊपर रुई बिछाई जात ती।    
पीछे सें धीरे-धीरे एक कोंने से खोल पलटा दौ जात तो।
आखर में रुई पूरे खोल कें अंदर बिछ जात ती।
फिर बड़े-बड़े सूजा में मोटा तागा पिरो खें थोड़ी-थोड़ी दूर पै टाँके लगाए जात ते।
टंकाई खें बाद गद्दा भौत गुलगुला हो जात तो।
तुम सहरबारे का जानो ऐंसें गद्दा पे लोट-पॉपोट होबे में कित्तो मजा आउत है?
हाँ तो, हम कैत हते कि गाँव में धुनका रैत तो।
बा धुनका बहुतई ज्यादा मिहनती और खुसमिजाज हतो।
काम सें काम, नईं तो राम-राम।
ना तीन में, ना तेरा में। ना लगाबे में, ना बुझाबे में।
गाँव के लोग बाकी खूब प्रसंसा करत ते।
मनो कछू निठल्ले, मुस्टंडे बासे खूबई खिझात ते।
काय के बिन्खे बऊ - दद्दा धुनिया ना नांव लै-लै के ठुबैना देत ते।
कछू सीखो बा धुनिया सें, कैसो सुबे सें संझा लौ जुतो रैत है अपनें काम में।
जे मुस्टंडे कोसिस कर-कर हार गए मनो धुनिया खों ओ के काम सें नई डिंगा पाए।
आखिर में बे सब धुनिया खों 'चिट्टा कुक्कड़' कह खें चिढ़ान लगे।
का भओ? धुनिया अपने काम में भिड़ो रैत तो।
रुई धुनकत-धुनकत, रुई के रेसे ओके पूरे बदन पे जमत जात ते।
संझा लौ बा धुनिया भूत घाईं चित्तो सुफेद दिखन लगत तो।
रुई निकारत समाई ओखे तांत से मुर्गे की कुकड़ कूँ घाईं आवाज निकारत हती।
कछू दिना तो धुनिया नेब चिढ़ाबेबारों को हडकाबे की कोसिस करी।
मनो बा समज गओ के जे सब ऑखों ध्यान काम सें हटाबें की जुगत है।
सो ओनें इन औरन पे ध्यान देना बंद कर दौ।
ओ हे हमेसा खुस देख कें लोग-बाग़ पूछत हते के बाकी कुसी को राज का आय?
पैले तो बो सुन खें भी अनसुना कर देत तो।
कौनऊ भौत पीछे पारो तो कए तुमई कओ मैं काए काजे दुःख करों?
राम की सौं मो खों कछू कमी नईया।
दो टैम रोटी, पहनबे-रहबे खों कपरा और छत।
करबे को काम और लेबे को को राम नाम।
एक दिना कोऊ परदेसी उतई सें निकरो।
बा कपड़ा-लत्ता सें अमीर दिखत तो मनो खूबी दुखी हतो।
कौनऊ नें  उसें धुनिया के बारे में कै दई।
बा नें आव देखो नें ताव धुनिया कें पास डेरा जमा दओ।
भैया! आज तो अपनी खुसी का राज बाताये का परी।
मरता का न करता? दुनिया कैन लगो एक दिना मोरी तांत का धनुस टूट गओ।
मैं जंगल में एक झाड खों काटन लगो के लडकिया सें तांत बना लैहों।
तबई कछू आवाज सुनाई दई 'मतई काटो'।
इतै-उतै देखो कौनऊ नें हतो।
सोची भरम हो गाओ, फिर कुल्हाड़ी हाथ में लै लई।
जैसेई कुल्हाड़ी चलाई फिर आवाज़ आई।
तब समझ परी के जे तो वृच्छ देवता कछू कै रए हैं।
ध्यान सें सुनी बे कैत ते मोए मत काट, मोए मात काट।
मैंने कई महाराज नै काटों तो घर भर खों पेट कैसें भरहों।
बे बोले मो सें कछू बरदान ले लेओ।
मोए तो कछू ने सूझी के का ले लेऊँ?
तुरतई बता दई के मोहे कछू नें सुझात।
बिननें कई कौनऊ बात नैया, घरबारी सें पूछ आ।
मैं चल परो, रस्ते में एक परोसी मिल गओ।
काए, का हो गओ? ऐंसी हदबद में किते भागो जा रओ।
मो सें झूठ कैत नें बनी सो सच्ची बात बता दई।
बाने मो सें कई जा राज-पाट माँग ले।
मनो घरवारी नें राज-पाट काजे मनाही कर दई।  
बा बोली राज-पाट मिल जैहे तो तैं चला लेहे का?
तोहे तो रुई धुननें के सिवाय कछू काम नई आत।
ऐसो कर दुगानो काम हो खें दुगनो धन आये ऐसो बर माँग।
मोखों घरवारी की बात जाँच गई।
मैंने वृच्छ देवता सें कई तो बिनने मेरे चार हात कर दए।
मैं खुस होखें घर आओ तो बाल-बच्चन नें मोहे भूत समज लओ।
पुरा-परोसी सबी देख खें डरान लगे।
मोहे जो देखे बई किवार लगा ले।
मैं भौतई दुखी हतो, इतै-उतै बागत रओ, मनो कोई नें पानी को नई पूछो।
तब मोखों समज परी के जिनगानी में खुसी सबसे बरी चीज है।
खुसी नें हो तो धन-दौलत को कोनऊ मानें नईयाँ।
बस मैनें तुरतई वृच्छ देवता की सरन लई। १०१
बिनखें हाथ जोरे देवता किरपा करो, चार हात बापस कर लेओ।
मोए कछू ने चाईए, मैं पुराणी तांत के मरम्मत कर लेंहों।
आसिरबाद दो राजी-खुसी से जिनगानी बीत जाए।
वृच्छ देबता ने मोसें दो हात बापस ले लए।
कई जा तोहे कौनऊ चीज की कमी न हुईहै।
कौनऊ सें ईर्ष्या नें करियो, अपनें काम सें काम रखियो।
तबई सें महाराज मैं जित्तो कमात हूँ, उत्तई में खुस रहत हूँ।
कौनऊ सें कबऊ कछू नई मांगू।
कौऊ खें कछू तकलीफ नई देऊँ।
कौनऊ खें ज्यादा मिल जाए तो ऊ तरफी से आँख फेर लेत हूँ।
आप जी चाहो सो समझ लेओ, मैं वृच्छ देवता से मिले मन्त्र को कबऊँ नई भूलो।
आप भी समज लेओ और अपना लेओ 'मस्त रओ मस्ती में '
***


     

शुक्रवार, 21 अप्रैल 2017

bundeli kahani

बुंदेली कहानी
समझदारी
*
आज-काल की नईं, बात भौर दिनन की है।
अपने जा बुंदेलखंड में चन्देलन की तूती बोलत हती।
सकल परजा भाई-चारे कें संगै सुख-चैन सें रैत ती।
सेर और बुकरियाँ एकई घाट पै पानी पियत ते।
राजा की मरजी के बगैर नें तो पत्ता फरकत तो, नें चिरइया पर फड़फड़ाउत ती।
सो ऊ राजा कें एक बिटिया हती।
बिटिया का?, कौनऊ हूर की परी घाईं, भौतऊ खूबसूरत।
बा की खूबसूरती को कह सकत आय? 
जैसे पूरनमासी में चाँद, दीवारी में दिया जोत की सी, जैंसे दूद में झाग।
ऐंसी खिलंदड जैसे नर्मदा और ऊजरी जैंसे गंगा। 
जब कभूं राजकुँवरि दरबार में जात तीं तौ दरबार जगमगान लगत तो। 
राजकुँवरि के रूप और गुनन कें बखान सें सकल परजा को सर उठ जात तो। 
एक सें  बढ़के एक राजा, जागीरदार अउर जमींदार उनसें रिश्ते काजे ललचात रैत ते। 
मनो राजकुँवरि कौनऊ के ढिंगे आँख उठा के भी नें हेरत ती। 
जब कभऊं राजदरबार में कछू बोलत ती तो मनो बीना कें तार झनझना जाउत ते। 
राजा के मूं लगे दरबारन नें एक दिना हिम्मत जुटा कहें राजा साब सें कई। 
"महाराज जू! बिटिया रानी सयानी भई जात हैं।  
उनके ब्याह-काज कें लाने बात करो चाही। 
समय जात देर नईं लगत, बात-चीत भओ चहिए।''
दरबारन की बातें कान में परतई राजकुँवरि के गालन पे टमाटर घाईं लाली छा गई। 
राजकुँवरि के नैन नीचे झुक गए हते। 
राजा साहब ने जा देख कें अनुमान कर लओ कि दरबारी ठीकई कै रए।  
राजकुँवरि ने परदे की ओट सें कई -''दद्दा जू! हुसियार राजा कहें अपनेँ वफादार दरबारन की बात सुनों चाही।'' 
राजा साब नें अचरज के साथ राजकुँवरि की तरफ हेर खें कई ''हम सोई ऐंसई सोचत रए। '' 
''दद्दा जू! मनो ब्याह काजे हमरी एक शर्त है।
हम बा शर्त पूरी करबे बारे सें ब्याह करो चाहत हैं।"
अब तो महाराज जू और दरबारां सबईं खों जैसे साँप सूंघ गओ। 
बेटी जू के मूं सें सरत को नाम सुनतई राजा साब और दरबारी सब भौंचक्के रए गए। 
कोई ने सोची नईं हती के राजकुँवरि ऐसो कछू बोल सकत ती।  
सबरे जाने सोच में पर गए कि राजकुँवरि कछू ऐसो-वैसो नें कै दें। 
कहूँ उनकी कई पूरी नें कर पाए तो का हुईहै?
राजकुँवरि नें सबखों चुप्पी लगाए देख खें आपई कई। 
"आप औरन खों परेसान होबे की कौनऊ जरूरत नईआ।''
अब राजा साब ने बेटी जू सें कई- "बेटी जू! अपुन अपुनी सरत बताओ तें हम सब अपुन की सरत पूरी करबे में कछू कोर-कसार नें उठा रखबी।"
अब बेटी जु ने संकुचाते-संकुचाते अपनी सरत बताबे खातिर हिम्मत जुटाई और बोलीं-
"दद्दा जू! हम ऐसें वर सें ब्याह करो चाहत हैं जो चाहे गरीब हो या अमीर, गोरो होय चाए कारो, पढ़ो-लिखो होय चाए अनपढ़, लंगड़ो होय चाए लूलो पै बो बैठ खें उठ्बो नें जानत होय।"
बेटी जू सें ऐंसी अनोखी सरत सुन खें दरबारन खों दिमाग चकरा गओ। 
आप राजा साब सोई कछू नें समझ पा रए थे। 
मनो राजा साब राजकुँवरि की समझदारी के कायल हते। 
सबई दारबारन खों सोच-बिचार में डूबो देख राजा जू नें तुरतई राज घराने कें पुरोहित खें बुला लाबे काजे एक चिठिया ले कें खबास खें भेज दओ। 
पंडज्जी और खबास खों आओ देख कें महाराज जू नें एक चिट्ठी दे कें आदेस दओ-
"तुम दोउ जनें देस-बिदेस घूम-घूम खें जा मुनादी कराओ और कौनऊ ऐसे खों पता लगैयों जो बैठ खें उठाबो नें  जानत होए।"   
तुमें जिते ऐसो कौनऊ जोग बार मिले जो बैठ खें उठ्बो नेब जानत होय, उतई बेटी जू का ब्याह तय कर अइयो। 
उतई बेटू जु के ब्याओ काजे फलदान को नारियल धर अइयो।  
राजा साब की आज्ञा सुनकें पंडज्जी और खबास दोई जनें देसन-देसन कें राजन लौ गए। 
बे हर जगू  बिन्तवारी करत गए मनो निरासा हाथ लगत गई। 
बे जगूं-जगूं कैत गए "जून राजकुंवर बैठ खें उठ्बो नें जानत होय ओई के संगे अपनी राजकुंवरि का फलदान करबे काजे आये हैं।" 
बे जिते-जिते गए, उतई नाहीं को जवाब मिलत गओ।
कहूँ-कहूँ राजा लोग कयें 'जे कैसी अजब सर्त सुनात हो?
राजकुंवरि खें ब्याओ करने हैं कि नई?
पंडज्जी और खबास घूमत-घूमत थक गए। 
महीनों पे महीने निकारत गए मनो बात नई बनीं। 
सर्त पूरी करबे बारो कौनौ राजकुमार नें मिलो। 
आखिरकार बिननें थक-हार कर बापिस होबे को फैसला करो। 
आखिरी कोसिस करबे बार बे आखिरी रजा के ढींगे गए। 
इतै बी सर्त सुन कें राजदर्बाराब और राजा ने हथियार दार दै। 
दोऊ झनें लौटन लगे तबई राजकुमार बाहर सें दरबार में पधारे। 
उनने पूरी बात जानबे के बाद रजा साब सें अरज करी- 
" महाराज जू! आज लॉन अपने दरबार सें कौनऊ मान्गाबे बारो खली हात नई गओ है।
पुरखों को जस माटी में मिलाए से का फायदा? 
अपने देस जाके और रस्ते में जे दोनों जगू-जगू अपन अपजस कहत जैहें। 
ऐसें बचबे को एकई तरीको है।
आप जू इन औरन की बात रख लेओ।
आपकी अनुमत होय तो मैं इन राजकुमारी की सर्त पूरी करे के बाद ब्याओ कर सकत।"
जा सुन खें महाराज जू और दरबारी पैले तो संकुचाये कि बे ओरन कछू राह नई निकार पाए। 
कम अनुभवी राजकुमार नें रास्ता खोज लओ। 
अपनें राजकुमार की होसियारी पे भरोसा करखें महाराज जू नें कई-
" कुंवर जू! अपनी बात पे भरोसा कर खें हम फलदान रख लेंत हैं, मनो हमाओ सर नें झुकइयो। 
 काये कि सर्त पूरी नें भई तो राजकुमारी मुस्किल में पड़ जैहें। 
राज कुमार ने कई "आप हमाओ भरोसा करकें फलदान ले लेओ मगर हमरी सोई एक सर्त है। 
अब सबरे दरबारी, रजा, पंडज्जी और खबास चकराए। 
अब लौ एकई सर्त पूरीनें हो रई हती, अब एक और सर्त का चक्कर कैसे सुलझेगो?
महाराज नें पूछी तो राजकुमार नें सर्त बताई। 
महाराज आप जेई कागज़ पे एक संदेस लिख कें पठा दें।  
हमाई सरत है कि राजकुमारी की सरत पूरी करबे के काजे हमाओ राजकुमार तैयार है।  
मनो अकेले बे ऊ राजकुमारी सें ब्याओ कर्हें जो परके टरबो नें जानत होय।'
जो राजकुमारी खों जे सर्त स्वीकार होय तो बो अपनी हामी के संगे अपने पिताजू सें फलदान पठा देवें।
राजकुँवर सें  हामी भरवाखें पंडज्जी और खवास दोउ जनों ने जान की खैर मनाई।  
बे दोनों सारदा मैया की जय कर अपने राज खों लौट चले। 
राजा के लिंगा लौट खें पुरोहित नें पूरो हालचाल बताओ। 
पुरोहित नें कई "महाराज! हम दोउ जनें कहूँ रुकें बिना दिन-रात दौरतई रए। 
पैले एक तरफ सें आगे बढ़े हते। 
हौले-हौले देस-बिदेस कें सबई राजा जनों के दरबार में जात गए। 
मनो अकेलीं बेटी जू की सर्त पूरी करे काजे कौनऊ राजकुमार नें हामी नई भरी। 
हर जगूं सुरु-सुरु में भौत उत्साह सें न्योटा लऔ जात। 
मनो सर्त की बात सामने आतेई बिनकों सांप सूंघ जात तो। 
आखर में हम दोऊ निरास हो खें अपने परोसी राजा कने गए। 
बिनने हुलास सें स्वागत-सत्कार करो। 
जैसेई सर्त की बात भई सबकें  मूं उतर गए। 
राजा और दरबारी तो चुप्पै रए गए। 
हम औरन नें सोचीं के खाली हात वापिस होबे के सिवाय कौनौ चारो नईयाँ।
मनो बुजुर्ग ठीकई कै गए हैं मन सोची कबहूँ नई, प्रभु सोची तत्काल। 
हमाई बिदाई होते नें होते राजकुंवर जू दरबार में पधार गए। 
कुँवर जू ने सारी बात ध्यान सें सुनी, कछू देर सोचो और सर्त के लाने हामी भर दई। 
मनों अपनी तरफ सें एक सर्त और धर दई। 
एं कौन सी सर्त? कैसी सर्त? महाराज जू नें हडबडा खें पूछी। 
बतात हैं महाराज! बा सर्त बी बड़ी बिचित्र है।  
कुँवर नें कई के बें ऐसी स्त्री सें ब्याओ करहें जोन पर खें टरबो नईं जानत होय। 
नें मानो तो अपुन जू जा कागज़ खों बांच लेओ। 
जा कागज में सब कछू लिखा दओ है कुँवर नें। 
जा सर्त जान खें महाराज और दरबानी परेसान हते। 
कौनौ खें समझ मीन कौनऊ रास्ता नें सूझो। 
महाराज ने राजकुँवरी खें बुला भेजो। 
बे अपनी सखियाँ खें संगे अमराई में हतीं। 
महाराज जू को संदेसा मिलो तो तुरतई दरबार कें लाने चल परीं। 
राजकुँवरी ने जुहार कर अपनी जगह पे पधार गईं। 
महाराज नें कौनौ भूमिका बनाए बिना पंडज्जी सें कई के बा कागज़ बांच देओ। 
पंडत नें राजा कें हुकुम का पालन कर्खें बा कागज़ झट सें बांच दओ। 
बामें लिखी सर्त सुन खें राजकुँवरी हौले सें मुसक्या दईं और सरम सें सर झुका लओ। 
जा देख खें सबई की जान में जान आई। 
महाराज नें पूछी तो राजकुँवरी नें धीरे सें कै दई के बे जा सर्त पूरी कर सकत हैं।  
फिर का हती, बिटिया रानी की हामी सुनतई पंडत नें तुरतई रजा जी सें कई 'अब बिलम्ब केहि कारज कीजे ?'  
रजा जू पंडत खों मतलब समझ गए और बोले- श्री गनेस जू का ध्यान कर खें मुहूर्त बताओ। 
पंडज्जी तो ए ई औसर की तलास में हते। 
बिनने झट से पोथा-पत्तर निकारो और मुहूरत बता दओ। 
राजा नें महारानी खें बुलाबा भेजो और उन रजामंदी सें संदेश निमंत्रण पत्रिका लिखा दई। 
पत्रिका में लिखो हतो के आप जू अपने राजकुंवर की बारात लें खें अमुक तिथि खों पधारें।  
कवास खें आदेस दओ के जा पत्रिका राजा साब जू खें धिंगे पौन्चाओ। 
खवास तो ऐई मौके की टाक माँ हतो। 
जानत तो दोऊ जगू मोटी बखसीस मिलहै। 
पत्रिका पहुँचतई दोऊ राजन के महलन में ब्याओ की तैयारियां सुरु हो गईं।  
लिपाई-पुताई, चौक पुराई, गाने-बजाने, आबे-जाबे औए मेहमानन के सोर-सराबे से चहल-पहल हो गई।  
दसों दिसा में भोर सें साँझ लौ मंगाल गान गूंजन लगे। 
जैसेंई ब्याओ की तिथि आई बैसेई राजा जू अपने कुँवर साब खों दुल्हा बना खें पूरे फ़ौज-फांटे के संगे चल परे। समधी की राज में बिनकी खूबई आवभगत भई। 
जनवासे में बरात की अगवानी की गई। 
बेंड़नी खों नाच देखबे के खातिर लोग उमड़ परे। 
बरातियों खों पेट भर जलपान और भोजन कराओ गओ। 
जहाँ-तहाँ  सहनाई और ढोल-बतासे बजट हते। 
बरात की अगवानी भई, पलक पांवड़े बिछा दए गए। 
सजी-धजी नारियाँ स्वागत गीत गुंजात तीं। 
नाऊ और खवास बरातियन की मालिस करत हते।  
ज्योनार कें समै कोकिलकंठों से ज्योनार गीत और गारी सुन-सुन खें बराती खूबई मजा लेत ते।     
बरात उठी तो बाकी सोभा कही नें जात ती। 
हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल सब अपनी मस्ती में मस्त हते। 
ढोल, मंजीरा, ताशा, बिगुल, शहनाई के सँग नाच-गाना की धूम हती।  
मंडवा तरे भांवरन की तैयारी होन लगी।
मंडवा तरे राजकुमारी, राजकुमार दूल्हा-दुलहन के काजे रखे पटा पे बिराजे। 
दोउ राजा जू, रानीजू, नजीकी रिस्तेदार दास-दासियाँ, पंडज्जी और खवास सबै आस-पास बैठे हते। 
बन्ना-बन्नी गीत गूंजत हते। 
चारों तरफी हल्ला-गुल्ला, चहल-पहल, उत्साह हतो। 
अब जैसेईं तीं भांवरें पड़ चुकीं, बैसेई कन्या पक्ष को पुरोहित खड़ो हो गओ। 
वर पक्ष के पंडज्जी सें बोलो 'नेंक रुक जाओ पंडज्जी! 
अपुन दोऊ जनन खों मालुम है कै ब्याओ होबे के काजे कछू शर्तें हतीं।
पैले उनका खुलासा हो जावे, तब आगे की भाँवरें पारी जैहें। 
फिर बानें कुँवर जू सें कई "कुँवर जू! पैले अपुन बतावें के बेटी जू नें कौन सी सर्त रखी हती? 
अपुन जा सोई बताएँ के बा सर्त कब-कैंसें पूरी कर सकत?"
जा बात सुनतेई दुल्हा बने राजकुमार झट सें खड़े हो गए। 
बे बोले स्यानन कें बीच में जादा बोलबो ठीक नईयाँ। 
अपनी अकल के माफिक मैं जा समझो के राजकुमारी जी ने सर्त रखी हती के बै ऐसो बर चाउत हैं जो बैठ कें उठबो नें जानत होय। 
जा सर्त में राजकुमारी जू की जा इच्छा छिपी हती के उनको बर जानकार, अकलमंद, कुल-सीलवान, सुन्दर, औए बलसाली भओ चाही।  
ई इच्छा का कारन जे है के कौनऊ सभा में, कौनऊ मुकाबले में ओ खों कौउ हरा नें सकें।   
बिद्वान सें बिद्वान जन हों चाए ताकतवर लोग कौनऊ बाखों हरा खें उठा नें पावे। 
सबै जगा बाकी जीत को डंका पिटो चाही। 
ओके जीतबे से राजकुमारी जू को सर हमेसा ऊँचो रहेगो।
राजकुमारी अपने वर के कारन नीचो नई देखो चाहें। 
बे जब चाहे, जैसे चाहें आजमा सकत आंय। "  
दूल्हा राजा के चुप होतई पंडज्जी ने राजकुमारी से पूछो- 'काय बिटिया जू! तुमाई सर्त जोई हती के कछू और हती?" 
जा सुन कें राजकुमारी नें हामी में सर हिला दओ। 
मंडवा कें नीचे बैठे सबई जनें राजकुमार की अकाल की तारीफ कर कें वाह, वाह कै उठे। 
जा के बाद राजकुमार को पुरोहित खडो हो गओ। 
पुरोहित नें खड़े हो खें कही 'हमाए राजकुमार ने भी एक सर्त रखी हती।  
अब राजकुमारी जू बताबें के बा सर्त का हती और बे कैसे पूरी कर सकत हैं?' 
ई पै राजकुमारी लाज और संकोच सें गड़ सी गईं, मनो धीरे से सिमट-संकुच कें खड़ी भईं। 
कौनऊ और चारा नें रहबे से बिन्ने  जमीन को ताकत भए मंडवा के नीचे बैठे बड़ों-बुजुर्गों से अपने बात रखे के काजे आज्ञा माँगी। 
आज्ञा मिलबे पर धीमी लेकिन साफ़ आवाज़ में  कई 'राजकुँवर की सर्त जा हती के बें ऐसी स्त्री सें ब्याओ करो चाहत हैं जौन पर खें टरबो नईं जानत होय।'
हम  सर्त से जा समझें के राजकुमार नम्र और चतुर पत्नी चाहत हैं। 
ऐंसी पत्नी जो घरब के सब काम-काज जानत होय। 
ऐंसी पत्नी जो कामचोर और आलसी नें होय।
जो घर के सब बड़ों को अपने रूप, गुण, सील और काम-काज सें प्रसन्न रख सके। 
ऐसो नें होय के जब दोउ जनें परबे खों जांय तो कछू छूटो काम याद आने से उठनें परे। 
ऐसो भी ने होय कि बड़ो-बूढ़ों परबे या उठबे के बाद कौनौ बात की सिकायत करे और घर में कलह हो।  
राजकुमार ऐंसी सुघड़ घरबारी चाहत हैं जो कमरा में आ कें परे तो कौनऊ कारन सें उठबो नें जानें।  
राजकुमार जब - जैसे चाहें परीक्छा ले लें। 
दुल्हन के चुप होतई पुरोहित ने राजकुमार से पूछो- 'काय कुँवर जू! तुमाई सर्त जोई हती के कछू और हती?" 
जा सुन कें राजकुमार नें अपनी रजामंदी जता दई। 
मंडवा कें नीचे बैठे सबई लोग-लुगाई और सगे-संबंधी ताली बजाओं लगै। 
राजकुंवरी और राजकुमार की समझदारी नें सबई खों मन मोह लओ हतो।  
पंडज्जी और पुरोहित नें दोऊ पक्षों के सर्त पूरी होबे की मुनादी कर दई। 
राजकुँवर मंद-मंद मुसक्या रए हते। 
राजकुमारी अपने गोर नाज़ुक पैर के अंगूठे सें गोबर लिपा अँगना कुरेदत हतीं।  
उनकें गोरे गालन पे लाली सोभायमान हती। 
पंडज्जी और पुरोहित जी ने अगली भांवर परानी सुरु कर दई।  
सब जनें भौत खुस भये कि दुल्हा-दुल्हन एक-दूसरे के मनमाफिक आंय।  
सबसे ज्यादा खुसी जे बात की हती के दोऊ के मन में धन-संपत्ति और दहेज को लोभ ना हतो।  
दोऊ जनें गुन और सील को अधिक महत्व देखें संतोस और एक-दूसरे की पसंद को ख्याल रख कें जीवन गुजारन चाहत ते। 
सब जनों ने भांवर पूरी होबे पर दूल्हा-दुल्हिन और उनके बऊ-दद्दा खों खूब मुबारकबाद दई। 
इस ब्याव के पैले सबई जन घबरात हते कि "बैठ कें उठबो नें जानन बारो" वर और "पर खें टरबो नईं जानन बारी बहू" कहाँ सें आहें?
असल में कौनऊ इन शर्तों का मतलबई नें समझ पाओ हतो। 
आखिर में जब सब राज खुल गओ तो सबनें चैन की सांस लई।  
इनसे समझदार मोंड़ा-मोंडी हर घर में होंय जो धन की जगू गुन खों चाहें। 
तबई देस और समाज को उद्धार हुइहै।
राजकुमारी और राजकुमार को भए सदियाँ गुजर गईं मनों आज तक होत हैं चर्चे उनकी समझदारी के।  
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