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शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

दोहा सलिला : रूपमती तुम... -संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला :
                                                                                                                                                                                                            
रूपमती तुम...

संजीव 'सलिल'
*
रूपमती तुम, रूप के, हम पारखी अनूप.
तृप्ति न पाये तृषित गर, व्यर्थ रूप का कूप..
*
जुही चमेली चाँदनी, चम्पा कार्सित देह.
चंद्रमुखी, चंचल, चपल, चतुरा मुखर विदेह..
*
नख-शिख, शिख-नख मक्खनी, महुआ सा पीताभ.
तन पाताल रत्नाभ- मुख, पौ फटता अरुणाभ..
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वाक् सारिका सी मधुर, भौंह नयन धनु बाण.
वार अचूक कटाक्ष का, रुकें न निकलें प्राण..
*
सलिल-बिंदु से सुशोभित, कृष्ण-कुंतली भाल.
सरसिज पंखुड़ी से अधर, गुलकन्दी टकसाल..
*
देह-गंध मादक-मदिर, कस्तूरी अनमोल.
ज्यों गुलाब-जल में 'सलिल', अंगूरी दी घोल..
*
दस्तक कर्ण-कपाट पर, देते रसमय बोल.
पहुँच माधुरी हृदय तक, कहे नयन-पट खोल..
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दाड़िम रद-पट मौक्तिकी, संगमरमरी श्वेत.
रसना मुखर सारिका, पिंजरे में अभिप्रेत..
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वक्ष-अधर रस-गगरिया, सुख पा, कर रसपान.
बीत न जाए उमरिया, रीते ना रस-खान..
*
रस-निधि पा रस-लीन हो, रस पी हो लव-लीन.
सरस सृष्टि, नीरस बरस, तरस न हो रस-हीन..
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दरस-परस बिन कब हुआ, कहो सृष्टि-विस्तार?
दृष्टि वृष्टि कर स्नेह की, करे सुधा-संचार..
*
कंठ सुराहीदार है, भौंह कमानीदार.
करें दीद दीदार कह, तुम सा कौन उदार?.
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मधुशाला से गाल हैं, मधुबाला सी चाल.
छलक रहे मधु-कलश लख, होते रसिक निहाल..
*
कदली-दल सम पग युगल, भुज द्वय कमल-मृणाल.
बंधन में बँधकर हुआ, तन-मन-प्राण निहाल..
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करधन, पायल, चूड़ियाँ, खनक खोलतीं राज.
बोल अबोले बोलकर, साधें काज-अकाज..
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बिंदी चमके भाल पर, जैसे नभ पर सूर्य.
गुँजा रही विरुदावली, 'सलिल' नासिका तूर्य..
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झूल-झूल कुंडल करें, रूप-राशि का गान.
नथनी कहे अरूप है, कोई न सके बखान..
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नग-शोभित मुद्रिका दस, दो-दो नगाधिराज.
व्याल-जाल कुंतल हुए, क्या जाने किस व्याज?.
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दीवाने-दिल चाक कर, हुई हथेली लाल.
कुचल चले अरमान पग, हुआ आलता काल..
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रूप-रंग, मति-वाक् में, निपुणा राय प्रवीण.
अविरल रस सलिला 'सलिल', कीर्ति न किंचित क्षीण,,
*
रूपमती का रूप-मति, मणि-कांचन संयोग.
भूप दास बनते विहँस, योगी बिसरे योग..
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रूप अकेला भोग बन, कर विलास हो लाज.
तेज महालय ताज हो, जब संग हो मुमताज़..
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मीरा सी दीवानगी, जब बनती श्रृंगार.
रूप पूज्य होता तभी, नत हों जग-सरकार..
*
रूप शौर्य का साथ पा, बनता है श्रद्धेय.
करे नमन झुक दृष्टि हर, ज्ञेय बने अज्ञेय..
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ममता के संग रूप का, जब होता संयोग.
नटवर खेलें गोद में, सहा न जाए वियोग..
*
होता रूप अरूप जब, आत्म बने विश्वात्म.
शब्दाक्षर कर वन्दना, देख सकें परमात्म..
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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

दोहां सलिला: संजीव 'सलिल'

दोहां सलिला:
संजीव 'सलिल'
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*
गृह मंदिर में, कर सकें, प्रभु को प्रति पल याद.
सुख-समृद्धि-यश पा अमित, सदा रहें आबाद.

कल का कल पर छूटता, आज न होता काज.
अभी करे जो हो वही, यही काज का राज..

बिन सोचे लिख डालिए, जो मन हो तत्काल.
देव कलम के स्वयं ही, लेते कथ्य सम्हाल..

कौन लिखाना चाहता, जान सका है कौन?
कौन लिख रहा जानकर, 'सलिल' हो रहा मौन..

मल में रह निर्मल रहे, शतदल कमल न भूल.
नित मल-मलकर नहाती, स्वच्छ न होती धूल..

हँसी कुमुदिनी या धरा पर उतरा रजनीश.
सरवर में पंकज खिला, या विहँसे पृथ्वीश..


Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

बुधवार, 14 जुलाई 2010

दोहा सलिला: संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:

संजीव 'सलिल'
*
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*
दिव्या भव्य बन सकें, हम मन में हो चाह.
'सलिल' नयी मंजिल चुनें, भले कठिन हो राह..
*
प्रेम परिश्रम ज्ञान के, तीन वेद का पाठ.
करे 'सलिल' पंकज बने, तभी सही हो ठाठ..
*
कथनी-करनी में नहीं, 'सलिल' रहा जब भेद.
तब जग हमको दोष दे, क्यों? इसका है खेद..
*
मन में कुछ रख जुबां पर, जो रखते कुछ और.
सफल वही हैं आजकल, 'सलिल' यही है दौर..
*
हिन्दी के शत रूप हैं, क्यों उनमें टकराव?
कमल पंखुड़ियों सम सजें, 'सलिल' न हो बिखराव..
*
जगवाणी हिन्दी हुई, ऊँचा करिए माथ.
जय हिन्दी, जय हिंद कह, 'सलिल' मिलाकर हाथ..
*
छंद शर्करा-नमक है, कविता में रस घोल.
देता नित आनंद नव, कहे अबोले बोल..
*
कर्ता कारक क्रिया का, करिए सही चुनाव.
सहज भाव अभिव्यक्ति हो, तजिए कठिन घुमाव..
*
बिम्ब-प्रतीकों से 'सलिल', अधिक उभरता भाव.
पाठक समझे कथ्य को, मन में लेकर चाव..
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अलंकार से निखरता, है भाषा का रूप.
बिन आभूषण भिखारी, जैसा लगता भूप..
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रस शब्दों में घुल-मिले, करे सारा-सम्प्राण.
नीरसता से हो 'सलिल', जग-जीवन निष्प्राण..
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शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

दिल के दोहे: संजीव वर्मा 'सलिल'


दिल ने दिल में झाँककर, दिल का कर दीदार.
दिलवर से हँसकर कहा- 'मैं कुरबां सरकार'.

दिल ने दिल को दिल दिया, दिल में दिल को देख.
दिल ही दिल में दिल करे, दिल दिलवर का लेख.

दिल से दिल मिल गया तो, शीघ्र बढ़ गयी प्रीत.
बिल देखा दिल फट गया, लगती प्रीत कुरीत..

बेदिल से दिल कहा रहा, खुशनसीब हैं आप.
दिल का दर्द न पालते, लगे न दिल को शाप..

दिल तोड़ा दिल फेंककर, लगा लिया दिल व्यर्थ.
सार्थक दिल मिलना तभी, जेब भरे जब अर्थ..

दिल में बस, दिल में बसा, देख जरा संसार.
तब असार में सार लख, जीवन बने बहार..

दिल की दिल में रह गयी, क्यों बतलाये कौन?
दिल ने दिल में झाँककर, 'सलिल' रख लिया मौन..

दिल से दिल ने बात की, अक्सर पर बेबात.
दिल में दिल ने घर किया, ले-देकर सौगात..

दिल डोला दिल ने लिया, आगे बढ़कर थाम.
दिल डूबा दिल ने दिया, 'सलिल' प्रीत-पैगाम..

लगे न दिल में बात जो, उसका कहना व्यर्थ.
दिल में चुभती बात जो, उसे न समझो व्यर्थ..

दिल लेकर दिल दे दिया, 'सलिल' किया व्यापार.
प्रीत परायी के लिये, दिल अपना बेज़ार.

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम