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शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2015

doha

दोहा सलिला :

नेह-नर्मदा नहाकर, मन-मयूर के नाम 
तन्मय तन ने लिख दिया, चिन्मय चित बेदाम

***

बुधवार, 14 अक्टूबर 2015

lokgeet

एक लोकरंगी प्रयास-
देवी को अर्पण.
*
मैया पधारी दुआरे
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
घर-घर बिराजी मतारी हैं मैंया!
माँ, भू, गौ, भाषा हमारी है मैया!
अब लौं न पैयाँ पखारे रे हमने
काहे रहा मन भुलाना
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
आसा है, श्वासा भतारी है मैया!
अँगना-रसोई, किवारी है मैया!
बिरथा पड़ोसन खों ताकत रहत ते,
भटका हुआ लौट आवा

रे भैया! झूम-झूम गावा
*
राखी है, बहिना दुलारी रे मैया!
ममता बिखरे गुहारी रे भैया!
कूटे ला-ला भटकटाई -
सवनवा बहुतै सुहावा

रे भैया! झूम-झूम गावा
*
बहुतै लड़ैती पिआरी रे मैया!
बिटिया हो दुनिया उजारी रे मैया!
'बज्जी चलो' बैठ काँधे कहत रे!
चिज्जी ले ठेंगा दिखावा
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
तोहरे लिये भए भिखारी रे मैया!
सूनी थी बखरी, उजारी रे मैया!
तार दये दो-दो कुल तैंने 
घर भर खों सुरग बनावा  
रे भैया! झूम-झूम गावा
*

मंगलवार, 13 अक्टूबर 2015

ananvaya alankar

अलंकार सलिला 

: २१  : अनन्वय अलंकार

















बने आप उपमेय ही, जब खुद का उपमान 
'सलिल' अनन्वय है वहाँ, पल भर में ले जान 
*
किसी काव्य प्रसंग में उपमेय स्वयं ही उपमान हो तथा पृथक उपमान का अभाव हो तो अनन्वय अलंकार होता है.  

उदाहरण:

१. लही न कतहुँ हार हिय मानी।  इन सम ये उपमा उर जानी।।

२. हियौ हरति औ' करति अति, चिंतामनि चित चैन 
    वा सुंदरी के मैं लखे, वाही के से नैन  

३. अपनी मिसाल आप हो, तुम सी तुम्हीं प्रिये! 
    उपमान कैसे दे 'सलिल', जूठे सभी हुए

४. ये नेता हैं नेता जैसे, चोर-उचक्के इनसे बेहतर

५. नदी नदी सम कहाँ रह गयी?, शेष ढूह है रेत के 
    जहाँ-तहाँ डबरों में पानी, नदी हो गयी खेत रे!

६. भारत माता 
    समान है, केवल 
    भारत माता।    -हाइकु 

७. नहीं लता सी दूसरी  
    कहीं गायिका हुई है 
    लता आप हैं लता सी -जनक छंद    


**********

रविवार, 11 अक्टूबर 2015

upmeyopma alankar

अलंकार सलिला 

: १९  : उपमेयोपमा अलंकार

बने परस्पर चाह से, जीवन स्वर्ग समान  
दोनों ही उपमेय हों, दोनों ही उपमान 
*
किसी काव्य प्रसंग में बाह्य उपमान के स्थान पर दो वस्तुएँ अथवा व्यक्ति परस्पर एक-दूसरे के उपमेय और उपमान हों तो वहाँ उपमेयोपमा अलंकार होता है.  

उदाहरण: 

१.  सब मन रंजन हैं, खंजन से नैन आली, नैनन से खंजन हू, लागत चपल है.
    मीनन से महा मनमोहन है मोहिबे को, मीन इन ही से नीके, सोहत अमल है
    मृगन के लोचन से, लोचन हैं रोचन ये, मृग दृग इन ही से, सोहे पलापल है 
    सूरति निहार देखी, नीके ऐसी प्यारी जू के, कमल से नैन और, नैन से कमल हैं 

२. नेता जैसे अपराधी हैं, अपराधी हैं जैसे नेता 
    देता प्रभु पल में ले लेता, ले लेता पल में प्रभु देता 
    ममता-माया, माया-ममता, काया-छाया, छाया-काया 
    भिन्न अभिन्न कौन है किससे, सोच-सोच कवि-मन चकराया 
    -लाक्षणिक जातीय ३२ मात्रिक, दण्डकला छंद यति १६-१६, पंक्त्यांत लघु-गुरु, द्विपदिक मुक्तक  

३. उषा लगती 
    सुंदरी सी, सुंदरी 
    लगती उषा.       - हाइकु वर्णिक छंद, ५-७-५   

४. कविता-पत्र 
    कौन लिखता अब 
    पत्र-कविता?    - - हाइकु वर्णिक छंद, ५-७-५ 

५. गैर अपने हो गए हैं, हुए अपने गैर 
     कौन जाने कौन किसकी, चाहता है खैर? 
    - अवतारी जातीय २४ मात्रिक रूपमाला छंद, यति १४-१०, पंक्त्यांत गुरु लघु  
*


 

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2015

kavita

एक रचना: * ओ मेरी नेपाली सखी! एक सच जान लो समय के साथ आती-जाती है धूप और छाँव लेकिन हम नहीं छोड़ते हैं अपना गाँव। परिस्थितियाँ बदलती हैं, दूरियाँ घटती-बढ़ती हैं लेकिन दोस्त नहीं बदलते दिलों के रिश्ते नहीं टूटते। मुँह फुलाकर रूठ जाने से सदियों की सभ्यताएँ समेत नहीं होतीं। हम-तुम एक थे, एक हैं, एक रहेंगे। अपना सुख-दुःख अपना चलना-गिरना संग-संग उठना-बढ़ना कल भी था, कल भी रहेगा। आज की तल्खी मन की कड़वाहट बिन पानी के बदल की तरह न कल थी, न कल रहेगी। नेपाल भारत के ह्रदय में भारत नेपाल के मन में था, है और रहेगा। इतिहास हमारी मित्रता की कहानियाँ कहता रहा है, कहता रहेगा। आओ, हाथ में लेकर हाथ कदम बढ़ाएँ एक साथ न झुकाया है, न झुकाएँ हमेशा ऊँचा रखें अपना माथ। नेता आयेंगे-जायेंगे संविधान बनेंगे-बदलेंगे लेकिन हम-तुम कोटि-कोटि जनगण न बिछुड़ेंगे, न लड़ेंगे दूध और पानी की तरह शिव और भवानी की तरह जन्म-जन्म साथ थे, हैं और रहेंगे ओ मेरी नेपाली सखी! ***

रविवार, 4 अक्टूबर 2015

doha

आज का दोहा:
*
दुखी हुआ ताजिंदगी, सुनी न कांता-राय
सुखी हुआ जब स्नेह का, खोल लिया अध्याय
*

doha-muktak

आज का दोहा-मुक्तक :

पूजा कृष्णा को तनिक, कृष्ण हो गये रुष्ट

कोई कहे कैसे करें, हम सब को संतुष्ट?

माखन-मिसरी भूलकर, पिज्जा-बर्गर ठूँस

चाहें जसुदा कन्हैया, हों पहले से पुष्ट। 

बुधवार, 30 सितंबर 2015

sarsi chhand

















चित्र पर रचना 
छंद:- सरसी मिलिंद पाद छंद
विधान:-16 ,11 मात्राओं पर यति
चरणान्त:- गुरू लघु
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
दिग्दिगंत-अंबर पर छाया
नील तिमिर घनघोर
निशा झील में उतर नहाये
यौवन-रूप अँजोर
चुपके-चुपके चाँद निहारे
बिम्ब खोलता पोल
निशा उठा पतवार, भगाये
नौका में भूडोल
'सलिल' लहरियों में अवगाहे
निशा लगाये आग
कुढ़ चंदा दिलजला जला है
साक्षी उसके दाग
घटती-बढ़ती मोह-वासना
जैसे शशि भी नित्य
'सलिल' निशा सँग-साथ साधते
राग-विराग अनित्य
-------------------

मंगलवार, 29 सितंबर 2015

चित्र मूलक अलंकार

​​
: अलंकार चर्चा १३ :
चित्रमूलक अलंकार 

काव्य रचना में समर्थ कवि ऐसे शब्द-व्यवस्था कर पाते हैं जिनसे निर्मित छंदों को विविध आकृतियों  चक्र, चक्र-कृपाण, स्वस्तिक, कामधेनु, पताका, मंदिर, नदी, वृक्ष आदि चित्रों के रूप में अंकित किया सकता है.

कुछ छंदों को किसी भी स्थान से पढ़ा जा सकता है औए उनसे विविध अन्य छंद बनते चले जाते हैं. इस वर्ग के अंतर्गत प्रश्नोत्तर, अंतर्लिपिका, बहिर्लिपिका, मुकरी आदि शब्द चमत्कारतयुक्त काव्य रचनाएँ समाहित की जा सकती हैं. 

चित्र काव्य का मुख्योद्देश्य मनोरंजन है. इसका रसात्मक पराभव नगण्य है. इस अलंकार में शब्द वैचित्र्य और बुद्धिविलास के तत्व प्रधान होते हैं. 

 शोध लेख:

चित्र मूलक अलंकार और चित्र काव्य 

हिंदी साहित्य में २० वीं सदी तक चित्र काव्य का विस्तार हुआ. चित्र काव्य के अनेक भेद-विभेद इस कालखण्ड में विकसित हुए. प्राचीन काव्य ग्रंथों में इनका व्यवस्थित उल्लेख प्राप्त है. सामंतवादी व्यवस्था में राज्याश्रय में चित्र अलंकार के शब्द-विलास और चमत्कार को विशेष महत्व प्राप्त हुआ. फलत: उत्तरमध्ये काल और वर्तमान काल के प्रथम चरण में समस्यापूर्ति का काव्य विधा के रूप में प्रचलन और लोकप्रियता बढ़ी. इस तरह के काव्य प्रकार ऐसे समाज में हो रचे, समझे और सराहे जाना संभव है जहाँ पाठक/श्रोता/काव्य मर्मज्ञ को प्रचुर समयवकाश सुलभ हो. 

चित्र अलंकार सज्जित काव्य एक प्रकट का कलात्मक विनोद और कीड़ा है. शब्द=वर्ण क्रीड़ा के रूप में ही इसे देखा-समझा-सराहा जाता रहा. संगीत के क्षेत्र में गलेबाजी को लेकर अनेक भाव-संबद्ध अनेक चमत्कारिक पद्धतियाँ और प्रस्तुतियाँ विकसित हुईं और सराही गयीं.  इसी प्रकार काव्य शास्त्र में चित्रात्मक अलंकार का विकास हुआ. 

चित्र काव्य को १. भाव व्यंजना,  २. वास्तु - विचार निरूपण तथा ३. उत्सुकता, कुतूहल अथवा क्रीड़ा के दृष्टिकोण से  परखा जा सकता है.  

१. भाव व्यंजना: 
भाव व्यंजना की दृष्टि से चित्र काव्य / चित्र अलंकार का महत्त्व न्यून है. भावभिव्यंजना चित्र रहित शब्द-अर्थ  माध्यम से सहज तथा अधिक सारगर्भित होती है. शब्द-चित्र, चैत्र काव्य तथा चित्र अलंकार जटिल तथा गूढ़ विधाएँ हैं. रस अथवा भाव संचार के निकष पर शब्द पढ़-सुन कर उसका मर्म सरलता से ग्रहण किया जा सकता है. यहाँ तक की चक्षुहीन श्रोता भी मर्म तक पहुँच सकता है किन्तु चित्र काव्य को ब्रेल लिपि में अंकित किये बिना चक्षुहीन उसे पढ़-समझ नहीं सकता। बघिर पाठक के लिए शब्द या चित्र देखकर मर्म समान रूप से ग्रहण किया जा सकता है. 

२. वास्तु - विचार निरूपण: 
निराकार तथा जटिल-विशाल  आकारों का चित्रण संभव नहीं है जबकि शब्द प्रतीति करने में समर्थ होते हैं.  विपरीत संश्लिष्ट आकारों को शब्द वर्णन कठिन पर चित्र अधिक स्पष्टता  से प्रतीति करा सकता है. बाल पाठकों के लिए अदेखे आकारों तथा वस्तुओं का ज्ञान चित्र काव्य बेहतर तरीके से करा सकता है. ज्यामितीय आकारों, कलाकृतियों, शिल्प, शक्य क्रिया आदि की बारीकियाँ  एक ही दृश्य में संचारित कर सकता है जबकि शब्द काव्य को वर्णन करने में अनेक काव्य पंक्तियाँ लग सकती हैं. 

३. उत्सुकता, कुतूहल अथवा क्रीड़ा:

चित्र अलंकारों तथा चित्र काव्य का मूल अधिक रहा है. स्वयं को अन्यों से श्रेष्ठ प्रतिपादित करने के  असाधारण शक्ति प्रदर्शन की तरह असाधारण बौद्धिक क्षमता दिखने की वृति चित्रात्मकता के मूल में रही है. चित्र अलंकार तथा चित्र काव्य का प्रयोग करने में समर्थ जन इतने कम हुए हैं कि स्वतंत्र रूप से इसकी चर्चा प्रायः नहीं होती है. 

मम्मट आदि संस्कृत काव्याचार्यों ने तथा उन्हीं के स्वर में स्वर मिलते हुई हिंदी के विद्वानों ने चित्र काव्य को अवर या अधम कोटि का कहा है. जीवन तथा काव्य की समग्रता को ध्यान में रखते हुए ऐसा मत उचित नहीं प्रतीत होता. संभव है कि स्वयं प्रयोग न कर पाने की अक्षमता इस मत के रूप में व्यक्त हुई हो. चित्र काव्य में बौद्धिक विलास ही नहीं बौद्धिक विकास की भी  संभावना है. चित्र काव्य का एक विशिष्ट स्थान तथा महत्व स्वीकार किये जाने पर रचनाकार इसका अभ्यास कर दक्षता पाकर रचनाकर्म से वर्ग विशेष के ही नहीं सामान्य श्रोताओं-पाठकों को आनंदित कर सकते हैं. 

४. नव प्रयोग: 

जीवन में बहुविध क्रीड़ाओं का अपना महत्व होता है उसी तरह चित्र काव्य का भी महत्त्व है जिसे पहचाने जाने की आवश्यकता है. पारम्परिक चित्र काव्यलंकारों और उपादानों के साथ बदलते परिवेश तथा वैज्ञानिक उपकरणों  ने चित्र काव्य को नये आयाम  कराकर समृद्ध किया है. काव्य पोस्टर,  चित्रांकन, काव्य-चलचित्र आदि का प्रयोग कर चित्र काव्य के माध्यम से काव्य विधा का रसानंद श्रवण तथा पठन के साथ दर्शन कर भी लिया जा सकेगा. नवकाव्य तथा शैक्षिक काव्य में चित्र काव्य की उपादेयता असंदिग्ध है. शिशु काव्य ( नर्सरी राइम)   का प्रभाव तथा ग्रहण-सामर्थ्य में चित्र काव्य से अभूतपूर्व वृद्धि होती है. चित्र काव्य को मूर्तित कर उसे अभिनय विधा के साथ संयोजित किया जा सकता है. इससे काव्य का दृश्य प्रभाव श्रोता-पाठक को दर्शक की भूमिका में ले आता है जहाँ वह एक साथ श्रवणेंद्रिय  दृश्येन्द्रित का  प्रयोग कर कथ्य से अधिक नैकट्य अनुभव कर सकता है. 

चित्र काव्य को रोचक, अधिक ग्राह्य तथा स्मरणीय बनाने में चित्र अलंकार की महती भूमिका है.  अत: इसे हे, न्यून या गौड़ मानने के स्थान पर विशेष मानकर इस क्षेत्र के समर्थ रचनाकारों को प्रत्साहित किया जाना आवश्यक है.  चित्र काव्य कविता और बच्चों, कम पढ़े या कम समझदार वर्ग के साथ विशेषज्ञता के क्षेत्रों में उपयोगी और प्रभावी भूमिका का निर्वहन कर सकता है. 

इस दृष्टि से अभिव्यक्ति विश्वम ने २०१४ में लखनऊ में संपन्न वार्षिकोत्सव में उल्लेखनीय प्रयोग किये हैं.  श्रीमती पूर्णिमा बर्मन, अमित कल्ला, रोहित रूसिया आदि ने नवगीतों पर चित्र पोस्टर, गायन, अभिनय तथा चलचित्रण आदि विधाओं का समावेश किया. आवश्यक है कि पुरातन चित्र काव्य परंपरा को आयामों में विकसित किया जाए और चित्र अलंकारों  रचा, समझ, सराहा जाए. 

यहाँ  हमारा उद्देश्य  काव्य का विश्लेषण नहीं, चित्र अलंकारों से परिचय मात्र है.  कुछ उदाहरण देकर इस प्रसंक का पटाक्षेप करते हैं: 

उदाहरण:   
१. धनुर्बन्ध चित्र: देखें संलग्न चित्र  १.

    मन मोहन सों मान तजि, लै सब सुख ए बाम 
    ना तरु हनिहैं बान अब, हिये कुसुम सर बाम 
     













२. गतागति चित्र: देखें संलग्न चित्र  २. 
(उल्टा-सीधा एक समान). प्रत्येक पंक्ति का प्रथमार्ध बाएं से दायें तथा उत्तरार्ध दायें से बाएं सामान होता है तथापि  पूरी पंक्ति बाएं से दायें पढ़ने पर अर्थमय होती है. 

    की नी रा न न रा नी की.
    सो है स दा दास है सो.
    मो हैं को न न को हैं मो.
    ती खे न चै चै न खे ती.  

   ______________ 
   I की I  नी I  रा I  न  I 
   ______________ 
   I सो  I  है  I  स I  दा  I
   ______________ 
   I मो I  हैं I  को I  न  I
   ______________ 
   I ती I  खे I  न I  चै  I
   ______________ 

३. ध्वज चित्र: देखें संलग्न चित्र  ३.

    भोर हुई किरण, झाँक थपकति द्वार
    पुलकित सरगम गा रही, कलरव संग बयार
    चलो हम ध्वज फहरा दें.
    संग जय हिन्द गुँजा  दें.  

    भोर हुई 
    सूरज किरण 
    झाँक थपकती द्वार। 
    पुलकित सरगम गा रही     कलरव संग बयार।।    चलो     हम     ध्वज     फहरा     दें।     संग     जय     हिन्द     गुँजा     दें।

४. चित्र: देखें संलग्न चित्र  ४.

     हिंदी जन-मन में बसी,  जन प्रतिनिधि हैं दूर.
     परदेशी भाषा रुचे जिनको वे जन सूर.
     जनवाणी पर छा रहा कैसा अद्भुत नूर
     जन आकांक्षा गीत है, जनगण-हित  संतूर
     अंग्रेजी-प्रेमी कुढ़ें, देख रहे हैं  घूर
     हिंदी जग-भाषा बने, विधि को है मंजूर
     हिंदी-प्रेमी हो रहे, 'सलिल' हर्ष से चूर 

                                                       ॐ 
                                                      हिंदी 
                                             जन-मन में बसी 
                                           जन प्रतिनिधि हैं दूर.
                                परदेशी भाषा रुचे जिनको वे जन सूर.
                             जन आकांक्षा गीत है,जनगण-हित  संतूर
                                 ज                                               कै 
                                 ग                                              सा  
                                 वा                                              अ                                      
                                णी                                           द    
                                 प                                               भु  
                                 र                                                त 
                                छा                                               नू 
                                रहा                                              र।  
                        अंग्रेजी   -   प्रेमी   कुढ़ें ,    देख    रहे    हैं    घूर 
                    हिंदी    जग   -   भाषा   बने ,   विधि   को   है   मंजूर 
                हिंदी     -     प्रेमी      हो      रहे ,      'सलिल'      हर्ष      से      चूर
५-६ . पताका अलंकार - देखें निम्न २ चित्र


नर
वानर
सिखाते हैं,
न सद्गुण ही
लुभाते है, पुजा
है रूप-रूपया ही।
*
रश्मि
तम को
मिटाने में
मदद कर।
हम नयी प्रात
उगा सकें उजली।
*

७. लगभग ५००० सम सामयिक काव्य कृतियों में से केवल एक में मुझे चित्र मूलक लंकार का  प्रभावी प्रयोग देखें मिल. यह महाकाव्य  है महाकवि डॉ. किशोर काबरा रचित 'उत्तर भागवत'. बालक कृष्ण तथा सुदामा आदि शिक्षा ग्रहण करने के लिये महाकाल की नगरी उज्जयिनी स्थित संदीपनी ऋषि के आश्रम में भेजे जाते हैं. मालव भूमि के दिव्य सौंदर्य तथा महाकाल मंदिर  से अभिभूत कृष्ण द्वारा स्तुति-जयकार  प्रसंग चित्र मूलक लंकार द्वारा वर्णित है. 
देखें संलग्न चित्र ५.   

मालव पठार!
मालव पठार!!
सतपुड़ा, देवगिरि, विंध्य, अरवली-
नगराजों से झिलमिल ज्योतित
           मुखरित अभिनन्दित पठार, 
           मालव का अभिनन्दित पठार, 
                        मालव पठार!
                        मालव पठार!!

चंबल, क्षिप्रा, नर्मदा और 
शिवना की जलधाराओं से 
           प्रतिक्षण अभिसिंचित पठार, 
           मालव का अभिनन्दित पठार, 
                        मालव पठार!
                        मालव पठार!!

दशपुर, उज्जयिनी, विदिशा, धारा- 
आदि नगरियों के जन-जन से 
           प्रतिपल अभिवन्दित पठार, 
           मालव का अभिनन्दित पठार, 
                        मालव पठार!
                        मालव पठार!!
                                *
जय 
शंकर,
प्रलयंकर,
महादेव, अभ्यंकर, 
                          गंगाधर शिव,
तुम्हारी जय हो!
जय 
हो,
तुम्हरी 
जय 
हो!
*
                                  गले 
                                 व्याल 
                             मुण्डमाल,  
                  बाघम्बर     है     कराल,
              गाते                                जय 
              सब                                 जय 
              दे                                     जय  
              त्रिता                           महाका 
                                   ल. 
          चंद्रचूड़, नीलकंठ, मदनशत्रु, वृषारूढ़ 
              डमरूधर शिव, तुम्हारी जय हो!
                   जय हो! तुम्हारी जय हो !

                                  सिर  
                                 पर है  
                              जटा भार,  
                  जटा   बीच   गंग  -  धार ,
              चंद्र                                 बिल्व  
             मौलि                                  पत्र  
             का                                      अर्क 
            श्रृंगा                                       हा 
                                   र . 
          आशुतोष, चंद्रभाल, भूतेश्वर, मृत्युंजय  
              पन्नगधर शिव, तुम्हारी जय हो!
                   जय हो! तुम्हारी जय हो !


                                  शैल  
                                 सुता 
                             वाम अंग,  
                  अंग  -  अंग   में   अनंग ,
              बाजे                               नाचे  
              डफ                                 सब 
              ढोल                                भूत   
              चं                                      सं 
                                   ग. 
     उमाकांत, काशीपति, विश्वेश्वर, व्योमकेश 
          हिमकरधर, शिव तुम्हारी जय हो!
                   जय हो! तुम्हारी जय हो !
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रविवार, 27 सितंबर 2015

गणेश वंदना

















विघ्नेश्वर गणेश जी की विदाई-बेला:
प्रस्तुत आरती में जोड़ी गयी अंतिम दो पंक्तियाँ मूल पंक्तियों की तरह निर्दोष नहीं है. इस परंपरागत आरती में हम अपने मनोभाव पिरोएँ किन्तु इस तरह कि छंद, भाव, बिम्ब, लय आदि निर्दोष रहे. 

अग्रजवत श्री चंद्रसेन विराट ने प्रचलित आरती में एक पद जोड़ा है. उन्हें हार्दिक बधाई।
प्रथम पूज्य ज्योतिर्मय, बुद्धि-बल विधाता 
मंगलमय पूर्णकाम ऋद्धि-सिद्धि दाता
कदली फल मोदक का प्रिय उन्हें कलेवा
जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा
*
मेरी समिधा:
जड़-जमीन में जमाये दूबा मन भाये
विपदा को जीतें प्रभु! पूजें-हर्षायें
स्नेह 'सलिल' साँसें हों, जीवन हो रेवा
जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा
*

शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

नवगीत: संजीव

navgeet:  sanjiv

नवगीत:
विश्वासों का
सूर्य न दिखता
.
बहुमत छल-दल बादल का
घाय है स्वर मादल का
जनमत हुआ अवैधानिक
सही फैसला शासक का
जनगण-मन में
क्रोध सुलगता
.
आन्दोलन का दावानल
जन-धरने का बड़वानल
जन-नायक लाचार हुआ
चेले कुर्सी हित पागल
घातक लावा
उबल-उफनता
.
चाहें खेत, नहीं दाना
उद्योगों हित दीवाना
है दलाल हर जन-नेता
सेठों से धन है पाना
जमा विदेशों में
है रखता
२९.१.२०१५
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गुरुवार, 29 जनवरी 2015

आइये कविता करें १०

आइये कविता करें:  १०
आभा जी का यह नवगीत पढ़िए. यह एक सामान्य घटना क्रम है जिसमें रोचकता की कमी है. यह वर्णनात्मक हो गया है. दोहे या नव्गीय के कथ्य में कुछ चमत्कार या असाधारणता होना चाहिए, साथ ही कहन में भी कुछ खास बात हो.
कुछ तो मुझसे बातें करते.....
सुबह को जाकर 
सांझ ढले
घर को आते हो
ना जाने 
कितने हालातों से
टकराते हो
प्रियतम मेरे
सारे दिन मैं
करूं प्रतीक्षा
थकी थकी सी
मुद्रा में तुम जब
आते हो
कितनी बातें
करनी होतीं
साथ चाय भी
पीनी होती
कैसे मैं मन टटोलूं
कैसे अपना मुंह खोलूं
जब निढाल हो
बिस्तर में
तुम गिर जाते हो
चाहूं मन ही मन तुम मुझसे
हाले दिल थोड़ा
सा कहते
कुछ तो मुझसे बातें करते...
.......

हम इसमें कम से कम बदलाव कर इसे नव गीत का रूप देने का प्रयास करते हैं:
कुछ तो 
मुझसे बातें कर लो  
(यह मुखड़ा हुआ. मुखड़ा हर अंतरे के बाद दोहराया जाता है ताकि पूरे नवगीत या दोहे को एक सूत्र में बाँध सके)  
अलस्सुबह जा     ८  
सांझ ढले            ६ 
घर को आते हो    १०  
(अंतरे के प्रथम चरण में ८+६+१० = २४ मात्राएँ हुईं, सामान्यतः दूसरे चरण में भी २४ मात्राएँ चाहिए, पंक्ति संख्या या पंक्ति का पदभार भिन्न भी हो सकता है.)     
क्या जाने 
किन हालातों से
टकराते हो?
प्रियतम मेरे!
सारे दिन मैं
करूँ प्रतीक्षा- 

(यह ३रा चरण हुआ, इसमें भी २४ मात्राएँ हैं. यदि और अधिक चरण जोड़ने हैं तो इसी तरह जोड़े जा सकते हैं पर जितने चारण यहाँ होंगे उतने ही चरण बाकी के अंतरों में भी रखना होंगे. अब मुखड़े के समान पदभार की पंक्ति चाहिए ताकि उसके बाद मुखड़ा उसी प्रवाह में पढ़ा जा सके.) 
मुझ को 
निज बाँहों में भर लो    

थका-चुका सा
तुम्हें देख  

कैसे मुँह खोलूँ?
बैठ तुम्हारे निकट
पीर क्या?
हिचक टटोलूँ
श्लथ बाँहों में
गिर सोते 

शिशु से भाते हो  
मन इनकी 
सब पीड़ा हर लो  

नवगीत का अंत सामान्य से कुछ भिन्न हुआ क्या? अब आभा जी विचार करें और चाहें तो कथ्य में और भी प्रयोग कर सकती हैं.  


बुधवार, 28 जनवरी 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.


नज़र फेरकर जा रहे
हो कहाँ तुम?
.
यकायक ह्रदय की हुई मौन सरगम
गिरा दिल कहीं कह रही हो गिरा नम
सुनाई न देती पायल की छमछम
मुझे पर सुनो तुम धड़कन है गुमसुम
पाओगे जाओगे जब
भी जहाँ तुम
.
लटें श्याम कहतीं कहानी कहे बिन
रहना है संग में मुझे संग रहे बिन
उठतीं न पलकें, धडकनें रहीं गिन
युगों से हुए हैं हमें क्यों ये पल-छिन?
दिखते नहीं हो, मगर
हो  यहाँ तुम
... 

navgeet: sanjiv

नवगीत:
नाम बड़े हैं
संजीव
.
नाम बड़े हैं
दर्शन छोटे
.
दिल्ली आया उड़न खटोला
देख पड़ोसी का दिल डोला
पडी डांट मत गड़बड़ करना
वरना दंड पड़ेगा भरना
हो शरीफ तो
हो शरीफ भी
मत हो
बेपेंदी के लोटे
 .
क्या देंगे?, क्या ले जायेंगे?
अपनी नैया खे जायेंगे
फूँक-फूँककर कदम उठाना
नहीं देश का मान घटाना
नाता रखना बराबरी का
सम्हल न कोई
बहला-पोटे
.
देख रही है सारी दुनिया
अद्भुत है भारत का गुनिया
बदल रहा बिगड़ी हालत को
दूर कर रहा हर शामत को
कमल खिलाये दसों दिशा में
चल न पा रहे
सिक्के खोटे
..
२५.१.२०१५     

navgeet: -sanjiv

नवगीत:
भाग्य कुंडली
संजीव
.
भाग्य कुंडली
बाँच रहे हो
कर्म-कुंडली को ठुकराकर
.
पंडित जी शनि साढ़े साती
और अढ़ैया ही मत देखो
श्रम भाग्येश कहाँ बैठा है?
कोशिश-दृष्टि कहाँ है लेखो?
संयम का गुरु
बता रहा है
.
डरो न मंगल से अकुलाकर
बुध से बुद्धि मिली है हर को
सूर्य-चन्द्र सम चमको नभ में
शुक्र चमकता कभी न डूबे
ध्रुवतारा हों हम उत्तर के
राहू-केतु को
धता बतायें
चुप बैठे हैं क्यों संकुचाकर?