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बुधवार, 1 दिसंबर 2021

विविधताओं में निखरा व्यक्तित्व - विजयलक्ष्मी विभा

विविधताओं में निखरा व्यक्तित्व 
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विजयलक्ष्मी विभा
*
उन दिनों मेरे अनुज लेखक एवं पत्रकार श्री जगदीश किंजल्क आकाशवाणी जबलपुर में प्रोड्यूसर के पद पर कार्यरत थे, तभी मेरा जबलपुर जाना हुआ था। एक धुंधली सी यादगार शाम आई थी जिसमें एक साहित्यिक संस्था "आंचलिक साहित्यकार परिषद" जबलपुर ने मुझे एक आयोजन में "साहित्य श्री" मानद उपाधि से नवाज़ा था। उसी आयोजन में एक कवि गोष्ठी थी जिसमें मैंने युवा संजीव वर्मा 'सलिल' जी (तब वे आचार्य नहीं हुए थे) का काव्य पाठ सुना था। उन दिनों भी उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली और आकर्षक था और तीन दशकों के बाद, आज जब उनके बारे में मनोरमा पाखी जी ने मुझसे कुछ लिखने को कहा है, मैं कल्पना कर सकती हूँ कि उनके बहुआयामी कृतित्व में जो अनगिनत स्मरणीय संदर्भ जुड़ चुके हैं तो अब उनका व्यक्तित्व भी उतना ही निखरा होगा ।

अभियान जबलपुर द्वारा आयोजित अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण समारोह जबलपुर (१६.३.१९९७ तथा १०.८.१९९८) में मेरे अनुज जगदीश किंजल्क तथा संजीव 'सलिल' की जुगलबन्दी देखते ही बनती थी। हिंदी साहित्य के तीन मूर्धन्य हस्ताक्षरों महीयसी महादेवी वर्मा, अंबिका प्रसाद 'दिव्य' तथा रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट' बिलहरीवी की स्मृति में अखिल भारतीय स्तर पर श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियों को निष्पक्षता पूर्वक पुरस्कृत कर दोनों ने जबलपुर में एक अभिनव परंपरा आरंभ की; जिसका बाद में अन्य संस्थाओं ने अनुकरण किया। कालांतर में किंजल्क सागर स्थानांतरित हो गए और इस अनुष्ठान की दो शाखाएँ जबलपुर तथा सागर में पल्लवित-पुष्पित हुईं।   

"विश्ववाणी हिन्दी संस्थान अभियान जबलपुर" के संयोजक आचार्य सलिल जी का कृतित्व, उनकी बुआश्री महीयसी महादेवी वर्मा से अत्यधिक प्रभावित होने के कारण उन्हें उनकी विरासत के रूप में भी देखा और परखा जा सकता है परन्तु यहाँ बुआ जी के लेखन और सलिल जी के लेखन में एक बड़ा अन्तर भी है। महीयसी महादेवी हिन्दी साहित्य की लेखिका थीं और सलिल जी ने हिन्दी भाषा, पिंगल और साहित्य की त्रिवेणी बहाई है ।

पूत के पाँव पालने में अपना भविष्य दिखा देते हैं। शैशवावस्था में ही सलिल जी ने अपने हाव-भाव, चांचल्य और अजीबोगरीब हरकतों से अपना परिचय देना प्रारम्भ कर दिया था। वे आम शिशुओं से भिन्न लीक पर अपने कर्तव्य दिखानेवाले शिशु साबित हुए जिससे परिवार और स्वजन परिजनों के बीच यह धारणा बनने लगी थी कि ये शिशु अवश्य ही किसी दैवी प्रतिभा का वरदान लेकर जन्मा है और यह कुछ अलग ही करके दिखायेगा और पालने के संकेत आज उन्हें एक विशिष्ट जन साबित कर रहे हैं।

घर परिवार : के बारे में जानने की मैंने कभी कोई चेष्टा नहीं की । लेखक का परिवार उसका सृजन होता है और सदस्य उसकी पुस्तकें । लेखक के साहित्य के बारे में पूंछ कर अधिकांश लोग परिचय पर ताला डाल देते हैं । मैंने भी वही किया ।

जीवन संघर्ष : संघर्ष जीवन की चल अचल सम्पत्ति की तरह हैं। संघर्ष कभी समाप्त नहीं होते। हर संघर्ष नया होता है, हर संघर्ष अनझेला होता है जिसे लेखक अपनी कृतियों में संजोकर रखता है । ये संघर्ष ही जीवन के अनुुभव हैं। ये जितने कटु और असहनीय होते हैं उतने ही जीवन के अनुभव प्रखर और शोध शक्ति से परिपूर्ण होते हैं। सलिल जी के जीवन संघर्ष उनकी रचनाओं में मुखरित हुए हैं । संघर्षों को पृथक से गिनना उन लोगों का कार्य है जिन्होंने कभी लेखनी नहीं उठाई और न ही कभी उन संघर्षों पर शोध किया है। सलिल जी के जीवन संघर्ष प्रखर थे इसीलिये उनकी लेखनी अत्यधिक प्रभावी है ।

जागरूक अभियन्ता : जीवकोपार्जन के लिये व्यक्ति का कोई भी क्षेत्र क्यों न हो, उसमें ईमानदारी लगन और जागरूकता अनिवार्य शर्तें हैं जिन्हें सलिल जी ने बखूबी निभाया है । वे विज्ञान के विद्यार्थी होने के साथ साहित्य के भी विद्यार्थी थे और दोनों ही रास्तों पर उनके कदम बराबरी से दौड़े हैं। कहीं भी किसी एक के कारण दूसरे में व्यवधान नहीं आया। यह उनकी खूबी है। वे एक सफल जागरूक अभियन्ता एवं सभी विधाओं के सृजनधर्मी साहित्यकार हैं। संवेदनशील हृदय साहित्यकार का दैवी गुण है। संवेदनशीलता ही उसे साहित्य लेखन की प्रेरणा देती है। वह जो कुछ लिखता है , उसमें समूची मानवता का हृदय प्रतिबिम्बित होता है। सलिल जी की रचनाएँ केवल उनकी रचनाएँ नहीं हैं। उनकी रचनाओं के माध्यम से हर पाठक बोलता है। हर पाठक अपना हर्ष और विषाद व्यक्त करता है।

चिन्तन की मौलिकता से रचना की ऊँचाई एवं गहराई नापी जाती है । जीवन के असीम आकाश और अतल सागर में असंख्य नवीनताएँ भरी पड़ी हैं। उन नवीनताओं को चुन कर लाना और अपनी लेखनी का विषय बनाना मौलिकता की शर्त है जिसे सलिल जी ने अपनी रचनाओं में बड़े अधिकार के साथ दर्शाया है।

अनेक पुस्तकों के लेखक सलिल जी का रचना संसार एक ऐसा उपवन है जहाँ पुष्पों की संख्या को गिनती में नहीं सँजोया जा सकता। पुष्पों की सुन्दरता, ख़ुशबू  और रंगों के निखार मात्र देखे जा सकते हैं । सलिल जी साहित्य की जो धूनी रमा कर बैठे हैं उसे कोई बाधित नहीं कर सकता।

साहित्य की सभी विधाओं पर अधिकार रखने वाले सलिल जी ने अधिक से अधिक विषयों पर लेखनी चलाई है। वे साधक हैं और उनकी साधना उन्हें उस लक्ष्य की ओर ले जा रही है जहाँ जीव और जगत , आत्मा और परमात्मा का एकाकार दिखाई पड़ने लगते हैं।

सलिल जी के बहुआयामी कृतित्व का मूल्यांकन अभी बाकी है । बिलम्ब हो सकता है लेकिन वक़्त अन्याय नहीं कर सकता।

विजयलक्ष्मी 'विभा'
साहित्य सदन ,
149 जी / 2 , चकिया ,
प्रयागराज - 211016
मो. 7355648767

रविवार, 29 नवंबर 2020

काव्यपाठ

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काव्य गोष्ठी

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सोमवार, 26 अक्टूबर 2020

सलिल की राजस्थानी रचनाएँ

सलिल की राजस्थानी रचनाएँ
*
१. मरियो साथै जाय 

*
घाघरियो घुमकाय
मरवण घणी सुहाय
*
गोरा-गोरा गाल
मरते दम मुसकाय
*
नैणा फोटू खैंच
हिरदै लई मँढाय
*
तारां छाई रात
जाग-जगा भरमाय
*
जनम-जनम रै संग
ऐसो लाड़ लड़ाय
*
देवी-देव मनाय
मरियो साथै जाय
***
२ ... तैर भायला

लार नर्मदा तैर भायला.
बह जावैगो बैर भायला..

गेलो आपून आप मलैगो.
मंजिल की सुण टेर भायला..

मुसकल है हरदां सूँ खडनो.
तू आवैगो फेर भायला..

घणू कठिन है कविता करनो.
आकासां की सैर भायला..

सूल गैल पै यार 'सलिल' तूं.
चाल मेलतो पैर भायला..
*
३. ...पीर पराई

देख न देखी पीर पराई.
मोटो वेतन चाट मलाई..

इंगरेजी मां गिटपिट करल्यै.
हिंदी कोनी करै पढ़ाई..

बेसी धन स्यूं मन भरमायो.
सूझी कोनी और कमाई..

कंसराज नै पटक पछाड्यो.
करयो सुदामा सँग मिताई..

भेंट नहीं जो भारी ल्यायो.
बाके नहीं गुपाल गुसाईं..

उजले कपड़े मैले मन ल्ये.
भवसागर रो पार न पाई..

लडै हरावल वोटां खातर.
लोकतंत्र नै कर नेताई..

जा आतंकी मार भगा तूं.
ज्यों राघव ने लंका ढाई..
***
घनाक्षरी
जीवण का काचा गेला, जहाँ-तहाँ मेला-ठेला, भीड़-भाड़ ठेलं-ठेला, मोड़ तरां-तरां का|
ठूँठ सरी बैठो काईं?, चहरे पे आई झाईं, खोयी-खोयी परछाईं, जोड़ तरां-तरां का|
चाल्यो बीज बजारा रे?, आवारा बनजारा रे?, फिरता मारा-मारा रे?, होड़ तरां-तरां का.||
नाव कनारे लागैगी, सोई किस्मत जागैगी, मंजिल पीछे भागेगी, तोड़ तरां-तरां का||
*

सोमवार, 5 अक्टूबर 2020

हिंदी भाषा और बोलियाँ

हिंदी भाषा और बोलियाँ पटल पर बुंदेली, बघेली, पचेली, निमाड़ी, मालवी तथा छत्तीसगढ़ी पर्वों के पश्चात पाँच अक्तूबर से दो सप्ताह राजस्थानी पर्व होगा। राजस्थानी क्षेत्र का इतिहास, संस्कृति (लोकगीत, लोककथाएँ, लोकगीत, लोक कला, लोकपर्व, लोक नाट्य), साहित्य (गद्य, पद्य, समीक्षा), साहित्य, स्थल, चित्रकला, खाने, वस्त्र, कलाएँ, किताबें आदि पटल पर आमंत्रित हैं। राजस्थानी अंचल में प्रचलित सभी भाषा-बोलियों का इतिहास, साहित्य, साहित्यकारों का परिचय अविलंब भेजिए।
सामग्री भेजने हेतु पता - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संचालक विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१। चलभाष ९४२५१८३२४४
ईमेल salil.sanjiv@gmail.com

रविवार, 5 जुलाई 2020

रेवा पुत्र सलिल जी अवध शरण

रेवा पुत्र सलिल जी 
अवध शरण
*
सलिल जी रेवा पुत्र हैं।
महमहिमामयी महादेवी वर्मा के
मानस पुत्र की भांति उनके स्नेह भाजन भी।
छंद विधान,नवीन छन्दों के निर्माण में पटु।
मुझे भी उनका साहचर्य कुछ समय के लिए मिला जो यादगार है। साहित्य के प्रति जागरूक करना, नव लेखकों को प्रोत्साहित करना उनकी रुचि के विषय हैं।
[से.नि प्राचार्य, शहडोल]

बुधवार, 1 जुलाई 2020

लाडले लला संजीव सलिल कान्ति शुक्ला

लाडले लला संजीव सलिल
कान्ति शुक्ला
*
मानव जीवन का विकास चिंतन, विचार और अनुभूतियों पर निर्भर करता है। उन्नति और प्रगति जीवन के आदर्श हैं। जो कवि जितना महान होता है, उसकी अनुभूतियाँ भी उतनी ही व्यापक होतीं हैं। मूर्धन्य विद्वान सुकवि छंद साधक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी का नाम ध्यान में आते ही एक विराट साधक व्यक्तित्व का चित्र नेत्रों के समक्ष स्वतः ही स्पष्टतः परिलक्षित हो उठता है। मैंने 'सलिल' जी का नाम तो बहुत सुना था और उनके व्यक्तित्व, कृतित्व, सनातन छंदों के प्रति अगाध समर्पण संवर्द्धन की भावना ने उनके प्रति मेरे मन ने एक सम्मान की धारणा बना ली थी और जब रू-ब-रू भेंट हुई तब भी उनके सहज स्नेही स्वभाव ने प्रभावित किया और मन की धारणा को भी बल दिया परंतु यह धारणा मात्र कुछ दिन ही रही और पता नहीं कैसे हम ऐसे स्नेह-सूत्र में बँधे कि 'सलिल' जी मेरे नटखट देवर यानी 'लला' (हमारी बुंदेली भाषा में छोटे देवर को लला कहकर संबोधित करते हैं न) होकर ह्रदय में विराजमान हो गए और मैं उनकी ऐसी बड़ी भौजी जो गाहे-बगाहे दो-चार खरी-खोटी सुनाकर धौंस जमाने की पूर्ण अधिकारिणी हो गयी। हमारे बुंदेली परिवेश, संस्कृति और बुंदेली भाषा ने हमारे स्नेह को और प्रगाढ़ करने में महती भूमिका निभाई। हम फोन पर अथवा भेंट होने पर बुंदेली में संवाद करते हुए और अधिक सहज होते गए। अब वस्तुस्थिति यह है कि उनकी अटूट अथक साहित्य-साधना, छंद शोध, आचार्यत्व, विद्वता या समर्पण की चर्चा होती है तो मैं आत्मविभोर सी गौरवान्वित और स्नेहाभिभूत हो उठती हूँ।
व्यक्तित्व और कृतित्व की भूमिका में विराट को सूक्ष्म में कहना कितना कठिन होता है, मैं अनुभव कर रही हूँ। व्यक्तित्व और विचार दोनों ही दृष्टियों से स्पृहणीय रचनाकार'सलिल' जी की लेखनी पांडित्य के प्रभामंडल से परे चिंतन और चेतना में - प्रेरणा, प्रगति और परिणाम के त्रिपथ को एकाकार करती द्वन्द्वरहित अन्वेषित महामार्ग के निर्माण का प्रयास करती दिखाई देती है। उनके वैचारिक स्वभाव में अवसर और अनुकूलता की दिशा में बह जाने की कमजोरी नहीं- वे सत्य, स्वाभिमान और गौरवशाली परम्पराओं की रक्षा के लिए प्रतिकूलता के साथ पूरी ताकत से टक्कर लेने में विश्वास रखते हैं। जहाँ तक 'सलिल'जी की साहित्य संरचना का प्रश्न है वहाँ उनके साहित्य में जहाँ शाश्वत सिद्धांतों का समन्वय है, वहाँ युगानुकूल सामयिकता भी है, उत्तम दिशा-निर्देश है, चिरंतन साहित्य में चेतनामूलक सिद्धांतों का विवरण है जो प्रत्येक युग के लिए समान उपयोगी है तो सामयिक सृजन युग विशेष के लिए होते हुए भी मानव जीवन के समस्त पहेलुओं की विवृत्ति है, जहाँ एकांगी दृष्टिकोण को स्थान नहीं।
"सलिल' जी के रचनात्मक संसार में भाव, विचार और अनुभूतियों के सफल प्रकाशन के लिए भाषा का व्यापक रूप है जिसमें विविधरूपता का रहस्य भी समाहित है। एक शब्द में अनेक अर्थ और अभिव्यंजनाएँ हैं, जीवन की प्रेरणात्मक शक्ति है तो मानव मूल्यों के मनोविज्ञान का स्निग्धतम स्पर्श है, भावोद्रेक है। अभिनव बिम्बात्मक अभिव्यंजना है जिसने मुझे विशेष रूप से प्रभावित किया है। माँ वाणी की विशेष कृपा दृष्टि और श्रमसाध्य बड़े-बड़े कार्य करने की अपूर्व क्षमता ने जहाँ अनेक पुस्तकें लिखने की प्रेरणा दी है, वहीं पारंपरिक छंदों में सृजन करने के साथ सैकड़ों नवीन छंद रचने का अन्यतम कौशल भी प्रदान किया है- तो हमारे लाड़ले लला हैं कि कभी ' विश्व वाणी संवाद' का परचम लहरा रहे हैं, कभी दोहा मंथन कर रहे हैं तो कभी वृहद छंद कोष निर्मित कर रहे हैं ,कभी सवैया कोष में सनातन सवैयों के साथ नित नूतन सवैये रचे जा रहे हैं। सत्य तो यह है कि लला की असाधारण सृजन क्षमता, निष्ठा, अभूतपूर्व लगन और अप्रतिम कौशल चमत्कृत करता है और रचनात्मक कौशल विस्मय का सृजन करता है। समरसता और सहयोगी भावना तो इतनी अधिक प्रबल है कि सबको सिखाने के लिए सदैव तत्पर और उपलब्ध हैं, जो एक गुरू की विशिष्ट गरिमा का परिचायक है। मैंने स्वयं अपने कहानी संग्रह की भूमिका लिखने का अल्टीमेटम मात्र एक दिन की अवधि का दिया और सुखद आश्चर्य रहा कि वह मेरी अपेक्षा में खरे उतरे और एक ही दिन में सारगर्भित भूमिका मुझे प्रेषित कर दी ।
जहाँ तक रचनाओं का प्रश्न है, विशेष रूप से पुण्यसलिला माँ नर्मदा को जो समर्पित हैं- उन रचनाओं में मनोहारी शिल्पविन्यास, आस्था, भाषा-सौष्ठव, वर्णन का प्रवाह, भाव-विशदता, ओजस्विता तथा गीतिमत्ता का सुंदर समावेश है। जीवन के व्यवहार पक्ष के कार्य वैविध्य और अन्तर्पक्ष की वृत्ति विविधता है। प्राकृतिक भव्य दृश्यों की पृष्ठभूमि में कथ्य की अवधारणा में कलात्मकता और सघन सूक्ष्मता का समावेश है। प्रकृति के ह्रदयग्राही मनोरम रूप-वर्णन में भाव, गति और भाषा की दृष्टि से परिमार्जन स्पष्टतः परिलक्षित है । 'सलिल' जी के अन्य साहित्य में कविता का आधार स्वरूप छंद-सौरभ और शब्दों की व्यंजना है जो भावोत्पादक और विचारोत्पादक रहती है और जिस प्रांजल रूप में वह ह्रदय से रूप-परिग्रह करती है , वह स्थायी और कालांतर व्यापी है।
'सलिल' जी की सर्जना और उसमें प्रयुक्त भाषायी बिम्ब सांस्कृतिक अस्मिता के परिचायक हैं जो बोधगम्य ,रागात्मक और लोकाभिमुख होकर अत्यंत संश्लिष्ट सामाजिक यथार्थ की ओर दृष्टिक्षेप करते हैं। जिन उपमाओं का अर्थ एक परम्परा में बंधकर चलता है- उसी अर्थ का स्पष्टीकरण उनका कवि-मन सहजता से कर जाता है और उक्त स्थल पर अपने प्रतीकात्मक प्रयोग से अपने अभीष्ट को प्राप्त कर लेता है जो पाठक को रसोद्रेक के साथ अनायास ही छंद साधने की प्रक्रिया की ओर उन्मुख कर देता है। अपने सलिल नाम के अनुरूप सुरुचिपूर्ण सटीक सचेतक मृदु निनाद की अजस्र धारा इसी प्रकार सतत प्रवाहित रहे और नव रचनाकारों की प्रेरणा की संवाहक बने, ऐसी मेरी शुभेच्छा है। मैं संपूर्ण ह्रदय से 'सलिल' जी के स्वस्थ, सुखी और सुदीर्घ जीवन की ईश्वर से प्रार्थना करते हुए अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ व्यक्त करती हूँ ।
[लेखिका परिचय : वरिष्ठ कहानीकार-कवयित्री, ग़ज़ल, बाल कविता तथा कहानी की ५ पुस्तकें प्रकाशित, ५ प्रकाशनाधीन। सचिव करवाय कला परिषद्, प्रधान संपादक साहित्य सरोज रैमसीकी। संपर्क - एम आई जी ३५ डी सेक्टर, अयोध्या नगर, भोपाल ४६२०४१, चलभाष ९९९३०४७७२६, ७००९५५८७१७, kantishukla47@gamil.com .]

गुरुवार, 25 जून 2020

रचना-प्रति रचना राकेश खण्डेलवाल-संजीव सलिल

रचना-प्रति रचना
राकेश खण्डेलवाल-संजीव सलिल
दिन सप्ताह महीने बीते
घिरे हुए प्रश्नों में जीते
अपने बिम्बों में अब खुद मैं
प्रश्न चिन्ह जैसा दिखता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावों की छलके गागरिया, पर न भरे शब्दों की आँजुर
होता नहीं अधर छूने को सरगम का कोई सुर आतुर
छन्दों की डोली पर आकर बैठ न पाये दुल्हन भाषा
बिलख बिलख कर रह जाती है सपनो की संजीवित आशा
टूटी परवाज़ें संगवा कर
पंखों के अबशेष उठाकर
नील गगन की पगडंडी को
सूनी नजरों से तकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
पीड़ा आकर पंथ पुकारे, जागे नहीं लेखनी सोई
खंडित अभिलाषा कह देती होता वही राम रचि सोई
मंत्रबद्ध संकल्प, शरों से बिंधे शायिका पर बिखरे हैं
नागफ़नी से संबंधों के विषधर तन मन को जकड़े हैं
बुझी हुई हाथों में तीली
और पास की समिधा गीली
उठते हुए धुंए को पीता
मैं अन्दर अन्दर रिसता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
धरना देती रहीं बहारें दरवाजे की चौखट थामे
अंगनाई में वनपुष्पों की गंध सांस का दामन थामे
हर आशीष मिला, तकता है एक अपेक्षा ले नयनों में
ढूँढ़ा करता है हर लम्हा छुपे हुए उत्तर प्रश्नों में
पन्ने बिखरा रहीं हवायें
हुईं खोखली सभी दुआयें
तिनके जैसा, उंगली थामे
बही धार में मैं तिरता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मानस में असमंजस बढ़ता, चित्र सभी हैं धुंधले धुंधले
हीरकनी की परछाईं लेकर शीशे के टुकड़े निकले
जिस पद रज को मेंहदी करके कर ली थी रंगीन हथेली
निमिष मात्र न पलकें गीली करने आई याद अकेली
परिवेशों से कटा हुआ सा
समीकरण से घटा हुआ सा
जिस पथ की मंज़िल न कोई
अब मैं उस पथ पर मिलता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावुकता की आहुतियां दे विश्वासों के दावानल में
धूप उगा करती है सायों के अब लहराते आँचल में
अर्थहीन हो गये दुपहरी, सन्ध्या और चाँदनी रातें
पड़ती नहीं सुनाई होतीं जो अब दिल से दिल की बातें
कभी पुकारा पनिहारी ने
कभी संभाला मनिहारी ने
चूड़ी के टुकडों जैसा मैं
पानी के भावों बिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मन के बंधन कहाँ गीत के शब्दों में हैं बँधने पाये
व्यक्त कहां होती अनुभूति चाहे कोई कितना गाये
डाले हुए स्वयं को भ्रम में कब तक देता रहूँ दिलासा
नीड़ बना, बैठा पनघट पर, लेकिन मन प्यासा का प्यासा
बिखराये कर तिनके तिनके
भावों की माला के मनके
सीपी शंख बिन चुके जिससे
मैं तट की अब वह सिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
***
आदरणीय राकेश जी को सादर समर्पित -
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
जैसे हो तुम मन के अंदर
वैसे ही बाहर दिखते हो
बहुत बधाई तुमको भैया!
*
अब न रहा कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान् कहाँ है?
कनककशिपु तो पग-पग पर हैं, पर प्रहलाद न कहीं यहाँ है
शील सती का भंग करें हरि, तो कैसे भगवान हम कहें?
नहीं जलंधर-हरि में अंतर, जन-निंदा में क्यों न वे दहें?
वर देते हैं शिव असुरों को
अभय दान फिर करें सुरों को
आप भवानी-भंग संग रम
प्रेरित करते नारि-नरों को
महाकाल दें दण्ड भयंकर
दया न करते किंचित दैया!
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जन-हित राजकुमार भेजकर, सत्तासीन न करते हैं अब
कौन अहल्या को उद्धारे?, बना निर्भया हँसते हैं सब
नाक आसुरी काट न पाते, लिया कमीशन शीश झुकाते
कमजोरों को मार रहे हैं, उठा गले से अब न लगाते
हर दफ्तर में, हर कुर्सी पर
सोता कुम्भकर्ण जब जागे
थाना हो या हो न्यायालय
सदा भुखमरा रिश्वत माँगे
भोग करें, ले आड़ योग की
पेड़ काटकर छीनें छैंया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जब तक था वह गगनबिहारी, जग ने हँस आरती उतारी
छलिये को नटनागर कहकर, ठगी गयी निष्ठा बेचारी
मटकी फोड़ी, माखन खाया, रास रचाई, नाच नचाया
चला गया रणछोड़ मोड़ मुख, युगों बाद सन्देश पठाया
कहता प्रेम-पंथ को तज कर
ज्ञान-मार्ग पर चलना बेहतर
कौन कहे पोंगा पंडित से
नहीं महल, हमने चाहा घर
रहें द्वारका में महारानी
हमें चाहिए बाबा-मैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
असत पुज रहा देवालय में, अब न सत्य में है नारायण
नेह नर्मदा मलिन हो रही, राग-द्वेष का कर पारायण
लीलावती-कलावतियों को 'लिव इन' रहना अब मन भाया
कोई बाँह में, कोई चाह में, खुद को ठगती खुद ही माया
कोकशास्त्र केजी में पढ़ती,
नव पीढ़ी के मूल्य नये हैं
खोटे सिक्कों का कब्ज़ा है
खरे हारकर दूर हुए हैं
वैतरणी करने चुनाव की
पार, हुई है साधन गैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
दाँत शेर के कौन गिनेगा?, देश शत्रु से कौन लड़ेगा?
बोधि वृक्ष ले राजकुँवरि को, भेज त्याग-तप मौन वरेगा?
जौहर करना सर न झुकाना, तृण-तिनकों की रोटी खाना
जीत शौर्य से राज्य आप ही, गुरु चरणों में विहँस चढ़ाना
जान जाए पर नीति न छोड़ें
धर्म-मार्ग से कदम न मोड़ें
महिषासुरमर्दिनी देश-हित
अरि-सत्ता कर नष्ट, न छोड़ें
सात जन्म के सम्बन्धों में
रोज न बदलें सजनी-सैंया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
युद्ध-अपराधी कहा उसे जिसने, सर्वाधिक त्याग किया है
जननायक ने ही जनता की, पीठ में छुरा भोंक दिया है
सत्ता हित सिद्धांत बेचते, जन-हित की करते नीलामी
जिसमें जितनी अधिक खोट है, वह नेता है उतना दामी
साथ रहे सम्पूर्ण क्रांति में
जो वे स्वार्थ साध टकराते
भूले, बंदर रोटी खाता
बिल्ले लड़ते ही रह जाते
डुबा रहे मल्लाह धार में
ले जाकर अपनी ही नैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
कहा गरीबी दूर करेंगे, लेकिन अपनी भरी तिजोरी
धन विदेश में जमा कर दिया, सब नेता हो गए टपोरी
पति पत्नी बच्चों को कुर्सी, बैठा देश लूटते सब मिल
वादों को जुमला कह देते, पद-मद में रहते हैं गाफिल
बिन साहित्य कहें भाषा को
नेता-अफसर उद्धारेंगे
मात-पिता का जीना दूभर
कर जैसे बेटे तारेंगे
पर्व त्याग वैलेंटाइन पर
लुक-छिप चिपकें हाई-हैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*****
२५-६-२०१६

गुरुवार, 4 अक्टूबर 2018

karya shala- doha / rola / kundaliya

कार्यशाला- दोहा / रोला / कुण्डलिया ​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​
*
मन डूबा ही जा रहा,​ ​भावों भरा अपार​​
बोझ तले है दब गया,​ ​दुनिया है व्यापार।।​ -शशि त्यागी
दुनिया है व्यापार, न क्या ईश्वर सौदागर?
भटकाता है जनम-जनम क्यों कर यायावर
घाट न घर का रहे जीव, भटके हो उन्मन
भाव भरा संसार, जा रहा है डूबा मन​ -संजीव वर्मा 'सलिल' ​
*

गुरुवार, 12 जुलाई 2018

karyashala

कार्यशाला:
दो कवि रचना एक:
सोहन 'सलिल' - संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भावों की टोली फँसी, किसी खोह के बीच।
मन के गोताखोर हम, लाए सुरक्षित खींच।।  -सोहन 'सलिल'

लाए सुरक्षित खींच, अकविता की चट्टानें।  
कर न सकीं नुकसान, छंद थे सीना ताने।। 
हुई अंतत: जीत,बिंब-रस की नावों की।  
अलंकार-लय लिखें, जय कथा फिर भावों की।। संजीव 'सलिल' 
***   

रविवार, 10 जून 2018

कार्यशाला: रचना एक रचनाकार दो

कार्यशाला: 
रचना एक रचनाकार दो 
*
पथरीले थे रास्ते, दुख का नहीं हिसाब ।
अनुभव अनुभव जोड़कर, छाया बनी किताब ।। -छाया शुक्ला

छाया बनी किताब, धूप हँस पढ़ने बैठी।  
छोड़ न पाई चाह, ह्रदय में छाया पैठी।।  
देखें दर्पण सलिल, न टिकते बिंब हठीले।  
लिख कविता संजीव, स्वप्न पाए नखरीले।।  -संजीव 
***
१०.६.२०१८  

बुधवार, 8 मई 2013

SHATPADEE : acharya sanjiv 'salil'

षट्पदी  :
संजीव 
*
भाल पर, गाल पर, अम्बरी थाल पर
चांदनी शाल ओढ़े ठिठककर खड़ी .
देख सुषमा धरा भी ठगी रह गयी
ओढ़नी भायी मन को सितारों  जड़ी ..
कुन्तलों सी घटा छू पवन है मगन
चाल अनुगामिनी दामिनी की हुई.
नैन ने पालकी में सजाये सपन
देह री! देहरी कोशिशों की मुई..
*
 
एक संध्या निराशा में डूबी मगर, 
थाम कर कर निशा ने लगाया गले.
भेद पल में गले, भेद सारे खुले, 
थक अँधेरे गए, रुक गए मनचले..
मौन दिनकर ने दिन कर दिया रश्मियाँ , 
कोशिशों की कशिश बढ़ चली मनचली-
द्वार संकल्प के खुल गए खुद-ब-खुद, 
पग चले अल्पना-कल्पना की गली..    

रविवार, 28 अप्रैल 2013

shabd-shabd doha-yamak: sanjiv verma

शब्द-शब्द दोहा यमक :

संजीव
*
भिन्न अर्थ में शब्द का, जब होता दोहराव।

अलंकार हो तब यमक, हो न अर्थ खनकाव।।
*
दाम न दामन का लगा, होता पाक पवित्र।

सुर नर असुर सभी पले, इसमें सत्य विचित्र।।
*
लड़के लड़ के माँगते हक, न करें कर्त्तव्य।

माता-पिता मना रहे, उज्जवल हो भवितव्य।।
*
तीर नजर के चीरकर, चीर न पाए चीर।

दिल सागर के तीर पर, गिरे न खोना धीर।।
*
चाट रहे हैं उंगलियाँ, जी भर खाकर चाट।

खाट खड़ी हो गयी पा, खटमलवाली खाट।।
*
मन मथुरा तन द्वारका, नहीं द्वार का काम।

क्या जाने कब प्रगट हों, जीवन धन घनश्याम।।
*
खैर जान की मांगतीं, मातु जानकी मौन।

वनादेश दे अवधपति, मरे जिलाए कौन?

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सोमवार, 8 अप्रैल 2013

doha salila sanjiv 'salil'

दोहा सलिला
संजीव सलिल

ठिठुर रहा था तुम मिलीं, जीवन हुआ बसंत0
दूर हुईं पतझड़ हुआ, हेरूँ हर पल कन्त

तुम मैके मैं सासरे, हों तो हो आनंद
मैं मैके तुम सासरे, हों तो गाएँ छन्द

तू-तू मैं-मैं तभी तक, जब तक हों मन दूर
तू-मैं ज्यों ही हम हुए, साँस हुई संतूर
0
दो हाथों में हाथ या, लो हाथों में हाथ
अधरों पर मुस्कान हो, तभी सार्थक साथ
0
नयन मिला छवि बंदकर, मून्दे नयना-द्वार
जयी चार, दो रह गये, नयना खुद को हार
000

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

muktika AMMI sanjiv 'salil'

मुक्तिका%
अम्मी

संजीव सलिल
0
माहताब की जुन्हाई में
झलक तुम्हारी पाई अम्मी
दरवाजे, कमरे आँगन में
हरदम पडी दिखाई अम्मी

कौन बताये कहाँ गयीं तुम
अब्बा की सूनी आँखों में
जब भी झाँका पडी दिखाई
तेरी ही परछाईं अम्मी

भावज जी भर गले लगाती
पर तेरी कुछ बात और थी
तुझसे घर अपना लगता था
अब बाकी पहुनाई अम्मी

बसा सासरे केवल तन है
मन तो तेरे साथ रह गया
इत्मीनान हमेशा रखना-
बिटिया नहीं परायी अम्मी

अब्बा में तुझको देखा है
तू ही बेटी-बेटों में है
सच कहती हूँ, तू ही दिखती
भाई और भौजाई अम्मी.

तू दीवाली, तू ही ईदी
तू रमजान फाग होली है
मेरी तो हर श्वास-आस में
तू ही मिली समाई अम्मी
0000

रविवार, 10 जून 2012

नवगीत क्यों??... - संजीव सलिल

नवगीत
क्यों??... 
 - संजीव सलिल
*
*
कहीं धूप क्यों?,
कहीं छाँव क्यों??...
*
सबमें तेरा
अंश समाया,
फ़िर क्यों
भरमाती है काया?
जब पाते तब-
खोते हैं क्यों?
जब खोते
तब पाते पाया।
अपने चलते
सतत दाँव क्यों?... 
*
नीचे-ऊपर,
ऊपर-नीचे।
झूलें सब
तू डोरी खींचे,
कोई डरता,
कोई हँसता।
कोई रोये
अँखियाँ मींचे।
चंचल-घायल
हुए पाँव क्यों?... 
*
तन पिंजरे में
मन बेगाना।
श्वास-आस का
ताना-बाना।
बुनता-गुनता
चुप सर धुनता।
तू परखे,
दे संकट नाना।
सूना पनघट,
मौन गाँव क्यों?...
***

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

जनमत: हिन्दी भारत की राष्ट्र भाषा है या राज भाषा?

चिंतन :  हिंदी भारत की राष्ट्र भाषा है या राज भाषा?
सोचिये और अपना मत बताइए:
आप की सोच के अनुसार हिन्दी भारत की राष्ट्र भाषा है या राज भाषा?
क्या आम मानते हैं कि हिन्दी भविष्य की विश्व भाषा है?
क्या संस्कृत और हिन्दी के अलावा अन्य किसी भाषा में अक्षरों का उच्चारण ध्वनि विज्ञानं के नियमों के अनुसार किया जाता है?
अक्षर के उच्चारण और लिपि में लेखन में साम्य किन भाषाओँ में है?
अमेरिका के राष्ट्रपति अमेरिकियों को बार-बार हिन्दी सीखने के लिए क्यों प्रेरित कर रहे हैं?
अन्य सौरमंडलों में संभावित सभ्यताओं से संपर्क हेतु विश्व की समस्त भाषाओँ को परखे जाने पर संस्कृत और हिन्दी सर्वश्रेष्ठ पाई गयीं हैं तो भारत में इनके प्रति उदासीनता क्यों?
क्या भारत में अंग्रेजी के प्रति अंध-मोह का कारण उसका विदेशी शासन कर्ताओं से जुड़ा होना नहीं है?
आचार्य संजीव सलिल / http://divyanarmada.blogspot.com

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

एक कुण्डली : आचार्य संजीव 'सलिल'

भुला न पाता प्यार को, कभी कोई इंसान.
पाकर-देकर प्यार सब जग बनता रस-खान
जग बनता रस-खान, नेह-नर्मदा नाता.
बन अपूर्ण से पूर्ण, नया संसार बसाता.
नित्य 'सलिल' कविराय, प्यार का ही गुण गाता.
खुद को जाये भूल, प्यार को भुला न पाता.

सोमवार, 20 अप्रैल 2009

सामयिक रचना...

शक्कर मंहगी होना पर...

दोहा गजल

आचार्य संजीव 'सलिल'

शक्कर मंहगी हो रही, कडुवा हुआ चुनाव.
क्या जाने आगे कहाँ, कितना रहे अभाव?

नेता को निज जीत की, करना फ़िक्र-स्वभाव.
भुगतेगी जनता'सलिल',बेबस करे निभाव.

व्यापारी को है महज, धन से रहा लगाव.
क्या मतलब किस पर पड़े कैसा कहाँ प्रभाव?

कम ज़रूरतें कर 'सलिल',कर मत तल्ख़ स्वभाव.
मीठी बातें मिटतीं, शक्कर बिन अलगाव.

कभी नाव में नदी है, कभी नदी में नाव.
डूब,उबर, तरना'सलिल',नर का रहा स्वभाव.

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गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

गीत

आचार्य संजीव 'सलिल'

नीचे-ऊपर,
ऊपर नीचे,
रहा दौड़ता
अँखियाँ मीचे।
मेघा-गागर
हुई न रीती-
पवन थका,
दिन-रात उलीचे

नाव नदी में,
नदी नाव में,
भाव समाया है,
अभाव में।
जीवन बीता-
मोल-भाव में।
बंद रहे-
सद्भाव गलीचे

नहीं कबीरा,
और न बानी।
नानी कहती,
नहीं कहानी।
भीड-भाड़ में,
भी वीरानी।
ठाना- सींचें,
स्नेह-बगीचे

कंकर- कंकर
देखे शंकर।
शंकर में देखे
प्रलयंकर।
साक्ष्य- कारगिल
टूटे बनकर।
रक्तिम शीतल
बिछे गलीचे

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