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गुरुवार, 11 जुलाई 2019

भोजपुरी हाइकु

भोजपुरी हाइकु: संजीव वर्मा 'सलिल'
*
पावन भूमि / भारत देसवा के / प्रेरण-स्रोत.
भुला दिहिल / बटोहिया गीत के / हम कृतघ्न.
देश-उत्थान? / आपन अवदान? / खुद से पूछ.
अंगरेजी के / गुलामी के जंजीर / साँच साबित.
सुख के धूप / सँग-सँग मिलल / दुःख के छाँव.
नेह अबीर / जे के मस्तक पर / वही अमीर.
अँखिया खोली / हो गइल अंजोर / माथे बिंदिया.
भोर चिरैया / कानन में मिसरी / घोल गइल.
काहे उदास? / हिम्मत मत हार / करल प्रयास.
*

मंगलवार, 23 अप्रैल 2019

भोजपुरी कहावतें

कहावत सलिला:
भोजपुरी कहावतें:
*
कहावतें किसी भाषा की जान होती हैं.
कहावतें कम शब्दों में अधिक भाव व्यक्त करती हैं.
कहावतों के गूढार्थ तथा निहितार्थ भी होते हैं.

१. अबरा के मेहर गाँव के भौजी.
२. अबरा के भईंस बिआले कs टोला.
३. अपने मुँह मियाँ मीठू बा.
४. अपने दिल से जानी पराया दिल के हाल.
५. मुर्गा न बोली त बिहाने न होई.
२३.४.२०१०
*

भोजपुरी कहावतें

कहावत सलिला:
भोजपुरी कहावतें:
*
भोजपुरी कहावतें दी जा रही हैं. पाठकों से अनुरोध है कि अपने-अपने अंचल में प्रचलित लोक भाषाओँ, बोलियों की कहावतें भावार्थ सहित यहाँ दें ताकि अन्य जन उनसे परिचित हो सकें. .

१. पोखरा खनाचे जिन मगर के डेरा.
२. कोढ़िया डरावे थूक से.
३. ढेर जोगी मठ के इजार होले.
४. गरीब के मेहरारू सभ के भौजाई.
५. अँखिया पथरा गइल.
२३.४.२०१०
*

सोमवार, 17 सितंबर 2018

bhojpuri

भोजपुरी भाषा की विशेषता
एक शब्द सारे मायने बदल देता है-
के मारी?
केके मारी?
के केके मारी?
केके केके मारी?
के केके केके मारी?
केके केके के के मारी?

रविवार, 17 सितंबर 2017

भाषा वैभव : भोजपुरी
आलंकारिकता और अर्थ वैचित्र्य 
*
के मारी? = कौन मारेगा?
केके मारी? = किसको मारूं?
के केके मारी? = कौन किसको मारेगा?
केके केके मारी? = किसको-किसको मारूँ?
के केके केके मारी? = कौन किसको-किसको मारेगा?
केके केके के के मारी? = किसको-किसको कौन-कौन मारेगा?
***
अर्थ बूझिये
के कै मारी?, के को मारी, के समझी?, के का समझी?, के के समझी?, का का समझी? के के का का समझी?, के का के का समझी?
अन्य भाषाओँ के वैभव से परिचित कराइए. 
***
salilsanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४
http://divyanarmada.blogspot.com  
#हिंदी_ब्लॉगर 

शुक्रवार, 30 जून 2017

bhojpuri haiku

भोजपुरी हाइकु:
संजीव
*
आपन बोली
आ ओकर सुभाव
मैया क लोरी.
*
खूबी-खामी के
कवनो लोकभासा
पहचानल.
*
तिरिया जन्म
दमन आ शोषण
चक्की पिसात.
*
बामनवाद
कुक्कुरन के राज
खोखलापन.
*
छटपटात
अउरत-दलित
सदियन से.
*
राग अलापे
हरियल दूब प
मन-माफिक.
*
गहरी जड़
देहात के जीवन
मोह-ममता.
*
३०-६-२०१४

बुधवार, 29 मार्च 2017

bhojpuri geet

अवधी भाषा में 
मतदाता जागरूकता गीत 
इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
*
चलौ हो वोट डारी सबते पहिले...
चुनावी तेउहारी सबते पहिले
चलौ हो वोट डारी सबते पहिले...
सबते पहिले हो सबते पहिले.....२
चलौ हो वोट डारी सबते पहिले...
भोर हुइ गवा अब ना सोएव जल्दी तेने जागेउ
दुइ लोटिया देहीं पर डारेउ सबका लै के भागेउ
यज्ञ यहौ है सुनि लेउ भैया सब जन यहिमा लागेउ
सोंचि समझि मतदान करेउ तुम मदद न कउनौ मागेउ
करौ हो तइयारी सबते पहिले
चलौ हो वोट डारी सबते पहिले…
पासइ मा मतदान हुइ रहा पैयाँ-पैयाँ जायेउ
बूढ़ेन वा विकलांग जनेन का संघै लै के आयेउ
लालच मैंहा जो कोइ फाँसै वहि ते बचेउ बचायेउ
जेहिका वोट दिहेउ तुम भाइनि वहिका रहेउ छिपायेउ
यहै है होसियारी सबते पहिले...
चलौ हो वोट डारी सबते पहिले…
बुद्धा कहिहैं मॅंगरे हुइहैं सगरे मॅंगिहैं वोटउ
सुनेउ सुनायेउ सबकी 'अम्बर' दिहेउ न वोटउ खोटउ
ऐसइ -वैसइ ठाढ़ लड़ि रहे कोऊ पार न पावै
वोट दिहेउ तुम वहिका भौजी जो तुमरे मन भावै
बचायेउ फुलवारी सबते पहिले
चलौ हो वोट डारी सबते पहिले…
सबते पहिले हो सबते पहिले.....२
चलौ हो वोट डारी सबते पहिले…
*
संपर्क : 09415047020, 05862-244440
९१, आगा कालोनी सिविल लाइन्स सीतापुर उत्तर प्रदेश २६१००१

शुक्रवार, 15 मई 2015

bhojpuri doha: sanjiv

दोहा सलिला:
भोजपुरी का रंग - दोहा का संग
संजीव
.
घाटा के सौदा बनल, खेत किसानी आज
गाँव-गली में सुबह बर, दारू पियल न लाज
.
जल जमीन वन-संपदा, लूटि लेल सरकार
कहाँ लोहिया जी गयल, आज बड़ी दरकार
..
खेती का घाटा बढ़ल, भूखा मरब किसान
के को के की फिकर बा, प्रतिनिधि बा धनवान
.
विपदा भी बिजनेस भयल, आफर औसर जान
रिश्वत-भ्रष्टाचार  बा, अफसर बर पहचान
.
घोटाला अपराध बा, धंधा- सेवा नाम
चोर-चोर भाई भयल, मालिक भयल गुलाम
.
दंगा लूट फसाद बर, भेंट चढ़ल इंसान
नेता स्वारथ-मगन बा, सेठ भयल हैवान
.
आपन बल पहचान ले, छोड़ न आपन ठौर
भाई-भाई मिलकर रहल, जी ले आपन तौर
.
बुरबक चतुरान के पढ़ा, गढ़ दिहली इतिहास
सौ चूहे खा बिलौतिया, धर लीन्हीं उपवास
***

शुक्रवार, 1 मई 2015

bhojpuri doha : sanjiv

भोजपुरी दोहा :
संजीव 
दोहा में दो पद (पंक्तियाँ) तथा हर पंक्ति में २ चरण होते हैं. विषम (प्रथम व तृतीय) चरण में १३-१३ मात्राएँ तथा सम (२रे व ४ थे) चरण में ११-११ मात्राएँ, इस तरह हर पद में २४-२४ कुल ४८ मात्राएँ होती हैं. दोनों पदों या सम चरणों के अंत में गुरु-लघु मात्र होना अनिवार्य है. विषम चरण के आरम्भ में एक ही शब्द जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित है. विषम चरण के अंत में सगण,रगण या नगण तथा सम चरणों के अंत में जगण या तगण हो तो दोहे में लय दोष स्वतः मिट जाता है. अ, इ, उ, ऋ लघु (१) तथा शेष सभी गुरु (२) मात्राएँ गिनी जाती हैं
*
कइसन होखो कहानी, नहीं साँच को आँच.
कंकर संकर सम पूजहिं, ठोकर खाइल कांच..
*
कोई किसी भी प्रकार से झूठा-सच्चा या घटा-बढाकर कहे सत्य को हांनि नहीं पहुँच सकता. श्रद्धा-विश्वास के कारण ही कंकर भी शंकर सदृश्य पूजित होता है जबकि झूठी चमक-दमक धारण करने वाला काँच पल में टूटकर ठोकरों का पात्र बनता है.
*
कतने घाटल के पियल, पानी- बुझल न प्यास.
नेह नरमदा घाट चल, रहल न बाकी आस..
*
जीवन भर जग में यहाँ-वहाँ भटकते रहकर घाट-घाट का पानी पीकर भी तृप्ति न मिली किन्तु स्नेह रूपी आनंद देनेवाली पुण्य सलिला (नदी) के घाट पर ऐसी तृप्ति मिली की और कोई चाह शेष न रही.
*
गुन अवगुन कम- अधिक बा, ऊँच न कोई नीच.
मिहनत श्रम शतदल कमल, मोह-वासना कीच..
*
अलग-अलग इंसानों में गुण-अवगुण कम-अधिक होने से वे ऊँचे या नीचे नहीं हो जाते. प्रकृति ने सबको एक सम़ान बनाया है. मेंहनत कमल के समान श्रेष्ठ है जबकि मोह और वासना कीचड के समान त्याग देने योग्य है. भावार्थ यह की मेहनत करने वाला श्रेष्ठ है जबकि मोह-वासना में फंसकर भोग-विलास करनेवाला निम्न है.
*
नेह-प्रेम पैदा कइल, सहज-सरल बेवहार.
साँझा सुख-दुःख बँट गइल, हर दिन बा तिवहार..
*
सरलता तथा स्नेह से भरपूर व्यवहार से ही स्नेह-प्रेम उत्पन्न होता है. जिस परिवार में सुख तथा दुःख को मिल बाँटकर सहन किया जाता है वहाँ हर दिन त्यौहार की तरह खुशियों से भरा होता है..
*
खूबी-खामी से बनल, जिनगी के पिहचान.
धूप-छाँव सम छनिक बा, मान अउर अपमान..
*
ईश्वर ने दुनिया में किसी को पूर्ण नहीं बनाया है. हर इन्सान की पहचान उसकी अच्छाइयों और बुराइयों से ही होती है. जीवन में मान और अपमान धुप और छाँव की तरह आते-जाते हैं. सज्जन व्यक्ति इससे प्रभावित नहीं होते.
*
सहरन में जिनगी भयल, कुंठा-दुःख-संत्रास.
केई से मत कहब दुःख, सुन करिहैं उपहास..
*
शहरों में आम आदमी की ज़िन्दगी में कुंठा, दुःख और संत्रास की पर्याय बन का रह गयी है किन्तु अपना अपना दुःख किसी से न कहें, लोग सुनके हँसी उड़ायेंगे, दुःख बाँटने कोई नहीं आएगा. इसी आशय का एक दोहा महाकवि रहीम का भी है:
*
रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही रखियो गोय.
सुन हँस लैहें लोग सब, बाँट न लैहें कोय..
*
फुनवा के आगे पड़ल, चीठी के रंग फीक.
सायर सिंह सपूत तो, चलल तोड़ हर लीक..
समय का फेर देखिये कि किसी समय सन्देश और समाचार पहुँचाने में सबसे अधिक भूमिका निभानेवाली चिट्ठी का महत्व दूरभाष के कारण कम हो गया किन्तु शायर, शेर और सुपुत्र हमेशा ही बने-बनाये रास्ते को तोड़कर चलते हैं.
*
बेर-बेर छटनी क द स, हरदम लूट-खसोट.
दुर्गत भयल मजूर के, लगल चोट पर चोट..
*
दुनिया का दस्तूर है कि बलवान आदमी निर्बल के साथ बुरा व्यव्हार करते हैं. ठेकेदार बार-बार मजदूरों को लगता-निकलता है, उसके मुनीम कम मजदूरी देकर मजदूरों को लूटते हैं. इससे मजदूरों की उसी प्रकार दशा ख़राब हो जाती है जैसे चोट लगी हुई जगह पर बार-बार चोट लगने से होती है.
*
दम नइखे दम के भरम, बिटवा भयल जवान.
एक कमा दू खर्च के, ऊँची भरल उडान..
*
किसी व्यक्ति में ताकत न हो लेकिन उसे अपने ताकतवर होने का भ्रम हो तो वह किसी से भी लड़ कर अपनी दुर्गति करा लेता है. इसी प्रकार जवान लड़के अपनी कमाई का ध्यान न रखकर हैसियत से अधिक खर्च कर परेशान हो जाते हैं..
*

बुधवार, 1 अक्टूबर 2014

doha

भोजपुरी दोहा:

रखि दिहली झकझोर के, नेता भाषण बाँच
चमचा बदे बधाइ बा, तनक न देखल साँच
*
चिउड़ा-लिट्ठी ना रुचे, बिरयानी की चाह
नवहा मलिकाइन चली, घर फूँके की राह
*
पनहा ठंडाई भयल, पिछड़े की पहचान
कोला पेप्सी पेग भा, अगड़े बर अरमान
*
महिमा आपन देस बर, गायल बेद पुरान
रउआ बिटुआ के बरे, पच्छिम भयल महान
*
राम नाम के भजलऽ ना, पीटत छतिया व्यर्थ 
हाथ जोड़ खखनत रहब, केहु ना सुनी अनर्थ 
*
मँहगाई ससुरी गइल, भाईचारा लील 
प्याज-टमाटर भूलि गै, चँवरो-अटवा गील 
*
तार-तार रिश्ता भयल,भाई-भाई में रार 
बंगला बनल वकील बर, आपन चढ़ल उधार   
*

बुरा बतावल बुराई, दूसर के आसान 
जे अपने बर बुराई, देखल वही सयान 
*
जे अगहर बा ओकरा, बाकी खेंचल टाँग
बढ़े न, बाढ़न दे तनक, घुली कुँए मा भाँग 
***
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रविवार, 27 जनवरी 2013

भोजपुरी दोहा सलिला : संजीव 'सलिल'

भोजपुरी दोहा सलिला :
संजीव 'सलिल'
*
रउआ आपन देस में, हँसल छाँव सँग धूप।
किस्सा आपन देस का, इत खाई उत कूप।।
*
रखि दिहली झकझोर के, नेता भाषण बाँच।
चमचे बदे बधाई बा, 'सलिल' न देखल साँच।।
*
चिउड़ा-लिट्टी ना रुचे, बिरयानी की चाह।
चली बहुरिया मेम बन, घर फूंकन की राह।।
*
रोटी की खातिर 'सलिल', जिनगी भयल रखैल।
कुर्सी के खातिर भइल, हाय! सियासत गैल।।
*
आजु-काल्हि के रीत बा, कर औसर से प्यार।
कौनौ आपन देस में, नहीं किसी का यार।।
*
खाली चउका देखि के, दिहले मूषक भागि।
चौंकि परा चूल्हा निरख, आपन मुँह में आगि।।
*
रउआ रख संसार में, सबकी खातिर प्रेम।
हर पियास हर किसी की, हर से चाहल छेम।।
***

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

भोजपुरी के संग: दोहे के रंग संजीव 'सलिल'

भोजपुरी के संग: दोहे के रंग









संजीव 'सलिल'
*
भइल किनारे जिन्दगी, अब के से का आस?
ढलते सूरज बर 'सलिल', कोउ न आवत पास..
*
अबला जीवन पड़ गइल, केतना फीका आज.
लाज-सरम के बेंच के, मटक रहल बिन काज..
*
पुड़िया मीठी ज़हर की, जाल भीतरै जाल.
मरद नचावत अउरतें, झूमैं दै-दै ताल..
*
कवि-पाठक के बीच में, कविता बड़का सेतु.
लिखे-पढ़े आनंद बा, सब्भई जोड़े-हेतु..
*
रउआ लिखले सत्य बा, कहले दूनो बात.
मारब आ रोवन न दे, अजब-गजब हालात..
*
पथ ताकत पथरा गइल, आँख- न दरसन दीन.
मत पाकर मतलब सधत, नेता भयल विलीन..
*
हाथ करेजा पे धइल, खोजे आपन दोष.
जे नर ओकरा सदा ही, मिलल 'सलिल' संतोष..
*
मढ़ि के रउआ कपारे, आपन झूठ-फरेब.
लुच्चा बाबा बन गयल, 'सलिल' न छूटल एब..
*
कवि कहsतानी जवन ऊ, साँच कहाँ तक जाँच?
सार-सार के गह 'सलिल', झूठ-लबार न बाँच..

***************************************

Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
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शुक्रवार, 16 मार्च 2012

भोजपुरी होली गीत -आनन्द पाठक,

एगो भोजपुरी होली गीत
आनन्द पाठक,जयपुर
 
काहे नS रंगवा लगउलु हो गोरिया ...काहे नS रंगवा लगउलु ?
 
अपने नS अईलु न हमके बोलऊलु ,’कजरीके हाथे नS चिठिया पठऊलु  
 होली में मनवा जोहत रहS गईलस. केकरा से जा के तू रंगवा लगऊलु
 
रंगवा लगऊलु......तू रंगवा लगऊलु... काहे केS मुँहवा फुलऊलु संवरिया
 काहे केS मुँहवा बनऊलु ?
 
रामS के संग होली सीता जी खेललीं ,’राधा जी खेललीं तS कृश्ना से खेललीं
होली के मस्ती में डूबलैं सब मनई नS अईलु तS तोरे फ़ोटुए से खेललीं
 
फोटुए से खेललीं... हो फ़ोटुए से खेललीं.... अरे ! केकराS से चुनरी रंगऊलु ?, 
 सँवरिया ! केकरा से चुनरी रंगऊलु ?
 
रमनथवाखेललस रमरतियाके संगे, ’मनतोरनी खेललस संघतिया के संगे
दुनिया नS कहलस कछु होली के दिनवा ,खेललस जमुनवा’ ’सुरसतियाके संगे
 
सुरसतिया के संगे.....सुर सतिया के संगे.... केकरा केS डर से तू बाहर नS अईलु  ,
 S अंगवा से अंगवा लगउलु
 
काहें गोड़धरिया करऊलु संवरिया..... काहें गोड़धरिया करऊलु.?..............काहें न रंगवा लगऊलु ?  
 

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शनिवार, 7 जनवरी 2012

भोजपुरी के संग: दोहे के रंग --संजीव 'सलिल'

भोजपुरी के संग: दोहे के रंग


संजीव 'सलिल'

भइल किनारे जिन्दगी, अब के से का आस?
ढलते सूरज बर 'सलिल', कोउ न आवत पास..
*
अबला जीवन पड़ गइल, केतना फीका आज.
लाज-सरम के बेंच के, मटक रहल बिन काज..
*
पुड़िया मीठी ज़हर की, जाल भीतरै जाल.
मरद नचावत अउरतें, झूमैं दै-दै ताल..
*
कवि-पाठक के बीच में, कविता बड़का सेतु.
लिखे-पढ़े आनंद बा, सब्भई जोड़े-हेतु..
*
रउआ लिखले सत्य बा, कहले दूनो बात.
मारब आ रोवन न दे, अजब-गजब हालात..
*
पथ ताकत पथरा गइल, आँख- न दरसन दीन.
मत पाकर मतलब सधत, नेता भयल विलीन..
*
हाथ करेजा पे धइल, खोजे आपन दोष.
जे नर ओकरा सदा ही, मिलल 'सलिल' संतोष..
*
मढ़ि के रउआ कपारे, आपन झूठ-फरेब.
लुच्चा बाबा बन गयल, 'सलिल' न छूटल एब..
*
कवि कहsतानी जवन ऊ, साँच कहाँ तक जाँच?
सार-सार के गह 'सलिल', झूठ-लबार न बाँच..
***************************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

लोकभाषा-काव्य में श्री गणेश : -- संजीव 'सलिल'

लोकभाषा-काव्य में श्री गणेश :
संजीव 'सलिल'
*
पारंपरिक ब्याहुलों (विवाह गीत) से दोहा : संकलित
पूरब की पारबती, पच्छिम के जय गनेस.
दक्खिन के षडानन, उत्तर के जय महेस..
*
बुन्देली पारंपरिक तर्ज:
मँड़वा भीतर लगी अथाई के बोल मेरे भाई.
रिद्धि-सिद्धि ने मेंदी रचाई के बोल मेरे भाई.बैठे गनेश जी सूरत सुहाई के बोल मेरे भाई.
ब्याव लाओ बहुएँ कहें मताई के बोल मेरे भाई.
दुलहन दुलहां खों देख सरमाई के बोल मेरे भाई.
'सलिल' झूमकर गम्मत गाई के बोल मेरे भाई.
नेह नर्मदा झूम नहाई के बोल मेरे भाई.
*अवधी मुक्तक:
गणपति कै जनम भवा जबहीं, अमरावति सूनि परी तबहीं.
सुर-सिद्ध कैलास सुवास करें, अनुराग-उछाह भरे सबहीं..
गौर की गोद मा लाल लगैं, जनु मोती 'सलिल' उर मा बसही.
जग-छेम नरमदा-'सलिल' बहा, कछु सेस असेस न जात कही..
*

सोमवार, 18 अक्टूबर 2010

विशेष लेख- भारत में उर्दू : संजीव 'सलिल'

विशेष लेख-

भारत में उर्दू : 


संजीव 'सलिल'
*
भारत विभिन्न भाषाओँ का देश है जिनमें से एक उर्दू भी है. मुग़ल फौजों द्वारा आक्रमण में विजय पाने के बाद स्थानीय लोगों के कुचलने के लिये उनके संस्कार, आचार, विचार, भाषा तथा धर्म को नष्ट कर प्रचलित के सर्वथा विपरीत बलात लादा गया तथा अस्वीकारने पर सीधे मौत के घाट उतारा गया ताकि भारतवासियों का मनोबल समाप्त हो जाए और वे आक्रान्ताओं का प्रतिरोध न करें. यह एक ऐतिहासिक सत्य है जिसे कोई झुठला नहीं सकता. पराजित हतभाग्य जनों को मुगल सिपाहियों ने अरबी-फ़ारसी के दोषपूर्ण रूप (सिपाही शुद्ध भाषा नहीं जानते थे) को स्थानीय भाषा के साथ मिलावट कर बोला. उनके गुलामों को भी वही भाषा बोलने के लिये विवश होना पड़ा.   

भारतीयों को भ्रान्ति है कि उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्र या राजकीय भाषा है जबकि यह पूरी तरह गलत है. न्यूज़ इंटरनॅशनल के अनुसार  लाहौर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ख्वाजा मुहम्मद शरीफ ने १३ अक्टूबर २०१० को एक परमादेश याचिका को इसलिए खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ता सना उल्लाह और उसके वकील यह प्रमाणित करने में असफल हुए कि उर्दू पाकिस्तान की सरकारी काम-काज की भाषा है. याचिकाकर्ता ने दवा किया था कि  १९४८ में पाकिस्तान के राष्ट्रपिता कायदे-आज़म मुहम्मद अली जिन्ना ने  ढाका में विद्यार्थियों को सम्बोधत करते हुए उर्दू को पाकिस्तान की सरकारी काम-काज की भाषा बताया था तथा संविधान में भी एक निर्धारित समयावधि में ऐसा किये जाने को कहा गया है लेकिन पाकिस्तान की आज़ादी के ६२ साल बाद तक ऐसा नहीं किया गया. 

हरकादास वासन, लीड्स अमेरिका के अनुसार-- ''उर्दू संसार की सर्वाधिक खूबसूरत भाषा है जिसे बोलते समय आप खुद को दुनिया से ऊँचा अनुभव करते है तथा इसे भारत की सरकारी काम-काज की भाषा बनाया जाना चाहिए.वासन के अनुसार उर्दू अरबी-फारसी प्रभाव से हिन्दी का उन्नत रूप है. तुर्की मूल के शब्द 'उर्दू' का अर्थ सेना या तंबू है. उर्दू ने व्यावहारिक रूप से हिन्दी की शब्दवाली को उसी तरह दोगुना किया है जैसे फ्रेंच ने अंग्रेजी को. उर्दू ने भारतीय कविता विशेषकर श्रंगारिक कविता में बहुत कुछ जोड़ा है. मेहरबानी तथा तशरीफ़ रखिए जैसे शब्द उर्दू के हैं.'' उर्दू की एक खास नजरिये से की जा रही इस पैरवी के पीछे छिपी भावना छिपाए नहीं छिपती. हिन्दी को कमतर और उर्दू को बेहतर बताने का ऐसा दुष्प्रयास उर्दूदां अक्सर करते रहे हैं औए इसी कारण हिन्दी व्याकरण और पिंगल के आधार पार रची गयी गजलों को खारिज करते रहे हैं जबकि खुद हर्फ़ गिराकर लिखे गये दोषपूर्ण दोहे थोपते आये हैं.
 
वस्तुतः उर्दू एक गड्ड-मड्ड भाषा या यूँ कहें कि हिन्दी भाषा ही एक रूप है जो अरबी अक्षरों से लिखी जाती है. भाषा विज्ञान के अनुसार उर्दू वास्तव में एक भाषा है ही नहीं. फारस, अरब तथा तुर्की आदि देशों के सिपाहियों की मिश्रित बोली ही उर्दू है. किसी पराजित देश में विजेताओं की भाषा का प्रयोग करने की प्रवृत्ति होती है. इसी कारण भारत में पहले उर्दू तथा बाद में अंग्रेजी बोली गयी. उर्दू तथा अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार तथा हिन्दी की उपेक्षा के पीछे अखबारी समाचार माध्यम तथा प्रशासनिक अधिकारियों की महती भूमिका है.व्यक्ति चाहें भी तो भाषा को प्रचलन में नहीं ला सकते जब तक कि अख़बार तथा प्रशासन न चाहें.

उर्दू का सौन्दर्य विष कन्या के रूप की तरह मादक किन्तु घातक है. उर्दू अपने उद्भव से आज तक मुस्लिम आक्रमणकारियों और मुस्लिम आक्रामक प्रवृत्ति की भाषा है.८० से अधिक वर्षों तक उर्दू उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम भारत की सरकारी काम-काज की भाषा रही है किन्तु यह उत्तर तथा हैदराबाद के मुसलमानों को छोड़कर अन्य वर्गों (यहाँ तक कि मुसलमानों में भी)में अपनी जड़ नहीं जमा सकी. अंग्रेजी राज्य में उत्तर भारत में उर्दू शिक्षण अनिवार्य किये जाने के कारण पुरुष वर्ग उर्दू जान गया था किन्तु घरेलू महिलाएँ हिन्दी ही बोलती रहीं.यहाँ तक कि  केवल ५०% मुसलमान ही उर्दू को अपनी मातृभाषा कहते हैं. मुसलमानों की मातृभाषा बांगला देश में बंगाली, केरल मे मलयालम, तमिलनाडु में तमिल आदि हैं.  यह भी सत्य है कि मुसलमानों की धार्मिक भाषा उर्दू नहीं अरबी है. आरम्भ में मुस्लिम लीग ने भी उर्दू को मुसलमानों की दूसरी भाषा ही कहा था.

मुस्लिम काल में उर्दू सरकारी काम-काज की भाषा थी इसलिए सरकारी काम-काज से प्रमुखतः जुड़े कायस्थों, ब्राम्हणों और क्षत्रियों को इसका प्रयोग करने के लिये बाध्य होना पड़ा. जो गरीब हिन्दू बलात मुसलमान बनाये  गए वे किसान-सिपाही थे जिन्हें भाषिक विकास से कोई सीधा सरोकार नहीं था. उर्दू के विकास में सर्वाधिक प्रभावी भूमिका दिमाग से तेज और सरकारी बन्दोबस्त से जुड़े कायस्थों ने निभाई जिसका लाभ उन्हें राजस्व से जुड़े महकमों में मिला. उर्दू संस्कृत, प्राकृत, अरबी, फ़ारसी तथा स्थानीय बोलिओं के शब्दों का सम्मिश्रण अर्थात चूँ-चूँ का मुरब्बा हो गई.

उर्दू का छंद शास्त्र यद्यपि अरबी-फारसी से उधार लिया गया किन्तु मूलतः वहाँ भी यह संस्कृत से ही गया था, इसलिए उर्दू के रुक्न और बहरें संस्कृत छंदों पर ही आधारित मिलती हैं. फारस और अरब की भौगोलिक परिस्थितियों और निवासियों को कुछ शब्दों के उच्चारण में अनुभूत कठिनाई के कारण वही प्रभाव उर्दू में आया. कवियों ने बहरों में कई जगहों पर भारतीय भाषाओँ के शब्दों के प्रयोग में  बाहर के अनुकूल नहीं पाया. फल यह हुआ कि शब्दों को तोड़-मरोड़कर या उसका कोई अक्षर अनदेखा -अन उच्चारित कर (हर्फ़ गिराकर) उपयोग करना और उसे सही साबित करने के लिये उसके अनुसार नियम बनाये गये.  और के स्थान पर औ', मंदिर के स्थान पर मंदर, जान के स्थान पर जां, माकन के स्थान पर मकां आदि ऐसे ही प्रयोग हैं. इनसे कई जगह अर्थ के अनर्थ हो गये. मंदिर को मंदर करने पर उसका अर्थ देवालय से बदल कर गुफा हो गया.

स्वतंत्रता के बाद अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिये उर्दू प्रेमियों ने उर्दू को हिन्दी से अधिक प्राचीन और बेहतर बताने की जी तोड़ कोशिश की किन्तु आम भारतवासियों को अरबी-फ़ारसी शब्दों से बोझिल भाषा स्वीकार न हुई. फलतः, उर्दू के श्रेष्ठ कहे जा रहे शायरों का वह कलाम जिसे उन्होंने श्रेष्ठ माना जनता के दिल में घर नहीं कर सका और जिसे उन्होंने चलते-फिरते लिखा गया या सतही माना था वह लोकप्रिय हुआ. मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपनी जिन पद्य रचनाओं को पूरी विद्वता से लिखा वे आज किसे याद हैं जबकि जिस गजल को 'तंग रास्ता' और 'कोल्हू का बैल' कहा गया था उसने उन्हें अमर कर दिया. ऐसा ही अन्यों के साथ हुआ. दाल न गलती देख मजबूरी में उर्दू लिपि के स्थान पर देवनागरी को अपनाकर हिन्दी के बाज़ार से लाभ कमाने की कोशिश की गयी जो सफल भी हुई.

उदार हिन्दीभाषियों ने उर्दू को गले लगाने में कोई कसर न छोड़ी किन्तु उर्दू दां हिन्दी के व्याकरण-पिंगल को नकारने के दुष्प्रयास में जुट गये. हिन्दी गजलों को खारिज करने का कोई अधिकार न होने पर भी उर्दूदां ऐसा करते रहे जबकि उर्दू में समालोचना शास्त्र का हिन्दी की तुलना में बहुत कम विकास हो सका. उर्दू गजल को इश्क-मुश्क की कैद से आज़ाद कर आम अवाम के दुःख-दर्द से जोड़ने का काम हिन्दी ने ही किया. उर्दू को आक्रान्ता मुसलमानों की भाषा से जन सामान्य की भाषा का रूप तभी मिला जब वह हिन्दी से गले मिली किन्तु हिन्दी की पीठ में छुरा भोंकने से उर्दूदां बाज़ न आये. वे हिन्दी के सर्वमान्य दुष्यंत कुमार की सर्वाधिक लोकप्रिय ग़ज़लों को भी खारिज करार देते रहे. आज भी हिन्दी कवि सम्मेलनों में उर्दू की रचनाओं को पूरी तरह न समझने के बावजूद सराहा ही जाता है किन्तु उर्दू के मुशायरों में हिन्दी कवि या तो बुलाये ही नहीं जाते या उन्हें दाद न देकर अपमानित किया जाता है. इसमें कोई शक नहीं कि इस बेहूदा हरकत में उर्दू भाषा का कोई दोष नहीं है किन्तु उर्दूभाषियों को हिन्दी को अपमानित करने की मनोवृत्ति तो उजागर होती ही है. 

भारत में उर्दू का सीधा विरोध न होने पर भी स्वतंत्रता के वर्षों बाद मुस्लिम आतंकवाद ने एक बार फिर उर्दू को अपना औजार बनाने की कोशिश की है. भारत सरकार ने हिंदीभाषियों के धन से उर्दू विश्वविद्यालय स्थापित करने में संकोच नहीं किया. भारत के हिन्दी विश्व विद्यालयों में उर्दू के पठन-पाठन की व्यवस्था है किन्तु हिन्दी भाषियों के करों से हिन्दी भाषी सरकार द्वारा स्थापित किये गाये उर्दू मदरसों और विश्व विद्यालयों में हिन्दी-शिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है.

बांग्ला देश ने उर्दू  के घातक सामाजिक दुष्प्रभाव को पहचानकर सांस्कृतिक आधार पर उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया. यहाँ तक कि पाकिस्तान में भी पंजाबियों, सिंधियों बलूचोंऔर पठानों ने भी उर्दू को अपनी सभ्यता-संस्कृति के लिये घातक पाया और अब उर्दू पाकिस्तान में भी सिर्फ मुहाजिरों (भारत से भाग कर पहुँचे मुसलमान) की भाषा है. अमेरिका, जापान, रूस, या चीन कहीं भी उर्दू मुसलमानों की भाषा नहीं है पर भारत में उर्दू पर यह ठप्पा लगाया जाता रहा है. क्या आपने किसी मौलवी, मौलाना को हिन्दी में बोलते सुना है? राम कथा और कृष्ण कथा के प्रवचनकार या हिन्दीभाषी राजनेता पूरी उदारता से संस्कृत और हिन्दी के उद्धरण होते हुई भी उर्दू के शे'र कहने में कोई संकोच नहीं करते किन्तु मजहबी या सियासी तकरीरों में आपको संस्कृत, हिन्दी ही नहीं किसी भी भारतीय भाषा के उद्धरण नहीं मिलते. अपनी इस संकीर्णता के लिये शर्मिंदा होने और सुधारने / बदलने की बजाय उर्दूदां इसे अपनी जीत और उर्दू की ताकत बताते हैं. उर्दू के पीछे छिपी इस संकीर्ण, आक्रामक और बहुत हद तक सांप्रदायिक मनोवृत्ति ने उर्दू का बहुत नुक्सान भी किया है.

भारत में जन्म लेने ओर पोसी जाने के बाद भी उर्दू अबाधी, भोजपुरी, बृज, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, मेवाड़ी, मारवाड़ी और ऐसी ही अन्य भाषाओँ की तरह आम आदमी की भाषा नहीं बन सक़ी और आज भी यह अधिकांश लोगों के लिये पराई भाषा है बावजूद इसके कि इसके कुछ शब्द प्रेस द्वारा लगातार उपयोग में लाये जाते हैं तथा इसे देवनागरी में लिखा जाता है जिससे इसके हिन्दी होने का भ्रम होता है. वस्तुतः उर्दू के पीछे सांप्रदायिक हिन्दी द्रोही मानसिकता को देखते हुए इसे हिन्दी से इतर पहचान दिया जाना बंद कर हिन्दी में ही समाहित होने दिया जाना चाहिए अन्यथा व्यावसायिक तथा तकनीकी बाध्यताओं के तहत अंग्रेजीभाषी बनती जा रही नई पीढ़ी इससे पूरी तरह दूर हो जाएगी. आज मैं अपने पूर्वजों के पुराने कागज़ नहीं पढ़ पाता चुकी वे उर्दू लिपि में लिखे गये हैं. उर्दू जाननेवालों से पढवाए तो उनमें इस्तेमाल किये गये शब्द ही समझ में नहीं आये. 

तकनीकी कामों में रोजगार पाये नवयुवक गैर अंग्रेजी बहुत कम और सिर्फ मनोरंजन के लिये पढ़ते हैं... उनके बच्चों और परिवारजनों की भी यही स्थिति है. दिन-ब-दिन इनकी तादाद बढ़ती जा रही है. इन्हें भारतीयता से जोड़े रखने में सिर्फ हिन्दी ही समर्थ है. इस वर्ग में विविध प्रान्तों के रहवासियों जिनकी मूल भाषाएँ अलग-अलग हैं विवाह कर रहे हैं... इनकी भाषा क्यों हो? एक प्रान्त की भाषा दूसरे को नहीं आती... विकल्प मात्र यह कि वे अंग्रेजी बोलें या हिन्दी. वे बच्चों को भारतीयत से जोड़े रखना चाहते हैं. भोजपुरी पति की तमिल पत्नि भोजपुरी बोल सकेगी क्या? बंगाली पति अपनी अवधी पत्नि की भाषा समझ सकेगा क्या? पश्तो, डोगरी, मेवाड़ी, मारवाड़ी, बुन्देली, मैथिली, अंगिका, बज्जिका, मालवी, निमाड़ी, हल्बी, गोंडी, कैथी, कोरकू, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ आदि हर भाषा पूज्य है किन्तु अपने मूल रूप में सभी उसे अपना नहीं सकते. एक सीमा तक अंग्रेजी या हिन्दी ने अन्य भाषाओँ से अधिक अपनी पहुँच बनाई है. अंग्रेजी के विदेशी मूल तथा भारतीय सामान्य जनों से दूरी के कारण हिन्दी एकमात्र भाषा है जो आम भारतीयों, अनिवासी भारतीयों, आप्रवासी भारतीयों तथा विदेशियों को एक सूत्र में जोड़कर संवाद का माध्यम बन सकती है.

हमें सत्य से साक्षात करन ही होगा अन्यथा हम अपने ही वंशजों से दूर हो जायेंगे या वे ही हमें समझ नहीं सकेंगे. उर्दूभाषियों तथा उर्दूप्रेमियों को भी इस परिदृश्य में  अपनी संकीर्ण भावना छोड़कर हिन्दी के साथ गंगा-यमुना की तरह मिलना होगा अन्यथा हिन्दीभाषी भले ही मौन रहें समय हिन्दी से गैरियत और दूरी रखने की मानसिकता को उसके अंजाम तक पहुँचा ही देगा.

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम