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मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

lalit nibandh : Alsaye din -Indira Pratap

ललित निबन्ध :

अलसाए दिन


इन्दिरा प्रताप 
*
                     
आए अलसाए दिन !

                    
पृथ्वी पर छाए ऋतुराज वसंत ने अपने पंख न जाने कब धीरे से समेट लिए हैं | शीत ऋतु की मंद शीतल समीर अनियंत्रित हो इधर उधर भटकती सी बह रही है | इसी के साथ झर रहे हैं वृक्षों के पीले पात , एक अलसाई बेचैनी से जैसे झरता हो मन का उल्लास ----- लो फिर हुआ ऋतु का परिवर्तन और आ गए दिन तन्द्रिल अलसाए | थिरकें अब कैसे ये दिन ,ये तो हैं ग्रीष्म के आतप से सहमें – सहमें ,बहके – बहके अलसाए – अलसाए | 

                    
वसंत 
अभी अपनी रंग – बिरंगी चूनर समेत भी नहीं पाया था कि पतझड़ की रुनझुन ने हौले से ग्रीष्म को गीत गा बुलाया | ऋतुओं का यह चक्र जिससे इस देश के लोगों के प्राण स्पंदित होते हैं भारतीय सांस्कृतिक , सामाजिक ,धार्मिक परंपरा को सनातनता प्रदान करता है | हर ऋतु का अपना एक अलग सौन्दर्य है इसी से यह भारतीय महाकाव्यों का एक विशिष्ट अंग बना | कोई भी भारतीय महाकाव्य ऋतु वर्णन के बिना अधूरा है |

                    
ऋतुओं के साथ यहाँ का प्राणी एकात्म भाव से जीता है ,उसका साहित्य,दर्शन उसके समस्त क्रिया – कलाप यहाँ तक कि उसकी सम्पूर्ण अस्मिता इन्ही ऋतुओं से प्रभावित होती है | प्रकृति और मनुष्य का ऐसा अटूट सम्बन्ध केवल यहाँ ही देखा जा सकता है |

                    
ग्रीष्म ऋतु का आगमन सूर्य के उत्तरायण होने के साथ ही माना जाता है | प्रकृति अपना रूप बदलने लगती है इसका अनूठा वर्णन हमें श्रीधर पाठक के इस सवैये में मिलता है ------

जेठ के दारुण आतप से , तप के जगती तल जावै जला ,
नभ मंडल छाया मरुस्थल सा ,दल बाँध के अंधड़ आवै चला ,
जलहीन जलाशय , व्याकुल हैं पशु – पक्षी , प्रचंड है भानु कला ,
किसी कानन कुञ्ज के धाम में प्यारे ,करै बिसीराम चलौ तो भला |

                    
ग्रीष्म का ऐसा सजीव चित्रण दुर्लभ ही मिलता है | सूर्य की तीव्र रश्मियों से तप्त धरती तवे के समान गर्म हो उठती है | आकाश मंडल भी विस्तृत मरुस्थल सा लगता है मानो समस्त ब्रह्माण्ड प्राणहीन हो मृत्यु की छाया में कहीं सो गया हो बस केवल धूल भरी आँधी का ही अस्तित्व चारों ओर दृष्टिगोचर होता है | सूर्य की प्रचंड किरणों से जल भी भाप बन उड़ गया है ,बचे हैं तो केवल जलहीन जलाशय और सूखी 
नदियाँ ,ऐसे में पशु पक्षी भी प्यास से व्याकुल हो थके – मांदे इधर – उधर घूम रहे हैं |

                    
प्रकृति का ऐसा रूप नायक – नायिका के मन में भी आलस्य भर देता है और वह भी किसी कुञ्ज में विश्राम करना चाहते हैं | फिर साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या | प्रकृति का ऐसा मृत सा रूप मनुष्यों के कार्य व्यापार पर भी असर डालता है शायद इसीलिए हमारे मनीषियों ने प्रकृति के विभिन्न रूपों को ईश्वर मानकर पूजा था, क्योंकि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रकृति ही हमारे जीवन का आधार है
, उसके बिना मानव जीवन संभव नहीं है | सूर्यस्य तेज : हमारी जीवनी शक्ति है | जल विकास है ,वायु प्राण है तो वनस्पति हमारा पोषण करती है |

                    
ग्रीष्म ऋतु में जल के अभाव में वनस्पति का मुरझाया रूप मनुष्यों को हतप्रभ और हत प्राण बना देता है ,ऐसे में सूर्य का प्रखर तेज रस विहीन हो पृथ्वी को अपनी ऊष्मा से जला देता है और हँसती, गाती, खिलखिलाती पृथ्वी शांत निश्चल सी अलसा जाती है ,लगता है जीवन की गति रुक गई हो पर जीवन तो बहने का नाम है, अविराम बिना रुके बह रही है और उसके साथ बह रहे हैं ग्रीष्म के अलसाए दिन – प्रतीक्षा में- 
कब आएँ आकाश में आषाढ़ के मेघ, -कब बरसे जल धार , कब सरसे हरे – भरे पात , कब जल पूरित हों ताल | सभी कुछ तो देन है ऋतुओं की भारत भू को |

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बुधवार, 4 जुलाई 2012

संस्मरण: मेहनती का अंत ---इन्दिरा प्रताप

संस्मरण:               


मेहनती का अंत 
इन्दिरा प्रताप                                                                                     

बात आज से बीस–तीस साल पुरानी है | तब हम यूनिवर्सिटी कैम्पस में रहा करते थे | बँगलेनुमा घर और आस–पास बहुत सारी खाली जमीन थी जो जितना चाहता उतनी जमीन घेर लेता और उसके चारों ओर बंधान बांध लेता और उसे अपने घर का हिस्सा बना लेता और मनपसंद फूल पौधे लगा लेता पर वहाँ की जमीन लाल मिट्टी से युक्त, पथरीली थी जो बहुत मेहनत माँगती थी | इसके लिए आसपास के गाँव से मजदूर भी मिल ही जाते थे और लोगों में एक दूसरे से बढ़ कर अपने गार्डन को सजाने की होड़ भी लग जाती थी | उन्हीं दिनों कैम्पस में एक हृष्ट-पुष्ट, बेहद काला पर चेहरे पर मृदुता लिये एक मजदूर अकसर नजर आता | मैंने उसे बड़े मनोयोग से लोगों के घर काम करते देखा | बस अपने काम में मस्त | ऐसा लगता था मानों काम ही उसकी पूजा हो | उसको इस तरह काम करते देख कुछ आश्चर्य तो होता पर इससे अधिक उसके बारे में जानने की उत्सुकता मुझे कभी नहीं हुई |
एक दिन मेरे पति को अपने गार्डन में पानी लगाते देख मेरी एक पड़ोसन मेरे पास आई और कहने लगी – ‘आप उस बहरे से काम क्यों नहीं करा लेतीं |’ मैंने कहा –‘कौन बहरा ?’ वह बोलीं –‘वही जो हमारे गार्डन में काम करता है और भी घरों में हमने उसे लगवा दिया है, बोलता – सुनता कुछ नहीं , गूँगा-बहरा है न बेचारा, केवल आठ आने घंटा लेता है जबकि और लोग एक रुपया लेते हैं और फिर वह काम भी और लोगों से दुगना करता है |’
मैनें सुनकर यूँ ही टाल दिया, मन ने एक गूँगे-बहरे का इस तरह शोषण करना स्वीकार नहीं किया| मैंने उसे अपने घर काम करने के लिए कभी नहीं बुलाया | कुछ ही दिनों में वह आस–पास के घरों में काम करता दिखाई देने लगा | कभी–कभी मन में आता कि उसे घर बुलाकर समझाऊँ कि सब उसका फ़ायदा उठा रहे हैं पर समझ नहीं आया कि उसे किस तरह समझाऊँगी, फिर ये भी डर था कि आस–पास के लोग मेरे दुश्मन हो जाएँगे, यह सोचकर मैं चुप रही |
जो उससे काम कराते वे उसकी प्रशंसा करते नहीं थकते और गर्व से बताते कि कैसे कम पैसों में वो इतना बढ़िया और अधिक काम करवा लेते हैं |
फिर सुना उसकी शादी हो गई पर देखते–देखते ही कुछ वर्षों में उसके काले रंग की चमक समाप्त हो गई | वह थका-हारा सा दिखाई देने लगा | फिर एक बार किसी के घर काम करता दिखाई दिया तो बड़ा क्षीणकाय सा लगा | उसके बाद मैंने फिर उसको बहुत दिनों तक नहीं देखा |
एक दिन ऐसे ही उसकी याद आई तो पड़ोसिन से पूछा– ‘बौहरा अब दिखाई नहीं देता |’ वह बोलीं –‘अरे ! उसे मरे तो बहुत दिन हो गए|’ उसका मेहनत का यह सफ़र लगभग दस सालों का रहा होगा | यह सुनकर मन में लोगों के प्रति वितृष्णा सी उत्पन्न हुई और अपने पर प्रसन्नता कि कम से कम मैंने उसका शोषण नहीं किया |
आज जब मैं अपने जीवन की इस सांध्यवेला में अपनी यादों की पिटारी खोलती हूँ तो उसमें एक चेहरा उसका भी नजर आता है और अपने को मैं उतना ही दोषी पाती हूँ जितना ओरों को जिन्होंने उसकी जिंदगी के न जाने कितने वर्ष उससे छीन लिये और उसे मृत्यु के मुख में असमय ही ढकेल दिया |
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Indira Pratap  pindira77@yahoo.co.in