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सोमवार, 16 नवंबर 2015

नवगीत:

एक रचना:

छाया है आतंक का
मकड़जाल चहुँ ओर
*
कहता है इतिहास
एक साथ लड़ते रहे
दानव गण सायास।
.
निर्बल को दे दंड
पाते थे आनंद वे
रहे सदा उद्दंड।
.
नहीं जीतती क्रूरता चाहे जितने जुल्म कर
संयम रखती शूरता।
.
रात नहीं कोई हुई
जिसके बाद न भोर
छाया है आतंक का
मकड़जाल चहुँ ओर
*
उठो, जाग, हो एक
भिड़ो तुरत आतंक से
रखो इरादे नेक।
.
नहीं रिलीजन, धर्म
या मजहब आतंक है
मिटा कीजिए कर्म।
.
भुला सभी मतभेद
लड़, वरना हों नष्ट सब
व्यर्थ न करिए खेद।
.
कटे पतंग न शांति की
थाम एकता डोर
छाया है आतंक का
मकड़जाल चहुँ ओर
***

मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

geet:

गीत:
दरिंदों से मनुजता को जूझना है
.
सुर-असुर संघर्ष अब भी हो रहा है
पा रहा संसार कुछ, कुछ खो रहा है
मज़हबी जुनून पागलपन बना है
ढँक गया है सूर्य, कोहरा भी घना है
आत्मघाती सवालों को बूझना है
.
नहीं अपना या पराया दर्द होता
कहीं भी, किसी को हो ह्रदय रोता
पोंछना है अश्रु लेकर नयी आशा
बोलना संघर्ष की मिल एक भाषा
नाव यह आतंक की अब डूबना है
.
आँख के तारे अधर की मुस्कुराहट
आये कुछ राक्षस मिटाने खिलखिलाहट
थाम लो गांडीव, पाञ्चजन्य फूंको 
मिटें दहशतगर्द रह जाएँ बिखरकर
सिर्फ दृढ़ संकल्प से हल सूझना है
.
जिस तरह का देव हो, वैसी ही पूजा
दंड के अतिरिक्त पथ वरना न दूजा
खोदकर जड़, मठा उसमें डाल देना
तभी सूझेगा नयन कर रुदन सूजा
सघन तम के बाद सूरज ऊगना है
*