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मंगलवार, 4 मार्च 2025

मार्च ४, सॉनेट, तितलियाँ, नवगीत, तू, होली, बंधु, जगदीश पंकज, समीक्षा, क्रिकेट

सलिल सृजन मार्च ४
*
सॉनेट
एक गेंद तेरह जन खेलें
टाक रहे दो मौन खड़े रह
एक-एक क्यों सभी न ले लें
थकें झपटने व्यर्थ खड़े रह
काम नहीं जिनको है कोई
देख रहें वह पीटें ताली
कोई कह रहा किस्मत सोई
जो आउट उसको दें गाली
अब्दुल्ला दीवाना जैसे
बेगानी शादी में होता
दर्शक भी दीवाना वैसे
खेल क्रिकेट देख कर होता
सट्टा खेल लुट रहे नाहक
निज विनाश के बनकर गाहक
४.३.२०२५
***
सॉनेट
तितलियाँ
*
तितलियों में हौसला है कम नहीं,
पंख फैला उड़ रही हैं तितलियाँ,
नाप नभ झुक मुड़ रही हैं तितलियाँ,
तितलियों में कौन कहता दम नहीं।
तितलियों की आँख कब नत नम नहीं,
ऊषा से लें नित उजाला तितलियाँ,
धरा को दें नव उजाला तितलियाँ,
तितलियाँ भँवरे कहो क्यों सम नहीं।
परकटी होकर न सिसकें तितलियाँ,
तितलियों के स्वप्न हों साकार सब,
साधना करतीं अहर्निश तितलियाँ।
प्रेम-पंकिल हो न फिसलें तितलियाँ,
तितलियाँ हों सफलता-आगार अब,
कीर्ति पा हँसतीं विनत हो तितलियाँ।
४.३.२०२४
***
मार्च - कब क्या ?
२ - सरोजनी नायडू दिवस, ब्योहार राजेंद्र सिंह निधन १९८८।
३ - वन्य जीवन दिवस, फ़िराक़ गोरखपुरी निधन।
४ - सुरक्षा दिवस, रेणु जयंती।
७ - गोविन्द वल्लभ पंत दिवस, अज्ञेय जयंती।
८ - अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस।
१०. सावित्रीबाई फुले पुण्यतिथि।
११ - वैद्यनाथ जयंती, लोधेश्वर दिवस।
१२- क्रांतिकारी भगवानदास माहौर निधन।
१४ - स्वामी भारती कृष्णतीर्थ जयंती।
१५ - विश्व उपभोक्ता संरक्षण दिवस, विश्व विकलांग दिवस, रामकृष्ण परमहंस जयंती, कवि इंद्रमणि उपाध्याय निधन।
२० - रानी अवंती बाई बलिदान दिवस।
२१ - विश्व वानिकी दिवस, विश्व आनंद दिवस, विश्व गौरैया दिवस, ओशो संबोधि दिवस, दादूदयाल जयंती, बिस्मिल्लाखाँ जन्म, शिवानी निधन।
२२ - विश्व जल दिवस, राष्ट्रीय शक संवत १९४३ आरंभ। ।
२३ - भगतसिंह-राजगुरु-सुखदेव शहादत दिवस, शहीद हेम कालाणी जन्म, राममनोहर लोहिया जयंती।
२४ - विश्व क्षय रोग दिवस, नवल पंथ योगेश्वर दयाल जयंती।
२५ - गणेश शंकर विद्यार्थी बलिदान दिवस।
२६ - महीयसी महादेवी जयंती।
२७ - सम्राट अशोक जयंती।
२८ - मैक्सिम गोर्की जन्म।
३० - तुकाराम जयंती।
*
सॉनेट
क्या?
खुदी से खुद रहे छिपाते क्या?
आँख फूटी नयन मिलाते क्या?
झूठ को सच रहे बताते क्या?
आग घर में रहे लगाते क्या?
डर से डरते, कभी डराते क्या?
हाथ आकर, न हाथ आते क्या?
स्वार्थ बिन सिर कभी झुकाते क्या?
माथ माटी कभी लगाते क्या?
साथ जो जाए, वही लाते क्या?
देह को गेह कह जलाते क्या?
खो गये जो न याद आते क्या?
साथ जो दिल वही दुखाते क्या?
जो लिखा, 'सलिल' समझ पाते क्या?
बिना समझे ही लिख छपाते क्या?
४-३-२०२२
•••
मुक्तिका
जो गये, याद वही आते क्या?
दर्द पा मौन, मुस्कुराते क्या?
तालियाँ बज रहीं बिना जाने
कोयलें मौन, काग गाते क्या?
बात जन की न कोई सुनता है
बात मन की न सच, सुनाते क्या?
जो निबल लो दबोच उसको तुम
बल सबल पे भी आजमाते क्या?
ऑनलाइन न भूख मिटती है
भुखमरी में तुम्हें खिलाते क्या?
४-३-२०२२
•••
द्विपदी
इश्क है तो जुबां से कुछ न कहें
बोले बिन भी निगाह बोलेगी।
४-३-२०२१
***
मुक्तक:
फूल फूला तो तभी जब सलिल ने दी है नमी
न तो माटी ने, न हवाओं ने ही रखी है कमी
सारे गुलशन ने महककर सुबह अगवानी की
सदा मुस्कान मिले, पास मतआए गमी
४-३-२०१८
***
नवगीत
तू
*
पल-दिन,
माह-बरस बीते पर
तू न
पुरानी लगी कभी
पहली बार
लगी चिर-परिचित
अब लगती
है निपट नई
*
खुद को नहीं समझ पाया पर
लगता तुझे जानता हूँ
अपने मन की कम सुनता पर
तेरी अधिक मानता हूँ
मन में मन से
प्रीति पली जो
कम न
सुहानी हुई कभी
*
कनखी-चितवन
मुस्कानों ने
कब-कब
क्या संदेश दिए?
प्राण प्रवासी
पुलके-हरषे
स्नेह-सुरभि
विनिवेश लिये
सार्थक अर्थशास्त्र
जीवन का
सच, न
कहानी हुई कभी
*
चलते-चलते
कदम थक रहे
लेकिन
प्यास अभी बाकी।
हास सुरा ले
श्वास पात्र में
कर दे
तृप्त श्वास सकी।
हाथ हाथ में
थामें सिहरें
भेंट
हुई ज्यों अभी अभी
***
नवगीत -
याद
*
याद आ रही
याद पुरानी
*
फेरे साथ साथ ले हमने
जीवन पथ पर कदम धरे हैं
धूप-छाँव, सुख-दुःख पा हमको
नेह नर्मदा नहा तरे हैं
मैं-तुम हम हैं
श्वास-आस सम
लेखनी-लिपि ने
लिखी कहानी
याद आ रही
याद पुरानी
*
ज्ञान-कर्म इन्द्रिय दस घोड़े
जीवन पथ पर दौड़े जुत रथ
मिल लगाम थामे हाथों में
मन्मथ भजते अंतर्मन मथ
अपनेपन की
पुरवाई सँग
पछुआ आयी
हुलस सुहानी
*
कोयल कूकी, बुरा अमुआ
चहकी चिड़िया, महका महुआ
चूल्हा-चौके, बर्तन-भाँडे
देवर-ननदी, दद्दा-बऊआ
बीत गयी
पल में ज़िंदगानी
कहते-सुनते
राम कहानी
४-३-२०१६
***
होली की कुण्डलियाँ:
मनाएँ जमकर होली
*
होली हो ली हो रही होगी फिर-फिर यार
मोदी राहुल ममता केजरि लालू हैं तैयार
लालू हैं तैयार, ठाकरे शरद न बच्चे
फूँक फूँक रख पाँव, दाँव नहिं चलते कच्चे
कहे 'सलिल' कवि जनता को ठगती हर टोली
जनता बचकर रहे चुनावी भंग की गोली
*
होली अनहोली न हो, खाएँ अधिक न ताव.
छेड़-छाड़ सीमित करें, अधिक न पालें चाव..
अधिक न पालें चाव, भाव बेभाव बढ़े हैं.
बचें, करेले सभी, नीम पर साथ चढ़े हैं..
कहे 'सलिल' कविराय, न भोली है अब भोली.
बचकर रहिये आप, खेलिए बचकर होली..
*
होली जो खेले नहीं, वह कहलाए बुद्ध.
माया को भाए सदा, सत्ता खातिर युद्ध..
सत्ता खातिर युद्ध, सोनिया को भी भाया.
जया, उमा, ममता, स्मृति का भारी पाया..
मर्दों पर भारी है, महिलाओं की टोली.
पुरुष सम्हालें चूल्हा-चक्की अबकी होली..
*
होली ने खोली सभी, नेताओं की पोल.
जिसका जैसा ढोल है, वैसी उसकी पोल..
वैसी उसकी पोल, तोलकर करता बातें.
लेकिन भीतर ही भीतर करता हैं घातें..
नकली कुश्ती देख भ्रमित है जनता भोली.
एक साथ मिल खर्चे बढ़वा खेलें होली..
***
कृति चर्चा:
एक गुमसुम धूप : समय की साक्षी देते नवगीत
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
[कृति विवरण: एक गुमसुम धूप, राधेश्याम बंधु, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक बहुरंगी जेकेटयुक्त, पृष्ठ ९६, मूल्य १५०/-, प्रकाशक कोणार्क प्रकाशन बी ३/१६३ यमुना विहार दिल्ली ११००५३, नवगीतकार संपर्क ९८६८४४४६६६, rsbandhu2@gmail.com]
नवगीत को ‘स्व’ से ‘सर्व’ तक पहुँचाकर समाज कल्याण का औजार बनाने के पक्षधर हस्ताक्षरों में से एक राधेश्याम बंधु की यह कृति सिर्फ पढ़ने नहीं, पढ़कर सोचने और सोचकर करनेवालों के लिये बहुत काम की है. बाबा की / अनपढ़ बखरी में / शब्दों का सूरज ला देंगे, जो अभी / तक मौन थे / वे शब्द बोलेंगे, जीवन केवल / गीत नहीं है / गीता की है प्रत्याशा, चाहे / थके पर्वतारोही / धूप शिखर पर चढ़ती रहती जैसे नवाशा से भरपूर नवगीतों से मुदों में भी प्राण फूँकने का सतत प्रयास करते बंधु जी के लिये लेखन शगल नहीं धर्म है. वे कहते हैं: ‘जो काम कबीर अपनी धारदार और मार्मिक छान्दस कविताओं से कर सके, वह जनजागरण का काम गद्य कवि कभी नहीं कर सकते..... जागे और रोवे की त्रासदी सिर्फ कबीर की नहीं है बल्कि हर युग में हर संवेदनशील ईमानदार कवि की रही है... गीत सदैव जनजीवन और जनमानस को यदि आल्हादित करने का सशक्त माध्यम रहा है तो तो वह जन जागरण के लिए आम आदमी को आंदोलित करनेवाला भी रहा है.’
‘कोलाहल हो / या सन्नाटा / कविता सदा सृजन करती है’ कहनेवाला गीतकार शब्द की शक्ति के प्रति पूरी तरह आश्वस्त है: ‘जो अभी / तक मौन थे / वे शब्द बोलेंगे’. नवगीत के बदलते कलेवर पर प्रश्नचिन्ह उपस्थित करनेवालों को उनका उत्तर है: ‘शब्दों का / कद नाप रहे जो/ वक्ता ही बौने होते हैं’.
शहर का नकली परिवेश उन्हें नहीं सुहाता: ‘शहरी शाहों / से ऊबे तो / गीतों के गाँव चले आये’ किन्तु विडम्बना यह कि गाँव भी अब गाँव से न रहे ‘ गाँवों की / चौपालों में भी / होरीवाला गाँव कहाँ?’ वातावरण बदल गया है: ‘पल-पल / सपनों को महकाती / फूलों की सेज कसौली है’, कवि चेतावनी देता है: ‘हरियाली मत / हरो गंध की / कविता रुक जाएगी.’, कवि को भरोसा है कल पर: ‘अभी परिंदों / में धड़कन है / पेड़ हरे हैं जिंदा धरती / मत उदास / हो छाले लखकर / ओ माझी! नदिया कब थकती?.’ डॉ. गंगाप्रसाद विमल ठीक ही आकलन करते हैं :’राधेश्याम बंधु ऐसे जागरूक कवि हैं जो अपने साहित्यिक सृजन द्वारा बराबर उस अँधेरे से लड़ते रहे हैं जो कवित्वहीन कूड़े को बढ़ाने में निरत रहा है.’
नवगीतों में छ्न्दमुक्ति के नाम पर छंदहीनता का जयघोष कर कहन को तराशने का श्रम करने से बचने की प्रवृत्तिवाले कलमकारों के लिये बंधु जी के छांदस अनुशासन से चुस्त-दुरुस्त नवगीत एक चुनौती की तरह हैं. बंधु जी के सृजन-कौशल का उदहारण है नवगीत ‘वेश बदल आतंक आ रहा’. सभी स्थाई तथा पहला व तीसरा अंतरा संस्कारी तथा आदित्य छंदों का क्रमिक उपयोग कर रचे गये हैं जबकि दूसरा अंतरा संस्कारी छंद में है.
‘जो रहबर
खुद ही सवाल हैं,
वे क्या उत्तर देंगे?
पल-पल चुभन बढ़ानेवाले
कैसे पीर हरेंगे?
गलियों में पसरा सन्नाटा
दहशत है स्वच्छंद,
सरेशाम ही हो जाते हैं
दरवाजे अब बंद.
वेश बदल
आतंक आ रहा
कैसे गाँव जियेंगे?
बस्ती में कुहराम मचा है
चमरौटी की लुटी चाँदनी
मुखिया के बेटे ने लूटी
अम्मा की मुँहलगी रौशनी
जब प्रधान
ही बने लुटेरे
वे क्या न्याय करेंगे?
जब डिग्री ने लाखों देकर
नहीं नौकरी पायी
छोटू कैसे कर्ज़ भरेगा
सोच रही है माई?
जब थाने
ही खुद दलाल हैं
वे क्या रपट लिखेंगे?
.
यह कैसी सिरफिरी हवाएँ शीर्षक नवगीत के स्थाई व अंतरे संस्कारी तथा मानव छंदों की पंक्तियों का क्रमिक उपयोग कर रचे गये हैं. ‘उनकी खातिर कौन लड़े?’ नवगीत में संस्कारी तथा दैशिक छन्दों का क्रमिक प्रयोग कर रचे गये स्थायी और अंतरे हैं:
उनकी खातिर
कौन लड़े जो
खुद से डरे-डरे?
बचपन को
बँधुआ कर डाला
कर्जा कौन भरे?
जिनका दिन गुजरे भट्टी में
झुग्गी में रातें,
कचरा से पलनेवालों की
कौन सुने बातें?
बिन ब्याही
माँ, बहन बन गयी
किस पर दोष धरे?
परमानन्द श्रीवास्तव के अनुसार: ‘राधेश्याम बंधु प्रगीतात्मक संवेदना के प्रगतिशील कवि हैं, जो संघर्ष का आख्यान भी लिखते हैं और राग का वृत्तान्त भी बनाते हैं. एक अर्थ में राधेश्याम बंधु ऐसे मानववादी कवि हैं कि उन्होंने अभी तक छंद का अनुशासन नहीं छोड़ा है.’
इस संग्रह के नवगीत सामयिकता, सनातनता, सार्थकता, सम्प्रेषणीयता, संक्षिप्तता, सहजता तथा सटीकता के सप्त सोपानों पर खरे हैं. बंधु जी दैनंदिन उपयोग में आने वाले आम शब्दों का प्रयोग करते हैं. वे अपना वैशिष्ट्य या विद्वता प्रदर्शन के लिये क्लिष्ट संस्कृतनिष्ठ अथवा न्यूनज्ञात उर्दू या ग्राम्य शब्दों को खोजकर नहीं ठूँसते... उनका हर नवगीत पढ़ते ही मन को छूता है, आम पाठक को भी न तो शब्दकोष देखना होता है, न किसी से अर्थ पूछना होता है. ‘एक गुमसुम धूप’ का कवि युगीन विसंगतियों, और विद्रूपताओं जनित विडंबनाओं से शब्द-शस्त्र साधकर निरंतर संघर्षरत है. उसकी अभिव्यक्ति जमीन से जुड़े सामान्य जन के मन की बात कहती है, इसलिए ये नवगीत समय की साक्षी देते हैं.
***
***
कृति चर्चा :
‘सुनो मुझे भी’ नवगीत की सामयिक टेर
[कृति विववरण: सुनो मुझे भी, नवगीत संग्रह, जगदीश पंकज, आकार डिमाई, पृष्ठ ११२, मूल्य १२०/-, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, वर्ष २०१५, निहितार्थ प्रकाशन, एम् आई जी भूतल १, ए १२९ शालीमार गार्डन एक्सटेंशन II, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद, ०९८१०८३७८१४, ०९८१०८३८८३२ गीतकार संपर्क:सोम सदन ५/४१ राजेन्द्र नगर, सेक्टर २ साहिबाबाद jpjend@hyahoo.co.in]
.
बहता पानी निर्मला... सतत प्रवाहित सलिल-धार के तल में पंक होने पर भी उसकी विमलता नहीं घटती अपितु निरंतर अधिकाधिक होती हुई पंकज के प्रगटन का माध्यम बनती है. जगदीश वही जो जग के सुख-दुःख से परिचित ही नहीं उसके प्रति चिंतित भी हो. भाई जगदीश पंकज अपने अंत:करण में सतत प्रवाहित नेह नर्मदा के आलोड़न-विलोड़न में बाधक बाधाओं के पंक को साफल्य के पंकज में परिवर्तित कर उनकी नवगीत सुरभि जन गण को ‘तेरा तुझको अर्पित क्या लागे मेरा’ के मनोभाव से सौंप सके हैं.
नवगीत के शिखर हस्ताक्षर डॉ. देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ के अनुसार: ‘ जगदीश पंकज के पास भी ऐसी बहुत कुछ कथ्य सम्पदा है जिसे वे अपने पाठकों तक संप्रेषित करना चाहते हैं. ऐसा आग्रह वह व्यक्ति ही कर सकता है जिसके पास कहने के लिए कुछ विशेष हो, जो अभी तक किसी ने कहा नहीं हो- ‘अस्ति कश्चित वाग्विशेष:’ की भांति. यहाँ मुझे महाभारत की एक और उक्ति सहज ही याद आ रही है 'ऊर्ध्वबाहु: विरौम्यहम् न कश्चित्छ्रिणोतिमाम् ' मैं बाँह उठा-उठाकर चीख रहा हूँ किन्तु मुझे कोई सुन नहीं रहा.’ मुझे प्रतीत होता है कि इन नवगीतों में सर्वत्र रचनात्मक सद्भाव की परिव्याप्ति इसलिए है कि कवि अपनी बात समय और समाज को सामर्थ्य के साथ सुना ही नहीं मनवा भी सका है. शून्य से आरंभ कर निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचाने का संतोष जगदीश जी के व्यक्तित्व तथा कृतित्व दोनों में बिम्बित है. इंद्र जी ने ठीक ही कहा है: ‘प्रस्तुत संग्रह एक ऐसे गीतकार की रचना है जो आत्मसम्मोहन की भावना से ग्रस्त न होकर बृहत्तर सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध संघर्षरत है, जो मानवीय आचरण की समरसता के प्रति आस्थावान है, जो हर किस्म की गैरबराबरी के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करता है और जो अपने शब्दों में प्रगति की आग्नेयता छिपाए हुए है, क्रांतिधर्म होकर भी जो लोकमंगल का आकांक्षी है.’
जगदीश जी वर्तमान को समझने, बूझने और अबूझे से जूझने में विश्वास करते हैं और नवगीत उनके मनोभावों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है:
गीत है वह
जो सदा आँखें उठाकर
हो जहाँ पर भी,
समय से जूझता है
अर्ध सत्यों के
निकलकर दायरों से
जिंदगी की जो
व्यथा को छू रहा है
पद्य की जिस
खुरदुरी झुलसी त्वचा से
त्रासदी का रस
निचुड़कर चू रहा है
गीत है वह
जो कड़ी अनुभूतियों की
आँच से टेढ़ी
पहेली बूझता है.
त्रैलोक जातीय छंद में रचित इस नवगीत में कथ्य की प्रवहमानता, कवि का मंतव्य, भाषा और बिम्ब सहजग्राह्य है. इसी छंद का प्रयोग निम्न नवगीत में देखिए:
चीखकर ऊँचे स्वरों में
कह रहा हूँ
क्या मेरी आवाज़
तुम तक आ रही है?
जीतकर भी
हार जाते हम सदा ही
यह तुम्हारे खेल का
कैसा नियम है
चिर-बहिष्कृत हम रहें
प्रतियोगिता से
रोकता हमको
तुम्हारा हर कदम है
क्यों व्यवस्था
अनसुना करते हुए यों
एकलव्यों को
नहीं अपना रही है
साधनसंपन्नों द्वारा साधनहीनों की राह में बाधा बनने की सामाजिक विसंगतियाँ महाभारत काल से अब तक ज्यों की त्यों हैं. कवि को यथार्थ को यथावत कहने में कोई संकोच या डर नहीं है:
जैसा सहा, वैसा कहा
कुछ भी कभी
अतिशय नहीं
मुझको किसी का
भय नहीं
आकाश के परिदृश्य में
निर्जल उगी है बादली
मेरी अधूरी कामना भी
अर्धसत्यों ने छली
सच्चा कहा, अच्छा कहा
इसमें मुझे
संशय नहीं
मुझको किसी का
भय नहीं
स्थाई में त्रैलोक और अन्तर में यौगिक छंद का सरस समायोजन करता यह संदेशवाही नवगीत सामायिक परिस्थितियों और परिदृश्य में कम शब्दों में अधिक बात कहता है.
जगदीश जी की भाषिक पकड़ की बानगी जगह-जगह मिलती है. मुखपृष्ठ पर अंकित गौरैया और यह नवगीत एक-दूसरे के लिये बने प्रतीत होते हैं. कवि की शब्द-सामर्थ्य की जय बोलता यह नवगीत अपनी मिसाल आप है:
डाल पर बैठी चिरैया
कूकती है
चंद दानों पर
नज़र है पेट की
पर गुलेलों में बहस
आखेट की
देखकर आसन्न खतरे
हूकती है
जब शिकारी कर रहे हों
दंत-नख पैने
वह समर सन्नद्ध अपने
तानकर डैने
बाज की बेशर्मियों पर
थूकती है
यहाँ कवि ने स्थाई में त्रैलोक, प्रथम अंतरे में महापौराणिक तथा दुसरे अंतरे में रौद्राक छंदों का सरस-सहज सम्मिलन किया है. नवगीतों में ऐसे छांदस प्रयोग कथ्य की कहन को स्वाभाविकता और सम्प्रेषणीयता से संपन्न करते हैं.
समाज में मरती संवेदना और बढ़ती प्रदर्शनप्रियता कवि को विचलित करती है, दो शब्दांकन देखें:
चीख चौंकाती नहीं, मुँह फेर चलते
देखकर अब बेबसों को लोग
.
घाव पर मरहम लगाना भूलकर अब
घिर रहे क्यों ढाढ़सों में लोग
नूतन प्रतिमान खोजते हुए / जीवन अनुमान में निकल गया, छोड़कर विशेषण सब / ढूँढिए विशेष को / रोने या हँसने में / खोजें क्यों श्लेष को?, आग में कुछ चिन्दियाँ जलकर / रच रहीं हैं शब्द हरकारे, मत भुनाओ / तप्त आँसू, आँख में ठहरे, कैसा मौसम है / मुट्ठी भर आँच नहीं मिलती / मिले, विकल्प मिले तो / सीली दियासलाई से, आहटें, / संदिग्ध होती जा रहीं / यह धुआँ है, / या तिमिर का आक्रमण, ओढ़ता मैं शील औ’ शालीनता / लग रहा हूँ आज / जैसे बदचलन जैसी अभिव्यक्तियाँ पाठक / श्रोता के मन को छूती ही नहीं बेधती भी हैं.
इन नवगीतों में आत्मालोकन, आत्मालोचन और आत्मोन्नयन के धागे-सुई-सुमनों से माला बनायी गयी है. कवि न तो अतीत के प्रति अंध श्रृद्धा रखता है न अंध विरोध, न वर्त्तमान को त्याज्य मनाता है न वरेण्य, न भविष्य के प्रति निराश है न अति आशान्वित, उसका संतुलित दृष्टिकोण अतीत की नीव पर निरर्थक के मलबे में सार्थक परिवर्तन कर वर्तमान की दीवारें बनाने का है ताकि भविष्य के ज्योतिकलश तिमिर का हरण कर सकें. वह कहता है:
बचा है जो
चलो, उसको सहेजें
मिटा है जो उसे फिर से बनाएँ
गए हैं जो
उन्हें फिर ध्यान में ले
तलाशें फिर नयी संभावनाएँ.
४-३-२०१५

*** 

सोमवार, 6 मार्च 2023

फाग,होली,मोदी,तुम,त्रिभंगी,रामकृष्ण देव,लघुकथा,कविता,प्रभाती, दोहा,गीत,ग़ज़ल,बंधु,अहीर छंद,

फाग- 
.
राधे! आओ, कान्हा टेरें
लगा रहे पग-फेरे,
राधे! आओ कान्हा टेरें
.
मंद-मंद मुस्कायें सखियाँ
मंद-मंद मुस्कायें
मंद-मंद मुस्कायें,
राधे बाँकें नैन तरेरें
.
गूझा खांय, दिखायें ठेंगा,
गूझा खांय दिखायें
गूझा खांय दिखायें,
सब मिल रास रचायें घेरें
.
विजया घोल पिलायें छिप-छिप
विजया घोल पिलायें
विजया घोल पिलायें,
छिप-छिप खिला भंग के पेड़े
.
मलें अबीर कन्हैया चाहें
मलें अबीर कन्हैया
मलें अबीर कन्हैया चाहें
राधे रंग बिखेरें

ऊँच-नीच गए भूल सबै जन
ऊँच-नीच गए भूल
ऊँच-नीच गए भूल
गले मिल नचें जमुन माँ तीरे
***
नवगीत:
.
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भाँग भवानी कूट-छान के
मिला दूध में हँस घोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
पेड़ा गटकें, सुना कबीरा
चिलम-धतूरा धर झोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भसम-गुलाल मलन को मचलें
डगमग डगमग दिल डोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
आग लगाये टेसू मन में
झुलस रहे चुप बम भोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
विरह-आग पे पिचकारी की
पड़ी धार, बुझ गै शोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
...

होली पर भोजपुरी गीत :
*
कईसे मनाईब होली ? हो मोदी !
कईसे मनाईब होली..ऽऽऽऽऽऽ
*
मीटिंग के गईला त मतदाता अईला
एक गिरउला, तऽ दूसर पठऊला
कईसे चलाइलऽ चैनल चरचा
दंग विपच्छी तू मौका न दईला
निगली का भंग की गोली? हो मोदी!
मिलके मनाईब होली ?ऽऽऽऽऽ
*
रोएँ बिरोधी मउका तऽ चाही
हाथ मिलाएँ चउका तऽ चाही
सरकारन का रउआ रे टोटा
राहुल की दुनिया में होवे हँसाई
माया की रीती झोली, हो राजा !
खिलके मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ
*
मारे ममता दीदी रह-रह के बोली
नीतीश-अखिलेश कऽ बिसरी ठिठोली
दूध छठी का याद कराइल
अमित भाई कऽ टोली
बद लीनी बाजी अबोली हो राजा
भिड़के मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ
*
जमके लगायल रे! चउआ-छक्का
कैच भयल ठाकरे है मुँह लटका
नानी शिंदे ने याद कराइल
फूटा बजरिया में मटका
दै दिहिन पटकी सदा जय हो राजा
जमके मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ
*
अरे! अईसे मनाईब होली हो राजा,
अईसे मनाईब होली...
***
फागुनी नवगीत -
तुम क्या आयीं
*
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
*
बासंती मौसम फगुनाया
आम्र-मौर जी भर इठलाया
शुक-सारिका कबीरा गाते
खिल पलाश ने चंग बजाया
गौरा-बौरा भांग चढ़ाये
जली होलिका
कनककशिपु की हार हो गयी
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
*
ढपली-मादल, अम्बर बादल
हरित-पीत पत्ते नच पागल
लाल पलाश कुसुम्बी रंग बन
तन पर पड़े, करे मन घायल
करिया-गोरिया नैन लड़ायें
बैरन झरबेरी
सम भौजी छार हो फागुनी नवगीत -
तुम क्या आयीं
*
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
*
बासंती मौसम फगुनाया
आम्र-मौर जी भर इठलाया
शुक-सारिका कबीरा गाते
खिल पलाश ने चंग बजाया
गौरा-बौरा भांग चढ़ाये
जली होलिका
कनककशिपु गयी
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
*
अररर पकड़ो, तररर झपटा
सररर भागा, फररर लपटा
रतनारी भई सदा सुहागन
रुके न चम्पा कितनऊ डपटा
'सदा अनंद रहे' गा-गाखें
गुझिया-पपड़ी
खाबे खों तकरार हो गयी
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
***
त्रिभंगी छंद:
*
ऋतु फागुन आये, मस्ती लाये, हर मन भाये, यह मौसम।
अमुआ बौराये, महुआ भाये, टेसू गाये, को मो सम।।
होलिका जलायें, फागें गायें, विधि-हर शारद-रमा मगन-
बौरा सँग गौरा, भूँजें होरा, डमरू बाजे, डिम डिम डम।
***
पुण्य स्मरण
रामकृष्ण देव
*
विश्व के एक महान संत, आध्यात्मिक गुरु एवं विचारक रामकृष्ण देव ने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया। उन्हें बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। अतः, ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति का जीवन बिताया। स्वामी रामकृष्ण देव मानवता के पुजारी थे। साधना के फलस्वरूप वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं। वे ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं। मानवीय मूल्यों के पोषक संत रामकृष्ण परमहंस का जन्म १८ फ़रवरी १८३६ को बंगाल प्रांत स्थित कामारपुकुर ग्राम में हुआ था। इनके बचपन का नाम गदाधर था। पिताजी के नाम खुदीराम और माताजी का नाम चंद्रमणि देवी था। रामकृष्ण के माता-पिता को उनके जन्म से पहले ही अलौकिक घटनाओं और दृश्यों का अनुभव हुआ था। गया में उनके पिता खुदीराम ने एक स्वप्न देखा था जिसमें उन्होंने देखा कि भगवान गदाधर (विष्णु के अवतार) ने उन्हें कहा कि वे उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। उनकी माता चंद्रमणि देवी को भी ऐसा एक अनुभव हुआ। उन्होंने शिव मंदिर में अपने गर्भ में प्रकाशपुंज को प्रवेश करते हुए देखा। सात वर्ष की अल्पायु में ही गदाधर के सिर से पिता का साया उठ गया। ऐसी विपरीत परिस्थिति में पूरे परिवार का भरण-पोषण कठिन होता चला गया। आर्थिक कठिनाइयाँ आईं। बालक गदाधर का साहस कम नहीं हुआ। इनके बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय कलकत्ता (कोलकाता) में एक पाठशाला के संचालक थे। वे गदाधर को शिक्षण तथा आजीविका के लिए अपने साथ कोलकाता ले गए।
निरंतर प्रयासों के बाद भी रामकृष्ण का मन अध्ययन-अध्यापन में नहीं लग पाया। १८५५ में रामकृष्ण परमहंस के बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय को रानी रासमणि द्वारा बनाए गए दक्षिणेश्वर काली मंदिर के मुख्य पुजारी के रूप में नियुक्त किया गया था। रामकृष्ण और उनके भांजे ह्रदय रामकुमार की सहायता करते थे। रामकृष्ण को देवी प्रतिमा को सजाने का दायित्व दिया गया था। १८५६ में रामकुमार के मृत्यु के पश्चात रामकृष्ण को काली मंदिर में पुरोहित के तौर पर नियुक्त किया गया।रामकुमार की मृत्यु के बाद श्री रामकृष्ण ज़्यादा ध्यान मग्न रहने लगे। वे काली माता के मूर्ति को अपनी माता और ब्रम्हांड की माता के रूप में देखने लगे। कहा जाता हैं कि श्री रामकृष्ण को काली माता के दर्शन ब्रम्हांड की माता के रूप में हुआ था। रामकृष्ण इसकी वर्णना करते हुए कहते हैं "घर, द्वार, मंदिर और सब कुछ अदृश्य हो गया, जैसे कहीं कुछ भी नहीं था। मैंने एक अनंत, तट-विहीन आलोक का सागर देखा, यह चेतना का सागर था। जिस दिशा में भी मैंने दूर-दूर तक जहाँ भी देखा बस उज्जवल लहरें दिखाई दे रही थी, जो एक के बाद एक, मेरी तरफ आ रही थी।
रामकृष्ण का अन्तर्मन अत्यंत निश्छल, सहज और विनयशील था। संकीर्णताओं से वह बहुत दूर थे। अपने कार्यों में लगे रहते थे।परम आध्यात्मिक संत रामकृष्ण देव की बालसुलभ सरलता और मंत्रमुग्ध मुस्कान से हर कोई सम्मोहित हो जाता था। अफवाह फ़ैल गयी थी कि दक्षिणेश्वर में आध्यात्मिक साधना के कारण रामकृष्ण का मानसिक संतुलन ख़राब हो गया है। गदाधर की माता और उनके बड़े भाई रामेश्वर उनका विवाह करवाने का निर्णय लिया। उनका यह मानना था कि शादी होने पर गदाधर का मानसिक संतुलन ठीक हो जायेगा, शादी के बाद आई ज़िम्मेदारियों के कारण उनका ध्यान आध्यात्मिक साधना से हट जाएगा।कालान्तर में बड़े भाई देहावसान से गदाधर व्यथित हुए। संसार की अनित्यता को देखकर उनके मन में वैराग्य का उदय हुआ। अन्दर से मन न होते हुए भी, गदाधर दक्षिणेश्वर मंदिर में माँ काली की पूजा एवं अर्चना करने लगे। दक्षिणेश्वर स्थित पंचवटी में वे ध्यानमग्न रहने लगे। ईश्वर दर्शन के लिए वे व्याकुल हो गये। लोग उन्हे पागल समझने लगे। रामकृष्ण ने खुद उन्हें यह कहा कि वे उनके लिए उपयुक्त जीवनसंगिनी कामारपुकुर से ३ मिल दूर उत्तर पूर्व की दिशा में स्थित गाँव जयरामबाटी में रामचन्द्र मुख़र्जी के घर में पा सकते हैं। १८५९ में ५ वर्ष की शारदामणि मुखोपाध्याय और २३ वर्ष के रामकृष्ण का विवाह संपन्न हुआ। विवाह के बाद शारदा जयरामबाटी में रहती रहीं और १८ वर्ष की आयु होने होने पर वे रामकृष्ण के पास दक्षिणेश्वर में रहने लगी। गदाधर तब भी संन्यासी का जीवन जीते थे।
इसके बाद भैरवी ब्राह्मणी का दक्षिणेश्वर में आगमन हुआ। उन्होंने उन्हें तंत्र की शिक्षा दी। मधुरभाव में अवस्थान करते हुए ठाकुर ने श्रीकृष्ण का दर्शन किया। उन्होंने तोतापुरी महाराज से अद्वैत वेदान्त की ज्ञान लाभ किया और जीवन्मुक्त की अवस्था को प्राप्त किया। सन्यास ग्रहण करने के वाद उनका नया नाम हुआ श्रीरामकृष्ण परमहंस। इसके बाद उन्होंने इस्लाम और क्रिश्चियन धर्म की भी साधना की।
समय जैसे-जैसे व्यतीत होता गया, उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यासों और सिद्धियों के समाचार तेजी से फैलने लगे और दक्षिणेश्वर का मंदिर उद्यान शीघ्र ही भक्तों एवं भ्रमणशील संन्यासियों का प्रिय आश्रयस्थान हो गया। कुछ बड़े-बड़े विद्वान एवं प्रसिद्ध वैष्णव और तांत्रिक साधक जैसे- पं॰ नारायण शास्त्री, पं॰ पद्मलोचन तारकालकार, वैष्णवचरण और गौरीकांत तारकभूषण आदि उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त करते रहे। वह शीघ्र ही तत्कालीन सुविख्यात विचारकों के घनिष्ठ संपर्क में आए जो बंगाल में विचारों का नेतृत्व कर रहे थे। इनमें केशवचंद्र सेन, विजयकृष्ण गोस्वामी, ईश्वरचंद्र विद्यासागर के नाम लिए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त साधारण भक्तों का एक दूसरा वर्ग था जिसके सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति रामचंद्र दत्त, गिरीशचंद्र घोष, बलराम बोस, महेंद्रनाथ गुप्त (मास्टर महाशय) और दुर्गाचरण नाग थे। स्वामी विवेकानन्द उनके परम शिष्य थे।
रामकृष्ण परमहंस जीवन के अंतिम दिनों में समाधि की स्थिति में रहने लगे। अत: तन से शिथिल होने लगे। शिष्यों द्वारा स्वास्थ्य पर ध्यान देने की प्रार्थना पर अज्ञानता जानकर हँस देते थे। इनके शिष्य इन्हें ठाकुर नाम से पुकारते थे। रामकृष्ण के परमप्रिय शिष्य विवेकानन्द कुछ समय हिमालय के किसी एकान्त स्थान पर तपस्या करना चाहते थे। यही आज्ञा लेने जब वे गुरु के पास गये तो रामकृष्ण ने कहा-वत्स हमारे आसपास के क्षेत्र के लोग भूख से तड़प रहे हैं। चारों ओर अज्ञान का अंधेरा छाया है। यहां लोग रोते-चिल्लाते रहें और तुम हिमालय की किसी गुफा में समाधि के आनन्द में निमग्न रहो। क्या तुम्हारी आत्मा स्वीकारेगी? इससे विवेकानन्द दरिद्र नारायण की सेवा में लग गये। रामकृष्ण महान योगी, उच्चकोटि के साधक व विचारक थे। सेवा पथ को ईश्वरीय, प्रशस्त मानकर अनेकता में एकता का दर्शन करते थे। सेवा से समाज की सुरक्षा चाहते थे। गले में सूजन को जब डाक्टरों ने कैंसर बताकर समाधि लेने और वार्तालाप से मना किया तब भी वे मुस्कराये। चिकित्सा कराने से रोकने पर भी विवेकानन्द इलाज कराते रहे। चिकित्सा के वाबजूद उनका स्वास्थ्य बिगड़ता ही गया। सन् १८८६ ई. में श्रावणी पूर्णिमा के अगले दिन प्रतिपदा को प्रातःकाल रामकृष्ण परमहंस ने देह त्याग दी। १६ अगस्त का सवेरा होने के कुछ ही वक्त पहले आनन्दघन विग्रह श्रीरामकृष्ण इस नश्वर देह को त्याग कर महासमाधि द्वारा स्व-स्वरुप में लीन हो गये।
६-३-२०२२
***
लघुकथा
एक अधुनातन अतिबुद्धिजीवी पुत्री ने पिता को भारत में संदेश भेजा - 'डैड! मुझे एक लड़के से प्यार हो गया है। वह रूस में है मैं अमेरिका में। उसके माता-पिता चीन में हैं।हम एक दूसरे का पता मैरिज वेब साइट से मिला। हम डेटिंग वेबसाइट पर मिले। फेसबुक पर मित्र बने। वॉट्सऐप पर हमने कई बार बातचीत की। वीडियो चैट पर एक दूसरे को देखा। स्काइप पर मैंने उसे प्रोपोज़ किया। उसने टेलीग्राम पर एक्सेप्ट किया। हम एक साल से वाइबर पर रिलेशनशिप में हैं। हमें आपका आशीर्वाद चाहिए।
पिता ने झुमरीतलैया से मेटा पर उत्तर दिया - 'क्या वाकई? विचित्र किन्तु सत्य। ट्विटर पर आमंत्रण पत्र भेजो, टैंगो पर विवाह करो, अमेज़न से बच्चे गोद लेकर और पेपाल से भेज दो। पति से मन भर जाए तो उसे ईबे पर बेचने से मत हिचकना।
***
आओ! कविता करना सीखें -
यह स्तंभ उनके लिए है जो काव्य रचना करना बिलकुल नहीं जानते किन्तु कविता करना चाहते हैं। हम सरल से सरल तरीके से कविता के तत्वों पर प्रकाश डालेंगे। जिन्हें रूचि हो वे अपने नाम सूचित कर दें। केवल उन्हीं की शंकाओं का समाधान किया जाएगा जो गंभीर व नियमित होंगे। जानकार और विद्वान साथी इससे जुड़कर अपने समय का अपव्यय न करें।
*
कविता क्यों?
अपनी अनुभूतियों को विचारों के माध्यम से अन्य जनों तक पहुँचाने की इच्छा स्वाभाविक है। सामान्यत: बातचीत द्वारा यह कार्य किया जाता है। लेखक गद्य (लेख, निबंध, कहानी, लघुकथा, व्यंग्यलेख, संस्मरण, लघुकथा आदि) द्वारा, कवि पद्य (गीत, छंद, कविता आदि) द्वारा, गायक गायन के माध्यम से, नर्तक नृत्य द्वारा, चित्रकार चित्रों के माध्यम से तथा मूर्तिकार मूर्तियों के द्वारा अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करते हैं। यदि आप अपने विचार व्यक्त करना नहीं चाहते तो कविता करना बेमानी है।
कविता क्या है?
मानव ने जब से बोलना सीखा, वह अपनी अनुभूतियों को इस तरह अभिव्यक्त करने का प्रयास करता रहा कि वे न केवल अन्यों तक संप्रेषित हों अपितु उसे और उन्हें दीर्घकाल तक स्मरण रहें। इस प्रयास ने भाषिक प्रवाह संपन्न कविता को जन्म दिया। कविता में कहा गया कथ्य गद्य की तुलना में सुबोध और सहज ग्राह्य होता है। इसीलिये माताएँ शिशुओं को लोरी पहले सुनाती हैं, कहानी बाद में। अबोध शिशु न तो भाषा जानता है न शब्द और उनके अर्थ तथापि माँ के चेहरे के भाव और अधरों से नि:सृत शब्दों को सुनकर भाव हृदयंगम कर लेता है और क्रमश: शब्दों और अर्थ से परिचित होकर बिना सीखे भाषा सीख लेता है।
आचार्य विश्वनाथ के अनुसार 'वाक्यम् रसात्मकं काव्यम्' अर्थात रसमय वाक्य ही कविता है। पंडितराज जगन्नाथ कहते हैं, 'रमणीयार्थ-प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्' यानि सुंदर अर्थ को प्रकट करनेवाली रचना ही काव्य है। पंडित अंबिकादत्त व्यास का मत है, 'लोकोत्तरानन्ददाता प्रबंधः काव्यानाम् यातु' यानि लोकोत्तर आनंद देने वाली रचना ही काव्य है। आचार्य भामह के मत में "शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्" अर्थात कविता शब्द और अर्थ का उचित मेल" है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ''जब कवि 'भावनाओं के प्रसव' से गुजरते हैं, तो कविताएँ प्रस्फुटित होती हैंं।'' महाकवि जयशंकर प्रसाद ने सत्य की अनुभूति को ही कविता माना है।
मेरे विचार में कवि द्वारा अनुभूत सत्य की शब्द द्वारा सार्थक-संक्षिप्त लयबद्ध अभिव्यक्ति कविता है। कविता का गुण गेयता मात्र नहीं अपितु वैचारिक संप्रेषणीयता भी है। कविता देश, काल, परिस्थितियों, विषय तथा कवि के अनुसार रूप-रंग आकार-प्रकार धारण कर जन-मन-रंजन करती है।
कविता के तत्व
विषय
कविता करने के लिए पहला तत्व विषय है। विषय न हो तो आप कुछ कह ही नहीं सकते। आप के चारों और दिख रही वस्तुएँ प्राणी आदि, ऋतुएँ, पर्व, घटनाएँ आदि विषय हो सकते हैं।
विचार
विषय का चयन करने के बाद उसके संबंध में अपने विचारों पर ध्यान दें। आप विषय के संबंध में क्या सोचते हैं? विचारों को मन में एकत्र करें।
अभिव्यक्ति
विचारों को बोलकर या लिखकर व्यक्त किया जा सकता है। इसे अभिव्यक्त करना कहते हैं।जब विचारों को व्याकरण के अनुसार वाक्य बनाकर बोला या लिखा जाता है तो उसे गद्य कहते हैं। जब विचारों को छंद शास्त्र के नियमों के अनुसार व्यक्त किया जाता है तो कविता जन्म लेती है।
लय
कविता लय युक्त ध्वनियों का समन्वय-सम्मिश्रण करने से बनती है। मनुष्य का जन्म प्रकृति की गोद में हुआ। मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियाँ प्रकृति के उपादानों के साहचर्य में विकसित हुई हैं। प्रकृति में बहते पानी की कलकल, पक्षियों का कलरव, मेघों का गर्जन, बिजली की तडकन, सिंह आदि की दहाड़, सर्प की फुफकार, भ्रमर की गुंजार आदि में ध्वनियों तथा लय खण्डों की विविधता अनुभव की जा सकती है। पशु-पक्षियों की आवाज सुनकर आप उसके सुख या दुःख का अनुमान कर सकते हैं। माँ शिशु के रोने से पहचान जाती है कि वह भूखा है या उसे कोई पीड़ा है।
कविता और लोक जीवन
कविता सामान्य जान द्वारा अपने विचारों और अनुभूतियों को लयात्मकता के साथ व्यक्त करने से उपजाति है। कविता करने के लिए शिक्षा नहीं समझ आवश्यक है। कबीर आदि अनेक कवि निरक्षर थे। शिक्षा काव्य रचना में सहायक होती है। शिक्षित व्यक्ति को भाषा के व्याकरण व् छंद रचना के नियमों की जानकारी होती है। उसका शब्द भंडार भी अशिक्षित व्यक्ति की तुलना में अधिक होता है। इससे उसे अपने विचारों को बेहतर तरीके से अभिव्यक्त करने में आसानी होती है।
आशु कविता
ग्रामीण जन अशिक्षित अथवा अल्प शिक्षित होने पर भी लोक गीतों की रचना कर लेते हैं। खेतों में मचानों पर खड़े कृषक फसल की रखवाली करते समय अकेलापन मिटाने के लिए शाम के सुनसान सन्नाटे को चीरते हुए गीत गाते हैं। एक कृषक द्वारा गाई गई पंक्ति सुनकर दूर किसी खेत में खड़ा कृषक उसकी लय ग्रहण कर अन्य पंक्ति गाता है और यह क्रम देर रात रहता है। वे कृषक एक दूसरे को नहीं जानते पर गीत की कड़ी जोड़ते जाते हैं। बंबुलिया एक ऐसा ही लोक गीत है। होली पर कबीरा, राई, रास आदि भी आकस्मिक रूप से रचे और गाए जाते हैं। इस तरह बिना पूर्व तैयारी के अनायास रची गई कविता आशुकविता कहलाती है। ऐसे कवी को आशुकवि कहा जाता है।
कविता करने की प्रक्रिया
कविता करने के लिए विषय का चयन कर उस पर विचार करें। विचारों को किसी लय में पिरोएँ। पहली पंक्ति में ध्वनियों के उतार-चढ़ाव को अन्य पंक्तियों में दुहराएँ।
अन्य विधि यह कि पूर्व ज्ञान किसी धुन या गीत को गुनगुनाएँ और उसकी लय में अपनी बात कहने का प्रयास करें। ऐसा करने के लिए मूल गीत के शब्दों को समान उच्चारण शब्दों से बदलें। इस विधि से पैरोडी (प्रतिगीत) बनाई जा सकती है।
हमने बचपन में एक बाल गीत मात्राएँ सीखते समय पढ़ा था।
राजा आ राजा।
मामा ला बाजा।।
कर मामा ढमढम।
नाच राजा छमछम।।
अब इस गीत का प्रतिगीत बनाएँ -
गोरी ओ गोरी।
तू बाँकी छोरी।।
चल मेले चटपट।
खूब घूमें झटपट।।
लोकगीतों और भजनों की लय का अनुकरण कर प्रतिगीत की रचना करना आसान है।
६-३-२०२१
***
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।
*
ताक् धिना धिन् तबला बाजे, कान दे रहे ताल।
लहर लहरकर शुण्ड चढ़ाती जननी को गलमाल।।
नंदी सिंह के निकट विराजे हो प्रसन्न सुनते निर्भय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
कार्तिकेय ले मोर पंख, पंखा झलते हर्षित।
मनसा मन का मनका फेरें, फिरती मग्न मुदित।।
वीणा का हर तार नाचता, सुन अपने ही शुभ सुर मधुमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
ढोलक मौन न ता ता थैया, सुन गौरैया आई।
नेह नर्मदा की कलकल में, कलरव
ज्यों शहनाई।।
बजा मँजीरा नर्तित मूषक सर्प, सदाशिव पग हों गतिमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
दशकंधर स्त्रोत कहे रच, उमा उमेश सराहें।
आत्मरूप शिवलिंग तुरत दे, शंकर रीत निबाहें।।
मति फेरें शारदा भवानी, मुग्ध दनुज माँ पर झट हो क्षय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
६-३-२०२१
***
दोहा-दोहा अलंकार
*
होली हो ली अब नहीं, होती वैसी मीत
जैसी होली प्रीत ने, खेली कर कर प्रीत
*
हुआ रंग में भंग जब, पड़ा भंग में रंग
होली की हड़बोंग है, हुरियारों के संग
*
आराधा चुप श्याम को, आ राधा कह श्याम
भोर विभोर हुए लिपट, राधा लाल ललाम
*
बजी बाँसुरी बेसुरी, कान्हा दौड़े खीझ
उठा अधर में; अधर पर, अधर धरे रस भीज
*
'दे वर' देवर से कहा, कहा 'बंधु मत माँग,
तू ही चलकर भरा ले, माँग पूर्ण हो माँग
*
'चल बे घर' बेघर कहे, 'घर सारा संसार'
बना स्वार्थ दे-ले 'सलिल', जो वह सच्चा प्यार
*
जितनी पायें; बाँटिए, खुशी आप को आप।
मिटा संतुलन अगर तो, होगा पश्चाताप।।
***
हिंदी ग़ज़ल
*
हिंदी ग़ज़ल इसने पढ़ी
फूहड़ हज़ल उसने गढ़ी
बेबात ही हर बात क्यों
सच बोल संसद में बढ़ी?
कुछ दूर तुम, कुछ दूर हम
यूँ बेल नफरत की चढ़ी
डालो पकौड़ी प्रेम की
स्वादिष्ट हो जीवन-कढ़ी
दे फतह ठाकुर श्वास को
हँस आस ठकुराइन गढ़ी
कोशिश मनाती जीत को
माने न जालिम नकचढ़ी
६-३-२०२०
***
नवगीत-
आज़ादी
*
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
*
किसी चिकित्सा-ग्रंथ में
वर्णित नहीं निदान
सत्तर बरसों में बढ़ा
अब आफत में जान
बदपरहेजी सभाएँ,
भाषण और जुलूस-
धर्महीनता से जला
देशभक्ति का फूस
संविधान से द्रोह
लगा भारी पातक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
*
देश-प्रेम की नब्ज़ है
धीमी करिए तेज
देशद्रोह की रीढ़ ने
दिया जेल में भेज
कोर्ट दंड दे सर्जरी
करती, हो आरोग्य
वरना रोगी बचेगा
बस मसान के योग्य
वैचारिक स्वातंत्र्य
स्वार्थ हितकर नाटक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात त्राटक है
*
मुँदी आँख कैसे सके
सहनशीलता देख?
सत्ता खातिर लिख रहे
आरोपी आलेख
हिंदी-हिन्दू विरोधी
केर-बेर का संग
नेह-नर्मदा में रहे
मिला द्वेष की भंग
एक लक्ष्य असफल करना
इनका नाटक है
संविधान से द्रोह
लगा भारी पातक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
***
नवगीत-
आज़ादी
*
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
*
किसी चिकित्सा-ग्रंथ में
वर्णित नहीं निदान
सत्तर बरसों में बढ़ा
अब आफत में जान
बदपरहेजी सभाएँ,
भाषण और जुलूस-
धर्महीनता से जला
देशभक्ति का फूस
संविधान से द्रोह
लगा भारी पातक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
*
देश-प्रेम की नब्ज़ है
धीमी करिए तेज
देशद्रोह की रीढ़ ने
दिया जेल में भेज
कोर्ट दंड दे सर्जरी
करती, हो आरोग्य
वरना रोगी बचेगा
बस मसान के योग्य
वैचारिक स्वातंत्र्य
स्वार्थ हितकर नाटक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात त्राटक है
*
मुँदी आँख कैसे सके
सहनशीलता देख?
सत्ता खातिर लिख रहे
आरोपी आलेख
हिंदी-हिन्दू विरोधी
केर-बेर का संग
नेह-नर्मदा में रहे
मिला द्वेष की भंग
एक लक्ष्य असफल करना
इनका नाटक है
संविधान से द्रोह
लगा भारी पातक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
६-३-२०१६
***
कृति चर्चा:
प्यास के हिरन : नवगीत की ज्योतित किरण
*
[कृति विवरण:प्यास के हिरन, राधेश्याम बंधु, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, वर्ष १९९८, पृष्ठ ९४, मूल्य ४०/-, प्रकाशक पराग दिल्ली, नवगीतकार संपर्क:९८६८४४४६६६, rsbandhu2 @gmail.com]
मानवीय सभ्यता के विकास के साथ ध्वनियों की पहचान, इनमें अन्तर्निहित संवेदनाएँ. इनकी पुनर्प्रस्तुति, इनके विविध संयोजन और उनके अर्थ, संवेदनाओं को व्यक्त करते शब्द, शब्द समुच्चयों के आरोह-अवरोह और उनसे अभिव्यक्त होती भावनायें, छलकती सरसता क्रमशः लोकगीतों का रूप लेती गयी. सुशिक्षित अभिजात्य वर्ग में रचनाओं के विधान निश्चित करने की चेतना ने गीतों और गीतों में छांदस अनुशासन, बिम्ब, प्रतीकों और शब्दावली परिवर्तन की चाह के द्वार पर आ खड़ी हुई है.
नवगीतों और छंदानुशासन को सामान कुशलता से साध सकने की रूचि, सामर्थ्य और कौशल जिन हस्ताक्षरों में है उनमें से एक हैं राधेश्याम बंधु जी. बंधु जी का नवगीत संकलन प्यास के हिरन के नवगीत मंचीय दबावों में अधिकाधिक व्यावसायिक होती जाती काव्याभिव्यक्ति के कुहासे में सांस्कारिक सोद्देश्य रचित नवगीतों की अलख जगाता है. नवगीतों को लोक की अभिव्यक्ति का माध्यम माननेवालों में बंधु जी अग्रणी हैं. वे भाषिक और पिन्गलीय विरासत को अति उदारवाद से दूषित करने को श्रेयस्कर नहीं मानते और पारंपरिक मान्यताओं को नष्ट करने के स्थान पर देश-कालानुरूप अपरिहार्य परिवर्तन कर लोकोपयोगी और लोकरंजनीय बनाने के पथ पर गतिमान हैं.
बंधु जी के नवगीतों में शब्द-अर्थ की प्रतीति के साथ लय की समन्विति और नादजनित आल्हाद की उपस्थिति और नियति-प्रकृति के साथ अभिन्न होती लोकभावनाओं की अभिव्यक्ति का मणिकांचन सम्मिलन है. ख्यात समीक्षक डॉ. गंगा प्रसाद विमल के अनुसार’ बंधु जी में बडबोलापन नहीं है. उनमें रूपक और उपमाओं के जो नये प्रयोग मिलते हैं उनसे एक विचित्र व्यंग्य उभरता है. वह व्यंग्य जहाँ स्थानिक संबंधों पर प्रहार करता है वहीं वह सम्पूर्ण व्यवस्था की विद्रूपता पर भी बेख़ौफ़ प्रहार करता है. बंधु जी पेशेवर विद्रिही नहीं हैं, वे विसंगत के प्रति अपनी असहमति को धारदार बनानेवाले ऐसे विद्रोही हैं जिसकी चिंता सिर्फ आदमी है और वह आदमी निरंतर युद्धरत है.’
प्यास के हिरन (२३ नवगीत), रिश्तों के समीकरण (२७ नवगीत) तथा जंग जारी है (७ नवगीत) शीर्षक त्रिखंदों में विभक्त यह नवगीत संकलन लोक की असंतुष्टि, निर्वाह करते रहने की प्रवृत्ति और अंततः परिवर्तन हेतु संघर्ष की चाह और जिजीविषा का दस्तावेज है. ये गीति रचनाएँ न तो थोथे आदर्श का जय घोष करती है, न आदर्शहीन वर्तमान के सम्मुख नतमस्तक होती हैं, ये बदलाव की अंधी चाह की मृगतृष्णा में आत्माहुति भी नहीं देतीं अपितु दुर्गन्ध से जूझती अगरुबत्ती की तरह क्रमशः सुलगकर अभीष्ट को इस तरह पाना चाहती हैं कि अवांछित विनाश को टालकर सकल ऊर्जा नवनिर्माण हेतु उपयोग की जा सके.
बाजों की / बस्ती में, धैर्य का कपोत फँसा / गली-गली अट्टहास, कर रहे बहेलिये, आदमकद / टूटन से, रोज इस तरह जुड़े / सतही समझौतों के प्यार के लिए जिए, उत्तर तो / बहरे हैं, बातूनी प्रश्न, / उँगली पर ठहर गये, पर्वत से दिन, गुजरा / बंजारे सा एक वर्ष और, चंदा तो बाँहों में / बँध गया, किन्तु लुटा धरती का व्याकरण, यह घायल सा मौन / सत्य की पाँखें नोच रहा है, आदि-आदि पंक्तियों में गीतकार पारिस्थितिक वैषम्य और विडम्बनाओं के शब्द चित्र अंकित करता है.
साधों के / कन्धों पर लादकर विराम / कब तक तम पियें, नये सूरज के नाम?, ओढ़ेंगे / कब तक हम, अखबारी छाँव?, आश्वासन किस तरह जिए?, चीर हरणवाले / चौराहों पर, मूक हुआ क्यों युग का आचरण?, आश्वासन किस तरह जिए? / नगरों ने गाँव डंस लिये, कल की मुस्कान हेतु / आज की उदासी का नाम ताक न लें?, मैंने तो अर्पण के / सूर्य ही उगाये नित / जाने क्यों द्विविधा की अँधियारी घिर आती, हम उजाले की फसल कैसे उगाये?, अपना ही खलिहान न देता / क्यों मुट्ठी भर धान, जैसी अभिव्यक्तियाँ जन-मन में उमड़ते उन प्रश्नों को सामने लाती हैं जो वैषम्य के विरोध की मशाल बनकर सुलगते ही नहीं शांत मन को सुलगाकर जन असंतोष का दावानल बनाते हैं.
जो अभी तक / मौन थे वे शब्द बोलेंगे / हर महाजन की बही का भेद खोलेंगे, धूप बनकर / धुंध में भी साथ दो तो / ज़िन्दगी का व्याकरण कुछ सरल हो जाए, बाबा की अनपढ़ / बखरी में शब्दों का सूरज ला देंगे, अनब्याहे फासले / ममता की फसलों से पाटते चलो, परिचय की / शाखों पर, संशय की अमरबेल मत पालो, मैं विश्वासों को चन्दन कर लूँगा आदि में जन-मन की आशा-आकांक्षा, सपने तथा विश्वास की अभिव्यक्ति है. यह विश्वास ही जनगण को सर्वनाशी विद्रोह से रोककर रचनात्मक परिवर्तन की ओर उन्मुख करता है. क्रांति की भ्रान्ति पालकर जीती प्रगतिवादी कविता के सर्वथा विपरीत नवगीत की यह भावमुद्रा लोक की, लोक के द्वारा, लोक के लिये सक्षम व्यवस्था का आव्हान करती है.
बंधु जी के नवगीत सरस श्रृंगार-सलिला में अवगाहन करते हुए मनोरम अभिव्यक्तियों से पाठक का मन मोहने में समर्थ हैं. यादों के / महुआ वन, तन-मन में महक उठे / आओ! हम बाँहों में, गीत-गीत हो जायें, तुम महकते द्वीप की मुस्कान / हम भटकते प्यार के जलयान / क्यों न हम-तुम मिल, छुअन के छंद लिख डालें? क्यों न आदिम गंध से, अनुबंध लिख डालें, आओ, हँ-तुम मिल / प्यार के गुणकों से / रिश्तों के समीकरण, हल कर लें, दालानों की / हँसी खनकती, बाजूबंद हुई / आँगन की अठखेली बोली, नुपुर छंद हुई, चम्पई इशारों से / लिख-लिख अनुबंध / एक गंध सौंप गयी, सौ-सौ सौगंध, खिड़की में / मौलश्री, फूलों का दीप धरे / कमरे का खालीपन, गंध-गीत से भरे, नयनों में / इन्द्रधनुष, अधरोंपर शाम / किसके स्वागत में ये मौसमी प्रणाम? जैसी मादक-मदिर अभिव्यक्तियाँ किसके मन को न मोह लेंगी?
बंधु जी का वैशिष्ट्य सहज-सरल भाषा और सटीक शब्दों का प्रयोग है. वे न तो संस्कृतनिष्ठता को आराध्य मानते हैं, न भदेसी शब्दों को ठूँसते हैं, न ही उर्दू या अंग्रेजी के शब्दों की भरमार कर अपनी विद्वता की धाक जमाते हैं. इस प्रवृत्ति के सर्वथा विपरीत बंधु जी नवगीत के कथ्य को उसके अनुकूल शब्द ही नहीं बिम्ब और प्रतीक भी चुनने देते हैं. उनकी उपमाएँ और रूपक अनूठेपन का बना खोजते हुए अस्वाभाविक नहीं होते. धूप-धिया, चितवन की चिट्ठी, याद की मुंडेरी, शतरंजी शब्द, वासंती सरगम, कुहरे की ओढ़नी, रश्मि का प्रेमपत्र आदि कोमल-कान्त अभिव्यक्तियाँ नवगीत को पारंपरिक वीरासा से अलग-थलग कर प्रगतिवादी कविता से जोड़ने के इच्छुक चंद जनों को भले ही नाक-भौं चढ़ाने के लिये विवश कर दे अधिकाँश सुधि पाठक तो झूम-झूम कर बार-बार इनका आनंद लेंगे.
नवगीत लेखन में प्रवेश कर रहे मित्रों के लिए यह नवगीत संग्रह पाठ्य पुस्तक की तरह है. हिंदी गीत लेखन में उस्ताद परंपरा का अभाव है, ऐसे संग्रह एक सीमा तक उस अभाव की पूर्ति करने में समर्थ हैं.
रिश्तों के इन्द्रधनुष, शब्द पत्थर की तरह आदमी की भीड़ में शीर्षक ३ मुक्तिकाएँ (हिंदी गज़लें) तथा आदमी शीर्षक एकमात्र मुक्तक की उपस्थिति चौंकाती है. इसने संग्रह की शोभा नहीं बढ़ती. तमसा के तट पर, मेरा सत्य हिमालय पर नवगीत अन्य सम्मिलित नवगीतों की सामान्य लीक से हटकर हैं. सारतः यह नवगीत संग्रह बंधु जी की सृजन-सामर्थ्य का जीवंत दस्तावेज होने के साथ-साथ आम पाठक के लिये रस की गागर भी है. ***
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कृति चर्चा:
नवगीत के नये प्रतिमान : अनंत आकाश अनवरत उड़ान
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[कृति विवरण: नवगीत के नये प्रतिमान, राधेश्याम बंधु, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी जेकेट युक्त, वर्ष २०१२, पृष्ठ ४६४, मूल्य ५००/-, प्रकाशक कोणार्क प्रकाशन बी ३/१६३ यमुना विहार दिल्ली ११००५३, नवगीतकार संपर्क ९८६८४४४६६६, rsbandhu2@gmail.com]
समकालिक हिंदी काव्य के केंद्र में आ चुका नवगीत अपनी विकास यात्रा के नव पड़ावों की ओर पग रखते हुए नव छंद संयोजन से लोक धुनों और लोक गीतों की ओर कदम बढ़ा रहा है. बटोही, कजरी, आल्हा. पंथी आदि सहोदरों से गले मिलकर सहज उल्लास के स्वर गुंजाने लगा है. छायावाद की अमूर्तता और साम्यवादी प्रगतिवाद के भटकाव से निकलकर नवगीत जन-मन की व्यथा, जन-जीवन की छवि तथा जनाशाओं का उल्लास लोक में चिरकाल से व्याप्त शब्दों, धुनों, गीतों में ढालकर व्यक्त करने की ओर प्रयाण कर चुका है. विशिष्ट शब्दावली, छंद पंक्तियों में गति-यति स्थलों पर पंक्ति परिवर्तन कर नव छंद रचने के व्यामोह से मुक्त होकर नवगीत अब अपनी अस्मिता की खोज में अपनी जमीन में जमी जड़ों की ओर जा रहा है जो निराला की दिशा थी.
नवगीत को हिंदी समालोचना के दिग्गजों द्वारा अनदेखा किया जाने के बावजूद वह जनवाणी बनकर उनके कानों में प्रविष्ट हो गया है. फलतः, नवगीत के मूल्यांकन के गंभीर प्रयास हो रहे हैं. नवगीत की नवता-परीक्षण के प्रतिमानों के अन्वेषण का दुरूह कार्य सहजता से करने का पौरुष दिखाया है श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार राधेश्याम बंधु ने. नवगीत के नये प्रतिमानों पर चर्चा करता सम्पादकीय खंड आलोचना और सौन्दर्य बोध, वस्तुवादी वर्गीय चेतना और उसका यथार्थवाद, प्रयोगवाद और लोकधर्मी प्रयोग, इतिहासबोध: उद्भव और विकास, लोकचेतना और चुनौतियाँ, नये रूप और वस्तु की प्रासंगिकता, छंद और लय की प्रयोजनशीलता, मूल्यान्वेषण की दृष्टि और उसका समष्टिवाद, वैज्ञानिक और वैश्विक युगबोध, सामाजिक चेतना और जनसंवादधर्मिता, वैचारिक प्रतिबद्धता और जनचेतना तथा जियो और जीने दो आदि बिन्दुओं पर केन्द्रित है. यह खंड कृतिकार के गहन और व्यापक अध्ययन-मनन से उपजे विचारों के मंथन से निसृत विचार-मुक्ताओं से समृद्ध-संपन्न है.
परिचर्चा खंड में डॉ. नामवर सिंह, डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, डॉ. नित्यानंद तिवारी, डॉ. मैनेजर पाण्डेय, डॉ. मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह, डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव, डॉ. विमल, रामकुमार कृषक जैसे विद्वज्जनों ने हिचकते-ठिठकते हुए ही सही नवगीत के विविध पक्षों का विचारण किया है. यह खंड अधिक विस्तार पा सकता तो शोधार्थियों को अधिक संतुष्ट कर पाता. वर्तमान रूप में भी यह उन बिन्दुओं को समाविष्ट किये है जिनपर भविष्य में प्रासाद निर्मित किये का सकते हैं.
sसमीक्षात्मक आलेख खंड के अंतर्गत डॉ. शिव कुमार मिश्र ने नवगीत पर भूमंडलीकरण के प्रभाव और वर्तमान की चुनौतियाँ, डॉ. श्री राम परिहार ने नवगीत की नयी वस्तु और उसका नया रूप, डॉ. प्रेमशंकर ने लोकचेतना और उसका युगबोध, डॉ. प्रेमशंकर रघुवंशी ने गीत प्रगीत और नयी कविता का सच्चा उत्तराधिकारी नवगीत, डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ ने सामाजिक चेतना और चुनौतियाँ, डॉ. भारतेंदु मिश्र ने आलोचना की असंगतियाँ, डॉ. सुरेश उजाला ने विकास में लघु पत्रिकाओं का योगदान, डॉ. वशिष्ठ अनूप ने नईम के लोकधर्मी नवगीत, महेंद्र नेह ने रमेश रंजक के अवदान, लालसालाल तरंग ने कुछ नवगीत संग्रहों, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ ने गीत-नवगीत की तुलनात्मक रचनाशीलता तथा डॉ. राजेन्द्र गौतम ने नवगीत के जनोन्मुखी परिदृश्य पर उपयोगी आलेख प्रस्तुत किये हैं.
विराsसत खंड में निराला जी, माखनलाल जी, नागार्जुन जी, अज्ञेय जी, केदारनाथ अग्रवाल जी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी, धर्मवीर भारती जी, देवेन्द्र कुमार, नईम, डॉ. शंभुनाथ सिंह, रमेश रंजक तथा वीरेंद्र मिश्र का समावेश है. यह खंड नवगीत के विकास और विविधता का परिचायक है.
’नवगीत के हस्ताक्षर’ तथा ‘नवगीत के कुछ और हस्ताक्षर’ खंड में लेखक ने ७० तथा ६० नवगीतकारों को बिना किसी पूर्वाग्रह के उन प्रमुख नवगीतकारों को सम्मिलित किया है जिनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ उसके पढ़ने में आ सकीं. ऐसे खण्डों में नाम जोड़ने की गुंजाइश हमेशा बनी रह सकती है. इसके पूरक खंड भी हो सकते हैं और पुस्तक के अगले संस्करण में संवर्धन भी किया जा सकता है.
बंधु जी नवगीत विधा से लम्बे समय से जुड़े हैं. वे नवगीत विधा के उत्स, विकास, वस्तुनिष्ठता, अवरोधों, अवहेलना, संघर्षों तथा प्रमाणिकता से सुपरिचित हैं. फलत: नवगीत के विविध पक्षों का आकलन कर संतुलित विवेचन, विविध आयामों का सम्यक समायोजन कर सके हैं. सर्वाधिक महत्वपूर्ण है उनका निष्पक्ष और निर्वैर्य होना. व्यक्तिगत चर्चा में भी वे इस कृति और इसमें सम्मिलित अथवा बारंबार प्रयास के बाद भी असम्मिलित हस्ताक्षरों के अवदान के मूल्यांकन प्रति समभावी रहे हैं. इस सारस्वत अनुष्ठान में जो महानुभाव सम्मिलित नहीं हुए वे महाभागी हैं अथवा नहीं स्वयं सोचें और भविष्य में ऐसे गंभीर प्रयासों के सहयोगी हों तो नवगीत और सकल साहित्य के लिये हितकर होगा.
डॉ. शिवकुमार मिश्र ने ठीक ही कहा है: ‘डॉ. राधेश्याम बंधु का यह प्रयास नवगीत को उसके समूचे विकासक्रम, उसकी मूल्यवत्ता और उसकी संभावनाओं के साथ समझने की दिशा में एक स्तुत्य प्रयास माना जायेगा.’ कृतिकार जानकारी और संपर्क के आभाव में कृति में सम्मिलित न किये जा सके अनेक हस्ताक्षरों को जड़ते हुए इसका अगला खंड प्रकाशित करा सकें तो शोधार्थियों का बहुत भला होगा.
‘नवगीत के नये प्रतिमान’ समकालिक नवगीतकारों के एक-एक गीत तो आमने लाता है किन्तु उनके अवदान, वैशिष्ट्य अथवा न्यूनताओं का संकेतन नहीं करता. सम्भवत: यह लेखक का उद्देश्य भी नहीं है. यह एक सन्दर्भ ग्रन्थ की तरह उपयोगी है. इसकी उपयोगिता में और अधिक वृद्धि होती यदि परिशिष्ट में अब तक प्रकाशित प्रमुख नवगीत संग्रहों तथा नवगीत पर केन्द्रित समलोचकीय पुस्तकों के रचनाकारों, प्रकाशन वर्ष, प्रकाशक आदि तथा नवगीतों पर हुए शोधकार्य, शोधकर्ता, वर्ष तथा विश्वविद्यालय की जानकारी दी जा सकती.
ग्रन्थ का मुद्रण स्पष्ट, आवरण आकर्षक, बँधाई मजबूत और मूल्य सामग्री की प्रचुरता और गुणवत्ता के अनुपात में अल्प है. पाठ्यशुद्धि की ओर सजगता ने त्रुटियों के लिये स्थान लगभग नहीं छोड़ा है.
६-३-२०१५
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छंद सलिला:
अहीर छंद
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लक्षण: जाति रौद्र, पद २, चरण ४, प्रति चरण मात्रा ११, चरणान्त लघु गुरु लघु (जगण)
लक्षण छंद:
चाहे रांझ अहीर, बाला पाये हीर
लघु गुरु लघु चरणांत, संग रहे हो शांत
पूजें ग्यारह रूद्र, कोशिश लँघे समुद्र
जल-थल-नभ में घूम, लक्ष्य सके पद चूम
उदाहरण:
१. सुर नर संत फ़क़ीर, कहें न कौन अहीर?
आत्म-ग्वाल तज धेनु, मन प्रयास हो वेणु
प्रकृति-पुरुष सम संग, रचे सृष्टि कर दंग
ग्यारह हों जब एक, मानो जगा विवेक
२. करो संग मिल काम, तब ही होगा नाम
भले विधाता वाम, रखना साहस थाम
सुबह दोपहर शाम, रचना छंद ललाम
कर्म करें निष्काम, सहज गहें परिणाम
३. पूजें ग्यारह रूद्र, मन में रखकर भक्ति
जनगण-शक्ति समुद्र, दे अनंत अनुरक्ति
लघु-गुरु-लघु रह शांत, रच दें छंद अहीर
रखता ऊंचा मअ खाली हाथ फ़क़ीर
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मुक्तक
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नया हो या पुराना कुछ सुहाना ढूँढता हूँ मैं
कहीं भी हो ख़ुशी का ही खज़ाना ढूँढता हूँ मैं
निगाहों को न भटकाओ कहा था शिष्य से गुरुने-
मिलाऊँ जिससे हँस नज़रें निशाना ढूँढता हूँ मैं
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चुना जबसे गया मौके भुनाना सीखता हूँ मैं
देखकर आईना खुद पर हमेशा रीझता हूँ मैं
ये संसद है अखाडा चाहो तो मण्डी इसे मानो-
गले मिलता कभी मैं, कभी लड़ खम ठोंकता हूँ मैं
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खड़ा मैदान में मारा शतक या शून्य पर आउट
पकड़ लूँ कठिन, छोड़ूँ सरल यारों कैच हो शाउट
तेजकर गेंद घपलों की, घोटालों की करी गुगली
ये नूरा कुश्ती है प्यारे न नोटों से नज़र फिसली
६-३-२०१४

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गीत :
किस तरह आए बसंत?...
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मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आए बसंत?...
*
होरी कैसे छाए टपरिया?,
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लीलकर हँसे नगरिया.
राजमार्ग बन गई डगरिया.
राधा को छल रहा सँवरिया.

अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाए बसंत?...
*
बैला-बछिया कहाँ चराए?
सूखी नदिया कहाँ नहाए?
शेखू-जुम्मन हैं भरमाए.
तकें सियासत चुप मुँह बाए.
खुद से खुद ही हैं शरमाए.

जड़विहीन सूखा पलाश लख
किस तरह भाये बसंत?...
*
नेह नरमदा सूखी-सूनी.
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ ग़ायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
वैश्विकता की दाढ़ें खूनी.

खुशी बिदा हो गई 'सलिल' चुप
किस तरह लाए बसंत?...
६-३-२०१०
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