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मंगलवार, 18 नवंबर 2025

नवंबर १८, चित्रगुप्त, चमेली, माहिया, हाइकु, दोहा, कुण्डलिया, अनुष्टुप, लघुकथा, गीत

सलिल सृजन नवंबर १८
*
पूर्णिका 
० 
ठंडी हवाएँ, मन को लुभाएँ
जाड़े में शैया-सपन सुहाएँ 
आएँ न जाएँ, बातें बनाएँ 
रूठे न सजनी प्रभु से मनाएँ
सूरज-अँगीठी तापें सुबह से 
संझा हो गुरसी झट सुलगाएँ 
बागों में बैठें, कर कविताई
सुनिए सुनाएँ, चैया पिलाएँ 
लैया-गजक का स्वाद अनूठा 
कहिए तो कैसे इनको भुलाएँ 
१८.११.२०२५ 
000 
चित्रगुप्त प्रभु, प्रगट होइए, माताओं के साथ।
पलक पाँवड़े बिछा हेरते, पथ हम जोड़े हाथ।।
जय जय जय हे निराकार प्रभु!
भक्तों हित साकार हुए विभु!
निरंकार जग-अलंकार हे!
शोभित मोहित सकल चराचर-
महिमा-गरिमा तव अपार है।
बारहमासी हम बारह सुत, शुभाशीष दो नाथ!
पलक पाँवड़े बिछा हेरते, पथ हम जोड़े हाथ।।
चमेली
माहिया
*
मन निर्मल रख मिलना
सबसे दुनिया में
चमेली सदृश खिलना।
*
गर्मी हो या सर्दी
दोनों ऋतु में खिलती
समदृष्टि चमेली की।
*
हो पीत गुलाबी श्वेत
दोमट मिट्टी में
जैस्मिन की झाड़ी-बेल।
***
हाइकु
*
चुन चमेली
अर्पित देव को
करते भक्त।
*
है सुवासित
सकल परिवेश
खिली चमेली।
*
सुरभि लुटा
निष्काम काम कर
चमेली चली।
*
है कर्मयोगी
सफेद चदरिया
ज्यों की त्यों रखी।
*
चंपा-चमेली
राधा-कृष्ण विहँस
रास रचाते।
१८.११.२०२४
***
मुक्तक
चुनो चमेली कुसुम, बनाओ हार पथिक को अर्पित कर।
कर जोड़ें गह सकें विरासत, अपना अहं विसर्जित कर।।
शब्द ब्रह्म का हो आराधन, नाद-ताल-लय की जय हो-
शारद पग पर सुमन चढ़ाएँ, सलिल विमल नित अर्पित कर।।
१७.११.२०२४
भोर भई आओ गौरैया,सुना प्रभाती हमें जगा।
संग गिलहरी को भी लाओ, नाता अद्भुत प्रेम पगा।।
खिले चमेली जुही मोगरा, रहे महकता घर अँगना-
दूर रखो मूषक को जिसने वसन काटकर हमें ठगा।।
१६.११.२०२४
दोहा सलिला
जुही-चमेली श्वास में, आस मोगरा फूल।
हरसिंगार सुहास हो, कर विषाद को धूल।।
पंचेंद्रिय हैं पँखुड़ियाँ, डंढल तन मन वास।
हरित पत्र शत कामना, जड़ हो नहीं उदास।।
चतुर चमेली चहककर, कहे, न हो गमगीन।
सुख-दुख जो देता उसे, दे हो उसमें लीन।।
वसुधा के आँचल पले, छत्र नीलिमा भव्य।
चंचल चपला चमेली, क्रीड़ा करती नव्य।।
चलो! चमेली कुंज में, कान्ह गुँजाता वेणु।
नित्य चरण छू तर रही, बड़भागी बृज रेणु।।
१४.११.२०२४
जगी चमेली विहँसकर, जाग जुही से बोल।
सूरज का स्वागत करे, नित दरवज्जा खोल।।
°
कुण्डलिया
चहक चपल चिड़िया करे, चूँ चूँ कर प्रभु गान।
बैठ चमेली डाल पर, मन ही मन अनुमान।।
मन ही मन अनुमान, गिलहरी करे कलेवा।
देख सके आकाश, बाज को आते देवा।।
कोटर में छिप गई, गिलहरी तुरत ही फुदक।
मिली जुही से पुलक, चमेली हुलसकर चहक।।
१३.११.२०२४
सोरठा
दे सुगंध बेदाम, अलबेली है चमेली।
खुश हर खासो-आम, उसको यह संतोष है।।
११.११.२०२४
°°°
नर्मदा-बंजर नदियों का संगम, सूर्यास्त
गीत
*
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
नेह-नर्मदा अरुणाई से
बिन बोले ही सजा गया।
*
सांध्य सुंदरी क्रीड़ा करती, हाथ न छोड़े दोपहरी।
निशा निमंत्रण लिए खड़ी है, वसुधा की है प्रीत खरी।
टेर प्रतीचि संदेसा भेजे
मिलनातुर मन कहाँ गया?
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
*
बंजर रही न; हुई उर्वरा, कृपण कल्पना विहँस उदार।
नयन नयन से मिले झुके उठ, फिर-फिर फिरकर रहे निहार।
फिरकी जैसे नचें पुतलियाँ
पुतली बाँका बन गया।
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
*
अस्त त्रस्त सन्यस्त न पल भर, उदित मुदित फिर आएगा।
अनकहनी कह-कहकर भरमा, स्वप्न नए दिखलाएगा।
सहस किरण-कर में बाँधे
भुजपाश पहन पहना गया।
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
*
कलरव की शहनाई गूँजी, पर्ण नाचते ठुमक-ठुमक।
छेड़ें लहर सालियाँ मिलकर, शिला हेरतीं हुमक-हुमक।
सहबाला शशि सँकुच छिप रहा,
सखियों के मन भा गया।
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
*
मिलन-विरह की आँख मिचौली, खेल-खेल मन कब थकता।
आस बने विश्वास हास तब ख़ास अधर पर आ सजता।
जीवन जी मत नाहक भरमा
खुद को खो खुद पा गया।
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
१८.११.२०२४
***
कृति चर्चा :
''नवता'' लीक से हटकर भाव सविता
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: नवता, नवगीत संग्रह, देवकीनंदन 'शांत', प्रथम संस्करण, २०१९, आकार २१ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ ५८, मूल्य १५०/-, रचनाकार संपर्क - शान्तं, १०/३०/२ इंदिरा नगर, लखनऊ २२६०१६, चलभाष - ८८४०५४९२९६, ९९३५२१७८४१, ईमेल - shantdeokin@gmail.com]
*
हिंदी साहित्य की लोकप्रिय काव्य विधाओं में से एक गीत रचनाकारों के आकर्षण का केंद्र था, है और रहेगा। गीत रचना प्रकृति और लोक से होकर अध्येताओं और विद्वज्जनों में प्रतिष्ठित हुई है। गीत की जड़ माँ की लोरी, पर्व गीतों, वंदना गीतों, संस्कार गीतों, ऋतु गीतों, कृषि गीतों, जन गीतों, क्रांति गीतों आदि में है। वीरगाथा काल, भक्ति काल, रीति काल और छायावादी काल साक्षी हैं कि गीत हमेशा साहित्य के केंद्र में रहा है। देश-काल-परिस्थितियों तथा रचनाकार की रुचि के अनुरूप गीत का कलेवर तथा चोला परिवर्तित होता रहा है। पानी की तरह गीत अपने आप को बदलता, ढलता हुआ चिरजीवी रहा है। पद्य की थाली में गीत स्वतंत्र और अन्य तत्वों के अभिन्न अंग दोनों रूपों में भोजन में पानी की तरह रहा है। गीत की गेयता ला लयबद्धता से न तो छंद मुक्त हैं न कविता। चिरकाल से पारम्परिक गीतों के साथ नवप्रयोग धर्मी गीत रचे जाते रहे हैं जिन्हें आरंभ में अमान्य करते-करते थक-चूक कर विरोध कर रहे तत्व पस्त हो जाते हैं और परिवर्तन को क्रमश: लोक और विद्वज्जनों की मान्यता मिल जाती है। लगभग ७ दशकों पूर्व गीत को छायावादी अस्पष्टता से स्पष्टता की ओर, अमूर्तता से मूर्तता की ओर, भाव से कथ्य की ओर, आध्यात्मिकता से सांसारिकता की ओर, वैयक्तिक अभिव्यक्ति से सार्वजनिक अभिव्यक्ति की ओर उन्मुख होने की आवश्यकता प्रतीत हुई।
'गेयता' गीत का मूल तत्व है जबकि 'नवता' समय सापेक्ष तत्व है। जो आज नया है वही भविष्य में पुराना होकर परंपरा बन जाता है। नवता जड़ या स्थूल नहीं होती। गीतकार गीत की रचना कथ्य को कहने के लिए करता है। कथ्य गीत ही नहीं किसी भी रचना का मूल तत्व है। कुछ कहना ही नहीं हो तो रचना नहीं हो सकती। अनुभूति को अभिव्यक्त करना ही कथ्य को जन्म देता है। यह अभिव्यक्ति लयता और गेयता से संयुक्त होकर पद्य का रूप लेती है। पद्य रचना मुखड़ा - अंतरा - मुखड़ा के क्रमबद्ध रूप में गीत कही जाती है। गीत के तत्व कथ्य और शिल्प हैं। कथ्य को विषय अनुसार वर्गीकृत किया जा सकता है। शिल्प के अंग छंद, भाषा शैली, शब्द-चयन, अलंकार, शब्द शक्ति, गुण, बिम्ब, प्रतीक आदि हैं। गीत में नवता का प्रवेश इन सब में एक साथ प्राय: नहीं होता। एकाधिक तत्वों में नवता का प्रभाव प्रभावी हो तो उस गीति रचना को नवगीत कहा जाता है। मऊरानी पुर झाँसी में जन्मे, लखनऊ निवासी वरिष्ठ गीत-ग़ज़लकार देवकीनंदन 'शांत' हिंदी, बुंदेली, उर्दू, अंग्रेजी के जानकर हैं। आजीविका से अभियंता होते हुए भी उनकी प्रवृत्ति साहित्य और आध्यात्म की ओर उन्मुख रही है। सृजन के उत्तरार्ध में नवगीत की और आकृष्ट होकर शांत जी ने प्रचलित मान्यताओं और विधानों की अनदेखी कर अपनी राह आप बनाने की कोशिश की है। इस कोशिश में उनकी गीति रचनाएँ गीत-नवगीत की सीमारेखा पर हैं। संकलन की हर रचना को नवगीत नहीं कहा जा सकता किन्तु अधिकांश रचनाओं में सामान्य से भिन्न पथ अपनाने का प्रयास उन्हें नवगीत से सन्निकटता बनाता है।
नवता की भूमिका में सुधी समीक्षक डॉ. सुरेश ठीक ही लिखते हैं - "अछूते प्रतीक, नए बिम्ब,,
कथ्य, शिल्प, भाषा-शैली, की अनूठी अभिव्यक्ति किसी छान्दसिक रचना को नवगीत बनाती है। यह निर्विवाद सच है कि सपाटबयानी, वक्तव्यबाजी, घिसे-पिटे प्रतीक, पारस्परिक द्वेष, वैचारिक किलेबंदी, टकराव-बिखरावपरक नकारात्मकता नवगीत को दिग्भर्मित कर, सामाजिक-सद्भाव को क्षति पहुँचाकर असहिष्णुता की और ढकेलती है। शांत जी की गीति रचनाएँ ही नहीं, गज़लें भी सामाजिक समरसता, सहिष्णुता और साहचर्य को प्रोत्साहित करते हैं। इस अर्थ में शांत जी नवगीतों में वर्ग वैमनस्य, सामाजिक विसंगतियों, वैयक्तिक कुंठाओं, सार्वजनिक टकरावों को अधिक प्रभावी बनाने की प्रवृत्ति के विरुद्ध ताज़ा हवा के झोंके की तरह सद्भाव और सहिष्णुता की वकालत करते हैं।
डॉ. किशारीशरण शर्मा नवगीतों में शब्द शक्तियों के प्रभाव की चर्चा करते हुए लिखते हैं - "नवगीत में लक्षणा एवं व्यंजना शब्दों का विशेष प्रयोग होता है। बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से 'कही पे निगाहें, कहीं पे निशाना' की उक्ति चरितार्थ की जाती है। लक्षणा या व्यंजना का तीर चलाकर व्यक्ति (गीतकार) जोखिम से बचता है जबकि स्वयं को जोखिम में डालता है। कर्मयोगी कृष्ण के कर्मपथ के अनुयायी शांत जी जोखिम उठाने में नहीं हिचकते और अपनी बात अमिधा में कहकर नवगीत में नवता का संचार करते हैं। प्रसिद्ध समीक्षक डॉ. जगदीश गुप्त के अनुसार "कविता वही है जो प्रकथनीय कहे।" इस निकष पर शांत जी की रचनाएँ खरी उतरती हैं।
शांत जी अभियंता हैं, जानते हैं कि प्रकृति के उत्पादों के उत्पादों की नकल के मनुष्य काया भले बना ले, प्राण नहीं डाल सकता। वे इसी तथ्य को फूलों के माध्यम से सामने लाते हैं-
कागज़ के फूलों से
खुशबू आना मुश्किल है।
छूने की कोशिश
करने पर दूर लहर जाती
बूँद किनारे की
इस डर से सिहर-सिहर जाती
प्रश्न 'शीर्षक' रचना में शांत जी अपनी कार्यस्थलियों पर निरंतर कार्यरत श्रमिकों को देखकर एक सवाल उठाते हैं -
ऐसा क्यों होता?
तन तो श्रम करता मन सोता।
शोर करे न 'शांत' समन्दर
भीतर-भीतर ज्वर उठे।
दैत्य, अग्नि, पशु से क्या डरना
जब अंतस में प्यार जगे।
ऐसा क्यों होता?
नीलकंठ क्यों अमृत बोता?
यहाँ शांत जी ने अपने साहित्यिक उपनाम का शब्दकोशीय अर्थ में प्रयोग कर अपनी सामर्थ्य का परिचय दिया है। विष पीकर अमृत देने की विरासत का वारिस कवि ही होता है। वह जानता है कि अहम् का वहम ही सारे टकरावों की जड़ है। 'रूठना' जिंदगी जीने का सही ढंग नहीं है। 'मनाना' और मान जाना ही को आगे बढ़ाता है। विडंबनाओं को नवगीत का कलेवर मान कर निरंतर विखण्डन की खेती कर रहे, तथाकथित गीतकार मानें न मानें गीतसृजन पथ का अनुगामी बना रहेगा और गीत का श्रोता सनातन मूल्यों की अवहेला सहन न कर ऐसे गीतों को हृदयंगम करता रहेगा। शांत जी संवाद को समस्याओं के समाधान में सहायक मानते हुए लिखते हैं-
फिर संवाद करें,
आओ, फिर से बात करें हम....
...रत्ती भर ना डरें,
ना आघात, ना घात करें हम।
शांत जी ने नवगीतों में राष्ट्रीय भावधारा को उपेक्षित होते देखते हुए, खुद नवता पथ पर पग रखकर राष्ट्रीयता का रंग घोलने का प्रयास किया है। अपने इस प्रथम प्रयास में भले ही कवि गीत-नवगीत की संधि रेखा पर खड़ा दिखता है किन्तु 'गिरते हैं शह-सवार ही मैदाने-जंग में वह तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले?' शांत जी चुनौती को स्वीकारकर आगे बढ़ते हैं -
हो संपन्न राष्ट्र अपना
सबको अधिकार मिले
सोच-विचार मूक प्राणी को
एक नया संसार मिले अब तक नवगीतों में मानवीय पीड़ा और इंसानी परेशानियाँ हो कथ्य का विषय बनती आई हैं। शांत जी मनुष्य मात्र तक सीमित रहते, उनकी संवेदनाएँ मूक प्राणियों विस्तार पाती है। नवगीत के कथ्य में यह एक नव्य प्रयोग है। शांत जानते हैं कि 'लकीर के फ़कीर' ऐसी रचनाओं को नवगीत मानने से इंकार कर सकते हैं, फिर भी वे 'वैचारिक प्रतिबद्धों' के गिरोह में सत्य कहने का साहस करते हैं। वे ऐसे गिरोहबाजों को ललकारते हैं-
जिसे तुम कविता कहते हो
क्या
वही बस कविता है?
जिसमें तुम गोते लगाते हो
क्या
वही सरिता है?...
.... कविता, सरिता और सविता
सिर्फ वही नहीं है
जो तुम्हारी परिभाषा में बँधा है।
नवगीत को नश्वर सांसारिक अभिव्यक्तियों तक सीमित रखने के पक्षधरों को शांत जी का कवि मन, आवरण-ेयह बताता है कि नवता सांसारिक होते हुए आध्यात्मिक भी है। आवरण चित्र में कदम्ब शाख पर वेणुवादन करते हुए श्रीकृष्ण विराजमान हैं, उनके सम्मुख सुन्दर वस्त्रों में सज्जित बृज वनिताएँ हैं। वस्त्रहीन स्नान करने की कुप्रथा को वस्त्र-हरण कर छुड़वाने का वचन लेने के बाद कृष्ण लौटा चुके हैं। कुप्रथा को छोड़कर सुवस्त्रों से सज्जित बृज बालाएँ नवता का वरण कर चुकी हैं। संदेश स्पष्ट है कि नवगीत की नवता वैचारिक, आचारिक मौलिक तथा सर्व हितकारी हो तभी लोक - मान्य होगी।
कठमुल्लेपन की हद तक जड़ता का वरण कर रहे तथाकथित प्रगतिवादियों (वास्तव में साम्यवादियों) की वैचारिक दासता स्वीकार कर नवगीत को वैचारिक प्रतिबद्धता के पिंजरे में कैद रखने के आग्रही नवगीतकारों को शांत जी सर्वहितकारी नव-पथ अपनाने का सन्देश देते हैं। 'सुधियों के गीत' शीर्षक के अंतर्गत शांत जी नवगीत के माध्यम से मानवीय संबंधों की संवेदनाओं को पारंपरिकता से हटकर अभिव्यक्ति देते हैं-
साथी रूठ गया
अब सपने सूली लटकेंगे
प्रतिबंधों की ज़ंजीरों से
खूब कसे
उसके ज़ज़्बात
अनुबंधों के संकेतों से
घिर आई
दिन में ही रात
धीरज छूट गया
जीवन भर दर-दर भटकेंगे
विषय, विषय-वस्तु, कहन, शब्द चयन आदि में शांत जी किसी का अनुकरण नहीं करते। शांत जी के आत्मीय मित्र मधुकर अष्ठाना जी प्रगतिशील विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं तो, मनोज श्रीवास्तव राष्ट्रीय ओज के प्रतिनिधि , राजेश अरोरा 'शलभ' हास्य के महारथी हैं तो अमरनाथ हिंदी छांदस भावधारा के दिग्गज है, राजेंद्र वर्मा उर्दू उरूज के उस्ताद हैं तो नरेश सक्सेना अपने राह बनाने वाले शिखर हस्ताक्षर हैं। शांत इनमें से किसी का अनुकरण, यहाँ तक कि अपने उस्ताद शायरे-आज़म कृष्ण बिहारी 'नूर' के शागिर्दे-ख़ास होने के बाद भी शायरी बुंदेली और हिंदी लेखन की राह खुद बनाते नज़र आते हैं। अपने प्रश्नों के उत्तर खुद तलाशने की प्रवृत्ति उन्हें उनके अभियंता है। लिपिकीय और अध्यापकीय प्रवृत्ति पीछे देखकर आगे बढ़ने की होती है। जो पहले चुका है, पुनरावृत्ति सहज, सरल शीघ्र परिणामदायी होने के बावजूद इंजीनियर को हर निर्माणस्थली पर भिन्न आधारभूमि, समस्याएँ और संसाधन चुनकर नव प्रविधि का चयन करना होता है। शांत जी अभियंता होने के नाते प्रकृति से निकटता से जुड़े हैं। प्रकृति मानवीय भाषा न जानते हुए बहुधा सब कुछ बोल देती है, बशर्ते आप प्रकृति से जुड़कर सुन-समझ सकें। नारी प्रकृति भी कहा जाता है। शांत जी कहते हैं-
तुमने बिन बोले
आँखों से
सब कुछ कह डाला।
सदियों से
प्यासे मरुथल को
कर डाला पानी-पानी।
जल को ही
मीठा कर खारेपन के
बदल दिए मानी।
होंठ बिना खोले
रिक्त किया
विष सिक्त प्याला।
विश्व ऊर्जा संकट से जूझ और ऊर्जा प्राप्ति के नए साधन खोज रहा है। ऊर्जा के लिए ईंधन और ईंधन की खपत पर्यावरण प्रदूषण का खतरा, शांत इंगित करते हैं -
साइकिल पर चल हैं
दीप से हम जल रहे हैं
गीत गाते हैं
गुनगुनाते हैं
ऊर्जा अपनी बचाते हैं।
'सत्य होता है चिरंतन' शीर्षक से शांत कहते हैं -
देख ले तू
करके चिंतन
सत्य चिरंतन
चाह तुझको है पुरातन
स्वर लहरियों की।
'नवता' के नवगीत और गीत नीर-क्षीर समरस हैं, उनके बीच में भारत की तरह सीमा रेखा खींची जा सकती। नवता के नवगीतकार को परिपक्व होने में समय लगेगा। संतोष की बात यह है कि वह सस्ती लोकप्रियता और शीघ्र फल प्राप्ति के लिए स्थापितों अंधानुकरण न कर अपनी राह आप बना रहा है।
१८.११.२०१९
***
दोहा सलिला
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ।
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ।।
.
मन में क्या?, कैसे कहें? हो न सके अनुमान।
राजनीति के फेर में, फिल्मकार कुर्बान।।
.
बना बतंगड़ बात का, उडी खूब अफवाह
बना सत्य जाने करें, क्यों सद्भाव तबाह?
.
यह प्रसंग है ही नहीं, झूठ रहा है फ़ैल।
अपने चेहरे मल रहे, झूठे खुद ही मैल।।
.
सही-गलत जाने बिना, बेमतलब आरोप।
लगा, दिखाते नासमझ, अपनों पर ही कोप।।
१८.११.१७
...
मुक्तक
किसका मन है मौन?, मन पर वश किसका चला?
परवश कहिए कौन?, परवश होकर भी नहीं,
जड़ का मन है मौन, संयम मन को वश करे-
वश में पर के भौन।, परवश होकर भी नहीं।।
छंद: सोरठा
***
कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं ३
*
मुक्तिका
चलें साथ हम
(छंद- तेरह मात्रिक भागवत जातीय, अष्टाक्षरी अनुष्टुप जातीय छंद, सूत्र ययलग )
[बहर- फऊलुं फऊलुं फअल १२२ १२२ १२, यगण यगण लघु गुरु ]
*
चलें भी चलें साथ हम
करें दुश्मनों को ख़तम
*
न पीछे हटेंगे कदम
न आगे बढ़ेंगे सितम
*
न छोड़ा, न छोड़ें तनिक
सदाचार, धर्मो-करम
*
तुम्हारे-हमारे सपन
हमारे-तुम्हारे सनम
*
कहीं और है स्वर्ग यह
न पाला कभी भी भरम
१८.११.२०१६
***
नवगीत:
मैं लड़ूँगा....
.
लाख दागो गोलियाँ
सर छेद दो
मैं नहीं बस्ता तजूँगा।
गया विद्यालय
न वापिस लौट पाया
तो गए तुम जीत
यह किंचित न सोचो,
भोर होते ही उठाकर
फिर नये बस्ते हजारों
मैं बढूँगा।
मैं लड़ूँगा....
.
खून की नदियाँ बहीं
उसमें नहा
हर्फ़-हिज्जे फिर पढ़ूँगा।
कसम रब की है
मदरसा हो न सूना
मैं रचूँगा गीत
मिलकर अमन बोओ।
भुला औलादें तुम्हारी
तुम्हें, मेरे साथ होंगी
मैं गढूँगा।
मैं लड़ूँगा....
.
आसमां गर स्याह है
तो क्या हुआ?
हवा बनकर मैं बहूँगा।
दहशतों के
बादलों को उड़ा दूँगा
मैं बनूँगा सूर्य
तुम रण हार रोओ ।
वक़्त लिक्खेगा कहानी
फाड़ पत्थर मैं उगूँगा
मैं खिलूँगा।
मैं लड़ूँगा....
...
लघुकथाएँ:
उत्सव
*
सड़क दुर्घटना, दम्पति की मौत, नन्ही बच्ची अनाथ पढ़ते-पढ़ते उसकी दृष्टी अपने नन्हीं बिटिया पर पड़ी.… मन में कोई विचार कौंधा और सिहर उठा वह, बिटिया को बांहों में भरकर चूम लिया…… पत्नी ने देखा तो कारण पूछा।
थोड़ी देर बाद तीनों पहुँचे कलेक्टर के कमरे में, कुछ लिखा-पढ़ी के बाद घर लौटे, दुर्घटना में माँ-बाप खो चुकी बिटिया के साथ.…
धीरे-धीरे चारों का जीवन बन गया एक उत्सव।
***
मानवाधिकार
*
राजमार्ग से आते-जाते विभाजक के एक किनारे पर उसे अक्सर देखते हैं लोग। किसे फुर्सत है जो उसकी व्यथा-कथा पूछे। कुछ साल पहले वह अपने माता-पिता, भाई-बहिन के साथ गरीबी में भी प्रसन्न हुआ करता था। एक रात वे यहीं सो रहे थे कि एक मदहोश रईसजादे की लहराती कार सोते हुई ज़िन्दगियों पर मौत बनकर टूटी। पल भर में हाहाकार मच गया, जब तक वह जागा उसकी दुनिया ही उजड़ गयी थी। कैमरों और नेताओं की चकाचौंध १-२ दिन में और साथ के लोगों की हमदर्दी कुछ महीनों में ख़त्म हो गयी।
एक पडोसी ने कुछ दिन साथ में रखकर उसे बेचना सिखाया और पहचान के कारखाने से बुद्धि के बाल दिलवाये। आँखों में मचलते आँसू, दिल में होता हाहाकार और दुनिया से बिना माँगे मिलती दुत्कार ने उसे पेट पालना तो सीखा दिया पर जीने की चाह नहीं पैदा कर सके। दुनियावी अदालतें बचे हुओं को कोई राहत न दे पाईं। रईसजादे को पैरवीकारों ने मानवाधिकारों की दुहाई देकर छुड़ा दिया लेकिन किसी को याद नहीं आया निरपराध मरने वालों का मानवाधिकार।
***
सच्चा उत्सव
*
उपहार तथा शुभकामना देकर स्वरुचि भोज में पहुँचा, हाथों में थमी प्लेटों में कहीं मुरब्बा दही-बड़े से गले मिल रहा था, कहीं रोटी पापड़ के गाल पर दाल मल रही थी, कहीं भटा भिन्डी से नैन मटक्का कर रहा था और कहीं इडली-सांभर को गुत्थमगुत्था देखकर डोसा मुँह फुलाये था।
इनकी गाथा छोड़ चले हम मीठे के मैदान में वहाँ रबड़ी के किले में जलेबी सेंध लगा रही थी, दूसरे दौने में गोलगप्पे आलूचाप को ठेंगा दिखा रहे थे।
जितने अतिथि उतने प्रकार की प्लेटें और दौने, जिस तरह सारे धर्म एक ईश्वर के पास ले जाते हैं वैसे ही सब प्लेटें और दौने कम खाकर अधिक फेंके गये स्वादिष्ट सामान को वेटर उठाकर बाहर कचरे के ढेर पर पहुँचा रहे थे।
हेलो-हाय करते हुए बाहर निकला तो देखा चिथड़े पहने कई बड़े-बच्चे और श्वान-शूकर उस भंडारे में अपना भाग पाने में एकाग्रचित्त निमग्न थे, उनके चेहरों की तृप्ति बता रही थी की यही है सच्चा उत्सव।
***
गणराज्य
*
व्यापम घोटाला समाचार पत्रों, दूरदर्शन, नुक्कड़ से लेकर पनघट हर जगह बना रहा चर्चा का केंद्र, बड़े-बड़ों के लिपटने के समाचारों के बीच पकड़े गए कुछ छुटभैये।
फिर आरम्भ हुआ गवाहों के मरने का क्रम लगभग वैसे ही जैसे श्री आसाराम बापू और अन्य इस तरह के प्रकरणों में हुआ।
सत्ताधारियों के सिंहासन डोलने और परिवर्तन के खबरों के बीच विश्व हिंदी सम्मेलन का भव्य आयोजन, चीन्ह-चीन्ह कर लेने-देने का उपक्रम, घोटाले के समाचारों की कमी, रसूखदार गुनहगारों का जमानत पर रिहा होना, समान अपराध के गिरफ्तार अन्य को जमानत न मिलना, सत्तासीनों के कदम अंगद के पैर की तरह जम जाना, समाचार माध्यमों से व्यापम ही नहीं छात्रवृत्ति और अन्य घोटालों की खबरों का विलोपित हो जाना, पुस्तक हाथ में लिए मैं कोशिश कर रहा हूँ किन्तु समझ नहीं पा रहा हूँ समानता, मौलिक अधिकारों और लोककल्याणकारी गणतांत्रिक गणराज्य का अर्थ।
***
अंध मोह
*
मध्य प्रदेश बांगला साहित्य अकादमी रजत जयंती समारोह मुख्य अतिथि वक्ता के नाते भाषा के उद्भव, उपादेयता, स्वर-व्यंजन, लिपि के विकास,विविध भाषाओँ बोलिओं के मध्य सामंजस्य, जीवन में भाषा की भूमिका, भाषा से आजीविका, अनुवाद, लिप्यंतरण तथा स्थानीय, देशज व् राष्ट्रीय भाषा में मध्य अंतर्संबंध जैसे जटिल और नीरस विषय को सहज बनाते हुए हिंदी में अपनी बात पूरी की. महिलाएं, बच्चे तथा पुरुष रूचि लेकर सुनते रहे, उनके चेहरों से पता चलता था कि वे बात समझ रहे हैं, सुनना चाहते हैं.
मेरे बाद भागलपुर से पधारे ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता बांगला प्रोफ़ेसर ने बांगला में बोलना प्रारम्भ किया। विस्मय हुआ की बांगलाभाषी जनों ने हिंदी में कही बात मन से सुनी किन्तु बांगला वक्तव्य आरम्भ होते ही उनकी रूचि लगभग समाप्त हो गयी, आपस में बात-चीत होने लगी. वोिदवान वक्त ने आंकड़े देकर बताया कि गीतांजलि के कितने अनुवाद किस-किस भाषा में हुए. शरत, बंकिम, विवेकानंद आदि कासाहित्य किन-किन भाषाओँ में अनूदित हुआ किन्तु यह नहीं बता सके कि कितनी भाषाओँ का साहित्य बांगला में अनूदित हुआ.
कोई कितना भी धनी हो उसके कोष से धन जाता रहे किन्तु आये नहीं तो तिजोरी खाली हो ही जाएगी। प्रयास कर रहा हूँ कि बांगला भाषा को देवनागरी लिपि में लिखा जाने लगे तो हम मूल रचनाओं को उसी तरह पढ़ सकें जैसे उर्दू की रचनाएँ पढ़ लेते हैं. लिपि के प्रति अंध मोह के कारण वे नहीं समझ पा रहे हैं मेरी बात का अर्थ
***
सहिष्णुता
*
'हममें से किसी एक में अथवा सामूहिक रूप से हम सबमें कितनी सहिष्णुता है यह नापने, मापने या तौलने का कोई पैमाना अब तक ईजाद नहीं हुआ है. कोई अन्य किसी अन्य की सहिष्णुता का आकलन कैसे कर सकता है? सहिष्णुता का किसी दल की हार - जीत अथवा किसी सरकार की हटने - बनने से कोई नाता नहीं है. किसी क्षेत्र में कोई चुनाव हो तो देश असहिष्णु हो गया, चुनाव समाप्त तो देेश सहिष्णु हो गया, यह कैसे संभव है?' - मैंने पूछा।
''यह वैसे हो संभव है जैसे हर दूरदर्शनी कार्यक्रमवाला दर्शकों से मिलनेवाली कुछ हजार प्रतिक्रियाओं को लाखों बताकर उसे देश की राय और जीते हुए उम्मीदवार को देश द्वारा चुना गया बताता है, तब तो किसी को आपत्ति नहीं होती जबकि सब जानते हैं कि ऐसी प्रतियोगिताओं में १% लोग भी भाग नहीं लेते।'' - मित्र बोला।
''तुमने जैसे को तैसा मुहावरा तो सुना ही होगा। लोक सभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार ने ढेरों वायदे किये, जितने पर उनके दलाध्यक्ष ने इसे 'जुमला' करार दिया, यह छल नहीं है क्या? छल का उत्तर भी छल ही होगा। तब जुमला 'विदेशों में जमा धन' था, अब 'सहिष्णुता' है. जनता दोनों चुनावों में ठगी गयी।
इसके बाद भी कहीं किसी दल अथवा नेता के प्रति उनके अनुयायियों में असंतोष नहीं है, धार्मिक संस्थाएँ और उनके अधिष्ठाता समाज कल्याण का पथ छोड़ भोग-विलास और संपत्ति - अर्जन को ध्येय बना बैठे हैं फिर भी उन्हें कोई ठुकराता नहीं, सब सर झुकाते हैं, सरकारें लगातार अपनी सुविधाएँ और जनता पर कर - भार बढ़ाती जाती हैं, फिर भी कोई विरोध नहीं होता, मंडियां बनाकर किसान को उसका उत्पाद सीधे उपभोक्ता को बेचने से रोका जाता है और सेठ जमाखोरी कर सैंकड़ों गुना अधिक दाम पर बेचता है तब भी सन्नाटा .... काश! न होती हममें या सहिष्णुता।'' मित्र ने बात समाप्त की।
***
साँसों का कैदी
*
जब पहली बार डायलिसिस हुआ था तो समाचार मिलते ही देश में तहलका मच गया था। अनेक महत्वपूर्ण व्यक्ति और अनगिनत जनता अहर्निश चिकित्सालय परिसर में एकत्र रहते, डॉक्टर और अधिकारी खबरचियों और जिज्ञासुओं को उत्तर देते-देते हलाकान हो गए थे।
गज़ब तो तब हुआ जब प्रधान मंत्री ने संसद में उनके देहावसान की खबर दे दी, जबकि वे मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे। वस्तुस्थिति जानते ही अस्पताल में उमड़ती भीड़ और जनाक्रोश सम्हालना कठिन हो गया। प्रशासन को अपनी भूल विदित हुई तो उसके हाथ-पाँव ठन्डे हो गए। गनीमत हुई कि उनके एक अनुयायी जो स्वयं भी प्रभावी नेता थे, वहां उपस्थित थे, उन्होंने तत्काल स्थिति को सम्हाला, प्रधान मंत्री से बात की, संसद में गलत सूचना हेतु प्रधानमंत्री ने क्षमायाचना की।
धीरे-धीरे संकट टला.… आंशिक स्वास्थ्य लाभ होते ही वे फिर सक्रिय हो गए, सम्पूर्ण क्रांति और जनकल्याण के कार्यों में। बार-बार डायलिसिस की पीड़ा सहता तन शिथिल होता गया पर उनकी अदम्य जिजीविषा उन्हें सक्रिय किये रही। तन बाधक बनता पर मन कहता मैं नहीं हो सकता साँसों का कैदी।
***
पिंजरा
*
परिंदे के पंख फ़ड़फ़ड़ाने से उनकी तन्द्रा टूटी, न जाने कब से ख्यालों में डूबी थीं। ध्यान गया कि पानी तो है ही नहीं है, प्यासी होगी सोचकर उठीं, खुद भी पानी पिया और कटोरी में भी भर दिया।
मन खो गया यादों में, बचपन, गाँव, खेत-खलिहान, छात्रावास, पढ़ाई, विवाह, बच्चे, बच्चों का बसा होना, नौकरी, विवाह और घर में खुद का अकेला होना। यह अकेलापन और अधिक सालने लगा जब वे भी चले गए कभी न लौटने के लिये। दुनिया का दस्तूर, जिसने सुना आया, धीरज धराया और पीठ फेर ली, किसी से कुछ घंटों में, किसी ने कुछ दिनों में।
अंत में रह गया बेटा, बहु तो आयी ही नहीं कि पोते की परीक्षा है, आज बेटा भी चला गया।
उनसे साथ चलने का अनुरोध किया किन्तु उन्हें इस औपचारिकता के पीछे के सच का अनुमान करने में देर न लगी, अनुमान सच साबित हुआ जब बेटे ने उनके दृढ़ स्वर में नकारने के बाद चैन की सांस ली।
चारों ओर व्याप्त खालीपन को भर रही थी परिंदे की आवाज़। 'बाई साब! कब लौं बिसूरत रैहो? उठ खें सपर ल्यो, मैं कछू बना देत हूँ। सो चाय-नास्ता कर ल्यो जल्दी से। जे आ गयी है जिद करके, जाहे सीखना है कछू, तन्नक बता दइयो' सुनकर चौंकी वह। देखा कामवाली के पीछे उसकी अनाथ नातिन छिप रही थी।
'कहाँ छिप रही है? यहाँ आ, कहते हुए हाथ बढ़ाकर बच्ची को खींच लिया अपने पास। क्या सीखेगी पूछा तो बच्ची ने इशारा किया हारमोनियम की तरफ। विस्मय से पूछा यह सीखेगी? अच्छा, सिखाऊँगी तुझे लेकिन तू क्या देगी मुझे?
सुनकर बच्ची ठिठकी कुछ सोचती रही फिर आगे बढ़कर दे दी एक पप्पी। पानी पीकर गा रही थी चिड़िया और मुस्कुरा रही बच्ची के साथ अब उन्हें घर नहीं लग रहा था पिंजरा।
१८.११.२०१५
***
नवगीत :
काल बली है
बचकर रहना
सिंह गर्जन के
दिन न रहे अब
तब के साथी?
कौन सहे अब?
नेह नदी के
घाट बहे सब
सत्ता का सच
महाछली है
चुप रह सहना
कमल सफल है
महा सबल है
कभी अटल था
आज अचल है
अनिल-अनल है
परिवर्तन की
हवा चली है
यादें तहना
ये इठलाये
वे इतराये
माथ झुकाये
हाथ मिलाये
अख़बारों
टी. व्ही. पर छाये
सत्ता-मद का
पैग ढला है
पर मत गहना
बिना शर्त मिल
रहा समर्थन
आज, करेगा
कल पर-कर्तन
कहे करो
ऊँगली पर नर्तन
वर अनजाने
सखा पुराने
तज मत दहना
१८.११.२०१४
***

बुधवार, 22 अक्टूबर 2025

अक्टूबर २२, हास्य, मुक्तक, दोहा, लघुकथा, रिपोर्ताज, गीत, ग़ज़ल, कुण्डलिया, गोवर्धन

सलिल सृजन अक्टूबर २२
ग़ज़ल 
० 
गो वर्धन कर हों समृद्ध हम
विश्व नीड़ बन मिटा सकें तम
.
है कुटुंब सब वसुधा अपनी
हो सद्भाव न किंचित् भी कम
.
हर भाषा शारद-स्वरूप है
शब्द-शब्द भावों का हमदम
.
'गो' जाना, निर्यात-प्रवासन
'वर्धन' करें वृद्धि हरकर गम
.
युग अनुकूल बना निज भाषा
रहें स्वदेशी चमकें चम-चम
.
रुपया हो डॉलर से मँहगा
ट्रम्प ट्रम्प खो झेले मातम
.
भारत का हर नर 'नरेंद्र' हो
'निवेदिता' हो पग में पश्चिम
.
रीति-नीति है प्रीति हमारी
शक्ति साथ, अन्यायी को यम
.
हों संजीव जीव सब जग में
मार निशाचर आँख न हो नम
२२.१०.२०२५
०००
हास्य रचना
'भागवान! तू शक्कर होती
तो बेहतर होता,
कड़वीवाणी नहीं
बोल मीठे सुनकर जीता।'
पति की बात सुनी पत्नी ने
सोच-समझ झट बोली-
''प्राणनाथ! तुम मनुज न होकर
गर अदरक हो जाते
कूट डालती रोज चाय में
हर मेहमां पीता।''
•••
कुंडलिया

मंगल पर दंगल करें, चलो फाँदकर चाँद।
देख मिसाइल भीत हो, सूर्य छिपे जा माँद।।
सूर्य छिपे जा माँद, दसों दिस हो अँधियारा।
दहशतगर्दी साँड़ कहें, हँस मैदां मारा।।
धरती को शमशान, कर रहा आदम हर पल।
हुआ आप शैतान, सृष्टि का करें अमंगल।।
२२.१०.२४
•••
मानस विमर्श - मासपारायण २
*
शुभ कंचन वसुदेव का, जिसने पाया साथ।
भव सागर से तर गया, इंदिरा तजे न हाथ।।
*
छाया में श्री राम की, मिले विभा मिट क्लेश।
सरला छवि है सिया की, वसुधा वरे हमेश।।
*
दीदी ज्ञानेश्वरी जहाँ, वहाँ सर्व कल्याण।
भाव-बाधा को दूर कर, फूकें मृत में प्राण।।
*
जो है दास मुकुंद का, उसके शंकर इष्ट।
वरता पंथ अद्वैत का, होते नष्ट अनिष्ट।।
*
मिलती राम चरित्र में, सकल सृष्टि; हर तत्व।
सब कलि-मल का नाश हो, मिलता जीवन सत्व।।
*
राम कथा महिमा अमित, शाप बने वरदान।
राम नाम गाता रहे, आत्म बने रसखान।।
*
आशुतोष गुरु सृष्टि के, हैं श्रद्धा पर्याय।
उमा शुद्ध विश्वास हैं, जो समझे तर जाय।।
*
गागर में सागर लिए, मानस-तुलसीदास।
जो अंजुरी भर पी सके, वही जीव है ख़ास।।
*
राम कथा शुचि नर्मदा, है वर्मदा पुनीत।
सुनिए गुनिए धर्मदा, पढ़ शर्मदा विनीत।।
*
ज्ञानेश्वरी जी स्नेह की, अमिय नर्मदा धार।
जो पाए आशीष वह, हो जाए भव पार।।
*
वक्ता-श्रोता-काल त्रय, ज्ञान-कर्म-विश्वास।
जगह नहीं संदेह को, श्रद्धा हरति त्रास।।
*
जन-मन के संदेह का, निराकरण है इष्ट।
तुलसी ने कहकर कथा, मेटे सकल अनिष्ट।।
*
कैसा युग निर्माण हो, है यह अपने हाथ।
मानस को रख ह्रदय में, शिव सम्मुख नत माथ।।
*
मानस मानस में बसे, जन-मन हो तब धन्य।
मुकुल मना सरला मति, भज ले राम अनन्य।।
*
निराकार-साकार जो, अकथ-अनादि-अनंत।
निर्गुण-सगुण न दो हुए, एक सादि अरु सांत।।
*
भेद न अंतर है कहीं, आँख खोलकर देख।
तभी मिटे संदेह की, मन से धूमिल रेख।।
*
पूरी करते कामना, सदा भक्त की राम।
'रा'ज रहे जो 'म'ही पर, जिनका नहीं विराम।।
*
जो राक्षस मारें सतत, वे ही राम अकाम।
जिनकी छवि अभिराम है, वे मनमोहक राम।।
*
नामोच्चारण ज्ञान दे, पाप मिटाए ध्यान।
वैदेही-देही मिले, संत करें गुणगान।।
*
जिज्ञासा मैया सती, श्रद्धा उमा न भूल।
पूरक दोनों जानिए, ज्यों कलिका अरु फूल।।
२२-१०-२०२२
***
तीन मुक्तक-
*
मौजे रवां१ रंगीं सितारे, वादियाँ पुरनूर२ हैं
आफ़ताबों३ सी चमकती, हक़ाइक४ क्यों दूर हैं
माहपारे५ ज़िंदगी की बज्म६ में आशुफ्ता७ क्यों?
फिक्रे-फ़र्दा८ सागरो-मीना९ फ़िशानी१० सूर हैं
१. लहरें, २. प्रकाशित, ३. सूरजों, ४. सचाई (हक़ का बहुवचन),
५. चाँद का टुकड़ा, ६. सभा, ७. विकल, ८. अगले कल की चिंता,
९. शराब का प्याला-सुराही, १०. बर्बाद करना, बहाना।
*
कशमकश१ मासूम२ सी, रुखसार३, लब४, जुल्फें५ कमाल६
ख्वाब७ ख़ालिक८ का हुआ आमद९, ले उम्मीदो-वसाल१०
फ़खुर्दा११ सरगोशियाँ१२, आगाज़१३ से अंजाम१४ तक
माजी-ए-बर्बाद१५ हो आबाद१६ है इतना सवाल१७
१. उलझन, २. भोली, ३. गाल, ४. होंठ, ५. लटें, ६. चमत्कार, ७. स्वप्न,
८. उपयोगकर्ता, ९. साकार, १०. मिलन की आशा, ११. कल्याणकारी,
१२. अफवाहें, १३. आरम्भ, १४. अंत, १५. नष्ट अतीत, १६. हरा-भरा, १७. माँग।
*
गर्द आलूदा१ मुजस्सम२ जिंदगी के जलजले३
मुन्जमिद४ सुरखाब५ को बेआब६ कहते दिलजले७
हुस्न८ के गिर्दाब९ में जा कूदता है इश्क़१० खुद
टूटते बेताब११ होकर दिल, न मिटते वलवले१२
१. धुल धूसरित, २. साकार, ३. भूकंप, ४. बेखर, ५. दुर्लभ पक्षी,
६. आभाहीन, ७. ईर्ष्यालु, ८. सौन्दर्य, ९. भँवर, १०. प्रेम, ११. बेकाबू,
१२. अरमान।
***
***
दोहा सलिला
*
जूही-चमेली देखकर, हुआ मोगरा मस्त
सदा सुहागिन ने बिगड़, किया हौसला पस्त
*
नैन मटक्का कर रहे, महुआ-सरसों झूम
बरगद बब्बा खाँसते। क्यों? किसको मालूम?
*
अमलतास ने झूमकर, किया प्रेम-संकेत
नीम षोडशी लजाई, महका पनघट-खेत
*
अमरबेल के मोह में, फँसकर सूखे आम
कहे वंशलोचन सम्हल, हो न विधाता वाम
*
शेफाली के हाथ पर, नाम लिखा कचनार
सुर्ख हिना के भेद ने, खोदे भेद हजार
*
गुलबकावली ने किया, इन्तिज़ार हर शाम
अमन-चैन कर दिया है,पारिजात के नाम
*
गौरा हेरें आम को, बौरा हुईं उदास
मिले निकट आ क्यों नहीं, बौरा रहे उदास?
*
बौरा कर हो गया है, आम आम से ख़ास
बौरा बौराये, करे दुनिया नहक हास
***
२०-६-२०१६
lnct jabalpur
***
पुस्तक सलिला –
‘प्रेरक अर्थपूर्ण कथन एवं सूक्तियाँ’ सर्वोपयोगी कृति
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – प्रेरक अर्थपूर्ण कथन एवं सूक्तियाँ, हीरो वाधवानी, हिंदी सूक्ति संग्रह, प्रथम संस्करण २०१६, ISBN९७८-८१-९२२००७०-६-९, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ १४४, मूल्य३००/-, राघव प्रकाशन ए ३२ जनता कालोनी, जयपुर]
*
मानव-जीवन में एक-दूसरे के अनुभवों से लाभ उठाने और अपने आचार-विचार को नियंत्रित करने की परंपरा चिरकाल से है. आरम्भ में बड़े-बुजुर्ग, समझदार व्यक्ति या गुरु से जीवन-सूत्र मिला करते करते थे. लिपि के आविष्कार के पश्चात लिखित विचार विनिमय संभव हो सका. घाघ-भड्डरी आदि की कहावतें, लोकोक्तियाँ वाचिक तथा लिखित दोनों रूपों में जनसामान्य का मार्गदर्शन करती रहीं. क्रमश: विचारकों तथा सुकवियों की काव्य पंक्तियाँ सार्वजनिक स्थलों पर अंकित करने के परिपाटी पुष्ट हुई. यांत्रिक मुद्रण ने स्वेड मार्टिन जैसे विदेशी विचारों की किताबों को भारत में लोकप्रियता दिलाई. संगणक और अंतर्जाल ने ब्लॉग चिट्ठों, ऑरकुट, फेसबुक, ट्विट्टर, वाट्स एप जैसे अंतरजाल स्थल सुलभ कराये हैं.
श्री हीरो वाधवानी वैचारिक अदान-प्रदान के लिए फेसबुक का नियमित उपयोग करते रहे हैं. तो से पांच पंक्तियों के विचार सूत्र समयाभाव तथा अति व्यस्तता की जीवन शैली में लिखने, पढ़ने, समझने के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं. ‘अस्वस्थ शरीर, बुरी आदतें और द्वेष हमारी स्वयं की उपज हैं’ जैसे सद्विचार मानव-आचरण को नियंत्रित करते हैं. ‘असफलता से सफलता वर्षों की तरह दूर नहीं होती’ पढ़कर निराश मन नए सिरे से संघर्ष करने की प्रेरणा पा सकता है. ‘अच्छे इंसान पेड़ की तरह होते हैं, सबके काम आते हैं’ इस उद्धरण से अच्छा बनाने के लिए सबके काम आने तथा पेड़ न काटने के २ सद्विचार मिलते हैं.
आश्चर्यजनक किन्तु सत्य, अपूर्णता, भावना, एकता और मेलजोल, परिश्रम, सादगी, समुद्र, उदासीनता, स्वास्थ्य, भीतर का दर्द आदि शीर्षकों में उद्धरणों को विभाजित किया गया है. कविता, लघुकथा आदि विधाओं का भी उपयोग किया गया है. हीरो जी की भाषा सहज बोधगम्य, सरस प्रसाद गुण संपन्न है. सामान्य पाठक कथ्य को सुगमता से ग्रहण कर लेता है.
‘सबसे अधिक धनी वह है जो स्वास्थ्य, संतुष्ट और सदाचारी है .’, ‘सभी ताले चाबी से नहीं खुलते. कुछ प्यार, विश्वास और सूझ-बूझ से भी खुलते हैं.’, ‘परिश्रम सभी समस्याओं का हल है.’, ‘परिश्रम परस पत्थर और अलादीन का चिराग है. जैसे कथन हर मनुष्य के मन को छू पाते हैं.
पुस्तक की छपाई सुरुचिपूर्ण है, पाठ्य शुद्धि सावधानी से की गयी है. आवरण चित्र धरती को हरी चादर उढ़ाने की प्रेरणा देता है. यह पुस्तक घरों में रखने और उपहार देने के लिए सर्वथा उपयुक्त है. श्री हीरो वाधवानी को इस सर्वोपयोगी कृति को सामने लाने के लिए शुभकामनाएँ.
संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा’सलिल’, २०४ वोजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.
पुस्तक सलिला –
‘रात अभी स्याह नहीं’ आशा से भरपूर गजलें
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – रात अभी स्याह नहीं, अरुण अर्णव खरे, हिंदी गजल संग्रह, प्रथम संस्करण २०१५, ISBN९७८-८१-९२५२१८-५-५, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ८०, मूल्य १५०/-, गुफ्तगू प्रकाशन१२३ ए /१, ७ हरवारा, धूमनगंज, इलाहाबाद२११०११, दूरभाष ०७५५ ४२४३४४५, रचनाकार सम्पर्क – डी १/३५ दानिश नगर, होशंगाबाद मार्ग भोपाल २६, चलभाष ९८९३००७७४४]
*
मानव और अमानव के मध्य मूल अंतर अनुभूतियों को व्यवस्थित तरीके से व्यक्त कर पण और न कर पाना है. अनुभूतियों को व्यक्त करने का माध्यम भाषा है. गद्य और पद्य दो विधाएँ हैं जिनके माध्यम से अनुभूति को व्यक्त किया जाता है. आरम्भ में वाचिक अभिव्यक्ति ही अपनी बात प्रस्तुत करने का एक मात्र तरीका था किंतु लिपि विकसित होने के साथ-साथ अभिव्यक्ति का अंकन भी संभव हो सका. क्रमश: व्याकरण और पिंगल का विकास हुआ. पिंगल ने विविध पद्य प्रारूपों और छंदों को वर्गीकृत कर लेखन के नियमादि निर्धारित किये. विद्वज्जन भले ही लेखन का मूल्यांकन नियम-पालन के आधार पर करें, जनगण तो अनुभूतियों की अभिव्यक्ति और व्यक्त अनुभूतियों की मर्मस्पर्शिता को ही अधिक महत्व देता है. ‘लेखन के लिए नियम’ या ‘नियम के लिए लेखन’? ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तरह इस विमर्श का भी कोई अंत नहीं है.
विवेच्य कृति ‘रात अभी स्याह नहीं’ गजल शिल्प की अभिव्यक्ति प्रधान ७० रचनाओं तथा कुछ दोहों को समेटे है. रचनाकार अभियंता अरुण अर्णव खरे अनुभूति के प्रागट्य को प्रधान तथा शैल्पिक विधानों को द्वितीयिक वरीयता देते हुए, हिंदी के भाषिक संस्कार के अनुरूप रचना करते हैं. गजल कई भाषाओँ में लिखी जानेवाली विधा है. अंग्रेजी, जापानी, जर्मन, रुसी, चीनी, तमिल, तेलुगु आदि भाषाओँ में गजल लिखी जाते समय तुकांत-पदांत के उच्चारण साम्य को पर्याप्त माना जाता है किन्तु हिंदी गजल की बात सामने आते ही अरबी-फारसी के अक्षरों, व्याकरण-नियमों तथा मान्यताओं के निकष पर मूल्यांकित कर विवेचक अपनी विद्वता और रचनाकार की असामर्थ्य प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं. अरुण जी आत्म-कथन में नम्रतापूर्वक किन्तु स्पष्टता के साथ अनुभवों की अभिव्यक्ति से प्राप्त आत्म-संतोष को अपने काव्य-लेखन का उद्देश्य बताते हैं.
डॉ.राहत इंदौरी के अनुसार ‘शायरी के बनाए हुए फ्रेम और ग्रामर पर वो ज्यादा तवज्जो नहीं देते’. यह ग्रामर कौन सा है? अगर उर्दू का है तो हिंदी रचनाकार उसकी परवाह क्यों करे? यदि हिंदी का है तो उसका उल्लंघन कहाँ-कितना है? यह उर्दू शायर नहीं हिंदी व्याकरण का जानकार तय करेगा. इम्त्याज़ अहमद गाज़ी नय्यर आक़िल के हवाले से हिन्दीवालों पर ‘गज़ल के व्याकरण का पालन करने में असफल’ रहने का आरोप लगते हैं. हिंदीवाले उर्दू ग़ज़लों को हिंदी व्याकरण और पिंगल के निकष पर कसें तो वे सब दोषपूर्ण सिद्ध होंगी. उर्दू में तक्तीअ करने और हिंदी में मात्र गिनने की नियम अलग-अलग हैं. उर्दू में मात्रा गिराने की प्रथा को हिंदी में दोष है. हिंदी वर्णमाला में ‘ह’ की ध्वनि के लिए केवल एक वर्ण ‘ह’ है उर्दू में २ ‘हे’ और ‘हम्ज़ा’. दो पदांतों में दो ‘ह’ ध्वनि के दो शब्द जिनमें ‘हे’ और ‘हम्ज़ा’ हों का प्रयोग हिंदी व्याकरण के अनुसार सही है जबकि उर्दू के अनुसार गलत. हिंदी गजलकार से उर्दू-अरबी-फारसी जानने की आशा कैसे की जा सकती है?
अरुण जी की हिंदी गज़लें रस-प्रधान हैं –
सपनों में बतियानेवाले, भला बता तू कौन,
मेरी नींद चुरानेवाले, भला बता तू कौन.
बेटी’ पर २ रचनाओं में उनका वात्सल्य उभरता है-
मुझको होती है सचमुच हैरानी बेटी
इतनी जल्दी कैसे हुई सयानी बेटी?
*
गीत राग संगीत रागिनी
वीणा और सितार बेटी
सामाजिक जीवन में अनुत्तरदायित्वपूर्ण आचरण को स्वविवेक तथा आत्म-संयम से ही नियंत्रित किया जा सकता है-
मस्ती-मस्ती में दिल की मर्यादा बनी रहे
लेनी होगी तुमको भी यह जिम्मेदारी फाग में
अरुण जी की विचारप्रधानता इन रचनाओं में पंक्ति-पंक्ति पर मुखर है. वे जो होते देखते हैं, उसका मूल्यांकन कर प्रतिक्रिया रूप में कवू कविता रचते हैं. छंद के तत्वों (रस, मात्राभार, गण, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक) आदि का सम्यक संतुलन उनकी रचनाओं में रवानगी पैदा करेगा. उर्दू के व्यामोह से मुक्त होकर हिंदी छ्न्दाधारित रचनाएँ उन्हें सहज-साध्य और सरस अभिव्यक्ति में अधिक प्रभावी बनाएगी. सहज भावाभिव्यक्ति अरुण जी की विशेषता है.
तुमने आँखों के इशारे से बुलाया होगा
तब ही वह खुद में सिमट, इतना लजाया होगा
खोल दो खिड़कियाँ ताज़ी हवा तो आये, बिचारा बूढ़ा बरगद बड़ा उदास है, ऊँचा उठा तो जमीन पर फिर लौटा ही नहीं, हर बात पर बेबाकी अच्छी नहीं लगती अदि अभिव्यक्तियाँ सम्बव्नाओं की और इंगित करती हैं.
परिशिष्ट के अंतर्गत बब्बा जी, दादी अम्मा, मम्मी, पापा और भैया से साथ न होकर बेटी सबसे विशिष्ट होने के कारण अलग है.
फूलों-बीच छिड़ी बहस, किसका मोहक रूप
कौन-कौन श्रंगार के, पूजा के अनुरूप
*
सांस-सांस केसर घुली, अंग-अंग मकरंद
अनपढ़ मन कहने लगा, गीत गजल और छंद
अरुण जी के दोहे अधिक प्रभावी हैं. अधिक लिखने पर क्रमश: निखार आयेगा.
संपर्क आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
मुक्तक
*
नेहा हों श्वास सभी
गेहा हो आस सभी
जब भी करिये प्रयास
देहा हों ख़ास सभी
*
अरिमर्दन सौमित्र कर सके
शक-सेना का अंत कर सके
विश्वासों की फसल उगाये
अंतर्मन को सन्त कर सके
*
विश्व दीपक जलाये, तज झालरों को
हँसें ठेंगा दिखा चीनी वानरों को
कुम्हारों की झोपड़ी में हो दिवाली
सरहदों पर मार पाकी वनचरों को
*
काले कोटों को बदल, करिये कोट सफेद
प्रथा विदेश लादकर, तनिक नहीं क्यों खेद?
न्याय अँधेरा मिटाकर दे उजास-विश्वास
हो अशोक यह देश जब पूजा जाए स्वेद
*
मिलें इटावा में 'सलिल' देव और देवेश
जब-जब तब-तब हर्ष में होती वृद्धि विशेष
धर्म-कर्म के मर्म की चर्चा होती खूब
सुन श्रोता के ज्ञान में होती वृद्धि अशेष
*
मोह-मुक्ति को लक्ष्य अगर पढ़िए नित गीता
मन भटके तो राह दिखा देती परिणिता
श्वास सार्थक तभी 'सलिल' जब औरों का हित
कर पाए कुछ तभी सार्थक संज्ञा नीता
*
हरे अँधेरा फैलकर नित साहित्यलोक
प्रमुदित हो हरश्वास तब, मिठे जगत से शोक
जन्में भू पर देव भी,ले-लेकर अवतार
स्वर्गादपि होगा तभी सुन्दर भारत-लोक
*
नलिनी पुरोहित हो प्रकृति-पूजन-पथ वरतीं
सलिल-धार की सकल तरंगे वन्दन करतीं
विजय सत्य-शिव-सुंदर की तब ही हो पाती
सत-चित-आनंद की संगति जब मन को भाती
*
कल्पना जब जागती है, तभी बनते गीत सारे
कल्पना बिन आरती प्रभु की पुजारी क्यों उतारे?
कल्पना की अल्पना घुल श्वास में नव आस बनती
लास रास हास बनकर नित नए ही चित्र रचती
*
***
लघुकथा
कर्तव्य और अधिकार
*
मैं उन्हें 'गुरु' कहता हूँ, कहता ही नहीं मानता भी हूँ। मानूँ क्यों नहीं, उनसे बहुत कुछ सीखा भी है। वे स्वयं को विद्यार्थी मानते हैं। मुझ जैसे कई नौसिखियों का गद्य-पद्य की कई विधाओं में मार्गदर्शन करते हैं, त्रुटि सुधारते हैं और नयी-नयी विधाएँ सिखाते हैं,सामाजिक-पारिवारिक कर्तव्य निभाने की प्रेरणा और नए-नए विचार देते हैं। आधुनिक गुरुओं के आडम्बर से मुक्त सहज-सरल
एक दिन सन्देश मिला कि उनके आवास पर एक साहित्यिक आयोजन है। मैं अनिश्चय में पड़ गया कि मुझे जाना चाहिए या नहीं? सन्देश का निहितार्थ मेरी सहभागिता हो तो न जाना ठीक न होगा, दूसरी ओर बिना आमंत्रण उपस्थिति देना भी ठीक नहीं लग रहा था। मन असमंजस में था।
इसी ऊहापोह में करवटें बदलते-बदलते झपकी लग गयी।
जब आँख खुली तो अचानक दिमाग में एक विचार कौंधा अगर उन्हें गुरु मानता हूँ तो गुरुकुल का हर कार्यक्रम मेरा अपना है, आमंत्रण की अपेक्षा क्यों? आगे बढ़कर जिम्मेदारी से सब कार्य सम्हालूँ। यही है मेरा कर्तव्य और अधिकार।
२२.१०.२०१६
***
एक सामयिक रचना:
अपना खून खून है
*
अपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
*
हम नेता राजाधिराज हैं
लोकतंत्र के नायक
कोटि-कोटि जनता के हम
अलबेले भाग्य-विधायक
लूट तिजोरी भारत की
धन धरें विदेशों में हम
वसुधा को परिवार मानते
घपले अपने सायक
जनप्रतिनिधि बन
जनहित रौंदे
करने दो मनमानी
अपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
*
दाल दलें सबकी छाती पर
जन्मसिद्ध अधिकार
सारा देश बेच दें पल में
प्यारा निज परिवार
मतदाता को भूखा मारें
मिटे न अपनी भूख
स्वार्थ साध,सर्वार्थ त्याग कर
हम करते उपकार
बेशर्मी-मोटी
चमड़ी है धन
पूँजी लासानी
अपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
*
भले निकम्मी संतति
थोपें तुम पर कहकर चंदन
लोफर चोर मवाली को
दे टिकिट बना दें सज्जन
ताली बजा, वोट देना ही
जनगण का अधिकार
पत्रकार को हम खरीद लें
होगा महिमा-मंडन
भूखा मार,
राहतें बाँटें
जय बोलो, हम दानीअपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
२२-१०-२०१५
***
नवगीत:
दीपमालिके!
दीप बाल के
बैठे हैं हम
आ भी जाओ
अब तक जो बीता सो बीता
कलश भरा कम, ज्यादा रीता
जिसने बोया निज श्रम निश-दिन
उसने पाया खट्टा-तीता
मिलकर श्रम की
करें आरती
साथ हमारे
तुम भी गाओ
राष्ट्र लक्ष्मी का वंदन कर
अर्पित निज सीकर चन्दन कर
इस धरती पर स्वर्ग उतारें
हर मरुथल को नंदन वन कर
विधि-हरि -हर हे!
नमन तुम्हें शत
सुख-संतोष
तनिक दे जाओ
अंदर-बाहर असुरवृत्ति जो
मचा रही आतंक मिटा दो
शक्ति-शारदे तम हरने को
रवि-शशि जैसा हमें बना दो
चित्र गुप्त जो
रहा अभी तक
झलक दिव्य हो
सदय दिखाओ
***
नवगीत:
डॉक्टर खुद को
खुदा समझ ले
तो मरीज़ को
राम बचाये
लेते शपथ
न उसे निभाते
रुपयों के
मुरीद बन जाते
अहंकार की
कठपुतली हैं
रोगी को
नीचा दिखलाते
करें अदेखी
दर्द-आह की
हरना पीर न
इनको भाये
अस्पताल या
बूचड़खाने?
डॉक्टर हैं
धन के दीवाने
अड्डे हैं ये
यम-पाशों के
मँहगी औषधि
के परवाने
गैरजरूरी
होने पर भी
चीरा-फाड़ी
बेहद भाये
शंका-भ्रम
घबराहट घेरे
कहीं नहीं
राहत के फेरे
नहीं सांत्वना
नहीं दिलासा
शाम-सवेरे
सघन अँधेरे
गोली-टॉनिक
कैप्सूल दें
आशा-दीप
न कोई जलाये
***
नव गीत:
कम लिखता हूँ
अधिक समझना
अक्षर मिलकर
अर्थ गह
शब्द बनें कह बात
शब्द भाव-रस
लय गहें
गीत बनें तब तात
गीत रीत
गह प्रीत की
हर लेते आघात
झूठ बिक रहा
ठिठक निरखना
एक बात
बहु मुखों जा
गहती रूप अनेक
एक प्रश्न के
हल कई
देते बुद्धि-विवेक
कथ्य एक
बहु छंद गह
ले नव छवियाँ छेंक
शिल्प
विविध लख
नहीं अटकना
एक हुलास
उजास एक ही
विविधकारिक दीप
मुक्तामणि बहु
समुद एक ही
अगणित लेकिन सीप
विषम-विसंगत
कर-कर इंगित
चौक डाल दे लीप
भोग
लगाकर
आप गटकना
२२-१०-२०१४
***
गीत:
कौन रचनाकार है?....
*
कौन है रचना यहाँ पर?,
कौन रचनाकार है?
कौन व्यापारी? बताओ-
क्या-कहाँ व्यापार है?.....
*
रच रहा वह सृष्टि सारी
बाग़ माली कली प्यारी.
भ्रमर ने मधुरस पिया नित-
नगद कितना?, क्या उधारी?
फूल चूमे शूल को,
क्यों तूल देता है ज़माना?
बन रही जो बात वह
बेबात क्यों-किसने बिगारी?
कौन सिंगारी-सिंगारक
कर रहा सिंगार है?
कौन है रचना यहाँ पर?,
कौन रचनाकार है?
*
कौन नट-नटवर नटी है?
कौन नट-नटराज है?
कौन गिरि-गिरिधर कहाँ है?
कहाँ नग-गिरिराज है?
कौन चाकर?, कौन मालिक?
कौन बन्दा? कौन खालिक?
कौन धरणीधर-कहाँ है?
कहाँ उसका ताज है?
करी बेगारी सभी ने
हर बशर बेकार है.
कौन है रचना यहाँ पर
कौन रचनाकार है?....
*
कौन सच्चा?, कौन लबरा?
है कसाई कौन बकरा?
कौन नापे?, कहाँ नपना?
कौन चौड़ा?, कौन सकरा?.
कौन ढांके?, कौन खोले?
राज सारे बिना बोले.
काज किसका?, लाज किसकी?
कौन हीरा?, कौन कचरा?
कौन संसारी सनातन
पूछता संसार है?
कौन है रचना यहाँ पर?
कौन रचनाकार है?
२२.१०.२०१०
***
रिपोर्ताज-
रिपोर्ताज गद्य-लेखन की एक विधा है। रिपोर्ताज फ्रांसीसी भाषा का शब्द है।
रिपोर्ट अंग्रेजी भाषा का शब्द है। रिपोर्ट किसी घटना के यथातथ्य वर्णन को कहते हैं। रिपोर्ट सामान्य रूप से समाचारपत्र के लिये लिखी जाती है और उसमें साहित्यिकता नहीं होती है। रिपोर्ट के कलात्मक तथा साहित्यिक रूप को रिपोर्ताज कहते हैं। रिपोर्ट का अर्थ सिर्फ़ सूचना देने तक ही सीमित भी किया जा सकता हैं, जबकि रिपोर्ताज हिंदी गद्य की एक प्रकीर्ण विधा हैं। इसके लेखन का भी एक विशिष्ट तरीका है। वास्तव में रेखाचित्र की शैली में प्रभावोत्पादक ढंग से लिखे जाने में ही रिपोर्ताज की सार्थकता है। आँखों देखी और कानों सुनी घटनाओं पर भी रिपोर्ताज लिखा जा सकता है। कल्पना के आधार पर रिपोर्ताज नहीं लिखा जा सकता है। घटना प्रधान होने के साथ ही रिपोर्ताज को कथातत्त्व से भी युक्त होना चाहिये। रिपोर्ताज लेखक पत्रकार तथा कलाकार दोनों होता है। रिपोर्ताज लेखक के लिये आवश्यक है कि वह जनसाधारण के जीवन की सच्ची और सही जानकारी रखे। तभी रिपोर्ताज लेखक प्रभावोत्पादक ढंग से जनजीवन का इतिहास लिख सकता है।यह किसी घटना को अपनी मानसिक छवि में ढालकर प्रस्तुत करने का तरीका है। रिपोर्ताज में घटना को कलात्मक और साहित्यिक रूप दिया जाता है। द्वितीय महायुद्ध में रिपोर्ताज की विधा पाश्चात्य साहित्य में बहुत लोकप्रिय हुई। विशेषकर रूसी तथा अंग्रेजी साहित्य में इसका प्रचलन रहा। हिन्दी साहित्य में विदेशी साहित्य के प्रभाव से रिपोर्ताज लिखने की शैली अधिक परिपक्व नहीं हो पाई है। शनैः-शनैः इस विधा में परिष्कार हो रहा है। सर्वश्री प्रकाशचन्द्र गुप्त, रांगेय राघव, प्रभाकर माचवे तथा अमृतराय आदि ने रोचक रिपोर्ताज लिखे हैं। हिन्दी में साहित्यिक, श्रेष्ठ रिपोर्ताज लिखे जाने की पूरी संभावनाएँ हैं।
रिपोर्ताज लिखते समय, इन बातों का ध्यान रखना चाहिए-
रिपोर्ताज में घटना प्रधान होना चाहिए, व्यक्ति नहीं।
रिपोर्ताज केवल वर्णनात्मक नहीं, कथात्मकता से भी युक्त होना चाहिए।
रिपोर्ताज में बहुमुखी कथ्य, चरित्र, संवाद, और प्रामाणिकता आवश्यक है।
रिपोर्ताज में भाषा और शैली प्रसंगानुकूल हो।
रिपोर्ताज के कुछ उदाहरण:
'लक्ष्मीपुरा' हिन्दी का पहला रिपोर्ताज माना गया है। इसका प्रकाशन सुमित्रानंदन पंत के संपादन में निकलने वाली 'रूपाभ' पत्रिका के दिसंबर, १९३८ ई. के अंक में हुआ था।
'भूमिदर्शन की भूमिका' शीर्षक रिपोर्ताज सन् १९६६ ई. में दक्षिण बिहार में पड़े सूखे से संबंधित है। यह रिपोर्ताज ६ टुकड़ों में ९ दिसम्बर १९६६ से लेकर १३ जनवरी १९६७ तक 'दिनमान' पत्र में छपा है।
हिंदी के प्रमुख रिपोर्ताज मे 'तूफानों के बीच' (रांगेय राघव), प्लाट का मोर्चा (शमशेर बहादुर सिंह), युद्ध यात्रा (धर्मवीर भारती) आदि हैं। कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर', विष्णु प्रभाकर, प्रभाकर माचवे, श्याम परमार, अमृतराय, रांगेय राघव तथा प्रकाश चन्द्र गुप्त आदि प्रसिद्ध रिपोर्ताजकार हैं
रिपोर्ट, किसी भी घटना का आंखों देखा वर्णन होता हैं। यह लिखित या मौखिक किसी भी रूप मे एवं भिन्न प्रारूप मे हो सकती हैं किंतु साहित्य के एक विशिष्ट प्रारूप मे लिखी गई रिपोर्ट को रिपोर्ताज कहा जाता हैं। रिपोर्ताज हिंदी पत्रकारिता से संबंधित विधा है।
रिपोर्ट किसी भी घटना का सिर्फ तथ्यात्मक वर्णन होता हैं, जबकि रिपोर्ताज घटना का कलात्मक वर्णन हैं।
रिपोर्ताज साहित्य के निश्चित प्रारूप मे लिखे जाते हैं ताकि इसको पढ़ते समय पाठकों की रुचि बनी रहे।
रिपोर्ट नीरस भी हो सकती हैं, जबकि रिपोर्ताज मे लेखन की कलात्मकता इसे सरस बना देती हैं।
रिपोर्ट के लेखन की शैली सामान्य होती हैं, जबकि रिपोर्ताज लेखन की विशिष्ट शैली उसकी विषयवस्तु मे चित्रात्मकता का गुण उत्पन्न कर देती हैं।
लेखन मे चित्रात्मकता, वह गुण होता हैं जिसके कारण रिपोर्ताज पढ़ते समय पाठकों के मस्तिष्क पटल पर घटना के चित्र उभरने लगते हैं। चित्रात्मकता पाठकों के कौतूहल को बढ़ा देती हैं, जिससे पाठक एक बार पढ़ना प्रारम्भ करने के बाद पूरा वृत्तांत पढ़कर ही चैन लेता हैं।
रिपोर्ताज, किसी घटना का रोचक एवं सजीव वर्णन होता हैं। लेखन में सजीवता एवं रोचकता उत्पन्न करने के लिए ही लेखक चित्रात्मक शैली का प्रयोग करते हैं।
सहसा घटित होने वाली अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना ही इस विधा को जन्म देने का मुख्य कारण बन जाती है। रिपोर्ताज विधा पर सर्वप्रथम शास्त्रीय विवेचन श्री शिवदान सिंह चौहान ने मार्च 1941 मे प्रस्तुत किया था। हिन्दी मे रिपोर्ताज की विधा प्रारंभ करने का श्रेय हंस पत्रिका को है। जिसमें समाचार और विचार शीर्षक एक स्तम्भ की सृष्टि की गई। इस स्तम्भ मे प्रस्तुत सामग्री रिपोर्ताज ही होती हैं।
रिपोर्ताज का जन्म हिंदी में बहुत बाद में हुआ लेकिन भारतेंदुयुगीन साहित्य में इसकी कुछ विशेषताओं को देखा जा सकता है। उदाहरणस्वरूप, भारतेंदु ने स्वयं जनवरी, 1877 की ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ में दिल्ली दरबार का वर्णन किया है, जिसमें रिपोर्ताज की झलक देखी जा सकती है। रिपोर्ताज लेखन का प्रथम सायास प्रयास शिवदान सिंह चौहान द्वारा लिखित ‘लक्ष्मीपुरा’ को मान जा सकता है। यह सन् 1938 में ‘रूपाभ’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ। इसके कुछ समय बाद ही ‘हंस’ पत्रिका में उनका दूसरा रिपोर्ताज ‘मौत के खिलाफ ज़िन्दगी की लड़ाई’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। हिंदी साहित्य में यह प्रगतिशील साहित्य के आरंभ का काल भी था। कई प्रगतिशील लेखकों ने इस विधा को समृद्ध किया। शिवदान सिंह चौहान के अतिरिक्त अमृतराय और प्रकाशचंद गुप्त ने बड़े जीवंत रिपोर्ताजों की रचना की।
रांगेय राघव रिपोर्ताज की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ लेखक कहे जा सकते हैं। सन् 1946 में प्रकाशित ‘तूफानों के बीच में’ नामक रिपोर्ताज में इन्होंने बंगाल के अकाल का बड़ा मार्मिक चित्रण किया है। रांगेय राघव अपने रिपोर्ताजों में वास्तविक घटनाओं के बीच में से सजीव पात्रों की सृष्टि करते हैं। वे गरीबों और शोषितों के लिए प्रतिबद्ध लेखक हैं। इस पुस्तक के निर्धन और अकाल पीड़ित निरीह पात्रों में उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता को देखा जा सकता है। लेखक विपदाग्रस्त मानवीयता के बीच संबल की तरह खड़ा दिखाई देता है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के रिपोर्ताज लेखन का हिंदी में चलन बढ़ा। इस समय के लेखकों ने अभिव्यक्ति की विविध शैलियों को आधार बनाकर नए प्रयोग करने आरंभ कर दिए थे। रामनारायण उपाध्याय कृत ‘अमीर और गरीब’ रिपोर्ताज संग्रह में व्यंग्यात्मक शैली को आधार बनाकर समाज के शाश्वत विभाजन को चित्रित किया गया है। फणीश्वरनाथ रेणु के रिपोर्ताजों ने इस विधा को नई ताजगी दी। ‘)ण जल धन जल’ रिपोर्ताज संग्रह में बिहार के अकाल को अभिव्यक्ति मिली है और ‘नेपाली क्रांतिकथा’ में नेपाल के लोकतांत्रिक आंदोलन को कथ्य बनाया गया है।
अन्य महत्वपूर्ण रिपोर्ताजों में भंदत आनंद कौसल्यायन कृत ‘देश की मिट्टी बुलाती है’, धर्मवीर भारती कृत ‘युद्धयात्रा’ और शमशेर बहादुर सिंह कृत ‘प्लाट का मोर्चा’ का नाम लिया जा सकता है।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अपने समय की समस्याओं से जूझती जनता को हमारे लेखकों ने अपने रिपोर्ताजों में हमारे सामने प्रस्तुत किया है। लेकिन हिंदी रिपोर्ताज के बारे में यह भी सच है कि इस विधा को वह ऊँचाई नहीं मिल सकी जो कि इसे मिलनी चाहिए थी।
***

मंगलवार, 23 सितंबर 2025

सितंबर २२, मंदिर-मस्जिद, दोहा, कुण्डलिया, शब्द प्रयोग, मुक्तक

 सलिल सृजन सितंबर २३

*
मुक्तक
नारी भारी नर हल्का है
वह फल यह केवल छिलका है
चाँद कहोगे यदि तुम उसको-
वह बोले 'तू तो उल्का है'।
*
चार न बजते जब, न क्यों कहते उसे अ-चार?
कारण खट्टे दाँत कर, करता चुप्प अचार।
दाँत निपोरो व्यर्थ क्यों जब खुद हो बे-दाँत
कहती दाल बघारकर, और न शान बघार।।
*
जो न नार उसको कभी कहना नहीं अ-नार
जो सु-नार क्या उसे तुम कहते कभी सुनार?
शब्द-अर्थ का खेल है धूप-छाँव सम मीत-
जो बे-कार न मानिए आप उसे बेकार।।
*
बात करें बेबात गर हो उसमें भी अर्थ
बिना अर्थ हर बात को आप मानिए व्यर्थ।
रहे स्व-अर्थ, न स्वार्थ हो, साध्य 'सलिल' सर्वार्थ -
अगर न कुछ परमार्थ तो होगा सिर्फ अनर्थ।।
***
विमर्श
- शब्दों का गलत प्रयोग मत कीजिए।
क्यों पूछते हो राह यह जाती कहाँ है?
आदमी जाते हैं नादां, रास्ते जाते नहीं हैं।।
- हम रेल में नहीं रेलगाड़ी(ट्रेन) में बैठते हैं।
रेल = पटरी
- जबलपुर आ गया कहना ग़लत है।
जबलपुर (स्थान) कहीं आता-जाता नहीं, हम आते-जाते हैं।
- पदनाम उभय लिंगी होता है। प्रधान मंत्री स्त्री हो या पुरुष प्रधान मंत्री ही कहा जाता है, प्रधान मंत्रिणी नहीं होता। सभापति महिला हो तो सभा पत्नी नहीं कही जा सकती। राष्ट्रपति भी नहीं बदलता। इसलिए शिक्षक, चिकित्सक आदि भी नहीं बदलेंगे, शिक्षिका, चिकित्सका, अधीक्षिका आदि प्रयोग गलत हैं।
-भाषा का भी विज्ञान होता है। साहित्य लिखते समय भाषा शास्त्र और भाषा विज्ञान का ध्यान रखना जरूरी है।
२३.९.२०२४
***
दोहा सलिला
*
मीरा का पथ रोकना, नहीं किसी को साध्य।
दिखें न लेकिन साथ हैं, पल-पल प्रभु आराध्य।।
*
श्री धर कर आचार्य जी, कहें करो पुरुषार्थ।
तभी सुभद्रा विहँसकर, वरण करेगी पार्थ।।
*
सरस्वती-सुत पर रहे, अगर लक्ष्मी-दृष्टि।
शक्ति मिले नव सृजन की, करें कृपा की वृष्टि।।
*
राम अनुज दोहा लिखें, सतसई सीता-राम।
महाकाव्य रावण पढ़े, तब हो काम-तमाम।।
*
व्यंजन सी हो व्यंजना, दोहा रुचता खूब।
जी भरकर आनंद लें, रस-सलिला में डूब।।
*
काव्य-सुधा वर्षण हुआ, श्रोता चातक तृप्त।
कवि प्यासा लिखता रहे, रहता सदा अतृप्त।।
*
शशि-त्यागी चंद्रिका गह, सलिल सुशोभित खूब।
घाट-बाट चुप निरखते, शास्वत छटा अनूप।।
*
दीप जलाया भरत ने, भारत गहे प्रकाश।
कीर्ति न सीमित धरा तक, बता रहा आकाश।।
*
राव वही जिसने गहा, रामानंद अथाह।
नहीं जागतिक लोभ की, की किंचित परवाह।
*
अविरल भाव विनीत कहँ, अहंकार सब ओर।
इसीलिए टकराव हो, द्वेष बढ़ रहा घोर।।
*
तारे सुन राकेश के, दोहे तजें न साथ।
गयी चाँदनी मायके, खूब दुखा जब माथ।।
*
कथ्य रखे दोहा अमित, ज्यों आकाश सुनील।
नहीं भाव रस बिंब में, रहे लोच या ढील।।
*
वंदन उमा-उमेश का, दोहा करता नित्य।
कालजयी है इसलिए, अब तक छंद अनित्य।।
*
कविता की आराधना, करे भाव के साथ।
जो उस पर ही हो सदय, छंद पकड़ता हाथ।।
*
कवि-प्रताप है असीमित, नमन करे खुद ताज।
कवि की लेकर पालकी, चलते राजधिराज।।
*
अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय सृष्टि।
कथ्य, भाव रस बिंब लय, करें सत्य की वृष्टि।।
*
करे कल्पना कल्पना, दोहे में साकार।
पाठक पढ़ समझे तभी, भावों का व्यापार।।
*
दूर कहीं क्या घट रहा, संजय पाया देख।
दोहा बिन देखे करे, शब्दों से उल्लेख।।
*
बेदिल से बेहद दुखी, दिल-डॉक्टर मिल बैठ।
कहें बिना दिल किस तरह, हो अपनी घुसपैठ।।
*
मुक्तक खुद में पूर्ण है, होता नहीं अपूर्ण।
छंद बिना हो किस तरह, मुक्तक कोई पूर्ण।।
*
तनहा-तनहा फिर रहा, जो वह है निर्जीव।
जो मनहा होकर फिर, वही हुआ संजीव।।
*
पूर्ण मात्र परमात्म है, रचे सृष्टि संपूर्ण।
मानव की रचना सकल, कहें लोग अपूर्ण।।
*
छंद सरोवर में खिला, दोहा पुष्प सरोज।
प्रियदर्शी प्रिय दर्श कर, चेहरा छाए ओज।.
*
किस लय में दोहा पढ़ें, समझें अपने आप।
लय जाए तब आप ही, शब्द-शब्द में व्याप।।
*
कृष्ण मुरारी; लाल हैं, मधुकर जाने सृष्टि।
कान्हा जानें यशोदा, अपनी-अपनी दृष्टि।।
*
नारायण देते विजय, अगर रहे यदि व्यक्ति।
भ्रमर न थकता सुनाकर, सुनें स्नेहमय उक्ति।।
*
शकुंतला हो कथ्य तो, छंद बने दुष्यंत।
भाव और लय यों रहें, जैसे कांता-कंत।।
*
छंद समुन्दर में खिले, दोहा पंकज नित्य।
तरुण अरुण वंदन करे, निरखें रूप अनित्य।।
*
विजय चतुर्वेदी वरे, निर्वेदी की मात।
जिसका जितना अध्ययन, उतना हो विख्यात।।
*
श्री वास्तव में गेह जो, कृष्ण बने कर कर्म।
आस न फल की पालता, यही धर्म का मर्म।।
*
राम प्रसाद मिले अगर, सीता सा विश्वास।
जो विश्वास न कर सके, वह पाता संत्रास।।
२३.९.२०१८
***
मुक्तक
एक से हैं हम मगर डरे - डरे
जी रहे हैं छाँव में मरे - मरे
मारकर भी वो नहीं प्रसन्न है
टांग तोड़ कह रहे अरे! अरे!!
२३.९.२०१६
***
दो रचनाकार एक कुंडलिनी
*
गरजा बरसा मेघ फिर , कह दी मन की बात
कारी बदरी मौन में सिसकी सारी रात - शशि पाधा
सिसकी सारी रात, अश्रु गिर ओस हो गए
मिला उषा का स्नेह, हवा में तुरत खो गए
शशि ने देखा बिम्ब सलिल में, बादल गरजा
सूरज दमका धूप साथ, फिर जमकर लरजा - संजीव 'सलिल'
***
नवगीत:
*
एक शाम
करना है मीत मुझे
अपने भी नाम
.
अपनों से,
सपनों से,
मन नहीं भरा.
अनजाने-
अनदेखे
से रहा डरा.
परिवर्तन का मंचन
जब कभी हुआ,
पिंजरे को
तोड़ उड़ा
चाह का सुआ.
अनुबंधों!
प्रतिबंधों!!
प्राण-मन कहें
तुम्हें राम-राम.
.
ज्यों की त्यों
चादर कब
रह सकी कहो?
दावानल-
बड़वानल
सह, नहीं दहो.
पत्थर का
वक्ष चीर
गंग
सलिल सम बहो.
पाये को
खोने का
कुछ मजा गहो.
सोनल संसार
हुआ कब कभी कहो
इस-उस के नाम?
.
संझा में
घिर आयें
याद मेघ ना
आशुतोष
मौन सहें
अकथ वेदना.
अंशुमान निरख रहे
कालचक्र-रेख.
किस्मत में
क्या लिखा?,
कौन सका देख??
पुष्पा ले जी भर तू
ओम-व्योम, दिग-दिगंत
श्रम कर निष्काम।
बेंगलुरु, २२.९.२०१५
***
बाल रचनाएँ:
१. श्रेया रानी
श्रेया रानी खूब सयानी
प्यारी लगती कर नादानी
पल में हँसे, रूठती पल में
कभी लगे नानी की नानी
चाहे मम्मी कभी न टोंकें
करने दें जी भर मनमानी
लाड लड़ाती है दादी से
बब्बाजी से सुने कहानी
***
२. अर्णव दादा
अर्णव दादा गुपचुप आता
रहे शांत, सबके मन भाता
आँखों में सपने अनंत ले-
मन ही मन हँसता-मुस्काता
मम्मी झींके:'नहीं सुधरता,
कभी न खाना जी भर खाता
खेले कैरम हाथी-घोड़े,
ऊँट-वज़ीरों को लड़वाता
***
३. आरोही
धरती से निकली कोंपल सी
आरोही नन्हीं कोमल सी
अनजाने कल जैसी मोहक
हँसी मधुर, कूकी कोयल सी
उलट-पलटकर पैर पटकती
ज्यों मछली जल में चंचल सी
चाह: गोद में उठा-घुमाओ
करती निर्झर ध्वनि कलकल सी
२३.९.२०१५
***
सामयिक रचना:
मंदिर बनाम मस्जिद
*
नव पीढ़ी सच पूछ रही...
*
ईश्वर-अल्लाह एक अगर
मंदिर-मस्जिद झगड़ा क्यों?
सत्य-तथ्य सब बतलाओ
सदियों का यह लफड़ा क्यों?
*
इसने उसको क्यों मारा?
नातों को क्यों धिक्कारा?
बुतशिकनी क्यों पुण्य हुई?
किये अपहरण, ललकारा?
*
नहीं भूमि की तनिक कमी.
फिर क्यों तोड़े धर्मस्थल?
गलती अगर हुई थी तो-
हटा न क्यों हो परिमार्जन?
*
राम-कृष्ण-शिव हुए प्रथम,
हुए बाद में पैगम्बर.
मंदिर अधिक पुराने हैं-
साक्षी है धरती-अम्बर..
*
आक्रान्ता अत्याचारी,
हुए हिन्दुओं पर भारी.
जन-गण का अपमान किया-
यह फसाद की जड़ सारी..
*
ना अतीत के कागज़ हैं,
और न सनदें ही संभव.
पर इतिहास बताता है-
प्रगटे थे कान्हा-राघव..
*
बदला समय न सच बदला.
किया सियासत ने घपला..
हिन्दू-मुस्लिम गए ठगे-
जनता रही सिर्फ अबला..
*
एक लगाता है ताला.
खोले दूजा मतवाला..
एक तोड़ता है ढाँचा-
दूजे का भी मन काला..
*
दोनों सत्ता के प्यासे.
जन-गण को देते झाँसे..
न्यायालय का काम न यह-
फिर भी नाहक हैं फासें..
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नहीं चाहता कोई दल.
मसला यह हो पाये हल..
पंडित,मुल्ला, नेता ही-
करते हलचल, हो दलदल..
*
जो-जैसा है यदि छोड़ें.
दिशा धर्म की कुछ मोड़ें..
मानव हो पहले इंसान-
टूट गए जो दिल जोड़ें..
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पंडित फिर जाएँ कश्मीर.
मिटें दिलों पर पड़ी लकीर..
धर्म न मजहब को बदलें-
काफ़िर कहों न कुफ्र, हकीर..
२३-९-२०१०
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मुक्तक
हर इंसां हो एक समान.
अलग नहीं हों नियम-विधान..
कहीं बसें हो रोक नहीं-
खुश हों तब अल्लाह-भगवान..
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जिया वही जो बढ़ता है.
सच की सीढ़ी चढ़ता है..
जान अतीत समझता है-
राहें-मंजिल गढ़ता है..
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मिले हाथ से हाथ रहें.
उठे सभी के माथ रहें..
कोई न स्वामी-सेवक हो-
नाथ न कोई अनाथ रहे..
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सबका मालिक एक वही.
यह सच भूलें कभी नहीं..
बँटवारे हैं सभी गलत-
जिए योग्यता बढ़े यहीं..
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हम कंकर हैं शंकर हों.
कभी न हम प्रलयंकर हों.
नाकाबिल-निबलों को हम
नाहक ना अभ्यंकर हों..
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पंजा-कमल ठगें दोनों.
वे मुस्लिम ये हिन्दू को..
राजनीति की खातिर ही-
लाते मस्जिद-मन्दिर को..
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जनता अब इन्साफ करे.
नेता को ना माफ़ करे..
पकड़ सिखाये सबक सही-
राजनीति को राख करे..
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मुल्ला-पंडित लड़वाते.
गलत रास्ता दिखलाते.
चंगुल से छुट्टी पायें-
नाहक हमको भरमाते..
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सबको मिलकर रहना है.
सुख-दुख संग-संग सहना है..
मजहब यही बताता है-
यही धर्म का कहना है..
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एक-दूजे का ध्यान रखें.
स्वाद प्रेम का 'सलिल' चखें.
दूध और पानी जैसे-
दुनिया को हम एक दिखें..
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