कुल पेज दृश्य

नीलमणि दुबे लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
नीलमणि दुबे लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 18 जून 2021

श्रीकृष्णार्जुन संवाद डॉ. नीलमणि दुबे


श्रीकृष्णार्जुन संवाद
डॉ. नीलमणि दुबे, शहडोल 
[प्रख्यात हिन्दीविद, मानस मर्मज्ञ डॉ. नीलमणि दुबे विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष हैं। यह रचना उन्होंने १९७४ में जब वे ९ वीं कक्षा की विद्यार्थी थीं, तब लिखी थी। 'होनहार विरवान के होत चीकने पात' उनके रूप में साकार है। ]
*
समर्पण-
नित होती जाए प्रीति नयी;
भगवान् आपके चरणों में, 
सत्य शब्द संचारित हों;
प्रभु मेरे इक-इक वर्णों में! 
सबके ही मन में सदा;
होते कुछ अरमान! 
पूर्ण करें उस चाह को;
नीलमणी घनश्याम!! 

पूर्वाभास-
कौरवों ने जब कर दिया;
हिस्सा देने से इंकार! 
पांडु-तनय तब हो गए;
लड़ने को तैयार!! 
भक्तिभाव के प्रेम से;
किया भक्त का काम! 
अर्जुन के सारथि बने;
मुरली धर घनश्याम!! 
(2) 
अर्जुन-
हे हृषीकेश रथ को बढ़ाओ जरा;
देखूँ कितने रणस्थल में आकर खड़े! 
किसकी कजा उसके सिर पर हुयी;
जो पाण्डु- पुत्र -सम्मुख आकर अड़े!! 

मेरी भृकुटि के सामने ;
ठहरे न किसी का आज प्रताप! 
मिला दूँ मैं सबको मिट्टी में;
संधानूँ जब अपना चाप!! 

श्री कृष्ण- 
मैं बढ़ाता हूँ पारथ रथ को;
तुम सावधान होकर रहना! 
ले देख उन्हें पहले अर्जुन;
जिनसे है अब तुमको लड़ना!! 
अर्जुन-
गोविंद यहाँ मैं देख रहा;
गुरुदेव -पितामह खड़े हुए! 
मामा, काका, अश्वत्थामा;
द्रुपदादि वीर सब अड़े हुए!! 

भगवान् आपके चरणों में;
यह श्रद्धा -पुष्प समर्पित है! 
कलियाँ तो विकसित हुयीं नहीं;
पर मन में उत्साह तो है!! 

सब अदेय तुमको भगवन्;
कुछ भाव समर्पित करती हूँ! 
निज शीश झुकाकर चरणों में;
शब्दों को अर्पित करती हूँ!!) 

अर्जुन-
आचार्य, मामा आदि को;
मारूँ न मैं निज वाण से! 
हाथों में लूँ गाण्डीव न;
क्यों न निकलें प्राण ये!! 

मारूँ कैसे गोपाल इन्हें;
ये तो सब मेरे अपने हैं! 
इनके बिन हे गिरिधर-माधव;
सुख-राज्य जगत् में सपने हैं!! 
फिर इन्हें मारकर हे माधव;
किस सुख का हम उपभोग करें? 
पृथ्वी , धन,राजपाट , वैभव -
का; किस प्रकार उपयोग करें? 

बिन मित्र-हितैषी के माधव;
सुख-राज्य वृथा ही होते हैं! 
शुभकर्मी कैसे वे राजा हों;
जिनके सब पूर्वज रोते हैं!! 

श्रीकृष्ण-
न कोई अपना है अर्जुन;
न कोई मित्र होता है! 
साथी वही सच्चा ;
जो जग में बीज बोता है!! 

मालिक तो इस संसार का;
भगवान्   होता   है! 
सदा आत्मा अमर रहती;
हाँ चोला नष्ट होता है!! 
अर्जुन तू मोह के कारण ही;
इनको निज स्वजन समझता है! 
अपनत्वजाल के कारण ही;
तेरा मन निज में भ्रमता है!! 

पर सोच-समझ कौंतेय जरा;
जब ये तेरे संबंधी हैं! 
 फिर क्यों तुमसे लड़ते   ये;
क्या इनकी आँखें अंधी हैं? 
अर्जुन-
रोमांच हो रहा है मुझको;
और ओंठ सूखता जाता है! 
पृथ्वी पर पाँव नहीं पड़ते;
@ थर-थर यह तन कंपाता है!! 

गांडीव हाथ से गिरता है; 
सारा शरीर भी जलता है! 
मेरा मन खुद में भ्रमता है;
कल्याण न आगे दिखता है!! 
श्रीकृष्ण-
अर्जुन कायर क्यों बनता है;
आत्मीय देखकर डरता है! 
हे पृथापुत्र युद्धस्थल में;
ऐसी बातें क्यों करता है? 
अर्जुन-
हे कृष्ण इनको मारकर;
पृथ्वी में रह सकते नहीं! 
हम भ्रातृ-पितृ-वियोग में;
दुनियाँ में जी सकते नहीं!! 

घनश्याम  हत आत्मीयजन; संसार-सुख होगा नहीं! 
क्या जानकर कोई मनुज;
कीचड़ में गिरता है कहीं? 

अच्युत् न सुख को चाहता हूँ;
धन का भी नहीं प्रयोजन है! 
इन सबके बिन भगवन् सुनिए ;
मिट्टी-सम षटरस  भोजन है!! 
अर्जुन-

यद्यपि ये लोभी हैं कृतघ्न;
कृत कर्मों का संताप नहीं! 
पर कुलक्षण में होना प्रवृत्त ;
हे माधव है क्या पाप नहीं  ? ×××

कुल- परंपराएँ मिटतीं तो;
कुल-रीति-धर्म निश्चय विनष्ट! 
नारी -जन पाप-प्रवृत्त अगर;
संतानें जारज और भ्रष्ट!! ×××

बिन पिंडोदक पूर्वज पाते;
रौ-रौ नरकों में घोर कष्ट! 
इसलिए युद्ध है इष्ट नहींं ;
कर देती हिंसक वृत्ति नष्ट!! ×××

गुरुजन-वध, राज्य-भोग-सुख से;
श्रेयस्कर मुझको भिक्षाटन! 
इन आतताइयों को मारूँ;
यह पापकर्म है मनमोहन!! ×××
श्रीकृष्ण-
अर्जुन मत बन तू नादान , 
यह दुश्शासन, मूर्त्त कुशासन, 
ले तू इसकी जान! 
कोई न प्यारा, नहीं सहारा, 
इनको मारो, न इनसे हारो, 
मत बतला तू ज्ञान!! 
यह दुर्योधन महाँ पपिष्टी, 
अत्याचारी, लोभी, कपटी, 
मिटा तू इसकी शान!!! 
अर्जुन-
ये लोग गर मारें मुझे;
प्रभु हो मेरा कल्याण ही! 
शुभ गति अगर मिलती नहीं;
तो नर्क भी होगा नहीं!!
 श्रीकृष्ण-
युद्ध छोड़ कर हे अर्जुन;
क्या कर्म दूसरा क्षत्रिय का? 
गो-ब्राह्मण -नारी-निर्बल की-
रक्षा ही धर्म है क्षत्रिय का!
श्रीकृष्ण-
तमतोम फाड़ देता था जो;
क्या चिंतन का वह खंग नहीं? 
क्षत-विक्षत अरिदल करता था;
धन्वी क्या आज अपंग नहीं? ××

यह तन असत्य है नाशवान;
देही अविनश्वर लेकिन सुन! 
कौमार्य-युवा-वृद्धावस्था;
बस देशधर्म हैं हे अर्जुन! ! ××
  
कायर- अकीर्तिकर मार्ग छोड़;
तुम क्षत्रियत्व का  करो वरण ! 
होगा निश्चय ही स्वर्ग प्राप्त;
वीरोचित रण में अगर मरण!! ××

माँ का लज्जित हो दूध नहीं;
आचरण न शास्त्र  -विरुद्ध करो! 
दुर्बलता छोड़ो, उठो पार्थ, 
 बैरी सम्मुख है, युद्ध करो!! ××
श्रीकृष्ण-
कर्णादिक वीरों के अर्जुन;
तुम शत्रु हमेशा कहलाए! 
अपमान किया राजाओं का;
पांचाली जाकर वर लाए!! 

अब युद्ध उन्हीं से करने को;
कुरुक्षेत्र रणस्थल में आए! 
 कुछ ऐसा कर तू हे अर्जुन;
तेरी अपकीर्ति न हो पाए!! 

अर्जुन-
मैं शरण आपकी आया हूँ;
मधुसूदन ज्ञान बताओ तुम  ! 
अज्ञानजाल को दूर हटा ;
उर में प्रकाश फैलाओ तुम!! 

माधव, कर संशय -हरण मेरा;
दो ऐसा अनुपम ज्ञान मुझे! 
तम-मोह दूर मेरा भी हो;
और दुनियाँ को भी मार्ग दिखे!! 

श्रीकृष्ण- 
तुमको निज सखा समझकर ही;
कौंतेय ज्ञान मैं कहता हूँ! 
तू धीरज धर अपने मन में;
अज्ञान सदा मैं हरता हूँ!! 

जब बुद्धि तुम्हारी कुरुनंदन;
इस मोह-दु:ख को पार करे! 
सुख रूप ज्ञान को पाओ तुम;
आत्मा श्रुतियों में विहार करे!! 

अर्जुन जो देह में देही है;
वह अमर सदा ही रहती है! 
चाहे शरीर हो नष्ट-भ्रष्ट;
पर आत्मा कभी न मरती है!! 

जो इसको नश्वर कहते हैं;
या इसको मरा मानते हैं! 
पर आत्मा कभी नहीं मरती ;
यद्यपि वे नर न जानते हैं!! 
श्री कृष्ण-
उत्पन्न अन्न से भूतप्राणि ;
वर्षा से अन्न-समुद्भव  है! 
वर्षा का कारण यज्ञ और;
यह यज्ञ कर्म से संभव है!! ××

तज फलासक्ति -मिथ्या संयम;
तू वर्णोचित कर्मों  को कर! 
कर्त्तापन-आशा-अहंकार;
मुझमें लय और समर्पित कर!!××

अति वेगवान है अश्व प्रबल;
मन- अनुशासन- वल्गा से कस! 
यज्ञाग्नि रूप हो अनासक्त;
जीवन जगतीहित बने निकष!!××
इंद्रिय-मन-बुद्धि-आत्मा को;
जीतो अर्जुन बन आत्मजयी! 
है कर्मयोग ही श्रेयस्कर;
यह सृष्टि समूची कर्ममयी!! ××
श्री कृष्ण-
 तुममें भ्रमती बुद्धि तुम्हारी;
इसमें नहीं तुम्हारा दोष! 
फिर भी आत्मा अमर हमेशा;
सोच इसे पाओ संतोष!! 

जो जन्म लेता जगत में;
मरता वो निश्चय जान तू! 
इसलिए हे पार्थ इसमें;
दु:ख न कुछ भी मान तू! 

वस्त्र जीर्ण हो जाने से;
ज्यों नर उससे नाता तोड़े! 
त्यों समय बीत जाने पर फिर;
आत्मा शरीर को भी छोड़े!! 

शाश्वत पुराण यह कहते हैं;
यह अजर- अमर- अविनाशी है! 
मर सकती है यह नहीं कभी;
 यह आत्मा घट -घट वासी है!!
श्रीकृष्ण-
आत्मा न शस्त्र से कटती है;
और पानी भिंगा नहीं सकता! 
पवन न इसे सुखा सकता-
और ताप न इसे जला सकता!!  

यह सूक्ष्म बहुत है महाबाहु;
अप्रकट सदा यह रहती है! 
ज्यों मनुष्य चोला बदले;
त्यों ही यह नित्य बदलती है!! 

नाशवान् शरीर में;
प्रवेश करती है सदा! 
पर जीर्ण होते छोड़ दे;
अवध्य है देही मुदा!! 

होती है धर्म की हानि और;
सज्जन जब पीड़ित होते हैं! 
बढ़ताअधर्म- अतिचार  तथा;
सन्मार्ग प्रतिष्ठा खोते हैं!! 


मंगलवार, 9 मार्च 2021

समीक्षा मन के वातायन नीलमणि दुबे

'मन के  वातायन'  में गूँजते प्रेम गीत  
नीलमणि दुबे:

'प्रेम ' के उच्चारण मात्र से अधरोष्ठ जुड़ जाते हैं; वहीं 'विदायी' के उच्चारण में अधरोष्ठ से लेकर नाभि तक कंपित करती वायु उच्छ् वसित होकर गहरा झटका देती हुयी प्राणों को ही खींच ले जाती है! प्रेम का मूल राग है ¡ राग अर्थात् जुड़ना ¡
मनुष्य विशिष्ट, समशील और इतर से सहज जुड़ जाता है ¡ राग का विलोम वैराग्य या विराग है ;जिसका एक अर्थ विशिष्ट के प्रति राग भी है¡ साहित्य, संगीत व कलाओं का मूल राग -रूप प्रेम ही है ¡ भले ही ज्ञानी जन- "राग रोष इरषा मद मोहू!जनि सपनेहुँ इनके बस होहू!! "- का उपदेश दें ;किंतु सहज मानव-प्रकृति राग से आमूलचूल आबद्ध होकर ही सहज सार्थकता पाती है ¡ "मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही ना हाथ"-की उद्घोषणा करने वाले 'प्रेम का ढाई आखर पढ़ कर पंडित हुए' कबीर मनुष्य होने की सार्थकता प्रेम में पाते हैं-" जेहि घट प्रीति न संचरै सो घट जान मसान! "
प्रेम के वशीभूत ब्रह्म 'छछिआ भर छाछ' पर नाचता है, शकुंतला की विदायी में लताएँ पीतपत्र -रूप अश्रु मोचित करती हैं, यक्ष की पीड़ा के शमनार्थ मेघ और नागमती के विरह से द्रवित पक्षी दूत -कर्म स्वीकार करते हैं, राम 'खग, मृग और मधुकर श्रेनी' से सीता का पता पूछते हैं ; तो घनानंद रक्त की अंतिम बूँद से निष्ठुर सुजान को पत्र भेजते हैं ¡
यह प्रेम ही है -"जो चेतन कहँ जड़ करइ, जड़हिं करइ चैतन्य"-की सामर्थ्य रखता है ¡
इस प्रेम का मार्ग इतना सीधा है कि चतुरता का थोड़ा भी टेढ़ापन इसे अस्वीकार्य है! इस मार्ग में होश खो देने वाले चल पाते हैं ;तो होश रखने वाले थक जाते हैं-"सूधे ते चलैं, रहैं सुधि कै थकित ह्वै!" इस गहरे सागर में हजारों रसिकों के मन डूब जाते हैं¡ प्रेम में हार कोटिश: जीत से श्रेयस्कर है ¡ श्री 'श्याम मनोहर सीरोठिया' जी की कृति 'मन के वातायन ' इसी महत्तर प्रेम का महत्तर आख्यान और सुष्ठु गीतों की महत्वपूर्ण कड़ी है ¡ अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से सम्मानित, आजीविका से चिकित्सक श्री सीरोठिया जी शल्यक्रिया और रोगों के निदान में जितने सिद्धहस्त हैं;मनोभावों की पड़ताल और भाव-भंगिमाओं के अंकन में भी उतने ही निष्णात हैं ¡
प्रत्येक गीत गहरे भाव- सागर में पैठकर निकाला गया महार्घ मोती है¡ 
कबीर एकात्मक संबंध को प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति -"हरि मोर पीव, मैं राम की बहुरिया, राम बड़े, मैं छटुक लहुरिया"- कहकर देते हैं!
प्रेम के रस का पान करने के लिए सिर अर्थात् अहं और द्वित्व का विसर्जन करना पड़ता है ¡ प्राण साधना में दीप से जलते हैं; तो कभी सुधियाँ ही दीप बन जाती हैं ¡नारी प्रेरणा मयि ज्योति का प्रतिरूप है और प्रेम गहन तिमिर में उज्ज्वल प्रकाश-
"मन की चौखट पर सुधियों का;
निशदिन मैंने दीप जलाया,
दीप- रश्मियों में स्वर्णिम सा;
रूप तुम्हारा मैने पाया,
तुम जीवन के अँधियारों में;
नये उजाले भर जाती हो! "
किसी शायर ने कहा है-
"दिन अपने चरागों के मानिंद गुज़रते हैं,
हर सुबह को जल जाना, हर शाम को बुझ जाना !"-किंतु सीरोठिया जी के गीतों में निराश -नाकाम उम्मीद नहीं , प्रतीक्षा की अविराम जगमगाहट है ;जो चौंकाती नहीं, आश्वस्त करती है! वह क्षण भी आता है जब पूजा के बाह्य उपादानों की आवश्यकता नहीं रह जाती-
"गीत प्रणय की पूजा थाली,
अक्षत चंदन है ¡
मनुहारों की सजल प्रार्थना,
उर का वंदन है ¡¡"
आतुर -आकुल हृदय निरंतर अवदान में सार्थकता पाता है-"तृप्ति पाने के लिए खुद बूँद से गलते रहें ¡" हलाँकि -"इच्छाओं की दीपशिखा को कुंठाओं ने बुझा दिया"; किंतु कवि की आत्मिक शक्ति उसका अखंड विश्वास है-"मंजिलों के फासले हों ;किंतु हम चलते रहें ¡"
अभाव व्यतीत की महत्ता का बोध कराता है ¡ प्रिय के साथ बिताए गए क्षणों की सुधि कवि का पाथेय है-
"महुआ थे, संदल थे वे क्षण;
जिनमें अपना साथ रहा,
हर मुश्किल आसान हो गयी;
जब हाथों में हाथ रहा,
हमने एक उमर जी ली थी;
पल -दो -पल सँग रह करके ¡"
महुआ वन -प्रांतर को मोहक- मादक और संदल परिवेश को पावन-सौम्य सुरभि से महमहा देते हैं! यह मदिर मादकता और पावन स्पर्श की अनुभूति चेतना में आज भी रची- बसी प्राणों का संचार करती है ¡
स्मृतिकार लिखतीं हैं-
"प्रत्येक वस्तु में सहसा;
स्पर्श जाग उठता है,
मैं यहाँ छिपा हूँ , पा लो,
हँसकर अमूर्त कहता है! "
इसी अमूर्त स्पर्श की अनुभूत संतुष्टि छटपटाहट में परिणत होकर आशा-निराशा के शतरंगे दुकूल बुनती है ¡अदम्य जिजीविषा के केंद्र में स्वस्फूर्त आशा चेतना रूप झरती और जीवन को आलोकित करती है! समूची प्रकृति प्रिय की पुकार बन जाती है-
"घने बादलों के पीछे से;
छुप-छुप कर यह किसे पुकारे,
पहले भी आता था लेकिन;
आज चाँद के तेवर न्यारे,
बजा गया आकर चुपके से;
रजनी के द्वारे की साँकल ¡"
ऐसे सुंदर बिंब कृति में यत्र-तत्र उरेहे गए हैं ¡ अव्याहत कांत कल्पनाएँ और चारु चित्र मुग्ध करते हैं-
"सकुचायी, सिमटी, घबरायी;
रजनी आज लाज से हारी,
चपल चाँद का प्रणय -निवेदन;
ठुकराये अथवा स्वीकारे ¡"
सुख के उपादान विरह में मर्मांतक पीड़ा देते हैं ¡ समूची प्रकृति मनोभावों का दर्पण हो जाती है-
"मेरी आँखों के मोती ही;
सुबह ओस बनकर बिखरे हैं,
पुष्पों के मनमोहक रँग भी;
मेरे सपनों में निखरे हैं ¡"
कवि की पीड़ा ,बेबसी और भावना संकीर्ण सीमाओं को लाँघ समष्टि तक विस्तार पाती हैं ! भाषा और भावों की सूक्ष्मता और सांकेतिकता में मर्यादित गांभीर्य सर्वत्र दिखलायी पड़ता है-
"याद हैं कश्मीर की वे;
बर्फ से भींगी हवाएँ,
किंतु जब छूलें हमें तो;
देह में पावक जगाएँ,
इस दहकती आग को फिर;
शमन करने का इशारा! "
कहीं भी भाव व भाषा संयम की वल्गा नहीं छोड़ते ¡
'मन के वातायन' से अनुभूत मनोभावों के शीतल-सुखद झोंके और अपनी झलक दिखाता विविध वर्णी भाव-भंगिमाओं का दृष्यमान मनमोहक सुंदर संसार आद्यंत बाँधे रहता है ¡ महादेवी वर्मा संबंध को परिभाषित करते हुए लिखती हैं-
"मैं हूँ तुमसे एक, एक हैं जैसे रश्मि-प्रकाश!
मैं हूँ तुमसे भिन्न, भिन्न ज्यों घन से तड़ित -विलाश!! "
निराला जी लिखते हैं-
"तुम तुंग हिमालय- शृंग और मैं चंचल जल सुरसरिता!
तुम विमल हृदय उच्छ् वास और मैं कांत कामिनी कविता!! "
उसी महाभाव में अवस्थित कवि कहता है-
"बरसाने की व्यथा-कथा मैं;
वृंदावन का महारास तुम,
मैं मीरा का छंद वियोगी;
रसिक बिहारी का विलास तुम ,
शकुंतला का व्यथित हृदय मैं;
तुम पुरुवंशी उर-वसंत हो ¡"
हृदय के समर्पण, प्रिय के वैराट्य और स्व के लघुत्व का यह दिग्दर्शन प्रेम को उस उच्च भूमि पर प्रतिष्ठित करता है ;जहाँ वियोग भी योग बन जाता है ;बकौल गोस्वामी तुलसीदास-
"राम सों बड़ो है कौन;मोसों कौन छोटो!
राम सों खरो है कौन; मोसों कौन खोटो!! "
कवि का प्रिय अभौतिक,अमांशल या अशरीरी नहीं , वह उसका अनेकशः स्पष्ट उल्लेख करता है-
"समय लिए अपने हाथों में;
बीते जीवन की किताब को,
चुपके से रख देते थे हम;
खिले हुए मन के गुलाब को,
अपनेपन की गंध आज भी;
इसमें शेष हमें बहलाने ¡
साँझ ढले फिर याद तुम्हारी;
आयी चुपके से सिरहाने! "
मीर का शेर है-
"तुम मेरे पास होते हो;
गोया जब कोई दूसरा नहीं होता"! "एकांत क्षणों में हम अपने पास या अपनों के पास होते हैं --
" मन के सूने घर में अक्सर;
तुम चुपचाप चली आती हो,
मुझे अचानक छू जाती हो;
कभी- कभी शीतल समीर सी! "
हलचल भरे उर की अनुभूत कथा लिखने में अक्षर बौने हो जाएँ तो क्या आश्चर्य? किसी के होने का सुख हर मुश्किल आसान कर देता है! प्रिय का आभास हर पल मिलता है-
"तुम ही हो मुसकान हृदय की;
तुम ही रहती आभासों में,
कभी विरह के पतझर में तुम;
कभी मिलन के मधुमासों में,
× × ×
इंद्रधनुष मेरे सपनों में
चुपके से तुम भर जाती हो! "
ये भाव पीड़ा की अतल गहरायी और सघन -सांद्र अनुभूति से छन-छन कर निथरे हैं ¡ पीड़ा का उत्ताप और लंबी प्रतीक्षा प्रेम को तप बना देते हैं ¡ नागमती के प्राण भाड़ में भुनते , उस तप्त अनाज की तरह हैं ;जो गर्म रेत में उछलता तो है पर पुन: उसी में गिर पड़ता है- "लागेउँ जरैं, जरै जस भारू!
फिरि-फिरि भूँजेसि तजेसि न बारू!! "
आशा के दीप की लौ कभी मंद
नहीं होती-
"सपनों की चौखट पर अब भी;
आशाओं का दीप जल रहा,
शायद कभी लौट आओ तुम;
मन में यह संघर्ष चल रहा ¡"
कवि को दीप का उपमान अत्यंत प्रिय है ¡
पारिवारिक परिवेश और अपनेपन की ऊष्मा तथा गरिमामय आत्मीयता सबको अपने में समा लेती है-
"आंगन के तुलसी चौरा पर ;
आशीषों की गंध महकती ,
रहे सदा परिवार सुरक्षित;
मंदिर में सौगंध चहकती,
× × ×
भीतर-भीतर स्वयं टूटकर;
बाहर कौन बचाता है घर ¡"
प्रकृति सुख-दु:ख में सहभागी
आदि सहचरी है ¡संध्या, चाँदनी, बसंत, खिलते पुष्प सभी सुधियों के वाहक हैं ¡ उपमा, रूपक, सांगरूपक,रूपकातिशयोक्ति,
मानवीकरण, प्रतीकविधान, बिंब विधान,विशेषण-विपर्यय ,मनोवै-ज्ञानिक चित्रण आदि के द्वारा प्रकृति के सुंदर चित्र खींचे गए हैं-
" टेसू , गुलमोहर बौराये;
वाचाल हुयी अरुणाई है,
महुए की छाँव पवन बैठा;
लो मचल गयी तरुणाई है,
ऋतुराज कर रहा अश्वमेध;
चर्चा फैली यह दिग् दिगंत ¡"
सांकेतिक प्रकृति -चित्रण का एक उदाहरण दृष्टव्य है-
"शकुन लिए कागा मुँड़ेर पर;
ललित पुष्प अभिसार खिलेगा,
पतझर से बीमार विपिन को ;
मधुमासी उपचार मिलेगा ¡"
प्रकृति का उद्दीपक रूप देखें-
"बूँदों की वाणी में मुखरित;
मन के सब संवाद रसीले,
फिर से कसने लगे हृदय को;
सुधियों के भुजपाश गठीले,
मधुर मिलन की घड़ी आ गयी;
समय गया अब इंतजार का ¡"
× × ×
आज देह के चंदन वन में;
मचल उठीं मादक सरिताएँ;
संयम के दादुर पढ़ते हैं;
आदर्शों की वेद ऋचाएँ ¡ "
मानवीकरण-
"दिन बैठे हैं सन्यासी से,
जोगन सी रातें ¡"
मिथकीय प्रकृति -चित्रण-
मेघदूत लेकर आया है ;
नेह -निमंत्रण की पाती ¡"
रूपक-
"बाँच रही है घटा देह की;
छिपकर मन में सकुचाती ¡"
गीत को परिभाषित करते हुए महादेवी वर्मा कहती हैं-"सुख-दु:ख की भावावेश मयी अवस्था स्वरसाधना के अनुकूल गिने-चुने शब्दों में चित्रित करना गीतिकाव्य है ¡ " अर्थगांभीर्य, स्वानुभूति, आत्माभिव्यक्ति, संक्षिप्तता,सारल्य,आलंकारिकता, संगीतात्मकता, गेयता भावप्रवणताआदि गीतिकाव्य के प्रमुख तत्व हैं! इन सभी तत्वों से समृद्ध आलोच्य कृति के गीत हिंदी -गीत -परंपरा को समृद्ध करेंगे और सुधीजनों द्वारा समादृत होंगे इसी शुभाशंसा एवं मंगलाशा के साथ-
नीलमणि दुबे: महादेवी के आकुल प्राण पुकार उठते हैं-
"पर शेष नहीं होगी यह;
मेरे प्राणों की व्रीड़ा,
तुमको पीड़ा में ढूँढ़ा;
तुममें ढूढ़ूँगी पीड़ा ¡"
प्रीति वही सत्य है; जो प्रिय से विलग होते ही प्राणों का परित्याग कर दे-"बिछुरत दीन दयाल, प्रिय तन तृन इव परिहरेउ"-किंतु घनानंद कहते हैं वह मीन मेरी प्रीति की समानता को कैसे पा सकती है ;जो नीर के स्नेह को कलंकित कर निराश होकर प्राण त्याग देती है-
"हीन भये जल मीन अधीन; कहा भो मो अकुलान समानै,
नीर सनेही को लाय कलंक;
निरास ह्वै कायर त्यागत प्रानै!"
प्रीति की सार्थकता विश्वास बनाए रखकर पीड़ा के उत्ताप में मौन तपने में है-
"चुपचाप कहीं छिपकर मन में;
जब बरसों विरह दहकता है,
तब कहीं प्रीति का चंदन वन;
साँसों के बीच महकता है ¡
शब्दों तक सीमित नहीं कभी;
अपने पन की परिभाषा है,
यह भाव चेतना संवेदन;
सुख-दु:ख में आस-निराशा है ¡
उर भूमि डोलती घबराकर;
सुधियों के ज्वालामुखी फटे---"
विस्फोट के परिणामों का आकलन किया जा सकता है¡
कभी सुधियों के ज्वालामुखी विस्फोट करते हैं; तो कभी मन- मृग सुधियों की कस्तूरी में मग्न मरुथल में भटकता है-
"सुधियों की कस्तूरी ,मन मृग;
रिश्तों के मरुथल में भटका,
बचा नहीं हम सके अचानक;
विश्वासों का दर्पण चटका ¡"
किंतु आस्था और आशा की डोर हृदय नहीं छोड़ता-
"खंडित है मन लेकिन 
विश्वास नहीं टूटा ¡"
ज्योति रूप प्रिय की छवि अंधकार को दलमल देती है-
"तिमिर तिरोहित हुआ;
ज्योति तुम धन्य धवल हो! "
भले ही पीड़ाएँ हैं पर-"तुमको पा लेने का संकल्प नहीं छूटा" क्योंकि-
"बौराया मन नहीं सुन रहा:
मंत्र कहीं कोई सुधार का ¡"
यह मन बेमोल बिक गया है-
"बिना मोल के मन बिकता है;
निज के अर्पण में ¡"
*
प्रो.नीलमणि दुबे
विभागाध्यक्ष-हिंदी,
पं.एस.एन.शुक्ला वि.वि., शहडोल, म.प्र.
484001

रविवार, 27 सितंबर 2020

बघेली सरस्वती वंदना

बघेली सरस्वती वंदना
डॉ. नीलमणि दुबे
शहडोल
*
को अब आइ सहाइ करै,पत राखनहार सरस्सुति मइया,
तोर उजास अॅंजोर भरै,उइ आइ मनो रस-रास जुॅंधइया!
बीन बजाइ सॅंभारि करा,हमरे तर आय न आन मॅंगइया,
भारत केर उबार किहा,महॅंतारि बना मझधार क नइया!!
नीलमणि दुबे
दिनांक २६-०९-२०१९