कुल पेज दृश्य

anugeet लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
anugeet लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

सम-सामयिक हिन्दी पद्य के सर्वाधिक प्रचलित काव्य रूपों में से एक 'मुक्तिका'

सम-सामयिक हिन्दी पद्य के सर्वाधिक प्रचलित काव्य रूपों में से एक 'मुक्तिका'



मुक्तिका वह पद्य रचना है जिसका-

१. हर अंश अन्य अंशों से मुक्त या अपने आपमें स्वतंत्र होता है.

२. प्रथम, द्वितीय तथा उसके बाद हर सम या दूसरा पद पदांत तथा तुकांत युक्त होता है. इसका साम्य कुछ-कुछ उर्दू ग़ज़ल के काफिया-रदीफ़ से होने पर भी यह इस मायने में भिन्न है कि इसमें काफिया मिलाने के नियमों का पालन न किया जाकर हिन्दी व्याकरण के नियमों का ध्यान रखा जाता है.

२. हर पद का पदभार हिंदी मात्रा गणना के अनुसार समान होता है. यह मात्रिक छन्द में निबद्ध पद्य रचना है. इसमें लघु को गुरु या गुरु को लघु पढ़ने की छूट नहीं होती.

३. मुक्तिका का कोई एक या कुछ निश्चित छंद नहीं हैं. इसे जिस छंद में रचा जाता है उसके शैल्पिक नियमों का पालन किया जाता है.

४.हाइकु मुक्तिका में हाइकु के सामान्यतः प्रचलित ५-७-५ मात्राओं के शिल्प का पालन किया जाता है, दोहा मुक्तिका में दोहा (१३-११), सोरठा मुक्तिका में सोरठा (११-१३), रोला मुक्तिका में रोला छंदों के नियमों का पालन किया जाता है.

५. मुक्तिका का प्रधान लक्षण यह है कि उसकी हर द्विपदी अलग-भाव-भूमि या विषय से सम्बद्ध होती है अर्थात अपने आपमें मुक्त होती है. एक द्विपदी का अन्य द्विपदीयों से सामान्यतः कोई सम्बन्ध नहीं होता.

६. किसी विषय विशेष पर केन्द्रित मुक्तिका की द्विपदियाँ केन्द्रीय विषय के आस-पास होने पर भी आपस में असम्बद्ध होती हैं.

७. मुक्तिका को अनुगीत, तेवरी, गीतिका, हिन्दी ग़ज़ल आदि भी कहा गया है.

गीतिका हिन्दी का एक छंद विशेष है अतः, गीत के निकट होने पर भी इसे गीतिका कहना उचित नहीं है.

तेवरी शोषण और विद्रूपताओं के विरोध में विद्रोह और परिवर्तन की भाव -भूमि पर रची जाती है. ग़ज़ल का शिल्प होने पर भी तेवरी के अपनी स्वतंत्र पहचान है.

हिन्दी ग़ज़ल के विविध रूपों में से एक मुक्तिका है. मुक्तिका उर्दू गजल की किसी बहर पर भी आधारित हो सकती है किन्तु यह उर्दू ग़ज़ल की तरह चंद लय-खंडों (बहरों) तक सीमित नहीं है.

इसमें मात्रा या शब्द गिराने अथवा लघु को गुरु या गुरु को लघु पढने की छूट नहीं होती.

उदाहरण :

१. बासंती दोहा मुक्तिका


आचार्य संजीव वर्मा ’सलिल’
*

स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित हैं कचनार.

किंशुक कुसुम विहँस रहे या दहके अंगार..
*
पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.

पवन खो रहा होश है, लख वनश्री श्रृंगार..
*
महुआ महका देखकर, बहका-चहका प्यार.

मधुशाला में बिन पिये सर पर नशा सवार..
*
नहीं निशाना चूकती, पञ्च शरों की मार.

पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..
*
नैन मिले लड़ झुक उठे, करने को इंकार.

देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..
*
मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.

ऋतु बसंत में मन करे, मिल में गले, खुमार..
*
ढोलक टिमकी मँजीरा, करें ठुमक इसरार.

तकरारों को भूलकर, नाचो-गाओ यार..
*
घर आँगन तन धो लिया, सचमुच रूप निखार.

अपने मन का मैल भी, हँसकर 'सलिल' बुहार..
*
बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.

सूरत-सीरत रख 'सलिल', निर्मल-विमल सँवार..

*******
२. निमाड़ी दोहा मुक्तिका:

धरs माया पs हात तू, होवे बड़ा पार.
हात थाम कदि साथ दे, सरग लगे संसार..
*
सोन्ना को अंबर लगs, काली माटी म्हांर.
नेह नरमदा हिय मंs, रेवा की जयकार..
*
वउ -बेटी गणगौर छे, संझा-भोर तिवार.
हर मइमां भगवान छे, दिल को खुलो किवार..
*
'सलिल' अगाड़ी दुखों मंs, मन मं धीरज धार.
और पिछाड़ी सुखों मंs, मनख रहां मन मार..
*
सिंगा की सरकार छे, ममता को दरबार.
'सलिल' नित्य उच्चार ले, जय-जय-जय ओंकार..
*
लीम-बबुल को छावलो, सिंगा को दरबार.
शरत चाँदनी कपासी, खेतों को सिंगार..
*
मतवाला किरसाण ने, मेहनत मन्त्र उचार.
सरग बनाया धरा को, किस्मत घणी सँवार..
*
नाग जिरोती रंगोली, 'सलिल' निमाड़ी प्यार.
घट्टी ऑटो पीसती, गीत गूंजा भमसार..
*
रयणो खाणों नाचणो, हँसणो वार-तिवार.
गीत निमाड़ी गावणो, चूड़ी री झंकार..
*
कथा-कवाड़ा वाsर्ता, भरसा रस की धार.
हिंदी-निम्माड़ी 'सलिल', बहिनें करें जगार..

******************************

३.  (अभिनव प्रयोग)

दोहा मुक्तिका

'सलिल'
*
तुमको मालूम ही नहीं शोलों की तासीर।
तुम क्या जानो ख्वाब की कैसे हो ताबीर?

बहरे मिलकर सुन रहे गूँगों की तक़रीर।
बिलख रही जम्हूरियत, सिसक रही है पीर।

दहशतगर्दों की हुई है जबसे तक्सीर
वतनपरस्ती हो गयी खतरनाक तक्सीर।

फेंक द्रौपदी खुद रही फाड़-फाड़ निज चीर।
भीष्म द्रोण कूर कृष्ण संग, घूरें पांडव वीर।

हिम्मत मत हारें- करें, सब मिलकर तदबीर।
प्यार-मुहब्बत ही रहे मजहब की तफसीर।

सपनों को साकार कर, धरकर मन में धीर।
हर बाधा-संकट बने, पानी की प्राचीर।

हिंद और हिंदी करे दुनिया को तन्वीर।
बेहतर से बेहतर बने इन्सां की तस्वीर।

हाय! सियासत रह गयी, सिर्फ स्वार्थ-तज़्वीर।
खिदमत भूली, कर रही बातों की तब्ज़ीर।

तरस रहा मन 'सलिल' दे वक़्त एक तब्शीर।
शब्दों के आगे झुके, जालिम की शमशीर।

*********************************
तासीर = असर/ प्रभाव, ताबीर = कहना, तक़रीर = बात/भाषण, जम्हूरियत = लोकतंत्र, दहशतगर्दों = आतंकवादियों, तकसीर = बहुतायत, वतनपरस्ती = देशभक्ति, तकसीर = दोष/अपराध, तदबीर = उपाय, तफसीर = व्याख्या, तनवीर = प्रकाशित, तस्वीर = चित्र/छवि, ताज्वीर = कपट, खिदमत = सेवा, कौम = समाज, तब्जीर = अपव्यय, तब्शीर = शुभ-सन्देश, ज़ालिम = अत्याचारी, शमशीर = तलवार..

४. गीतिका

आदमी ही भला मेरा गर करेंगे.
बदी करने से तारे भी डरेंगे.

बिना मतलब मदद कर दे किसी की
दुआ के फूल तुझ पर तब झरेंगे.

कलम थामे, न जो कहते हकीकत
समय से पहले ही बेबस मरेंगे।

नरमदा नेह की जो नहाते हैं
बिना तारे किसी के खुद तरेंगे।

न रुकते जो 'सलिल' सम सतत बहते
सुनिश्चित मानिये वे जय वरेंगे।
*********************************

५. मुक्तिका

तितलियाँ
*

यादों की बारात तितलियाँ.
कुदरत की सौगात तितलियाँ..

बिरले जिनके कद्रदान हैं.
दर्द भरे नग्मात तितलियाँ..

नाच रहीं हैं ये बिटियों सी
शोख-जवां ज़ज्बात तितलियाँ..

बद से बदतर होते जाते.
जो, हैं वे हालात तितलियाँ..

कली-कली का रस लेती पर
करें न धोखा-घात तितलियाँ..

हिल-मिल रहतीं नहीं जानतीं
क्या हैं शाह औ' मात तितलियाँ..

'सलिल' भरोसा कर ले इन पर
हुईं न आदम-जात तितलियाँ..
*********************************

७. जनक छंदी मुक्तिका:
सत-शिव-सुन्दर सृजन कर
*

सत-शिव-सुन्दर सृजन कर,
नयन मूँद कर भजन कर-
आज न कल, मन जनम भर.
               
                   कौन यहाँ अक्षर-अजर?
                   कौन कभी होता अमर?
                   कोई नहीं, तो क्यों समर?

किन्तु परन्तु अगर-मगर,
लेकिन यदि- संकल्प कर
भुला चला चल डगर पर.

                   तुझ पर किसका क्या असर?
                   तेरी किस पर क्यों नज़र?
                   अलग-अलग जब रहगुज़र.

किसकी नहीं यहाँ गुजर?
कौन न कर पाता बसर?
वह! लेता सबकी खबर.

                    अपनी-अपनी है डगर.
                    एक न दूजे सा बशर.
                    छोड़ न कोशिश में कसर.

बात न करना तू लचर.
पाना है मंजिल अगर.
आस न तजना उम्र भर.

                     प्रति पल बन-मिटती लहर.
                     ज्यों का त्यों रहता गव्हर.
                     देख कि किसका क्या असर?

कहे सुने बिन हो सहर.
तनिक न टलता है प्रहर.
फ़िक्र न कर खुद हो कहर.

                       शब्दाक्षर का रच शहर.
                       बहे भाव की नित नहर.
                       ग़ज़ल न कहना बिन बहर.

'सलिल' समय की सुन बजर.
साथ अमन के है ग़दर.
तनिक न हो विचलित शजर.

*************************************

सोमवार, 25 अक्टूबर 2010

मुक्तिका: यादों का दीप संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

यादों का दीप

संजीव 'सलिल'
*
हर स्मृति मन-मंदिर में यादों का दीप जलाती है.
पीर बिछुड़ने से उपजी जो उसे तनिक सहलाती है..

'आता हूँ' कह चला गया जो फिर न कभी भी आने को.
आये न आये, बात अजाने, उसको ले ही आती है..

सजल नयन हो, वाणी नम हो, कंठ रुद्ध हो जाता है.
भाव भंगिमा हर, उससे नैकट्य मात्र दिखलाती है..

आनी-जानी है दुनिया कोई न हमेशा साथ रहे.
फिर भी ''साथ सदा होंगे'' कह यह दुनिया भरमाती है..

दीप तुम्हारी याद हुई, मैं दीपावली मनाऊँगा. दुनिया देखे-लेखे स्मृति जीवन-पथ दिखलाती है..

मन में मन की याद बसी है, गहरी निकल न पायेगी.
खलिश-चुभन पाथेय 'सलिल' बिछुड़े से पुनः मिलाती है..

मन मीरा या बने राधिका, पल-पल तुमको याद करे.
स्वास-आस में याद नेह बन नित नर्मदा बहाती है..
*
नर्मदा = नर्मम ददाति इति नर्मदा = जो मन-प्राणों को आनंद दे वह नर्मदा.

मुक्तिका: आँख में संजीव 'सलिल

मुक्तिका:

आँख में

संजीव 'सलिल'
*
जलती, बुझती न, पलती अगन आँख में.
सह न पाता है मन क्यों तपन आँख में ??

राम का राज लाना है कहते सभी.
दीन की कोई देखे  मरन आँख में..

सूरमा हो बड़े, सारे जग से लड़े.
सह न पाए तनिक सी चुभन आँख में..

रूप ऊषा का निर्मल कमलवत खिला
मुग्ध सूरज हुआ ले किरन आँख में..

मौन कैसे रहें?, अनकहे भी कहें-
बस गये हैं नयन के नयन आँख में..

ढाई आखर की अँजुरी लिये दिल कहे
दिल को दिल में दो अशरन शरन आँख में..

ज्यों की त्यों रह न पायी, है चादर मलिन
छवि तुम्हारी है तारन-तरन आँख में..

कर्मवश बूँद बन, गिर, बहा, फिर उड़ा.
जा मिला फिर 'सलिल' ले लगन आँख में..

साँवरे-बाँवरे रह न अब दूर रख-
यह 'सलिल' ही रहे आचमन, आँख में..

******************************

शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

मुक्तिका: पथ पर पग संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:


पथ पर पग


संजीव 'सलिल'
*
पथ पर पग भरमाये अटके.
चले पंथ पर जो बे-खटके..

हो सराहना उनकी भी तो
सफल नहीं जो लेकिन भटके..

ऐसों का क्या करें भरोसा
जो संकट में गुप-चुप सटके..

दिल को छूती वह रचना जो
बिम्ब समेटे देशज-टटके..

हाथ न तुम फौलादी थामो.
जान न पाये कब दिल चटके..

शूलों से कलियाँ हैं घायल.
लाख़ बचाया दामन हट के..

गैरों से है नहीं शिकायत
अपने हैं कारण संकट के..

स्वर्णपदक के बने विजेता.
पाठ्य पुस्तकों को रट-रट के..

मल्ल कहाने से पहले कुछ
दाँव-पेंच भी सीखो जट के..

हों मतान्तर पर न मनांतर
काया-छाया चलतीं सट के..

चौपालों-खलिहानों से ही
पीड़ित 'सलिल' पंथ पनघट के
************************

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

लेख : मुक्तिका क्या है? --संजीव 'सलिल'

लेख : मुक्तिका क्या है?


संजीव 'सलिल'
*
- मुक्तिका वह पद्य रचना है जिसका-

१. प्रथम, द्वितीय तथा उसके बाद हर सम या दूसरा पद पदांत तथा तुकांत युक्त होता है.

२. हर पद का पदभार हिंदी मात्रा गणना के अनुसार समान होता है. यह मात्रिक छन्द में निबद्ध पद्य रचना है.

३. मुक्तिका का कोई एक या कुछ निश्चित छंद नहीं हैं. इसे जिस छंद में रचा जाता है उसके शैल्पिक नियमों का पालन किया जाता है.

४.हाइकु मुक्तिका में हाइकु के सामान्यतः प्रचलित ५-७-५ मात्राओं के शिल्प का पालन किया जाता है, दोहा मुक्तिका में दोहा, सोरठा मुक्तिका में सोरठा, रोला मुक्तिका में रोला छंदों के नियमों का पालन किया जाता है.

५. मुक्तिका का प्रधान लक्षण यह है कि उसकी हर द्विपदी अलग-भाव-भूमि या विषय से सम्बद्ध होती है अर्थात अपने आपमें मुक्त होती है. एक द्विपदी का अन्य द्विपदीयों से सामान्यतः कोई सम्बन्ध नहीं होता.

६. किसी विषय विशेष पर केन्द्रित मुक्तिका की द्विपदियाँ केन्द्रीय विषय के आस-पास होने पर भी आपस में असम्बद्ध होती हैं.

७. मुक्तिका को अनुगीत, तेवरी, गीतिका, हिन्दी ग़ज़ल आदि भी कहा गया है.

गीतिका हिन्दी का एक छंद विशेष है अतः, गीत के निकट होने पर भी इसे गीतिका कहना उचित नहीं है.

तेवरी शोषण और विद्रूपताओं के विरोध में विद्रोह और परिवर्तन की भाव -भूमि पर रची जाती है. ग़ज़ल का शिल्प होने पर भी तेवरी के अपनी स्वतंत्र पहचान है.

हिन्दी ग़ज़ल के विविध रूपों में से एक मुक्तिका है. मुक्तिका उर्दू गजल की किसी बहर पर भी आधारित हो सकती है किन्तु यह उर्दू ग़ज़ल की तरह चंद लय-खंडों (बहरों) तक सीमित नहीं है.

इसमें मात्रा या शब्द गिराने अथवा लघु को गुरु या गुरु को लघु पढने की छूट नहीं होती.

************************

रविवार, 17 अक्टूबर 2010

मुक्तिका : बन-ठन कर संजीव 'सलिल'

मुक्तिका :

बन-ठन कर

संजीव 'सलिल'
*
बन-ठन कर निकले हो घर से किसका चित्त लुभाना है
अधर-बाँसुरी, मन-मैया, राधा संग रास रचाना है.

प्रिय-दर्शन की आस न छूटे, कागा खाले सारा तन.

तुझको सौं दो नैन न छुइयो, पी की छवि झलकाना है..

नगर ढिंढोरा पीट-पीटकर, साँच कहूँ मैं हार गई.

रे घनश्याम सलोने तुझको पाना, खुद खो जाना है..

कुब्जा, कृष्णा,  कुंती, विदुरानी जैसे मन-बस छलिये!

मुझे न लम्बी पटरानी-सूची में नाम लिखाना है..

खलिश दर्द दुःख पीर, स्वजन बन तेरी याद कराते हैं. 

सिर-आँखों पर विहँस चढ़ाऊँ, तुझको नहीं भुलाना है..

मेरा क्या बदनामी तो तेरी ही होगी सब जग में.

दर्शन दे, ना दे मुझको तुझमें ही ध्यान लगाना है..

शीत, ग्रीष्म, बरसात कोई मौसम हो मुझको क्या लेना?

मन धरती पर प्रीत-बेल बो अश्रु-'सलिल' छलकाना है..

शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010

मुक्तिका: कुछ पड़े हैं ----संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

कुछ पड़े हैं

संजीव 'सलिल'
*
कुछ पड़े हैं, कुछ खड़े हैं.
ऐंठकर कुछ चुप अड़े हैं..

बोल दो, कुछ भी कहीं भी.
ज्यों की त्यों चिकने घड़े हैं..

चमक ऊपर से बहुत है.
किन्तु भीतर से सड़े हैं.. 

हाथ थामे, गले मिलते.
किन्तु मन से मन लड़े हैं..

ठूंठ को नीरस न बोलो.
फूल-फल लगकर झड़े हैं..

धरा के मालिक बने जो.
वह जमीनों में गड़े हैं..

मैल गर दिल में नहीं तो
प्रभु स्वयम बन नग जड़े हैं..

दिख रहे जो 'सलिल' लड़ते.
एक ही दल के धड़े हैं.

**************

मंगलवार, 12 अक्टूबर 2010

मुक्तिका शक न उल्फत पर संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

शक न उल्फत पर

संजीव 'सलिल'
*
शक न उल्फत पर मुझे, विश्वास पर शक आपको.
किया आँसू पर भरोसा, हास पर शक आपको..

जंगलों से दूरियाँ हैं, घास पर शक आपको.
पर्वतों को खोदकर है, त्रास पर शक आपको..

मंजिलों से क्या शिकायत?, कदम चूमेंगी सदा.
गिला कोशिश को है इतना, आस पर शक आपको..

आम तो है आम, रहकर मौन करता काम है.
खासियत उस पर भरोसा, खास पर शक आपको..

दर्द, पीड़ा, खलिश ही तो, मुक्तिका का मूल है.
तृप्ति कैसे मिल सके?, जब प्यास पर शक आपको..

कंस ने कान्हा से पाला बैर- था संदेह भी.
आप कान्हा-भक्त? गोपी-रास पर शक आपको..

मौज करता रहा जो, उस पर नजर उतनी न थी.
हाय! तप-बलिदान पर, उपवास पर शक आपको..

बहू तो संदेह के घेरे में हर युग में रही.
गज़ब यह कैसा? हुआ है सास पर शक आपको..

भेष-भूषा, क्षेत्र-भाषा, धर्म की है भिन्नता.
हमेशा से, अब हुआ सह-वास पर शक आपको..

गले मिलने का दिखावा है न, चाहत है दिली.
हाथ में है हाथ, पर अहसास पर शक आपको..

राजगद्दी पर तिलक हो, या न हो चिंता नहीं.
फ़िक्र का कारण हुआ, वन-वास पर शक आपको..    

बादशाहों-लीडरों पर यकीं कर धोखा मिला.
छाछ पीते फूँक, है रैदास पर शक आपको..


पतझड़ों पर कर भरोसा, 'सलिल' बहता ही रहा.
बादलों कुछ कहो, क्यों मधुमास पर शक आपको??

सूर्य शशि तारागणों की चाल से वाकिफ 'सलिल'.
आप भी पर हो रहा खग्रास पर शक आपको..

दुश्मनों पर किया, जायज है, करें, करते रहें.
'सलिल' यह तो हद हुई, रनिवास पर शक आपको..
***

सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

मुक्तिका: किस्मत को...... ----संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

किस्मत को मत रोया कर.

संजीव 'सलिल'
*
किस्मत को मत रोया कर.
प्रति दिन फसलें बोया कर..

श्रम सीकर पावन गंगा.
अपना बदन भिगोया कर..

बहुत हुआ खुद को ठग मत
किन्तु, परन्तु, गोया कर..

मन-पंकज करना है तो,
पंकिल पग कुछ धोया कर..

कुछ दुनियादारी ले सीख.
व्यर्थ न पुस्तक ढोया कर..

'सलिल' देखने स्वप्न मधुर
बेच के घोड़ा सोया कर..

********************

शनिवार, 2 अक्टूबर 2010

मुक्तिका: खिलेंगे फूल..... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

खिलेंगे फूल.....

संजीव 'सलिल'
*
खिलेंगे फूल-लाखों बाग़ में, कुछ खार तो होंगे.
चुभेंगे तिलमिलायेंगे, लिये गलहार तो होंगे..

लिखे जब निर्मला मति, सत्य कुछ साकार तो होंगे.
पढेंगे शब्द हम, अभिव्यक्त कारोबार  तो होंगे..

करें हम अर्थ लेकिन अनर्थों से बचें, है मुमकिन.
बनेंगे राम राजा, सँग रजक-दरबार तो होंगे..

वो नटवर है, नचैया है, नचातीं गोपियाँ उसको.
बजाएगा मधुर मुरली, नयन रतनार तो होंगे..

रहा है कौन ज़ालिम इस धरा पर हमेशा बोलो?
करेगा ज़ुल्म जब-जब तभी कुछ प्रतिकार तो होंगे..

समय को दोष मत दो, गलत घटता है अगर कुछ तो.
रहे निज फ़र्ज़ से गाफिल, 'सलिल' किरदार तो होंगे..

कलम कपिला बने तो, अमृत की रसधार हो प्रवहित.
'सलिल' का नमन लें, अब हाथ-बन्दनवार तो होंगे..


***********************************

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

दो गीत : श्री प्रकाश शुक्ल


दो गीत :

श्री प्रकाश शुक्ल                                             

१. 

जाने क्यों यह मन में आया......

प्रकृति जननि आँचल में अपने, भरे हुए अनगिनत सुसाधन
चर-अचर सभी जिन पर आश्रित, करते सुचारू जीवनयापन  

बढ़ती आबादी, अतिशय दोहन, उचित और अनुचित प्रयोग
साधन नित हो रहे संकुचित, दिन प्रतिदिन बढ़ता उपभोग   

जर्जर काया, शक्ति हीन, माँ, साथ निभाएगी कब तक?
दुख है, भाव, , जाने क्यों यह, मन में आया अब  तक
 
प्रकृति गोद में अब तक जो, पलते रहे हरित द्रुम दल
यान, वाहनों की फुफकारें, जला रहीं उनको  प्रतिपल  

असमय उनका निधन देख, तमतमा रहा माँ का चेहरा
ऋतुएं बदलीं, हिमगिरि पिघले, दैवी प्रकोप, आकर  ठहरा  

प्राकृत संरक्षण है अपरिहार्य, मानव जीवन सार्थक जब तक
दुख है, भाव, ,  जाने क्यों यह, मन में आया अब  तक               

हम सचेत, उद्यमी, क्रियात्मक, आत्मसात सारा विश्लेषण
भूमण्डलीय ताप बढ़ने के कारण, मानवजन्य उपकरण                                                 
सामूहिक सद्भाव  सहित, खोजेंगे   हल उतम  प्रगाड़
गतिविधियाँ  वर्जित होंगी, परिमण्डल रखतीं जो बिगाड़

निश्चित उद्देश्य पूरे हों , कटिबद्ध रहेंगे हम तब तक
दुख है, भाव, , जाने क्यों यह, मन में आया अब  तक 
 
२.

जाने क्यों यह मन में आया

"जाने क्यों यह मन में आया?" अभी-अभी तत्पर
क्या होता नवगीत, विधा क्या, क्या कुछ शोध हुई इस पर?

कौन जनक, उपजा किस युग में, कौन दे रहा इसको संबल?             
प्रश्न अनेकों मन में उपजे, सोया, जाग्रत हुआ  मनोबल.                         

कैसे यह परिभाषित, क्या क्या जुडी हुयी इस से आशाएँ?
हिंदी भाषा होगी समृद्ध , क्या विचक्षणों की  ये  तृष्णाएँ?
                                                                                
शंका रहित प्रश्न यह लगते, सुनकर केवल  मधुर नाम
पर नामों का औचित्य तभी, जब सुखद, मनोरम हो परिणाम 

हिंदी साहित्य सदन में क्या ये, होंगे सुदीप्त दीपक बनकर
जिनकी आभा से आलोकित, सिहर उठे मानव अन्तःस्वर? 
                                                  
कैसे टूटा मानस मन, पायेगा अभीष्ट साहस, शक्ति?
बिना भाव संपूरित जब, होगी केवल रूखी अभिव्यक्ति?

छोड़ रहा हूँ खुले प्रश्न ये, आज प्रबुद्धों के आगे
नवगीतों की रचना में, वांछित क्यों अनजाने धागे.
(टीप: उक्त दोनों गीत ई कविता की समस्या पूर्ति में प्रकाशित हुए थे.
    पाठक इनमें निहित प्रश्नों पर विचार कर उत्तर, सुझाव या अन्य जानकारियाँ बाँटें तो सभी का लाभ होगा. गीत, नवगीत, अगीत, प्रगीत, गद्य गीत आदि पर भी जानकारी आमंत्रित है.-सं.)
*
२८  अगस्त  २०१०

शनिवार, 21 अगस्त 2010

मुक्तिका: बोलने से पहले संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

बोलने से पहले

संजीव 'सलिल'
*
1214530351IS1D2h.jpg





*
बोलने से पहले ले तोल.
बात होगी तब ही अनमोल.

न मन का राज सभी से खोल.
ढोल में सदा रही है पोल..

ठुमकियाँ दें तो उड़े पतंग.
न ज्यादा तान, न देना झोल..

भरोसा कर मत आँखों पर
दिखे भू चपटी पर है गोल..

सत्य होता कड़वा मत बोल.
बोल तो पहले मिसरी घोल..

फिजा बदली है 'सलिल' न भूल.
न बाहर रात-रात भर डोल..

'सलिल' तन मंदिर हो निर्मल.
करे मन-मछली तभी किलोल.
****************
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

मुक्तिका ......... बात करें संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

......... बात करें

संजीव 'सलिल'

*
conversation.jpg



*

बात न मरने की अब होगी, जीने की हम बात करें.
हम जी ही लेंगे जी भरकर, अरि मरने की बात करें.

जो कहने की हो वह करने की भी परंपरा डालें.
बात भले बेबात करें पर मौन न हों कुछ बात करें..

नहीं सियासत हमको करनी, हमें न कोई चिंता है.
फर्क न कुछ, सुनिए मत सुनिए, केवल सच्ची बात करें..

मन से मन पहुँच सके जो, बस ऐसा ही गीत रचें.
कहें मुक्तिका मुक्त हृदय से, कुछ करने की बात करें..

बात निकलती हैं बातों से, बात बात तक जाती है.
बात-बात में बात बनायें, बात न करके बात करें..

मात-घात की बात न हो अब, जात-पांत की बात न हो.
रात मौन की बीत गयी है, तात प्रात की बात करें..

पतियाते तो डर जाते हैं, बतियाते जी जाते हैं.
'सलिल' बात से बात निकालें, मत मतलब की बात करें..
***************
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

हास्य मुक्तिका: बसाई याद जिसकी दिल में संजीव 'सलिल'

हास्य मुक्तिका:

बसाई याद जिसकी दिल में

संजीव 'सलिल'
*











*
बसाई याद जिसकी दिल में हमने वह कसाई है.
धँसे दिल में मिली हमको, हँसी चुप्पी रुलाई है..

उसे चूमा गुंजाया गीत, लिपटाया मिला दोहा.
बिछुड़कर ग़ज़ल कह दी, फिर मिले पाई रुबाई है..

न लेने चैन ही देती, न कुछ आराम करने दे.
जो मूंदूं आँख तो देखूं वो पलकों में समाई है..

नहीं है सिर्फ मेरा प्यार, वह है स्वप्न लाखों का.
मुझे है फख्र उससे ज़माने की महबूबाई है.

न उसका पिंड छोड़ेंगे, न लेने चैन ही देंगे.
नहीं है गैर, कविता से 'सलिल' की आशनाई है.
******************
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

हास्य मुक्तिका: तू इम्तिहां न ले मेरा संजीव 'सलिल

हास्य मुक्तिका:

तू इम्तिहां न ले मेरा

संजीव 'सलिल'
*


















*
तू इम्तिहां न ले मेरा, न मुझको फेल, पास कर.
न आजमाना तू मुझे, गले लगा उजास कर..

न तू मेरा, न मैं तेरा, ये सच तो जानते हैं हम.
न छूट पाये कुर्सियाँ, जुदा न हों प्रयास कर..

जो दूरियाँ हैं उनको रख परे, गले से लग भी जा.
वो कैमरे हैं सामने, आ मिल के अट्टहास कर..

तू कोस लेना फिर मुझे, मैं कोस लूँगा फिर तुझे.
ए भाई मौसेरे मेरे, न सत्यानाश आस कर..

है इब्तिदा न हार तू, न हारना है मुझको भी.
कमीशनों औ' रिश्वतों का लेन-देन ख़ास कर.. 

 
न बात में यकीन कर, है कर्म अपना देवता. 
न अपने-गैर में फरक, हो घोड़ा उनको घास कर..  

 
खलिश-'सलिल' पे कोई न उठ सकेगा उँगलियाँ.
है केर-बेर सँग यह, गोपियों से रास कर..
***********************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

शनिवार, 31 जुलाई 2010

मुक्तिका: प्यार-मुहब्बत नित कीजै.. संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

प्यार-मुहब्बत नित कीजै..

संजीव 'सलिल'
*













*
अंज़ाम भले मरना ही हो हँस प्यार-मुहब्बत नित कीजै..

रस-निधि पाकर रस-लीन हुए, रस-खान बने जी भर भीजै.


जो गिरता वह ही उठता है, जो गिरे न उठना क्या जाने?

उठकर औरों को उठा, न उठने को कोई कन्धा लीजै..


हो वफ़ा दफा दो दिन में तो भी इसमें कोई हर्ज़ नहीं

यादों का खोल दरीचा, जीवन भर न याद का घट छीजै..


दिल दिलवर या कि ज़माना ही, खुश या नाराज़ हो फ़िक्र न कर.

खुश रह तू अपनी दुनिया में, इस तरह कि जग तुझ पर रीझै..


कब आया कोई संग, गया कब साथ- न यह मीजान लगा.

जितने पल जिसका संग मिला, जी भर खुशियाँ दे-ले जीजै..


अमृत या ज़हर कहो कुछ भी पीनेवाले पी जायेंगे.

आनंद मिले पी बार-बार, ऐसे-इतना पी- मत खीजै..


नित रास रचा- दे धूम मचा, ब्रज से यूं.एस. ए.-यूं. के. तक.

हो खलिश न दिल में तनिक 'सलिल' मधुशाला में छककर पीजै..

***********************************************

सोमवार, 19 जुलाई 2010

मुक्तिका: ...लिख दे संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

...लिख दे

संजीव 'सलिल'
*
write-an-abstract-200X200.jpg



*
सच को छिपा कहानी लिख दे.
कुछ साखी, कुछ बानी लिख दे..

लोकनीति पहचानी लिख दे.
राजनीति अनजानी लिख दे..

चतुर न बन नादानी लिख दे.
संयम तज मनमानी लिख दे..

कर चम्बल को नेह नर्मदा.
प्यासा मरुथल पानी लिख दे..

हिन्दी तेरी अपनी माँ है.
कभी संस्कृत नानी लिख दे..

जोड़-जोड़ कर जीवन गुजरा.
अब हाथों पर दानी लिख दे..

जंगल काटे पर्वत खोदे.
'सलिल' धरा है धानी लिखदे..

ढाई आखर 'सलिल' सीख ले.
दुनिया आनी-जानी लिख दे..

'सलिल' तिमिर में तनहाई है
परछाईं बेगानी लिख दे..

*********
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

सोमवार, 12 जुलाई 2010

मुक्तिका: मन में यही... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
मन में यही...
संजीव 'सलिल'
*









*
मन में यही मलाल है.
इंसान हुआ दलाल है..

लेन-देन ही सभ्यता
ऊँच-नीच जंजाल है

फतवा औ' उपदेश भी
निहित स्वार्थ की चाल है..

फर्ज़ भुला हक माँगता
पढ़ा-लिखा कंगाल है..

राजनीति के वाद्य पर
गाना बिन सुर-ताल है.

बहा पसीना जो मिले
रोटी वही हलाल है..

दिल से दिल क्यों मिल रहे?
सोच मूढ़ बेहाल है..

'सलिल' न भय से मौन है.
सिर्फ तुम्हारा ख्याल है..

********************
दिव्यनार्मादा.ब्लागस्पाट.कॉम

शुक्रवार, 25 जून 2010

मुक्तिका: लिखी तकदीर रब ने.......... --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

लिखी तकदीर रब ने...

संजीव वर्मा 'सलिल'
*

















*
लिखी तकदीर रब ने फिर भी  हम तदबीर करते हैं.
फलक उसने बनाया है, मगर हम रंग भरते हैं..

न हमको मौत का डॉ है, न जीने की तनिक चिंता-
न लाते हैं, न ले जाते मगर धन जोड़ मरते हैं..

कमाते हैं करोड़ों पाप कर, खैरात देते दस.
लगाकर भोग तुझको खुद ही खाते और तरते हैं..

कहें नेता- 'करें क्यों पुत्र अपने काम सेना में?
फसल घोटालों-घपलों की उगाते और चरते हैं..

न साधन थे तो फिरते थे बिना कपड़ों के आदम पर-
बहुत साधन मिले तो भी कहो क्यों न्यूड फिरते हैं..

न जीवन को जिया आँखें मिलाकर, सिर झुकाए क्यों?
समय जब आख़िरी आया तो खुद से खुह्द ही डरते हैं..

'सलिल' ने ज़िंदगी जी है, सदा जिंदादिली से ही.
मिले चट्टान तो थमते. नहीं सूराख करते हैं..

****************************************
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

गुरुवार, 24 जून 2010

मुक्तिका: ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो --संजीव 'सलिल'













आज की रचना : मुक्तिका:
:संजीव 'सलिल'


ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो कट जाएगी.

कोशिशें आस को चाहेंगी तो पट जाएगी..


जो भी करना है उसे कल पे न टालो वरना

आयेगा कल न कभी, साँस ही घट जाएगी..


वायदे करना ही फितरत रही सियासत की.

फिर से जो पूछोगे, हर बात से नट जाएगी..


रख के कुछ फासला मिलना, तो खलिश कम होगी.

किसी अपने की छुरी पीठ से सट जाएगी..


दूरियाँ हद से न ज्यादा हों 'सलिल' ध्यान रहे.

खुशी मर जाएगी गर खुद में सिमट जाएगी..


******************************

दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

Acharya Sanjiv Salil